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#PanditTodarmal
महाकवि आशापरके अनुपम व्यक्तिस्वकी तुलना करनेवाला व्यक्तित्व आचार्यकल्प पं० टोडरमलजीका है। इन्हें प्रकृतिप्रदत्त स्मरणशक्ति और मेवा प्राप्त थी | एक प्रकारसे ये स्वयंबुद्ध थे। इनका जन्म जयपुर में हुआ था। पिसाका नाम जोगीदास और माताका नाम रमा या लक्ष्मी था । इनकी जाति स्वण्डेलवाल और गोत्र गोदीका था। ये शैशवसे ही होनहार थे । गत-से-गढ़ शंकाओंका समाधान इनके पास मिलता था । इनकी योग्यता एवं प्रतिभाका ज्ञान तत्कालीन सधर्मी भाई रायमल्लने इन्द्रध्वज पूजाके निमन्त्रणपत्रमें जो उदगार प्रकट किये हैं उनसे स्पष्ट हो जाता है । इन उद्गारोंको ज्यों-का-त्यो दिया जा रहा है
"यहाँ घणां भायां और घणी बायांके व्याकरण व गोम्मटसारजोकी चर्चा का मान पाइए हैं । सारा हो विर्षे भाईजी टोडरमलजीके शानका क्षयोपशम अलौकिक है, जो गोम्मटसारादि ग्रन्थोंकी सम्पूर्ण लाल श्लोक टोका वणाई, और पांच-सास ग्रन्थोंकी टीका बणायवेका उपाय है। न्याय, व्याकरण, गणित, छन्द, अलंकारका यदि ज्ञान पाइये है । ऐसे पुरुष महन्त बृद्धिका धारक ईकाल वि होना दुर्लभ है । ताते यासू मिलें सर्व सन्देह दूर होय है। घणी लिखवा करि कहा आपणां हेतका बांछीक पुरुष शीन आप यांस मिलाप करो।"
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि टोडरमलजी महान विद्वान थे। वे स्वभावसे बड़े नन थे। अहंकार उन्हें छू तक न गया था । इन्हें एक दार्शनिकका मस्तिष्क, श्रद्धालुका हृदय, साघुका जीवन और सैनिककी दृढ़ता मिली थी। इनकी वाणीमें इतना आकर्षण था कि नित्य सहस्रों व्यक्ति इनका शास्त्र प्रवचन सुनने के लिए एकत्र होते थे। गृहस्थ होकर भी गृहस्थी में अनुरक्त नहीं थे। अपनी साधारण आजीविका कर लेने के बाद ये शास्त्रचिन्तनमें रत रहते थे। इनकी प्रतिभा विलक्षण थी । इसका एक प्रमाण यही है कि इन्होंने किसी . से बिना पढ़े हो कन्नड़ लिपिका अभ्यास कर लिया था।
अब तकके उपलब्ध प्रमाणोंके आधारपर इनका जन्म वि.सं. १७६५७ है और मृत्यु सं० १८२४ है । टोडरमलजी आरंभसे ही क्रान्तिकारी और धर्मके स्वच्छ स्वरूपको हृदयंगत करनेवाले थे। इनको शिक्षा-दीक्षाके सम्बन्धमें विशेष जानकारी नहीं है, पर इनके गुरुका नाम वंशोधरजी मैनपुरी बतलाया जाता है । वह आगरासे आकर जयपुर में रहने लगे थे और बालकोंको शिक्षा देते थे । टोडरमल बाल्यकालसे ही प्रतिभाशाली थे । अतएव मुरुको भी उन्हें स्वयंबुद्ध कहना पड़ा था । वि०स० १८११ फाल्गुन शुक्ला पंचमीको १४-१५ वर्षको अवस्थामै अध्यात्मरसिक मुलतानके भाइयोंके नाम चिट्ठी लिखी थी, जो शामजिठी है। राजस्थानके मादी चिदान पंडित देवीदास बोधाने अपने सिद्धान्तसारसंग्रवचनिका ग्रन्थमें इनका परिचय देते हुए लिखा है
"सो दिल्ली पढ़िकर बसुवा आय पाछे जयपुर में थोड़ा दिन टोडरमल्लजी महा बुदिमानके पासि शास्त्र सुनने को मिल्या''......"सो टोडरमलजीके श्रोता विशेष बुद्धिमान दीवान रतनचन्दजी, अजबरायजी, तिलोकचन्दजी पाटणी, महारामजी, विशेष चरचाबान ओसवाल, क्रियावान उदासीन तथा तिलोक चन्द सौगाणी, नयनचन्दजी पाटनी इत्यादि टोडरमलजीके श्रोता विशेष बुद्धि मान तिनके आगे शास्त्रका तो व्याख्यान किया ।"
इस उद्धरणसे टोडरमलजीको शास्त्र-प्रवचन शक्ति एवं विद्वता प्रकट होती है। आरा सिद्धान्त भवनमें संग्रहीत शान्तिनाथपुराणको प्रशस्तिमें टोडरमलजीके सम्बन्धमें जो उल्लेख मिलता है उससे उनके साहित्यिक व्यक्तित्वपर पूरा प्रकाश पड़ता है।
वासी श्री जयपुर तनौ, टोडरमल्ल किपाल ।
ता प्रसंग को पाय के, गह्यो सुपंथ विशाल ।
गोमठसागदिक तने, सिद्धान्तन में सार ।
प्रवर बोध जिनके उदै, महाकवि निरधार ।
फुनि ताके तद दूसरो, राजमल्ल बुधराज ।
जुगल मल्ल जब ये जुरे, और मल्ल किह काज ।
देश ढूंआड आदि दे, सम्बोचे बहु देस ।
रचि रचि ग्रन्थ कठिन किये, 'टोडरमल्ल' महेश ।
माता-पिताको एकमात्र सन्तान होनेके नाते टोडरमल्लजीका बचपन बड़े लाड़-प्यारमें बीता । बालकको व्युत्पन्नमति देखकर इनके माता-पिताने शिक्षाकी विशेष व्यवस्था की और वाराणसीसे एक विद्वानको व्याकरण, दर्शन आदि विषयों को पढ़ाने के लिए बुलाया । अपने विद्यार्थीकी व्युत्पन्नमति और स्मरण शक्ति देखकर गुरुजी भी चकित थे । टोडरमल व्याकरणसूत्रोंको गुरुसे भी अधिक स्पष्ट व्याख्या करके सुना देते थे । छ: मासमें ही इन्होंने जैनेन्द्र व्या करणको पूर्ण कर लिया।
