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#BhaiyaBhagwatidas
भैया भगवतीदास आगरानिवासी कटारियागोत्रीय ओसवाल जैन थे । इनके दादाका नाम दशरथ साह और पिताका नाम लाल जो था । इनकी रचनाओंसे अवगत होता है कि जिस समय ये काव्यरचना कर रहे थे उस समय आगरा दिल्ली-शासनके अन्तर्गत था और औरंगजेब बहाँका शासक था।
ओसवालहोनेके कारण कविको जन्मना श्वेताम्बरसम्प्रदायानुयायी होना चाहिए; पर उनकी रचनाओंके अध्ययनसे उनका दिगम्बर सम्प्रदायानु थायी होना सिद्ध होता है। कविकी रचनाओंके अवलोकनसे मात होता है कि भैया भगवतीदासने समयसार, यात्मानुशासन, गोम्मटसार और द्रव्यसंग्रह आदि दिगम्बर अन्थोंका पूरा अध्ययन किया है। उनकी आध्यात्मिक रचनाओं पर समयसारका पूरा प्रभाव है।
इन्होंने स्तुतिपरक या भक्तिपरक जितने पद लिखे हैं उनमें तीर्थंकरोंके गुण और इतिवृत्त दिगम्बर सम्प्रदायके अनुसार अंकित हैं ।
संवत्त सत्रह से इकत्तीस, माघसुदी दशमी शुभदौस ।
मंगलकरण परमसुखधाम, द्रवसंग्रह प्रति करहुं प्रणाम ।।
द्रव्यसंग्रहको रचनाके साथ भया भगवतीदासकी स्वप्नबत्तीसी, द्वादशानु प्रेक्षा, प्रभाती और स्तवनौसे भी उनका दिगम्बर सम्प्रदायी होना सिद्ध होता है।
वि० सं० १७११में हीरानन्दजीने पंचास्तिकायका अनुवाद किया था । उसमें उन्होंने आगरा में एक भगवतीदास नामक व्यक्ति के होनेका उल्लेख किया है। संभवतः भैया भगबत्तीदास ही उक्त व्यक्ति हो । इन्होंने कवितामें अपना उल्लेख भैया, भविक और दासमिनट मनामोदरे निया है । इसकी समस्त रचनाओं का संग्रह ब्रह्मविलासके नामसे प्रकाशित है।
भैया भगवत्तीदासका समय वि० सं० की १८वीं शताब्दी है । इन्होंने अपनी रचनाओंमें औरंगजेबका उल्लेख किया है । औरंगजेबका शासनकाल वि० सं० १७१५-१७६४ रहा है । भैया भगवतीदासके समकालीन महाकवि केशवदास हैं, जिन्होंने रसिकप्रिया नामक श्रृंगाररसपूर्ण रचना लिखी है। कवि भगवती दासने इस रसिकप्रियाको प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा है
बड़ी नीत लघु नीत करत है, बाय सरत बदबोय भरी।
फोड़ो बहुत फुनगणी मंडित सकल देह मनु रोगदरी ।।
शोणित हाड़ मांसमय मूरत तापर रीझत घरी-घरी ।
ऐसी नारी निरखि करि केशव! रसिकप्रिया तुम कहा करो।
अतएव भैया भगवतीदास १८वीं शताब्दीके कवि हैं।
भैया भगवतीदासकी रचनाओंका संग्रह ब्रह्मविलासके नामसे प्रकाशित है। इसमें ६७ रचनाएँ सगृहीत हैं। इन रचनाओंको काव्यविधाकी दृष्टिसे निम्न लिखित वर्गोंमें विभक्त किया जा सकता है
१. पदसाहित्य
२. आध्यात्मिक रूपककाव्य
३. एकार्थ काव्य
४. प्रकीर्णककाव्य
इनके पदसाहित्यको १. प्रभाती, २. स्तवन, ३. अध्यात्म, ४. वस्तुस्थितिनिरूपण, ५. मात्मालोचन एवं ६. आराध्य के प्रति दृढ़तर विश्वास, विषयों में विभाजित किया जा सकता है । वस्तुस्थितिका चित्रण करते हुए बताया है कि यह जीव विश्वकी वास्तविकता और जीवनके रहस्योंसे सदा आँखें बन्द किये रहता है । इसने व्यापक विश्वजनीन और चिरन्तन सत्यको प्राप्त करनेका प्रयास नहीं किया । पार्थिव सौन्दर्यके प्रसि मानव नैसगिक आस्था रखता है । राग-द्वेषोंकी ओर इसका झुकाव निरन्तर होता रहता है, परन्तु सत्य इससे परे है, विविधनामरूपात्मक इस जगत्से पृथक होकर प्रकृत भावनाओंका संयमन, दमन और परिष्करण करना ही व्यक्तिका जीवन-लक्ष्य होना चाहिए। इसो कारण पश्चात्तापके साथ सजग करते हुए वैयक्तिक चेतनामें सामूहिक चेतना. का अध्यारोप कर कवि कहता है
अरे में नु यह जन्म गमायो रे, अरे ते ।
पूरब पुण्य किये कहूँ असि ही, तात नरभव पायो रे।
देव धरम गुरु अन्य न परसै, भटक भटकि भरमायो रे । अरे०॥
शा फिरि सोको मिलिबो यह दुरलभ दश दृष्टान्त बतायो रे ।
जो चेते तो चेत रे भैया, तोको करि समुझायो रे ।।अरे॥२॥
आत्मालोचन सम्बन्धी पदोंमें कविने राग-द्वेष, ईर्ष्या, घृणा, मद, मात्सर्य आदि विकारोंसे अभिभूत हृदयकी आलोचना करते हुए गढ़ अध्यात्मको अभि व्यञ्जना की है | कवि कहता है--
छोड़ि दे अभिमान जियरे, छाडि दे अभि।
काको तू अझ कौन तेरे, सब ही हैं महिमान ।
देखा राजा रंक कोक, पिर नहीं यह थान जियरे॥१॥
जगत देखत तेरि चलवो, तू भी देखत धान ।
घरी पलकी खबर नाहीं, कहा होय विहान ।जियरे
त्याग कोष छ लोभ माया, मोह मदिरा पान ।
रागन्दोहि टार अन्तर, दूर कर अज्ञान जियरे
भयो सुरपुर-देव कबहूँ, कबहुँ नरक निदान ।
इम कर्मवश बहु नाच नाचे, भैया आप पिछान ॥जियरे
के अन्तर्गत कविकी चेतनकर्मचरित, षट अष्टोत्तरी, पंचइन्द्रियसंवाद, मधुबिन्दुकचौपाई, स्वप्नबत्तीसी, द्वादशानुनेक्षा आदि रचनाएं प्रमुख हैं । चेतनकर्मचरितमें कुल २९.६ पद्य हैं। कल्पना, भावना, नगर, रस, सात सौन्लाई और नमीया आदिका समवाय पाया जाता है । भावनाओंके अनुसार मधुर अथवा परुष वर्णोका प्रयोग इस कृति में अपूर्व चमत्कार उत्पन्न कर रहा है। बेकारोंको पात्रकल्पना कर कविने इस चरित काव्य में आत्माकी श्रेयता और प्रासिका मार्ग प्रदर्शित किया है | कुबुद्धि एवं सुबुद्धि ये दो चेतनकी भार्या हैं। कविने इस काव्य में प्रमुखरूपसे घेतन और उनकी पत्नियोंके वार्तालाप प्रस्तुत किये हैं। सुबुद्धि चेतन-आत्माको कर्मसंयुक्त अवस्थाको देखकर कहती है-"चेतन, तुम्हारे साथ यह दुष्टोंका संग कहाँसे मा गया ? क्या तुम अपना सर्वस्व स्त्रोकर भी सजग होने में बिलम्ब करोगे ? जो व्यक्ति जीवन में प्रमाद करता है, संयमसे दूर रहता है वह अपनी उन्नति नहीं कर नकता।"
चेतन--"हे महाभागे ! मैं तो इस प्रकार फंस गया हूँ, जिससे इस गहन पंकसे निकलना मुश्किल सा लग रहा है। मेरा उद्धार किस प्रकार हो, इसकी मुझे जानकारी नहीं।"
सुबुद्धि-"नाथ ! आप अपना बद्धार स्वयं करने में समर्थ हैं। भेदविज्ञानक प्राप्त होते हो आपके समस्त पर-सम्बन्ध विलित हो जायगे और आप स्वतंत्र दिखलाई पड़ेंगे।"
कुबुद्धि-"अरी दुष्टा ! क्या बक रही है? मेरे सामने तेरा इतना बोलने का साहस ? तू नहीं जानती कि मैं प्रसिद्ध शूरवीर मोहकी पुत्री हूँ ?"
