हैशटैग
#Amarkirtigani
अपभ्रंश-कायके रचयिताओंमें अमरकीर्ति गणिका भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। कविको मुनि, गणि और सूरि उपाधियाँ थीं, जिनसे ज्ञात होता है कि वे गृहस्थाश्रम त्यागकर दीक्षित हो गये थे। उनको गुरुपरम्परासे अवगत होता है कि वे माथुरसंघी चन्द्रकीत्तिके मुनीन्द्र के शिष्य थे | गुरुपरम्परा निम्न प्रकार है
अमितगति
शान्तिसेन
अमरसेन
श्रीषण
चन्द्रकीति
अमरकीर्ति
इस गुम-परम्परासे ज्ञात होता है कि महामुनि आचार्य अमितगति इनके पुर्व पुरुष थे, जो अनेक शास्त्रोंके रचयिता, विद्वान और कवि थे | अमर कात्तिने इन्हें 'महामुनि', 'मुनिचूडामणि', 'शमशोलघन' और 'कीत्तिसमर्थ, आदि विशेषणोंसे विभूषित किया है। अमितगति अपने गुणों द्वारा नपतिके मनको आनन्दित करनेवाले थे। ये अमित्तगति प्रसिद्ध आचार्य अमितगति ही हैं, जिनके द्वारा धर्मपरीक्षा, सुभाषितरत्नसन्दोह और भावनाद्वात्रिशिका जैसे ग्रंथ लिखेगये हैं।
आचार्य | चन्द्रकीति |
अमितगतिने अपने सुभाषितरत्नसन्दोहमें अपनेको 'शम-दम-यम-मत्ति', 'चन्द्रशुभोस्कीति' कहा है तथा धर्मपरीक्षामें "प्रथितविशदकीति' विशेषण लगाया है।
अमितगतिके समय में उज्जयिनीका राजा मुंज बड़ा गुणग्राही और साहित्य प्रेमी था । वह अमितगतिके काव्योंको सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और उन्हें मान्यता प्रदान की । यद्यपि अमितगति दिगम्बर मुनि थे, उन्हें राजा-महाराजाओं की कृपाकी आवश्यकता नहीं थी, पर अमितगसिकी काव्य-प्रतिभाके वैशिष्टयके कारण मुंज अमितगतिका सम्मान करता था। इन्हीं अमितगतिकी पांचवीं पोढ़ीमें लगभग १५०-१७५ वर्षोंके पश्चात् अमरकीत्ति हुए | अमरकीसिने शान्तिसेन गणिको प्रशंसामें बताया है कि नरेश भी उनके चरणकमलों में प्रणमन करते थे। श्रीषणसूरि वादिरूपी बनके लिए अग्नि थे । और इसी तरह चन्दकीत्ति वादिरूपी हस्तियोंके लिए सिंह थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि अमरकीत्तिको परम्परा बड़े-बड़े विद्वान मुनि हुए हैं।
अमरकीर्ति का व्यक्तित्व दिगम्बर-मुनिका ब्यक्तित्व है। वे संयमी, जितेन्द्रिय, शीलशिरोमणि, यशस्वी और राजमान्य थे। उनके त्याग और वैदुष्यके समक्ष बड़े-बड़े राजागण नतमस्तक होते थे। वस्तुत: अमरकीर्ति भी अपनी गरु परम्पराके अनुसार प्रसिद्ध कवि थे ।
अमरकीर्ति ने अपनी गुरु-परम्परामें हुए चन्द्रकीत्ति मुनिको अनुज, सहोदर और शिष्य कहा है। इससे यह ध्वनित होता है कि चन्द्रकीति इनके समे भाई थे।
कविने 'षट्कर्मोपदेश' ग्रंथकी प्रशस्तिमें इस ग्रंथका रचनाकाल वि० सं० १२४७ भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी गुरुवार बताया है
बारह-सयह ससत्त-चयालिहिं विक्कम-संबरहु विसालहि ।
गहिमि भदययह पक्खंतरि गुरुवारम्मि च हसि-वासरि ।
इक्के मासे इहु सम्मत्तिउ सह लिहिया आलसु अवहत्यिउ । १४।१८
कविके सरास, गोनामें चायगी नाहिदेगके युग मनरेन्द्रका राज्य था । इतिहाससे सिद्ध है कि इस समय गुजरातमें सोलंकोवंशका राज्य था. जिसकी राजधानी अहिलवाड़ा थी। पर इस वंशके बंदिग्गदेव और उनके पुत्र कृष्णका कोई उल्लेख नहीं मिलता। भीम द्वितीयने अहिलवाड़ाके सिंहासन-पर चि० सं० १२३६ से १२९९ तक राज्य किया ! उनसे पूर्व वहाँ कुमारपालने सं० १२०० से १२३१, अजयपालने १२३१ से १२३४ और मूलराज द्वितीयने १२३४ से १२३६ तक राज्य किया था ।
