हैशटैग
#Bhagwatidas
भगवतीदास भट्टारक गणचन्द्र के पट्टधर भट्टारक सकलचन्द्रके प्रशिष्य और महीन्द्रसेनके शिष्य थे। महीन्द्रसेन दिल्लीकी भट्टारकीय गद्दोंके पट्टधर थे। पंडित भगवतीदासने अपने गुरु महीन्द्रसेनका बड़े आदरके साथ स्मरण किया है | यह बूढ़िया, जिला अम्बालाके निवासी थे। इनके पिताका नाम किसनदास था । इनकी जाति अग्रवाल और गोत्र बंसल था । कहा जाता है कि चतुथं वयमें इन्होंने मुनिब्रत धारण कर लिया था।
दादा गुरु | सकलचन्द्र |
गुरु | महीन्द्रसेन |
कवि भगवतीदास संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी भाषाके अच्छे कवि और विद्वान थे। ये बुढ़ियासे योगिनीपुर (दिल्ली। आकर बस गये थे। उस समय दिल्ली में अकबर बादशाहके पुत्र जहाँगीरका राज्य था । दिल्लोके मोतीबाजार में भगवान पार्श्वनाथका मन्दिर था । इसी मंदिरमें आकर भगवसीदास निघास करते थे।
कविने अपनी अधिकांश रचनाएं जहाँगीरके राज्यकाल में लिखी हैं । जहाँगीर का राज्य ई० सन् १६०५-१६२८ ई० सक रहा है । अशिष्ट रचनाएँ शाहजहाँ के राज्यमें ई० सन् १६२८-१६५८ में लिखी गई हैं।
कतिपय रचनाओंमें कविने उनके लेखनकालका उल्लेख किया है । 'चूनड़ी' रचना वि० सं० १६८०में समाप्त हुई है। अन्य १९ रचनाएँ भी संभवतः सं० १६८० या इसके पूर्व लिखी जा चुकी थीं । 'बृहत् सीता सतु'को रचना वि० सं० १६८४ और 'लघु सीतासतु की रचना वि० सं० १९८७में की है। कविने अपभ्रंश भाषाका 'मगांकलेखाचरित' वि० सं० १७०० मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी सोमवार के दिन पूरा किया है । लिखा है
सगदह संवदत्तीह तहा, विपकमराय महप्पए ।
अगहण-सिय पंचमि सोम-दिणे, पुण्ण ठिबउ अवियप्पए ।
अतएव कवि भगवतीदासका समय १७वीं शतीका उत्तराखं और अठारहवीं शतीका पूर्व सुनिश्चित है। कविकी सभी रचनाएं १७वीं शतीमें सम्पन्न हुई हैं।
कवि पं० भगवतीदासने अप्रभंश और हिंदी में प्रचुर परिमाणमें रचनाएं लिखी है। उनकी उपलब्ध रचनाओंका उल्लेख निम्न प्रकार है
१. हंडाणारास-यह रूपक काव्य है। इसमें बसाया गया है कि एक चतुर प्राणी अपने-अपने दर्शन, लान, चारित्रादि गुणोंको छोड़कर अशानी बन गयाऔर मोह-मिथ्यात्वमें पड़कर निरन्तर परवश हुआ चतुर्गलिरूप संसारमें भ्रमण करता है । अत: कवि सम्बोधन करता हुआ कहता है
धर्म-सुकल धरि ध्यानु अनुपम, लहि निजु केवलनाणा वे |
जंम्पति दासभगवती पावहू, सासउ-सुह निबाणा के ।।
२. आदित्यरास-इसमें बीस पद्य हैं।
३. पखवाडारास-२२ पद्य हैं । पन्द्रह तिथियों में विषेय कर्तव्यपर प्रकाश डाला गया है।
४. दशलक्षणरास-३४ पद्य हैं और उत्तमक्षमादि दश धोका स्वरूप बतलाया गया है । दश धर्मोको अवगत करने के लिए यह रचना उपादेय है ।
५. खिण्डीरास-४० पद्य हैं। इसमें भावनाओंको उदात्त बनानेपर जोर दिया है।
६. समाधिगस- इसमें साधु-समाधिका चित्रण आया है।
७. जोगाराम-३८ पद्य है। भ्रमवश संसारमें भ्रमण करनेवाले जीवको भ्रम त्याग अतान्द्रिय सुख-प्राप्ति के हेतु प्रयत्नशील रहने के लिए संकेत किया है।
पैरबहु हो तुम पेरबहु भाई, जोगी जगमहि सोई।
घट-घट-अन्तरि वसई चिदानंदु, अलखु न लखिए कोई ।।
