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#Dhawalkavi
अपभ्रंश-साहित्यके प्रबन्धकाव्य-रचयिताओंमें कवि धवलका नाम भी आदरके साथ लिया जाता है। कवि धवलके पिसाका नाम सूर और माताका नाम केसुल्ल था । इनके गुरुका नाम अम्बसेन था । धवल ब्राह्मणकुलमें उत्पन्न हुमा था; पर अन्त में वह जैन धर्मावलम्बो हो गया था। कवि द्वारा निर्दिष्ट उल्लेखोंके आधारपर उसकी प्रतिभा और कनित्यशक्तिका परिशान होता है । धवलने हरिवंशपुराणकी रचना की है। डॉ० प्रो. हीरालाल जैनने 'इला हाबाद युनिवर्सिटी स्टडीज, भाग १, सन् १९२५ में धवल कवि द्वारा रचित हरिवंशपुराणका निर्देश किया था।
कवि धवलके निर्देशोंके आधारपर कविका समय १०वीं-११वीं शती सिद्ध होता है। कविने प्रन्यके प्रारम्भमें अनेक कवियोंका स्मरण करते हुए लिखा है
कवि चक्कवई पुब्चि गुणवंतत्र धीरसेणू हंतउ णवंतउ ।
पुणु सम्मत्तई धम्म सुरेगन, बेण पमाण गंथु किउ चंगउ ।
देवर्णदि बहु गुण जस मूसित, जे वायरण जिणिद पयासिल ।
बज्जसूउ सुपसिद्धउ मुगिवर, जे प्रयमाणुगंथु किन सुंदरु ।
मुणि महसेण सुलोयण जैवि, पामचरित मुणि रविसेणेणवि ।
जिणसेणे हरिवंसु पवितुवि, जडिल मुणोण वरंगचरितु वि ।
दिशयरसेणे चरिउ बणंगह, पउमसेण आरियई पसंगहु ।
अंधसेणु में अमियागहण विरझ्य दोस-विधज्जिय सोहणं ।
जिणचंदप्पह-चरिउ मगोहरू, पावरहिउ घणमत समुन्दरु ।
अण्णम किय ईमाई तुह पुसइ विण्हसेण रिसहेण रिसई ।
सोहणदि गुरच अणुपेहा धारदेवेणवकांतु सुहा ।
सिद्धसेण जे गए आगउ, भविय विणीय पयासिउ चंगउ ।
रामणदि जे विविह पहाण जिणसासणि बहुरइय कहाणा ।
असगमहाकई में सु मणोहर वीरविणिदु-चरिउ किउ सुंदरु ।
कित्रिय कहमि सुकइ गुण आयर गेय कन्च जहि विरश्य सुंदर ।
सणकुमार जे विरमउ मणहरू, कय गोविंद पवरु सेयंवरू।
सह वक्खहाजिणमिवय सावउ जे जय धवल भुवणि विक्साइउ ।
सालिहह कि कह जीय सदस लोयइ चहुमुहं दोण पसिद्धउ ।
इस्कहि जिणसासणि उचलियड सेद् महाकइ असु गिम्मलिया ।
पलमचरित जे भुवणि पयासिड, साहुणरहि परवरहि पसंसिउ ।
हङ जडु तो वि किंपि अन्भासभि महिलि जे णियबुद्धि पयामि ।
-१. हरिवंशपुराण १, ३।
अर्थात् कविचक्रवर्ती धीरसेन सम्यक्त्वयुक्तप्रमाणविशेष ग्रन्थ के कर्ता, देव नन्दि, वचसूरि प्रमाणग्रन्थके कर्ता, महासेनका सुलोचनाग्रन्थ, रविषेणका पद्म चरित, जिनसेनका हरिबंशपुराण, जटिल मुनिका वरांगचरित, दिनकरसेनका अनंगर्यारत, पद्मसेनका पाश्र्वनाथचरित, अंभसेन की अमृताराधना, धनदत्तका चन्द्रप्रभचरित, अनेक चरितग्रन्थोंके रचयिता विष्णुसेन, सिंहनन्दीको अनुप्रेक्षा, नरदेवका णवकारमन्त्र,तिनका भवितोसमानतके बयानक, जिनरक्षित धवलादि ग्रन्थप्रख्यापक, असगका दीरचरित, गोविन्द कवि (श्वेत.) का सनत्कुमारचरित, शालिभद्रका जीव-उद्योत, चतुर्मुख, द्रोण, सेढ महा कविका पउमरिउ आदि विद्वानों और उनकी कृतियोंका निर्देश किया है ।
इनमें पद्मसेन और असग कवि दोनों ही ग्रन्धकर्ताओंके समयपर प्रकाश डालते हैं।