अध्ययन समाप्त करनेके पश्चात् इन्हें धनोपार्जनके लिए सिंहाणा जाना पड़ा । इससे अनुमान लगता है कि इस समय तक इनके पित्ताका स्वर्गवास हो चुका था। वहाँ भी टोडरमलजी अपने कार्यके अतिरिक्त पूरा समय शास्त्र स्वाध्यायमें लगाते थे। कुछ समय पश्चात् रायमल्लजो भी शंका-समाधानार्थ सिंघाणा पहुंचे और इनकी नैसर्गिक प्रतिभा देखकर इन्हें गोम्मटसार'का भाषा नुवाद करने के लिए प्रेरित किया । अल्प समय में ही इन्होंने इसकी भाषाटीका समाप्त कर ली। मात्र १८-१९ वर्षको अवस्था में ही गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणसार एवं त्रिलोकासारक ६५००० लोकप्रमाणको टीका कर इन्होंने जन समूहमें विस्मय भर दिया।
सिंघाणासे जयपुर लौटनेपर इनका विवाह सम्पन्न कर दिया गया। कुछ समय पश्चात् दो पुत्र उत्पन्न हुए | बड़ेका नाम हरिश्चन्द्र और छोटेका नाम गुमानीराम था । इस समय तक टोडरमलजीके व्यक्तित्वका प्रभाव सारे समाज पर व्याप्त हो चुका था और चारों ओर उनकी विद्वत्ताको चर्चा होने लगी थी। यहाँ उन्होंने समाज-सुधार एवं शिथिलाचारके विरुद्ध अपना अभियान शुरू किया | शास्त्रप्रवचन एवं ग्रन्थनिर्माणके माध्यमसे उन्होंने समाजमें नई चेतना एवं नई जागृति उत्पन्न की | इनका प्रवचन तेरहपन्थी बड़े मन्दिरमें प्रतिदिन होता था, जिसमें दीवान रतनचन्द, अजबराय, त्रिलोकचन्द महाराज जैसे विशिष्ट व्यक्ति सम्मिलित होते थे । सारे देशमें उनके शास्त्रप्रवचनकी धूम थी।
टोडरमलका जादू जैसा प्रभाव कुछ व्यक्तियोंके लिए असह्य हो गया । वे उनकी कीलिसे जलने लगे और इस प्रकार उनके विनाशके लिए नित्य प्रति षड्यन्त्र किया जाने लगा। अन्त में वह षड्यन्त्र सफल हुआ और युवावस्था में गौचनकी कीति अन्तिम चरणमें पहुंचने वाली थी कि उन्हें मृत्युका सामना करना पड़ा । सं० १८२४में इन्हें आततायियोंका शिकार होना पड़ा और हंसते. हंसते इन्होंने मृत्युका आलिंगन किया।
टोडरमलजीकी कुल ११ रचनाएँ हैं, जिनमें सात टीका ग्रन्थ और चार मौलिक ग्रन्थ है। मौलिक ग्रन्थों में १, मोक्षमार्गप्रकाशक २. आध्यात्मिक पत्र, ३.अर्थसंदृष्टि और ४. गोम्मटसारपूजा परिगणित हैं । टीकाग्रन्थ निम्न लिखित हैं:
१. गोम्मटसार (जीवकाण्ड)- सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका । यह सं० १८१५में पूर्ण
२. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड)
३. लब्धिसार,,, टीका सं० १८१८में पूर्ण हुई।
४. क्षपणासार-बभिका सरस है।
५ त्रिलोकसार-इस टीकामें गणितको अनेक उपयोगी और विद्वत्तापूर्णचर्चाएं की गई हैं।
६. आत्मानुशासन-यह आध्यात्मिक सरस संस्कृत-ग्रन्य है। इसको बचनिका संस्कृत-टीकाके आधारपर है।
७. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय-इस ग्रन्धको टीका अधूरी ही रह गई है।
१. अर्थसंदष्टि, २. आध्यात्मिक पत्र, ३. गोम्मटसारपूजा और ४. मोक्षमार्ग प्रकाशक ।
इन समस्त रचनाओंमें मोक्षमार्गप्रकाशक सबसे महत्त्वपूर्ण है । यह १ अध्यायों में विभक्त है और इसमें जैनागमका सार निबद्ध है। इस अन्य के स्वा ध्यायसे आगमका सम्यग्ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इस ग्रन्धके प्रथम अधिकारमें उत्तम सुख प्रासिके लिए परम इष्टभहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधका स्वरूप विस्तारसे बतलाया गया है। पंचपरमेष्ठीका स्वरूप समझने के लिए यह अधिकार उपादेय है। द्वितीय अधिकारमें संसारावस्थाका स्वरूप वर्णित है। कर्मबन्धनका निदान, कमोंके अनादिपनकी सिद्धि, जीव-कर्मोकी भिन्नता एवं कथंचित् अभिन्नता, योगसे होनेवाले प्रकृति-प्रदेशबन्ध, कषायसे होनेवाले स्थिति और अनुभाग बन्ध, कोंके फलदानमें निमित्त-नैमित्तिकसम्बन्ध, द्वन्म कर्म और भावक्रमका स्वरूप, जीवको अवस्था आदिका वर्णन है।
तृतीय अधिकारमें संसार-दुःख तथा मोक्षसुखका निरूपण किया गया है। दुःखोंका मूल कारण मिथ्यात्व और मोहनित विषयाभिलाषा है। इससे चारों गतियों में दुःखकी प्राप्ति होती है । चोये अधिकारमें मिथ्यादर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्याचारित्रका निरूपण किया गया है। इष्ट-अनिष्टकी मिथ्या कल्पना राग-द्वेषको प्रवृत्तिके कारण होती है, जो इस प्रवृत्तिका त्याग करता है उसे सुनको प्राप्ति होती है।
पंचम अधिकारमें विविधमत-समीक्षा है। इस अध्यायसे पं० टोडरमलके प्रकाण्ड पाण्डित्य और उनके विशाल ज्ञानकोशका परिचय प्राप्त होता है। इस अध्यायसे यह स्पष्ट है कि सत्यान्वेषी पुरुष विविध मतोंका अध्ययन कर अने कान्तबुद्धिके द्वारा सत्य प्राप्त कर लेता है।
षष्ठ अधिकारमें सस्यत्तत्त्वविरोधी असत्यायतनोंके स्वरूपका विस्तार बतलाया गया है । इसमें यही बतलाया गया है कि मुक्तिके पिपासुको मुक्ति विरोधी तत्वोंका कभी सम्पर्क नहीं करना चाहिए। मिथ्यात्वभावके सेवनसे सत्यका दर्शन नहीं होता।
सप्तम अधिकारमें जेन मिथ्या दृष्टिका विवेचन किया है । जो एकान्त मार्ग का अवलम्बन करता है वह ग्रन्थकारको दृष्टिमें मिथ्यादष्टि है। रागादिकका घटना निर्जराका कारण है और रागादिकका होना बन्धका । जेनाभास, व्यव हारामासके कथनके पश्चात्, तत्त्व और ज्ञानका स्वरूप बतलाया गया है ।
