हैशटैग
#Maanikyaraj
१६वीं शताब्दीके अपभ्रंशकाव्य-निर्माताओंमें माणिक्य राजका महत्त्व पूर्ण स्थान है। ये बहसूरा-बधसूरा) के पुत्र थे। जायस अथवा जयसवाल कुलरूपी कमलोंको प्रफुल्लित करनेके लिए सूर्य थे। इनकी माताका नाम दोवा देवी था । 'णायकुमारचरिउकी प्रशस्तिमें कविने अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है
तहिं णिवसइ पंडिउ सत्यखणि, सिरिजयसवालकुलकमलसरणि ।
इशखाकुवंस-महियवलि-वरिठ, बहसुरा-गंदणु सुयरिट्छु ।
उप्पण्णाउ दोबा-तपरिखाणु, बह माणिकुराये बुइहिमाणु ।
कवि माणिक्यराजने अमरसेन-चरितमें अपनी गुरुपरम्पराका निर्देश करते हुए लिखा है
"तव-तेय-णियत्ता किमल खीण, सिरिखेमकित्ति पट्टहि पवीण ।
सिरिहेमकित्ति जि यउ वाम, तहुं पट्टीव कुमर वि सेग णाम् ।
णिग्गथु दयाल उ जा बरिष्ट , जि कहिउ जिगागमभेउ सुट्छु ।
तड पट्टि विलि बुहपहाणु, सिरिहेमचंदु मय-तिमिर-भाणु ।
तं पट्टि धुरंधर वयपाणु, वर पोमणदि जो तबह खोणु ।
सं पणविदिणियगुरुसोलखाणि, णिग्मंथु दयाल अभियवाणि ।
" अर्थात् क्षेमकात्ति, हेमकीति, कुमारसेन, हेमचन्द्र और पानन्दि आचार्य हए । प्रस्तुत पद्मनन्दि तपस्वी, शालेको खान, निथ, दयालु और अमृतवाणी थे। ये पचनन्दि हो माणिक्य राजके गुरु थे।
अमरसेनप्रन्थकी अन्तिम प्रशस्तिमें पचनन्दिके एक और शिष्यका उल्लेख आया है, जिसका नाम देवनन्दि है। ये देवनन्दि श्रावकको एकादश प्रतिमाओंके पालन करनेवाले राग-द्वेष-मद-मोहके विनाशक, शुभध्यानमें अनुरक्त और उपशमभावो थे । इस ग्रन्धका प्रणयन रोहतकके पाश्वनाथ मन्दिरमें हुआ है ।
कवि माणिक्यराज अपभ्रंशके लब्धप्रतिष्ठ कवि हैं और इनका व्यक्तित्व सभी दृष्टियोंसे महनीय है।
कविने अमरसेनचरितकी रचना वि० सं० १५७६ चैत्र शुक्ला पंचमी शनिवार और कृतिका नक्षत्रम पूर्ण की है। ग्रन्थ को प्रशस्तिमें उबत रचना. कालका विवरण अंकित मिलता है
"विक्कमरायहु बवगई कालई, लसु मुगीस विसर अंकालाई ।
धरणि अंक सङ्घ चइत बिमाणे, सणिवारें सुय पंचर्चाम-दिवसें ।
कित्तिय वखत्तै सुहाएँ, हुउ उप्पण्णउ सुत्तु सुहजोएँ ।'
अमरसेनचरितके लिखने के एक वर्ष पश्चात् अर्थात् वि० सं० १५७७ को लिखी हुई प्रति उपलब्ध है। यह प्रति कात्तिक कृष्णा चतुर्थी रविवार के दिन कुरुजांगल देशके सुवर्णपथ (सुनपत) नगर में काष्ठासंघ माथुगन्वय पुष्करगणके भट्टारक गुणभद्को आम्नायमं उक्त नगरके निवासी अग्रवालवशोय भायल गोत्री साहू छर के पुत्र साहूँ बाटूके द्वारा लिखी गई।
दूसरी रचना नागकुमारचरितका प्रणयन विक्रम संवत् १५७९ में फाल्गुण शुक्ला नवमीके दिन हुआ है। इस ग्रन्थमें साहू जगसीके पुत्र साहू टोडरमलकी बहुत प्रशंसा की गई है। उसे कर्प के समान दानी, विद्वज्जनोंका सम्पोषक, रूप-लाचप्यसे युक्त और विवेको बताया है। नागकुमारपरितको रचने को प्रेरणा कविको इन्हीं टोडरमलसे प्राप्त हुई थी। अत: इस रचनाको पूर्णकर जब साहू टोडरमल के हाथमें इसे दिया गया, तो उसने इसे अपने सिरपर चढ़ापा और कवि माणिकराजका खूब सरकार किया | और उसे वस्त्राभूषण मेंट किये।
उपर्युक्त अन्यरचना-कालोसे यह स्पष्ट है कि कविका समय वि० को १६ वीं शती है।
अमरसनपरित-इस चरित-ग्रन्थ में मुनि अमरसेनका जीवनवृत्त अंकित है। कथावस्तु ७ सन्धियोंमें विभक्त है । ग्रन्थकी पाण्डुलिपि बामेर-शास्त्र. भण्डार जयपुरमें उपलब्ध है।
