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#BuchirajPrachin
कवि बल्ह या बूचिराज मूलसंघके भट्टारक पनन्दिको परम्परामें हुए हैं। ये राजस्थान के निवासी थे। सम्यक्त्वको मुदीनामक ग्रंथ उन्हें चम्पावती (चाटसु)में भेंट किया गया था। बूचिराज अच्छे कवि थे और पठन-पाठन आदिमें इनका समय व्यतीत होता था |
कवित्वकी शक्ति प्राप्त है। कवि अपभ्रंश और लोक-भाषाओंका अच्छा जानकार है।
कविने अपनी कतिपय रचनाओंमें रचनाकालका निर्देश किया है। उन्होंने 'मयणजुज्झ'को समाप्ति वि० १५८५म की है । 'सन्तोषतिलक जयमाल' नामक प्रन्य की रचना वि० सं०१५९१ में की गई है। अतएव रचनाओंपरसे कवि का समय विक्रम संकी १६वीं शतीका उसराई आता है। भाषा, शैली एवं वर्ण्य विषयको दृष्टिसे भी इस कविका समय विक्रमको १६वीं शती प्रतीत होता है।
कवि आचार-नीति और अध्यात्मका प्रेमी है। अतएव उसने इन विषयोंसे सम्बद्ध निम्नलिखित रचनाएं लिखी हैं--
१. मयणजुज्झ (मदनयुद्ध),
२. सन्तोष तिलकजयमाल,
२. चेतनपुद्गल धमाल,
४. टंडागागीत,
५. भुवनकोत्तिगीत,
६. नेमिनाथवसन्त और
७. नेमि नाथबारहमासा ।
'मयमजुन रूपक काव्य है। इसकी रचनाका मुख्य उद्देश्य मनोविकारों पर विजय प्राप्त करना है। इस कान्यमें १५९ पद्य हैं, जिनमें आदिनाथ तीर्थ करका मदनके साथ युद्ध दिखलाकर उनकी विजय बसलाई गई है ।
वसन्तऋतु कामोत्पादक है। उसके आगमनके साथ प्रकृतिमें चारों ओर आलादक वातावरण व्याप्त हो जाता है। सुरभित मलयानिल प्रवाहित होने लगता है, कोयलकी कूज सुनाई पड़ती है और प्रकृति नई वधूके समान इठ लाती हुई दृष्टिगोचर होती है।
इसी सुहावने समयमें तीर्थंकर ऋषभदेव ध्यानस्थ थे । कामदेवने जब उन्हें शान्त-मुद्रा में निमग्न देखा, तो वह कुपित होकर अपने सहायकोंके साथ ऋषभ देवपर आक्रमण करने लगा। कामके साथ क्रोष, मद, माया, लोभ, मोह, राग-द्वेष और अविवेक आदि सेनानियोंने भी अपने-अपने पराक्रमको दिख लाया। पर ऋषभदेवपर उनका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। उनके संयम, त्याग, शोल ओर ध्यानके समक्ष मदनको परास्त होना पड़ा। कविने युद्धकासजीव वर्णन निम्नलिखित पंक्तियों में किया है
चढिल कोपि कंदणु अप्पु बलि अदर न मन्नइ ।
कुंदै कुरले तसे हसे सम्बह अवगन्नई ।
ताणि कुसुम-कोवंड भविय संघह दलु मिलिउ ।
मोहु बहिड तहवि तास बलु खिणदि पिल्लिल ।
कवि वल्लह जैनु जंगम अटलु सासु सरि अवरुन कर कुछ।
असि-झाणि-हणिउ श्री आदिजिण, गयो मयणु दहवजहोई॥
कविको दूसरी रचना संतोषतिलकजयमाल है। यह भी रूपक काव्य है। इसमें सन्तोषद्वारा लोभपर विजय प्राप्त करनेका वर्णन आया है। काव्यका नायक सन्तोष है और प्रतिनायक लाम । लोम प्रवृत्तिमागका पथिक है और सन्तोष निवृत्तिमार्गका । लोभके सेनानी असत्य, मान, माया, क्रोध, मोह, कलह, ध्यसन, कुशील, कुमति और मिथ्याचरित आदि हैं। सन्तोषके सहायक शाल, सदाचार, सुधर्म, सम्यक्त्व, विवक्र, सम्यकचारित्र, वराग्य, तप, करुणा, क्षमा और संयम आदि हैं।