असम कविका समय शक संवत् ११० (ई० सन् ९८८) एवं पनसेनका शक सं०९२५. समय है, जिससे स्पष्ट है कि धवल कवि शक सं० २५.२. के पश्चात् कभी भी हुआ है। पकौतिकी एकमात्र रचना पावपुराण उपलब्ध है । इन दोनों रचनाओंका उल्लेख होनेसे घबलकावका समय शक सं० को ११ वीं शताब्दीका मध्यकाल आता है। वर्द्धमामचरितकी प्रशस्ति में बताया गया है कि श्रीनाथके राज्यकालमें चोल राज्यकी विभिन्न भरियों में कविने आठ अन्योंकी रचना की है
विद्यामया अपठित्यसमाक्येन श्रीनाथराज्यमखिलं जनतोपकारि ।
प्राप्येव चोडविषये विरलानगर्या नथाष्टकं च समकारि जिनोपदिष्टम् ।।
-महावीरचरित, प्रशस्तिश्लोक १०५
'पासणाहूचरिउ'म पद्मसेन या पनकोतिने रचनाकालका निर्देश निम्न प्रकार किया है.--
णव-सय-णउधाण उये कत्तियमासे अमावसी दिवसे ।
रइयं पासपुराणं कइणा इह पउमणामेण ॥
अर्थात् सं० १९९में कात्तिक मासको अमावस्याको इस ग्रन्थकी समाप्ति हुई । यहाँ सबसे शक या विक्रम कौन-मा संवत् ग्रहण करना चाहिए, इसपर विद्वानों में मतभेद है। प्रो० प्रफुल्ल कुमार मोदीने इसे शक-संवत् माना है और १. पासणाहचरिउ. प्राकृत अन्ध-परिषद, प्रवाक ८, कवि-प्रशस्ति, पद्य ४ ।
हरिवंश कोछड़ने विक्रम संवत् । हमारा अनुमान है कि ये दोनों ही संवत् शक संवत् हैं और धवल कविका समय शक-संवत्को १०वीं शतीका अन्तिम पाद या ११वीं शतीका प्रथम दिन है !
कविका एक ही प्रथ हरिवंशपुराण उपलब्ध है। इस में रखें तीर्थंकर यदुवंशी नेमिनाथका जीवनवृत्त अंकित है । साथ ही महाभारतके पात्र कौरवऔर पाण्डव तथा श्रीकृष्ण आदि महापुरुषोंके जीवनवृत्त भी गुम्फिल हैं । इस अन्यमें १२२ सन्धियाँ हैं। यकी रचना पन्झटिका और अल्लिलह छन्द में हुई है । पद्धडिया, सोरठा, पत्ता, बिलासिनी, सोमराज प्रभूति अनेक छन्दोंका प्रयोग इस प्रथमें किया गया है। श्रृंगार, बोर, करुण और शान्त रसोंका परिपाक भी सून्दररूपमें हआ है। कविने, नगर, वन पर्वत आदिका महत्त्व पूर्ण चित्रण किया है। यहाँ उदाहरणार्थ मधुमासका वर्णन प्रस्तुत कियाजाता है
फरमुणु गड महुमासु परायउ, मयणछलिउ लोउ अणुरायउ ।
वण सय कुसुमिय चारुमणोहर बहु भयरंद मत्त बहु महुयर ।
गुमुगुमंत वणमणई सुहावहि, अइपपाठ पेम्मुलनकोवहिं ।
केस व वहि धणारुण फुल्लिय, पं बिरहग्गे जाल मल्लिया ।
परिघरिणारिउ णिय तणु मंडहिं, हिंदोलहि हिहि उम्गायहि ।
वणि परपट महर उल्लावहि, सिहिउलु सिहि सिहरहि धहाबई ।
-हरिवंशपुराण १७-३
अर्थात् फाल्गुनमास समाप्त हुआ और मधुमास (चैत्र) आया। मदन उद्दीप्त होने लगा। लोक अनुरस्त हो गया। बन नाना पुष्पांसे युक्त, सुन्दर और मनोहर हो गया। मकरन्द-पानसे मत्त मधुकर गुनगुनाते हुए सुन्दर प्रतीत हो रहे हैं.........."घरोंमें नारियाँ अपने शारीरको अलंकृत करती हैं, मूला झूल रहीं हैं, विहार करती हैं, वनमें गाती कोयल मधुर आलाप करती हैं । सुन्दर मयूर नृत्य कर रहे हैं।
इस काव्यमें करुण रसको अभिव्यंजना भी बहुत सुन्दर मिलती है । कस वधपर परिजनोंके करुण विलापका दृश्य दर्शनीय है