भववन भूल रह्यो भ्रमिरावल, सिचपुर-मुघ बिसराई ।
परम अतीन्द्रिय शिव-सुख तजिकर, विषयनि रहिउ भुलाई ॥
8, मनकरहाराम–२५ पद्य हैं। इस रूपक काव्यमें मनकरहाके चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने और जन्म-मरणके असह्य दुःख उठानेका वर्णन किया है और बताया है कि रत्नत्रय द्वारा ही जीव जन्म-मरणके दुःखोंसे मुक्त
हो शिवपुरी प्राप्त करता है । रूपकको पूर्णतया स्पष्ट किया गया है।
९. रोनिमि .-४ मा हैं :
१०. चतुर बनजारा--३५ पद्य हैं। यह भी रूपक काव्य है।
११. द्वादशानुप्रक्षा...१२ पद्यों द्वादश भावनाओंका निरूपण किया है।
१२. सुगन्धदशमीकथा-५१ पद्योंमें सुगन्धदशमीनसके पालन करनेका फल निरूपित किया गया है।
१३. झादित्यवारकथा-रविवारके व्रतानुष्ठानकी रचना की गयो है।
१४. अनथमोकथा--२६ पद्यों में रात्रिभोजनके दोषोंपर प्रकाश डाला गया है और उसके त्यागकी महत्ता बतलाई है ।
१५. 'चूनड़ी' अथवा 'मुक्ति रमणीकी चुनड़ी'-यह रूपक काव्य है । १६. वीरजिनिन्दगीत-तीर्थंकर महावीरको स्तुति वणित है।
१७. राजमती-नेमिसर-ढमाल-इसमें राजमति और नेमकुमारके जीवनको अंकित किया गया है।
१८. लधुसीतासतु इसमें सीताके सतीत्वका चित्रण किया गया है । बारह महीनोंके मन्दोदरी-सोताके प्रश्नोत्तरके रूपमें भावोंकी अभिव्यक्ति हुई है। भाषाढ़ मासके प्रश्नोत्तरको उदाहरणार्थ प्रस्तुत किया जाता है
मंदोदरी तब बोलइ मंदोदरी रानी, सखि अषाढ़ पनघट घहरानी।
पोय गए तो फिर घर आवा, पामर नर नित मन्दिर छावा ।
लवहिं पपोहे दादुर मोरा, हियरा उमग परत नहिं धीरा ।
बादर उमहि रहे चौपासा, तिय पिय विनु लिहिं उसन उसासा !!
सीता
करत कुशील बढ़त बहु पापू, नरफि जाइ तिर हा संतापू ।
जिउ मधुचिदु तनूसुख लहिये, शील विना दुरगति दुख सहिये।
१९. अनेकाप नाममाला- यह कोषमन्य है। इसमें एक शकरके अनेकानेक भोंका दोहोंमें संग्रह किया है। इसमें तीन अध्याय है और प्रथम अध्यायमें ६३, द्वितीयमें १२२ और तृतीयमें ७१ दोहे लिखित हैं । यह बनारसीदासको नाममालासे १७ वर्ष बादको रचना है।
२०. मृगांकलेशाचरित-इस ग्रन्थमें चन्द्रलेखा और सागरचन्द्रके चरितका वर्णन करते हुए चन्द्रलेखाके शोलयतका महत्व प्रदर्शित किया गया है । चन्द्र लेखा नाना प्रकारको विपत्तियोंको सहन करते हुए भी अपने शीलवतसे च्युत नहीं होती।
इस ग्रन्थकी कथावस्तु चार सन्धियोंमें विभक्त है। इस अपभ्रंश-काव्यमें काध्यतत्त्वोंका पूर्णतया समावेश हुआ है । कवि चन्द्रलेखाका वर्णन करता हुआ कहता है
सुहाग जोइ वर सुह गरवत्ति, सुउवणा कण्ण णं काम त्ति ।
कम पांणि कवल सुसुबग्ण देह, तिह गांउ परिउ सुमइंक लेह ।
कमि कमि सुपबड़लाइ सांगुणाल, दिग मिग ससियत्तु मराल वाल |
रूच रइ दासि व णियडि तासु, कि बणमि अमरी खरि जासु ।
लछी सुविलछो सोह दित्ति, तिहं तुल्लि ण छज्जह बुद्धि कित्ति ।
-मगांक १३
चन्द्रलेखा की अखें मगकी आँखोंके समान, वक्त्र चंद्रके समान और चाल हंसके समान थो । उसके निकट रति दासोके समान प्रतीत होती थी, अतः इस स्थितिमें अमरांगना या विद्याधारी उसकी समता कैसे कर सकती थी ?