कविने इस संदर्भ में सुबुद्धि और कुबुद्धिके कलहका सजीव चित्रण किया है। और चेतन द्वारा सुद्धिका पक्ष लेनेपर कुबुद्धि रूठ कर अपने पिता मोहके यहाँ चली जाती है और मोगको चेतनके प्रति लभारती है। मोह युद्ध की तैयारी कर अपने राग-द्वैधरूपी मंत्रियोंसे साहाय्म प्राप्त करता है और अष्ट कर्मोकी सेना सजाकर सैन्य संचालनका भार मोहनीय कर्मको देता है। दोनोंओरकी सेनाएं रणभूमिमें एकत्र हो जाती हैं। एक ओर मोहके सेनापतित्वमें काम, क्रोध आदि विकार और अष्ट कोका सैन्य-दल है। दूसरी ओर ज्ञान के सेनापतित्वमें दर्शन, चरित्र, सुख, वीर्य आदिकी सेनाएं उपस्थित है । मोहराज चेतनपर आक्रमण करता है, पर ज्ञानदेव स्वानुभूतिकी सहायतासे विपक्षी दलको परास्त देता है । कविने युद्धका बड़ा ही सजीव वर्णन किया है । निम्न पंक्तियाँ है
सूर बलवंत मदमत्त महामोहके, निकसि सब सेन आगे जु आये ।
मारि घमासान महाजुद्ध बहुद्ध करि, एक ते एक सातों सवाए।
धीर-सुविवेकने धनुष ले ध्यानका, मारि कै सुभट सातों गिराए ।
कुमुक जो ज्ञानकी सेन सब संग धसी मोहके सुभट मूर्छा सवाए ।
रणसिंगे बजहिं कोऊ न भजहि, कहिं महा दोऊ जुद्ध ।
इत जीव इंकारहि, निजपर बारहिं, करहै अरिनको रुख ॥
इसमें १०८ पद्य है। कविने आत्मज्ञानका सुन्दर उपदेश अंकित किया है । यह रचना बड़ी ही सरस और हृदयग्राह्य है । अत्यल्प कथा नकके सहारे आत्मतत्वका पूर्ण परिज्ञान सरस शैली में करा देने में इस रचनाको अद्वितीय सफलता प्राप्त हुई है। कवि कहता है कि चेतनराजाको दो रानियाँ हैं, एक सुबुद्धि और दुसरो माया । माया बहुत ही सुन्दर और मोहक है। सुबुद्धि बद्धिमती होनेपर भी सुन्दरी नहीं है। चेतनराजा मायारानीपर बहुत आसक्त है । दिन-रात भोग-विलासमें संलग्न रहता है। राजकाज देखनेका उसे बिल्कुल अवसर नहीं मिलता। अत: राज्यकर्मचारी मनमानी करते हैं । यद्यपि चेतन राजाने अपने शरीर-देशकी सुरक्षाके लिए मोहको सेनापति, क्रोधको कोसवाल, लोभको मंत्री, कर्मोदयको काजी, कामदेवको वैयक्तिक सचिव और ईर्ष्या-घुणा को प्रबन्धक नियुक्त किया है। फिर भी शरीर-देशका शासन चेसनराजाकी असावधानीके कारण विश्रृंखलित होता जा रहा है । मान और चिन्ताने प्रधान मंत्री बननेके लिए संघर्ष आरंभ कर दिया है । इधर लोभ और कामदेव अपना पद सुरक्षित रखनेके लिये नाना प्रकारसे देशको प्रस्त कर रहे हैं। नये-नये प्रकारके कर लगाये जाते हैं, जिससे बारीर-राज्यकी दुरवस्था हो रही है । ज्ञान, दर्शन, सूख वीर्य, जो कि चेतनराजाके विश्वासपात्र अमात्य है, उनको कोतवाल सेनापत्ति, वैयक्तिक सचिव आदिने स्वदेड़ बाहर कर दिया है। शरीर-देशको देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ चेतनराजाका राज्य न हो कर सेनापति मोहने अपना शासन स्थापित कर लिया है। चेतनकी आशाको सभी अवहेलना करते हैं।
माधा-रानी भी मोह और लोभको चुपचाप-राज्य शरीर-संपालनमें सहायता देती है। उसने इस प्रकार षड्यन्त्र किया है जिससे चेतन राजाका राज्य उलट दिया जाम और वह स्वयं उसकी शासिका बन जाये। जब सुबुद्धिको चेतन राजाके विरुद्ध किये गये षड्यन्त्रका पता लगा तो उसने अपना कर्तव्य और धर्म समझकर चेतन राजाको समझाया तथा उससे प्रार्थना की-"प्रिय चेतन, तुम अपने भीतर रहनेवाले ज्ञान, दर्शन आदि गुणोंको सम्हाल नहीं करते ।
इन्द्रिय और शरीरके गुणोंको अपना समक्ष माया-रानीमें इतना आसक्त होना . तुम्हें शोभा नहीं देता। जिन क्रोध, मोह और काम-कर्मचारियोंपर तुमने विश्वास कर लिया है वे निश्चय ही तुमको ठग रहे हैं। सुम्हारे चैतन्य-नगर पर उनका अधिकार होनेवाला है, क्योंकि तुमने शरीरके हारनेपर अपनी हार और उसके जीतनेपर जीत समझ ली, दिन-रात मायाके द्वारा निरूपित सांसारिक धन्धोंमें मस्त रहनेसे तुम्हें अपने विश्वासप्रास अमात्योंको भी खो देना पड़ेगा। तुमने जो मार्ग अभी ग्रहण किया है वह बिल्कुल अनुचित है । क्या कभी तुमने विचार किया है कि तुम कौन हो? कहाँसे आये हो ? तुम्हें कौन-कौन धोखा दे रहे हैं ? और तुम अपने स्वभावसे किस प्रकार च्युत हो रहे हो ? ये द्रव्य कर्म ज्ञानावरणादि तथा भावकम राग-द्वेष आदि, जिनपर तुम्हारा अटूट विश्वास हो गया है, तुमसे बिल्कुल भिन्न है । इनका तुमसे कुछ भी तादात्म्य भाव नहीं है । प्रिय चेतन ! क्या तुम राजा होकर दास बनना चाहते हो ? इतने चतुर और कलाप्रवीण होकर तुमने यह मूर्खता क्यों को ? सीन लोकके स्वामी होकर मायाकी मीठी बातोंमें उलझकर भिखारी बन रहे हो? तुम्हारे त्रासको देखकर मैं वेदनासे झुलस रही हूँ। तुम्हारी अन्धता मेरे लिये लज्जाकी बात है, अब भी समय है, अवसर हैं, सुयोग है और है विश्वासपात्र अमात्योंका सहारा ! हृदयेश ! अब सावधान होकर अपनी नगरीका शासन करें, जिससे शीघ्न ही मोक्ष-महलपर अधिकार किया जा सके । प्राणनाथ ! राज्य सम्हालते समय तुमने मोक्षमहलको प्राप्त करनेकी प्रतिज्ञा भी की थी 1 में आपको विश्वास दिलाती हूँ कि मोक्ष-महल में रहनेवाली मुक्ति-रानी इस ठगिनी मायासे करोड़ों-गुणी सुन्दरी और हाव-भावप्रवीण है। उसे देखते ही मुग्ध हो जाओगे । प्रमाद और अहंकार दोनों ही तुमको मुक्ति-रमाके साथ विहार करने में बाधा दे रहे हैं।
इस प्रकार सुबुद्धिने नानाप्रकारसे चेतनराजाको समझाया । सुद्धिकी बात मान लेनेपर चेतनराजा अपने विश्वासपात्र अमात्य ज्ञान, दर्शन आदिको सहायतासे मोक्ष महलपर अधिकार करने चल दिया ।
काठ्यकी दृष्टिसे इस रचनामें सभी गुण वर्तमान हैं । मानवके विकार और उसकी चिभित चित्तवृत्तियोंका अत्यन्त सूक्ष्म और सुन्दर विवेचन किया है। यह रचना रसमय होनेके साथ मंगलप्रद है। भावात्मक शैलीमें कविने अपने हृदयकी अनुभूतिको सरलरूपसे अभिव्यक्त किया है। दार्शनिकताके साथ काव्यात्मक शैलीमें सम्बद्ध और प्रवाहपूर्ण भावोंकी अभिव्यञ्जना रोचक हुई है । कवि चेतनराजाको सुव्यवस्थाका विश्लेषण करता हुआ कहता है
काया-सो जु नगरीमें चिदानन्द राज करें;
मामा-सी जु रानी पे मगन बहु भयो है ।
मोह-सो है फौजदार क्रोध-सो है कोतवार;
लोभ-सो वजीर जहाँ लूटिबेको रह्यो है ।।
उदेको जु काजी माने, मानको अदल जाने,
कामसेनाका नवीस आई बाको कझो है !
ऐसी राजधानी में अपने गुण भूलि रह्यो;
सुधि जब आई तबै शान आय गयो है ।
सुबुद्धि चेतनराजाको समझाती है
कौन तुम, कहाँ आए, कौन बौराये तुमहिं
काके रस राचे फछु सुषहू घरतु हो ।
कोन है वे कम, जिन्हें एकमेक मानि रहे।
अजहू न लागे हाथ भावरि भरतु हो ।
वे दिन चितारो, जहाँ बीते हैं अनादि काल;
कैसे-कैसे संकट सहे हू विसरतु हो ।
तुम तो सयाने पै सयान यह कौन कीन्हो;
तीन लोक नाथ ढके दोनसे फिरतु हो ।
में बताया गया है कि एक सुरम्य उद्यानमें एक दिन एक मुनिराज धर्मोपदेश दे रहे थे। उनकी धर्मदेशनाका श्रवण करनेके लिए अनेक व्यक्ति एकत्र हुए । सभामें नानाप्रकारकी शंकाएं की जाने लगीं । एक व्यक्तिने मुनिराजसे पूछा-'पंचेन्द्रियोंके विषय सुखकर हैं या दुलकर ?' मुनिराजबोले "ये पंचेन्द्रियाँ बड़ी दुष्ट हैं। इनका जितना ही पोषण किया जाता है, दुःख ही देती हैं।"
एक विद्याधर बीच में ही इन्द्रियोंका पक्ष लेकर बोला--"महाराज इन्द्रियाँ दुष्ट नहीं हैं, इनकी बात इन्हींके मुखसे सुनिये । ये प्राणियोंको कितना सुख देती हैं ?"
मुनिराजका संकेत पाते ही सभी इन्द्रियाँ अपने-अपनेको बड़ा सिद्ध करने लगों । पश्चात् मुनिराजने उन सभी इन्द्रियों और मनको समझाकर बताया कि तुम सबसे बड़ी मात्मा हो | राग-द्वेषके दूर होनेपर आत्मा ही परमात्मा बन जाता है।
इस पंचेन्द्रिय-संबादमें इन्द्रियोंके उत्तर-प्रत्युत्तर बड़े ही सरस और स्वाभा विक हैं। प्रत्येक इन्द्रियका उत्तर इतने प्रामाणिक बंगसे उपस्थित किया है, जिससे पाठक मुग्ध हो जाता है। सर्वप्रथम अपने पक्षको स्थापित करती हुई नाक कहती है
नाक कहै प्रभु में बड़ी, और न बड़ो कहाय ।
नाक रहै पत लोक में, नाक गये पत जाय ।।
प्रथम बदनपर देखिए, नाक नवल आकार |
सुन्दर महा सुहावनी, मोहित लोक अपार ।।
सुख विलसे संसारका, सो सब मुझ परसाद ।
नाना वृक्ष सुगन्धिको, नाक करें आस्वाद ।।
कानका उत्तर
अन कहै, भी न. मा कर गान !
