हैशटैग
#Dhanpal2
धनपाल कविने 'बाहुबलि चरिकी रचना को हैं । इस ग्रन्थको प्रति आमेरशास्त्र-भाण्डार जयपुरमें सुरक्षित है। कविने ग्रन्थके आदिमें अपना परिचय दिया है।
गज्जर देश मझि गयवट्टणु, वसई विइलु पल्हणपुरु पट्टणु ।
वीसलाएउ राउ पयपालउ, कुवलय-मंडणु सङलु व माला ।
तहि पुरबाडवंस नायामल, अगणिय-पुब्बपरिस-णिम्मल कुल ।
पुणु हुउ राय सेटि जिणभत्तउ, भोबई णामें दयगुण जुत्ता ।
सुहउपज तहो पंदणु जायउ, गुरु सज्जणहं भुअणि विक्खायउ ।
तहो सुउ हुउ धणवाल धरायले, परमप्पय-पय-पंकय-रज अलि ।
एतहि तर्हि जितियण मंतउ, महि भमंतु पल्हणपुरे पत्तउ ।
अर्थात् धनपाल गुर्जर देशके रहने वाले थे। पल्हणपुर इनका वास-स्थान था। इनके पिताका नाम सुहडदेव और माताका नाम सुहडादेवी था। ये पुरवाड़ जातिमें उत्पन्न हुए थे। कविके समय राजा वीसलदेव गज्य कर रहा था। योगिनीपुर ( दिल्ली ) में उस समय महम्मदशाहवा शासन था । कविने यह ग्रन्थ-रचना चन्द्रबाउनगरके राजा सारंगके मंत्री जायसवंशोतमन्न साहू वासद्धर । बासधर की प्रेरणासे की है। कृति समर्पित भी उन्हींवो की गई है। नासाधर के गिताका नाम सोमदेव था, जो संभरी नरेन्द्र कर्णदबके मंत्री थे । कवि साहु बासाधरको सम्यग्दृष्टि, जिन चरणोंका भवत्त, दयालु, लोकप्रिय, मिश्यावहित और विशुद्धचित्त कहा है। इनको गृहस्थके दैनिक पट्कर्मोम प्रवीण राजनीति में चतुर और अष्टमूल गुणोंके पालन में तत्पर बताया है। इनकी पत्नीका नाम उभयत्री था, जो पतिव्रता और शीलवत पालन करनेवाली श्री। यह चतुर्विध संघको दान देती थी। इसके आर पुत्र हुए-जसपाल, जयपाल, रतपाल, चन्द्रपाल, बिहाराज, पुण्यपाल, बाह्ड़ और पदव । ये आठों पुत्र अपने पिताके समान ही धर्मात्मा थे।
कवि ने इस ग्रन्थके आदिमें प्राचीन कवियों, आचार्यों और ग्रन्थावा स्मरण किया है। उसने वविचक्रवर्ती धीरसेन, जैनेन्द्रव्याकरणरचयिता देवनन्दि, श्रीवन्तरि और उनके द्वारा चित पट्दर्शनप्रमाणग्रन्थ, महागेन-सुलोचना चरित, रविषेण-पद्मचरित, जिनरोन-हरिवंशपुराण, जटिलमुनि-वगंग ग्त, दिनकरसेन-कन्दर्पग्ति , पद्मसेन-पाश्र्वनाथचरित, अमृतागधना, गण अम्बसेन-चन्द्रप्रभचरित, धनदत्तचरित, कविविष्णुसेन, मुनिमिनन्दि अनुप्रक्षा, गवकारमंत्र, नग्देव, कनिअसग-बीरचरित, सिद्धसन, कविगोचिन्द, जय. धवल, शालिभद्र, चतुर्मुख, द्रोण, स्वयंभू, पुष्पदन्त और मेदु कविका स्मरण किया है। इससे कायको अध्ययनशीलता, पांडिल्य और कवित्वशक्तिपर प्रकाश पड़ता है। कवि सन्तोषी था और स्वाभिमानी भी। यही कारण है कि उसने बालि-चरितकी रचना कर अपनेको मनस्वी घोषित किया है।
कविके गुरु प्रभाचन्द्र थे, जो अनेक शिष्यों सहित विहार करते हुए पल्हण पुरमें पधारे। धनपालने उन्हें प्रणाम किया और मुनिने आशीर्वाद दिया कि तुम मेरे प्रसादसे विचक्षण होगे। कविके मस्तक पर हाथ रखकर प्रभाचन्द्र कहने लगे कि मैं तुम्हें मन्त्र देता हूँ। तुम मेरे मुखसे निकले हुए अक्षरोंको याद करो। धनपालने प्रसन्नतापूर्वक गुरु द्वारा दिये गये मंत्रको ग्रहण किया और शास्त्राभ्यासद्वारा सुकवित्व प्राप्त किया। इसके पश्चात् प्रभाचन्द्र खंभात, धारा नगर और देवगिरि होते हुए योगिनीपुर आये । दिल्ली-निवासियोंने यहाँ एक महोत्सव सम्पन्न किया और भट्टारक रत्नकोतिके पद पर उन्हें प्रतिष्ठित किया !