अष्टम अधिकारमें आगमक स्वरका विवलेषण किया है। प्रथभानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोगके स्वरूप और विषयका विवेचन किया गया है। नवम अधिकारमें मोक्षमार्गका स्वरूप, आत्महित, पुरुषार्थसे मोक्षप्राप्ति, सम्यक्त्वके भेद और उसके आठ अंग आदिका कथन आया है।
इस प्रकार पं० टोडरमलने मोक्षमार्गप्रकाशक में जैनतत्त्वज्ञानके समस्त विषयोंका समावेश किया है। यद्यपि उसका मूल विषय मोक्षमार्गका प्रकाशन है; किन्तु प्रकारान्तरसे उसमें कर्मसिद्धान्त, निमित्त-उपादान, स्याद्वाद-अनेकान्त, निश्चय-व्यवहार, पुण्य-पाप, देव और पुरुषार्थपर तास्विक विवेचना निबद्ध की गयी है।
रहस्यपूर्ण चिट्टीमें पं० टोडरमलने अध्यात्मवादको ऊँची बात कही है। सविकल्पके द्वारा निर्विकल्पक परिणाम होनेका विधान करते हुए लिखा है--
"वही सम्यक्रची कदाचित स्वरूप ध्यान करनेको उद्यमी होता है, वहां प्रथम भेदविज्ञान स्वपरका करे, नोकर्म-द्रव्यकर्म-भावकर्म रहित केवल चैतन्य. चमत्कारमात्र अपना स्वरूप जाने; पश्चात् परका भी विचार छूट जाय, केवल स्वात्मविचार ही रहता है। वहाँ अनेक प्रकार निजस्वरूपमें अहंबुद्धि भरता है। चिदानन्द हूँ, शुब हूँ, सिद्ध हूँ, इत्यादिक विचार होनेपर सहज ही आनन्द तरंग उठती है, रोमांच हो पाता है, तत्पश्चात् ऐसा विचार तो छुट जाय, केवल चिन्मात्र स्वरूप भासने लगे; वहाँ सर्वपरिणाम उस रूपमें एकाग्र होकर प्रवर्तते हैं; दर्शन-ज्ञानादिकका , नय-प्रमाणादिकका भी विचार विलय हो जाता है।"चैतन्य स्वरूपका जो संविकल्पसे निश्चय किया था, उस ही में व्याप्य-व्यापक रूप होकर इस प्रकार प्रर्वतता है जहां ध्याता-ध्येयपना दूर हो गया । सो ऐसी दशाका नाम निर्विकल्प अनुभव है । बड़े भवचक्र सम्पने ऐसा ही गहा ह....
तचाणेसणकाले समयं बुज्योहि जुत्तिमम्गेण !
णो आराइण समये पच्चक्खो अणुहवो जम्हा ।।२६६।।"
शुद्ध आत्माको नय-प्रमाण द्वारा अवगत कर जो प्रत्यक्ष अनुभव करता है वह सविकल्पसे निर्विकल्पक स्थितिको प्राप्त होता है। जिस प्रकार रलको खरीदने में अनेक विकल्प करते है, जब प्रत्यक्ष उसे पहनते हैं तब विकल्प नहीं है, पहननेका सुख ही है । इस प्रकार सविकल्पके द्वारा निर्विकल्पका अनुभव होता है। इसी चिट्ठी में प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाणोंके भेदके पश्चात् परिणामों के अनुभवकी चर्चा की गई है । कथनकी पुष्टि के लिए आगमके ग्रन्थोंके प्रमाण भी दिये गये हैं।
टोडरमल गद्यलेखकके साथ कवि भी हैं। उनके कविहृदयका पसा टीकाओं में रचित पद्योंसे प्राप्त होता है। लब्धिसारको टीकाके अन्त में अपना परिचय देते हुए लिखा है
मैं हों जीव गव्य नित्य चेतना स्वरूप मेरो;
लायो है अनादि ते कलंक कर्म-मलको।
बाहीको निमित्त पाय रागादिक भाव भए,
भयो है शरीरको मिलाप जैसे खलको ।
रागादिक भावनको पायके निमित्त पुनि,
होत कर्मबन्ध ऐसो है बनाव कलको ।
ऐसे ही भ्रमत भयो मानुष शरीर जोग,
बने तो बने यहाँ उपाय निज बलको ।।
महाकवि आशापरके अनुपम व्यक्तिस्वकी तुलना करनेवाला व्यक्तित्व आचार्यकल्प पं० टोडरमलजीका है। इन्हें प्रकृतिप्रदत्त स्मरणशक्ति और मेवा प्राप्त थी | एक प्रकारसे ये स्वयंबुद्ध थे। इनका जन्म जयपुर में हुआ था। पिसाका नाम जोगीदास और माताका नाम रमा या लक्ष्मी था । इनकी जाति स्वण्डेलवाल और गोत्र गोदीका था। ये शैशवसे ही होनहार थे । गत-से-गढ़ शंकाओंका समाधान इनके पास मिलता था । इनकी योग्यता एवं प्रतिभाका ज्ञान तत्कालीन सधर्मी भाई रायमल्लने इन्द्रध्वज पूजाके निमन्त्रणपत्रमें जो उदगार प्रकट किये हैं उनसे स्पष्ट हो जाता है । इन उद्गारोंको ज्यों-का-त्यो दिया जा रहा है
"यहाँ घणां भायां और घणी बायांके व्याकरण व गोम्मटसारजोकी चर्चा का मान पाइए हैं । सारा हो विर्षे भाईजी टोडरमलजीके शानका क्षयोपशम अलौकिक है, जो गोम्मटसारादि ग्रन्थोंकी सम्पूर्ण लाल श्लोक टोका वणाई, और पांच-सास ग्रन्थोंकी टीका बणायवेका उपाय है। न्याय, व्याकरण, गणित, छन्द, अलंकारका यदि ज्ञान पाइये है । ऐसे पुरुष महन्त बृद्धिका धारक ईकाल वि होना दुर्लभ है । ताते यासू मिलें सर्व सन्देह दूर होय है। घणी लिखवा करि कहा आपणां हेतका बांछीक पुरुष शीन आप यांस मिलाप करो।"
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि टोडरमलजी महान विद्वान थे। वे स्वभावसे बड़े नन थे। अहंकार उन्हें छू तक न गया था । इन्हें एक दार्शनिकका मस्तिष्क, श्रद्धालुका हृदय, साघुका जीवन और सैनिककी दृढ़ता मिली थी। इनकी वाणीमें इतना आकर्षण था कि नित्य सहस्रों व्यक्ति इनका शास्त्र प्रवचन सुनने के लिए एकत्र होते थे। गृहस्थ होकर भी गृहस्थी में अनुरक्त नहीं थे। अपनी साधारण आजीविका कर लेने के बाद ये शास्त्रचिन्तनमें रत रहते थे। इनकी प्रतिभा विलक्षण थी । इसका एक प्रमाण यही है कि इन्होंने किसी . से बिना पढ़े हो कन्नड़ लिपिका अभ्यास कर लिया था।