कविने यह काव्य १३१ पद्योंमें रचा है। लोभ और सन्तोषके परिकरका परिचय प्रस्तुत करते हुए लिखा है
आपउ झूह परधान मंत-संत स्विणि कीयउ ।
मानु मोह अरु दोहु मोहु इकु युद्ध कीयउ ।
माया कलह कलेपु थापु, संताप छद्म दुख
कम्म मिथ्या आचरउ, आइ अम्मि कियउ पखु
कृविसन कुसीलु कुमतु जुडिउ राग दोष आइ लहिउ ।
अप्पणा सयनु बल देखिकरि, लोहुराज तब गह गहिउ ।।
आइयो सोलु सुषम्मु सक्तुि ग्यान चारित संवरो,
वैरागु तप करुणा महायत खिया चिति संजय थिरो।
अज्जउ सुमइउ मुत्ति उपसमु धम्म सो माकिंचिणो,
इन मेलि दलु सन्तोषराजा लोभ सिव मंडक रणो॥
इसका दूसरा नाम अध्यात्म धमाल भी है। यह भी एक रूपक कान्य है। कुल १३६ पन हैं । इसमें पुद्गलकी संगसिसे होने वाली चेतन-विकृत परिणति का अच्छा वर्णन किया है। चेतन और पुद्गल का बहुत ही रोचक संवाद आया है | कवि की कविताका नमूना निम्न प्रकार है
जिउ ससि मंजणु रणिका दिनका मंउणु भाणु ।
तिम चेतनका मंडणा, यह पुद्गल तू जाणु ॥
कांद कलेवरु वसि सुह, जतनु कर तिहि जाइ ।
जिउ जिउ चाचे तंबडो, तिव तिच अति करवाइ॥
कायाकी निन्दा कर, आपु न देखा जोइ ।
जिउ जिउ भोजह कांवली, तिउ तिउ भारी होई ।।
-यह उपदेशात्मक रचना है। इसका मुख्य उद्देश्य संसारके स्वरूपका चित्रण कर उसके दुःखोंसे उन्मुक्त करना है। यह मोही प्राणी अनादि कालसे स्वरूपको भूलकर परमें अपनी कल्पना करता आ रहा है। इसी कारण उसका गरवस्तुओंसे अधिक राग हो गया है। कविने अन्तिम पदमें आत्माको सम्बोधन कर आत्मसिद्धि करनेका संकेत किया है। कविकी यह रचना बड़ी ही सरल और मनोहर है।
इसमें पाँच पद्य हैं, जिनमें भट्टारक भुवनकीत्तिके गुणों की प्रशंसा की गई है। भुवनकीत्ति अट्ठाइस मूलमण और १३ प्रकारके चारित्रका पालन करते हुए मोहरूपी महाभटको ताड़न करनेवाले थे । कविने इस कृतिमें इन्हींके गुणोंका वर्णन किया है।
नेमिनाथबसन्त-इसमें २३ पट हैं । वसन्त ऋतुका रोचक वर्णन करनेके
अनन्तर नेमिनाथका अकारण पशुभोंको घिरा हुआ देखकर और सारथीसे अतिथियोंके लिए वषकी बात सुनकर विरक्त हो रेवन्तगिरि पर जाना वर्णित है। राजमतीका विरह और उसका तपस्विनीके रूपमें आत्म-साधना करन्दा भीति है:
बल्हि वियवखणु सखीम बंषण |
मूल संघ मुख मंडिया पानंदि सुपसाइ,
बल्हि बसंतु जु गावहि सो सखि रलिग कराइ ।
–१२ महीनोंमें राजोमतिने अपने उद्गारों को व्यक्त किया है । चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ आषाढ़ आदि मास अपनी विभिन्न प्रकारको विशेषताओं और प्राकृतिक सौंदर्य के कारण राजीमतिको उद्वेलित करते हैं और वह नेमिनाथको सम्बोधित कर अपने भावों को व्यक्त करती है। कृति सरसऔर मार्मिक है।
कवि बल्ह या बूचिराज मूलसंघके भट्टारक पनन्दिको परम्परामें हुए हैं। ये राजस्थान के निवासी थे। सम्यक्त्वको मुदीनामक ग्रंथ उन्हें चम्पावती (चाटसु)में भेंट किया गया था। बूचिराज अच्छे कवि थे और पठन-पाठन आदिमें इनका समय व्यतीत होता था |