ग्रन्थको भाषा खिचड़ो है। पद्धड़ीबन्धमें अपभ्रंश, दोहा-मोरठा आदिमें हिन्दी और गाथाओं में प्राकृतभाषाका प्रयोग किया है।
इस प्रकार भगवतीदासने अपनश और हिन्दीमें काव्य-रचनाएं लिखकर जिनवाणीको समृद्धि की है।
भगवतीदास भट्टारक गणचन्द्र के पट्टधर भट्टारक सकलचन्द्रके प्रशिष्य और महीन्द्रसेनके शिष्य थे। महीन्द्रसेन दिल्लीकी भट्टारकीय गद्दोंके पट्टधर थे। पंडित भगवतीदासने अपने गुरु महीन्द्रसेनका बड़े आदरके साथ स्मरण किया है | यह बूढ़िया, जिला अम्बालाके निवासी थे। इनके पिताका नाम किसनदास था । इनकी जाति अग्रवाल और गोत्र बंसल था । कहा जाता है कि चतुथं वयमें इन्होंने मुनिब्रत धारण कर लिया था।
दादा गुरु | सकलचन्द्र |
गुरु | महीन्द्रसेन |
कवि भगवतीदास संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी भाषाके अच्छे कवि और विद्वान थे। ये बुढ़ियासे योगिनीपुर (दिल्ली। आकर बस गये थे। उस समय दिल्ली में अकबर बादशाहके पुत्र जहाँगीरका राज्य था । दिल्लोके मोतीबाजार में भगवान पार्श्वनाथका मन्दिर था । इसी मंदिरमें आकर भगवसीदास निघास करते थे।
कविने अपनी अधिकांश रचनाएं जहाँगीरके राज्यकाल में लिखी हैं । जहाँगीर का राज्य ई० सन् १६०५-१६२८ ई० सक रहा है । अशिष्ट रचनाएँ शाहजहाँ के राज्यमें ई० सन् १६२८-१६५८ में लिखी गई हैं।
कतिपय रचनाओंमें कविने उनके लेखनकालका उल्लेख किया है । 'चूनड़ी' रचना वि० सं० १६८०में समाप्त हुई है। अन्य १९ रचनाएँ भी संभवतः सं० १६८० या इसके पूर्व लिखी जा चुकी थीं । 'बृहत् सीता सतु'को रचना वि० सं० १६८४ और 'लघु सीतासतु की रचना वि० सं० १९८७में की है। कविने अपभ्रंश भाषाका 'मगांकलेखाचरित' वि० सं० १७०० मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी सोमवार के दिन पूरा किया है । लिखा है
सगदह संवदत्तीह तहा, विपकमराय महप्पए ।
अगहण-सिय पंचमि सोम-दिणे, पुण्ण ठिबउ अवियप्पए ।
अतएव कवि भगवतीदासका समय १७वीं शतीका उत्तराखं और अठारहवीं शतीका पूर्व सुनिश्चित है। कविकी सभी रचनाएं १७वीं शतीमें सम्पन्न हुई हैं।
कवि पं० भगवतीदासने अप्रभंश और हिंदी में प्रचुर परिमाणमें रचनाएं लिखी है। उनकी उपलब्ध रचनाओंका उल्लेख निम्न प्रकार है
१. हंडाणारास-यह रूपक काव्य है। इसमें बसाया गया है कि एक चतुर प्राणी अपने-अपने दर्शन, लान, चारित्रादि गुणोंको छोड़कर अशानी बन गयाऔर मोह-मिथ्यात्वमें पड़कर निरन्तर परवश हुआ चतुर्गलिरूप संसारमें भ्रमण करता है । अत: कवि सम्बोधन करता हुआ कहता है