भीम द्वितीयके पश्चात् वहाँ सोलंकीवंशकी एक शाखा बघेरवंशकी प्रतिक्षित हुई, जिसके प्रथम नरेश विशालदेवने वि० सं० १३०० से १३१८ सक राज्य किया । अनहिलवाड़ामें वि० सं० १२२७ से हो इस बंशका बल बढ़ना आरंभ हुआ था। इस वर्ष में कुमारपालकी माताकी बहिनके पुत्र अर्णराजने अनहिलवाड़ाके निकट बाघेला प्रामका अधिकार प्राप्त किया था । झाप्त होता है कि चालुक्मवंशकी एक शास्त्रा महीकांडा प्रदेशमें प्रतिष्ठित थी और गोदहा या गोना मगरमें अपनी राजधानी स्थापित की थी । कविने वहाँके कृष्ण नरेन्द्रका पर्याप्त वर्णन किया है । बे नीतिज्ञ, बाहरी और भीतरी शत्रुओंके विनाशक और षड्दर्शनके सम्मानकर्ता थे। क्षात्रधर्मके साथ धर्म, परोपकार और दानमें उनको प्रवृत्ति थी ! उनके राज्यमें दुःख, दुर्भिक्ष और रोग कोई जानता ही न था। इस प्रकार ऐतिहासिक निर्देशोंसे भी कविका समय षट्कर्मोपदेशमें उल्लिखित समयके साथ मिल जाता है।
गुरुपरम्पराके अनुसार भी यह समय घटित हो जाता है। अमितगति आचार्यका समय वि० सं० १०५० से १०५३ तक है। इनकी पाँचौं पोढ़ीमें अमरकीत्ति हुए हैं। यदि प्रत्येक पीढ़ीका समय ३० वर्ष भी माना जाय, तो अमरकोत्तिका समय वि० सं० १२२ के लगभग जन्मकाल आता है । षट्कर्मा पदेशको रचनाके समय कविकी उम्र २५-३० वर्ष भी मान ली जाय, तो षटकर्मोपदेशके रचनाकाल के साथ गुरुपरम्पराका समय सिद्ध हो जाता है। अतएव कवि अमरकोत्तिका समय वि० को १३वीं शती सुनिश्चित है।
परमेसरपई गवरस-भरिउ विरइया गेमिणाहहो चरिउ |
अण्णु बि रित्तु सम्वत्थ सहिउ पयइत्थु महावीरहो विहिउ ।
सोयड मारित जसहर णनास पडिमा बमें किय पणासु !
टिप्पणउ धम्मचरियहो पयडु तिह विरइउ जिह बुशेइ जडु ।
सक्कय-सिलोय-विहि-जणियविहीं गुंफियउ सुहासिय-रयण-णिही ।
धम्मोवएस-चूडामणिपस्नु तह झागपईज जि झाणसिक्खु ।
छक्कम्मुबएसे सहुं पबंध किय अट्ट संख सई सच्चसंघ । ६।१०
अर्थात् नवरसोंसे युक्त 'णेमिणाहचरिड', श्लेष अर्थ युक्त 'महावीरचरिउ', पद्धड़िया छन्दमें लिखित 'जसहरचरिउ', जड़ बुद्धियोंको भी बोध प्रदान करने वाला 'धर्मचरित' का टिप्पण, संस्कृत-इलोकोंकी विधि द्वारा आनन्द उत्पन्न करनेवाला 'सुभाषितरत्ननिधि', 'धर्मोपदेशचूडामणि', ध्यानकी शिक्षा देने वाला ध्यानप्रदीप' और षदकर्मोंका परिज्ञान करानेवाला 'षट्कर्मोपदेश' ग्रंथ लिखे हैं । इस आधार पर कविको निम्नलिखित रचनाएँ सिब होती हैं
१. मिणाहचरित (नेमिनाथचरित)
२. महाबीर-चरिङ (महाचोर-चरित)
३ जसहर-चरिउ (यशोधरचरित)
४. धर्मचरित-टिप्पण
. सुभाषितरत्न-निधि
६. धर्मोपदेश-चूडामणि (धम्मोवएसचूडामणि)
७. ध्यान-प्रदीप (झाणपईउ)
८. छक्कम्मुवएस (षट्कर्मोपदेश)
इस ग्रंथमै २५ सन्धियाँ है, जिनको श्लोकसंख्या लगभग ६,८९५ है । इसमें २खें तीर्थंकर नेमिनाथका जीवन-चरित गुम्फित है। प्रसंगवंश कृष्णा और उनके चचेरे भाइयोंका भी जीवन-चरित पाया जाता है। इस ग्रंथको कनिने वि० सं० १२४४ भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशीको समाप्त किया है। वि० सं० १५१२को इसकी प्रति सोनागिरके भट्टारकीय शास्त्रभंडारमें सुरक्षित है।
