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#laxmandev
कवि लक्ष्मणदेवने 'णे मिणावरिउ' की रचना की है। इस अन्धकी सन्धि-पुष्पिकाओंमें कविने अपने आपको रत्नदेवका पुत्र कहा है। आरम्भकी प्रशस्तिले ज्ञात होता है कि कवि मालवादेशके समृद्ध नगर गोणंदमें रहता था। महकर उस पर नया और पैजान धान न्द्र था। कवि पुरवाइवंशमें उत्पन्न हुआ था। यह अत्यन्त रूपवान, धार्मिक और धनधान्य-सम्पन्न था । कविकी रचनासे यह भी ज्ञात होता है कि उसने पहले ब्याकरणग्रन्थकी रचना की थी, जो विद्वानोंका कण्ठहार' थी। कविने प्रशस्तिमें लिखा है
मालवग-बिसय अंतरि पहाणु, सुरहरि-भूसिउ गं तिसय ठाणु।
शिवसइ पट्टाणु णामई महंतु, गाणंदु पसिद्ध बहुरिद्धिवतु ।
आराम-गाम-परिमिङ घणेहि, णं भू-मंडण किल णियय-देहि ।
जहि सरि-सरवर चढदिसि क वरुण, आणंदिय-पहियण तंडि विसण्ण ।
पउरबाल-कुल-कमल-दिवायरु, विणयवसु संघहु मय सायरू ।
धण-कण-पुत्त-अत्य-संपुषण उ, आइस रावउ रूच रखण्णा ।
तेण विनायडू गंथु अवासाबइ, बंधन अंबएव सुसहायइ । ४।२२
इस प्रशस्तिके अवतरणसे यह स्पष्ट है कि कवि गोणन्दका निवासी था। यह स्थान संभवतः उज्जैन और भेलमाके मध्य होना चाहिए । श्री डॉ० वासुदेव शरण अग्रवालने पाणिनिकालीन भारत में लिखा है कि महाजनपथ, दक्षिण में प्रतिष्ठानसे उत्तरमें श्रावस्ती तक जाता था। यह लम्बा पथ भारतका दक्षिण-उत्तर महाजनपथ कहा जाता था। इसपर माहिष्मती, उज्जयिनी,गोनद्द, बिदिशा और कौशाम्बी स्थित थे। हमारा अनुमान है कि यह गोनद ही कवि द्वारा उल्लिखत गोणन्द है। कविके अम्बदेव नामका भाई था, जो स्वयं कवि था, जिसने कविको काव्य लिखनेको प्रेरणा दी होगी।
कवि के स्थितिकालके सम्बन्धमें निचिश्त रूपसे कुछ नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि कांचने स्वयं ग्रन्थरचना-कालका निर्देश नहीं किया है। और न अपनी गर्वावली और पूर्व आचार्योंका उल्लेख ही किया है । अतएव रचनाकाल के निर्णयके लिए केवल अनुमान ही शेष रह जाता है ।
'णमिणाहचरिज' की दो पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध हैं । एक पाण्डुलिपि पंचा यतीमंदिर, दिल्ली में सुरक्षित है, जिसका लेखनकाल वि० सं० १५१२ है । इस अन्धकी दुसरी पाण्डुलिपि वि० सं० १५१० की लिखी हुई प्राप्त होती है। यह प्रति 'पाटौदी शास्त्र-भण्डार, जयपुर में है। अतएव यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि ग्रन्थकी रचना विसं०१५१० के पूर्व हुई है। भाषा-शैली और बर्णनकमकी दृष्टि बह अन्य वीं शताब्दीका होना चाहिए। प्रायः यह देखा जा सकता है कि प्राचीन अपन'श-काव्योंमें छन्दका वैविध्य नहीं है। इस प्रस्तुत ग्रन्थमें भी छन्द-वैविध्य नहीं पाया जाता है। हेला, दुबइ और बस्तुबन्ध
आदि थोड़े ही छन्द प्रयुक्त हैं ।