कवि धनपाल गुरुकी आज्ञासे सौरिपुर तीर्थक प्रसिद्ध भगवान् नेमिनाथकी वन्दना करनेके लिये गये। मार्गमें वे चन्द्रवानगरको देखकर प्रभावित हुए और साहु बासाधर द्वारा निर्मित जिनालयको देखकर वहीं पर काव्य-रचना करने में प्रवृत्त हुए।
गुरु | प्रभाचन्द्र |
कविके स्थितिकालका निर्णय पूर्ववर्ती कवियों और राजाओंके निर्देशसे संभव है। इस ग्रन्थकी समाप्ति वि० सं० १४५४ वैशाख शुक्ला त्रयोदशी, स्वाति नक्षत्र, सिद्धियोग और सोमवारके दिन हुई है। कविने अपनी प्रशस्तिमें मुहम्मदशाह तुगलकका निर्देश किया है। मुहम्मदशाहने वि० सं० १३८१ से १४०८ तक राज्य किया है। भट्टारक प्रभाचन्द्र भट्टारक रत्नकोत्तिके पदपर प्रतिष्ठित हुए थे, इस कथनका समर्थन भगवतीआराधनाकी पंजिकाटीकाको लेखक-प्रशस्तिसे भी होता है । इस प्रशस्तिमें बताया गया है कि वि०सं०१४१६ में इन्हीं प्रभाचन्द्रके शिष्य ब्रह्म नाथूरामने अपने पढ़ने के लिए दिल्ली के बादशाह फिरोजशाह तुगलक के शासन कालमें लिखवाया था। फिरोजशाह तुगलकने वि० सं० १४०४
(१. संवत् १४१६ वर्षे चैत्रसुविषञ्चम्या सोमवासरे सकलराजशिरो-मुकुटमाणिक्य मरोचिपिजरीकृत-वर्ण-कमलपादयोगस्य श्रीपेरोजसाहेः सकलसाम्राज्यधुरीविनाणस्य समये श्रीदिल्यां श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे भट्टारकत्री रस्नकोसिदेवपट्टोदयादि-लवणतरणित्वमुर्तीकुर्वाणरणः ( णः ) भट्टारकरीधभाचन्द्रदेव शिष्याणां ब्रह्मनाथूराम । इत्याराधनापंजिकाप्रथआत्मपठनार्य लिखिापितम् ।)
१४४५ तक राज्य किया है । अतएव स्पष्ट है कि भट्टारक प्रभाचन्द्र वि० सं० १४१६ से कुछ समय पूर्व भट्टारकपदपर प्रतिष्टित हुए होंगे। इस आलोकमें घनपालका समय विक्रमकी पन्द्रहवीं शती माना जा सकता है।
कवि धनपालद्वितीयने 'बाहुबलिचरिउ' की रचना की है, जिसका दूसरा नाम 'कामचरिज' भी है । ग्रन्थ १८ संधियों में विभक्त है। इसमें प्रथम कामदेव बाहुबलिको कथा गुम्फित है। बाहुबली ऋषभदेवके पुत्र थे और सम्राट् भग्तके कनिष्ठ भ्राता | बाहुबली सुन्दर, उन्नत एवं बल-पौरुषसे सम्पन्न थे। वे इन्द्रि यजयी और उग्र तपस्वी भी थे। उन्होंने चक्रवर्ती भरसको जल, मल्ल और दृष्टि युद्धमें पराजित किया था। भरत इस पराजयस विक्षुब्ध हो गये और प्रतिशोध लेने की