इस ग्रंथमें १४ सन्धियाँ और २१५ कड़वक हैं । इसका कुल प्रमाण २०५० श्लोक है । कविने इस प्रथमें गृहस्थोंके षट्को -१. देवपूजा, २. गुरुसेवा, ३. स्वाध्याय, ४. संयम, ५. षटकायजीवरक्षा और ६. दानका कधन किया है। विविध कथाओंके सरस विवेचन द्वारा सात तत्त्वोंको स्पष्ट किया गया है। द्वितीय सन्धिसे ९वीं सन्धि तक देवपूजाका विवेचन आया है और उसे नूतनकयारूप दृष्टान्तोंके द्वारा सुगम तथा प्राय बना दिया गया है। दशवीं सन्धिमें जिनपूजाकी कथा दी गई है। और उसकी विधि बतलाकर उद्यापनविधिका भी अंकन किया गया है। ११वीं सन्धिसे १४वीं सन्धि तक इन चार सन्धियोंमें पूजा-विधिके अतिरिक्त शेष पाँच कर्मों का विवेचन किया गया है। षट्कर्मोपदेशकी रचनाके प्रेरक अम्बाप्रसाद बतलाये गये हैं। ये नागरकुलमें उत्पन्न हुए थे। इनके पिताका नाम गुणपाल और माताका नाम चचिणी था। यह ग्रंथ उन्हींको समर्पित किया गया है। प्रत्येक सन्धिके समातिसूचक पुष्पिकावाक्यमें इनका नाम स्मरण किया है । कहीं कहीं अमरकीतिने अम्बाप्रसादको अपना लधु बन्धु और अनुजबन्धु भी कहा है। इससे अनुमान होता है कि कवि अमरकीति भी इसी कुलमें उत्पन्न हुए पे और अम्बाप्रसादके बड़े भाई थे।
कविने इस ग्रंथकी समाप्ति गुर्जर विषयके मध्य महीयड (महीकांडा) देशके गोवा (गोना) नामक नगरके आदीश्वर चैत्यालयमें बैठकर की है। स्पष्टतः 'गुर्जर' गुजरात प्रान्तका बोषक है । अतएव 'महायड' देश वर्तमान महीकाठाऔर 'गोदहय' नगर वर्तमान गोधाका बोधक है। अम्बाप्रसाद संभवत: इसी गोधाके निवासी थे।
कविको शेष रचनाएँ उपलब्ध नहीं है
अपभ्रंश-कायके रचयिताओंमें अमरकीर्ति गणिका भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। कविको मुनि, गणि और सूरि उपाधियाँ थीं, जिनसे ज्ञात होता है कि वे गृहस्थाश्रम त्यागकर दीक्षित हो गये थे। उनको गुरुपरम्परासे अवगत होता है कि वे माथुरसंघी चन्द्रकीत्तिके मुनीन्द्र के शिष्य थे | गुरुपरम्परा निम्न प्रकार है
अमितगति
शान्तिसेन
अमरसेन
श्रीषण
चन्द्रकीति
अमरकीर्ति
इस गुम-परम्परासे ज्ञात होता है कि महामुनि आचार्य अमितगति इनके पुर्व पुरुष थे, जो अनेक शास्त्रोंके रचयिता, विद्वान और कवि थे | अमर कात्तिने इन्हें 'महामुनि', 'मुनिचूडामणि', 'शमशोलघन' और 'कीत्तिसमर्थ, आदि विशेषणोंसे विभूषित किया है। अमितगति अपने गुणों द्वारा नपतिके मनको आनन्दित करनेवाले थे। ये अमित्तगति प्रसिद्ध आचार्य अमितगति ही हैं, जिनके द्वारा धर्मपरीक्षा, सुभाषितरत्नसन्दोह और भावनाद्वात्रिशिका जैसे ग्रंथ लिखेगये हैं।
आचार्य | चन्द्रकीति |
अमितगतिने अपने सुभाषितरत्नसन्दोहमें अपनेको 'शम-दम-यम-मत्ति', 'चन्द्रशुभोस्कीति' कहा है तथा धर्मपरीक्षामें "प्रथितविशदकीति' विशेषण लगाया है।
अमितगतिके समय में उज्जयिनीका राजा मुंज बड़ा गुणग्राही और साहित्य प्रेमी था । वह अमितगतिके काव्योंको सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और उन्हें मान्यता प्रदान की । यद्यपि अमितगति दिगम्बर मुनि थे, उन्हें राजा-महाराजाओं की कृपाकी आवश्यकता नहीं थी, पर अमितगसिकी काव्य-प्रतिभाके वैशिष्टयके कारण मुंज अमितगतिका सम्मान करता था। इन्हीं अमितगतिकी पांचवीं पोढ़ीमें लगभग १५०-१७५ वर्षोंके पश्चात् अमरकीत्ति हुए | अमरकीसिने शान्तिसेन गणिको प्रशंसामें बताया है कि नरेश भी उनके चरणकमलों में प्रणमन करते थे। श्रीषणसूरि वादिरूपी बनके लिए अग्नि थे । और इसी तरह चन्दकीत्ति वादिरूपी हस्तियोंके लिए सिंह थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि अमरकीत्तिको परम्परा बड़े-बड़े विद्वान मुनि हुए हैं।