हा रह्य दह्य पाविट्ठ खला, पह अम्ह मणोहर किय विहला |
हा विहि णिहीण पहं काइकिउ, णिहि दरिसवि तकणि चक्खु हिज ।
हा देव या वुल्लाह काई तुहूं, हा सुन्दरि दरसहि किण्णु मुहु ।
हा धरणिहिं सगुणणिलयाह, बर सेजहिं भरभवणेहि बाहि ।
पठविणु सुण्ण राउल असेसु, अण्णाहिर हुबउ दिन्च देसु ।
हा गुणसायर, हा स्वधर, हा बहरि महण सोहाध बरा ।
धत्ता हा महरालायण, सोहियसंदण, अम्हह सामिय करहि ।
दुक्सहि संतत्त, करुण रुवंतउ, उविवि परियणु संघहि ॥५६,१
कविने संसार के यथार्थरूपका श्री चित्रण किया है ! सबल राज्य तत्क्षण नष्ट हो जाते हैं । धनसे भी कुछ नहीं होता । सुख बन्धु-बान्धव, पुत्र, कलत्र, मित्र, किसके रहते हैं ? वर्षाक जलबुलबुलोंके ममान संसारका वैभव क्षण भरमें नष्ट हो जाता है ! जिस प्रकार वृक्षपर बहुतसे पक्षी आकर एकत्र हो जाते हैं और फिर प्रातःकाल होते ही अपने-अपने कार्योसे विभिन्न स्थानोंपर चले जाते हैं, अथवा जिस प्रकार बहुतसे पधिक नदी पार करते समय नौका पर एकत्र हो जाते हैं, और फिर अपने-अपने घरों को चले जाते हैं, उसी प्रकार क्षणिक प्रियजनोंका समागम होता है । कभी धन आता है, कभी नष्ट होता है, कभी दारिद्रय प्राप्त होता है, भोग्य वस्तुएँ प्राप्त होती हैं और विलीन होती हैं, फिर भी अज मानव गर्व करता है। जिस यौवनके पीछे जरा लगी रहती है उससे कौन-सा सन्तोष हो सकता है ?' इस प्रकार ग्रन्यकर्त्ताने संसारको धास्तविक स्थितिका उद्घाटन किया है।
रस और अलंकारके समान ही छन्द-योजनाकी दृष्टिसे भी ग्रन्थ समृद्ध है । सामान्य छन्दोंके अतिरिक नागिनी, ८५॥१२, सोमराजी ९०४, जाति ९०१५, विलासिनी ९०८ आदि छन्दोंका प्रयोग मिलता है। कड़वकोंके अन्तम प्रयुक्त पत्ता छन्दके अनेक रूप है।
अपभ्रंश-साहित्यके प्रबन्धकाव्य-रचयिताओंमें कवि धवलका नाम भी आदरके साथ लिया जाता है। कवि धवलके पिसाका नाम सूर और माताका नाम केसुल्ल था । इनके गुरुका नाम अम्बसेन था । धवल ब्राह्मणकुलमें उत्पन्न हुमा था; पर अन्त में वह जैन धर्मावलम्बो हो गया था। कवि द्वारा निर्दिष्ट उल्लेखोंके आधारपर उसकी प्रतिभा और कनित्यशक्तिका परिशान होता है । धवलने हरिवंशपुराणकी रचना की है। डॉ० प्रो. हीरालाल जैनने 'इला हाबाद युनिवर्सिटी स्टडीज, भाग १, सन् १९२५ में धवल कवि द्वारा रचित हरिवंशपुराणका निर्देश किया था।
कवि धवलके निर्देशोंके आधारपर कविका समय १०वीं-११वीं शती सिद्ध होता है। कविने प्रन्यके प्रारम्भमें अनेक कवियोंका स्मरण करते हुए लिखा है
कवि चक्कवई पुब्चि गुणवंतत्र धीरसेणू हंतउ णवंतउ ।
पुणु सम्मत्तई धम्म सुरेगन, बेण पमाण गंथु किउ चंगउ ।
देवर्णदि बहु गुण जस मूसित, जे वायरण जिणिद पयासिल ।
बज्जसूउ सुपसिद्धउ मुगिवर, जे प्रयमाणुगंथु किन सुंदरु ।
मुणि महसेण सुलोयण जैवि, पामचरित मुणि रविसेणेणवि ।
जिणसेणे हरिवंसु पवितुवि, जडिल मुणोण वरंगचरितु वि ।
दिशयरसेणे चरिउ बणंगह, पउमसेण आरियई पसंगहु ।
अंधसेणु में अमियागहण विरझ्य दोस-विधज्जिय सोहणं ।
