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#Devchandprachin
कवि देवचन्दने 'पासणाहरिज' की रचना मुदिज्ज नगरके पार्श्वनाथ मंदिरमें की है। गुंदिज्जनगर दक्षिण भारतमें कहीं अवस्थित है। कविने ग्रंथके अन्तमें अपना परिचय दिया है, जिससे ज्ञात होता है कि कवि भूलसंघ गच्छके विद्वान वासवचन्दका शिष्य था। अन्तिम प्रशस्तिसे गुरुपरम्परा निम्न प्रकार ज्ञात होती है
श्रीकीर्ति
देवकीर्ति
मौनीदेव
माधवचन्द्र
अभयनन्दी
वासचन्द्र
देवचन्द्र
बासचन्द्र के सम्बन्धमें अन्वेषण करनेपर दो वासचन्द्रोंका पता चलता है। एक वे वासवचन्द्र हैं जिनका उल्लेख खजुराहोके वि०सं० १०११ साख शुक्ला सप्तमी सोमवारके दिन उत्कीर्ण किये गये जिननाथ मन्दिरके अभिलेखमें हुआ है, जो वहाँके राजा धंगके राज्यकालमें उत्तीर्ण कराया गया था। द्वितीय वासवचन्द्रका उल्लेख श्रवणबेलगोलके अभिलेखमें पाया जाता है। इस अभि लेखमें बताया है
गुरु | बासचन्द्र |
'वासवचन्द्र-मुनीन्द्रो रुन्द्र-स्याद्वाद-तमक-कर्कश-विषणः ।
चालुक्य-कटक-मध्ये बाल-सरस्वतिरिति प्रसिद्धि प्राप्तः ।।"
'श्रीमूलसङ्घद देशीयगणद वक्रगच्छद कोण्डकुन्दान्वयद परियलिय बड्डदेवर बलिय"....""वासवचन्द्रपण्डित-देवरु ।' इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि वासवचन्द्र मुनीन्द्र स्याद्वाद-विद्याके विद्वान थे। कर्कश तर्क करने में उनकी बुद्धि पटु थी। उन्होंने चालुक्य राजाकी राजधानी में 'बालसरस्वती'को उपाधि प्राप्त की थी।
श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीने अनुमान किया है कि श्रवणबेलगोलके अभिलेखमें उल्लिखित पासवचन्द्र ही देवचन्द्र के गुरु संभव हैं। पर यहां पर यह कठिनाई उपस्थित होती है कि मूलसंघ देशोगण और चक्रगच्छमें कुम्द कुन्दके अन्वयमें देवेन्द्र सिद्धान्तदेव हुए। इनके शिष्य चतुर्मुखदेव था वृषभनन्दि ये। इन वृषभनन्दिके ८४ शिष्य थे। इनमें गोपनन्दि, प्रभाचन्द्र, दामनन्दि, पुणचन्द्र, माघनन्दि, जिन चन्द्र, देवेन्द्र, बासवचन्द्र, अश:कोसि एवं शुभकीर्ति प्रधान हैं। देवचन्द्रने प्रशस्तिमें अभयनन्दिको वासवचन्द्रका गुरु बताया है। अतः इस गुरुपरम्पराका' समन्वय श्रवणबेलगोलके शिलालेख में उल्लिखितगुरुपरम्परासे नहीं होता । अथवा यह भी संभव है कि वृषभनन्दिके ८४ शिष्यों में कोई शिष्य अभयनन्दि रहा हो और उसका सम्बन्ध वासवचन्द्रके साथ रहा हो।