कवित्वकी शक्ति प्राप्त है। कवि अपभ्रंश और लोक-भाषाओंका अच्छा जानकार है।
कविने अपनी कतिपय रचनाओंमें रचनाकालका निर्देश किया है। उन्होंने 'मयणजुज्झ'को समाप्ति वि० १५८५म की है । 'सन्तोषतिलक जयमाल' नामक प्रन्य की रचना वि० सं०१५९१ में की गई है। अतएव रचनाओंपरसे कवि का समय विक्रम संकी १६वीं शतीका उसराई आता है। भाषा, शैली एवं वर्ण्य विषयको दृष्टिसे भी इस कविका समय विक्रमको १६वीं शती प्रतीत होता है।
कवि आचार-नीति और अध्यात्मका प्रेमी है। अतएव उसने इन विषयोंसे सम्बद्ध निम्नलिखित रचनाएं लिखी हैं--
१. मयणजुज्झ (मदनयुद्ध),
२. सन्तोष तिलकजयमाल,
२. चेतनपुद्गल धमाल,
४. टंडागागीत,
५. भुवनकोत्तिगीत,
६. नेमिनाथवसन्त और
७. नेमि नाथबारहमासा ।
'मयमजुन रूपक काव्य है। इसकी रचनाका मुख्य उद्देश्य मनोविकारों पर विजय प्राप्त करना है। इस कान्यमें १५९ पद्य हैं, जिनमें आदिनाथ तीर्थ करका मदनके साथ युद्ध दिखलाकर उनकी विजय बसलाई गई है ।
वसन्तऋतु कामोत्पादक है। उसके आगमनके साथ प्रकृतिमें चारों ओर आलादक वातावरण व्याप्त हो जाता है। सुरभित मलयानिल प्रवाहित होने लगता है, कोयलकी कूज सुनाई पड़ती है और प्रकृति नई वधूके समान इठ लाती हुई दृष्टिगोचर होती है।
इसी सुहावने समयमें तीर्थंकर ऋषभदेव ध्यानस्थ थे । कामदेवने जब उन्हें शान्त-मुद्रा में निमग्न देखा, तो वह कुपित होकर अपने सहायकोंके साथ ऋषभ देवपर आक्रमण करने लगा। कामके साथ क्रोष, मद, माया, लोभ, मोह, राग-द्वेष और अविवेक आदि सेनानियोंने भी अपने-अपने पराक्रमको दिख लाया। पर ऋषभदेवपर उनका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। उनके संयम, त्याग, शोल ओर ध्यानके समक्ष मदनको परास्त होना पड़ा। कविने युद्धकासजीव वर्णन निम्नलिखित पंक्तियों में किया है
चढिल कोपि कंदणु अप्पु बलि अदर न मन्नइ ।
कुंदै कुरले तसे हसे सम्बह अवगन्नई ।
ताणि कुसुम-कोवंड भविय संघह दलु मिलिउ ।
मोहु बहिड तहवि तास बलु खिणदि पिल्लिल ।
कवि वल्लह जैनु जंगम अटलु सासु सरि अवरुन कर कुछ।
असि-झाणि-हणिउ श्री आदिजिण, गयो मयणु दहवजहोई॥
कविको दूसरी रचना संतोषतिलकजयमाल है। यह भी रूपक काव्य है। इसमें सन्तोषद्वारा लोभपर विजय प्राप्त करनेका वर्णन आया है। काव्यका नायक सन्तोष है और प्रतिनायक लाम । लोम प्रवृत्तिमागका पथिक है और सन्तोष निवृत्तिमार्गका । लोभके सेनानी असत्य, मान, माया, क्रोध, मोह, कलह, ध्यसन, कुशील, कुमति और मिथ्याचरित आदि हैं। सन्तोषके सहायक शाल, सदाचार, सुधर्म, सम्यक्त्व, विवक्र, सम्यकचारित्र, वराग्य, तप, करुणा, क्षमा और संयम आदि हैं।
कविने यह काव्य १३१ पद्योंमें रचा है। लोभ और सन्तोषके परिकरका परिचय प्रस्तुत करते हुए लिखा है
आपउ झूह परधान मंत-संत स्विणि कीयउ ।