धर्म-सुकल धरि ध्यानु अनुपम, लहि निजु केवलनाणा वे |
जंम्पति दासभगवती पावहू, सासउ-सुह निबाणा के ।।
२. आदित्यरास-इसमें बीस पद्य हैं।
३. पखवाडारास-२२ पद्य हैं । पन्द्रह तिथियों में विषेय कर्तव्यपर प्रकाश डाला गया है।
४. दशलक्षणरास-३४ पद्य हैं और उत्तमक्षमादि दश धोका स्वरूप बतलाया गया है । दश धर्मोको अवगत करने के लिए यह रचना उपादेय है ।
५. खिण्डीरास-४० पद्य हैं। इसमें भावनाओंको उदात्त बनानेपर जोर दिया है।
६. समाधिगस- इसमें साधु-समाधिका चित्रण आया है।
७. जोगाराम-३८ पद्य है। भ्रमवश संसारमें भ्रमण करनेवाले जीवको भ्रम त्याग अतान्द्रिय सुख-प्राप्ति के हेतु प्रयत्नशील रहने के लिए संकेत किया है।
पैरबहु हो तुम पेरबहु भाई, जोगी जगमहि सोई।
घट-घट-अन्तरि वसई चिदानंदु, अलखु न लखिए कोई ।।
भववन भूल रह्यो भ्रमिरावल, सिचपुर-मुघ बिसराई ।
परम अतीन्द्रिय शिव-सुख तजिकर, विषयनि रहिउ भुलाई ॥
8, मनकरहाराम–२५ पद्य हैं। इस रूपक काव्यमें मनकरहाके चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने और जन्म-मरणके असह्य दुःख उठानेका वर्णन किया है और बताया है कि रत्नत्रय द्वारा ही जीव जन्म-मरणके दुःखोंसे मुक्त
हो शिवपुरी प्राप्त करता है । रूपकको पूर्णतया स्पष्ट किया गया है।
९. रोनिमि .-४ मा हैं :
१०. चतुर बनजारा--३५ पद्य हैं। यह भी रूपक काव्य है।
११. द्वादशानुप्रक्षा...१२ पद्यों द्वादश भावनाओंका निरूपण किया है।
१२. सुगन्धदशमीकथा-५१ पद्योंमें सुगन्धदशमीनसके पालन करनेका फल निरूपित किया गया है।
१३. झादित्यवारकथा-रविवारके व्रतानुष्ठानकी रचना की गयो है।
१४. अनथमोकथा--२६ पद्यों में रात्रिभोजनके दोषोंपर प्रकाश डाला गया है और उसके त्यागकी महत्ता बतलाई है ।
१५. 'चूनड़ी' अथवा 'मुक्ति रमणीकी चुनड़ी'-यह रूपक काव्य है । १६. वीरजिनिन्दगीत-तीर्थंकर महावीरको स्तुति वणित है।
१७. राजमती-नेमिसर-ढमाल-इसमें राजमति और नेमकुमारके जीवनको अंकित किया गया है।
१८. लधुसीतासतु इसमें सीताके सतीत्वका चित्रण किया गया है । बारह महीनोंके मन्दोदरी-सोताके प्रश्नोत्तरके रूपमें भावोंकी अभिव्यक्ति हुई है। भाषाढ़ मासके प्रश्नोत्तरको उदाहरणार्थ प्रस्तुत किया जाता है
मंदोदरी तब बोलइ मंदोदरी रानी, सखि अषाढ़ पनघट घहरानी।
पोय गए तो फिर घर आवा, पामर नर नित मन्दिर छावा ।
लवहिं पपोहे दादुर मोरा, हियरा उमग परत नहिं धीरा ।
बादर उमहि रहे चौपासा, तिय पिय विनु लिहिं उसन उसासा !!
