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#Haridev
'मयणपराजय र उके रचयिता हरिदेवने नन्थके आदिमें अपना परिचय दिया है जिससे यह ज्ञात होता है, कि इनके पिता का नाम चंगदेव और माता का नाम चिया था । इनके दो बड़े भाई थे-किंकर और कृष्ण । किकर महा गुगवान् तथा कृष्ण स्वभावतः निपुण थे । इनके दो छोटे भाई थे, जिनके नाम द्विजवर और राघव थे । कविने लिखा है
चंगरवहु णविर्याजणपयहु तह चित्तमहासह पढमु पुत्तु किंकर महागण ।
पुण बोयउ कण्हु हुउ जेण लङ्घ ससहाउ णियपुण ।।
हरि तिजउ कइ जाणि यइ दियवर राघङ वेइ ।
ते लहया जिणपय धुर्णाह पावह माणु मलेइ ।।२।।
इस कूटम्ब का परिचय नागदेवके संस्कृत-मदनपराजयसे भो प्राप्त होता है। नागदेवने अपना मदनपराजय हरिदेवके इस अपनश-मदनपराजयके आधार पर हो लिखा है। वे चंगदेवके वंशमें सातवीं पीढ़ीमें हुए हैं। परिचय निम्न प्रकार है ...
यः शुद्धसोमकुलपद्मविकासनार्को जातोथिनां मृगतरुभुवि चंगदेवः ।
तन्नन्दनो हरिरसत्कवि-नागसिंहः तस्माद्भिषग्जनपति वि नागदेवः ॥
सा तज्जावु भी सूभिषजाविह हेमरामौ रामात्प्रियंकर इति प्रियदोऽथिनां यः । तज्जश्चिकित्सितमहाम्बुधिपारमाप्तः श्रीमल्लुगिज्जिन पदाम्बुजमत्त भृङ्गः॥३॥
तजोऽहं नागदेवाख्यः स्तोकज्ञानेन संयुतः ।
इन्दोलकारकाव्यानि नाभिधानानि वेदम्यहम् ।।४।।
कथाप्राकृतबन्धेन हरिदेवेन या कृता ।
वक्ष्ये संस्कृतबन्धेन भन्यानां धर्मवृद्धये ।।५।।
अर्थात् पथ्वीपर पवित्र सोमकुलरूपी कमलको विकसित करने के लिये सूर्यरूप और याचकोंके लिए कल्पवृक्षस्वरूप चंगदेव हुए । इनके पुत्र हरि हुए, जो असत्काविरूपी हस्तियोंके लिए सिंह थे | उनके पुत्र वैद्यराज नागदेव हुए । नागदेवके हेम और राम नामने दो पुत्र हुए और ये दोनों ही अच्छे बैद्य थे | रामके पुत्र प्रियंकर हुए, जो नाचकोंके लिाप्रिय दानी थे । प्रियंकरवी पुत्र मल्लु मित्त हुए, जो चिकित्सामहोदधिके पारगामी बिद्वान् तथा जिनेन्द्र के चरण कमलोंके मत्त भ्रमर थे। उनका पुत्र मैं नागदेव हुआ, जो अल्पनानी है और छन्द, अलंकार, काव्य तथा शब्दकोशका जानकार नहीं है। हरिदेवन जिस कथाको प्राकृत-बन्धमें रचा था, उसे ही मैं भव्योंको धर्मवृद्धिक हेतु संस्कृत में लिख रहा हूँ। चंगदेवको वंशावलो निम्नप्रकार प्राप्त होती है
चंगदेव
किकर कृष्ण हरिदेव राघव द्विजपति
नागदेव (वेद्यराज )
हेम(वेद्यराज ) राम (वेद्यराज )
प्रियंकर (दानी)
मल्लुगित(वेद्यराज )
नागदेव
इस वंशावलीस कविके जीवन-परिचयका बोध हो जाता है । पर उसके स्थितिकाल के सम्बन्धमें कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं होती।