मानु मोह अरु दोहु मोहु इकु युद्ध कीयउ ।
माया कलह कलेपु थापु, संताप छद्म दुख
कम्म मिथ्या आचरउ, आइ अम्मि कियउ पखु
कृविसन कुसीलु कुमतु जुडिउ राग दोष आइ लहिउ ।
अप्पणा सयनु बल देखिकरि, लोहुराज तब गह गहिउ ।।
आइयो सोलु सुषम्मु सक्तुि ग्यान चारित संवरो,
वैरागु तप करुणा महायत खिया चिति संजय थिरो।
अज्जउ सुमइउ मुत्ति उपसमु धम्म सो माकिंचिणो,
इन मेलि दलु सन्तोषराजा लोभ सिव मंडक रणो॥
इसका दूसरा नाम अध्यात्म धमाल भी है। यह भी एक रूपक कान्य है। कुल १३६ पन हैं । इसमें पुद्गलकी संगसिसे होने वाली चेतन-विकृत परिणति का अच्छा वर्णन किया है। चेतन और पुद्गल का बहुत ही रोचक संवाद आया है | कवि की कविताका नमूना निम्न प्रकार है
जिउ ससि मंजणु रणिका दिनका मंउणु भाणु ।
तिम चेतनका मंडणा, यह पुद्गल तू जाणु ॥
कांद कलेवरु वसि सुह, जतनु कर तिहि जाइ ।
जिउ जिउ चाचे तंबडो, तिव तिच अति करवाइ॥
कायाकी निन्दा कर, आपु न देखा जोइ ।
जिउ जिउ भोजह कांवली, तिउ तिउ भारी होई ।।
-यह उपदेशात्मक रचना है। इसका मुख्य उद्देश्य संसारके स्वरूपका चित्रण कर उसके दुःखोंसे उन्मुक्त करना है। यह मोही प्राणी अनादि कालसे स्वरूपको भूलकर परमें अपनी कल्पना करता आ रहा है। इसी कारण उसका गरवस्तुओंसे अधिक राग हो गया है। कविने अन्तिम पदमें आत्माको सम्बोधन कर आत्मसिद्धि करनेका संकेत किया है। कविकी यह रचना बड़ी ही सरल और मनोहर है।
इसमें पाँच पद्य हैं, जिनमें भट्टारक भुवनकीत्तिके गुणों की प्रशंसा की गई है। भुवनकीत्ति अट्ठाइस मूलमण और १३ प्रकारके चारित्रका पालन करते हुए मोहरूपी महाभटको ताड़न करनेवाले थे । कविने इस कृतिमें इन्हींके गुणोंका वर्णन किया है।
नेमिनाथबसन्त-इसमें २३ पट हैं । वसन्त ऋतुका रोचक वर्णन करनेके
अनन्तर नेमिनाथका अकारण पशुभोंको घिरा हुआ देखकर और सारथीसे अतिथियोंके लिए वषकी बात सुनकर विरक्त हो रेवन्तगिरि पर जाना वर्णित है। राजमतीका विरह और उसका तपस्विनीके रूपमें आत्म-साधना करन्दा भीति है:
बल्हि वियवखणु सखीम बंषण |
मूल संघ मुख मंडिया पानंदि सुपसाइ,
बल्हि बसंतु जु गावहि सो सखि रलिग कराइ ।
–१२ महीनोंमें राजोमतिने अपने उद्गारों को व्यक्त किया है । चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ आषाढ़ आदि मास अपनी विभिन्न प्रकारको विशेषताओं और प्राकृतिक सौंदर्य के कारण राजीमतिको उद्वेलित करते हैं और वह नेमिनाथको सम्बोधित कर अपने भावों को व्यक्त करती है। कृति सरसऔर मार्मिक है।
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आचार्यतुल्य बलहा या बुचिराज (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 23 मई 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 23 May 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