अमरकीर्ति का व्यक्तित्व दिगम्बर-मुनिका ब्यक्तित्व है। वे संयमी, जितेन्द्रिय, शीलशिरोमणि, यशस्वी और राजमान्य थे। उनके त्याग और वैदुष्यके समक्ष बड़े-बड़े राजागण नतमस्तक होते थे। वस्तुत: अमरकीर्ति भी अपनी गरु परम्पराके अनुसार प्रसिद्ध कवि थे ।
अमरकीर्ति ने अपनी गुरु-परम्परामें हुए चन्द्रकीत्ति मुनिको अनुज, सहोदर और शिष्य कहा है। इससे यह ध्वनित होता है कि चन्द्रकीति इनके समे भाई थे।
कविने 'षट्कर्मोपदेश' ग्रंथकी प्रशस्तिमें इस ग्रंथका रचनाकाल वि० सं० १२४७ भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी गुरुवार बताया है
बारह-सयह ससत्त-चयालिहिं विक्कम-संबरहु विसालहि ।
गहिमि भदययह पक्खंतरि गुरुवारम्मि च हसि-वासरि ।
इक्के मासे इहु सम्मत्तिउ सह लिहिया आलसु अवहत्यिउ । १४।१८
कविके सरास, गोनामें चायगी नाहिदेगके युग मनरेन्द्रका राज्य था । इतिहाससे सिद्ध है कि इस समय गुजरातमें सोलंकोवंशका राज्य था. जिसकी राजधानी अहिलवाड़ा थी। पर इस वंशके बंदिग्गदेव और उनके पुत्र कृष्णका कोई उल्लेख नहीं मिलता। भीम द्वितीयने अहिलवाड़ाके सिंहासन-पर चि० सं० १२३६ से १२९९ तक राज्य किया ! उनसे पूर्व वहाँ कुमारपालने सं० १२०० से १२३१, अजयपालने १२३१ से १२३४ और मूलराज द्वितीयने १२३४ से १२३६ तक राज्य किया था ।
भीम द्वितीयके पश्चात् वहाँ सोलंकीवंशकी एक शाखा बघेरवंशकी प्रतिक्षित हुई, जिसके प्रथम नरेश विशालदेवने वि० सं० १३०० से १३१८ सक राज्य किया । अनहिलवाड़ामें वि० सं० १२२७ से हो इस बंशका बल बढ़ना आरंभ हुआ था। इस वर्ष में कुमारपालकी माताकी बहिनके पुत्र अर्णराजने अनहिलवाड़ाके निकट बाघेला प्रामका अधिकार प्राप्त किया था । झाप्त होता है कि चालुक्मवंशकी एक शास्त्रा महीकांडा प्रदेशमें प्रतिष्ठित थी और गोदहा या गोना मगरमें अपनी राजधानी स्थापित की थी । कविने वहाँके कृष्ण नरेन्द्रका पर्याप्त वर्णन किया है । बे नीतिज्ञ, बाहरी और भीतरी शत्रुओंके विनाशक और षड्दर्शनके सम्मानकर्ता थे। क्षात्रधर्मके साथ धर्म, परोपकार और दानमें उनको प्रवृत्ति थी ! उनके राज्यमें दुःख, दुर्भिक्ष और रोग कोई जानता ही न था। इस प्रकार ऐतिहासिक निर्देशोंसे भी कविका समय षट्कर्मोपदेशमें उल्लिखित समयके साथ मिल जाता है।
गुरुपरम्पराके अनुसार भी यह समय घटित हो जाता है। अमितगति आचार्यका समय वि० सं० १०५० से १०५३ तक है। इनकी पाँचौं पोढ़ीमें अमरकीत्ति हुए हैं। यदि प्रत्येक पीढ़ीका समय ३० वर्ष भी माना जाय, तो अमरकोत्तिका समय वि० सं० १२२ के लगभग जन्मकाल आता है । षट्कर्मा पदेशको रचनाके समय कविकी उम्र २५-३० वर्ष भी मान ली जाय, तो षटकर्मोपदेशके रचनाकाल के साथ गुरुपरम्पराका समय सिद्ध हो जाता है। अतएव कवि अमरकोत्तिका समय वि० को १३वीं शती सुनिश्चित है।
परमेसरपई गवरस-भरिउ विरइया गेमिणाहहो चरिउ |
अण्णु बि रित्तु सम्वत्थ सहिउ पयइत्थु महावीरहो विहिउ ।
सोयड मारित जसहर णनास पडिमा बमें किय पणासु !