सीता
करत कुशील बढ़त बहु पापू, नरफि जाइ तिर हा संतापू ।
जिउ मधुचिदु तनूसुख लहिये, शील विना दुरगति दुख सहिये।
१९. अनेकाप नाममाला- यह कोषमन्य है। इसमें एक शकरके अनेकानेक भोंका दोहोंमें संग्रह किया है। इसमें तीन अध्याय है और प्रथम अध्यायमें ६३, द्वितीयमें १२२ और तृतीयमें ७१ दोहे लिखित हैं । यह बनारसीदासको नाममालासे १७ वर्ष बादको रचना है।
२०. मृगांकलेशाचरित-इस ग्रन्थमें चन्द्रलेखा और सागरचन्द्रके चरितका वर्णन करते हुए चन्द्रलेखाके शोलयतका महत्व प्रदर्शित किया गया है । चन्द्र लेखा नाना प्रकारको विपत्तियोंको सहन करते हुए भी अपने शीलवतसे च्युत नहीं होती।
इस ग्रन्थकी कथावस्तु चार सन्धियोंमें विभक्त है। इस अपभ्रंश-काव्यमें काध्यतत्त्वोंका पूर्णतया समावेश हुआ है । कवि चन्द्रलेखाका वर्णन करता हुआ कहता है
सुहाग जोइ वर सुह गरवत्ति, सुउवणा कण्ण णं काम त्ति ।
कम पांणि कवल सुसुबग्ण देह, तिह गांउ परिउ सुमइंक लेह ।
कमि कमि सुपबड़लाइ सांगुणाल, दिग मिग ससियत्तु मराल वाल |
रूच रइ दासि व णियडि तासु, कि बणमि अमरी खरि जासु ।
लछी सुविलछो सोह दित्ति, तिहं तुल्लि ण छज्जह बुद्धि कित्ति ।
-मगांक १३
चन्द्रलेखा की अखें मगकी आँखोंके समान, वक्त्र चंद्रके समान और चाल हंसके समान थो । उसके निकट रति दासोके समान प्रतीत होती थी, अतः इस स्थितिमें अमरांगना या विद्याधारी उसकी समता कैसे कर सकती थी ?
ग्रन्थको भाषा खिचड़ो है। पद्धड़ीबन्धमें अपभ्रंश, दोहा-मोरठा आदिमें हिन्दी और गाथाओं में प्राकृतभाषाका प्रयोग किया है।
इस प्रकार भगवतीदासने अपनश और हिन्दीमें काव्य-रचनाएं लिखकर जिनवाणीको समृद्धि की है।
#Bhagwatidas
आचार्यतुल्य भगवतीदास 17वीं शताब्दी (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 23 मई 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 23 May 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
भगवतीदास भट्टारक गणचन्द्र के पट्टधर भट्टारक सकलचन्द्रके प्रशिष्य और महीन्द्रसेनके शिष्य थे। महीन्द्रसेन दिल्लीकी भट्टारकीय गद्दोंके पट्टधर थे। पंडित भगवतीदासने अपने गुरु महीन्द्रसेनका बड़े आदरके साथ स्मरण किया है | यह बूढ़िया, जिला अम्बालाके निवासी थे। इनके पिताका नाम किसनदास था । इनकी जाति अग्रवाल और गोत्र बंसल था । कहा जाता है कि चतुथं वयमें इन्होंने मुनिब्रत धारण कर लिया था।
दादा गुरु | सकलचन्द्र |
गुरु | महीन्द्रसेन |
कवि भगवतीदास संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी भाषाके अच्छे कवि और विद्वान थे। ये बुढ़ियासे योगिनीपुर (दिल्ली। आकर बस गये थे। उस समय दिल्ली में अकबर बादशाहके पुत्र जहाँगीरका राज्य था । दिल्लोके मोतीबाजार में भगवान पार्श्वनाथका मन्दिर था । इसी मंदिरमें आकर भगवसीदास निघास करते थे।