भावनासे उन्होंने अपने भाई पर सुदर्शनचक्र चलाया । किन्तु देवोपनीत अस्त्र बंशघातक नहीं होते, अतएव वह चक्र बहुबलिको प्रदक्षिणा देकर लौट आया। इससे बालिके मनमें पश्चात्ता उत्पन्न हुआ | वे परिग्रह, पायभाव, अहंकार, राज्यसत्ता, न्याय-अन्याय, भाई-भाईका सम्बन्ध आदिक सम्बन्धमं विचार करने लगे। उन्होंने राज-त्यागका निश्चय कर लिया और वे दिगम्बरीक्षा लेकर आत्म-साधनामें प्रवृत्त हुए। उन्होंने कछार तपश्चरण किया और स्त्रात्मोपलब्धि प्राप्त की।
यह ग्रंथ काच्य और मानवीय भावनाओंसे आतिप्रोत है। बिने यथास्थान वस्त-चित्र प्रस्तुतकर काव्यको सरस बनानेका प्रयास किया है। हम यहाँ विवाहके अनन्तर बर-बधुके मिलनका एक उदाहरण प्रस्तुतकर पबिया काव्यस्य पर प्रकाश डालेंगे।
सोहइ कोइल-झुणि महुरसमाए, सोहइ मणि पहु लक्ष जाए।
सोहइ मणिकणयालंकरिया, सोहइ सासय-सिरि सिद्धजया ।
सोहइ संपई सम्माण जणे, साहइ जयलछो सुहड्डु रण ।
सोहइ साहा जलइरस वर्ण, सोहइ वाया सारस बयणं ।
जह सोहइ एयहि वहु कलिया, तह सोहइ कण्णा वर मिलिया ।
कि बहुणा वाया उम्भसाए, कोर विवाहु सोमंजसाए । ७५ ।
बाहुब लिंचरित बास्तबमें महावाच्यक गुणांस यवत्त है ।
कबिन इसे सभी प्रकार से सरस और कवित्वपूर्ण बनाया है।
धनपाल कविने 'बाहुबलि चरिकी रचना को हैं । इस ग्रन्थको प्रति आमेरशास्त्र-भाण्डार जयपुरमें सुरक्षित है। कविने ग्रन्थके आदिमें अपना परिचय दिया है।
गज्जर देश मझि गयवट्टणु, वसई विइलु पल्हणपुरु पट्टणु ।
वीसलाएउ राउ पयपालउ, कुवलय-मंडणु सङलु व माला ।
तहि पुरबाडवंस नायामल, अगणिय-पुब्बपरिस-णिम्मल कुल ।
पुणु हुउ राय सेटि जिणभत्तउ, भोबई णामें दयगुण जुत्ता ।
सुहउपज तहो पंदणु जायउ, गुरु सज्जणहं भुअणि विक्खायउ ।
तहो सुउ हुउ धणवाल धरायले, परमप्पय-पय-पंकय-रज अलि ।
एतहि तर्हि जितियण मंतउ, महि भमंतु पल्हणपुरे पत्तउ ।
अर्थात् धनपाल गुर्जर देशके रहने वाले थे। पल्हणपुर इनका वास-स्थान था। इनके पिताका नाम सुहडदेव और माताका नाम सुहडादेवी था। ये पुरवाड़ जातिमें उत्पन्न हुए थे। कविके समय राजा वीसलदेव गज्य कर रहा था। योगिनीपुर ( दिल्ली ) में उस समय महम्मदशाहवा शासन था । कविने यह ग्रन्थ-रचना चन्द्रबाउनगरके राजा सारंगके मंत्री जायसवंशोतमन्न साहू