जिणचंदप्पह-चरिउ मगोहरू, पावरहिउ घणमत समुन्दरु ।
अण्णम किय ईमाई तुह पुसइ विण्हसेण रिसहेण रिसई ।
सोहणदि गुरच अणुपेहा धारदेवेणवकांतु सुहा ।
सिद्धसेण जे गए आगउ, भविय विणीय पयासिउ चंगउ ।
रामणदि जे विविह पहाण जिणसासणि बहुरइय कहाणा ।
असगमहाकई में सु मणोहर वीरविणिदु-चरिउ किउ सुंदरु ।
कित्रिय कहमि सुकइ गुण आयर गेय कन्च जहि विरश्य सुंदर ।
सणकुमार जे विरमउ मणहरू, कय गोविंद पवरु सेयंवरू।
सह वक्खहाजिणमिवय सावउ जे जय धवल भुवणि विक्साइउ ।
सालिहह कि कह जीय सदस लोयइ चहुमुहं दोण पसिद्धउ ।
इस्कहि जिणसासणि उचलियड सेद् महाकइ असु गिम्मलिया ।
पलमचरित जे भुवणि पयासिड, साहुणरहि परवरहि पसंसिउ ।
हङ जडु तो वि किंपि अन्भासभि महिलि जे णियबुद्धि पयामि ।
-१. हरिवंशपुराण १, ३।
अर्थात् कविचक्रवर्ती धीरसेन सम्यक्त्वयुक्तप्रमाणविशेष ग्रन्थ के कर्ता, देव नन्दि, वचसूरि प्रमाणग्रन्थके कर्ता, महासेनका सुलोचनाग्रन्थ, रविषेणका पद्म चरित, जिनसेनका हरिबंशपुराण, जटिल मुनिका वरांगचरित, दिनकरसेनका अनंगर्यारत, पद्मसेनका पाश्र्वनाथचरित, अंभसेन की अमृताराधना, धनदत्तका चन्द्रप्रभचरित, अनेक चरितग्रन्थोंके रचयिता विष्णुसेन, सिंहनन्दीको अनुप्रेक्षा, नरदेवका णवकारमन्त्र,तिनका भवितोसमानतके बयानक, जिनरक्षित धवलादि ग्रन्थप्रख्यापक, असगका दीरचरित, गोविन्द कवि (श्वेत.) का सनत्कुमारचरित, शालिभद्रका जीव-उद्योत, चतुर्मुख, द्रोण, सेढ महा कविका पउमरिउ आदि विद्वानों और उनकी कृतियोंका निर्देश किया है ।
इनमें पद्मसेन और असग कवि दोनों ही ग्रन्धकर्ताओंके समयपर प्रकाश डालते हैं।
असम कविका समय शक संवत् ११० (ई० सन् ९८८) एवं पनसेनका शक सं०९२५. समय है, जिससे स्पष्ट है कि धवल कवि शक सं० २५.२. के पश्चात् कभी भी हुआ है। पकौतिकी एकमात्र रचना पावपुराण उपलब्ध है । इन दोनों रचनाओंका उल्लेख होनेसे घबलकावका समय शक सं० को ११ वीं शताब्दीका मध्यकाल आता है। वर्द्धमामचरितकी प्रशस्ति में बताया गया है कि श्रीनाथके राज्यकालमें चोल राज्यकी विभिन्न भरियों में कविने आठ अन्योंकी रचना की है
विद्यामया अपठित्यसमाक्येन श्रीनाथराज्यमखिलं जनतोपकारि ।
प्राप्येव चोडविषये विरलानगर्या नथाष्टकं च समकारि जिनोपदिष्टम् ।।
-महावीरचरित, प्रशस्तिश्लोक १०५
'पासणाहूचरिउ'म पद्मसेन या पनकोतिने रचनाकालका निर्देश निम्न प्रकार किया है.--
णव-सय-णउधाण उये कत्तियमासे अमावसी दिवसे ।
रइयं पासपुराणं कइणा इह पउमणामेण ॥
अर्थात् सं० १९९में कात्तिक मासको अमावस्याको इस ग्रन्थकी समाप्ति हुई । यहाँ सबसे शक या विक्रम कौन-मा संवत् ग्रहण करना चाहिए, इसपर विद्वानों में मतभेद है। प्रो० प्रफुल्ल कुमार मोदीने इसे शक-संवत् माना है और १. पासणाहचरिउ. प्राकृत अन्ध-परिषद, प्रवाक ८, कवि-प्रशस्ति, पद्य ४ ।
हरिवंश कोछड़ने विक्रम संवत् । हमारा अनुमान है कि ये दोनों ही संवत् शक संवत् हैं और धवल कविका समय शक-संवत्को १०वीं शतीका अन्तिम पाद या ११वीं शतीका प्रथम दिन है !
