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#Chamundraay
चामुण्डराय 'वीरमार्तण्ड', "रणरंगसिंह', 'समरधुरन्धर' और 'वैरिकुल कालदण्ड होने पर भी कलाकार एवं कलाप्रिय है । बाहुलचरितमें इनकी माताका नाम कालिकादेवी बतलाया गया है। इनके पिता तथा पूर्वज गंग वंशके श्रद्धाभाजन राज्याधिकारी रहे होंगे । वे महाराज मारसिंह तथा राज मल्ल द्वितीयके प्रधानमंत्री थे। इनका वंश ब्रह्मक्षत्रियवंश बताया गया है।' चामुण्डरायपुराणसे यह भी अवगत होता है कि इनके गुरुका नाम अजितसेन था । अभिलेखोंसे यह भी निविवाद ज्ञात होता है कि चामुण्डराय जन्मना जैन थे। नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीने अपने गोम्मटसारमें-'सो अजियसेणणाहो जस्स गुरु' कहकर अजितसेनको उनका दीक्षागुरु बताया है। मंत्रीवर चामुण्डरायने आचार्य नेमिचन्द्रसिद्धान्त चक्रवर्तीसे भी शिक्षा प्राप्त की थी।
गुरु | अजितसेन |
चामुण्डराय अपनी मातृभाषा कन्नड़के साथ संस्कृतमें भी पारंगत विद्वान् थे। वे इन दोनों भाषाओं में साधिकार कविता एवं लेखनकार्य करते थे।।
उनको उपाधियोंके सम्बन्धमें कहा गया है कि खेडगमुद्धमें बज्ज्वलदेवको हरानेसे उन्हें 'समरधुरविर की उपाधि; मोलम्बयुबमें गोलूरके मैदान मेंउन्होंने जो वीरता दिखलाई उसके उपलक्ष्यमें उन्हें 'वीरमार्तण्डको उपाधि', उक्कंगोके किले में राजादित्यसे वीरतापूर्वक लड़नेके उपलक्ष्य में 'रणरंगसिंह' की उपाधि; बागेयूरके किले में त्रिभुवनबीरको मारने और गोविन्दारको उसमें न घुसने देनेके उपलक्ष्यमें 'वैरिकुलकालदण्ड'; राजाकामके किलेमें राजबास सिंबर, कड़ामिक आदि योद्धाओंको हरानेके कारण उन्हें 'भुजविक्रम'को उपाधि अपने छोटे भाई नागव के पातक मदुराचयको मार डालनेके उपलक्ष्यमें 'समर परशुराम'को उपाधि एवं एक कबोलेके मुखियाको पराजित करने के उपलक्ष्य में 'प्रतिपक्षराक्षस'की उपाधि प्राप्त हुई थी।
नैतिक दृष्टिसे 'सम्यक्त्यरत्नाकर', 'शौचाभरण', 'सत्ययुधिष्ठिर' ओर 'सुभटचूड़ामणि' उपाधियाँ प्राप्त थीं।
चामुण्डराय गोम्मट, गोम्मटराय, राय और अण्णके नामोसे भी प्रसिद्ध था ! संभवस: गोम्मट इनका घरेलू नाम था । इसीसे बाहुबलीको मूति गोम्म टेश्वर कही जाने लगी। विभ्यगिरिपर्वतपर इस मूत्तिके अतिरिक्त उन्होंने एक त्यागद ब्रह्मदेवनामक स्तम्भ भी बनवाया था। इस पर चामुण्डरायकी एक प्रशस्ति भी अंकित है। इन्होंने चन्द्रगिरि पर एक मन्दिरका निर्माण कराया, जो चामुण्डरायवसतिके नामसे प्रसिद्ध है । चामुण्डरायपुराण एवं अन्य प्राप्त सामग्रीसे यह भी ज्ञात होता है कि इन्हें एक पुत्र भी था, जिसका नाम जिनदेवन था । उसने बेलगोलामें जिनदेवका एक मन्दिर बनवाया था । चामुण्डरायका परिवार धर्मात्मा और श्रद्धालु था।
चामुण्डरायने अपने 'त्रिषष्टिलक्षणमहापुराण में कुछ प्रमुख आचार्यों और ग्रंथकारोंका निर्देश किया है तथा कुछ संस्कृत और प्राकृतके पद्य भो उद्धृत किये हैं। गद्धपिच्छाचार्य, सिद्धसेन, समन्तभद्र, पूज्यपाद, कवि परमेश्वर, वीर सेन, गुणभद्र, धर्मसेन, कुमारसेन, नागसेन, चन्द्रसेन, आर्यनन्दि, अजितसेन, धीनन्दि, भूतबलि, पुष्पदन्त, मुणघर, नागहस्ती, यतिवृषभ, उच्चारणाचार्य, माघनन्दि, शामकुण्ड, तेम्बलराचार्य, एलाचार्यः शमनन्दि, रविनन्दि और जिन सेन आचार्योका उल्लेख चामुण्डरायपुराणमें पाया जाता है । इन उल्लेखोंसे चामुण्डरायके समयपर प्रकाश पड़ता है | चामुण्डरायने अपने महापुराणको शक संच ९०० (ई० सन् १७८) में पूर्ण किया है। इन्होंने श्रवणबेलगोलामें बाहुबलि स्वामीको मूत्तिको प्रतिष्ठा ई० सन् १८१में की है।"
ब्रह्मदेवस्तम्भपर ई. सन् ९७४का एक अभिलेख पाया जाता है। गोम्म टेश्वरको मत्तिके समीप ही द्वारपालकोंको बांयी ओर प्राप्त एक लेखसे, जो १२८० ई० का है, मत्तिके सम्बन्ध में निम्नलिखित तथ्य प्राप्त होते हैं :--