वासद्धर । बासधर की प्रेरणासे की है। कृति समर्पित भी उन्हींवो की गई है। नासाधर के गिताका नाम सोमदेव था, जो संभरी नरेन्द्र कर्णदबके मंत्री थे । कवि साहु बासाधरको सम्यग्दृष्टि, जिन चरणोंका भवत्त, दयालु, लोकप्रिय, मिश्यावहित और विशुद्धचित्त कहा है। इनको गृहस्थके दैनिक पट्कर्मोम प्रवीण राजनीति में चतुर और अष्टमूल गुणोंके पालन में तत्पर बताया है। इनकी पत्नीका नाम उभयत्री था, जो पतिव्रता और शीलवत पालन करनेवाली श्री। यह चतुर्विध संघको दान देती थी। इसके आर पुत्र हुए-जसपाल, जयपाल, रतपाल, चन्द्रपाल, बिहाराज, पुण्यपाल, बाह्ड़ और पदव । ये आठों पुत्र अपने पिताके समान ही धर्मात्मा थे।
कवि ने इस ग्रन्थके आदिमें प्राचीन कवियों, आचार्यों और ग्रन्थावा स्मरण किया है। उसने वविचक्रवर्ती धीरसेन, जैनेन्द्रव्याकरणरचयिता देवनन्दि, श्रीवन्तरि और उनके द्वारा चित पट्दर्शनप्रमाणग्रन्थ, महागेन-सुलोचना चरित, रविषेण-पद्मचरित, जिनरोन-हरिवंशपुराण, जटिलमुनि-वगंग ग्त, दिनकरसेन-कन्दर्पग्ति , पद्मसेन-पाश्र्वनाथचरित, अमृतागधना, गण अम्बसेन-चन्द्रप्रभचरित, धनदत्तचरित, कविविष्णुसेन, मुनिमिनन्दि अनुप्रक्षा, गवकारमंत्र, नग्देव, कनिअसग-बीरचरित, सिद्धसन, कविगोचिन्द, जय. धवल, शालिभद्र, चतुर्मुख, द्रोण, स्वयंभू, पुष्पदन्त और मेदु कविका स्मरण किया है। इससे कायको अध्ययनशीलता, पांडिल्य और कवित्वशक्तिपर प्रकाश पड़ता है। कवि सन्तोषी था और स्वाभिमानी भी। यही कारण है कि उसने बालि-चरितकी रचना कर अपनेको मनस्वी घोषित किया है।
कविके गुरु प्रभाचन्द्र थे, जो अनेक शिष्यों सहित विहार करते हुए पल्हण पुरमें पधारे। धनपालने उन्हें प्रणाम किया और मुनिने आशीर्वाद दिया कि तुम मेरे प्रसादसे विचक्षण होगे। कविके मस्तक पर हाथ रखकर प्रभाचन्द्र कहने लगे कि मैं तुम्हें मन्त्र देता हूँ। तुम मेरे मुखसे निकले हुए अक्षरोंको याद करो। धनपालने प्रसन्नतापूर्वक गुरु द्वारा दिये गये मंत्रको ग्रहण किया और शास्त्राभ्यासद्वारा सुकवित्व प्राप्त किया। इसके पश्चात् प्रभाचन्द्र खंभात, धारा नगर और देवगिरि होते हुए योगिनीपुर आये । दिल्ली-निवासियोंने यहाँ एक महोत्सव सम्पन्न किया और भट्टारक रत्नकोतिके पद पर उन्हें प्रतिष्ठित किया !