कविकी एकमात्र 'णेमिणाहरिउ' रचना ही उपलब्ध है। इस ग्रन्थम चार मन्धियाँ या चार परिच्छन्द और ८३ वाड़बक हैं । ग्रन्थ-प्रमाण १३५० श्लोकके लग भग है। प्रथम सन्धिम मंगल-स्तवनके अनन्तर, सज्जन-दुर्जन स्मरण किया गया है । तदनन्तर कविने अपनी अल्पज्ञता प्रदर्शित की है । मगधदेश और राज्यगृह नगरके वर्णनके पश्चात् कवि राजा श्रेणिक, द्वारा गौतम गणधरसे नेमिनाथका चरित वर्णन करने के लिए अनुरोध कराता है | बराडक देशमें द्वारावती नगरीमें जनार्दन नामका राजा राज्य करता था। वहीं शौरीपूरनरेश समुद्रविजय अपनी शिवदेवीके माथ निवास करते थे। जरासन्धके भयस यादवगण शौरीपुर छोड़ कर हारकामें रहने लगे | यहीं तीर्थकर नेमिनाथका जन्म हुआ और इन्द्रने उनका जन्माभिषेक सम्पन्न किया ।
दूगरी संधि नेमिनाथकी धुवावस्था, वसन्तवर्णन, पुष्पावत्रय, जलक्रीड़ा आदिके प्रसंग आये हैं 1 नेमिनाथके पराक्रमको देखकर कृष्णको ईर्ष्या हुई और वे उन्हें किसी प्रकार विरक्त करने के लिए प्रयास करने लगे । जूनागढ़के राजाकी पुत्री राजीमतिके साथ नेमिनाथका विवाह निश्चित हुआ। बारात सजधज कर जूनागढ़ने निकट पहुँचती है। और नेमिनाथकी दृष्टि पाश्र्ववर्ती बाड़ोंमें बन्द चीत्कार करते हुए पशुओंपर पड़ती है। उनके दयालु हृदयको वेदना होती है और वे कहते हैं यदि मेरे विवाहके निमित्त इतने पशुओंका जीवन संकटमें है सो ऐमा विवाह करना मैंने छोड़ा।
पशुओंको छुड़वाकर रथसे उत्तर कंकण और मुकुट फंककर बे बनको ओर चल देते हैं । इस समाचारसे बारात में कोहराम मच जाता है। राजमती मूर्छा खाकर गिर पड़ती है। लोगोंने नेमिनाथको लौटानेका प्रयत्न किया, किन्तु सब व्यर्थ हुआ। वे पासमें स्थित ऊर्जयन्तगिरिपर चले जाते हैं। और सहस्नान
वनमें वस्त्रालंकारका त्यागकर दिगम्बरमुद्रा धारण कर लेते हैं ।
तीसरी सन्धिमें राजमतिकी वियोगावस्थाका चित्रण है । कविने बड़ी सहृद यत्ता और सहानुभूतिके साथ राजमतिकी करुण भावनाओंका चित्रण किया है। राजमति भी विरक्त हो जाती है और वह भी तपश्चरण द्वारा आत्म-साधनामें प्रवृत्त हो जाती है।
चतुर्थ संधिमें तपश्चर्याक द्वारा नेमिनाथको केवलज्ञानको प्राप्ति होनेका कथन आया है। की समवारपासभामागोजित होती है ! ले प्राणिकल्या णार्थ धर्मोपदेश देते हैं और अन्समें निर्वाण प्राप्त करते हैं। कबिने संसारकी विवशताका सुन्दर चित्रण किया है । कवि कहता है
जमु मेहि अण्णु तमु अरुइ होइ, जसु भोजसत्ति तसु ससु ण होइ ।
जसु दाण छाहु तसु दविणु त्यि, जसु दविणु तासु अइ-लोह अस्थि ।
जसु मयण राउ तसि पत्थि भाम, जसु भाम तसु छवण काम ॥३२
अर्थात् जिस मनुष्य के घरम अन्न भरा हुआ है उसे भोजनके प्रति अरुचि है। जिसमें भोजन पकाने की शक्ति है उसे शास्य-अन्न नहीं। जिसमें दानका उत्साह है उसके पास धन नहीं। जिसके पास धन है उसमें अतिलोभ है। जिसमें कामका प्रभुत्व है उसके भार्या नहीं। जिसके पास भार्या है उसका काम शान्त है।
कविने सुभाषितोंका भी प्रयोग यथास्थान किया है। इनके द्वारा उसने काव्यको सरस बनाने को पूरी चेष्टा की है।
कि जीयइ धम्म-विवज्जिएण-धर्मरहित जीनेसे क्या प्रयोजन ?