टिप्पणउ धम्मचरियहो पयडु तिह विरइउ जिह बुशेइ जडु ।
सक्कय-सिलोय-विहि-जणियविहीं गुंफियउ सुहासिय-रयण-णिही ।
धम्मोवएस-चूडामणिपस्नु तह झागपईज जि झाणसिक्खु ।
छक्कम्मुबएसे सहुं पबंध किय अट्ट संख सई सच्चसंघ । ६।१०
अर्थात् नवरसोंसे युक्त 'णेमिणाहचरिड', श्लेष अर्थ युक्त 'महावीरचरिउ', पद्धड़िया छन्दमें लिखित 'जसहरचरिउ', जड़ बुद्धियोंको भी बोध प्रदान करने वाला 'धर्मचरित' का टिप्पण, संस्कृत-इलोकोंकी विधि द्वारा आनन्द उत्पन्न करनेवाला 'सुभाषितरत्ननिधि', 'धर्मोपदेशचूडामणि', ध्यानकी शिक्षा देने वाला ध्यानप्रदीप' और षदकर्मोंका परिज्ञान करानेवाला 'षट्कर्मोपदेश' ग्रंथ लिखे हैं । इस आधार पर कविको निम्नलिखित रचनाएँ सिब होती हैं
१. मिणाहचरित (नेमिनाथचरित)
२. महाबीर-चरिङ (महाचोर-चरित)
३ जसहर-चरिउ (यशोधरचरित)
४. धर्मचरित-टिप्पण
. सुभाषितरत्न-निधि
६. धर्मोपदेश-चूडामणि (धम्मोवएसचूडामणि)
७. ध्यान-प्रदीप (झाणपईउ)
८. छक्कम्मुवएस (षट्कर्मोपदेश)
इस ग्रंथमै २५ सन्धियाँ है, जिनको श्लोकसंख्या लगभग ६,८९५ है । इसमें २खें तीर्थंकर नेमिनाथका जीवन-चरित गुम्फित है। प्रसंगवंश कृष्णा और उनके चचेरे भाइयोंका भी जीवन-चरित पाया जाता है। इस ग्रंथको कनिने वि० सं० १२४४ भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशीको समाप्त किया है। वि० सं० १५१२को इसकी प्रति सोनागिरके भट्टारकीय शास्त्रभंडारमें सुरक्षित है।
इस ग्रंथमें १४ सन्धियाँ और २१५ कड़वक हैं । इसका कुल प्रमाण २०५० श्लोक है । कविने इस प्रथमें गृहस्थोंके षट्को -१. देवपूजा, २. गुरुसेवा, ३. स्वाध्याय, ४. संयम, ५. षटकायजीवरक्षा और ६. दानका कधन किया है। विविध कथाओंके सरस विवेचन द्वारा सात तत्त्वोंको स्पष्ट किया गया है। द्वितीय सन्धिसे ९वीं सन्धि तक देवपूजाका विवेचन आया है और उसे नूतनकयारूप दृष्टान्तोंके द्वारा सुगम तथा प्राय बना दिया गया है। दशवीं सन्धिमें जिनपूजाकी कथा दी गई है। और उसकी विधि बतलाकर उद्यापनविधिका भी अंकन किया गया है। ११वीं सन्धिसे १४वीं सन्धि तक इन चार सन्धियोंमें पूजा-विधिके अतिरिक्त शेष पाँच कर्मों का विवेचन किया गया है। षट्कर्मोपदेशकी रचनाके प्रेरक अम्बाप्रसाद बतलाये गये हैं। ये नागरकुलमें उत्पन्न हुए थे। इनके पिताका नाम गुणपाल और माताका नाम चचिणी था। यह ग्रंथ उन्हींको समर्पित किया गया है। प्रत्येक सन्धिके समातिसूचक पुष्पिकावाक्यमें इनका नाम स्मरण किया है । कहीं कहीं अमरकीतिने अम्बाप्रसादको अपना लधु बन्धु और अनुजबन्धु भी कहा है। इससे अनुमान होता है कि कवि अमरकीति भी इसी कुलमें उत्पन्न हुए पे और अम्बाप्रसादके बड़े भाई थे।