कवि धनपाल गुरुकी आज्ञासे सौरिपुर तीर्थक प्रसिद्ध भगवान् नेमिनाथकी वन्दना करनेके लिये गये। मार्गमें वे चन्द्रवानगरको देखकर प्रभावित हुए और साहु बासाधर द्वारा निर्मित जिनालयको देखकर वहीं पर काव्य-रचना करने में प्रवृत्त हुए।
गुरु | प्रभाचन्द्र |
कविके स्थितिकालका निर्णय पूर्ववर्ती कवियों और राजाओंके निर्देशसे संभव है। इस ग्रन्थकी समाप्ति वि० सं० १४५४ वैशाख शुक्ला त्रयोदशी, स्वाति नक्षत्र, सिद्धियोग और सोमवारके दिन हुई है। कविने अपनी प्रशस्तिमें मुहम्मदशाह तुगलकका निर्देश किया है। मुहम्मदशाहने वि० सं० १३८१ से १४०८ तक राज्य किया है। भट्टारक प्रभाचन्द्र भट्टारक रत्नकोत्तिके पदपर प्रतिष्ठित हुए थे, इस कथनका समर्थन भगवतीआराधनाकी पंजिकाटीकाको लेखक-प्रशस्तिसे भी होता है । इस प्रशस्तिमें बताया गया है कि वि०सं०१४१६ में इन्हीं प्रभाचन्द्रके शिष्य ब्रह्म नाथूरामने अपने पढ़ने के लिए दिल्ली के बादशाह फिरोजशाह तुगलक के शासन कालमें लिखवाया था। फिरोजशाह तुगलकने वि० सं० १४०४
(१. संवत् १४१६ वर्षे चैत्रसुविषञ्चम्या सोमवासरे सकलराजशिरो-मुकुटमाणिक्य मरोचिपिजरीकृत-वर्ण-कमलपादयोगस्य श्रीपेरोजसाहेः सकलसाम्राज्यधुरीविनाणस्य समये श्रीदिल्यां श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे भट्टारकत्री रस्नकोसिदेवपट्टोदयादि-लवणतरणित्वमुर्तीकुर्वाणरणः ( णः ) भट्टारकरीधभाचन्द्रदेव शिष्याणां ब्रह्मनाथूराम । इत्याराधनापंजिकाप्रथआत्मपठनार्य लिखिापितम् ।)
१४४५ तक राज्य किया है । अतएव स्पष्ट है कि भट्टारक प्रभाचन्द्र वि० सं० १४१६ से कुछ समय पूर्व भट्टारकपदपर प्रतिष्टित हुए होंगे। इस आलोकमें घनपालका समय विक्रमकी पन्द्रहवीं शती माना जा सकता है।
कवि धनपालद्वितीयने 'बाहुबलिचरिउ' की रचना की है, जिसका दूसरा नाम 'कामचरिज' भी है । ग्रन्थ १८ संधियों में विभक्त है। इसमें प्रथम कामदेव बाहुबलिको कथा गुम्फित है। बाहुबली ऋषभदेवके पुत्र थे और सम्राट् भग्तके कनिष्ठ भ्राता | बाहुबली सुन्दर, उन्नत एवं बल-पौरुषसे सम्पन्न थे। वे इन्द्रि यजयी और उग्र तपस्वी भी थे। उन्होंने चक्रवर्ती भरसको जल, मल्ल और दृष्टि युद्धमें पराजित किया था। भरत इस पराजयस विक्षुब्ध हो गये और प्रतिशोध लेने की भावनासे उन्होंने अपने भाई पर सुदर्शनचक्र चलाया । किन्तु देवोपनीत अस्त्र बंशघातक नहीं होते, अतएव वह चक्र बहुबलिको प्रदक्षिणा देकर लौट आया। इससे बालिके मनमें पश्चात्ता उत्पन्न हुआ | वे परिग्रह, पायभाव, अहंकार, राज्यसत्ता, न्याय-अन्याय, भाई-भाईका सम्बन्ध आदिक सम्बन्धमं विचार करने लगे। उन्होंने राज-त्यागका निश्चय कर लिया और वे दिगम्बरीक्षा लेकर आत्म-साधनामें प्रवृत्त हुए। उन्होंने कछार तपश्चरण किया और स्त्रात्मोपलब्धि प्राप्त की।