भगवान बाहुबलि पुरुके पुत्र थे। उनके बड़े भाई द्वन्द्वयुद्ध में उनसे हार गये । लेकिन भगवान बाहुबलि पृथ्वीका राज्य उन्हें ही सौंपकर तपस्या करने चले गये । और उन्होंने कर्मपर विजय प्राप्त की। पुरुदेवके ज्येष्ठ पुत्र भरतने पोदनपुरमें बाहुबलिको ५२५ धनुष ऊँची एक मूत्ति बनवाई। कुछ कालो परान्त उस स्थानमें, जहाँ बाहुबलिको मूर्ति थो, असंख्य कुक्कुट सर्प उत्पन्न हुए । इसीलिए उस मूत्तिका नाम कुक्कुटेश्वर भी पड़ा । कुछ समय बाद यह स्थान साधारण मनुष्योंके लिए अगम्य हो गया । उस मूत्तिमै अलौकिक शक्ति थी। उसके तेज:पूर्ण नखोंको जो मनुष्य देख लेता था वह अपने पूर्व जन्मकी बातें जान जाता था | जब चामुण्डरायने लोगोंसे इस जिनमत्तिके बारेमें सुना, तो उन्हें उसे देखनेको उत्कट अभिलाषा हुई । जब वे वहाँ जानेको तैयार हए। तो उनके गुरुओंने उनसे कहा कि वह स्थान बहुत दूर और अगम्य है। इस पर चामुण्डरायने इस वर्तमान मूत्तिका निर्माण करवाया।
इस अभिलेखसे यह स्पष्ट है कि ई० सन् १९८० के पूर्व चामुण्डरायका यश व्यास हो चुका था और वे गोम्मटेशमतिके प्रतिष्ठापकके रूप में मान्य हो चुके थे । असएब संक्षेपमें चामुण्डरायका समय ई० सन को दशम शताब्दी है।
चामुण्डराय संस्कृत और कन्नड़ दोनों ही भाषाओंमें कविता लिखते थे । इनके द्वारा रचित चामुण्डरायपुराण और चारित्रसार ये दो ग्रन्थ उपलब्ध हैं। चामुण्डरायपुराणका अपर नाम त्रिषष्ठिपुराण है। यह ग्रन्थ कन्नड़गद्यका सबसे प्रथम ग्रन्थ है। यद्यपि कविपरम्परासे आगत लेखकके प्रसाद और माधुर्यको झलक इस ग्रन्थमें पर्याप्त है तो भी स्पष्ट है कि यह कृति सर्वसाधा रणके उपदेशके लिए लिखी गई है । यद्यपि इसमें पम्पका उपयुक्त शब्द-अर्थ चयन, रणका लालित्य तथा वाणका शब्द अर्थ-माधुर्य नहीं है, तो भी इसका अपना सौष्ठव निराला है । इसमें जातक कथाकी-सी झलक मिलती है। यों तो इस ग्रन्थमें ६३ शलाकापुरुषोंकी कथा निबद्ध की गई है। पर साथमें आचार और दर्शनके सिद्धान्त भी वणित है।
आचारशास्त्रका संक्षेपमें स्पष्टरूपसे वर्णन इस ग्रन्थमें गद्यरूपमें प्रस्तुत किया गया है । इस ग्रंथका प्रकाशन माणिकचन्द्रग्रंथमालाके नवम ग्रन्थके रूप में हुआ है। आरम्भमें सम्यक्त्व और पंचाणुव्रतोंका वर्णन है। संकल्पपूर्वक नियम करनेको त कहते हैं। इसमें सभी प्रकारके सावद्योंका त्याग किया जाता है । व्रतीको निःशल्य कहा है । लिखा है
'अभिसंधिकतो नियमो व्रतमित्युच्यते, सर्वसावधनिवृत्त्यसंभवादणुवतं दीद्रियादीनां जंगमप्राणिनांप्रमत्तयोगेन प्राणव्यपरोपणान्मनोवाक्कायैश्च नियुतः। अगारीत्याधणुनसम् ।
अतोंके अतिचार, रात्रिभोजनल्याग ब्रतका कथन भी अणुव्रतकथनप्रसंगमें बाया है।द्वितीय प्रकरणमें सप्तशीलोंका कथन आया है। साथ ही उनके अतिचार भी वणित हैं । अनर्थदण्डनतका कथन करते हुए अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादा चरित, हिंसाप्रदान और अशुभश्रुति ये पांच उसके भेद कहें हैं । जय, पराजय, बन्ध, बध, अगच्छेद, सर्वस्वहरण आदि किस प्रकार हो सके, इसका मनसे चिन्तन करना अपध्यान है । पापोपदेशके क्लेशवाणिज्य, तिर्यग्वाणिज्य, बधकोपदेश और आरम्भकोपदेवा भेद हैं । क्लेशवाणिज्यका कथन करते हुए लिखा है कि दासी दास आदि जिस देशमें सुलभ हों उनको यहाँसे लाकर अर्थलाभके हेतु बैंचना क्लेशवाणिज्य है । गाय-भैंस आदि पशुओंको अन्यत्र ले जाकर बेचना तिर्यम् याणिज्य है। पक्षीमार और शिकारियोंको किसी प्रदेशविशेषमें रहने वाले पशुपक्षियों की सूचना देना बधकोपदेश है । अधिक मिट्टी, जल, पवन, बनस्पति आदिके आरम्भका उपदेश देना आरम्भकोपदेश है। अनर्थदण्डवतका और भी अधिक विश्लेषण किया है तथा विष, शस्त्र आदिके व्यापारको