कि सुउई संगरि कापरेण--युद्ध कायर सुभटोसे क्या ?
कि वयण असच्चा भासणेण-झूठ बचन बोलनेसे क्या प्रयोजन है ?
कि पुत्तइ गोत्त-बिणासण-कुलका नाश करनेवाले पुरसे क्या ?
कि फुल्लई गंध-विज्जिएण-न्धिरहित फूलसे क्या ?
इस ग्रन्थमें श्रावकाचार और मुनि-आचारका भी वर्णन आया है।
कवि लक्ष्मणदेवने 'णे मिणावरिउ' की रचना की है। इस अन्धकी सन्धि-पुष्पिकाओंमें कविने अपने आपको रत्नदेवका पुत्र कहा है। आरम्भकी प्रशस्तिले ज्ञात होता है कि कवि मालवादेशके समृद्ध नगर गोणंदमें रहता था। महकर उस पर नया और पैजान धान न्द्र था। कवि पुरवाइवंशमें उत्पन्न हुआ था। यह अत्यन्त रूपवान, धार्मिक और धनधान्य-सम्पन्न था । कविकी रचनासे यह भी ज्ञात होता है कि उसने पहले ब्याकरणग्रन्थकी रचना की थी, जो विद्वानोंका कण्ठहार' थी। कविने प्रशस्तिमें लिखा है
मालवग-बिसय अंतरि पहाणु, सुरहरि-भूसिउ गं तिसय ठाणु।
शिवसइ पट्टाणु णामई महंतु, गाणंदु पसिद्ध बहुरिद्धिवतु ।
आराम-गाम-परिमिङ घणेहि, णं भू-मंडण किल णियय-देहि ।
जहि सरि-सरवर चढदिसि क वरुण, आणंदिय-पहियण तंडि विसण्ण ।
पउरबाल-कुल-कमल-दिवायरु, विणयवसु संघहु मय सायरू ।
धण-कण-पुत्त-अत्य-संपुषण उ, आइस रावउ रूच रखण्णा ।
तेण विनायडू गंथु अवासाबइ, बंधन अंबएव सुसहायइ । ४।२२
इस प्रशस्तिके अवतरणसे यह स्पष्ट है कि कवि गोणन्दका निवासी था। यह स्थान संभवतः उज्जैन और भेलमाके मध्य होना चाहिए । श्री डॉ० वासुदेव शरण अग्रवालने पाणिनिकालीन भारत में लिखा है कि महाजनपथ, दक्षिण में प्रतिष्ठानसे उत्तरमें श्रावस्ती तक जाता था। यह लम्बा पथ भारतका दक्षिण-उत्तर महाजनपथ कहा जाता था। इसपर माहिष्मती, उज्जयिनी,गोनद्द, बिदिशा और कौशाम्बी स्थित थे। हमारा अनुमान है कि यह गोनद ही कवि द्वारा उल्लिखत गोणन्द है। कविके अम्बदेव नामका भाई था, जो स्वयं कवि था, जिसने कविको काव्य लिखनेको प्रेरणा दी होगी।
कवि के स्थितिकालके सम्बन्धमें निचिश्त रूपसे कुछ नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि कांचने स्वयं ग्रन्थरचना-कालका निर्देश नहीं किया है। और न अपनी गर्वावली और पूर्व आचार्योंका उल्लेख ही किया है । अतएव रचनाकाल के निर्णयके लिए केवल अनुमान ही शेष रह जाता है ।
'णमिणाहचरिज' की दो पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध हैं । एक पाण्डुलिपि पंचा यतीमंदिर, दिल्ली में सुरक्षित है, जिसका लेखनकाल वि० सं० १५१२ है । इस अन्धकी दुसरी पाण्डुलिपि वि० सं० १५१० की लिखी हुई प्राप्त होती है। यह प्रति 'पाटौदी शास्त्र-भण्डार, जयपुर में है। अतएव यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि ग्रन्थकी रचना विसं०१५१० के पूर्व हुई है। भाषा-शैली और बर्णनकमकी दृष्टि बह अन्य वीं शताब्दीका होना चाहिए। प्रायः यह देखा जा सकता है कि प्राचीन अपन'श-काव्योंमें छन्दका वैविध्य नहीं है। इस प्रस्तुत ग्रन्थमें भी छन्द-वैविध्य नहीं पाया जाता है। हेला, दुबइ और बस्तुबन्ध