'मयणपराजय चरित'को कथावस्तुका आधार शुभचन्द्रकृत ज्ञानार्णव है और परम्परानुसार शुभचन्द्रका समय भोजदेवके समकालीन माना जाता है। ज्ञानावकी एक प्राचीन प्रति पाटणके शास्त्रमण्डारमें वि सं १२४८की लिखी हुई प्राप्त हुई है। अतः ज्ञानावका रचनाकाल ९वीं शतीसे १२वीं शतीके बीच सिद्ध होता है। अतएव 'मयणपराजय रज'की रचनाकी पूर्वावधि यही माननी चाहिए। सपा की हस्तलिदित विमाधारपर किया जा सकता है। 'सस्कृतमदनपराजय'को एक प्रतिका लेखनकाल वि संक १५७३ हैं और अपभ्रश मघणपराजयार'को एक प्रति चि० सं० १६०८ और दुसरी बि.स १६५४ को है। अतएव कवि हरिदेवका समय नागदेवसे छठी पोढ़ी पूर्ण होने के कारण कम-से-कम १५० वर्ष पहल हाना चाहिए । इस प्रकार नाग देवका समय १३वी-१४वीं शताब्दी सिद्ध हाता है।
पं० परमानन्दजीने जयपुरके तरापथो बड़े मन्दिरके शास्त्रमण्डारमें वि० सं० १५५१ मार्गशीर्ष शुक्ला अष्टमी गुरुवारको लिखी हुई प्रतिका निर्दश किया है तथा आमेरभंडारको प्रति वि० सं० १५७६ की लिखी हुई बताई है। और उन्होन भाषा-शैली आदिके आधारपर हरिदेवका समय १४वो शताब्दीका अन्तिम चरण बताया है ।'
डॉ. हीरालालजी जेनने हरिदेवका समय १२वीं शतीसे १५वीं शतीके बीच माना है।
कविकी एक हो रचना 'मयणपराजय रउ' उपलब्ध है। इस ग्रंथमें दो परिच्छंद है। प्रथम परिच्छेद, ३७ और दूसरेम ८१ इस प्रकार कुल ११८ कड़वक हैं । यह छोटा-सा रूपक खण्डकाव्य है । कविने इसमें मदनको जीतनेका सरस वर्णन किया है। कामदेव राजा, मोह मंत्री, अहंकार, अज्ञान आदि सेना पतियों के साथ भावनगरमें निवास करता था | चारित्रपुरके राजा जिन राज उसके शन थे, क्योंकि वे मुक्तिरूपी लक्ष्मीसे अपना विवाह करना चाहते थे। कामदेवने राग-द्वेष नामके दूत द्वारा जिन राजके पास यह सन्देश भेजा कि आप या तो मुक्ति-कन्यासे विवाह करनेका अपना विचार छोड़ दें और अपने ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप सुभटोंको मुझे सौंप दें; अन्यथा युद्ध के लिये तैयार हो जाएं। जिन राजने कामदेवसे युद्ध करना स्वीकार किया और अन्तमें उसे पराजित कर शिवरमणाको प्राप्त किया । इस प्रकार इस रूपक-काव्य में कविने सरस रूप में इन्द्रियनिग्रह और विकारोंको जीतनेकी ओर संकेत किया है। यहाँ हम उदाहरणार्थ इस रूपक काव्य में राग-द्वेषादिके युद्धका वर्णन प्रस्तुत करते हैं
राय-रोस खम-दमहं महाभह । आसव-बंध गणहं दह-लंपड़े ।।
चारित्तहं तइ भिडिय असं जम । णिज्जर-गणहंकाम्म क्रय-घण-तम ||
गारव तिण्णि भिडिय सिवपंथहं । अणय पधाइय णमहं पयत्थई ।
अपण वि जे जमू समुह पइट्टा | तं तमू सबल वि रणि आभिट्ठा ।।