कविका एक ही प्रथ हरिवंशपुराण उपलब्ध है। इस में रखें तीर्थंकर यदुवंशी नेमिनाथका जीवनवृत्त अंकित है । साथ ही महाभारतके पात्र कौरवऔर पाण्डव तथा श्रीकृष्ण आदि महापुरुषोंके जीवनवृत्त भी गुम्फिल हैं । इस अन्यमें १२२ सन्धियाँ हैं। यकी रचना पन्झटिका और अल्लिलह छन्द में हुई है । पद्धडिया, सोरठा, पत्ता, बिलासिनी, सोमराज प्रभूति अनेक छन्दोंका प्रयोग इस प्रथमें किया गया है। श्रृंगार, बोर, करुण और शान्त रसोंका परिपाक भी सून्दररूपमें हआ है। कविने, नगर, वन पर्वत आदिका महत्त्व पूर्ण चित्रण किया है। यहाँ उदाहरणार्थ मधुमासका वर्णन प्रस्तुत कियाजाता है
फरमुणु गड महुमासु परायउ, मयणछलिउ लोउ अणुरायउ ।
वण सय कुसुमिय चारुमणोहर बहु भयरंद मत्त बहु महुयर ।
गुमुगुमंत वणमणई सुहावहि, अइपपाठ पेम्मुलनकोवहिं ।
केस व वहि धणारुण फुल्लिय, पं बिरहग्गे जाल मल्लिया ।
परिघरिणारिउ णिय तणु मंडहिं, हिंदोलहि हिहि उम्गायहि ।
वणि परपट महर उल्लावहि, सिहिउलु सिहि सिहरहि धहाबई ।
-हरिवंशपुराण १७-३
अर्थात् फाल्गुनमास समाप्त हुआ और मधुमास (चैत्र) आया। मदन उद्दीप्त होने लगा। लोक अनुरस्त हो गया। बन नाना पुष्पांसे युक्त, सुन्दर और मनोहर हो गया। मकरन्द-पानसे मत्त मधुकर गुनगुनाते हुए सुन्दर प्रतीत हो रहे हैं.........."घरोंमें नारियाँ अपने शारीरको अलंकृत करती हैं, मूला झूल रहीं हैं, विहार करती हैं, वनमें गाती कोयल मधुर आलाप करती हैं । सुन्दर मयूर नृत्य कर रहे हैं।
इस काव्यमें करुण रसको अभिव्यंजना भी बहुत सुन्दर मिलती है । कस वधपर परिजनोंके करुण विलापका दृश्य दर्शनीय है
हा रह्य दह्य पाविट्ठ खला, पह अम्ह मणोहर किय विहला |
हा विहि णिहीण पहं काइकिउ, णिहि दरिसवि तकणि चक्खु हिज ।
हा देव या वुल्लाह काई तुहूं, हा सुन्दरि दरसहि किण्णु मुहु ।
हा धरणिहिं सगुणणिलयाह, बर सेजहिं भरभवणेहि बाहि ।
पठविणु सुण्ण राउल असेसु, अण्णाहिर हुबउ दिन्च देसु ।
हा गुणसायर, हा स्वधर, हा बहरि महण सोहाध बरा ।
धत्ता हा महरालायण, सोहियसंदण, अम्हह सामिय करहि ।
दुक्सहि संतत्त, करुण रुवंतउ, उविवि परियणु संघहि ॥५६,१
कविने संसार के यथार्थरूपका श्री चित्रण किया है ! सबल राज्य तत्क्षण नष्ट हो जाते हैं । धनसे भी कुछ नहीं होता । सुख बन्धु-बान्धव, पुत्र, कलत्र, मित्र, किसके रहते हैं ? वर्षाक जलबुलबुलोंके ममान संसारका वैभव क्षण भरमें नष्ट हो जाता है ! जिस प्रकार वृक्षपर बहुतसे पक्षी आकर एकत्र हो जाते हैं और फिर प्रातःकाल होते ही अपने-अपने कार्योसे विभिन्न स्थानोंपर चले जाते हैं, अथवा जिस प्रकार बहुतसे पधिक नदी पार करते समय नौका पर एकत्र