जो आकर आगे चलै, तो नहिं भूप समान ।।
नाक सुरनि पानी झरे, बहे इलेषम अपार ।
गुनि करि पूरित रहै, लाजै नहीं गंवार ।।
तेरी छींक सुनै जिते, करे न उत्तम काज |
मूदै तह दुर्गन्ध में, तक न आवे लाज ।।
वर्षभर्क नारी निरख, और जीव जग मौहि ।
जित तित तोको छेदिये, तोक लजानो नाहिं ।।
कानन कुण्डल झलकत्ता, मणि मुक्ताफल सार ।
जगमग जगमग झै रहै, देखे सब संसार ।।
सातों सुरको गाइबो, अद्भुत सुखमय स्वाद ।
इन कानन कर परखिये, मीठे-मीठे नाद ।
कानन सरभर को करै, कान बड़े सरदार ।
छहों द्रव्य के गुण सुने, जानै सबद-विचार ।।
भी कविका एक सरस आध्यात्मिक रूपक काव्य है। इस काव्य में बताया है कि एक पुरुष वनमें जाते हुए रास्ता भूलकर इधर उधर भटकने लगा। जिस अरण्य में वह पहुँच गया था वह अरण्य अत्यन्त भयंकर था। उसमें सिंह और मवान्मत्त गजोंकी गर्जनाएं सुनाई पड़ रही थीं। वह भयाक्रान्त होकर इधर-उधर छिपनेका प्रयास करने लगा। इतने में एक पागल हाथी उसे पकड़नेके लिए दौड़ा । हाषीको अपनी ओर आते हुए देखकर वह व्यक्ति भागा । वह जितनी तेजीसे भागता जाता था, हाथी भी उतनी ही तेजीसे उसका पीछा कर रहा था। जब उसने इस प्रकार जान बचते न देखी, सो वह एक वृक्षकी शाखासे लटक गया। उस वृक्षकी शाखाके नीचे एक बड़ा अन्धकूप था तथा उसके ऊपर एक मधुमतीका छत्ता लगा हुआ था। हाथी
भी दौड़ता हुआ उसके पास आया। पर शाखासे लटक जाने के कारण वह उस पेड़के तनेको सँड़से पकड़कर हिलाने लगा। वृक्षके हिलनेसे मषुछत्तसे एक एक बूंद मधु गिरने लगा और वह पुरुष उस मधुका आस्वादन कर अपने को सुखी समझने लगा।
नीचेके अन्धकूपमें चारों किनारेपर चार अजगर मुंह फेलाये बैठे थे तथा जिस शास्त्राको वह पकड़े हुए था, उसे काले और सफेद रंगके दो बहे काट रहे थे । उस व्यक्तिकी बुरी अवस्था थी। पासपी मुबाको उतार से भार डालना चाहता था तथा हाथीसे बच जानेपर बहे उसकी डालको काट रहे थे, जिससे वह अन्धकूपमें गिरकर अजगरोंका भक्ष्य बनने जा रहा था । उसको इस दयनीय अवस्थाको आकाशमार्गसे जाते हुए विद्याधर-दम्पतिने देखा । स्त्री अपने पतिसे कहने लगी-"स्वामिन् इस पुरुषका जल्द उद्धार कोधिए । यह जल्दी ही अन्धकूपमें गिरकर अजगरोंका शिकार होना चाहता है। प्राप दयाल है। अतः अब विलम्ब करना अनुचित है। इसे विमानमें बैठाकर इस दुःखसे छुटकारा दिला देना हमारा परम कर्तव्य है।"
स्त्रोके अनुरोधसे वह विद्याधर वहां आया और उससे कहने लगा-"आओ, मैं तुम्हारा हाथ पकड़ लेता हूं। विश्वास करो, मैं तुम्हें विमान द्वारा सुरक्षित स्थानपर पहुंचा दूंगा।" वह पुरुष बोला-"मित्र आप बड़े उपकारी हैं। कृपया थोड़ी देर रुके रहें। अबकी बार गिरने वाली मषबूंदको खाकर मेंआता है।" विद्याधरने बहुत देर तक प्रतीक्षा करने के बाद पुनः कहा--"भाई, निकलना है, तो निकलो, विलम्ब करनेसे तुम्हारे प्राण नहीं बच सकेंगे।जल्दी करो।"
पुरुष-"महाभाग ! इस मधुबूंदमें अपूर्व स्वाद है। मैं निकलता हूँ, अबकी बंद और चाट लेने दोजिये। बेधारे विद्याधरने कुछ समय तक प्रतीक्षा करनेके उपरान्त पुनः कहा-"क्या भाई ! तुम्हें इससे छुटकारा पाना नहीं है ? जल्दी माओ, अब मुझे देरी हो रही है। वह लोभी पुरुष बार-बार उसी प्रकार बूंद और चाट लेने दो, उत्तर देता रहा । अब निराश होकर विद्याधर चला गया और कुछ समय पश्चात् शाखाके कट जानेपर वह उस अन्धकूपमें गिर पड़ा तथा एक किनारे अजगरका शिकार हुआ।
इस रूपकको स्पष्ट करते हुए कविने लिखा है--
यह संसार महा वन जान !ताहि भयभ्रम कूप समान ||
गज जिम काल फिरत निशदीस ।तिहं पकरन कहुँ विस्वाबोस ।
बटको जटा लरकि जो रही ।सो आयुर्दा जिनवर कही ।।
तिहं जर कादत मुसा दोय ।दिन अरु रेन लखह तुम सोध ।।
माँन्धी चूटित ताहि शरीर ।सो बहु रोगादिकको पोर ।।
अजगर परयो कूपके बोच ।सो निगोद सबर्ते गति बोध ।।
इस प्रकार इस रूपक द्वारा कविने विषय-सुखकी सारहीनताका उदाहरण प्रस्तुत किया है। भैयां भगवतीदासकी पुण्यपच्चीसिका, अक्षरबत्तीसिका, शिक्षाबली, गुणमंजरी, अनादिबत्तीसिका, मनबत्तीसी, स्वग्नबत्तीसी, वैराग्य पंचाशिका और आश्चर्यचतुर्दशी आदि रचनाएँ कान्यकी दृष्टिसे महत्वपूर्ण है।
भैया भगवतीदास आगरानिवासी कटारियागोत्रीय ओसवाल जैन थे । इनके दादाका नाम दशरथ साह और पिताका नाम लाल जो था । इनकी रचनाओंसे अवगत होता है कि जिस समय ये काव्यरचना कर रहे थे उस समय आगरा दिल्ली-शासनके अन्तर्गत था और औरंगजेब बहाँका शासक था।
ओसवालहोनेके कारण कविको जन्मना श्वेताम्बरसम्प्रदायानुयायी होना चाहिए; पर उनकी रचनाओंके अध्ययनसे उनका दिगम्बर सम्प्रदायानु थायी होना सिद्ध होता है। कविकी रचनाओंके अवलोकनसे मात होता है कि भैया भगवतीदासने समयसार, यात्मानुशासन, गोम्मटसार और द्रव्यसंग्रह आदि दिगम्बर अन्थोंका पूरा अध्ययन किया है। उनकी आध्यात्मिक रचनाओं पर समयसारका पूरा प्रभाव है।
इन्होंने स्तुतिपरक या भक्तिपरक जितने पद लिखे हैं उनमें तीर्थंकरोंके गुण और इतिवृत्त दिगम्बर सम्प्रदायके अनुसार अंकित हैं ।
संवत्त सत्रह से इकत्तीस, माघसुदी दशमी शुभदौस ।
मंगलकरण परमसुखधाम, द्रवसंग्रह प्रति करहुं प्रणाम ।।
द्रव्यसंग्रहको रचनाके साथ भया भगवतीदासकी स्वप्नबत्तीसी, द्वादशानु प्रेक्षा, प्रभाती और स्तवनौसे भी उनका दिगम्बर सम्प्रदायी होना सिद्ध होता है।
वि० सं० १७११में हीरानन्दजीने पंचास्तिकायका अनुवाद किया था । उसमें उन्होंने आगरा में एक भगवतीदास नामक व्यक्ति के होनेका उल्लेख किया है। संभवतः भैया भगबत्तीदास ही उक्त व्यक्ति हो । इन्होंने कवितामें अपना उल्लेख भैया, भविक और दासमिनट मनामोदरे निया है । इसकी समस्त रचनाओं का संग्रह ब्रह्मविलासके नामसे प्रकाशित है।
भैया भगवत्तीदासका समय वि० सं० की १८वीं शताब्दी है । इन्होंने अपनी रचनाओंमें औरंगजेबका उल्लेख किया है । औरंगजेबका शासनकाल वि० सं० १७१५-१७६४ रहा है । भैया भगवतीदासके समकालीन महाकवि केशवदास हैं, जिन्होंने रसिकप्रिया नामक श्रृंगाररसपूर्ण रचना लिखी है। कवि भगवती दासने इस रसिकप्रियाको प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा है