तहि अवसरि पुच्छिउ आणदें । सिद्धिरूउ सरबदउ जिणिदे ॥
अम्हहं बल कारणे किं गठ्ठल । मयरद्धय-सेण्णही संत?उ ।।
उपमम-सेविय-भूमिहि लागउ | तें कज्जेण जिणेसर भग्गड ।।
एवहि खाइय-भूमि चडावहि । परबल उच्छरंतु बिहडावहि ॥
तो परणइ-सहाव संगृहस | बवग-सेदि जिबल आम्दः ||
महाभट राग और द्वेष, क्षमा और दमनसे भिड़ गये । दस लपट आसव और बन्ध गुणोंस युद्ध करने लगे। असंयम चारित्रसे भिड़ा। सधन अंधकार उत्पन्न करनेवाले कर्म निर्जरागणसे युद्ध करने लगे। तीन गारव शिवपंथसे भिड़ गये और अनय प्रशस्त नयों पर दौड़ पड़े । अन्य सुभट भी जिनके सम्मुख पड़े वे सब उनसे रणमें आकर युद्ध करने लगे | इस अवसर पर जिनेन्द्र ने आनन्दपूर्वक सिद्धिरूप स्वरोदय ज्ञानीसे पूछा कि हमारा चल किस कारणसे नष्ट हुआ और मकरध्वजके शंन्यसे संत्रस्त हुआ ? सब उस ज्ञानीने बतलाया कि हे जिनेश्वर तुम्हारा बल उपशम-श्रेणोकी भूमि पर जा लगा था | इस कारण वह भान हुआ । अब उसे क्षायिक भूमि पर चढ़ाइये, जिससे वह आगे बढ़ता हुआ शव बलको नष्ट कर सके । तब स्वभाव परिणतिसे संगढ़ वह जिनबल क्षपकश्रेणी पर आरूढ हुआ। फिर श्रेष्ठ रथोंके संघटनोंने, उत्तम घोड़ों के समूहोंने, गुलगुलाते हुए हाथियोंके ब्यूहोंने एवं महाभटोंने ध्वजाएं उड़ाते हुए सम्मुख बढ़कर अपने अपने घात दिखलाये।
इस वर्णनसे स्पष्ट है कि कविने सैद्धान्तिक विषयोंको काव्यके रूपमें प्रस्तुत किया है। पौराणिक तथ्योंकी अभिव्यंजना भी यथास्थान की गई है। द्वितीय संधिके ६१,६२, ६३ और ६४३ पद्योंमें कामदेवने अपनी व्यापकताका परिचयदिया है और बताया है कि मेरे प्रभावसे ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देव प्रस्त हैं, में बिलोकविजयी हूँ।
प्रसंगवश गणस्थान, व्रत, समिति, गुति, षडावश्यक, ध्यान आदिका भी चित्रण होता गया है।
'मयणपराजय र उके रचयिता हरिदेवने नन्थके आदिमें अपना परिचय दिया है जिससे यह ज्ञात होता है, कि इनके पिता का नाम चंगदेव और माता का नाम चिया था । इनके दो बड़े भाई थे-किंकर और कृष्ण । किकर महा गुगवान् तथा कृष्ण स्वभावतः निपुण थे । इनके दो छोटे भाई थे, जिनके नाम द्विजवर और राघव थे । कविने लिखा है
चंगरवहु णविर्याजणपयहु तह चित्तमहासह पढमु पुत्तु किंकर महागण ।
पुण बोयउ कण्हु हुउ जेण लङ्घ ससहाउ णियपुण ।।
हरि तिजउ कइ जाणि यइ दियवर राघङ वेइ ।
ते लहया जिणपय धुर्णाह पावह माणु मलेइ ।।२।।
इस कूटम्ब का परिचय नागदेवके संस्कृत-मदनपराजयसे भो प्राप्त होता है। नागदेवने अपना मदनपराजय हरिदेवके इस अपनश-मदनपराजयके आधार पर हो लिखा है। वे चंगदेवके वंशमें सातवीं पीढ़ीमें हुए हैं। परिचय निम्न प्रकार है ...