आदि थोड़े ही छन्द प्रयुक्त हैं ।
कविकी एकमात्र 'णेमिणाहरिउ' रचना ही उपलब्ध है। इस ग्रन्थम चार मन्धियाँ या चार परिच्छन्द और ८३ वाड़बक हैं । ग्रन्थ-प्रमाण १३५० श्लोकके लग भग है। प्रथम सन्धिम मंगल-स्तवनके अनन्तर, सज्जन-दुर्जन स्मरण किया गया है । तदनन्तर कविने अपनी अल्पज्ञता प्रदर्शित की है । मगधदेश और राज्यगृह नगरके वर्णनके पश्चात् कवि राजा श्रेणिक, द्वारा गौतम गणधरसे नेमिनाथका चरित वर्णन करने के लिए अनुरोध कराता है | बराडक देशमें द्वारावती नगरीमें जनार्दन नामका राजा राज्य करता था। वहीं शौरीपूरनरेश समुद्रविजय अपनी शिवदेवीके माथ निवास करते थे। जरासन्धके भयस यादवगण शौरीपुर छोड़ कर हारकामें रहने लगे | यहीं तीर्थकर नेमिनाथका जन्म हुआ और इन्द्रने उनका जन्माभिषेक सम्पन्न किया ।
दूगरी संधि नेमिनाथकी धुवावस्था, वसन्तवर्णन, पुष्पावत्रय, जलक्रीड़ा आदिके प्रसंग आये हैं 1 नेमिनाथके पराक्रमको देखकर कृष्णको ईर्ष्या हुई और वे उन्हें किसी प्रकार विरक्त करने के लिए प्रयास करने लगे । जूनागढ़के राजाकी पुत्री राजीमतिके साथ नेमिनाथका विवाह निश्चित हुआ। बारात सजधज कर जूनागढ़ने निकट पहुँचती है। और नेमिनाथकी दृष्टि पाश्र्ववर्ती बाड़ोंमें बन्द चीत्कार करते हुए पशुओंपर पड़ती है। उनके दयालु हृदयको वेदना होती है और वे कहते हैं यदि मेरे विवाहके निमित्त इतने पशुओंका जीवन संकटमें है सो ऐमा विवाह करना मैंने छोड़ा।
पशुओंको छुड़वाकर रथसे उत्तर कंकण और मुकुट फंककर बे बनको ओर चल देते हैं । इस समाचारसे बारात में कोहराम मच जाता है। राजमती मूर्छा खाकर गिर पड़ती है। लोगोंने नेमिनाथको लौटानेका प्रयत्न किया, किन्तु सब व्यर्थ हुआ। वे पासमें स्थित ऊर्जयन्तगिरिपर चले जाते हैं। और सहस्नान
वनमें वस्त्रालंकारका त्यागकर दिगम्बरमुद्रा धारण कर लेते हैं ।
तीसरी सन्धिमें राजमतिकी वियोगावस्थाका चित्रण है । कविने बड़ी सहृद यत्ता और सहानुभूतिके साथ राजमतिकी करुण भावनाओंका चित्रण किया है। राजमति भी विरक्त हो जाती है और वह भी तपश्चरण द्वारा आत्म-साधनामें प्रवृत्त हो जाती है।