अनर्थदण्डके अन्तर्गत माना है । इस प्रकार सात शीलोंका विस्तारपूर्वक निरूपण किया है । गृहस्थके इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम, तप इन छ: षट्कर्मोंका कथन भी आया है। इज्याका अर्थ अर्हतपूजासे है। इसके नित्यमह, चतुर्मुख, कल्पवृक्ष, अष्टालिक और इन्द्रध्वज भेद हैं। वातासे अर्थ असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प आदि आजीविकावृत्तियोंसे है। दत्तिका अर्थ दान है। इसके दयादत्ति, पात्रत्ति, समदत्ति और सकलदत्ति ये चार भेद हैं । सात शीलोंके पश्चात् मारणान्तिक सल्लेखनाका कथन आया है |
तृतीय प्रकरणमें षोडशभावनाका निरूपण है। दर्शनविशुद्धता, विनय सम्पन्नता, शीलवतेष्वतिचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैयावृत्तिकरण, अहंभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुत भक्ति, प्रवचनक्ति , आवश्यकापरिहाणि, मार्गप्रभावना और प्रवचनवात्सल्य इन सोलह भावनाओंके स्वरूप हैं।
चतुर्थ प्रकरणमें अनगारधर्मका वर्णन है । आरंभमें दश धर्मों की व्याख्या की गयी है । अनन्तर तीन गुप्ति और पांच समितियोंका कथन आया है। संयमी निग्रंथोंके पाँच भेद बतलाये हैं-पुलाक, वकुश, कुशील, निग्रंथ और स्नातक । इनके स्वरूप और भेद-प्रभेद भी बणित है। परीषहजयप्रकरणमें २२ परिषहोंका उल्लेख करनेके अनन्तर किस गुणस्थानवालेको किन परिषहोंको सहन करना चाहिए, इसका वर्णन आया है । अन्तिम प्रकरण तप-वर्णनका है। इसी संदर्भ द्वादश अनुप्रेक्षाओंका वर्णन भी आया है । तपका लक्षण बतलाते हुए लिखा है--
रत्नत्रयाविर्भावार्थमिच्छानिरोधस्तपः । अथवा कर्मक्षयार्थ मार्गाविरोधेन तप्यत इति तपः। तद्धिजिधम्, बाह्यमाभ्यन्तरञ्च । अनशनादिबाह्यद्रव्यापेक्षत्वा स्परप्रत्ययलक्षणत्वाच्च बाह्य, तत् षर्विषं, अनशनाबमोदयंवृत्तिपरिसंख्या नरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशभेदात् | आभ्यन्तरमपि षड्विध, प्राय श्चितदिनययावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानभेदात् ।
इस संदर्भ में उग्र तपश्चरणसे प्राप्त ऋद्धियोंका कथन भी आया है। इस प्रकार चामुण्डरायने चारित्रसारग्रंथमें श्रावक और मुनि दोनों के आचारका वर्णन किया है। चामुण्डरायका संस्कृत्त और कन्नड़ गद्यपर अपूर्व अधिकार है । उन्होंने ग्रंथान्तरोंके पद्य भी प्रमाणके लिये उपस्थित किये हैं।
चामुण्डराय 'वीरमार्तण्ड', "रणरंगसिंह', 'समरधुरन्धर' और 'वैरिकुल कालदण्ड होने पर भी कलाकार एवं कलाप्रिय है । बाहुलचरितमें इनकी माताका नाम कालिकादेवी बतलाया गया है। इनके पिता तथा पूर्वज गंग वंशके श्रद्धाभाजन राज्याधिकारी रहे होंगे । वे महाराज मारसिंह तथा राज मल्ल द्वितीयके प्रधानमंत्री थे। इनका वंश ब्रह्मक्षत्रियवंश बताया गया है।' चामुण्डरायपुराणसे यह भी अवगत होता है कि इनके गुरुका नाम अजितसेन था । अभिलेखोंसे यह भी निविवाद ज्ञात होता है कि चामुण्डराय जन्मना जैन थे। नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीने अपने गोम्मटसारमें-'सो अजियसेणणाहो जस्स गुरु' कहकर अजितसेनको उनका दीक्षागुरु बताया है। मंत्रीवर चामुण्डरायने आचार्य नेमिचन्द्रसिद्धान्त चक्रवर्तीसे भी शिक्षा प्राप्त की थी।
गुरु | अजितसेन |
चामुण्डराय अपनी मातृभाषा कन्नड़के साथ संस्कृतमें भी पारंगत विद्वान् थे। वे इन दोनों भाषाओं में साधिकार कविता एवं लेखनकार्य करते थे।।