हो जाते हैं, और फिर अपने-अपने घरों को चले जाते हैं, उसी प्रकार क्षणिक प्रियजनोंका समागम होता है । कभी धन आता है, कभी नष्ट होता है, कभी दारिद्रय प्राप्त होता है, भोग्य वस्तुएँ प्राप्त होती हैं और विलीन होती हैं, फिर भी अज मानव गर्व करता है। जिस यौवनके पीछे जरा लगी रहती है उससे कौन-सा सन्तोष हो सकता है ?' इस प्रकार ग्रन्यकर्त्ताने संसारको धास्तविक स्थितिका उद्घाटन किया है।
रस और अलंकारके समान ही छन्द-योजनाकी दृष्टिसे भी ग्रन्थ समृद्ध है । सामान्य छन्दोंके अतिरिक नागिनी, ८५॥१२, सोमराजी ९०४, जाति ९०१५, विलासिनी ९०८ आदि छन्दोंका प्रयोग मिलता है। कड़वकोंके अन्तम प्रयुक्त पत्ता छन्दके अनेक रूप है।
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आचार्यतुल्य धवल कवि 11वीं शताब्दी (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 14 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 14 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
अपभ्रंश-साहित्यके प्रबन्धकाव्य-रचयिताओंमें कवि धवलका नाम भी आदरके साथ लिया जाता है। कवि धवलके पिसाका नाम सूर और माताका नाम केसुल्ल था । इनके गुरुका नाम अम्बसेन था । धवल ब्राह्मणकुलमें उत्पन्न हुमा था; पर अन्त में वह जैन धर्मावलम्बो हो गया था। कवि द्वारा निर्दिष्ट उल्लेखोंके आधारपर उसकी प्रतिभा और कनित्यशक्तिका परिशान होता है । धवलने हरिवंशपुराणकी रचना की है। डॉ० प्रो. हीरालाल जैनने 'इला हाबाद युनिवर्सिटी स्टडीज, भाग १, सन् १९२५ में धवल कवि द्वारा रचित हरिवंशपुराणका निर्देश किया था।
कवि धवलके निर्देशोंके आधारपर कविका समय १०वीं-११वीं शती सिद्ध होता है। कविने प्रन्यके प्रारम्भमें अनेक कवियोंका स्मरण करते हुए लिखा है
कवि चक्कवई पुब्चि गुणवंतत्र धीरसेणू हंतउ णवंतउ ।
पुणु सम्मत्तई धम्म सुरेगन, बेण पमाण गंथु किउ चंगउ ।
देवर्णदि बहु गुण जस मूसित, जे वायरण जिणिद पयासिल ।
बज्जसूउ सुपसिद्धउ मुगिवर, जे प्रयमाणुगंथु किन सुंदरु ।
मुणि महसेण सुलोयण जैवि, पामचरित मुणि रविसेणेणवि ।
जिणसेणे हरिवंसु पवितुवि, जडिल मुणोण वरंगचरितु वि ।
दिशयरसेणे चरिउ बणंगह, पउमसेण आरियई पसंगहु ।
अंधसेणु में अमियागहण विरझ्य दोस-विधज्जिय सोहणं ।
जिणचंदप्पह-चरिउ मगोहरू, पावरहिउ घणमत समुन्दरु ।
अण्णम किय ईमाई तुह पुसइ विण्हसेण रिसहेण रिसई ।
सोहणदि गुरच अणुपेहा धारदेवेणवकांतु सुहा ।
सिद्धसेण जे गए आगउ, भविय विणीय पयासिउ चंगउ ।
रामणदि जे विविह पहाण जिणसासणि बहुरइय कहाणा ।
असगमहाकई में सु मणोहर वीरविणिदु-चरिउ किउ सुंदरु ।