बड़ी नीत लघु नीत करत है, बाय सरत बदबोय भरी।
फोड़ो बहुत फुनगणी मंडित सकल देह मनु रोगदरी ।।
शोणित हाड़ मांसमय मूरत तापर रीझत घरी-घरी ।
ऐसी नारी निरखि करि केशव! रसिकप्रिया तुम कहा करो।
अतएव भैया भगवतीदास १८वीं शताब्दीके कवि हैं।
भैया भगवतीदासकी रचनाओंका संग्रह ब्रह्मविलासके नामसे प्रकाशित है। इसमें ६७ रचनाएँ सगृहीत हैं। इन रचनाओंको काव्यविधाकी दृष्टिसे निम्न लिखित वर्गोंमें विभक्त किया जा सकता है
१. पदसाहित्य
२. आध्यात्मिक रूपककाव्य
३. एकार्थ काव्य
४. प्रकीर्णककाव्य
इनके पदसाहित्यको १. प्रभाती, २. स्तवन, ३. अध्यात्म, ४. वस्तुस्थितिनिरूपण, ५. मात्मालोचन एवं ६. आराध्य के प्रति दृढ़तर विश्वास, विषयों में विभाजित किया जा सकता है । वस्तुस्थितिका चित्रण करते हुए बताया है कि यह जीव विश्वकी वास्तविकता और जीवनके रहस्योंसे सदा आँखें बन्द किये रहता है । इसने व्यापक विश्वजनीन और चिरन्तन सत्यको प्राप्त करनेका प्रयास नहीं किया । पार्थिव सौन्दर्यके प्रसि मानव नैसगिक आस्था रखता है । राग-द्वेषोंकी ओर इसका झुकाव निरन्तर होता रहता है, परन्तु सत्य इससे परे है, विविधनामरूपात्मक इस जगत्से पृथक होकर प्रकृत भावनाओंका संयमन, दमन और परिष्करण करना ही व्यक्तिका जीवन-लक्ष्य होना चाहिए। इसो कारण पश्चात्तापके साथ सजग करते हुए वैयक्तिक चेतनामें सामूहिक चेतना. का अध्यारोप कर कवि कहता है
अरे में नु यह जन्म गमायो रे, अरे ते ।
पूरब पुण्य किये कहूँ असि ही, तात नरभव पायो रे।
देव धरम गुरु अन्य न परसै, भटक भटकि भरमायो रे । अरे०॥
शा फिरि सोको मिलिबो यह दुरलभ दश दृष्टान्त बतायो रे ।
जो चेते तो चेत रे भैया, तोको करि समुझायो रे ।।अरे॥२॥
आत्मालोचन सम्बन्धी पदोंमें कविने राग-द्वेष, ईर्ष्या, घृणा, मद, मात्सर्य आदि विकारोंसे अभिभूत हृदयकी आलोचना करते हुए गढ़ अध्यात्मको अभि व्यञ्जना की है | कवि कहता है--
छोड़ि दे अभिमान जियरे, छाडि दे अभि।
काको तू अझ कौन तेरे, सब ही हैं महिमान ।
देखा राजा रंक कोक, पिर नहीं यह थान जियरे॥१॥
जगत देखत तेरि चलवो, तू भी देखत धान ।
घरी पलकी खबर नाहीं, कहा होय विहान ।जियरे
त्याग कोष छ लोभ माया, मोह मदिरा पान ।
रागन्दोहि टार अन्तर, दूर कर अज्ञान जियरे
भयो सुरपुर-देव कबहूँ, कबहुँ नरक निदान ।
इम कर्मवश बहु नाच नाचे, भैया आप पिछान ॥जियरे
के अन्तर्गत कविकी चेतनकर्मचरित, षट अष्टोत्तरी, पंचइन्द्रियसंवाद, मधुबिन्दुकचौपाई, स्वप्नबत्तीसी, द्वादशानुनेक्षा आदि रचनाएं प्रमुख हैं । चेतनकर्मचरितमें कुल २९.६ पद्य हैं। कल्पना, भावना, नगर, रस, सात सौन्लाई और नमीया आदिका समवाय पाया जाता है । भावनाओंके अनुसार मधुर अथवा परुष वर्णोका प्रयोग इस कृति में अपूर्व चमत्कार उत्पन्न कर रहा है। बेकारोंको पात्रकल्पना कर कविने इस चरित काव्य में आत्माकी श्रेयता और प्रासिका मार्ग प्रदर्शित किया है | कुबुद्धि एवं सुबुद्धि ये दो चेतनकी भार्या हैं। कविने इस काव्य में प्रमुखरूपसे घेतन और उनकी पत्नियोंके वार्तालाप प्रस्तुत किये हैं। सुबुद्धि चेतन-आत्माको कर्मसंयुक्त अवस्थाको देखकर कहती है-"चेतन, तुम्हारे साथ यह दुष्टोंका संग कहाँसे मा गया ? क्या तुम अपना सर्वस्व स्त्रोकर भी सजग होने में बिलम्ब करोगे ? जो व्यक्ति जीवन में प्रमाद करता है, संयमसे दूर रहता है वह अपनी उन्नति नहीं कर नकता।"
चेतन--"हे महाभागे ! मैं तो इस प्रकार फंस गया हूँ, जिससे इस गहन पंकसे निकलना मुश्किल सा लग रहा है। मेरा उद्धार किस प्रकार हो, इसकी मुझे जानकारी नहीं।"
सुबुद्धि-"नाथ ! आप अपना बद्धार स्वयं करने में समर्थ हैं। भेदविज्ञानक प्राप्त होते हो आपके समस्त पर-सम्बन्ध विलित हो जायगे और आप स्वतंत्र दिखलाई पड़ेंगे।"
कुबुद्धि-"अरी दुष्टा ! क्या बक रही है? मेरे सामने तेरा इतना बोलने का साहस ? तू नहीं जानती कि मैं प्रसिद्ध शूरवीर मोहकी पुत्री हूँ ?"
कविने इस संदर्भ में सुबुद्धि और कुबुद्धिके कलहका सजीव चित्रण किया है। और चेतन द्वारा सुद्धिका पक्ष लेनेपर कुबुद्धि रूठ कर अपने पिता मोहके यहाँ चली जाती है और मोगको चेतनके प्रति लभारती है। मोह युद्ध की तैयारी कर अपने राग-द्वैधरूपी मंत्रियोंसे साहाय्म प्राप्त करता है और अष्ट कर्मोकी सेना सजाकर सैन्य संचालनका भार मोहनीय कर्मको देता है। दोनोंओरकी सेनाएं रणभूमिमें एकत्र हो जाती हैं। एक ओर मोहके सेनापतित्वमें काम, क्रोध आदि विकार और अष्ट कोका सैन्य-दल है। दूसरी ओर ज्ञान के सेनापतित्वमें दर्शन, चरित्र, सुख, वीर्य आदिकी सेनाएं उपस्थित है । मोहराज चेतनपर आक्रमण करता है, पर ज्ञानदेव स्वानुभूतिकी सहायतासे विपक्षी दलको परास्त देता है । कविने युद्धका बड़ा ही सजीव वर्णन किया है । निम्न पंक्तियाँ है
सूर बलवंत मदमत्त महामोहके, निकसि सब सेन आगे जु आये ।
मारि घमासान महाजुद्ध बहुद्ध करि, एक ते एक सातों सवाए।
धीर-सुविवेकने धनुष ले ध्यानका, मारि कै सुभट सातों गिराए ।
कुमुक जो ज्ञानकी सेन सब संग धसी मोहके सुभट मूर्छा सवाए ।
रणसिंगे बजहिं कोऊ न भजहि, कहिं महा दोऊ जुद्ध ।
इत जीव इंकारहि, निजपर बारहिं, करहै अरिनको रुख ॥
इसमें १०८ पद्य है। कविने आत्मज्ञानका सुन्दर उपदेश अंकित किया है । यह रचना बड़ी ही सरस और हृदयग्राह्य है । अत्यल्प कथा नकके सहारे आत्मतत्वका पूर्ण परिज्ञान सरस शैली में करा देने में इस रचनाको अद्वितीय सफलता प्राप्त हुई है। कवि कहता है कि चेतनराजाको दो रानियाँ हैं, एक सुबुद्धि और दुसरो माया । माया बहुत ही सुन्दर और मोहक है। सुबुद्धि बद्धिमती होनेपर भी सुन्दरी नहीं है। चेतनराजा मायारानीपर बहुत आसक्त है । दिन-रात भोग-विलासमें संलग्न रहता है। राजकाज देखनेका उसे बिल्कुल अवसर नहीं मिलता। अत: राज्यकर्मचारी मनमानी करते हैं । यद्यपि चेतन राजाने अपने शरीर-देशकी सुरक्षाके लिए मोहको सेनापति, क्रोधको कोसवाल, लोभको मंत्री, कर्मोदयको काजी, कामदेवको वैयक्तिक सचिव और ईर्ष्या-घुणा को प्रबन्धक नियुक्त किया है। फिर भी शरीर-देशका शासन चेसनराजाकी असावधानीके कारण विश्रृंखलित होता जा रहा है । मान और चिन्ताने प्रधान मंत्री बननेके लिए संघर्ष आरंभ कर दिया है । इधर लोभ और कामदेव अपना पद सुरक्षित रखनेके लिये नाना प्रकारसे देशको प्रस्त कर रहे हैं। नये-नये प्रकारके कर लगाये जाते हैं, जिससे बारीर-राज्यकी दुरवस्था हो रही है । ज्ञान, दर्शन, सूख वीर्य, जो कि चेतनराजाके विश्वासपात्र अमात्य है, उनको कोतवाल सेनापत्ति, वैयक्तिक सचिव आदिने स्वदेड़ बाहर कर दिया है। शरीर-देशको देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ चेतनराजाका राज्य न हो कर सेनापति मोहने अपना शासन स्थापित कर लिया है। चेतनकी आशाको सभी अवहेलना करते हैं।