कवि देवचन्द्रका व्यक्तित्व गृहत्यागीका है। कविने बारंभमें पंचपरमेष्ठि की वन्दना की है। तदन्तर आत्मलधुता प्रदर्शित करते हुए बताया है कि न मुझे व्याकरणका ज्ञान है, न छन्द-अलंकारका ज्ञान है, न कोशका ज्ञान है और न सुकवित्व शक्ति ही प्राप्त है। इससे कविकी विनयशीलता प्रकट होती है।
पुष्पिकावाक्यमें कविकी मुनि कहा गया है। अतः उन्हें गृहत्यागी विरक्त साधुके रूपमें जानना चाहिये। प्रशस्तिको पंक्तियोंमें उन्हें रत्नत्रयभूषण, गुणनिधान और अज्ञानतिमिरनाशक कहा गया है।
रराणत्तय-भूसणसु गुण-निहाणु,
अण्णाणतिमिर पसरत-भाणु ।
कविका पुष्पिकावाक्य निम्न प्रकार है
"सिरिपासणाहचरिए चउबग्गफले वियजणमगा मुणिमयंच-र महा कञ्चे एयारसिया इमा संधी समत्ता ।'
कवि देवचन्द्रने कब अपने ग्रंथकी रचना की, यह नहीं कहा जा सकता। 'पासणाहरिउ'की प्रशस्तिमें रचनाफालका अंकन नहीं किया गया है । और न ऐसी कोई सामग्री ही इस ग्रंथमें उपलब्ध है जिसके आधार पर कविका काल निर्धारित किया जा सके। इस ग्रन्थकी जो पाण्डुलिपि उपलब्ध है वह वि०सं० १४९८के दुर्मति नामक संवत्सरके पौष महीनेके कृष्णपक्षमें अल्लाउद्दीन के राज्यकालमें भट्टारक नरेन्द्रकोत्तिके पदाधिकारी भट्टारक प्रतापकीत्तिके समयमें देवगिरि महादुर्ग में अग्रवाल श्रावक पं० गांगदेवके पुत्र पासराजके द्वारा लिखाई गई है। अतएव वि० सं० १४९८ के पूर्व इस ग्रंथका रचनाकाल निश्चित है। यदि देवचन्द्रके गुरु वासवचन्द्रको देवेन्द्र सिद्धान्तदेवकी गुरु परम्परामें मान लिया जाय, तो देवेचन्द्रका समय शक सं० १०२२ ( वि० सं० ११५७ ) के लगभग सिब होता है। पासणाहबरिउकी भाषाशैली और वj विषयसे भी यह ग्रंथ १२वीं शताब्दीके लगभगका प्रतीत होता है। अतएव देवचन्द्रका समय १२वीं शताब्दीके लगभग है।
महाकवि देवचन्द्रकी एक ही रचना पासपाहपरिउ उपलब्ध है। थकी एक ही प्रति उपलब्ध है, जो पं० परमानन्दजीके पास है। इस ग्रंथमें ११ सन्धियाँ हैं और २०२ कावक हैं। कविने पाश्वनाथचरितको इस गंभमें निबद्ध किया है । पूर्वभवावलीके अनन्तर पाश्वनाथके वर्तमान जीवन पर प्रकाश डाला गया है। उनकी ध्यानमुद्राका चित्रण करते हुए कविने लिखा है--
तत्थ सिलायले थक्कु जिणिदो, संतु महंतु तिलोयहो चंदो ।
पंच-महब्क्य-उद्दयकंधो, निम्ममु चत्तच बहबंधो ।
जीवदयावरु संगविमुक्को, णं दहलपखणु धम्मु सुरुक्को ।
जम्म-जरामरणुज्झियदप्पो, बारसभेयतवस्समहप्पो ।
मोह-तमंध-पयाव-पयंगो, खंतिलयालहणे गिरितु गो।
संजम-सील-विहूसियदेहो, कम्म-कसाय-हुभासण-महो ।
पुष्पंधणुवरतोमर,सो, मोक्ख-महासरि-कोलणहंसो ।
इंदिय-सप्पई विसहरमंतो, अप्पसरूव-समाहि-सरतो।
केवलणाण-पयासण-कंव, घाणपुरम्मि निवेसियचक्ख, !