यह ग्रंथ काच्य और मानवीय भावनाओंसे आतिप्रोत है। बिने यथास्थान वस्त-चित्र प्रस्तुतकर काव्यको सरस बनानेका प्रयास किया है। हम यहाँ विवाहके अनन्तर बर-बधुके मिलनका एक उदाहरण प्रस्तुतकर पबिया काव्यस्य पर प्रकाश डालेंगे।
सोहइ कोइल-झुणि महुरसमाए, सोहइ मणि पहु लक्ष जाए।
सोहइ मणिकणयालंकरिया, सोहइ सासय-सिरि सिद्धजया ।
सोहइ संपई सम्माण जणे, साहइ जयलछो सुहड्डु रण ।
सोहइ साहा जलइरस वर्ण, सोहइ वाया सारस बयणं ।
जह सोहइ एयहि वहु कलिया, तह सोहइ कण्णा वर मिलिया ।
कि बहुणा वाया उम्भसाए, कोर विवाहु सोमंजसाए । ७५ ।
बाहुब लिंचरित बास्तबमें महावाच्यक गुणांस यवत्त है ।
कबिन इसे सभी प्रकार से सरस और कवित्वपूर्ण बनाया है।
#Dhanpal2
आचार्यतुल्य धनपाल द्वितीय 15वीं शताब्दी (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 19 मई 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 19 May 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
धनपाल कविने 'बाहुबलि चरिकी रचना को हैं । इस ग्रन्थको प्रति आमेरशास्त्र-भाण्डार जयपुरमें सुरक्षित है। कविने ग्रन्थके आदिमें अपना परिचय दिया है।
गज्जर देश मझि गयवट्टणु, वसई विइलु पल्हणपुरु पट्टणु ।
वीसलाएउ राउ पयपालउ, कुवलय-मंडणु सङलु व माला ।
तहि पुरबाडवंस नायामल, अगणिय-पुब्बपरिस-णिम्मल कुल ।
पुणु हुउ राय सेटि जिणभत्तउ, भोबई णामें दयगुण जुत्ता ।
सुहउपज तहो पंदणु जायउ, गुरु सज्जणहं भुअणि विक्खायउ ।
तहो सुउ हुउ धणवाल धरायले, परमप्पय-पय-पंकय-रज अलि ।
एतहि तर्हि जितियण मंतउ, महि भमंतु पल्हणपुरे पत्तउ ।
अर्थात् धनपाल गुर्जर देशके रहने वाले थे। पल्हणपुर इनका वास-स्थान था। इनके पिताका नाम सुहडदेव और माताका नाम सुहडादेवी था। ये पुरवाड़ जातिमें उत्पन्न हुए थे। कविके समय राजा वीसलदेव गज्य कर रहा था। योगिनीपुर ( दिल्ली ) में उस समय महम्मदशाहवा शासन था । कविने यह ग्रन्थ-रचना चन्द्रबाउनगरके राजा सारंगके मंत्री जायसवंशोतमन्न साहू वासद्धर । बासधर की प्रेरणासे की है। कृति समर्पित भी उन्हींवो की गई है। नासाधर के गिताका नाम सोमदेव था, जो संभरी नरेन्द्र कर्णदबके मंत्री थे । कवि साहु बासाधरको सम्यग्दृष्टि, जिन चरणोंका भवत्त, दयालु, लोकप्रिय, मिश्यावहित और विशुद्धचित्त कहा है। इनको गृहस्थके दैनिक पट्कर्मोम प्रवीण राजनीति में चतुर और अष्टमूल गुणोंके पालन में तत्पर बताया है। इनकी पत्नीका नाम उभयत्री था, जो पतिव्रता और शीलवत पालन करनेवाली श्री। यह चतुर्विध संघको दान देती थी। इसके आर पुत्र हुए-जसपाल, जयपाल, रतपाल, चन्द्रपाल, बिहाराज, पुण्यपाल, बाह्ड़ और पदव । ये आठों पुत्र अपने पिताके समान ही धर्मात्मा थे।