कवि बल्ह या बूचिराज मूलसंघके भट्टारक पनन्दिको परम्परामें हुए हैं। ये राजस्थान के निवासी थे। सम्यक्त्वको मुदीनामक ग्रंथ उन्हें चम्पावती (चाटसु)में भेंट किया गया था। बूचिराज अच्छे कवि थे और पठन-पाठन आदिमें इनका समय व्यतीत होता था |
कवित्वकी शक्ति प्राप्त है। कवि अपभ्रंश और लोक-भाषाओंका अच्छा जानकार है।
कविने अपनी कतिपय रचनाओंमें रचनाकालका निर्देश किया है। उन्होंने 'मयणजुज्झ'को समाप्ति वि० १५८५म की है । 'सन्तोषतिलक जयमाल' नामक प्रन्य की रचना वि० सं०१५९१ में की गई है। अतएव रचनाओंपरसे कवि का समय विक्रम संकी १६वीं शतीका उसराई आता है। भाषा, शैली एवं वर्ण्य विषयको दृष्टिसे भी इस कविका समय विक्रमको १६वीं शती प्रतीत होता है।
कवि आचार-नीति और अध्यात्मका प्रेमी है। अतएव उसने इन विषयोंसे सम्बद्ध निम्नलिखित रचनाएं लिखी हैं--
१. मयणजुज्झ (मदनयुद्ध),
२. सन्तोष तिलकजयमाल,
२. चेतनपुद्गल धमाल,
४. टंडागागीत,
५. भुवनकोत्तिगीत,
६. नेमिनाथवसन्त और
७. नेमि नाथबारहमासा ।
'मयमजुन रूपक काव्य है। इसकी रचनाका मुख्य उद्देश्य मनोविकारों पर विजय प्राप्त करना है। इस कान्यमें १५९ पद्य हैं, जिनमें आदिनाथ तीर्थ करका मदनके साथ युद्ध दिखलाकर उनकी विजय बसलाई गई है ।
वसन्तऋतु कामोत्पादक है। उसके आगमनके साथ प्रकृतिमें चारों ओर आलादक वातावरण व्याप्त हो जाता है। सुरभित मलयानिल प्रवाहित होने लगता है, कोयलकी कूज सुनाई पड़ती है और प्रकृति नई वधूके समान इठ लाती हुई दृष्टिगोचर होती है।
इसी सुहावने समयमें तीर्थंकर ऋषभदेव ध्यानस्थ थे । कामदेवने जब उन्हें शान्त-मुद्रा में निमग्न देखा, तो वह कुपित होकर अपने सहायकोंके साथ ऋषभ देवपर आक्रमण करने लगा। कामके साथ क्रोष, मद, माया, लोभ, मोह, राग-द्वेष और अविवेक आदि सेनानियोंने भी अपने-अपने पराक्रमको दिख लाया। पर ऋषभदेवपर उनका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। उनके संयम, त्याग, शोल ओर ध्यानके समक्ष मदनको परास्त होना पड़ा। कविने युद्धकासजीव वर्णन निम्नलिखित पंक्तियों में किया है
चढिल कोपि कंदणु अप्पु बलि अदर न मन्नइ ।
कुंदै कुरले तसे हसे सम्बह अवगन्नई ।
ताणि कुसुम-कोवंड भविय संघह दलु मिलिउ ।
मोहु बहिड तहवि तास बलु खिणदि पिल्लिल ।
कवि वल्लह जैनु जंगम अटलु सासु सरि अवरुन कर कुछ।
असि-झाणि-हणिउ श्री आदिजिण, गयो मयणु दहवजहोई॥
कविको दूसरी रचना संतोषतिलकजयमाल है। यह भी रूपक काव्य है। इसमें सन्तोषद्वारा लोभपर विजय प्राप्त करनेका वर्णन आया है। काव्यका नायक सन्तोष है और प्रतिनायक लाम । लोम प्रवृत्तिमागका पथिक है और सन्तोष निवृत्तिमार्गका । लोभके सेनानी असत्य, मान, माया, क्रोध, मोह, कलह, ध्यसन, कुशील, कुमति और मिथ्याचरित आदि हैं। सन्तोषके सहायक शाल, सदाचार, सुधर्म, सम्यक्त्व, विवक्र, सम्यकचारित्र, वराग्य, तप, करुणा, क्षमा और संयम आदि हैं।
कविने यह काव्य १३१ पद्योंमें रचा है। लोभ और सन्तोषके परिकरका परिचय प्रस्तुत करते हुए लिखा है