उनको उपाधियोंके सम्बन्धमें कहा गया है कि खेडगमुद्धमें बज्ज्वलदेवको हरानेसे उन्हें 'समरधुरविर की उपाधि; मोलम्बयुबमें गोलूरके मैदान मेंउन्होंने जो वीरता दिखलाई उसके उपलक्ष्यमें उन्हें 'वीरमार्तण्डको उपाधि', उक्कंगोके किले में राजादित्यसे वीरतापूर्वक लड़नेके उपलक्ष्य में 'रणरंगसिंह' की उपाधि; बागेयूरके किले में त्रिभुवनबीरको मारने और गोविन्दारको उसमें न घुसने देनेके उपलक्ष्यमें 'वैरिकुलकालदण्ड'; राजाकामके किलेमें राजबास सिंबर, कड़ामिक आदि योद्धाओंको हरानेके कारण उन्हें 'भुजविक्रम'को उपाधि अपने छोटे भाई नागव के पातक मदुराचयको मार डालनेके उपलक्ष्यमें 'समर परशुराम'को उपाधि एवं एक कबोलेके मुखियाको पराजित करने के उपलक्ष्य में 'प्रतिपक्षराक्षस'की उपाधि प्राप्त हुई थी।
नैतिक दृष्टिसे 'सम्यक्त्यरत्नाकर', 'शौचाभरण', 'सत्ययुधिष्ठिर' ओर 'सुभटचूड़ामणि' उपाधियाँ प्राप्त थीं।
चामुण्डराय गोम्मट, गोम्मटराय, राय और अण्णके नामोसे भी प्रसिद्ध था ! संभवस: गोम्मट इनका घरेलू नाम था । इसीसे बाहुबलीको मूति गोम्म टेश्वर कही जाने लगी। विभ्यगिरिपर्वतपर इस मूत्तिके अतिरिक्त उन्होंने एक त्यागद ब्रह्मदेवनामक स्तम्भ भी बनवाया था। इस पर चामुण्डरायकी एक प्रशस्ति भी अंकित है। इन्होंने चन्द्रगिरि पर एक मन्दिरका निर्माण कराया, जो चामुण्डरायवसतिके नामसे प्रसिद्ध है । चामुण्डरायपुराण एवं अन्य प्राप्त सामग्रीसे यह भी ज्ञात होता है कि इन्हें एक पुत्र भी था, जिसका नाम जिनदेवन था । उसने बेलगोलामें जिनदेवका एक मन्दिर बनवाया था । चामुण्डरायका परिवार धर्मात्मा और श्रद्धालु था।
चामुण्डरायने अपने 'त्रिषष्टिलक्षणमहापुराण में कुछ प्रमुख आचार्यों और ग्रंथकारोंका निर्देश किया है तथा कुछ संस्कृत और प्राकृतके पद्य भो उद्धृत किये हैं। गद्धपिच्छाचार्य, सिद्धसेन, समन्तभद्र, पूज्यपाद, कवि परमेश्वर, वीर सेन, गुणभद्र, धर्मसेन, कुमारसेन, नागसेन, चन्द्रसेन, आर्यनन्दि, अजितसेन, धीनन्दि, भूतबलि, पुष्पदन्त, मुणघर, नागहस्ती, यतिवृषभ, उच्चारणाचार्य, माघनन्दि, शामकुण्ड, तेम्बलराचार्य, एलाचार्यः शमनन्दि, रविनन्दि और जिन सेन आचार्योका उल्लेख चामुण्डरायपुराणमें पाया जाता है । इन उल्लेखोंसे चामुण्डरायके समयपर प्रकाश पड़ता है | चामुण्डरायने अपने महापुराणको शक संच ९०० (ई० सन् १७८) में पूर्ण किया है। इन्होंने श्रवणबेलगोलामें बाहुबलि स्वामीको मूत्तिको प्रतिष्ठा ई० सन् १८१में की है।"
ब्रह्मदेवस्तम्भपर ई. सन् ९७४का एक अभिलेख पाया जाता है। गोम्म टेश्वरको मत्तिके समीप ही द्वारपालकोंको बांयी ओर प्राप्त एक लेखसे, जो १२८० ई० का है, मत्तिके सम्बन्ध में निम्नलिखित तथ्य प्राप्त होते हैं :--
भगवान बाहुबलि पुरुके पुत्र थे। उनके बड़े भाई द्वन्द्वयुद्ध में उनसे हार गये । लेकिन भगवान बाहुबलि पृथ्वीका राज्य उन्हें ही सौंपकर तपस्या करने चले गये । और उन्होंने कर्मपर विजय प्राप्त की। पुरुदेवके ज्येष्ठ पुत्र भरतने पोदनपुरमें बाहुबलिको ५२५ धनुष ऊँची एक मूत्ति बनवाई। कुछ कालो परान्त उस स्थानमें, जहाँ बाहुबलिको मूर्ति थो, असंख्य कुक्कुट सर्प उत्पन्न हुए । इसीलिए उस मूत्तिका नाम कुक्कुटेश्वर भी पड़ा । कुछ समय बाद यह स्थान साधारण मनुष्योंके लिए अगम्य हो गया । उस मूत्तिमै अलौकिक शक्ति थी। उसके तेज:पूर्ण नखोंको जो मनुष्य देख लेता था वह अपने पूर्व जन्मकी बातें जान जाता था | जब चामुण्डरायने लोगोंसे इस जिनमत्तिके बारेमें सुना, तो उन्हें उसे देखनेको उत्कट अभिलाषा हुई । जब वे वहाँ जानेको तैयार हए। तो उनके गुरुओंने उनसे कहा कि वह स्थान बहुत दूर और अगम्य है। इस पर चामुण्डरायने इस वर्तमान मूत्तिका निर्माण करवाया।
इस अभिलेखसे यह स्पष्ट है कि ई० सन् १९८० के पूर्व चामुण्डरायका यश व्यास हो चुका था और वे गोम्मटेशमतिके प्रतिष्ठापकके रूप में मान्य हो चुके थे । असएब संक्षेपमें चामुण्डरायका समय ई० सन को दशम शताब्दी है।