गिज्जियसासु पलबिय-बाहो, णिच्चलदेह विसज्जिय-वाहो ।
कंचणसेलु जहा थिरचित्तो, दोधकछंद इमो बुह बुत्तो।।
पर जीर्थकर मार गिलागर मानम्थ बैठे हुए हैं। वे त्रिलोक वर्ती जीवोंके द्वारा वन्दनीय हैं, पंचमहाव्रतोंके धारक हैं। ममता-मोहसे रहित हैं और प्रकृति, प्रदेश, स्थिति तथा अनुभागरूप चार प्रकारके बन्धसे रहित हैं। दयालु और अपरिग्रही है। दशलक्षणधर्मके धारक हैं। जन्म, जरा और मरणके दर्पसे रहित और द्वादश तपोंके अनुष्ठाता हैं। मोहरूपी अन्धकारको दूर करनेके लिये सूर्यतुल्य हैं। क्षमारूपी लताके आरोहणार्थ वे गिरिके तुल्य उन्नत है। संयम और शीलसे विभूषित हैं। और कर्मरूप कषाय-हुताशनके लिये मेध हैं। कामदेवके उत्कृष्ट वाणको नष्ट करनेवाले तथा मोक्षरूप महा सरोवरमें क्रीड़ा करनेवाले हंस हैं। इन्द्रियरूपी विषधर सोको रोकनेके लिये मंत्र हैं । आत्मसमाधिमें लीन रहने वाले हैं। केवलज्ञानको प्रकाशित करने वाले सूर्य हैं। नासाग्रदृष्टि, प्रलंब बाहु, योगनिरोधक, व्याधिरहित एवं सुमेरुके समान स्थिर चित्त है।
इससे स्पष्ट है कि 'पासणाहरिउ' एक सुन्दर काव्य है । इसमें महाकाव्य के सभी लक्षण पाये जाते हैं। बीच-बीचमें सिद्धान्त-विषयोंका समावेश भी किया गया है । कविने इस ग्रंथके बन्नगठनके सम्बन्धमें लिखा है
नाणाछंद-बंध-नीरंधहिं, पासचरिउ एयारह-संधिहि ।
पउरच्छहि सुबण्णरस नियहि, दोनिसयाई दोनि पद्धडियहि ।
चउवम्ग-फलहो पावण-पंथहो, सई चवीस होसि फुड गंथहो ।
जो भरु देह लिहाविद्ध दाणई, सहो संपज्जइ पंचई नाणई।
जो पुणु बच्चइ सुललिय-भासई, तहो पुण्ण फलहि सन्यासई।
जो पय उत्थु करे वि पजाद, सो सग्गापम-सुर मुंभः ।
ओ आयन्नइ चिरु नियमिय मणु, सो इह लोइ लोइ सिरि भायणु ।
नाना प्रकारके छन्दों द्वारा इस ग्रंथको रचा गया है। नवरसोंसे युक्त चतुवर्ग के फलको देने वाले मुदुल और ललित अक्षरोंसे युक्त नवीन अर्थको देने वाला यह ग्रंथ है। कविने संकेत द्वारा काव्यके गुणोंपर प्रकाश डाला है ।
कवि देवचन्दने 'पासणाहरिज' की रचना मुदिज्ज नगरके पार्श्वनाथ मंदिरमें की है। गुंदिज्जनगर दक्षिण भारतमें कहीं अवस्थित है। कविने ग्रंथके अन्तमें अपना परिचय दिया है, जिससे ज्ञात होता है कि कवि भूलसंघ गच्छके विद्वान वासवचन्दका शिष्य था। अन्तिम प्रशस्तिसे गुरुपरम्परा निम्न प्रकार ज्ञात होती है
श्रीकीर्ति
देवकीर्ति
मौनीदेव
माधवचन्द्र
अभयनन्दी
वासचन्द्र
देवचन्द्र
बासचन्द्र के सम्बन्धमें अन्वेषण करनेपर दो वासचन्द्रोंका पता चलता है। एक वे वासवचन्द्र हैं जिनका उल्लेख खजुराहोके वि०सं० १०११ साख शुक्ला सप्तमी सोमवारके दिन उत्कीर्ण किये गये जिननाथ मन्दिरके अभिलेखमें हुआ है, जो वहाँके राजा धंगके राज्यकालमें उत्तीर्ण कराया गया था। द्वितीय वासवचन्द्रका उल्लेख श्रवणबेलगोलके अभिलेखमें पाया जाता है। इस अभि लेखमें बताया है