यः शुद्धसोमकुलपद्मविकासनार्को जातोथिनां मृगतरुभुवि चंगदेवः ।
तन्नन्दनो हरिरसत्कवि-नागसिंहः तस्माद्भिषग्जनपति वि नागदेवः ॥
सा तज्जावु भी सूभिषजाविह हेमरामौ रामात्प्रियंकर इति प्रियदोऽथिनां यः । तज्जश्चिकित्सितमहाम्बुधिपारमाप्तः श्रीमल्लुगिज्जिन पदाम्बुजमत्त भृङ्गः॥३॥
तजोऽहं नागदेवाख्यः स्तोकज्ञानेन संयुतः ।
इन्दोलकारकाव्यानि नाभिधानानि वेदम्यहम् ।।४।।
कथाप्राकृतबन्धेन हरिदेवेन या कृता ।
वक्ष्ये संस्कृतबन्धेन भन्यानां धर्मवृद्धये ।।५।।
अर्थात् पथ्वीपर पवित्र सोमकुलरूपी कमलको विकसित करने के लिये सूर्यरूप और याचकोंके लिए कल्पवृक्षस्वरूप चंगदेव हुए । इनके पुत्र हरि हुए, जो असत्काविरूपी हस्तियोंके लिए सिंह थे | उनके पुत्र वैद्यराज नागदेव हुए । नागदेवके हेम और राम नामने दो पुत्र हुए और ये दोनों ही अच्छे बैद्य थे | रामके पुत्र प्रियंकर हुए, जो नाचकोंके लिाप्रिय दानी थे । प्रियंकरवी पुत्र मल्लु मित्त हुए, जो चिकित्सामहोदधिके पारगामी बिद्वान् तथा जिनेन्द्र के चरण कमलोंके मत्त भ्रमर थे। उनका पुत्र मैं नागदेव हुआ, जो अल्पनानी है और छन्द, अलंकार, काव्य तथा शब्दकोशका जानकार नहीं है। हरिदेवन जिस कथाको प्राकृत-बन्धमें रचा था, उसे ही मैं भव्योंको धर्मवृद्धिक हेतु संस्कृत में लिख रहा हूँ। चंगदेवको वंशावलो निम्नप्रकार प्राप्त होती है
चंगदेव
किंकर कृष्ण हरिदेव राघव द्विजपति
नागदेव (वेद्यराज )
हेम(वेद्यराज ) राम (वेद्यराज )
प्रियंकर (दानी)
मल्लुगित(वेद्यराज )
नागदेव
इस वंशावलीस कविके जीवन-परिचयका बोध हो जाता है । पर उसके स्थितिकाल के सम्बन्धमें कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं होती।
'मयणपराजय चरित'को कथावस्तुका आधार शुभचन्द्रकृत ज्ञानार्णव है और परम्परानुसार शुभचन्द्रका समय भोजदेवके समकालीन माना जाता है। ज्ञानावकी एक प्राचीन प्रति पाटणके शास्त्रमण्डारमें वि सं १२४८की लिखी हुई प्राप्त हुई है। अतः ज्ञानावका रचनाकाल ९वीं शतीसे १२वीं शतीके बीच सिद्ध होता है। अतएव 'मयणपराजय रज'की रचनाकी पूर्वावधि यही माननी चाहिए। सपा की हस्तलिदित विमाधारपर किया जा सकता है। 'सस्कृतमदनपराजय'को एक प्रतिका लेखनकाल वि संक १५७३ हैं और अपभ्रश मघणपराजयार'को एक प्रति चि० सं० १६०८ और दुसरी बि.स १६५४ को है। अतएव कवि हरिदेवका समय नागदेवसे छठी पोढ़ी पूर्ण होने के कारण कम-से-कम १५० वर्ष पहल हाना चाहिए । इस प्रकार नाग देवका समय १३वी-१४वीं शताब्दी सिद्ध हाता है।
पं० परमानन्दजीने जयपुरके तरापथो बड़े मन्दिरके शास्त्रमण्डारमें वि० सं० १५५१ मार्गशीर्ष शुक्ला अष्टमी गुरुवारको लिखी हुई प्रतिका निर्दश किया है तथा आमेरभंडारको प्रति वि० सं० १५७६ की लिखी हुई बताई है। और उन्होन भाषा-शैली आदिके आधारपर हरिदेवका समय १४वो शताब्दीका अन्तिम चरण बताया है ।'