कवि ने इस ग्रन्थके आदिमें प्राचीन कवियों, आचार्यों और ग्रन्थावा स्मरण किया है। उसने वविचक्रवर्ती धीरसेन, जैनेन्द्रव्याकरणरचयिता देवनन्दि, श्रीवन्तरि और उनके द्वारा चित पट्दर्शनप्रमाणग्रन्थ, महागेन-सुलोचना चरित, रविषेण-पद्मचरित, जिनरोन-हरिवंशपुराण, जटिलमुनि-वगंग ग्त, दिनकरसेन-कन्दर्पग्ति , पद्मसेन-पाश्र्वनाथचरित, अमृतागधना, गण अम्बसेन-चन्द्रप्रभचरित, धनदत्तचरित, कविविष्णुसेन, मुनिमिनन्दि अनुप्रक्षा, गवकारमंत्र, नग्देव, कनिअसग-बीरचरित, सिद्धसन, कविगोचिन्द, जय. धवल, शालिभद्र, चतुर्मुख, द्रोण, स्वयंभू, पुष्पदन्त और मेदु कविका स्मरण किया है। इससे कायको अध्ययनशीलता, पांडिल्य और कवित्वशक्तिपर प्रकाश पड़ता है। कवि सन्तोषी था और स्वाभिमानी भी। यही कारण है कि उसने बालि-चरितकी रचना कर अपनेको मनस्वी घोषित किया है।
कविके गुरु प्रभाचन्द्र थे, जो अनेक शिष्यों सहित विहार करते हुए पल्हण पुरमें पधारे। धनपालने उन्हें प्रणाम किया और मुनिने आशीर्वाद दिया कि तुम मेरे प्रसादसे विचक्षण होगे। कविके मस्तक पर हाथ रखकर प्रभाचन्द्र कहने लगे कि मैं तुम्हें मन्त्र देता हूँ। तुम मेरे मुखसे निकले हुए अक्षरोंको याद करो। धनपालने प्रसन्नतापूर्वक गुरु द्वारा दिये गये मंत्रको ग्रहण किया और शास्त्राभ्यासद्वारा सुकवित्व प्राप्त किया। इसके पश्चात् प्रभाचन्द्र खंभात, धारा नगर और देवगिरि होते हुए योगिनीपुर आये । दिल्ली-निवासियोंने यहाँ एक महोत्सव सम्पन्न किया और भट्टारक रत्नकोतिके पद पर उन्हें प्रतिष्ठित किया !
कवि धनपाल गुरुकी आज्ञासे सौरिपुर तीर्थक प्रसिद्ध भगवान् नेमिनाथकी वन्दना करनेके लिये गये। मार्गमें वे चन्द्रवानगरको देखकर प्रभावित हुए और साहु बासाधर द्वारा निर्मित जिनालयको देखकर वहीं पर काव्य-रचना करने में प्रवृत्त हुए।
गुरु | प्रभाचन्द्र |
कविके स्थितिकालका निर्णय पूर्ववर्ती कवियों और राजाओंके निर्देशसे संभव है। इस ग्रन्थकी समाप्ति वि० सं० १४५४ वैशाख शुक्ला त्रयोदशी, स्वाति नक्षत्र, सिद्धियोग और सोमवारके दिन हुई है। कविने अपनी प्रशस्तिमें मुहम्मदशाह तुगलकका निर्देश किया है। मुहम्मदशाहने वि० सं० १३८१ से १४०८ तक राज्य किया है। भट्टारक प्रभाचन्द्र भट्टारक रत्नकोत्तिके पदपर प्रतिष्ठित हुए थे, इस कथनका समर्थन भगवतीआराधनाकी पंजिकाटीकाको लेखक-प्रशस्तिसे भी होता है । इस प्रशस्तिमें बताया गया है कि वि०सं०१४१६ में इन्हीं प्रभाचन्द्रके शिष्य ब्रह्म नाथूरामने अपने पढ़ने के लिए दिल्ली के बादशाह फिरोजशाह तुगलक के शासन कालमें लिखवाया था। फिरोजशाह तुगलकने वि० सं० १४०४