चामुण्डराय संस्कृत और कन्नड़ दोनों ही भाषाओंमें कविता लिखते थे । इनके द्वारा रचित चामुण्डरायपुराण और चारित्रसार ये दो ग्रन्थ उपलब्ध हैं। चामुण्डरायपुराणका अपर नाम त्रिषष्ठिपुराण है। यह ग्रन्थ कन्नड़गद्यका सबसे प्रथम ग्रन्थ है। यद्यपि कविपरम्परासे आगत लेखकके प्रसाद और माधुर्यको झलक इस ग्रन्थमें पर्याप्त है तो भी स्पष्ट है कि यह कृति सर्वसाधा रणके उपदेशके लिए लिखी गई है । यद्यपि इसमें पम्पका उपयुक्त शब्द-अर्थ चयन, रणका लालित्य तथा वाणका शब्द अर्थ-माधुर्य नहीं है, तो भी इसका अपना सौष्ठव निराला है । इसमें जातक कथाकी-सी झलक मिलती है। यों तो इस ग्रन्थमें ६३ शलाकापुरुषोंकी कथा निबद्ध की गई है। पर साथमें आचार और दर्शनके सिद्धान्त भी वणित है।
आचारशास्त्रका संक्षेपमें स्पष्टरूपसे वर्णन इस ग्रन्थमें गद्यरूपमें प्रस्तुत किया गया है । इस ग्रंथका प्रकाशन माणिकचन्द्रग्रंथमालाके नवम ग्रन्थके रूप में हुआ है। आरम्भमें सम्यक्त्व और पंचाणुव्रतोंका वर्णन है। संकल्पपूर्वक नियम करनेको त कहते हैं। इसमें सभी प्रकारके सावद्योंका त्याग किया जाता है । व्रतीको निःशल्य कहा है । लिखा है
'अभिसंधिकतो नियमो व्रतमित्युच्यते, सर्वसावधनिवृत्त्यसंभवादणुवतं दीद्रियादीनां जंगमप्राणिनांप्रमत्तयोगेन प्राणव्यपरोपणान्मनोवाक्कायैश्च नियुतः। अगारीत्याधणुनसम् ।
अतोंके अतिचार, रात्रिभोजनल्याग ब्रतका कथन भी अणुव्रतकथनप्रसंगमें बाया है।द्वितीय प्रकरणमें सप्तशीलोंका कथन आया है। साथ ही उनके अतिचार भी वणित हैं । अनर्थदण्डनतका कथन करते हुए अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादा चरित, हिंसाप्रदान और अशुभश्रुति ये पांच उसके भेद कहें हैं । जय, पराजय, बन्ध, बध, अगच्छेद, सर्वस्वहरण आदि किस प्रकार हो सके, इसका मनसे चिन्तन करना अपध्यान है । पापोपदेशके क्लेशवाणिज्य, तिर्यग्वाणिज्य, बधकोपदेश और आरम्भकोपदेवा भेद हैं । क्लेशवाणिज्यका कथन करते हुए लिखा है कि दासी दास आदि जिस देशमें सुलभ हों उनको यहाँसे लाकर अर्थलाभके हेतु बैंचना क्लेशवाणिज्य है । गाय-भैंस आदि पशुओंको अन्यत्र ले जाकर बेचना तिर्यम् याणिज्य है। पक्षीमार और शिकारियोंको किसी प्रदेशविशेषमें रहने वाले पशुपक्षियों की सूचना देना बधकोपदेश है । अधिक मिट्टी, जल, पवन, बनस्पति आदिके आरम्भका उपदेश देना आरम्भकोपदेश है। अनर्थदण्डवतका और भी अधिक विश्लेषण किया है तथा विष, शस्त्र आदिके व्यापारको अनर्थदण्डके अन्तर्गत माना है । इस प्रकार सात शीलोंका विस्तारपूर्वक निरूपण किया है । गृहस्थके इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम, तप इन छ: षट्कर्मोंका कथन भी आया है। इज्याका अर्थ अर्हतपूजासे है। इसके नित्यमह, चतुर्मुख, कल्पवृक्ष, अष्टालिक और इन्द्रध्वज भेद हैं। वातासे अर्थ असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प आदि आजीविकावृत्तियोंसे है। दत्तिका अर्थ दान है। इसके दयादत्ति, पात्रत्ति, समदत्ति और सकलदत्ति ये चार भेद हैं । सात शीलोंके पश्चात् मारणान्तिक सल्लेखनाका कथन आया है |
तृतीय प्रकरणमें षोडशभावनाका निरूपण है। दर्शनविशुद्धता, विनय सम्पन्नता, शीलवतेष्वतिचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैयावृत्तिकरण, अहंभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुत भक्ति, प्रवचनक्ति , आवश्यकापरिहाणि, मार्गप्रभावना और प्रवचनवात्सल्य इन सोलह भावनाओंके स्वरूप हैं।
चतुर्थ प्रकरणमें अनगारधर्मका वर्णन है । आरंभमें दश धर्मों की व्याख्या की गयी है । अनन्तर तीन गुप्ति और पांच समितियोंका कथन आया है। संयमी निग्रंथोंके पाँच भेद बतलाये हैं-पुलाक, वकुश, कुशील, निग्रंथ और स्नातक । इनके स्वरूप और भेद-प्रभेद भी बणित है। परीषहजयप्रकरणमें २२ परिषहोंका उल्लेख करनेके अनन्तर किस गुणस्थानवालेको किन परिषहोंको सहन करना चाहिए, इसका वर्णन आया है । अन्तिम प्रकरण तप-वर्णनका है। इसी संदर्भ द्वादश अनुप्रेक्षाओंका वर्णन भी आया है । तपका लक्षण बतलाते हुए लिखा है--