डॉ. हीरालालजी जेनने हरिदेवका समय १२वीं शतीसे १५वीं शतीके बीच माना है।
कविकी एक हो रचना 'मयणपराजय रउ' उपलब्ध है। इस ग्रंथमें दो परिच्छंद है। प्रथम परिच्छेद, ३७ और दूसरेम ८१ इस प्रकार कुल ११८ कड़वक हैं । यह छोटा-सा रूपक खण्डकाव्य है । कविने इसमें मदनको जीतनेका सरस वर्णन किया है। कामदेव राजा, मोह मंत्री, अहंकार, अज्ञान आदि सेना पतियों के साथ भावनगरमें निवास करता था | चारित्रपुरके राजा जिन राज उसके शन थे, क्योंकि वे मुक्तिरूपी लक्ष्मीसे अपना विवाह करना चाहते थे। कामदेवने राग-द्वेष नामके दूत द्वारा जिन राजके पास यह सन्देश भेजा कि आप या तो मुक्ति-कन्यासे विवाह करनेका अपना विचार छोड़ दें और अपने ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप सुभटोंको मुझे सौंप दें; अन्यथा युद्ध के लिये तैयार हो जाएं। जिन राजने कामदेवसे युद्ध करना स्वीकार किया और अन्तमें उसे पराजित कर शिवरमणाको प्राप्त किया । इस प्रकार इस रूपक-काव्य में कविने सरस रूप में इन्द्रियनिग्रह और विकारोंको जीतनेकी ओर संकेत किया है। यहाँ हम उदाहरणार्थ इस रूपक काव्य में राग-द्वेषादिके युद्धका वर्णन प्रस्तुत करते हैं
राय-रोस खम-दमहं महाभह । आसव-बंध गणहं दह-लंपड़े ।।
चारित्तहं तइ भिडिय असं जम । णिज्जर-गणहंकाम्म क्रय-घण-तम ||
गारव तिण्णि भिडिय सिवपंथहं । अणय पधाइय णमहं पयत्थई ।
अपण वि जे जमू समुह पइट्टा | तं तमू सबल वि रणि आभिट्ठा ।।
तहि अवसरि पुच्छिउ आणदें । सिद्धिरूउ सरबदउ जिणिदे ॥
अम्हहं बल कारणे किं गठ्ठल । मयरद्धय-सेण्णही संत?उ ।।
उपमम-सेविय-भूमिहि लागउ | तें कज्जेण जिणेसर भग्गड ।।
एवहि खाइय-भूमि चडावहि । परबल उच्छरंतु बिहडावहि ॥
तो परणइ-सहाव संगृहस | बवग-सेदि जिबल आम्दः ||
महाभट राग और द्वेष, क्षमा और दमनसे भिड़ गये । दस लपट आसव और बन्ध गुणोंस युद्ध करने लगे। असंयम चारित्रसे भिड़ा। सधन अंधकार उत्पन्न करनेवाले कर्म निर्जरागणसे युद्ध करने लगे। तीन गारव शिवपंथसे भिड़ गये और अनय प्रशस्त नयों पर दौड़ पड़े । अन्य सुभट भी जिनके सम्मुख पड़े वे सब उनसे रणमें आकर युद्ध करने लगे | इस अवसर पर जिनेन्द्र ने आनन्दपूर्वक सिद्धिरूप स्वरोदय ज्ञानीसे पूछा कि हमारा चल किस कारणसे नष्ट हुआ और मकरध्वजके शंन्यसे संत्रस्त हुआ ? सब उस ज्ञानीने बतलाया कि हे जिनेश्वर तुम्हारा बल उपशम-श्रेणोकी भूमि पर जा लगा था | इस कारण वह भान हुआ । अब उसे क्षायिक भूमि पर चढ़ाइये, जिससे वह आगे बढ़ता हुआ शव बलको नष्ट कर सके । तब स्वभाव परिणतिसे संगढ़ वह जिनबल क्षपकश्रेणी पर आरूढ हुआ। फिर श्रेष्ठ रथोंके संघटनोंने, उत्तम घोड़ों के समूहोंने, गुलगुलाते हुए हाथियोंके ब्यूहोंने एवं महाभटोंने ध्वजाएं उड़ाते हुए सम्मुख बढ़कर अपने अपने घात दिखलाये।