कविने इस ग्रंथकी समाप्ति गुर्जर विषयके मध्य महीयड (महीकांडा) देशके गोवा (गोना) नामक नगरके आदीश्वर चैत्यालयमें बैठकर की है। स्पष्टतः 'गुर्जर' गुजरात प्रान्तका बोषक है । अतएव 'महायड' देश वर्तमान महीकाठाऔर 'गोदहय' नगर वर्तमान गोधाका बोधक है। अम्बाप्रसाद संभवत: इसी गोधाके निवासी थे।
कविको शेष रचनाएँ उपलब्ध नहीं है
#Amarkirtigani
आचार्यतुल्य अमरकीर्ति गणि 13वीं शताब्दी (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 25 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 25 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
अपभ्रंश-कायके रचयिताओंमें अमरकीर्ति गणिका भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। कविको मुनि, गणि और सूरि उपाधियाँ थीं, जिनसे ज्ञात होता है कि वे गृहस्थाश्रम त्यागकर दीक्षित हो गये थे। उनको गुरुपरम्परासे अवगत होता है कि वे माथुरसंघी चन्द्रकीत्तिके मुनीन्द्र के शिष्य थे | गुरुपरम्परा निम्न प्रकार है
अमितगति
शान्तिसेन
अमरसेन
श्रीषण
चन्द्रकीति
अमरकीर्ति
इस गुम-परम्परासे ज्ञात होता है कि महामुनि आचार्य अमितगति इनके पुर्व पुरुष थे, जो अनेक शास्त्रोंके रचयिता, विद्वान और कवि थे | अमर कात्तिने इन्हें 'महामुनि', 'मुनिचूडामणि', 'शमशोलघन' और 'कीत्तिसमर्थ, आदि विशेषणोंसे विभूषित किया है। अमितगति अपने गुणों द्वारा नपतिके मनको आनन्दित करनेवाले थे। ये अमित्तगति प्रसिद्ध आचार्य अमितगति ही हैं, जिनके द्वारा धर्मपरीक्षा, सुभाषितरत्नसन्दोह और भावनाद्वात्रिशिका जैसे ग्रंथ लिखेगये हैं।
आचार्य | चन्द्रकीति |
अमितगतिने अपने सुभाषितरत्नसन्दोहमें अपनेको 'शम-दम-यम-मत्ति', 'चन्द्रशुभोस्कीति' कहा है तथा धर्मपरीक्षामें "प्रथितविशदकीति' विशेषण लगाया है।
अमितगतिके समय में उज्जयिनीका राजा मुंज बड़ा गुणग्राही और साहित्य प्रेमी था । वह अमितगतिके काव्योंको सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और उन्हें मान्यता प्रदान की । यद्यपि अमितगति दिगम्बर मुनि थे, उन्हें राजा-महाराजाओं की कृपाकी आवश्यकता नहीं थी, पर अमितगसिकी काव्य-प्रतिभाके वैशिष्टयके कारण मुंज अमितगतिका सम्मान करता था। इन्हीं अमितगतिकी पांचवीं पोढ़ीमें लगभग १५०-१७५ वर्षोंके पश्चात् अमरकीत्ति हुए | अमरकीसिने शान्तिसेन गणिको प्रशंसामें बताया है कि नरेश भी उनके चरणकमलों में प्रणमन करते थे। श्रीषणसूरि वादिरूपी बनके लिए अग्नि थे । और इसी तरह चन्दकीत्ति वादिरूपी हस्तियोंके लिए सिंह थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि अमरकीत्तिको परम्परा बड़े-बड़े विद्वान मुनि हुए हैं।
अमरकीर्ति का व्यक्तित्व दिगम्बर-मुनिका ब्यक्तित्व है। वे संयमी, जितेन्द्रिय, शीलशिरोमणि, यशस्वी और राजमान्य थे। उनके त्याग और वैदुष्यके समक्ष बड़े-बड़े राजागण नतमस्तक होते थे। वस्तुत: अमरकीर्ति भी अपनी गरु परम्पराके अनुसार प्रसिद्ध कवि थे ।