रत्नत्रयाविर्भावार्थमिच्छानिरोधस्तपः । अथवा कर्मक्षयार्थ मार्गाविरोधेन तप्यत इति तपः। तद्धिजिधम्, बाह्यमाभ्यन्तरञ्च । अनशनादिबाह्यद्रव्यापेक्षत्वा स्परप्रत्ययलक्षणत्वाच्च बाह्य, तत् षर्विषं, अनशनाबमोदयंवृत्तिपरिसंख्या नरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशभेदात् | आभ्यन्तरमपि षड्विध, प्राय श्चितदिनययावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानभेदात् ।
इस संदर्भ में उग्र तपश्चरणसे प्राप्त ऋद्धियोंका कथन भी आया है। इस प्रकार चामुण्डरायने चारित्रसारग्रंथमें श्रावक और मुनि दोनों के आचारका वर्णन किया है। चामुण्डरायका संस्कृत्त और कन्नड़ गद्यपर अपूर्व अधिकार है । उन्होंने ग्रंथान्तरोंके पद्य भी प्रमाणके लिये उपस्थित किये हैं।
#Chamundraay
आचार्यतुल्य श्री १०८ चामुण्डराय 10वीं शताब्दी (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 04 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 04 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
चामुण्डराय 'वीरमार्तण्ड', "रणरंगसिंह', 'समरधुरन्धर' और 'वैरिकुल कालदण्ड होने पर भी कलाकार एवं कलाप्रिय है । बाहुलचरितमें इनकी माताका नाम कालिकादेवी बतलाया गया है। इनके पिता तथा पूर्वज गंग वंशके श्रद्धाभाजन राज्याधिकारी रहे होंगे । वे महाराज मारसिंह तथा राज मल्ल द्वितीयके प्रधानमंत्री थे। इनका वंश ब्रह्मक्षत्रियवंश बताया गया है।' चामुण्डरायपुराणसे यह भी अवगत होता है कि इनके गुरुका नाम अजितसेन था । अभिलेखोंसे यह भी निविवाद ज्ञात होता है कि चामुण्डराय जन्मना जैन थे। नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीने अपने गोम्मटसारमें-'सो अजियसेणणाहो जस्स गुरु' कहकर अजितसेनको उनका दीक्षागुरु बताया है। मंत्रीवर चामुण्डरायने आचार्य नेमिचन्द्रसिद्धान्त चक्रवर्तीसे भी शिक्षा प्राप्त की थी।
गुरु | अजितसेन |
चामुण्डराय अपनी मातृभाषा कन्नड़के साथ संस्कृतमें भी पारंगत विद्वान् थे। वे इन दोनों भाषाओं में साधिकार कविता एवं लेखनकार्य करते थे।।
उनको उपाधियोंके सम्बन्धमें कहा गया है कि खेडगमुद्धमें बज्ज्वलदेवको हरानेसे उन्हें 'समरधुरविर की उपाधि; मोलम्बयुबमें गोलूरके मैदान मेंउन्होंने जो वीरता दिखलाई उसके उपलक्ष्यमें उन्हें 'वीरमार्तण्डको उपाधि', उक्कंगोके किले में राजादित्यसे वीरतापूर्वक लड़नेके उपलक्ष्य में 'रणरंगसिंह' की उपाधि; बागेयूरके किले में त्रिभुवनबीरको मारने और गोविन्दारको उसमें न घुसने देनेके उपलक्ष्यमें 'वैरिकुलकालदण्ड'; राजाकामके किलेमें राजबास सिंबर, कड़ामिक आदि योद्धाओंको हरानेके कारण उन्हें 'भुजविक्रम'को उपाधि अपने छोटे भाई नागव के पातक मदुराचयको मार डालनेके उपलक्ष्यमें 'समर परशुराम'को उपाधि एवं एक कबोलेके मुखियाको पराजित करने के उपलक्ष्य में 'प्रतिपक्षराक्षस'की उपाधि प्राप्त हुई थी।
नैतिक दृष्टिसे 'सम्यक्त्यरत्नाकर', 'शौचाभरण', 'सत्ययुधिष्ठिर' ओर 'सुभटचूड़ामणि' उपाधियाँ प्राप्त थीं।
चामुण्डराय गोम्मट, गोम्मटराय, राय और अण्णके नामोसे भी प्रसिद्ध था ! संभवस: गोम्मट इनका घरेलू नाम था । इसीसे बाहुबलीको मूति गोम्म टेश्वर कही जाने लगी। विभ्यगिरिपर्वतपर इस मूत्तिके अतिरिक्त उन्होंने एक त्यागद ब्रह्मदेवनामक स्तम्भ भी बनवाया था। इस पर चामुण्डरायकी एक प्रशस्ति भी अंकित है। इन्होंने चन्द्रगिरि पर एक मन्दिरका निर्माण कराया, जो चामुण्डरायवसतिके नामसे प्रसिद्ध है । चामुण्डरायपुराण एवं अन्य प्राप्त सामग्रीसे यह भी ज्ञात होता है कि इन्हें एक पुत्र भी था, जिसका नाम जिनदेवन था । उसने बेलगोलामें जिनदेवका एक मन्दिर बनवाया था । चामुण्डरायका परिवार धर्मात्मा और श्रद्धालु था।