चतुर्थ संधिमें तपश्चर्याक द्वारा नेमिनाथको केवलज्ञानको प्राप्ति होनेका कथन आया है। की समवारपासभामागोजित होती है ! ले प्राणिकल्या णार्थ धर्मोपदेश देते हैं और अन्समें निर्वाण प्राप्त करते हैं। कबिने संसारकी विवशताका सुन्दर चित्रण किया है । कवि कहता है
जमु मेहि अण्णु तमु अरुइ होइ, जसु भोजसत्ति तसु ससु ण होइ ।
जसु दाण छाहु तसु दविणु त्यि, जसु दविणु तासु अइ-लोह अस्थि ।
जसु मयण राउ तसि पत्थि भाम, जसु भाम तसु छवण काम ॥३२
अर्थात् जिस मनुष्य के घरम अन्न भरा हुआ है उसे भोजनके प्रति अरुचि है। जिसमें भोजन पकाने की शक्ति है उसे शास्य-अन्न नहीं। जिसमें दानका उत्साह है उसके पास धन नहीं। जिसके पास धन है उसमें अतिलोभ है। जिसमें कामका प्रभुत्व है उसके भार्या नहीं। जिसके पास भार्या है उसका काम शान्त है।
कविने सुभाषितोंका भी प्रयोग यथास्थान किया है। इनके द्वारा उसने काव्यको सरस बनाने को पूरी चेष्टा की है।
कि जीयइ धम्म-विवज्जिएण-धर्मरहित जीनेसे क्या प्रयोजन ?
कि सुउई संगरि कापरेण--युद्ध कायर सुभटोसे क्या ?
कि वयण असच्चा भासणेण-झूठ बचन बोलनेसे क्या प्रयोजन है ?
कि पुत्तइ गोत्त-बिणासण-कुलका नाश करनेवाले पुरसे क्या ?
कि फुल्लई गंध-विज्जिएण-न्धिरहित फूलसे क्या ?
इस ग्रन्थमें श्रावकाचार और मुनि-आचारका भी वर्णन आया है।
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आचार्यतुल्य लक्ष्मणदेव (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 18 मई 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 18 May 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
कवि लक्ष्मणदेवने 'णे मिणावरिउ' की रचना की है। इस अन्धकी सन्धि-पुष्पिकाओंमें कविने अपने आपको रत्नदेवका पुत्र कहा है। आरम्भकी प्रशस्तिले ज्ञात होता है कि कवि मालवादेशके समृद्ध नगर गोणंदमें रहता था। महकर उस पर नया और पैजान धान न्द्र था। कवि पुरवाइवंशमें उत्पन्न हुआ था। यह अत्यन्त रूपवान, धार्मिक और धनधान्य-सम्पन्न था । कविकी रचनासे यह भी ज्ञात होता है कि उसने पहले ब्याकरणग्रन्थकी रचना की थी, जो विद्वानोंका कण्ठहार' थी। कविने प्रशस्तिमें लिखा है
मालवग-बिसय अंतरि पहाणु, सुरहरि-भूसिउ गं तिसय ठाणु।
शिवसइ पट्टाणु णामई महंतु, गाणंदु पसिद्ध बहुरिद्धिवतु ।
आराम-गाम-परिमिङ घणेहि, णं भू-मंडण किल णियय-देहि ।
जहि सरि-सरवर चढदिसि क वरुण, आणंदिय-पहियण तंडि विसण्ण ।
पउरबाल-कुल-कमल-दिवायरु, विणयवसु संघहु मय सायरू ।
धण-कण-पुत्त-अत्य-संपुषण उ, आइस रावउ रूच रखण्णा ।
तेण विनायडू गंथु अवासाबइ, बंधन अंबएव सुसहायइ । ४।२२