इस वर्णनसे स्पष्ट है कि कविने सैद्धान्तिक विषयोंको काव्यके रूपमें प्रस्तुत किया है। पौराणिक तथ्योंकी अभिव्यंजना भी यथास्थान की गई है। द्वितीय संधिके ६१,६२, ६३ और ६४३ पद्योंमें कामदेवने अपनी व्यापकताका परिचयदिया है और बताया है कि मेरे प्रभावसे ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देव प्रस्त हैं, में बिलोकविजयी हूँ।
प्रसंगवश गणस्थान, व्रत, समिति, गुति, षडावश्यक, ध्यान आदिका भी चित्रण होता गया है।
#Haridev
आचार्यतुल्य हरिदेव (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 19 मई 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 19 May 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
'मयणपराजय र उके रचयिता हरिदेवने नन्थके आदिमें अपना परिचय दिया है जिससे यह ज्ञात होता है, कि इनके पिता का नाम चंगदेव और माता का नाम चिया था । इनके दो बड़े भाई थे-किंकर और कृष्ण । किकर महा गुगवान् तथा कृष्ण स्वभावतः निपुण थे । इनके दो छोटे भाई थे, जिनके नाम द्विजवर और राघव थे । कविने लिखा है
चंगरवहु णविर्याजणपयहु तह चित्तमहासह पढमु पुत्तु किंकर महागण ।
पुण बोयउ कण्हु हुउ जेण लङ्घ ससहाउ णियपुण ।।
हरि तिजउ कइ जाणि यइ दियवर राघङ वेइ ।
ते लहया जिणपय धुर्णाह पावह माणु मलेइ ।।२।।
इस कूटम्ब का परिचय नागदेवके संस्कृत-मदनपराजयसे भो प्राप्त होता है। नागदेवने अपना मदनपराजय हरिदेवके इस अपनश-मदनपराजयके आधार पर हो लिखा है। वे चंगदेवके वंशमें सातवीं पीढ़ीमें हुए हैं। परिचय निम्न प्रकार है ...
यः शुद्धसोमकुलपद्मविकासनार्को जातोथिनां मृगतरुभुवि चंगदेवः ।
तन्नन्दनो हरिरसत्कवि-नागसिंहः तस्माद्भिषग्जनपति वि नागदेवः ॥
सा तज्जावु भी सूभिषजाविह हेमरामौ रामात्प्रियंकर इति प्रियदोऽथिनां यः । तज्जश्चिकित्सितमहाम्बुधिपारमाप्तः श्रीमल्लुगिज्जिन पदाम्बुजमत्त भृङ्गः॥३॥
तजोऽहं नागदेवाख्यः स्तोकज्ञानेन संयुतः ।
इन्दोलकारकाव्यानि नाभिधानानि वेदम्यहम् ।।४।।
कथाप्राकृतबन्धेन हरिदेवेन या कृता ।
वक्ष्ये संस्कृतबन्धेन भन्यानां धर्मवृद्धये ।।५।।
अर्थात् पथ्वीपर पवित्र सोमकुलरूपी कमलको विकसित करने के लिये सूर्यरूप और याचकोंके लिए कल्पवृक्षस्वरूप चंगदेव हुए । इनके पुत्र हरि हुए, जो असत्काविरूपी हस्तियोंके लिए सिंह थे | उनके पुत्र वैद्यराज नागदेव हुए । नागदेवके हेम और राम नामने दो पुत्र हुए और ये दोनों ही अच्छे बैद्य थे | रामके पुत्र प्रियंकर हुए, जो नाचकोंके लिाप्रिय दानी थे । प्रियंकरवी