कित्रिय कहमि सुकइ गुण आयर गेय कन्च जहि विरश्य सुंदर ।
सणकुमार जे विरमउ मणहरू, कय गोविंद पवरु सेयंवरू।
सह वक्खहाजिणमिवय सावउ जे जय धवल भुवणि विक्साइउ ।
सालिहह कि कह जीय सदस लोयइ चहुमुहं दोण पसिद्धउ ।
इस्कहि जिणसासणि उचलियड सेद् महाकइ असु गिम्मलिया ।
पलमचरित जे भुवणि पयासिड, साहुणरहि परवरहि पसंसिउ ।
हङ जडु तो वि किंपि अन्भासभि महिलि जे णियबुद्धि पयामि ।
-१. हरिवंशपुराण १, ३।
अर्थात् कविचक्रवर्ती धीरसेन सम्यक्त्वयुक्तप्रमाणविशेष ग्रन्थ के कर्ता, देव नन्दि, वचसूरि प्रमाणग्रन्थके कर्ता, महासेनका सुलोचनाग्रन्थ, रविषेणका पद्म चरित, जिनसेनका हरिबंशपुराण, जटिल मुनिका वरांगचरित, दिनकरसेनका अनंगर्यारत, पद्मसेनका पाश्र्वनाथचरित, अंभसेन की अमृताराधना, धनदत्तका चन्द्रप्रभचरित, अनेक चरितग्रन्थोंके रचयिता विष्णुसेन, सिंहनन्दीको अनुप्रेक्षा, नरदेवका णवकारमन्त्र,तिनका भवितोसमानतके बयानक, जिनरक्षित धवलादि ग्रन्थप्रख्यापक, असगका दीरचरित, गोविन्द कवि (श्वेत.) का सनत्कुमारचरित, शालिभद्रका जीव-उद्योत, चतुर्मुख, द्रोण, सेढ महा कविका पउमरिउ आदि विद्वानों और उनकी कृतियोंका निर्देश किया है ।
इनमें पद्मसेन और असग कवि दोनों ही ग्रन्धकर्ताओंके समयपर प्रकाश डालते हैं।
असम कविका समय शक संवत् ११० (ई० सन् ९८८) एवं पनसेनका शक सं०९२५. समय है, जिससे स्पष्ट है कि धवल कवि शक सं० २५.२. के पश्चात् कभी भी हुआ है। पकौतिकी एकमात्र रचना पावपुराण उपलब्ध है । इन दोनों रचनाओंका उल्लेख होनेसे घबलकावका समय शक सं० को ११ वीं शताब्दीका मध्यकाल आता है। वर्द्धमामचरितकी प्रशस्ति में बताया गया है कि श्रीनाथके राज्यकालमें चोल राज्यकी विभिन्न भरियों में कविने आठ अन्योंकी रचना की है
विद्यामया अपठित्यसमाक्येन श्रीनाथराज्यमखिलं जनतोपकारि ।
प्राप्येव चोडविषये विरलानगर्या नथाष्टकं च समकारि जिनोपदिष्टम् ।।
-महावीरचरित, प्रशस्तिश्लोक १०५
'पासणाहूचरिउ'म पद्मसेन या पनकोतिने रचनाकालका निर्देश निम्न प्रकार किया है.--
णव-सय-णउधाण उये कत्तियमासे अमावसी दिवसे ।
रइयं पासपुराणं कइणा इह पउमणामेण ॥
अर्थात् सं० १९९में कात्तिक मासको अमावस्याको इस ग्रन्थकी समाप्ति हुई । यहाँ सबसे शक या विक्रम कौन-मा संवत् ग्रहण करना चाहिए, इसपर विद्वानों में मतभेद है। प्रो० प्रफुल्ल कुमार मोदीने इसे शक-संवत् माना है और १. पासणाहचरिउ. प्राकृत अन्ध-परिषद, प्रवाक ८, कवि-प्रशस्ति, पद्य ४ ।
हरिवंश कोछड़ने विक्रम संवत् । हमारा अनुमान है कि ये दोनों ही संवत् शक संवत् हैं और धवल कविका समय शक-संवत्को १०वीं शतीका अन्तिम पाद या ११वीं शतीका प्रथम दिन है !