चामुण्डरायने अपने 'त्रिषष्टिलक्षणमहापुराण में कुछ प्रमुख आचार्यों और ग्रंथकारोंका निर्देश किया है तथा कुछ संस्कृत और प्राकृतके पद्य भो उद्धृत किये हैं। गद्धपिच्छाचार्य, सिद्धसेन, समन्तभद्र, पूज्यपाद, कवि परमेश्वर, वीर सेन, गुणभद्र, धर्मसेन, कुमारसेन, नागसेन, चन्द्रसेन, आर्यनन्दि, अजितसेन, धीनन्दि, भूतबलि, पुष्पदन्त, मुणघर, नागहस्ती, यतिवृषभ, उच्चारणाचार्य, माघनन्दि, शामकुण्ड, तेम्बलराचार्य, एलाचार्यः शमनन्दि, रविनन्दि और जिन सेन आचार्योका उल्लेख चामुण्डरायपुराणमें पाया जाता है । इन उल्लेखोंसे चामुण्डरायके समयपर प्रकाश पड़ता है | चामुण्डरायने अपने महापुराणको शक संच ९०० (ई० सन् १७८) में पूर्ण किया है। इन्होंने श्रवणबेलगोलामें बाहुबलि स्वामीको मूत्तिको प्रतिष्ठा ई० सन् १८१में की है।"
ब्रह्मदेवस्तम्भपर ई. सन् ९७४का एक अभिलेख पाया जाता है। गोम्म टेश्वरको मत्तिके समीप ही द्वारपालकोंको बांयी ओर प्राप्त एक लेखसे, जो १२८० ई० का है, मत्तिके सम्बन्ध में निम्नलिखित तथ्य प्राप्त होते हैं :--
भगवान बाहुबलि पुरुके पुत्र थे। उनके बड़े भाई द्वन्द्वयुद्ध में उनसे हार गये । लेकिन भगवान बाहुबलि पृथ्वीका राज्य उन्हें ही सौंपकर तपस्या करने चले गये । और उन्होंने कर्मपर विजय प्राप्त की। पुरुदेवके ज्येष्ठ पुत्र भरतने पोदनपुरमें बाहुबलिको ५२५ धनुष ऊँची एक मूत्ति बनवाई। कुछ कालो परान्त उस स्थानमें, जहाँ बाहुबलिको मूर्ति थो, असंख्य कुक्कुट सर्प उत्पन्न हुए । इसीलिए उस मूत्तिका नाम कुक्कुटेश्वर भी पड़ा । कुछ समय बाद यह स्थान साधारण मनुष्योंके लिए अगम्य हो गया । उस मूत्तिमै अलौकिक शक्ति थी। उसके तेज:पूर्ण नखोंको जो मनुष्य देख लेता था वह अपने पूर्व जन्मकी बातें जान जाता था | जब चामुण्डरायने लोगोंसे इस जिनमत्तिके बारेमें सुना, तो उन्हें उसे देखनेको उत्कट अभिलाषा हुई । जब वे वहाँ जानेको तैयार हए। तो उनके गुरुओंने उनसे कहा कि वह स्थान बहुत दूर और अगम्य है। इस पर चामुण्डरायने इस वर्तमान मूत्तिका निर्माण करवाया।
इस अभिलेखसे यह स्पष्ट है कि ई० सन् १९८० के पूर्व चामुण्डरायका यश व्यास हो चुका था और वे गोम्मटेशमतिके प्रतिष्ठापकके रूप में मान्य हो चुके थे । असएब संक्षेपमें चामुण्डरायका समय ई० सन को दशम शताब्दी है।
चामुण्डराय संस्कृत और कन्नड़ दोनों ही भाषाओंमें कविता लिखते थे । इनके द्वारा रचित चामुण्डरायपुराण और चारित्रसार ये दो ग्रन्थ उपलब्ध हैं। चामुण्डरायपुराणका अपर नाम त्रिषष्ठिपुराण है। यह ग्रन्थ कन्नड़गद्यका सबसे प्रथम ग्रन्थ है। यद्यपि कविपरम्परासे आगत लेखकके प्रसाद और माधुर्यको झलक इस ग्रन्थमें पर्याप्त है तो भी स्पष्ट है कि यह कृति सर्वसाधा रणके उपदेशके लिए लिखी गई है । यद्यपि इसमें पम्पका उपयुक्त शब्द-अर्थ चयन, रणका लालित्य तथा वाणका शब्द अर्थ-माधुर्य नहीं है, तो भी इसका अपना सौष्ठव निराला है । इसमें जातक कथाकी-सी झलक मिलती है। यों तो इस ग्रन्थमें ६३ शलाकापुरुषोंकी कथा निबद्ध की गई है। पर साथमें आचार और दर्शनके सिद्धान्त भी वणित है।
आचारशास्त्रका संक्षेपमें स्पष्टरूपसे वर्णन इस ग्रन्थमें गद्यरूपमें प्रस्तुत किया गया है । इस ग्रंथका प्रकाशन माणिकचन्द्रग्रंथमालाके नवम ग्रन्थके रूप में हुआ है। आरम्भमें सम्यक्त्व और पंचाणुव्रतोंका वर्णन है। संकल्पपूर्वक नियम करनेको त कहते हैं। इसमें सभी प्रकारके सावद्योंका त्याग किया जाता है । व्रतीको निःशल्य कहा है । लिखा है
'अभिसंधिकतो नियमो व्रतमित्युच्यते, सर्वसावधनिवृत्त्यसंभवादणुवतं दीद्रियादीनां जंगमप्राणिनांप्रमत्तयोगेन प्राणव्यपरोपणान्मनोवाक्कायैश्च नियुतः। अगारीत्याधणुनसम् ।