अमरकीर्ति ने अपनी गुरु-परम्परामें हुए चन्द्रकीत्ति मुनिको अनुज, सहोदर और शिष्य कहा है। इससे यह ध्वनित होता है कि चन्द्रकीति इनके समे भाई थे।
कविने 'षट्कर्मोपदेश' ग्रंथकी प्रशस्तिमें इस ग्रंथका रचनाकाल वि० सं० १२४७ भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी गुरुवार बताया है
बारह-सयह ससत्त-चयालिहिं विक्कम-संबरहु विसालहि ।
गहिमि भदययह पक्खंतरि गुरुवारम्मि च हसि-वासरि ।
इक्के मासे इहु सम्मत्तिउ सह लिहिया आलसु अवहत्यिउ । १४।१८
कविके सरास, गोनामें चायगी नाहिदेगके युग मनरेन्द्रका राज्य था । इतिहाससे सिद्ध है कि इस समय गुजरातमें सोलंकोवंशका राज्य था. जिसकी राजधानी अहिलवाड़ा थी। पर इस वंशके बंदिग्गदेव और उनके पुत्र कृष्णका कोई उल्लेख नहीं मिलता। भीम द्वितीयने अहिलवाड़ाके सिंहासन-पर चि० सं० १२३६ से १२९९ तक राज्य किया ! उनसे पूर्व वहाँ कुमारपालने सं० १२०० से १२३१, अजयपालने १२३१ से १२३४ और मूलराज द्वितीयने १२३४ से १२३६ तक राज्य किया था ।
भीम द्वितीयके पश्चात् वहाँ सोलंकीवंशकी एक शाखा बघेरवंशकी प्रतिक्षित हुई, जिसके प्रथम नरेश विशालदेवने वि० सं० १३०० से १३१८ सक राज्य किया । अनहिलवाड़ामें वि० सं० १२२७ से हो इस बंशका बल बढ़ना आरंभ हुआ था। इस वर्ष में कुमारपालकी माताकी बहिनके पुत्र अर्णराजने अनहिलवाड़ाके निकट बाघेला प्रामका अधिकार प्राप्त किया था । झाप्त होता है कि चालुक्मवंशकी एक शास्त्रा महीकांडा प्रदेशमें प्रतिष्ठित थी और गोदहा या गोना मगरमें अपनी राजधानी स्थापित की थी । कविने वहाँके कृष्ण नरेन्द्रका पर्याप्त वर्णन किया है । बे नीतिज्ञ, बाहरी और भीतरी शत्रुओंके विनाशक और षड्दर्शनके सम्मानकर्ता थे। क्षात्रधर्मके साथ धर्म, परोपकार और दानमें उनको प्रवृत्ति थी ! उनके राज्यमें दुःख, दुर्भिक्ष और रोग कोई जानता ही न था। इस प्रकार ऐतिहासिक निर्देशोंसे भी कविका समय षट्कर्मोपदेशमें उल्लिखित समयके साथ मिल जाता है।
गुरुपरम्पराके अनुसार भी यह समय घटित हो जाता है। अमितगति आचार्यका समय वि० सं० १०५० से १०५३ तक है। इनकी पाँचौं पोढ़ीमें अमरकीत्ति हुए हैं। यदि प्रत्येक पीढ़ीका समय ३० वर्ष भी माना जाय, तो अमरकोत्तिका समय वि० सं० १२२ के लगभग जन्मकाल आता है । षट्कर्मा पदेशको रचनाके समय कविकी उम्र २५-३० वर्ष भी मान ली जाय, तो षटकर्मोपदेशके रचनाकाल के साथ गुरुपरम्पराका समय सिद्ध हो जाता है। अतएव कवि अमरकोत्तिका समय वि० को १३वीं शती सुनिश्चित है।
परमेसरपई गवरस-भरिउ विरइया गेमिणाहहो चरिउ |
अण्णु बि रित्तु सम्वत्थ सहिउ पयइत्थु महावीरहो विहिउ ।
सोयड मारित जसहर णनास पडिमा बमें किय पणासु !