गुरु | बासचन्द्र |
'वासवचन्द्र-मुनीन्द्रो रुन्द्र-स्याद्वाद-तमक-कर्कश-विषणः ।
चालुक्य-कटक-मध्ये बाल-सरस्वतिरिति प्रसिद्धि प्राप्तः ।।"
'श्रीमूलसङ्घद देशीयगणद वक्रगच्छद कोण्डकुन्दान्वयद परियलिय बड्डदेवर बलिय"....""वासवचन्द्रपण्डित-देवरु ।' इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि वासवचन्द्र मुनीन्द्र स्याद्वाद-विद्याके विद्वान थे। कर्कश तर्क करने में उनकी बुद्धि पटु थी। उन्होंने चालुक्य राजाकी राजधानी में 'बालसरस्वती'को उपाधि प्राप्त की थी।
श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीने अनुमान किया है कि श्रवणबेलगोलके अभिलेखमें उल्लिखित पासवचन्द्र ही देवचन्द्र के गुरु संभव हैं। पर यहां पर यह कठिनाई उपस्थित होती है कि मूलसंघ देशोगण और चक्रगच्छमें कुम्द कुन्दके अन्वयमें देवेन्द्र सिद्धान्तदेव हुए। इनके शिष्य चतुर्मुखदेव था वृषभनन्दि ये। इन वृषभनन्दिके ८४ शिष्य थे। इनमें गोपनन्दि, प्रभाचन्द्र, दामनन्दि, पुणचन्द्र, माघनन्दि, जिन चन्द्र, देवेन्द्र, बासवचन्द्र, अश:कोसि एवं शुभकीर्ति प्रधान हैं। देवचन्द्रने प्रशस्तिमें अभयनन्दिको वासवचन्द्रका गुरु बताया है। अतः इस गुरुपरम्पराका' समन्वय श्रवणबेलगोलके शिलालेख में उल्लिखितगुरुपरम्परासे नहीं होता । अथवा यह भी संभव है कि वृषभनन्दिके ८४ शिष्यों में कोई शिष्य अभयनन्दि रहा हो और उसका सम्बन्ध वासवचन्द्रके साथ रहा हो।
कवि देवचन्द्रका व्यक्तित्व गृहत्यागीका है। कविने बारंभमें पंचपरमेष्ठि की वन्दना की है। तदन्तर आत्मलधुता प्रदर्शित करते हुए बताया है कि न मुझे व्याकरणका ज्ञान है, न छन्द-अलंकारका ज्ञान है, न कोशका ज्ञान है और न सुकवित्व शक्ति ही प्राप्त है। इससे कविकी विनयशीलता प्रकट होती है।
पुष्पिकावाक्यमें कविकी मुनि कहा गया है। अतः उन्हें गृहत्यागी विरक्त साधुके रूपमें जानना चाहिये। प्रशस्तिको पंक्तियोंमें उन्हें रत्नत्रयभूषण, गुणनिधान और अज्ञानतिमिरनाशक कहा गया है।
रराणत्तय-भूसणसु गुण-निहाणु,
अण्णाणतिमिर पसरत-भाणु ।
कविका पुष्पिकावाक्य निम्न प्रकार है
"सिरिपासणाहचरिए चउबग्गफले वियजणमगा मुणिमयंच-र महा कञ्चे एयारसिया इमा संधी समत्ता ।'
कवि देवचन्द्रने कब अपने ग्रंथकी रचना की, यह नहीं कहा जा सकता। 'पासणाहरिउ'की प्रशस्तिमें रचनाफालका अंकन नहीं किया गया है । और न ऐसी कोई सामग्री ही इस ग्रंथमें उपलब्ध है जिसके आधार पर कविका काल निर्धारित किया जा सके। इस ग्रन्थकी जो पाण्डुलिपि उपलब्ध है वह वि०सं० १४९८के दुर्मति नामक संवत्सरके पौष महीनेके कृष्णपक्षमें अल्लाउद्दीन के राज्यकालमें भट्टारक नरेन्द्रकोत्तिके पदाधिकारी भट्टारक प्रतापकीत्तिके समयमें देवगिरि महादुर्ग में अग्रवाल श्रावक पं० गांगदेवके पुत्र पासराजके द्वारा लिखाई गई है। अतएव वि० सं० १४९८ के पूर्व इस ग्रंथका रचनाकाल निश्चित है। यदि देवचन्द्रके गुरु वासवचन्द्रको देवेन्द्र सिद्धान्तदेवकी गुरु परम्परामें मान लिया जाय, तो देवेचन्द्रका समय शक सं० १०२२ ( वि० सं० ११५७ ) के लगभग सिब होता है। पासणाहबरिउकी भाषाशैली और वj विषयसे भी यह ग्रंथ १२वीं शताब्दीके लगभगका प्रतीत होता है। अतएव देवचन्द्रका समय १२वीं शताब्दीके लगभग है।