अब तकके उपलब्ध प्रमाणोंके आधारपर इनका जन्म वि.सं. १७६५७ है और मृत्यु सं० १८२४ है । टोडरमलजी आरंभसे ही क्रान्तिकारी और धर्मके स्वच्छ स्वरूपको हृदयंगत करनेवाले थे। इनको शिक्षा-दीक्षाके सम्बन्धमें विशेष जानकारी नहीं है, पर इनके गुरुका नाम वंशोधरजी मैनपुरी बतलाया जाता है । वह आगरासे आकर जयपुर में रहने लगे थे और बालकोंको शिक्षा देते थे । टोडरमल बाल्यकालसे ही प्रतिभाशाली थे । अतएव मुरुको भी उन्हें स्वयंबुद्ध कहना पड़ा था । वि०स० १८११ फाल्गुन शुक्ला पंचमीको १४-१५ वर्षको अवस्थामै अध्यात्मरसिक मुलतानके भाइयोंके नाम चिट्ठी लिखी थी, जो शामजिठी है। राजस्थानके मादी चिदान पंडित देवीदास बोधाने अपने सिद्धान्तसारसंग्रवचनिका ग्रन्थमें इनका परिचय देते हुए लिखा है
"सो दिल्ली पढ़िकर बसुवा आय पाछे जयपुर में थोड़ा दिन टोडरमल्लजी महा बुदिमानके पासि शास्त्र सुनने को मिल्या''......"सो टोडरमलजीके श्रोता विशेष बुद्धिमान दीवान रतनचन्दजी, अजबरायजी, तिलोकचन्दजी पाटणी, महारामजी, विशेष चरचाबान ओसवाल, क्रियावान उदासीन तथा तिलोक चन्द सौगाणी, नयनचन्दजी पाटनी इत्यादि टोडरमलजीके श्रोता विशेष बुद्धि मान तिनके आगे शास्त्रका तो व्याख्यान किया ।"
इस उद्धरणसे टोडरमलजीको शास्त्र-प्रवचन शक्ति एवं विद्वता प्रकट होती है। आरा सिद्धान्त भवनमें संग्रहीत शान्तिनाथपुराणको प्रशस्तिमें टोडरमलजीके सम्बन्धमें जो उल्लेख मिलता है उससे उनके साहित्यिक व्यक्तित्वपर पूरा प्रकाश पड़ता है।
वासी श्री जयपुर तनौ, टोडरमल्ल किपाल ।
ता प्रसंग को पाय के, गह्यो सुपंथ विशाल ।
गोमठसागदिक तने, सिद्धान्तन में सार ।
प्रवर बोध जिनके उदै, महाकवि निरधार ।
फुनि ताके तद दूसरो, राजमल्ल बुधराज ।
जुगल मल्ल जब ये जुरे, और मल्ल किह काज ।
देश ढूंआड आदि दे, सम्बोचे बहु देस ।
रचि रचि ग्रन्थ कठिन किये, 'टोडरमल्ल' महेश ।
माता-पिताको एकमात्र सन्तान होनेके नाते टोडरमल्लजीका बचपन बड़े लाड़-प्यारमें बीता । बालकको व्युत्पन्नमति देखकर इनके माता-पिताने शिक्षाकी विशेष व्यवस्था की और वाराणसीसे एक विद्वानको व्याकरण, दर्शन आदि विषयों को पढ़ाने के लिए बुलाया । अपने विद्यार्थीकी व्युत्पन्नमति और स्मरण शक्ति देखकर गुरुजी भी चकित थे । टोडरमल व्याकरणसूत्रोंको गुरुसे भी अधिक स्पष्ट व्याख्या करके सुना देते थे । छ: मासमें ही इन्होंने जैनेन्द्र व्या करणको पूर्ण कर लिया।
अध्ययन समाप्त करनेके पश्चात् इन्हें धनोपार्जनके लिए सिंहाणा जाना पड़ा । इससे अनुमान लगता है कि इस समय तक इनके पित्ताका स्वर्गवास हो चुका था। वहाँ भी टोडरमलजी अपने कार्यके अतिरिक्त पूरा समय शास्त्र स्वाध्यायमें लगाते थे। कुछ समय पश्चात् रायमल्लजो भी शंका-समाधानार्थ सिंघाणा पहुंचे और इनकी नैसर्गिक प्रतिभा देखकर इन्हें गोम्मटसार'का भाषा नुवाद करने के लिए प्रेरित किया । अल्प समय में ही इन्होंने इसकी भाषाटीका समाप्त कर ली। मात्र १८-१९ वर्षको अवस्था में ही गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणसार एवं त्रिलोकासारक ६५००० लोकप्रमाणको टीका कर इन्होंने जन समूहमें विस्मय भर दिया।
सिंघाणासे जयपुर लौटनेपर इनका विवाह सम्पन्न कर दिया गया। कुछ समय पश्चात् दो पुत्र उत्पन्न हुए | बड़ेका नाम हरिश्चन्द्र और छोटेका नाम गुमानीराम था । इस समय तक टोडरमलजीके व्यक्तित्वका प्रभाव सारे समाज पर व्याप्त हो चुका था और चारों ओर उनकी विद्वत्ताको चर्चा होने लगी थी। यहाँ उन्होंने समाज-सुधार एवं शिथिलाचारके विरुद्ध अपना अभियान शुरू किया | शास्त्रप्रवचन एवं ग्रन्थनिर्माणके माध्यमसे उन्होंने समाजमें नई चेतना एवं नई जागृति उत्पन्न की | इनका प्रवचन तेरहपन्थी बड़े मन्दिरमें प्रतिदिन होता था, जिसमें दीवान रतनचन्द, अजबराय, त्रिलोकचन्द महाराज जैसे विशिष्ट व्यक्ति सम्मिलित होते थे । सारे देशमें उनके शास्त्रप्रवचनकी धूम थी।
टोडरमलका जादू जैसा प्रभाव कुछ व्यक्तियोंके लिए असह्य हो गया । वे उनकी कीलिसे जलने लगे और इस प्रकार उनके विनाशके लिए नित्य प्रति षड्यन्त्र किया जाने लगा। अन्त में वह षड्यन्त्र सफल हुआ और युवावस्था में गौचनकी कीति अन्तिम चरणमें पहुंचने वाली थी कि उन्हें मृत्युका सामना करना पड़ा । सं० १८२४में इन्हें आततायियोंका शिकार होना पड़ा और हंसते. हंसते इन्होंने मृत्युका आलिंगन किया।
टोडरमलजीकी कुल ११ रचनाएँ हैं, जिनमें सात टीका ग्रन्थ और चार मौलिक ग्रन्थ है। मौलिक ग्रन्थों में १, मोक्षमार्गप्रकाशक २. आध्यात्मिक पत्र, ३.अर्थसंदृष्टि और ४. गोम्मटसारपूजा परिगणित हैं । टीकाग्रन्थ निम्न लिखित हैं:
१. गोम्मटसार (जीवकाण्ड)- सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका । यह सं० १८१५में पूर्ण
२. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड)
३. लब्धिसार,,, टीका सं० १८१८में पूर्ण हुई।
४. क्षपणासार-बभिका सरस है।
५ त्रिलोकसार-इस टीकामें गणितको अनेक उपयोगी और विद्वत्तापूर्णचर्चाएं की गई हैं।
६. आत्मानुशासन-यह आध्यात्मिक सरस संस्कृत-ग्रन्य है। इसको बचनिका संस्कृत-टीकाके आधारपर है।
७. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय-इस ग्रन्धको टीका अधूरी ही रह गई है।
१. अर्थसंदष्टि, २. आध्यात्मिक पत्र, ३. गोम्मटसारपूजा और ४. मोक्षमार्ग प्रकाशक ।
इन समस्त रचनाओंमें मोक्षमार्गप्रकाशक सबसे महत्त्वपूर्ण है । यह १ अध्यायों में विभक्त है और इसमें जैनागमका सार निबद्ध है। इस अन्य के स्वा ध्यायसे आगमका सम्यग्ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इस ग्रन्धके प्रथम अधिकारमें उत्तम सुख प्रासिके लिए परम इष्टभहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधका स्वरूप विस्तारसे बतलाया गया है। पंचपरमेष्ठीका स्वरूप समझने के लिए यह अधिकार उपादेय है। द्वितीय अधिकारमें संसारावस्थाका स्वरूप वर्णित है। कर्मबन्धनका निदान, कमोंके अनादिपनकी सिद्धि, जीव-कर्मोकी भिन्नता एवं कथंचित् अभिन्नता, योगसे होनेवाले प्रकृति-प्रदेशबन्ध, कषायसे होनेवाले स्थिति और अनुभाग बन्ध, कोंके फलदानमें निमित्त-नैमित्तिकसम्बन्ध, द्वन्म कर्म और भावक्रमका स्वरूप, जीवको अवस्था आदिका वर्णन है।
तृतीय अधिकारमें संसार-दुःख तथा मोक्षसुखका निरूपण किया गया है। दुःखोंका मूल कारण मिथ्यात्व और मोहनित विषयाभिलाषा है। इससे चारों गतियों में दुःखकी प्राप्ति होती है । चोये अधिकारमें मिथ्यादर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्याचारित्रका निरूपण किया गया है। इष्ट-अनिष्टकी मिथ्या कल्पना राग-द्वेषको प्रवृत्तिके कारण होती है, जो इस प्रवृत्तिका त्याग करता है उसे सुनको प्राप्ति होती है।
पंचम अधिकारमें विविधमत-समीक्षा है। इस अध्यायसे पं० टोडरमलके प्रकाण्ड पाण्डित्य और उनके विशाल ज्ञानकोशका परिचय प्राप्त होता है। इस अध्यायसे यह स्पष्ट है कि सत्यान्वेषी पुरुष विविध मतोंका अध्ययन कर अने कान्तबुद्धिके द्वारा सत्य प्राप्त कर लेता है।
षष्ठ अधिकारमें सस्यत्तत्त्वविरोधी असत्यायतनोंके स्वरूपका विस्तार बतलाया गया है । इसमें यही बतलाया गया है कि मुक्तिके पिपासुको मुक्ति विरोधी तत्वोंका कभी सम्पर्क नहीं करना चाहिए। मिथ्यात्वभावके सेवनसे सत्यका दर्शन नहीं होता।
सप्तम अधिकारमें जेन मिथ्या दृष्टिका विवेचन किया है । जो एकान्त मार्ग का अवलम्बन करता है वह ग्रन्थकारको दृष्टिमें मिथ्यादष्टि है। रागादिकका घटना निर्जराका कारण है और रागादिकका होना बन्धका । जेनाभास, व्यव हारामासके कथनके पश्चात्, तत्त्व और ज्ञानका स्वरूप बतलाया गया है ।
अष्टम अधिकारमें आगमक स्वरका विवलेषण किया है। प्रथभानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोगके स्वरूप और विषयका विवेचन किया गया है। नवम अधिकारमें मोक्षमार्गका स्वरूप, आत्महित, पुरुषार्थसे मोक्षप्राप्ति, सम्यक्त्वके भेद और उसके आठ अंग आदिका कथन आया है।
इस प्रकार पं० टोडरमलने मोक्षमार्गप्रकाशक में जैनतत्त्वज्ञानके समस्त विषयोंका समावेश किया है। यद्यपि उसका मूल विषय मोक्षमार्गका प्रकाशन है; किन्तु प्रकारान्तरसे उसमें कर्मसिद्धान्त, निमित्त-उपादान, स्याद्वाद-अनेकान्त, निश्चय-व्यवहार, पुण्य-पाप, देव और पुरुषार्थपर तास्विक विवेचना निबद्ध की गयी है।
रहस्यपूर्ण चिट्टीमें पं० टोडरमलने अध्यात्मवादको ऊँची बात कही है। सविकल्पके द्वारा निर्विकल्पक परिणाम होनेका विधान करते हुए लिखा है--
"वही सम्यक्रची कदाचित स्वरूप ध्यान करनेको उद्यमी होता है, वहां प्रथम भेदविज्ञान स्वपरका करे, नोकर्म-द्रव्यकर्म-भावकर्म रहित केवल चैतन्य. चमत्कारमात्र अपना स्वरूप जाने; पश्चात् परका भी विचार छूट जाय, केवल स्वात्मविचार ही रहता है। वहाँ अनेक प्रकार निजस्वरूपमें अहंबुद्धि भरता है। चिदानन्द हूँ, शुब हूँ, सिद्ध हूँ, इत्यादिक विचार होनेपर सहज ही आनन्द तरंग उठती है, रोमांच हो पाता है, तत्पश्चात् ऐसा विचार तो छुट जाय, केवल चिन्मात्र स्वरूप भासने लगे; वहाँ सर्वपरिणाम उस रूपमें एकाग्र होकर प्रवर्तते हैं; दर्शन-ज्ञानादिकका , नय-प्रमाणादिकका भी विचार विलय हो जाता है।"चैतन्य स्वरूपका जो संविकल्पसे निश्चय किया था, उस ही में व्याप्य-व्यापक रूप होकर इस प्रकार प्रर्वतता है जहां ध्याता-ध्येयपना दूर हो गया । सो ऐसी दशाका नाम निर्विकल्प अनुभव है । बड़े भवचक्र सम्पने ऐसा ही गहा ह....