(१. संवत् १४१६ वर्षे चैत्रसुविषञ्चम्या सोमवासरे सकलराजशिरो-मुकुटमाणिक्य मरोचिपिजरीकृत-वर्ण-कमलपादयोगस्य श्रीपेरोजसाहेः सकलसाम्राज्यधुरीविनाणस्य समये श्रीदिल्यां श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे भट्टारकत्री रस्नकोसिदेवपट्टोदयादि-लवणतरणित्वमुर्तीकुर्वाणरणः ( णः ) भट्टारकरीधभाचन्द्रदेव शिष्याणां ब्रह्मनाथूराम । इत्याराधनापंजिकाप्रथआत्मपठनार्य लिखिापितम् ।)
१४४५ तक राज्य किया है । अतएव स्पष्ट है कि भट्टारक प्रभाचन्द्र वि० सं० १४१६ से कुछ समय पूर्व भट्टारकपदपर प्रतिष्टित हुए होंगे। इस आलोकमें घनपालका समय विक्रमकी पन्द्रहवीं शती माना जा सकता है।
कवि धनपालद्वितीयने 'बाहुबलिचरिउ' की रचना की है, जिसका दूसरा नाम 'कामचरिज' भी है । ग्रन्थ १८ संधियों में विभक्त है। इसमें प्रथम कामदेव बाहुबलिको कथा गुम्फित है। बाहुबली ऋषभदेवके पुत्र थे और सम्राट् भग्तके कनिष्ठ भ्राता | बाहुबली सुन्दर, उन्नत एवं बल-पौरुषसे सम्पन्न थे। वे इन्द्रि यजयी और उग्र तपस्वी भी थे। उन्होंने चक्रवर्ती भरसको जल, मल्ल और दृष्टि युद्धमें पराजित किया था। भरत इस पराजयस विक्षुब्ध हो गये और प्रतिशोध लेने की भावनासे उन्होंने अपने भाई पर सुदर्शनचक्र चलाया । किन्तु देवोपनीत अस्त्र बंशघातक नहीं होते, अतएव वह चक्र बहुबलिको प्रदक्षिणा देकर लौट आया। इससे बालिके मनमें पश्चात्ता उत्पन्न हुआ | वे परिग्रह, पायभाव, अहंकार, राज्यसत्ता, न्याय-अन्याय, भाई-भाईका सम्बन्ध आदिक सम्बन्धमं विचार करने लगे। उन्होंने राज-त्यागका निश्चय कर लिया और वे दिगम्बरीक्षा लेकर आत्म-साधनामें प्रवृत्त हुए। उन्होंने कछार तपश्चरण किया और स्त्रात्मोपलब्धि प्राप्त की।
यह ग्रंथ काच्य और मानवीय भावनाओंसे आतिप्रोत है। बिने यथास्थान वस्त-चित्र प्रस्तुतकर काव्यको सरस बनानेका प्रयास किया है। हम यहाँ विवाहके अनन्तर बर-बधुके मिलनका एक उदाहरण प्रस्तुतकर पबिया काव्यस्य पर प्रकाश डालेंगे।
सोहइ कोइल-झुणि महुरसमाए, सोहइ मणि पहु लक्ष जाए।
सोहइ मणिकणयालंकरिया, सोहइ सासय-सिरि सिद्धजया ।
सोहइ संपई सम्माण जणे, साहइ जयलछो सुहड्डु रण ।
सोहइ साहा जलइरस वर्ण, सोहइ वाया सारस बयणं ।
जह सोहइ एयहि वहु कलिया, तह सोहइ कण्णा वर मिलिया ।
कि बहुणा वाया उम्भसाए, कोर विवाहु सोमंजसाए । ७५ ।
बाहुब लिंचरित बास्तबमें महावाच्यक गुणांस यवत्त है ।
कबिन इसे सभी प्रकार से सरस और कवित्वपूर्ण बनाया है।
Acharyatulya Dhanpal 2nd 15th Century (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 19 May 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
#Dhanpal2
15000
#Dhanpal2
Dhanpal2
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