महाकवि देवचन्द्रकी एक ही रचना पासपाहपरिउ उपलब्ध है। थकी एक ही प्रति उपलब्ध है, जो पं० परमानन्दजीके पास है। इस ग्रंथमें ११ सन्धियाँ हैं और २०२ कावक हैं। कविने पाश्वनाथचरितको इस गंभमें निबद्ध किया है । पूर्वभवावलीके अनन्तर पाश्वनाथके वर्तमान जीवन पर प्रकाश डाला गया है। उनकी ध्यानमुद्राका चित्रण करते हुए कविने लिखा है--
तत्थ सिलायले थक्कु जिणिदो, संतु महंतु तिलोयहो चंदो ।
पंच-महब्क्य-उद्दयकंधो, निम्ममु चत्तच बहबंधो ।
जीवदयावरु संगविमुक्को, णं दहलपखणु धम्मु सुरुक्को ।
जम्म-जरामरणुज्झियदप्पो, बारसभेयतवस्समहप्पो ।
मोह-तमंध-पयाव-पयंगो, खंतिलयालहणे गिरितु गो।
संजम-सील-विहूसियदेहो, कम्म-कसाय-हुभासण-महो ।
पुष्पंधणुवरतोमर,सो, मोक्ख-महासरि-कोलणहंसो ।
इंदिय-सप्पई विसहरमंतो, अप्पसरूव-समाहि-सरतो।
केवलणाण-पयासण-कंव, घाणपुरम्मि निवेसियचक्ख, !
गिज्जियसासु पलबिय-बाहो, णिच्चलदेह विसज्जिय-वाहो ।
कंचणसेलु जहा थिरचित्तो, दोधकछंद इमो बुह बुत्तो।।
पर जीर्थकर मार गिलागर मानम्थ बैठे हुए हैं। वे त्रिलोक वर्ती जीवोंके द्वारा वन्दनीय हैं, पंचमहाव्रतोंके धारक हैं। ममता-मोहसे रहित हैं और प्रकृति, प्रदेश, स्थिति तथा अनुभागरूप चार प्रकारके बन्धसे रहित हैं। दयालु और अपरिग्रही है। दशलक्षणधर्मके धारक हैं। जन्म, जरा और मरणके दर्पसे रहित और द्वादश तपोंके अनुष्ठाता हैं। मोहरूपी अन्धकारको दूर करनेके लिये सूर्यतुल्य हैं। क्षमारूपी लताके आरोहणार्थ वे गिरिके तुल्य उन्नत है। संयम और शीलसे विभूषित हैं। और कर्मरूप कषाय-हुताशनके लिये मेध हैं। कामदेवके उत्कृष्ट वाणको नष्ट करनेवाले तथा मोक्षरूप महा सरोवरमें क्रीड़ा करनेवाले हंस हैं। इन्द्रियरूपी विषधर सोको रोकनेके लिये मंत्र हैं । आत्मसमाधिमें लीन रहने वाले हैं। केवलज्ञानको प्रकाशित करने वाले सूर्य हैं। नासाग्रदृष्टि, प्रलंब बाहु, योगनिरोधक, व्याधिरहित एवं सुमेरुके समान स्थिर चित्त है।
इससे स्पष्ट है कि 'पासणाहरिउ' एक सुन्दर काव्य है । इसमें महाकाव्य के सभी लक्षण पाये जाते हैं। बीच-बीचमें सिद्धान्त-विषयोंका समावेश भी किया गया है । कविने इस ग्रंथके बन्नगठनके सम्बन्धमें लिखा है
नाणाछंद-बंध-नीरंधहिं, पासचरिउ एयारह-संधिहि ।
पउरच्छहि सुबण्णरस नियहि, दोनिसयाई दोनि पद्धडियहि ।
चउवम्ग-फलहो पावण-पंथहो, सई चवीस होसि फुड गंथहो ।
जो भरु देह लिहाविद्ध दाणई, सहो संपज्जइ पंचई नाणई।
जो पुणु बच्चइ सुललिय-भासई, तहो पुण्ण फलहि सन्यासई।