टिप्पणउ धम्मचरियहो पयडु तिह विरइउ जिह बुशेइ जडु ।
सक्कय-सिलोय-विहि-जणियविहीं गुंफियउ सुहासिय-रयण-णिही ।
धम्मोवएस-चूडामणिपस्नु तह झागपईज जि झाणसिक्खु ।
छक्कम्मुबएसे सहुं पबंध किय अट्ट संख सई सच्चसंघ । ६।१०
अर्थात् नवरसोंसे युक्त 'णेमिणाहचरिड', श्लेष अर्थ युक्त 'महावीरचरिउ', पद्धड़िया छन्दमें लिखित 'जसहरचरिउ', जड़ बुद्धियोंको भी बोध प्रदान करने वाला 'धर्मचरित' का टिप्पण, संस्कृत-इलोकोंकी विधि द्वारा आनन्द उत्पन्न करनेवाला 'सुभाषितरत्ननिधि', 'धर्मोपदेशचूडामणि', ध्यानकी शिक्षा देने वाला ध्यानप्रदीप' और षदकर्मोंका परिज्ञान करानेवाला 'षट्कर्मोपदेश' ग्रंथ लिखे हैं । इस आधार पर कविको निम्नलिखित रचनाएँ सिब होती हैं
१. मिणाहचरित (नेमिनाथचरित)
२. महाबीर-चरिङ (महाचोर-चरित)
३ जसहर-चरिउ (यशोधरचरित)
४. धर्मचरित-टिप्पण
. सुभाषितरत्न-निधि
६. धर्मोपदेश-चूडामणि (धम्मोवएसचूडामणि)
७. ध्यान-प्रदीप (झाणपईउ)
८. छक्कम्मुवएस (षट्कर्मोपदेश)
इस ग्रंथमै २५ सन्धियाँ है, जिनको श्लोकसंख्या लगभग ६,८९५ है । इसमें २खें तीर्थंकर नेमिनाथका जीवन-चरित गुम्फित है। प्रसंगवंश कृष्णा और उनके चचेरे भाइयोंका भी जीवन-चरित पाया जाता है। इस ग्रंथको कनिने वि० सं० १२४४ भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशीको समाप्त किया है। वि० सं० १५१२को इसकी प्रति सोनागिरके भट्टारकीय शास्त्रभंडारमें सुरक्षित है।
इस ग्रंथमें १४ सन्धियाँ और २१५ कड़वक हैं । इसका कुल प्रमाण २०५० श्लोक है । कविने इस प्रथमें गृहस्थोंके षट्को -१. देवपूजा, २. गुरुसेवा, ३. स्वाध्याय, ४. संयम, ५. षटकायजीवरक्षा और ६. दानका कधन किया है। विविध कथाओंके सरस विवेचन द्वारा सात तत्त्वोंको स्पष्ट किया गया है। द्वितीय सन्धिसे ९वीं सन्धि तक देवपूजाका विवेचन आया है और उसे नूतनकयारूप दृष्टान्तोंके द्वारा सुगम तथा प्राय बना दिया गया है। दशवीं सन्धिमें जिनपूजाकी कथा दी गई है। और उसकी विधि बतलाकर उद्यापनविधिका भी अंकन किया गया है। ११वीं सन्धिसे १४वीं सन्धि तक इन चार सन्धियोंमें पूजा-विधिके अतिरिक्त शेष पाँच कर्मों का विवेचन किया गया है। षट्कर्मोपदेशकी रचनाके प्रेरक अम्बाप्रसाद बतलाये गये हैं। ये नागरकुलमें उत्पन्न हुए थे। इनके पिताका नाम गुणपाल और माताका नाम चचिणी था। यह ग्रंथ उन्हींको समर्पित किया गया है। प्रत्येक सन्धिके समातिसूचक पुष्पिकावाक्यमें इनका नाम स्मरण किया है । कहीं कहीं अमरकीतिने अम्बाप्रसादको अपना लधु बन्धु और अनुजबन्धु भी कहा है। इससे अनुमान होता है कि कवि अमरकीति भी इसी कुलमें उत्पन्न हुए पे और अम्बाप्रसादके बड़े भाई थे।
कविने इस ग्रंथकी समाप्ति गुर्जर विषयके मध्य महीयड (महीकांडा) देशके गोवा (गोना) नामक नगरके आदीश्वर चैत्यालयमें बैठकर की है। स्पष्टतः 'गुर्जर' गुजरात प्रान्तका बोषक है । अतएव 'महायड' देश वर्तमान महीकाठाऔर 'गोदहय' नगर वर्तमान गोधाका बोधक है। अम्बाप्रसाद संभवत: इसी गोधाके निवासी थे।
कविको शेष रचनाएँ उपलब्ध नहीं है
Acharyatulya Amarkirti Gani 13th Century (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 25 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
#Amarkirtigani
15000
#Amarkirtigani
Amarkirtigani
You cannot copy content of this page