पुत्र मल्लु मित्त हुए, जो चिकित्सामहोदधिके पारगामी बिद्वान् तथा जिनेन्द्र के चरण कमलोंके मत्त भ्रमर थे। उनका पुत्र मैं नागदेव हुआ, जो अल्पनानी है और छन्द, अलंकार, काव्य तथा शब्दकोशका जानकार नहीं है। हरिदेवन जिस कथाको प्राकृत-बन्धमें रचा था, उसे ही मैं भव्योंको धर्मवृद्धिक हेतु संस्कृत में लिख रहा हूँ। चंगदेवको वंशावलो निम्नप्रकार प्राप्त होती है
चंगदेव
किकर कृष्ण हरिदेव राघव द्विजपति
नागदेव (वेद्यराज )
हेम(वेद्यराज ) राम (वेद्यराज )
प्रियंकर (दानी)
मल्लुगित(वेद्यराज )
नागदेव
इस वंशावलीस कविके जीवन-परिचयका बोध हो जाता है । पर उसके स्थितिकाल के सम्बन्धमें कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं होती।
'मयणपराजय चरित'को कथावस्तुका आधार शुभचन्द्रकृत ज्ञानार्णव है और परम्परानुसार शुभचन्द्रका समय भोजदेवके समकालीन माना जाता है। ज्ञानावकी एक प्राचीन प्रति पाटणके शास्त्रमण्डारमें वि सं १२४८की लिखी हुई प्राप्त हुई है। अतः ज्ञानावका रचनाकाल ९वीं शतीसे १२वीं शतीके बीच सिद्ध होता है। अतएव 'मयणपराजय रज'की रचनाकी पूर्वावधि यही माननी चाहिए। सपा की हस्तलिदित विमाधारपर किया जा सकता है। 'सस्कृतमदनपराजय'को एक प्रतिका लेखनकाल वि संक १५७३ हैं और अपभ्रश मघणपराजयार'को एक प्रति चि० सं० १६०८ और दुसरी बि.स १६५४ को है। अतएव कवि हरिदेवका समय नागदेवसे छठी पोढ़ी पूर्ण होने के कारण कम-से-कम १५० वर्ष पहल हाना चाहिए । इस प्रकार नाग देवका समय १३वी-१४वीं शताब्दी सिद्ध हाता है।
पं० परमानन्दजीने जयपुरके तरापथो बड़े मन्दिरके शास्त्रमण्डारमें वि० सं० १५५१ मार्गशीर्ष शुक्ला अष्टमी गुरुवारको लिखी हुई प्रतिका निर्दश किया है तथा आमेरभंडारको प्रति वि० सं० १५७६ की लिखी हुई बताई है। और उन्होन भाषा-शैली आदिके आधारपर हरिदेवका समय १४वो शताब्दीका अन्तिम चरण बताया है ।'
डॉ. हीरालालजी जेनने हरिदेवका समय १२वीं शतीसे १५वीं शतीके बीच माना है।
कविकी एक हो रचना 'मयणपराजय रउ' उपलब्ध है। इस ग्रंथमें दो परिच्छंद है। प्रथम परिच्छेद, ३७ और दूसरेम ८१ इस प्रकार कुल ११८ कड़वक हैं । यह छोटा-सा रूपक खण्डकाव्य है । कविने इसमें मदनको जीतनेका सरस वर्णन किया है। कामदेव राजा, मोह मंत्री, अहंकार, अज्ञान आदि सेना पतियों के साथ भावनगरमें निवास करता था | चारित्रपुरके राजा जिन राज उसके शन थे, क्योंकि वे मुक्तिरूपी लक्ष्मीसे अपना विवाह करना चाहते थे। कामदेवने राग-द्वेष नामके दूत द्वारा जिन राजके पास यह सन्देश भेजा कि आप या तो मुक्ति-कन्यासे विवाह करनेका अपना विचार छोड़ दें और अपने ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप सुभटोंको मुझे सौंप दें; अन्यथा युद्ध के लिये तैयार हो जाएं। जिन राजने कामदेवसे युद्ध करना स्वीकार किया और अन्तमें उसे पराजित कर शिवरमणाको प्राप्त किया । इस प्रकार इस रूपक-काव्य में कविने सरस रूप में इन्द्रियनिग्रह और विकारोंको जीतनेकी ओर संकेत किया है। यहाँ हम उदाहरणार्थ इस रूपक काव्य में राग-द्वेषादिके युद्धका वर्णन प्रस्तुत करते हैं