कविने अपनी अधिकांश रचनाएं जहाँगीरके राज्यकाल में लिखी हैं । जहाँगीर का राज्य ई० सन् १६०५-१६२८ ई० सक रहा है । अशिष्ट रचनाएँ शाहजहाँ के राज्यमें ई० सन् १६२८-१६५८ में लिखी गई हैं।
कतिपय रचनाओंमें कविने उनके लेखनकालका उल्लेख किया है । 'चूनड़ी' रचना वि० सं० १६८०में समाप्त हुई है। अन्य १९ रचनाएँ भी संभवतः सं० १६८० या इसके पूर्व लिखी जा चुकी थीं । 'बृहत् सीता सतु'को रचना वि० सं० १६८४ और 'लघु सीतासतु की रचना वि० सं० १९८७में की है। कविने अपभ्रंश भाषाका 'मगांकलेखाचरित' वि० सं० १७०० मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी सोमवार के दिन पूरा किया है । लिखा है
सगदह संवदत्तीह तहा, विपकमराय महप्पए ।
अगहण-सिय पंचमि सोम-दिणे, पुण्ण ठिबउ अवियप्पए ।
अतएव कवि भगवतीदासका समय १७वीं शतीका उत्तराखं और अठारहवीं शतीका पूर्व सुनिश्चित है। कविकी सभी रचनाएं १७वीं शतीमें सम्पन्न हुई हैं।
कवि पं० भगवतीदासने अप्रभंश और हिंदी में प्रचुर परिमाणमें रचनाएं लिखी है। उनकी उपलब्ध रचनाओंका उल्लेख निम्न प्रकार है
१. हंडाणारास-यह रूपक काव्य है। इसमें बसाया गया है कि एक चतुर प्राणी अपने-अपने दर्शन, लान, चारित्रादि गुणोंको छोड़कर अशानी बन गयाऔर मोह-मिथ्यात्वमें पड़कर निरन्तर परवश हुआ चतुर्गलिरूप संसारमें भ्रमण करता है । अत: कवि सम्बोधन करता हुआ कहता है
धर्म-सुकल धरि ध्यानु अनुपम, लहि निजु केवलनाणा वे |
जंम्पति दासभगवती पावहू, सासउ-सुह निबाणा के ।।
२. आदित्यरास-इसमें बीस पद्य हैं।
३. पखवाडारास-२२ पद्य हैं । पन्द्रह तिथियों में विषेय कर्तव्यपर प्रकाश डाला गया है।
४. दशलक्षणरास-३४ पद्य हैं और उत्तमक्षमादि दश धोका स्वरूप बतलाया गया है । दश धर्मोको अवगत करने के लिए यह रचना उपादेय है ।
५. खिण्डीरास-४० पद्य हैं। इसमें भावनाओंको उदात्त बनानेपर जोर दिया है।
६. समाधिगस- इसमें साधु-समाधिका चित्रण आया है।
७. जोगाराम-३८ पद्य है। भ्रमवश संसारमें भ्रमण करनेवाले जीवको भ्रम त्याग अतान्द्रिय सुख-प्राप्ति के हेतु प्रयत्नशील रहने के लिए संकेत किया है।
पैरबहु हो तुम पेरबहु भाई, जोगी जगमहि सोई।
घट-घट-अन्तरि वसई चिदानंदु, अलखु न लखिए कोई ।।
भववन भूल रह्यो भ्रमिरावल, सिचपुर-मुघ बिसराई ।
परम अतीन्द्रिय शिव-सुख तजिकर, विषयनि रहिउ भुलाई ॥
8, मनकरहाराम–२५ पद्य हैं। इस रूपक काव्यमें मनकरहाके चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने और जन्म-मरणके असह्य दुःख उठानेका वर्णन किया है और बताया है कि रत्नत्रय द्वारा ही जीव जन्म-मरणके दुःखोंसे मुक्त
हो शिवपुरी प्राप्त करता है । रूपकको पूर्णतया स्पष्ट किया गया है।
९. रोनिमि .-४ मा हैं :
१०. चतुर बनजारा--३५ पद्य हैं। यह भी रूपक काव्य है।
११. द्वादशानुप्रक्षा...१२ पद्यों द्वादश भावनाओंका निरूपण किया है।
१२. सुगन्धदशमीकथा-५१ पद्योंमें सुगन्धदशमीनसके पालन करनेका फल निरूपित किया गया है।