तचाणेसणकाले समयं बुज्योहि जुत्तिमम्गेण !
णो आराइण समये पच्चक्खो अणुहवो जम्हा ।।२६६।।"
शुद्ध आत्माको नय-प्रमाण द्वारा अवगत कर जो प्रत्यक्ष अनुभव करता है वह सविकल्पसे निर्विकल्पक स्थितिको प्राप्त होता है। जिस प्रकार रलको खरीदने में अनेक विकल्प करते है, जब प्रत्यक्ष उसे पहनते हैं तब विकल्प नहीं है, पहननेका सुख ही है । इस प्रकार सविकल्पके द्वारा निर्विकल्पका अनुभव होता है। इसी चिट्ठी में प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाणोंके भेदके पश्चात् परिणामों के अनुभवकी चर्चा की गई है । कथनकी पुष्टि के लिए आगमके ग्रन्थोंके प्रमाण भी दिये गये हैं।
टोडरमल गद्यलेखकके साथ कवि भी हैं। उनके कविहृदयका पसा टीकाओं में रचित पद्योंसे प्राप्त होता है। लब्धिसारको टीकाके अन्त में अपना परिचय देते हुए लिखा है
मैं हों जीव गव्य नित्य चेतना स्वरूप मेरो;
लायो है अनादि ते कलंक कर्म-मलको।
बाहीको निमित्त पाय रागादिक भाव भए,
भयो है शरीरको मिलाप जैसे खलको ।
रागादिक भावनको पायके निमित्त पुनि,
होत कर्मबन्ध ऐसो है बनाव कलको ।
ऐसे ही भ्रमत भयो मानुष शरीर जोग,
बने तो बने यहाँ उपाय निज बलको ।।
#PanditTodarmal
आचार्यकल्प पंडित टोडरमल 19वीं शताब्दी (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 30 मई 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 30 May 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
महाकवि आशापरके अनुपम व्यक्तिस्वकी तुलना करनेवाला व्यक्तित्व आचार्यकल्प पं० टोडरमलजीका है। इन्हें प्रकृतिप्रदत्त स्मरणशक्ति और मेवा प्राप्त थी | एक प्रकारसे ये स्वयंबुद्ध थे। इनका जन्म जयपुर में हुआ था। पिसाका नाम जोगीदास और माताका नाम रमा या लक्ष्मी था । इनकी जाति स्वण्डेलवाल और गोत्र गोदीका था। ये शैशवसे ही होनहार थे । गत-से-गढ़ शंकाओंका समाधान इनके पास मिलता था । इनकी योग्यता एवं प्रतिभाका ज्ञान तत्कालीन सधर्मी भाई रायमल्लने इन्द्रध्वज पूजाके निमन्त्रणपत्रमें जो उदगार प्रकट किये हैं उनसे स्पष्ट हो जाता है । इन उद्गारोंको ज्यों-का-त्यो दिया जा रहा है
"यहाँ घणां भायां और घणी बायांके व्याकरण व गोम्मटसारजोकी चर्चा का मान पाइए हैं । सारा हो विर्षे भाईजी टोडरमलजीके शानका क्षयोपशम अलौकिक है, जो गोम्मटसारादि ग्रन्थोंकी सम्पूर्ण लाल श्लोक टोका वणाई, और पांच-सास ग्रन्थोंकी टीका बणायवेका उपाय है। न्याय, व्याकरण, गणित, छन्द, अलंकारका यदि ज्ञान पाइये है । ऐसे पुरुष महन्त बृद्धिका धारक ईकाल वि होना दुर्लभ है । ताते यासू मिलें सर्व सन्देह दूर होय है। घणी लिखवा करि कहा आपणां हेतका बांछीक पुरुष शीन आप यांस मिलाप करो।"
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि टोडरमलजी महान विद्वान थे। वे स्वभावसे बड़े नन थे। अहंकार उन्हें छू तक न गया था । इन्हें एक दार्शनिकका मस्तिष्क, श्रद्धालुका हृदय, साघुका जीवन और सैनिककी दृढ़ता मिली थी। इनकी वाणीमें इतना आकर्षण था कि नित्य सहस्रों व्यक्ति इनका शास्त्र प्रवचन सुनने के लिए एकत्र होते थे। गृहस्थ होकर भी गृहस्थी में अनुरक्त नहीं थे। अपनी साधारण आजीविका कर लेने के बाद ये शास्त्रचिन्तनमें रत रहते थे। इनकी प्रतिभा विलक्षण थी । इसका एक प्रमाण यही है कि इन्होंने किसी . से बिना पढ़े हो कन्नड़ लिपिका अभ्यास कर लिया था।
अब तकके उपलब्ध प्रमाणोंके आधारपर इनका जन्म वि.सं. १७६५७ है और मृत्यु सं० १८२४ है । टोडरमलजी आरंभसे ही क्रान्तिकारी और धर्मके स्वच्छ स्वरूपको हृदयंगत करनेवाले थे। इनको शिक्षा-दीक्षाके सम्बन्धमें विशेष जानकारी नहीं है, पर इनके गुरुका नाम वंशोधरजी मैनपुरी बतलाया जाता है । वह आगरासे आकर जयपुर में रहने लगे थे और बालकोंको शिक्षा देते थे । टोडरमल बाल्यकालसे ही प्रतिभाशाली थे । अतएव मुरुको भी उन्हें स्वयंबुद्ध कहना पड़ा था । वि०स० १८११ फाल्गुन शुक्ला पंचमीको १४-१५ वर्षको अवस्थामै अध्यात्मरसिक मुलतानके भाइयोंके नाम चिट्ठी लिखी थी, जो शामजिठी है। राजस्थानके मादी चिदान पंडित देवीदास बोधाने अपने सिद्धान्तसारसंग्रवचनिका ग्रन्थमें इनका परिचय देते हुए लिखा है
"सो दिल्ली पढ़िकर बसुवा आय पाछे जयपुर में थोड़ा दिन टोडरमल्लजी महा बुदिमानके पासि शास्त्र सुनने को मिल्या''......"सो टोडरमलजीके श्रोता विशेष बुद्धिमान दीवान रतनचन्दजी, अजबरायजी, तिलोकचन्दजी पाटणी, महारामजी, विशेष चरचाबान ओसवाल, क्रियावान उदासीन तथा तिलोक चन्द सौगाणी, नयनचन्दजी पाटनी इत्यादि टोडरमलजीके श्रोता विशेष बुद्धि मान तिनके आगे शास्त्रका तो व्याख्यान किया ।"