राय-रोस खम-दमहं महाभह । आसव-बंध गणहं दह-लंपड़े ।।
चारित्तहं तइ भिडिय असं जम । णिज्जर-गणहंकाम्म क्रय-घण-तम ||
गारव तिण्णि भिडिय सिवपंथहं । अणय पधाइय णमहं पयत्थई ।
अपण वि जे जमू समुह पइट्टा | तं तमू सबल वि रणि आभिट्ठा ।।
तहि अवसरि पुच्छिउ आणदें । सिद्धिरूउ सरबदउ जिणिदे ॥
अम्हहं बल कारणे किं गठ्ठल । मयरद्धय-सेण्णही संत?उ ।।
उपमम-सेविय-भूमिहि लागउ | तें कज्जेण जिणेसर भग्गड ।।
एवहि खाइय-भूमि चडावहि । परबल उच्छरंतु बिहडावहि ॥
तो परणइ-सहाव संगृहस | बवग-सेदि जिबल आम्दः ||
महाभट राग और द्वेष, क्षमा और दमनसे भिड़ गये । दस लपट आसव और बन्ध गुणोंस युद्ध करने लगे। असंयम चारित्रसे भिड़ा। सधन अंधकार उत्पन्न करनेवाले कर्म निर्जरागणसे युद्ध करने लगे। तीन गारव शिवपंथसे भिड़ गये और अनय प्रशस्त नयों पर दौड़ पड़े । अन्य सुभट भी जिनके सम्मुख पड़े वे सब उनसे रणमें आकर युद्ध करने लगे | इस अवसर पर जिनेन्द्र ने आनन्दपूर्वक सिद्धिरूप स्वरोदय ज्ञानीसे पूछा कि हमारा चल किस कारणसे नष्ट हुआ और मकरध्वजके शंन्यसे संत्रस्त हुआ ? सब उस ज्ञानीने बतलाया कि हे जिनेश्वर तुम्हारा बल उपशम-श्रेणोकी भूमि पर जा लगा था | इस कारण वह भान हुआ । अब उसे क्षायिक भूमि पर चढ़ाइये, जिससे वह आगे बढ़ता हुआ शव बलको नष्ट कर सके । तब स्वभाव परिणतिसे संगढ़ वह जिनबल क्षपकश्रेणी पर आरूढ हुआ। फिर श्रेष्ठ रथोंके संघटनोंने, उत्तम घोड़ों के समूहोंने, गुलगुलाते हुए हाथियोंके ब्यूहोंने एवं महाभटोंने ध्वजाएं उड़ाते हुए सम्मुख बढ़कर अपने अपने घात दिखलाये।
इस वर्णनसे स्पष्ट है कि कविने सैद्धान्तिक विषयोंको काव्यके रूपमें प्रस्तुत किया है। पौराणिक तथ्योंकी अभिव्यंजना भी यथास्थान की गई है। द्वितीय संधिके ६१,६२, ६३ और ६४३ पद्योंमें कामदेवने अपनी व्यापकताका परिचयदिया है और बताया है कि मेरे प्रभावसे ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देव प्रस्त हैं, में बिलोकविजयी हूँ।
प्रसंगवश गणस्थान, व्रत, समिति, गुति, षडावश्यक, ध्यान आदिका भी चित्रण होता गया है।
Acharyatulya Haridev (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 19 May 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
#Haridev
15000
#Haridev
Haridev
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