माधा-रानी भी मोह और लोभको चुपचाप-राज्य शरीर-संपालनमें सहायता देती है। उसने इस प्रकार षड्यन्त्र किया है जिससे चेतन राजाका राज्य उलट दिया जाम और वह स्वयं उसकी शासिका बन जाये। जब सुबुद्धिको चेतन राजाके विरुद्ध किये गये षड्यन्त्रका पता लगा तो उसने अपना कर्तव्य और धर्म समझकर चेतन राजाको समझाया तथा उससे प्रार्थना की-"प्रिय चेतन, तुम अपने भीतर रहनेवाले ज्ञान, दर्शन आदि गुणोंको सम्हाल नहीं करते ।
इन्द्रिय और शरीरके गुणोंको अपना समक्ष माया-रानीमें इतना आसक्त होना . तुम्हें शोभा नहीं देता। जिन क्रोध, मोह और काम-कर्मचारियोंपर तुमने विश्वास कर लिया है वे निश्चय ही तुमको ठग रहे हैं। सुम्हारे चैतन्य-नगर पर उनका अधिकार होनेवाला है, क्योंकि तुमने शरीरके हारनेपर अपनी हार और उसके जीतनेपर जीत समझ ली, दिन-रात मायाके द्वारा निरूपित सांसारिक धन्धोंमें मस्त रहनेसे तुम्हें अपने विश्वासप्रास अमात्योंको भी खो देना पड़ेगा। तुमने जो मार्ग अभी ग्रहण किया है वह बिल्कुल अनुचित है । क्या कभी तुमने विचार किया है कि तुम कौन हो? कहाँसे आये हो ? तुम्हें कौन-कौन धोखा दे रहे हैं ? और तुम अपने स्वभावसे किस प्रकार च्युत हो रहे हो ? ये द्रव्य कर्म ज्ञानावरणादि तथा भावकम राग-द्वेष आदि, जिनपर तुम्हारा अटूट विश्वास हो गया है, तुमसे बिल्कुल भिन्न है । इनका तुमसे कुछ भी तादात्म्य भाव नहीं है । प्रिय चेतन ! क्या तुम राजा होकर दास बनना चाहते हो ? इतने चतुर और कलाप्रवीण होकर तुमने यह मूर्खता क्यों को ? सीन लोकके स्वामी होकर मायाकी मीठी बातोंमें उलझकर भिखारी बन रहे हो? तुम्हारे त्रासको देखकर मैं वेदनासे झुलस रही हूँ। तुम्हारी अन्धता मेरे लिये लज्जाकी बात है, अब भी समय है, अवसर हैं, सुयोग है और है विश्वासपात्र अमात्योंका सहारा ! हृदयेश ! अब सावधान होकर अपनी नगरीका शासन करें, जिससे शीघ्न ही मोक्ष-महलपर अधिकार किया जा सके । प्राणनाथ ! राज्य सम्हालते समय तुमने मोक्षमहलको प्राप्त करनेकी प्रतिज्ञा भी की थी 1 में आपको विश्वास दिलाती हूँ कि मोक्ष-महल में रहनेवाली मुक्ति-रानी इस ठगिनी मायासे करोड़ों-गुणी सुन्दरी और हाव-भावप्रवीण है। उसे देखते ही मुग्ध हो जाओगे । प्रमाद और अहंकार दोनों ही तुमको मुक्ति-रमाके साथ विहार करने में बाधा दे रहे हैं।
इस प्रकार सुबुद्धिने नानाप्रकारसे चेतनराजाको समझाया । सुद्धिकी बात मान लेनेपर चेतनराजा अपने विश्वासपात्र अमात्य ज्ञान, दर्शन आदिको सहायतासे मोक्ष महलपर अधिकार करने चल दिया ।
काठ्यकी दृष्टिसे इस रचनामें सभी गुण वर्तमान हैं । मानवके विकार और उसकी चिभित चित्तवृत्तियोंका अत्यन्त सूक्ष्म और सुन्दर विवेचन किया है। यह रचना रसमय होनेके साथ मंगलप्रद है। भावात्मक शैलीमें कविने अपने हृदयकी अनुभूतिको सरलरूपसे अभिव्यक्त किया है। दार्शनिकताके साथ काव्यात्मक शैलीमें सम्बद्ध और प्रवाहपूर्ण भावोंकी अभिव्यञ्जना रोचक हुई है । कवि चेतनराजाको सुव्यवस्थाका विश्लेषण करता हुआ कहता है
काया-सो जु नगरीमें चिदानन्द राज करें;
मामा-सी जु रानी पे मगन बहु भयो है ।
मोह-सो है फौजदार क्रोध-सो है कोतवार;
लोभ-सो वजीर जहाँ लूटिबेको रह्यो है ।।
उदेको जु काजी माने, मानको अदल जाने,
कामसेनाका नवीस आई बाको कझो है !
ऐसी राजधानी में अपने गुण भूलि रह्यो;
सुधि जब आई तबै शान आय गयो है ।
सुबुद्धि चेतनराजाको समझाती है
कौन तुम, कहाँ आए, कौन बौराये तुमहिं
काके रस राचे फछु सुषहू घरतु हो ।
कोन है वे कम, जिन्हें एकमेक मानि रहे।
अजहू न लागे हाथ भावरि भरतु हो ।
वे दिन चितारो, जहाँ बीते हैं अनादि काल;
कैसे-कैसे संकट सहे हू विसरतु हो ।
तुम तो सयाने पै सयान यह कौन कीन्हो;
तीन लोक नाथ ढके दोनसे फिरतु हो ।
में बताया गया है कि एक सुरम्य उद्यानमें एक दिन एक मुनिराज धर्मोपदेश दे रहे थे। उनकी धर्मदेशनाका श्रवण करनेके लिए अनेक व्यक्ति एकत्र हुए । सभामें नानाप्रकारकी शंकाएं की जाने लगीं । एक व्यक्तिने मुनिराजसे पूछा-'पंचेन्द्रियोंके विषय सुखकर हैं या दुलकर ?' मुनिराजबोले "ये पंचेन्द्रियाँ बड़ी दुष्ट हैं। इनका जितना ही पोषण किया जाता है, दुःख ही देती हैं।"
एक विद्याधर बीच में ही इन्द्रियोंका पक्ष लेकर बोला--"महाराज इन्द्रियाँ दुष्ट नहीं हैं, इनकी बात इन्हींके मुखसे सुनिये । ये प्राणियोंको कितना सुख देती हैं ?"
मुनिराजका संकेत पाते ही सभी इन्द्रियाँ अपने-अपनेको बड़ा सिद्ध करने लगों । पश्चात् मुनिराजने उन सभी इन्द्रियों और मनको समझाकर बताया कि तुम सबसे बड़ी मात्मा हो | राग-द्वेषके दूर होनेपर आत्मा ही परमात्मा बन जाता है।
इस पंचेन्द्रिय-संबादमें इन्द्रियोंके उत्तर-प्रत्युत्तर बड़े ही सरस और स्वाभा विक हैं। प्रत्येक इन्द्रियका उत्तर इतने प्रामाणिक बंगसे उपस्थित किया है, जिससे पाठक मुग्ध हो जाता है। सर्वप्रथम अपने पक्षको स्थापित करती हुई नाक कहती है
नाक कहै प्रभु में बड़ी, और न बड़ो कहाय ।
नाक रहै पत लोक में, नाक गये पत जाय ।।
प्रथम बदनपर देखिए, नाक नवल आकार |
सुन्दर महा सुहावनी, मोहित लोक अपार ।।
सुख विलसे संसारका, सो सब मुझ परसाद ।
नाना वृक्ष सुगन्धिको, नाक करें आस्वाद ।।
कानका उत्तर
अन कहै, भी न. मा कर गान !