जो पय उत्थु करे वि पजाद, सो सग्गापम-सुर मुंभः ।
ओ आयन्नइ चिरु नियमिय मणु, सो इह लोइ लोइ सिरि भायणु ।
नाना प्रकारके छन्दों द्वारा इस ग्रंथको रचा गया है। नवरसोंसे युक्त चतुवर्ग के फलको देने वाले मुदुल और ललित अक्षरोंसे युक्त नवीन अर्थको देने वाला यह ग्रंथ है। कविने संकेत द्वारा काव्यके गुणोंपर प्रकाश डाला है ।
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आचार्यतुल्य देवचंद 12वीं शताब्दी (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 26 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 26 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
कवि देवचन्दने 'पासणाहरिज' की रचना मुदिज्ज नगरके पार्श्वनाथ मंदिरमें की है। गुंदिज्जनगर दक्षिण भारतमें कहीं अवस्थित है। कविने ग्रंथके अन्तमें अपना परिचय दिया है, जिससे ज्ञात होता है कि कवि भूलसंघ गच्छके विद्वान वासवचन्दका शिष्य था। अन्तिम प्रशस्तिसे गुरुपरम्परा निम्न प्रकार ज्ञात होती है
श्रीकीर्ति
देवकीर्ति
मौनीदेव
माधवचन्द्र
अभयनन्दी
वासचन्द्र
देवचन्द्र
बासचन्द्र के सम्बन्धमें अन्वेषण करनेपर दो वासचन्द्रोंका पता चलता है। एक वे वासवचन्द्र हैं जिनका उल्लेख खजुराहोके वि०सं० १०११ साख शुक्ला सप्तमी सोमवारके दिन उत्कीर्ण किये गये जिननाथ मन्दिरके अभिलेखमें हुआ है, जो वहाँके राजा धंगके राज्यकालमें उत्तीर्ण कराया गया था। द्वितीय वासवचन्द्रका उल्लेख श्रवणबेलगोलके अभिलेखमें पाया जाता है। इस अभि लेखमें बताया है
गुरु | बासचन्द्र |
'वासवचन्द्र-मुनीन्द्रो रुन्द्र-स्याद्वाद-तमक-कर्कश-विषणः ।
चालुक्य-कटक-मध्ये बाल-सरस्वतिरिति प्रसिद्धि प्राप्तः ।।"
'श्रीमूलसङ्घद देशीयगणद वक्रगच्छद कोण्डकुन्दान्वयद परियलिय बड्डदेवर बलिय"....""वासवचन्द्रपण्डित-देवरु ।' इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि वासवचन्द्र मुनीन्द्र स्याद्वाद-विद्याके विद्वान थे। कर्कश तर्क करने में उनकी बुद्धि पटु थी। उन्होंने चालुक्य राजाकी राजधानी में 'बालसरस्वती'को उपाधि प्राप्त की थी।
श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीने अनुमान किया है कि श्रवणबेलगोलके अभिलेखमें उल्लिखित पासवचन्द्र ही देवचन्द्र के गुरु संभव हैं। पर यहां पर यह कठिनाई उपस्थित होती है कि मूलसंघ देशोगण और चक्रगच्छमें कुम्द कुन्दके अन्वयमें देवेन्द्र सिद्धान्तदेव हुए। इनके शिष्य चतुर्मुखदेव था वृषभनन्दि ये। इन वृषभनन्दिके ८४ शिष्य थे। इनमें गोपनन्दि, प्रभाचन्द्र, दामनन्दि, पुणचन्द्र, माघनन्दि, जिन चन्द्र, देवेन्द्र, बासवचन्द्र, अश:कोसि एवं शुभकीर्ति प्रधान हैं। देवचन्द्रने प्रशस्तिमें अभयनन्दिको वासवचन्द्रका गुरु बताया है। अतः इस गुरुपरम्पराका' समन्वय श्रवणबेलगोलके शिलालेख में उल्लिखितगुरुपरम्परासे नहीं होता । अथवा यह भी संभव है कि वृषभनन्दिके ८४ शिष्यों में कोई शिष्य अभयनन्दि रहा हो और उसका सम्बन्ध वासवचन्द्रके साथ रहा हो।