इस उद्धरणसे टोडरमलजीको शास्त्र-प्रवचन शक्ति एवं विद्वता प्रकट होती है। आरा सिद्धान्त भवनमें संग्रहीत शान्तिनाथपुराणको प्रशस्तिमें टोडरमलजीके सम्बन्धमें जो उल्लेख मिलता है उससे उनके साहित्यिक व्यक्तित्वपर पूरा प्रकाश पड़ता है।
वासी श्री जयपुर तनौ, टोडरमल्ल किपाल ।
ता प्रसंग को पाय के, गह्यो सुपंथ विशाल ।
गोमठसागदिक तने, सिद्धान्तन में सार ।
प्रवर बोध जिनके उदै, महाकवि निरधार ।
फुनि ताके तद दूसरो, राजमल्ल बुधराज ।
जुगल मल्ल जब ये जुरे, और मल्ल किह काज ।
देश ढूंआड आदि दे, सम्बोचे बहु देस ।
रचि रचि ग्रन्थ कठिन किये, 'टोडरमल्ल' महेश ।
माता-पिताको एकमात्र सन्तान होनेके नाते टोडरमल्लजीका बचपन बड़े लाड़-प्यारमें बीता । बालकको व्युत्पन्नमति देखकर इनके माता-पिताने शिक्षाकी विशेष व्यवस्था की और वाराणसीसे एक विद्वानको व्याकरण, दर्शन आदि विषयों को पढ़ाने के लिए बुलाया । अपने विद्यार्थीकी व्युत्पन्नमति और स्मरण शक्ति देखकर गुरुजी भी चकित थे । टोडरमल व्याकरणसूत्रोंको गुरुसे भी अधिक स्पष्ट व्याख्या करके सुना देते थे । छ: मासमें ही इन्होंने जैनेन्द्र व्या करणको पूर्ण कर लिया।
अध्ययन समाप्त करनेके पश्चात् इन्हें धनोपार्जनके लिए सिंहाणा जाना पड़ा । इससे अनुमान लगता है कि इस समय तक इनके पित्ताका स्वर्गवास हो चुका था। वहाँ भी टोडरमलजी अपने कार्यके अतिरिक्त पूरा समय शास्त्र स्वाध्यायमें लगाते थे। कुछ समय पश्चात् रायमल्लजो भी शंका-समाधानार्थ सिंघाणा पहुंचे और इनकी नैसर्गिक प्रतिभा देखकर इन्हें गोम्मटसार'का भाषा नुवाद करने के लिए प्रेरित किया । अल्प समय में ही इन्होंने इसकी भाषाटीका समाप्त कर ली। मात्र १८-१९ वर्षको अवस्था में ही गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणसार एवं त्रिलोकासारक ६५००० लोकप्रमाणको टीका कर इन्होंने जन समूहमें विस्मय भर दिया।
सिंघाणासे जयपुर लौटनेपर इनका विवाह सम्पन्न कर दिया गया। कुछ समय पश्चात् दो पुत्र उत्पन्न हुए | बड़ेका नाम हरिश्चन्द्र और छोटेका नाम गुमानीराम था । इस समय तक टोडरमलजीके व्यक्तित्वका प्रभाव सारे समाज पर व्याप्त हो चुका था और चारों ओर उनकी विद्वत्ताको चर्चा होने लगी थी। यहाँ उन्होंने समाज-सुधार एवं शिथिलाचारके विरुद्ध अपना अभियान शुरू किया | शास्त्रप्रवचन एवं ग्रन्थनिर्माणके माध्यमसे उन्होंने समाजमें नई चेतना एवं नई जागृति उत्पन्न की | इनका प्रवचन तेरहपन्थी बड़े मन्दिरमें प्रतिदिन होता था, जिसमें दीवान रतनचन्द, अजबराय, त्रिलोकचन्द महाराज जैसे विशिष्ट व्यक्ति सम्मिलित होते थे । सारे देशमें उनके शास्त्रप्रवचनकी धूम थी।
टोडरमलका जादू जैसा प्रभाव कुछ व्यक्तियोंके लिए असह्य हो गया । वे उनकी कीलिसे जलने लगे और इस प्रकार उनके विनाशके लिए नित्य प्रति षड्यन्त्र किया जाने लगा। अन्त में वह षड्यन्त्र सफल हुआ और युवावस्था में गौचनकी कीति अन्तिम चरणमें पहुंचने वाली थी कि उन्हें मृत्युका सामना करना पड़ा । सं० १८२४में इन्हें आततायियोंका शिकार होना पड़ा और हंसते. हंसते इन्होंने मृत्युका आलिंगन किया।
टोडरमलजीकी कुल ११ रचनाएँ हैं, जिनमें सात टीका ग्रन्थ और चार मौलिक ग्रन्थ है। मौलिक ग्रन्थों में १, मोक्षमार्गप्रकाशक २. आध्यात्मिक पत्र, ३.अर्थसंदृष्टि और ४. गोम्मटसारपूजा परिगणित हैं । टीकाग्रन्थ निम्न लिखित हैं:
१. गोम्मटसार (जीवकाण्ड)- सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका । यह सं० १८१५में पूर्ण
२. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड)
३. लब्धिसार,,, टीका सं० १८१८में पूर्ण हुई।
४. क्षपणासार-बभिका सरस है।
५ त्रिलोकसार-इस टीकामें गणितको अनेक उपयोगी और विद्वत्तापूर्णचर्चाएं की गई हैं।
६. आत्मानुशासन-यह आध्यात्मिक सरस संस्कृत-ग्रन्य है। इसको बचनिका संस्कृत-टीकाके आधारपर है।
७. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय-इस ग्रन्धको टीका अधूरी ही रह गई है।
१. अर्थसंदष्टि, २. आध्यात्मिक पत्र, ३. गोम्मटसारपूजा और ४. मोक्षमार्ग प्रकाशक ।
इन समस्त रचनाओंमें मोक्षमार्गप्रकाशक सबसे महत्त्वपूर्ण है । यह १ अध्यायों में विभक्त है और इसमें जैनागमका सार निबद्ध है। इस अन्य के स्वा ध्यायसे आगमका सम्यग्ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इस ग्रन्धके प्रथम अधिकारमें उत्तम सुख प्रासिके लिए परम इष्टभहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधका स्वरूप विस्तारसे बतलाया गया है। पंचपरमेष्ठीका स्वरूप समझने के लिए यह अधिकार उपादेय है। द्वितीय अधिकारमें संसारावस्थाका स्वरूप वर्णित है। कर्मबन्धनका निदान, कमोंके अनादिपनकी सिद्धि, जीव-कर्मोकी भिन्नता एवं कथंचित् अभिन्नता, योगसे होनेवाले प्रकृति-प्रदेशबन्ध, कषायसे होनेवाले स्थिति और अनुभाग बन्ध, कोंके फलदानमें निमित्त-नैमित्तिकसम्बन्ध, द्वन्म कर्म और भावक्रमका स्वरूप, जीवको अवस्था आदिका वर्णन है।