जो आकर आगे चलै, तो नहिं भूप समान ।।
नाक सुरनि पानी झरे, बहे इलेषम अपार ।
गुनि करि पूरित रहै, लाजै नहीं गंवार ।।
तेरी छींक सुनै जिते, करे न उत्तम काज |
मूदै तह दुर्गन्ध में, तक न आवे लाज ।।
वर्षभर्क नारी निरख, और जीव जग मौहि ।
जित तित तोको छेदिये, तोक लजानो नाहिं ।।
कानन कुण्डल झलकत्ता, मणि मुक्ताफल सार ।
जगमग जगमग झै रहै, देखे सब संसार ।।
सातों सुरको गाइबो, अद्भुत सुखमय स्वाद ।
इन कानन कर परखिये, मीठे-मीठे नाद ।
कानन सरभर को करै, कान बड़े सरदार ।
छहों द्रव्य के गुण सुने, जानै सबद-विचार ।।
भी कविका एक सरस आध्यात्मिक रूपक काव्य है। इस काव्य में बताया है कि एक पुरुष वनमें जाते हुए रास्ता भूलकर इधर उधर भटकने लगा। जिस अरण्य में वह पहुँच गया था वह अरण्य अत्यन्त भयंकर था। उसमें सिंह और मवान्मत्त गजोंकी गर्जनाएं सुनाई पड़ रही थीं। वह भयाक्रान्त होकर इधर-उधर छिपनेका प्रयास करने लगा। इतने में एक पागल हाथी उसे पकड़नेके लिए दौड़ा । हाषीको अपनी ओर आते हुए देखकर वह व्यक्ति भागा । वह जितनी तेजीसे भागता जाता था, हाथी भी उतनी ही तेजीसे उसका पीछा कर रहा था। जब उसने इस प्रकार जान बचते न देखी, सो वह एक वृक्षकी शाखासे लटक गया। उस वृक्षकी शाखाके नीचे एक बड़ा अन्धकूप था तथा उसके ऊपर एक मधुमतीका छत्ता लगा हुआ था। हाथी
भी दौड़ता हुआ उसके पास आया। पर शाखासे लटक जाने के कारण वह उस पेड़के तनेको सँड़से पकड़कर हिलाने लगा। वृक्षके हिलनेसे मषुछत्तसे एक एक बूंद मधु गिरने लगा और वह पुरुष उस मधुका आस्वादन कर अपने को सुखी समझने लगा।
नीचेके अन्धकूपमें चारों किनारेपर चार अजगर मुंह फेलाये बैठे थे तथा जिस शास्त्राको वह पकड़े हुए था, उसे काले और सफेद रंगके दो बहे काट रहे थे । उस व्यक्तिकी बुरी अवस्था थी। पासपी मुबाको उतार से भार डालना चाहता था तथा हाथीसे बच जानेपर बहे उसकी डालको काट रहे थे, जिससे वह अन्धकूपमें गिरकर अजगरोंका भक्ष्य बनने जा रहा था । उसको इस दयनीय अवस्थाको आकाशमार्गसे जाते हुए विद्याधर-दम्पतिने देखा । स्त्री अपने पतिसे कहने लगी-"स्वामिन् इस पुरुषका जल्द उद्धार कोधिए । यह जल्दी ही अन्धकूपमें गिरकर अजगरोंका शिकार होना चाहता है। प्राप दयाल है। अतः अब विलम्ब करना अनुचित है। इसे विमानमें बैठाकर इस दुःखसे छुटकारा दिला देना हमारा परम कर्तव्य है।"
स्त्रोके अनुरोधसे वह विद्याधर वहां आया और उससे कहने लगा-"आओ, मैं तुम्हारा हाथ पकड़ लेता हूं। विश्वास करो, मैं तुम्हें विमान द्वारा सुरक्षित स्थानपर पहुंचा दूंगा।" वह पुरुष बोला-"मित्र आप बड़े उपकारी हैं। कृपया थोड़ी देर रुके रहें। अबकी बार गिरने वाली मषबूंदको खाकर मेंआता है।" विद्याधरने बहुत देर तक प्रतीक्षा करने के बाद पुनः कहा--"भाई, निकलना है, तो निकलो, विलम्ब करनेसे तुम्हारे प्राण नहीं बच सकेंगे।जल्दी करो।"
पुरुष-"महाभाग ! इस मधुबूंदमें अपूर्व स्वाद है। मैं निकलता हूँ, अबकी बंद और चाट लेने दोजिये। बेधारे विद्याधरने कुछ समय तक प्रतीक्षा करनेके उपरान्त पुनः कहा-"क्या भाई ! तुम्हें इससे छुटकारा पाना नहीं है ? जल्दी माओ, अब मुझे देरी हो रही है। वह लोभी पुरुष बार-बार उसी प्रकार बूंद और चाट लेने दो, उत्तर देता रहा । अब निराश होकर विद्याधर चला गया और कुछ समय पश्चात् शाखाके कट जानेपर वह उस अन्धकूपमें गिर पड़ा तथा एक किनारे अजगरका शिकार हुआ।
इस रूपकको स्पष्ट करते हुए कविने लिखा है--
यह संसार महा वन जान !ताहि भयभ्रम कूप समान ||
गज जिम काल फिरत निशदीस ।तिहं पकरन कहुँ विस्वाबोस ।
बटको जटा लरकि जो रही ।सो आयुर्दा जिनवर कही ।।
तिहं जर कादत मुसा दोय ।दिन अरु रेन लखह तुम सोध ।।
माँन्धी चूटित ताहि शरीर ।सो बहु रोगादिकको पोर ।।
अजगर परयो कूपके बोच ।सो निगोद सबर्ते गति बोध ।।
इस प्रकार इस रूपक द्वारा कविने विषय-सुखकी सारहीनताका उदाहरण प्रस्तुत किया है। भैयां भगवतीदासकी पुण्यपच्चीसिका, अक्षरबत्तीसिका, शिक्षाबली, गुणमंजरी, अनादिबत्तीसिका, मनबत्तीसी, स्वग्नबत्तीसी, वैराग्य पंचाशिका और आश्चर्यचतुर्दशी आदि रचनाएँ कान्यकी दृष्टिसे महत्वपूर्ण है।
#BhaiyaBhagwatidas
आचार्यतुल्य भैया भगवतीदास 17वीं शताब्दी (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 28 मई 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 28 May 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
भैया भगवतीदास आगरानिवासी कटारियागोत्रीय ओसवाल जैन थे । इनके दादाका नाम दशरथ साह और पिताका नाम लाल जो था । इनकी रचनाओंसे अवगत होता है कि जिस समय ये काव्यरचना कर रहे थे उस समय आगरा दिल्ली-शासनके अन्तर्गत था और औरंगजेब बहाँका शासक था।
ओसवालहोनेके कारण कविको जन्मना श्वेताम्बरसम्प्रदायानुयायी होना चाहिए; पर उनकी रचनाओंके अध्ययनसे उनका दिगम्बर सम्प्रदायानु थायी होना सिद्ध होता है। कविकी रचनाओंके अवलोकनसे मात होता है कि भैया भगवतीदासने समयसार, यात्मानुशासन, गोम्मटसार और द्रव्यसंग्रह आदि दिगम्बर अन्थोंका पूरा अध्ययन किया है। उनकी आध्यात्मिक रचनाओं पर समयसारका पूरा प्रभाव है।
इन्होंने स्तुतिपरक या भक्तिपरक जितने पद लिखे हैं उनमें तीर्थंकरोंके गुण और इतिवृत्त दिगम्बर सम्प्रदायके अनुसार अंकित हैं ।
संवत्त सत्रह से इकत्तीस, माघसुदी दशमी शुभदौस ।
मंगलकरण परमसुखधाम, द्रवसंग्रह प्रति करहुं प्रणाम ।।
द्रव्यसंग्रहको रचनाके साथ भया भगवतीदासकी स्वप्नबत्तीसी, द्वादशानु प्रेक्षा, प्रभाती और स्तवनौसे भी उनका दिगम्बर सम्प्रदायी होना सिद्ध होता है।
वि० सं० १७११में हीरानन्दजीने पंचास्तिकायका अनुवाद किया था । उसमें उन्होंने आगरा में एक भगवतीदास नामक व्यक्ति के होनेका उल्लेख किया है। संभवतः भैया भगबत्तीदास ही उक्त व्यक्ति हो । इन्होंने कवितामें अपना उल्लेख भैया, भविक और दासमिनट मनामोदरे निया है । इसकी समस्त रचनाओं का संग्रह ब्रह्मविलासके नामसे प्रकाशित है।
भैया भगवत्तीदासका समय वि० सं० की १८वीं शताब्दी है । इन्होंने अपनी रचनाओंमें औरंगजेबका उल्लेख किया है । औरंगजेबका शासनकाल वि० सं० १७१५-१७६४ रहा है । भैया भगवतीदासके समकालीन महाकवि केशवदास हैं, जिन्होंने रसिकप्रिया नामक श्रृंगाररसपूर्ण रचना लिखी है। कवि भगवती दासने इस रसिकप्रियाको प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा है
बड़ी नीत लघु नीत करत है, बाय सरत बदबोय भरी।
फोड़ो बहुत फुनगणी मंडित सकल देह मनु रोगदरी ।।
शोणित हाड़ मांसमय मूरत तापर रीझत घरी-घरी ।
ऐसी नारी निरखि करि केशव! रसिकप्रिया तुम कहा करो।
अतएव भैया भगवतीदास १८वीं शताब्दीके कवि हैं।
भैया भगवतीदासकी रचनाओंका संग्रह ब्रह्मविलासके नामसे प्रकाशित है। इसमें ६७ रचनाएँ सगृहीत हैं। इन रचनाओंको काव्यविधाकी दृष्टिसे निम्न लिखित वर्गोंमें विभक्त किया जा सकता है
१. पदसाहित्य
२. आध्यात्मिक रूपककाव्य
३. एकार्थ काव्य
४. प्रकीर्णककाव्य
इनके पदसाहित्यको १. प्रभाती, २. स्तवन, ३. अध्यात्म, ४. वस्तुस्थितिनिरूपण, ५. मात्मालोचन एवं ६. आराध्य के प्रति दृढ़तर विश्वास, विषयों में विभाजित किया जा सकता है । वस्तुस्थितिका चित्रण करते हुए बताया है कि यह जीव विश्वकी वास्तविकता और जीवनके रहस्योंसे सदा आँखें बन्द किये रहता है । इसने व्यापक विश्वजनीन और चिरन्तन सत्यको प्राप्त करनेका प्रयास नहीं किया । पार्थिव सौन्दर्यके प्रसि मानव नैसगिक आस्था रखता है । राग-द्वेषोंकी ओर इसका झुकाव निरन्तर होता रहता है, परन्तु सत्य इससे परे है, विविधनामरूपात्मक इस जगत्से पृथक होकर प्रकृत भावनाओंका संयमन, दमन और परिष्करण करना ही व्यक्तिका जीवन-लक्ष्य होना चाहिए। इसो कारण पश्चात्तापके साथ सजग करते हुए वैयक्तिक चेतनामें सामूहिक चेतना. का अध्यारोप कर कवि कहता है
अरे में नु यह जन्म गमायो रे, अरे ते ।
पूरब पुण्य किये कहूँ असि ही, तात नरभव पायो रे।
देव धरम गुरु अन्य न परसै, भटक भटकि भरमायो रे । अरे०॥
शा फिरि सोको मिलिबो यह दुरलभ दश दृष्टान्त बतायो रे ।
जो चेते तो चेत रे भैया, तोको करि समुझायो रे ।।अरे॥२॥
आत्मालोचन सम्बन्धी पदोंमें कविने राग-द्वेष, ईर्ष्या, घृणा, मद, मात्सर्य आदि विकारोंसे अभिभूत हृदयकी आलोचना करते हुए गढ़ अध्यात्मको अभि व्यञ्जना की है | कवि कहता है--
छोड़ि दे अभिमान जियरे, छाडि दे अभि।
काको तू अझ कौन तेरे, सब ही हैं महिमान ।
देखा राजा रंक कोक, पिर नहीं यह थान जियरे॥१॥
जगत देखत तेरि चलवो, तू भी देखत धान ।
घरी पलकी खबर नाहीं, कहा होय विहान ।जियरे
त्याग कोष छ लोभ माया, मोह मदिरा पान ।
रागन्दोहि टार अन्तर, दूर कर अज्ञान जियरे
भयो सुरपुर-देव कबहूँ, कबहुँ नरक निदान ।
इम कर्मवश बहु नाच नाचे, भैया आप पिछान ॥जियरे
के अन्तर्गत कविकी चेतनकर्मचरित, षट अष्टोत्तरी, पंचइन्द्रियसंवाद, मधुबिन्दुकचौपाई, स्वप्नबत्तीसी, द्वादशानुनेक्षा आदि रचनाएं प्रमुख हैं । चेतनकर्मचरितमें कुल २९.६ पद्य हैं। कल्पना, भावना, नगर, रस, सात सौन्लाई और नमीया आदिका समवाय पाया जाता है । भावनाओंके अनुसार मधुर अथवा परुष वर्णोका प्रयोग इस कृति में अपूर्व चमत्कार उत्पन्न कर रहा है। बेकारोंको पात्रकल्पना कर कविने इस चरित काव्य में आत्माकी श्रेयता और प्रासिका मार्ग प्रदर्शित किया है | कुबुद्धि एवं सुबुद्धि ये दो चेतनकी भार्या हैं। कविने इस काव्य में प्रमुखरूपसे घेतन और उनकी पत्नियोंके वार्तालाप प्रस्तुत किये हैं। सुबुद्धि चेतन-आत्माको कर्मसंयुक्त अवस्थाको देखकर कहती है-"चेतन, तुम्हारे साथ यह दुष्टोंका संग कहाँसे मा गया ? क्या तुम अपना सर्वस्व स्त्रोकर भी सजग होने में बिलम्ब करोगे ? जो व्यक्ति जीवन में प्रमाद करता है, संयमसे दूर रहता है वह अपनी उन्नति नहीं कर नकता।"
चेतन--"हे महाभागे ! मैं तो इस प्रकार फंस गया हूँ, जिससे इस गहन पंकसे निकलना मुश्किल सा लग रहा है। मेरा उद्धार किस प्रकार हो, इसकी मुझे जानकारी नहीं।"
सुबुद्धि-"नाथ ! आप अपना बद्धार स्वयं करने में समर्थ हैं। भेदविज्ञानक प्राप्त होते हो आपके समस्त पर-सम्बन्ध विलित हो जायगे और आप स्वतंत्र दिखलाई पड़ेंगे।"
कुबुद्धि-"अरी दुष्टा ! क्या बक रही है? मेरे सामने तेरा इतना बोलने का साहस ? तू नहीं जानती कि मैं प्रसिद्ध शूरवीर मोहकी पुत्री हूँ ?"