अतोंके अतिचार, रात्रिभोजनल्याग ब्रतका कथन भी अणुव्रतकथनप्रसंगमें बाया है।द्वितीय प्रकरणमें सप्तशीलोंका कथन आया है। साथ ही उनके अतिचार भी वणित हैं । अनर्थदण्डनतका कथन करते हुए अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादा चरित, हिंसाप्रदान और अशुभश्रुति ये पांच उसके भेद कहें हैं । जय, पराजय, बन्ध, बध, अगच्छेद, सर्वस्वहरण आदि किस प्रकार हो सके, इसका मनसे चिन्तन करना अपध्यान है । पापोपदेशके क्लेशवाणिज्य, तिर्यग्वाणिज्य, बधकोपदेश और आरम्भकोपदेवा भेद हैं । क्लेशवाणिज्यका कथन करते हुए लिखा है कि दासी दास आदि जिस देशमें सुलभ हों उनको यहाँसे लाकर अर्थलाभके हेतु बैंचना क्लेशवाणिज्य है । गाय-भैंस आदि पशुओंको अन्यत्र ले जाकर बेचना तिर्यम् याणिज्य है। पक्षीमार और शिकारियोंको किसी प्रदेशविशेषमें रहने वाले पशुपक्षियों की सूचना देना बधकोपदेश है । अधिक मिट्टी, जल, पवन, बनस्पति आदिके आरम्भका उपदेश देना आरम्भकोपदेश है। अनर्थदण्डवतका और भी अधिक विश्लेषण किया है तथा विष, शस्त्र आदिके व्यापारको अनर्थदण्डके अन्तर्गत माना है । इस प्रकार सात शीलोंका विस्तारपूर्वक निरूपण किया है । गृहस्थके इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम, तप इन छ: षट्कर्मोंका कथन भी आया है। इज्याका अर्थ अर्हतपूजासे है। इसके नित्यमह, चतुर्मुख, कल्पवृक्ष, अष्टालिक और इन्द्रध्वज भेद हैं। वातासे अर्थ असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प आदि आजीविकावृत्तियोंसे है। दत्तिका अर्थ दान है। इसके दयादत्ति, पात्रत्ति, समदत्ति और सकलदत्ति ये चार भेद हैं । सात शीलोंके पश्चात् मारणान्तिक सल्लेखनाका कथन आया है |
तृतीय प्रकरणमें षोडशभावनाका निरूपण है। दर्शनविशुद्धता, विनय सम्पन्नता, शीलवतेष्वतिचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैयावृत्तिकरण, अहंभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुत भक्ति, प्रवचनक्ति , आवश्यकापरिहाणि, मार्गप्रभावना और प्रवचनवात्सल्य इन सोलह भावनाओंके स्वरूप हैं।
चतुर्थ प्रकरणमें अनगारधर्मका वर्णन है । आरंभमें दश धर्मों की व्याख्या की गयी है । अनन्तर तीन गुप्ति और पांच समितियोंका कथन आया है। संयमी निग्रंथोंके पाँच भेद बतलाये हैं-पुलाक, वकुश, कुशील, निग्रंथ और स्नातक । इनके स्वरूप और भेद-प्रभेद भी बणित है। परीषहजयप्रकरणमें २२ परिषहोंका उल्लेख करनेके अनन्तर किस गुणस्थानवालेको किन परिषहोंको सहन करना चाहिए, इसका वर्णन आया है । अन्तिम प्रकरण तप-वर्णनका है। इसी संदर्भ द्वादश अनुप्रेक्षाओंका वर्णन भी आया है । तपका लक्षण बतलाते हुए लिखा है--
रत्नत्रयाविर्भावार्थमिच्छानिरोधस्तपः । अथवा कर्मक्षयार्थ मार्गाविरोधेन तप्यत इति तपः। तद्धिजिधम्, बाह्यमाभ्यन्तरञ्च । अनशनादिबाह्यद्रव्यापेक्षत्वा स्परप्रत्ययलक्षणत्वाच्च बाह्य, तत् षर्विषं, अनशनाबमोदयंवृत्तिपरिसंख्या नरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशभेदात् | आभ्यन्तरमपि षड्विध, प्राय श्चितदिनययावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानभेदात् ।
इस संदर्भ में उग्र तपश्चरणसे प्राप्त ऋद्धियोंका कथन भी आया है। इस प्रकार चामुण्डरायने चारित्रसारग्रंथमें श्रावक और मुनि दोनों के आचारका वर्णन किया है। चामुण्डरायका संस्कृत्त और कन्नड़ गद्यपर अपूर्व अधिकार है । उन्होंने ग्रंथान्तरोंके पद्य भी प्रमाणके लिये उपस्थित किये हैं।
Acharyatulya Chamundraay 10th Century (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 04 April 2022
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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