इस प्रशस्तिके अवतरणसे यह स्पष्ट है कि कवि गोणन्दका निवासी था। यह स्थान संभवतः उज्जैन और भेलमाके मध्य होना चाहिए । श्री डॉ० वासुदेव शरण अग्रवालने पाणिनिकालीन भारत में लिखा है कि महाजनपथ, दक्षिण में प्रतिष्ठानसे उत्तरमें श्रावस्ती तक जाता था। यह लम्बा पथ भारतका दक्षिण-उत्तर महाजनपथ कहा जाता था। इसपर माहिष्मती, उज्जयिनी,गोनद्द, बिदिशा और कौशाम्बी स्थित थे। हमारा अनुमान है कि यह गोनद ही कवि द्वारा उल्लिखत गोणन्द है। कविके अम्बदेव नामका भाई था, जो स्वयं कवि था, जिसने कविको काव्य लिखनेको प्रेरणा दी होगी।
कवि के स्थितिकालके सम्बन्धमें निचिश्त रूपसे कुछ नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि कांचने स्वयं ग्रन्थरचना-कालका निर्देश नहीं किया है। और न अपनी गर्वावली और पूर्व आचार्योंका उल्लेख ही किया है । अतएव रचनाकाल के निर्णयके लिए केवल अनुमान ही शेष रह जाता है ।
'णमिणाहचरिज' की दो पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध हैं । एक पाण्डुलिपि पंचा यतीमंदिर, दिल्ली में सुरक्षित है, जिसका लेखनकाल वि० सं० १५१२ है । इस अन्धकी दुसरी पाण्डुलिपि वि० सं० १५१० की लिखी हुई प्राप्त होती है। यह प्रति 'पाटौदी शास्त्र-भण्डार, जयपुर में है। अतएव यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि ग्रन्थकी रचना विसं०१५१० के पूर्व हुई है। भाषा-शैली और बर्णनकमकी दृष्टि बह अन्य वीं शताब्दीका होना चाहिए। प्रायः यह देखा जा सकता है कि प्राचीन अपन'श-काव्योंमें छन्दका वैविध्य नहीं है। इस प्रस्तुत ग्रन्थमें भी छन्द-वैविध्य नहीं पाया जाता है। हेला, दुबइ और बस्तुबन्ध
आदि थोड़े ही छन्द प्रयुक्त हैं ।
कविकी एकमात्र 'णेमिणाहरिउ' रचना ही उपलब्ध है। इस ग्रन्थम चार मन्धियाँ या चार परिच्छन्द और ८३ वाड़बक हैं । ग्रन्थ-प्रमाण १३५० श्लोकके लग भग है। प्रथम सन्धिम मंगल-स्तवनके अनन्तर, सज्जन-दुर्जन स्मरण किया गया है । तदनन्तर कविने अपनी अल्पज्ञता प्रदर्शित की है । मगधदेश और राज्यगृह नगरके वर्णनके पश्चात् कवि राजा श्रेणिक, द्वारा गौतम गणधरसे नेमिनाथका चरित वर्णन करने के लिए अनुरोध कराता है | बराडक देशमें द्वारावती नगरीमें जनार्दन नामका राजा राज्य करता था। वहीं शौरीपूरनरेश समुद्रविजय अपनी शिवदेवीके माथ निवास करते थे। जरासन्धके भयस यादवगण शौरीपुर छोड़ कर हारकामें रहने लगे | यहीं तीर्थकर नेमिनाथका जन्म हुआ और इन्द्रने उनका जन्माभिषेक सम्पन्न किया ।