कविने इस संदर्भ में सुबुद्धि और कुबुद्धिके कलहका सजीव चित्रण किया है। और चेतन द्वारा सुद्धिका पक्ष लेनेपर कुबुद्धि रूठ कर अपने पिता मोहके यहाँ चली जाती है और मोगको चेतनके प्रति लभारती है। मोह युद्ध की तैयारी कर अपने राग-द्वैधरूपी मंत्रियोंसे साहाय्म प्राप्त करता है और अष्ट कर्मोकी सेना सजाकर सैन्य संचालनका भार मोहनीय कर्मको देता है। दोनोंओरकी सेनाएं रणभूमिमें एकत्र हो जाती हैं। एक ओर मोहके सेनापतित्वमें काम, क्रोध आदि विकार और अष्ट कोका सैन्य-दल है। दूसरी ओर ज्ञान के सेनापतित्वमें दर्शन, चरित्र, सुख, वीर्य आदिकी सेनाएं उपस्थित है । मोहराज चेतनपर आक्रमण करता है, पर ज्ञानदेव स्वानुभूतिकी सहायतासे विपक्षी दलको परास्त देता है । कविने युद्धका बड़ा ही सजीव वर्णन किया है । निम्न पंक्तियाँ है
सूर बलवंत मदमत्त महामोहके, निकसि सब सेन आगे जु आये ।
मारि घमासान महाजुद्ध बहुद्ध करि, एक ते एक सातों सवाए।
धीर-सुविवेकने धनुष ले ध्यानका, मारि कै सुभट सातों गिराए ।
कुमुक जो ज्ञानकी सेन सब संग धसी मोहके सुभट मूर्छा सवाए ।
रणसिंगे बजहिं कोऊ न भजहि, कहिं महा दोऊ जुद्ध ।
इत जीव इंकारहि, निजपर बारहिं, करहै अरिनको रुख ॥
इसमें १०८ पद्य है। कविने आत्मज्ञानका सुन्दर उपदेश अंकित किया है । यह रचना बड़ी ही सरस और हृदयग्राह्य है । अत्यल्प कथा नकके सहारे आत्मतत्वका पूर्ण परिज्ञान सरस शैली में करा देने में इस रचनाको अद्वितीय सफलता प्राप्त हुई है। कवि कहता है कि चेतनराजाको दो रानियाँ हैं, एक सुबुद्धि और दुसरो माया । माया बहुत ही सुन्दर और मोहक है। सुबुद्धि बद्धिमती होनेपर भी सुन्दरी नहीं है। चेतनराजा मायारानीपर बहुत आसक्त है । दिन-रात भोग-विलासमें संलग्न रहता है। राजकाज देखनेका उसे बिल्कुल अवसर नहीं मिलता। अत: राज्यकर्मचारी मनमानी करते हैं । यद्यपि चेतन राजाने अपने शरीर-देशकी सुरक्षाके लिए मोहको सेनापति, क्रोधको कोसवाल, लोभको मंत्री, कर्मोदयको काजी, कामदेवको वैयक्तिक सचिव और ईर्ष्या-घुणा को प्रबन्धक नियुक्त किया है। फिर भी शरीर-देशका शासन चेसनराजाकी असावधानीके कारण विश्रृंखलित होता जा रहा है । मान और चिन्ताने प्रधान मंत्री बननेके लिए संघर्ष आरंभ कर दिया है । इधर लोभ और कामदेव अपना पद सुरक्षित रखनेके लिये नाना प्रकारसे देशको प्रस्त कर रहे हैं। नये-नये प्रकारके कर लगाये जाते हैं, जिससे बारीर-राज्यकी दुरवस्था हो रही है । ज्ञान, दर्शन, सूख वीर्य, जो कि चेतनराजाके विश्वासपात्र अमात्य है, उनको कोतवाल सेनापत्ति, वैयक्तिक सचिव आदिने स्वदेड़ बाहर कर दिया है। शरीर-देशको देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ चेतनराजाका राज्य न हो कर सेनापति मोहने अपना शासन स्थापित कर लिया है। चेतनकी आशाको सभी अवहेलना करते हैं।
माधा-रानी भी मोह और लोभको चुपचाप-राज्य शरीर-संपालनमें सहायता देती है। उसने इस प्रकार षड्यन्त्र किया है जिससे चेतन राजाका राज्य उलट दिया जाम और वह स्वयं उसकी शासिका बन जाये। जब सुबुद्धिको चेतन राजाके विरुद्ध किये गये षड्यन्त्रका पता लगा तो उसने अपना कर्तव्य और धर्म समझकर चेतन राजाको समझाया तथा उससे प्रार्थना की-"प्रिय चेतन, तुम अपने भीतर रहनेवाले ज्ञान, दर्शन आदि गुणोंको सम्हाल नहीं करते ।
इन्द्रिय और शरीरके गुणोंको अपना समक्ष माया-रानीमें इतना आसक्त होना . तुम्हें शोभा नहीं देता। जिन क्रोध, मोह और काम-कर्मचारियोंपर तुमने विश्वास कर लिया है वे निश्चय ही तुमको ठग रहे हैं। सुम्हारे चैतन्य-नगर पर उनका अधिकार होनेवाला है, क्योंकि तुमने शरीरके हारनेपर अपनी हार और उसके जीतनेपर जीत समझ ली, दिन-रात मायाके द्वारा निरूपित सांसारिक धन्धोंमें मस्त रहनेसे तुम्हें अपने विश्वासप्रास अमात्योंको भी खो देना पड़ेगा। तुमने जो मार्ग अभी ग्रहण किया है वह बिल्कुल अनुचित है । क्या कभी तुमने विचार किया है कि तुम कौन हो? कहाँसे आये हो ? तुम्हें कौन-कौन धोखा दे रहे हैं ? और तुम अपने स्वभावसे किस प्रकार च्युत हो रहे हो ? ये द्रव्य कर्म ज्ञानावरणादि तथा भावकम राग-द्वेष आदि, जिनपर तुम्हारा अटूट विश्वास हो गया है, तुमसे बिल्कुल भिन्न है । इनका तुमसे कुछ भी तादात्म्य भाव नहीं है । प्रिय चेतन ! क्या तुम राजा होकर दास बनना चाहते हो ? इतने चतुर और कलाप्रवीण होकर तुमने यह मूर्खता क्यों को ? सीन लोकके स्वामी होकर मायाकी मीठी बातोंमें उलझकर भिखारी बन रहे हो? तुम्हारे त्रासको देखकर मैं वेदनासे झुलस रही हूँ। तुम्हारी अन्धता मेरे लिये लज्जाकी बात है, अब भी समय है, अवसर हैं, सुयोग है और है विश्वासपात्र अमात्योंका सहारा ! हृदयेश ! अब सावधान होकर अपनी नगरीका शासन करें, जिससे शीघ्न ही मोक्ष-महलपर अधिकार किया जा सके । प्राणनाथ ! राज्य सम्हालते समय तुमने मोक्षमहलको प्राप्त करनेकी प्रतिज्ञा भी की थी 1 में आपको विश्वास दिलाती हूँ कि मोक्ष-महल में रहनेवाली मुक्ति-रानी इस ठगिनी मायासे करोड़ों-गुणी सुन्दरी और हाव-भावप्रवीण है। उसे देखते ही मुग्ध हो जाओगे । प्रमाद और अहंकार दोनों ही तुमको मुक्ति-रमाके साथ विहार करने में बाधा दे रहे हैं।
इस प्रकार सुबुद्धिने नानाप्रकारसे चेतनराजाको समझाया । सुद्धिकी बात मान लेनेपर चेतनराजा अपने विश्वासपात्र अमात्य ज्ञान, दर्शन आदिको सहायतासे मोक्ष महलपर अधिकार करने चल दिया ।
काठ्यकी दृष्टिसे इस रचनामें सभी गुण वर्तमान हैं । मानवके विकार और उसकी चिभित चित्तवृत्तियोंका अत्यन्त सूक्ष्म और सुन्दर विवेचन किया है। यह रचना रसमय होनेके साथ मंगलप्रद है। भावात्मक शैलीमें कविने अपने हृदयकी अनुभूतिको सरलरूपसे अभिव्यक्त किया है। दार्शनिकताके साथ काव्यात्मक शैलीमें सम्बद्ध और प्रवाहपूर्ण भावोंकी अभिव्यञ्जना रोचक हुई है । कवि चेतनराजाको सुव्यवस्थाका विश्लेषण करता हुआ कहता है
काया-सो जु नगरीमें चिदानन्द राज करें;
मामा-सी जु रानी पे मगन बहु भयो है ।
मोह-सो है फौजदार क्रोध-सो है कोतवार;
लोभ-सो वजीर जहाँ लूटिबेको रह्यो है ।।
उदेको जु काजी माने, मानको अदल जाने,
कामसेनाका नवीस आई बाको कझो है !