तृतीय अधिकारमें संसार-दुःख तथा मोक्षसुखका निरूपण किया गया है। दुःखोंका मूल कारण मिथ्यात्व और मोहनित विषयाभिलाषा है। इससे चारों गतियों में दुःखकी प्राप्ति होती है । चोये अधिकारमें मिथ्यादर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्याचारित्रका निरूपण किया गया है। इष्ट-अनिष्टकी मिथ्या कल्पना राग-द्वेषको प्रवृत्तिके कारण होती है, जो इस प्रवृत्तिका त्याग करता है उसे सुनको प्राप्ति होती है।
पंचम अधिकारमें विविधमत-समीक्षा है। इस अध्यायसे पं० टोडरमलके प्रकाण्ड पाण्डित्य और उनके विशाल ज्ञानकोशका परिचय प्राप्त होता है। इस अध्यायसे यह स्पष्ट है कि सत्यान्वेषी पुरुष विविध मतोंका अध्ययन कर अने कान्तबुद्धिके द्वारा सत्य प्राप्त कर लेता है।
षष्ठ अधिकारमें सस्यत्तत्त्वविरोधी असत्यायतनोंके स्वरूपका विस्तार बतलाया गया है । इसमें यही बतलाया गया है कि मुक्तिके पिपासुको मुक्ति विरोधी तत्वोंका कभी सम्पर्क नहीं करना चाहिए। मिथ्यात्वभावके सेवनसे सत्यका दर्शन नहीं होता।
सप्तम अधिकारमें जेन मिथ्या दृष्टिका विवेचन किया है । जो एकान्त मार्ग का अवलम्बन करता है वह ग्रन्थकारको दृष्टिमें मिथ्यादष्टि है। रागादिकका घटना निर्जराका कारण है और रागादिकका होना बन्धका । जेनाभास, व्यव हारामासके कथनके पश्चात्, तत्त्व और ज्ञानका स्वरूप बतलाया गया है ।
अष्टम अधिकारमें आगमक स्वरका विवलेषण किया है। प्रथभानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोगके स्वरूप और विषयका विवेचन किया गया है। नवम अधिकारमें मोक्षमार्गका स्वरूप, आत्महित, पुरुषार्थसे मोक्षप्राप्ति, सम्यक्त्वके भेद और उसके आठ अंग आदिका कथन आया है।
इस प्रकार पं० टोडरमलने मोक्षमार्गप्रकाशक में जैनतत्त्वज्ञानके समस्त विषयोंका समावेश किया है। यद्यपि उसका मूल विषय मोक्षमार्गका प्रकाशन है; किन्तु प्रकारान्तरसे उसमें कर्मसिद्धान्त, निमित्त-उपादान, स्याद्वाद-अनेकान्त, निश्चय-व्यवहार, पुण्य-पाप, देव और पुरुषार्थपर तास्विक विवेचना निबद्ध की गयी है।
रहस्यपूर्ण चिट्टीमें पं० टोडरमलने अध्यात्मवादको ऊँची बात कही है। सविकल्पके द्वारा निर्विकल्पक परिणाम होनेका विधान करते हुए लिखा है--
"वही सम्यक्रची कदाचित स्वरूप ध्यान करनेको उद्यमी होता है, वहां प्रथम भेदविज्ञान स्वपरका करे, नोकर्म-द्रव्यकर्म-भावकर्म रहित केवल चैतन्य. चमत्कारमात्र अपना स्वरूप जाने; पश्चात् परका भी विचार छूट जाय, केवल स्वात्मविचार ही रहता है। वहाँ अनेक प्रकार निजस्वरूपमें अहंबुद्धि भरता है। चिदानन्द हूँ, शुब हूँ, सिद्ध हूँ, इत्यादिक विचार होनेपर सहज ही आनन्द तरंग उठती है, रोमांच हो पाता है, तत्पश्चात् ऐसा विचार तो छुट जाय, केवल चिन्मात्र स्वरूप भासने लगे; वहाँ सर्वपरिणाम उस रूपमें एकाग्र होकर प्रवर्तते हैं; दर्शन-ज्ञानादिकका , नय-प्रमाणादिकका भी विचार विलय हो जाता है।"चैतन्य स्वरूपका जो संविकल्पसे निश्चय किया था, उस ही में व्याप्य-व्यापक रूप होकर इस प्रकार प्रर्वतता है जहां ध्याता-ध्येयपना दूर हो गया । सो ऐसी दशाका नाम निर्विकल्प अनुभव है । बड़े भवचक्र सम्पने ऐसा ही गहा ह....
तचाणेसणकाले समयं बुज्योहि जुत्तिमम्गेण !
णो आराइण समये पच्चक्खो अणुहवो जम्हा ।।२६६।।"
शुद्ध आत्माको नय-प्रमाण द्वारा अवगत कर जो प्रत्यक्ष अनुभव करता है वह सविकल्पसे निर्विकल्पक स्थितिको प्राप्त होता है। जिस प्रकार रलको खरीदने में अनेक विकल्प करते है, जब प्रत्यक्ष उसे पहनते हैं तब विकल्प नहीं है, पहननेका सुख ही है । इस प्रकार सविकल्पके द्वारा निर्विकल्पका अनुभव होता है। इसी चिट्ठी में प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाणोंके भेदके पश्चात् परिणामों के अनुभवकी चर्चा की गई है । कथनकी पुष्टि के लिए आगमके ग्रन्थोंके प्रमाण भी दिये गये हैं।
टोडरमल गद्यलेखकके साथ कवि भी हैं। उनके कविहृदयका पसा टीकाओं में रचित पद्योंसे प्राप्त होता है। लब्धिसारको टीकाके अन्त में अपना परिचय देते हुए लिखा है
मैं हों जीव गव्य नित्य चेतना स्वरूप मेरो;
लायो है अनादि ते कलंक कर्म-मलको।
बाहीको निमित्त पाय रागादिक भाव भए,
भयो है शरीरको मिलाप जैसे खलको ।
रागादिक भावनको पायके निमित्त पुनि,
होत कर्मबन्ध ऐसो है बनाव कलको ।
ऐसे ही भ्रमत भयो मानुष शरीर जोग,
बने तो बने यहाँ उपाय निज बलको ।।
Acharyakalp Pandit Todarmal 19th Century (Prachin)
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