कवि देवचन्द्रका व्यक्तित्व गृहत्यागीका है। कविने बारंभमें पंचपरमेष्ठि की वन्दना की है। तदन्तर आत्मलधुता प्रदर्शित करते हुए बताया है कि न मुझे व्याकरणका ज्ञान है, न छन्द-अलंकारका ज्ञान है, न कोशका ज्ञान है और न सुकवित्व शक्ति ही प्राप्त है। इससे कविकी विनयशीलता प्रकट होती है।
पुष्पिकावाक्यमें कविकी मुनि कहा गया है। अतः उन्हें गृहत्यागी विरक्त साधुके रूपमें जानना चाहिये। प्रशस्तिको पंक्तियोंमें उन्हें रत्नत्रयभूषण, गुणनिधान और अज्ञानतिमिरनाशक कहा गया है।
रराणत्तय-भूसणसु गुण-निहाणु,
अण्णाणतिमिर पसरत-भाणु ।
कविका पुष्पिकावाक्य निम्न प्रकार है
"सिरिपासणाहचरिए चउबग्गफले वियजणमगा मुणिमयंच-र महा कञ्चे एयारसिया इमा संधी समत्ता ।'
कवि देवचन्द्रने कब अपने ग्रंथकी रचना की, यह नहीं कहा जा सकता। 'पासणाहरिउ'की प्रशस्तिमें रचनाफालका अंकन नहीं किया गया है । और न ऐसी कोई सामग्री ही इस ग्रंथमें उपलब्ध है जिसके आधार पर कविका काल निर्धारित किया जा सके। इस ग्रन्थकी जो पाण्डुलिपि उपलब्ध है वह वि०सं० १४९८के दुर्मति नामक संवत्सरके पौष महीनेके कृष्णपक्षमें अल्लाउद्दीन के राज्यकालमें भट्टारक नरेन्द्रकोत्तिके पदाधिकारी भट्टारक प्रतापकीत्तिके समयमें देवगिरि महादुर्ग में अग्रवाल श्रावक पं० गांगदेवके पुत्र पासराजके द्वारा लिखाई गई है। अतएव वि० सं० १४९८ के पूर्व इस ग्रंथका रचनाकाल निश्चित है। यदि देवचन्द्रके गुरु वासवचन्द्रको देवेन्द्र सिद्धान्तदेवकी गुरु परम्परामें मान लिया जाय, तो देवेचन्द्रका समय शक सं० १०२२ ( वि० सं० ११५७ ) के लगभग सिब होता है। पासणाहबरिउकी भाषाशैली और वj विषयसे भी यह ग्रंथ १२वीं शताब्दीके लगभगका प्रतीत होता है। अतएव देवचन्द्रका समय १२वीं शताब्दीके लगभग है।
महाकवि देवचन्द्रकी एक ही रचना पासपाहपरिउ उपलब्ध है। थकी एक ही प्रति उपलब्ध है, जो पं० परमानन्दजीके पास है। इस ग्रंथमें ११ सन्धियाँ हैं और २०२ कावक हैं। कविने पाश्वनाथचरितको इस गंभमें निबद्ध किया है । पूर्वभवावलीके अनन्तर पाश्वनाथके वर्तमान जीवन पर प्रकाश डाला गया है। उनकी ध्यानमुद्राका चित्रण करते हुए कविने लिखा है--
तत्थ सिलायले थक्कु जिणिदो, संतु महंतु तिलोयहो चंदो ।
पंच-महब्क्य-उद्दयकंधो, निम्ममु चत्तच बहबंधो ।
जीवदयावरु संगविमुक्को, णं दहलपखणु धम्मु सुरुक्को ।
जम्म-जरामरणुज्झियदप्पो, बारसभेयतवस्समहप्पो ।
मोह-तमंध-पयाव-पयंगो, खंतिलयालहणे गिरितु गो।
संजम-सील-विहूसियदेहो, कम्म-कसाय-हुभासण-महो ।
पुष्पंधणुवरतोमर,सो, मोक्ख-महासरि-कोलणहंसो ।
इंदिय-सप्पई विसहरमंतो, अप्पसरूव-समाहि-सरतो।
केवलणाण-पयासण-कंव, घाणपुरम्मि निवेसियचक्ख, !