ऐसी राजधानी में अपने गुण भूलि रह्यो;
सुधि जब आई तबै शान आय गयो है ।
सुबुद्धि चेतनराजाको समझाती है
कौन तुम, कहाँ आए, कौन बौराये तुमहिं
काके रस राचे फछु सुषहू घरतु हो ।
कोन है वे कम, जिन्हें एकमेक मानि रहे।
अजहू न लागे हाथ भावरि भरतु हो ।
वे दिन चितारो, जहाँ बीते हैं अनादि काल;
कैसे-कैसे संकट सहे हू विसरतु हो ।
तुम तो सयाने पै सयान यह कौन कीन्हो;
तीन लोक नाथ ढके दोनसे फिरतु हो ।
में बताया गया है कि एक सुरम्य उद्यानमें एक दिन एक मुनिराज धर्मोपदेश दे रहे थे। उनकी धर्मदेशनाका श्रवण करनेके लिए अनेक व्यक्ति एकत्र हुए । सभामें नानाप्रकारकी शंकाएं की जाने लगीं । एक व्यक्तिने मुनिराजसे पूछा-'पंचेन्द्रियोंके विषय सुखकर हैं या दुलकर ?' मुनिराजबोले "ये पंचेन्द्रियाँ बड़ी दुष्ट हैं। इनका जितना ही पोषण किया जाता है, दुःख ही देती हैं।"
एक विद्याधर बीच में ही इन्द्रियोंका पक्ष लेकर बोला--"महाराज इन्द्रियाँ दुष्ट नहीं हैं, इनकी बात इन्हींके मुखसे सुनिये । ये प्राणियोंको कितना सुख देती हैं ?"
मुनिराजका संकेत पाते ही सभी इन्द्रियाँ अपने-अपनेको बड़ा सिद्ध करने लगों । पश्चात् मुनिराजने उन सभी इन्द्रियों और मनको समझाकर बताया कि तुम सबसे बड़ी मात्मा हो | राग-द्वेषके दूर होनेपर आत्मा ही परमात्मा बन जाता है।
इस पंचेन्द्रिय-संबादमें इन्द्रियोंके उत्तर-प्रत्युत्तर बड़े ही सरस और स्वाभा विक हैं। प्रत्येक इन्द्रियका उत्तर इतने प्रामाणिक बंगसे उपस्थित किया है, जिससे पाठक मुग्ध हो जाता है। सर्वप्रथम अपने पक्षको स्थापित करती हुई नाक कहती है
नाक कहै प्रभु में बड़ी, और न बड़ो कहाय ।
नाक रहै पत लोक में, नाक गये पत जाय ।।
प्रथम बदनपर देखिए, नाक नवल आकार |
सुन्दर महा सुहावनी, मोहित लोक अपार ।।
सुख विलसे संसारका, सो सब मुझ परसाद ।
नाना वृक्ष सुगन्धिको, नाक करें आस्वाद ।।
कानका उत्तर
अन कहै, भी न. मा कर गान !
जो आकर आगे चलै, तो नहिं भूप समान ।।
नाक सुरनि पानी झरे, बहे इलेषम अपार ।
गुनि करि पूरित रहै, लाजै नहीं गंवार ।।
तेरी छींक सुनै जिते, करे न उत्तम काज |
मूदै तह दुर्गन्ध में, तक न आवे लाज ।।
वर्षभर्क नारी निरख, और जीव जग मौहि ।
जित तित तोको छेदिये, तोक लजानो नाहिं ।।
कानन कुण्डल झलकत्ता, मणि मुक्ताफल सार ।
जगमग जगमग झै रहै, देखे सब संसार ।।
सातों सुरको गाइबो, अद्भुत सुखमय स्वाद ।
इन कानन कर परखिये, मीठे-मीठे नाद ।
कानन सरभर को करै, कान बड़े सरदार ।
छहों द्रव्य के गुण सुने, जानै सबद-विचार ।।
भी कविका एक सरस आध्यात्मिक रूपक काव्य है। इस काव्य में बताया है कि एक पुरुष वनमें जाते हुए रास्ता भूलकर इधर उधर भटकने लगा। जिस अरण्य में वह पहुँच गया था वह अरण्य अत्यन्त भयंकर था। उसमें सिंह और मवान्मत्त गजोंकी गर्जनाएं सुनाई पड़ रही थीं। वह भयाक्रान्त होकर इधर-उधर छिपनेका प्रयास करने लगा। इतने में एक पागल हाथी उसे पकड़नेके लिए दौड़ा । हाषीको अपनी ओर आते हुए देखकर वह व्यक्ति भागा । वह जितनी तेजीसे भागता जाता था, हाथी भी उतनी ही तेजीसे उसका पीछा कर रहा था। जब उसने इस प्रकार जान बचते न देखी, सो वह एक वृक्षकी शाखासे लटक गया। उस वृक्षकी शाखाके नीचे एक बड़ा अन्धकूप था तथा उसके ऊपर एक मधुमतीका छत्ता लगा हुआ था। हाथी
भी दौड़ता हुआ उसके पास आया। पर शाखासे लटक जाने के कारण वह उस पेड़के तनेको सँड़से पकड़कर हिलाने लगा। वृक्षके हिलनेसे मषुछत्तसे एक एक बूंद मधु गिरने लगा और वह पुरुष उस मधुका आस्वादन कर अपने को सुखी समझने लगा।
नीचेके अन्धकूपमें चारों किनारेपर चार अजगर मुंह फेलाये बैठे थे तथा जिस शास्त्राको वह पकड़े हुए था, उसे काले और सफेद रंगके दो बहे काट रहे थे । उस व्यक्तिकी बुरी अवस्था थी। पासपी मुबाको उतार से भार डालना चाहता था तथा हाथीसे बच जानेपर बहे उसकी डालको काट रहे थे, जिससे वह अन्धकूपमें गिरकर अजगरोंका भक्ष्य बनने जा रहा था । उसको इस दयनीय अवस्थाको आकाशमार्गसे जाते हुए विद्याधर-दम्पतिने देखा । स्त्री अपने पतिसे कहने लगी-"स्वामिन् इस पुरुषका जल्द उद्धार कोधिए । यह जल्दी ही अन्धकूपमें गिरकर अजगरोंका शिकार होना चाहता है। प्राप दयाल है। अतः अब विलम्ब करना अनुचित है। इसे विमानमें बैठाकर इस दुःखसे छुटकारा दिला देना हमारा परम कर्तव्य है।"
स्त्रोके अनुरोधसे वह विद्याधर वहां आया और उससे कहने लगा-"आओ, मैं तुम्हारा हाथ पकड़ लेता हूं। विश्वास करो, मैं तुम्हें विमान द्वारा सुरक्षित स्थानपर पहुंचा दूंगा।" वह पुरुष बोला-"मित्र आप बड़े उपकारी हैं। कृपया थोड़ी देर रुके रहें। अबकी बार गिरने वाली मषबूंदको खाकर मेंआता है।" विद्याधरने बहुत देर तक प्रतीक्षा करने के बाद पुनः कहा--"भाई, निकलना है, तो निकलो, विलम्ब करनेसे तुम्हारे प्राण नहीं बच सकेंगे।जल्दी करो।"
पुरुष-"महाभाग ! इस मधुबूंदमें अपूर्व स्वाद है। मैं निकलता हूँ, अबकी बंद और चाट लेने दोजिये। बेधारे विद्याधरने कुछ समय तक प्रतीक्षा करनेके उपरान्त पुनः कहा-"क्या भाई ! तुम्हें इससे छुटकारा पाना नहीं है ? जल्दी माओ, अब मुझे देरी हो रही है। वह लोभी पुरुष बार-बार उसी प्रकार बूंद और चाट लेने दो, उत्तर देता रहा । अब निराश होकर विद्याधर चला गया और कुछ समय पश्चात् शाखाके कट जानेपर वह उस अन्धकूपमें गिर पड़ा तथा एक किनारे अजगरका शिकार हुआ।
इस रूपकको स्पष्ट करते हुए कविने लिखा है--
यह संसार महा वन जान !ताहि भयभ्रम कूप समान ||
गज जिम काल फिरत निशदीस ।तिहं पकरन कहुँ विस्वाबोस ।
बटको जटा लरकि जो रही ।सो आयुर्दा जिनवर कही ।।
तिहं जर कादत मुसा दोय ।दिन अरु रेन लखह तुम सोध ।।
माँन्धी चूटित ताहि शरीर ।सो बहु रोगादिकको पोर ।।
अजगर परयो कूपके बोच ।सो निगोद सबर्ते गति बोध ।।
इस प्रकार इस रूपक द्वारा कविने विषय-सुखकी सारहीनताका उदाहरण प्रस्तुत किया है। भैयां भगवतीदासकी पुण्यपच्चीसिका, अक्षरबत्तीसिका, शिक्षाबली, गुणमंजरी, अनादिबत्तीसिका, मनबत्तीसी, स्वग्नबत्तीसी, वैराग्य पंचाशिका और आश्चर्यचतुर्दशी आदि रचनाएँ कान्यकी दृष्टिसे महत्वपूर्ण है।
Acharyatulya Bhaiya Bhagwatidas 17th Century (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 28 May 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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