१३. झादित्यवारकथा-रविवारके व्रतानुष्ठानकी रचना की गयो है।
१४. अनथमोकथा--२६ पद्यों में रात्रिभोजनके दोषोंपर प्रकाश डाला गया है और उसके त्यागकी महत्ता बतलाई है ।
१५. 'चूनड़ी' अथवा 'मुक्ति रमणीकी चुनड़ी'-यह रूपक काव्य है । १६. वीरजिनिन्दगीत-तीर्थंकर महावीरको स्तुति वणित है।
१७. राजमती-नेमिसर-ढमाल-इसमें राजमति और नेमकुमारके जीवनको अंकित किया गया है।
१८. लधुसीतासतु इसमें सीताके सतीत्वका चित्रण किया गया है । बारह महीनोंके मन्दोदरी-सोताके प्रश्नोत्तरके रूपमें भावोंकी अभिव्यक्ति हुई है। भाषाढ़ मासके प्रश्नोत्तरको उदाहरणार्थ प्रस्तुत किया जाता है
मंदोदरी तब बोलइ मंदोदरी रानी, सखि अषाढ़ पनघट घहरानी।
पोय गए तो फिर घर आवा, पामर नर नित मन्दिर छावा ।
लवहिं पपोहे दादुर मोरा, हियरा उमग परत नहिं धीरा ।
बादर उमहि रहे चौपासा, तिय पिय विनु लिहिं उसन उसासा !!
सीता
करत कुशील बढ़त बहु पापू, नरफि जाइ तिर हा संतापू ।
जिउ मधुचिदु तनूसुख लहिये, शील विना दुरगति दुख सहिये।
१९. अनेकाप नाममाला- यह कोषमन्य है। इसमें एक शकरके अनेकानेक भोंका दोहोंमें संग्रह किया है। इसमें तीन अध्याय है और प्रथम अध्यायमें ६३, द्वितीयमें १२२ और तृतीयमें ७१ दोहे लिखित हैं । यह बनारसीदासको नाममालासे १७ वर्ष बादको रचना है।
२०. मृगांकलेशाचरित-इस ग्रन्थमें चन्द्रलेखा और सागरचन्द्रके चरितका वर्णन करते हुए चन्द्रलेखाके शोलयतका महत्व प्रदर्शित किया गया है । चन्द्र लेखा नाना प्रकारको विपत्तियोंको सहन करते हुए भी अपने शीलवतसे च्युत नहीं होती।
इस ग्रन्थकी कथावस्तु चार सन्धियोंमें विभक्त है। इस अपभ्रंश-काव्यमें काध्यतत्त्वोंका पूर्णतया समावेश हुआ है । कवि चन्द्रलेखाका वर्णन करता हुआ कहता है
सुहाग जोइ वर सुह गरवत्ति, सुउवणा कण्ण णं काम त्ति ।
कम पांणि कवल सुसुबग्ण देह, तिह गांउ परिउ सुमइंक लेह ।
कमि कमि सुपबड़लाइ सांगुणाल, दिग मिग ससियत्तु मराल वाल |
रूच रइ दासि व णियडि तासु, कि बणमि अमरी खरि जासु ।
लछी सुविलछो सोह दित्ति, तिहं तुल्लि ण छज्जह बुद्धि कित्ति ।
-मगांक १३
चन्द्रलेखा की अखें मगकी आँखोंके समान, वक्त्र चंद्रके समान और चाल हंसके समान थो । उसके निकट रति दासोके समान प्रतीत होती थी, अतः इस स्थितिमें अमरांगना या विद्याधारी उसकी समता कैसे कर सकती थी ?
ग्रन्थको भाषा खिचड़ो है। पद्धड़ीबन्धमें अपभ्रंश, दोहा-मोरठा आदिमें हिन्दी और गाथाओं में प्राकृतभाषाका प्रयोग किया है।
इस प्रकार भगवतीदासने अपनश और हिन्दीमें काव्य-रचनाएं लिखकर जिनवाणीको समृद्धि की है।
Acharyatulya Bhagwatidas 17th Century (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 23 May 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
#Bhagwatidas
15000
#Bhagwatidas
Bhagwatidas
You cannot copy content of this page