गिज्जियसासु पलबिय-बाहो, णिच्चलदेह विसज्जिय-वाहो ।
कंचणसेलु जहा थिरचित्तो, दोधकछंद इमो बुह बुत्तो।।
पर जीर्थकर मार गिलागर मानम्थ बैठे हुए हैं। वे त्रिलोक वर्ती जीवोंके द्वारा वन्दनीय हैं, पंचमहाव्रतोंके धारक हैं। ममता-मोहसे रहित हैं और प्रकृति, प्रदेश, स्थिति तथा अनुभागरूप चार प्रकारके बन्धसे रहित हैं। दयालु और अपरिग्रही है। दशलक्षणधर्मके धारक हैं। जन्म, जरा और मरणके दर्पसे रहित और द्वादश तपोंके अनुष्ठाता हैं। मोहरूपी अन्धकारको दूर करनेके लिये सूर्यतुल्य हैं। क्षमारूपी लताके आरोहणार्थ वे गिरिके तुल्य उन्नत है। संयम और शीलसे विभूषित हैं। और कर्मरूप कषाय-हुताशनके लिये मेध हैं। कामदेवके उत्कृष्ट वाणको नष्ट करनेवाले तथा मोक्षरूप महा सरोवरमें क्रीड़ा करनेवाले हंस हैं। इन्द्रियरूपी विषधर सोको रोकनेके लिये मंत्र हैं । आत्मसमाधिमें लीन रहने वाले हैं। केवलज्ञानको प्रकाशित करने वाले सूर्य हैं। नासाग्रदृष्टि, प्रलंब बाहु, योगनिरोधक, व्याधिरहित एवं सुमेरुके समान स्थिर चित्त है।
इससे स्पष्ट है कि 'पासणाहरिउ' एक सुन्दर काव्य है । इसमें महाकाव्य के सभी लक्षण पाये जाते हैं। बीच-बीचमें सिद्धान्त-विषयोंका समावेश भी किया गया है । कविने इस ग्रंथके बन्नगठनके सम्बन्धमें लिखा है
नाणाछंद-बंध-नीरंधहिं, पासचरिउ एयारह-संधिहि ।
पउरच्छहि सुबण्णरस नियहि, दोनिसयाई दोनि पद्धडियहि ।
चउवम्ग-फलहो पावण-पंथहो, सई चवीस होसि फुड गंथहो ।
जो भरु देह लिहाविद्ध दाणई, सहो संपज्जइ पंचई नाणई।
जो पुणु बच्चइ सुललिय-भासई, तहो पुण्ण फलहि सन्यासई।
जो पय उत्थु करे वि पजाद, सो सग्गापम-सुर मुंभः ।
ओ आयन्नइ चिरु नियमिय मणु, सो इह लोइ लोइ सिरि भायणु ।
नाना प्रकारके छन्दों द्वारा इस ग्रंथको रचा गया है। नवरसोंसे युक्त चतुवर्ग के फलको देने वाले मुदुल और ललित अक्षरोंसे युक्त नवीन अर्थको देने वाला यह ग्रंथ है। कविने संकेत द्वारा काव्यके गुणोंपर प्रकाश डाला है ।
Acharyatulya Devchand 12th Century (Prachin)
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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