आपउ झूह परधान मंत-संत स्विणि कीयउ ।
मानु मोह अरु दोहु मोहु इकु युद्ध कीयउ ।
माया कलह कलेपु थापु, संताप छद्म दुख
कम्म मिथ्या आचरउ, आइ अम्मि कियउ पखु
कृविसन कुसीलु कुमतु जुडिउ राग दोष आइ लहिउ ।
अप्पणा सयनु बल देखिकरि, लोहुराज तब गह गहिउ ।।
आइयो सोलु सुषम्मु सक्तुि ग्यान चारित संवरो,
वैरागु तप करुणा महायत खिया चिति संजय थिरो।
अज्जउ सुमइउ मुत्ति उपसमु धम्म सो माकिंचिणो,
इन मेलि दलु सन्तोषराजा लोभ सिव मंडक रणो॥
इसका दूसरा नाम अध्यात्म धमाल भी है। यह भी एक रूपक कान्य है। कुल १३६ पन हैं । इसमें पुद्गलकी संगसिसे होने वाली चेतन-विकृत परिणति का अच्छा वर्णन किया है। चेतन और पुद्गल का बहुत ही रोचक संवाद आया है | कवि की कविताका नमूना निम्न प्रकार है
जिउ ससि मंजणु रणिका दिनका मंउणु भाणु ।
तिम चेतनका मंडणा, यह पुद्गल तू जाणु ॥
कांद कलेवरु वसि सुह, जतनु कर तिहि जाइ ।
जिउ जिउ चाचे तंबडो, तिव तिच अति करवाइ॥
कायाकी निन्दा कर, आपु न देखा जोइ ।
जिउ जिउ भोजह कांवली, तिउ तिउ भारी होई ।।
-यह उपदेशात्मक रचना है। इसका मुख्य उद्देश्य संसारके स्वरूपका चित्रण कर उसके दुःखोंसे उन्मुक्त करना है। यह मोही प्राणी अनादि कालसे स्वरूपको भूलकर परमें अपनी कल्पना करता आ रहा है। इसी कारण उसका गरवस्तुओंसे अधिक राग हो गया है। कविने अन्तिम पदमें आत्माको सम्बोधन कर आत्मसिद्धि करनेका संकेत किया है। कविकी यह रचना बड़ी ही सरल और मनोहर है।
इसमें पाँच पद्य हैं, जिनमें भट्टारक भुवनकीत्तिके गुणों की प्रशंसा की गई है। भुवनकीत्ति अट्ठाइस मूलमण और १३ प्रकारके चारित्रका पालन करते हुए मोहरूपी महाभटको ताड़न करनेवाले थे । कविने इस कृतिमें इन्हींके गुणोंका वर्णन किया है।
नेमिनाथबसन्त-इसमें २३ पट हैं । वसन्त ऋतुका रोचक वर्णन करनेके
अनन्तर नेमिनाथका अकारण पशुभोंको घिरा हुआ देखकर और सारथीसे अतिथियोंके लिए वषकी बात सुनकर विरक्त हो रेवन्तगिरि पर जाना वर्णित है। राजमतीका विरह और उसका तपस्विनीके रूपमें आत्म-साधना करन्दा भीति है:
बल्हि वियवखणु सखीम बंषण |
मूल संघ मुख मंडिया पानंदि सुपसाइ,
बल्हि बसंतु जु गावहि सो सखि रलिग कराइ ।
–१२ महीनोंमें राजोमतिने अपने उद्गारों को व्यक्त किया है । चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ आषाढ़ आदि मास अपनी विभिन्न प्रकारको विशेषताओं और प्राकृतिक सौंदर्य के कारण राजीमतिको उद्वेलित करते हैं और वह नेमिनाथको सम्बोधित कर अपने भावों को व्यक्त करती है। कृति सरसऔर मार्मिक है।
Acharyatulya Balha Ya Buchiraj (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 23 May 2022
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Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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