कविका एक ही प्रथ हरिवंशपुराण उपलब्ध है। इस में रखें तीर्थंकर यदुवंशी नेमिनाथका जीवनवृत्त अंकित है । साथ ही महाभारतके पात्र कौरवऔर पाण्डव तथा श्रीकृष्ण आदि महापुरुषोंके जीवनवृत्त भी गुम्फिल हैं । इस अन्यमें १२२ सन्धियाँ हैं। यकी रचना पन्झटिका और अल्लिलह छन्द में हुई है । पद्धडिया, सोरठा, पत्ता, बिलासिनी, सोमराज प्रभूति अनेक छन्दोंका प्रयोग इस प्रथमें किया गया है। श्रृंगार, बोर, करुण और शान्त रसोंका परिपाक भी सून्दररूपमें हआ है। कविने, नगर, वन पर्वत आदिका महत्त्व पूर्ण चित्रण किया है। यहाँ उदाहरणार्थ मधुमासका वर्णन प्रस्तुत कियाजाता है
फरमुणु गड महुमासु परायउ, मयणछलिउ लोउ अणुरायउ ।
वण सय कुसुमिय चारुमणोहर बहु भयरंद मत्त बहु महुयर ।
गुमुगुमंत वणमणई सुहावहि, अइपपाठ पेम्मुलनकोवहिं ।
केस व वहि धणारुण फुल्लिय, पं बिरहग्गे जाल मल्लिया ।
परिघरिणारिउ णिय तणु मंडहिं, हिंदोलहि हिहि उम्गायहि ।
वणि परपट महर उल्लावहि, सिहिउलु सिहि सिहरहि धहाबई ।
-हरिवंशपुराण १७-३
अर्थात् फाल्गुनमास समाप्त हुआ और मधुमास (चैत्र) आया। मदन उद्दीप्त होने लगा। लोक अनुरस्त हो गया। बन नाना पुष्पांसे युक्त, सुन्दर और मनोहर हो गया। मकरन्द-पानसे मत्त मधुकर गुनगुनाते हुए सुन्दर प्रतीत हो रहे हैं.........."घरोंमें नारियाँ अपने शारीरको अलंकृत करती हैं, मूला झूल रहीं हैं, विहार करती हैं, वनमें गाती कोयल मधुर आलाप करती हैं । सुन्दर मयूर नृत्य कर रहे हैं।
इस काव्यमें करुण रसको अभिव्यंजना भी बहुत सुन्दर मिलती है । कस वधपर परिजनोंके करुण विलापका दृश्य दर्शनीय है
हा रह्य दह्य पाविट्ठ खला, पह अम्ह मणोहर किय विहला |
हा विहि णिहीण पहं काइकिउ, णिहि दरिसवि तकणि चक्खु हिज ।
हा देव या वुल्लाह काई तुहूं, हा सुन्दरि दरसहि किण्णु मुहु ।
हा धरणिहिं सगुणणिलयाह, बर सेजहिं भरभवणेहि बाहि ।
पठविणु सुण्ण राउल असेसु, अण्णाहिर हुबउ दिन्च देसु ।
हा गुणसायर, हा स्वधर, हा बहरि महण सोहाध बरा ।
धत्ता हा महरालायण, सोहियसंदण, अम्हह सामिय करहि ।
दुक्सहि संतत्त, करुण रुवंतउ, उविवि परियणु संघहि ॥५६,१
कविने संसार के यथार्थरूपका श्री चित्रण किया है ! सबल राज्य तत्क्षण नष्ट हो जाते हैं । धनसे भी कुछ नहीं होता । सुख बन्धु-बान्धव, पुत्र, कलत्र, मित्र, किसके रहते हैं ? वर्षाक जलबुलबुलोंके ममान संसारका वैभव क्षण भरमें नष्ट हो जाता है ! जिस प्रकार वृक्षपर बहुतसे पक्षी आकर एकत्र हो जाते हैं और फिर प्रातःकाल होते ही अपने-अपने कार्योसे विभिन्न स्थानोंपर चले जाते हैं, अथवा जिस प्रकार बहुतसे पधिक नदी पार करते समय नौका पर एकत्र हो जाते हैं, और फिर अपने-अपने घरों को चले जाते हैं, उसी प्रकार क्षणिक प्रियजनोंका समागम होता है । कभी धन आता है, कभी नष्ट होता है, कभी दारिद्रय प्राप्त होता है, भोग्य वस्तुएँ प्राप्त होती हैं और विलीन होती हैं, फिर भी अज मानव गर्व करता है। जिस यौवनके पीछे जरा लगी रहती है उससे कौन-सा सन्तोष हो सकता है ?' इस प्रकार ग्रन्यकर्त्ताने संसारको धास्तविक स्थितिका उद्घाटन किया है।
रस और अलंकारके समान ही छन्द-योजनाकी दृष्टिसे भी ग्रन्थ समृद्ध है । सामान्य छन्दोंके अतिरिक नागिनी, ८५॥१२, सोमराजी ९०४, जाति ९०१५, विलासिनी ९०८ आदि छन्दोंका प्रयोग मिलता है। कड़वकोंके अन्तम प्रयुक्त पत्ता छन्दके अनेक रूप है।
Acharyatulya Dhawal Kavi 11th Century (Prachin)
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