दूगरी संधि नेमिनाथकी धुवावस्था, वसन्तवर्णन, पुष्पावत्रय, जलक्रीड़ा आदिके प्रसंग आये हैं 1 नेमिनाथके पराक्रमको देखकर कृष्णको ईर्ष्या हुई और वे उन्हें किसी प्रकार विरक्त करने के लिए प्रयास करने लगे । जूनागढ़के राजाकी पुत्री राजीमतिके साथ नेमिनाथका विवाह निश्चित हुआ। बारात सजधज कर जूनागढ़ने निकट पहुँचती है। और नेमिनाथकी दृष्टि पाश्र्ववर्ती बाड़ोंमें बन्द चीत्कार करते हुए पशुओंपर पड़ती है। उनके दयालु हृदयको वेदना होती है और वे कहते हैं यदि मेरे विवाहके निमित्त इतने पशुओंका जीवन संकटमें है सो ऐमा विवाह करना मैंने छोड़ा।
पशुओंको छुड़वाकर रथसे उत्तर कंकण और मुकुट फंककर बे बनको ओर चल देते हैं । इस समाचारसे बारात में कोहराम मच जाता है। राजमती मूर्छा खाकर गिर पड़ती है। लोगोंने नेमिनाथको लौटानेका प्रयत्न किया, किन्तु सब व्यर्थ हुआ। वे पासमें स्थित ऊर्जयन्तगिरिपर चले जाते हैं। और सहस्नान
वनमें वस्त्रालंकारका त्यागकर दिगम्बरमुद्रा धारण कर लेते हैं ।
तीसरी सन्धिमें राजमतिकी वियोगावस्थाका चित्रण है । कविने बड़ी सहृद यत्ता और सहानुभूतिके साथ राजमतिकी करुण भावनाओंका चित्रण किया है। राजमति भी विरक्त हो जाती है और वह भी तपश्चरण द्वारा आत्म-साधनामें प्रवृत्त हो जाती है।
चतुर्थ संधिमें तपश्चर्याक द्वारा नेमिनाथको केवलज्ञानको प्राप्ति होनेका कथन आया है। की समवारपासभामागोजित होती है ! ले प्राणिकल्या णार्थ धर्मोपदेश देते हैं और अन्समें निर्वाण प्राप्त करते हैं। कबिने संसारकी विवशताका सुन्दर चित्रण किया है । कवि कहता है
जमु मेहि अण्णु तमु अरुइ होइ, जसु भोजसत्ति तसु ससु ण होइ ।
जसु दाण छाहु तसु दविणु त्यि, जसु दविणु तासु अइ-लोह अस्थि ।
जसु मयण राउ तसि पत्थि भाम, जसु भाम तसु छवण काम ॥३२
अर्थात् जिस मनुष्य के घरम अन्न भरा हुआ है उसे भोजनके प्रति अरुचि है। जिसमें भोजन पकाने की शक्ति है उसे शास्य-अन्न नहीं। जिसमें दानका उत्साह है उसके पास धन नहीं। जिसके पास धन है उसमें अतिलोभ है। जिसमें कामका प्रभुत्व है उसके भार्या नहीं। जिसके पास भार्या है उसका काम शान्त है।
कविने सुभाषितोंका भी प्रयोग यथास्थान किया है। इनके द्वारा उसने काव्यको सरस बनाने को पूरी चेष्टा की है।
कि जीयइ धम्म-विवज्जिएण-धर्मरहित जीनेसे क्या प्रयोजन ?
कि सुउई संगरि कापरेण--युद्ध कायर सुभटोसे क्या ?
कि वयण असच्चा भासणेण-झूठ बचन बोलनेसे क्या प्रयोजन है ?
कि पुत्तइ गोत्त-बिणासण-कुलका नाश करनेवाले पुरसे क्या ?
कि फुल्लई गंध-विज्जिएण-न्धिरहित फूलसे क्या ?
इस ग्रन्थमें श्रावकाचार और मुनि-आचारका भी वर्णन आया है।
Acharyatulya Laxmandev (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 18 May 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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