दुसरीकृति नागकुमारचरित है । इसमें पुण्यपुरुष नागकुमारकी कथा वणित है । कथावस्तु ९ सन्धियों में विभक्त है तथा ग्रंथप्रमाण ३३०० श्लोक है।
माणिक्यराजने अमरसेनचारउ नामक काध्यमें ग्वालियर नगरका पंगेन किया है। इस वर्णनका अनुसरण महाकवि रइधूके ग्वालियरनगर-वर्णनसे किया गया है। यहाँ उदाहरणार्थ रबध विरचित पासणाहरित और अमर सेनचरिउकी पंक्तियाँ तुलनाहेतु प्रस्तुत की जा रही हैं
महिबीडि पहाण णं गिरिरण, सुरह वि मणि विभव पिउँ ।
कड़सीसहिं मंडिज णं इहु पंडिउ, गोपायलु गामें मणि ।
-रइधुकृत पासणाहरि शरा१५-१६
महोबीढि पहाणउँ गुण-चरिद्छु, सुरहँ वि मणि विमर जणइ सुद्छु ।
वरतिगिणसालमंडिज पवितु, पांदह पंडिउ सुरपारपत्तु ।
-अमरसेनचरिउ १२३११-१८
कवि माणिकराजको भाषा-शैली पुष्ट है तथा चरित-कायोचित सभी गुण पाये जाते हैं।
१६वीं शताब्दीके अपभ्रंशकाव्य-निर्माताओंमें माणिक्य राजका महत्त्व पूर्ण स्थान है। ये बहसूरा-बधसूरा) के पुत्र थे। जायस अथवा जयसवाल कुलरूपी कमलोंको प्रफुल्लित करनेके लिए सूर्य थे। इनकी माताका नाम दोवा देवी था । 'णायकुमारचरिउकी प्रशस्तिमें कविने अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है
तहिं णिवसइ पंडिउ सत्यखणि, सिरिजयसवालकुलकमलसरणि ।
इशखाकुवंस-महियवलि-वरिठ, बहसुरा-गंदणु सुयरिट्छु ।
उप्पण्णाउ दोबा-तपरिखाणु, बह माणिकुराये बुइहिमाणु ।
कवि माणिक्यराजने अमरसेन-चरितमें अपनी गुरुपरम्पराका निर्देश करते हुए लिखा है
"तव-तेय-णियत्ता किमल खीण, सिरिखेमकित्ति पट्टहि पवीण ।
सिरिहेमकित्ति जि यउ वाम, तहुं पट्टीव कुमर वि सेग णाम् ।
णिग्गथु दयाल उ जा बरिष्ट , जि कहिउ जिगागमभेउ सुट्छु ।
तड पट्टि विलि बुहपहाणु, सिरिहेमचंदु मय-तिमिर-भाणु ।
तं पट्टि धुरंधर वयपाणु, वर पोमणदि जो तबह खोणु ।
सं पणविदिणियगुरुसोलखाणि, णिग्मंथु दयाल अभियवाणि ।
" अर्थात् क्षेमकात्ति, हेमकीति, कुमारसेन, हेमचन्द्र और पानन्दि आचार्य हए । प्रस्तुत पद्मनन्दि तपस्वी, शालेको खान, निथ, दयालु और अमृतवाणी थे। ये पचनन्दि हो माणिक्य राजके गुरु थे।
अमरसेनप्रन्थकी अन्तिम प्रशस्तिमें पचनन्दिके एक और शिष्यका उल्लेख आया है, जिसका नाम देवनन्दि है। ये देवनन्दि श्रावकको एकादश प्रतिमाओंके पालन करनेवाले राग-द्वेष-मद-मोहके विनाशक, शुभध्यानमें अनुरक्त और उपशमभावो थे । इस ग्रन्धका प्रणयन रोहतकके पाश्वनाथ मन्दिरमें हुआ है ।
कवि माणिक्यराज अपभ्रंशके लब्धप्रतिष्ठ कवि हैं और इनका व्यक्तित्व सभी दृष्टियोंसे महनीय है।
कविने अमरसेनचरितकी रचना वि० सं० १५७६ चैत्र शुक्ला पंचमी शनिवार और कृतिका नक्षत्रम पूर्ण की है। ग्रन्थ को प्रशस्तिमें उबत रचना. कालका विवरण अंकित मिलता है
"विक्कमरायहु बवगई कालई, लसु मुगीस विसर अंकालाई ।
धरणि अंक सङ्घ चइत बिमाणे, सणिवारें सुय पंचर्चाम-दिवसें ।
कित्तिय वखत्तै सुहाएँ, हुउ उप्पण्णउ सुत्तु सुहजोएँ ।'
अमरसेनचरितके लिखने के एक वर्ष पश्चात् अर्थात् वि० सं० १५७७ को लिखी हुई प्रति उपलब्ध है। यह प्रति कात्तिक कृष्णा चतुर्थी रविवार के दिन कुरुजांगल देशके सुवर्णपथ (सुनपत) नगर में काष्ठासंघ माथुगन्वय पुष्करगणके भट्टारक गुणभद्को आम्नायमं उक्त नगरके निवासी अग्रवालवशोय भायल गोत्री साहू छर के पुत्र साहूँ बाटूके द्वारा लिखी गई।
दूसरी रचना नागकुमारचरितका प्रणयन विक्रम संवत् १५७९ में फाल्गुण शुक्ला नवमीके दिन हुआ है। इस ग्रन्थमें साहू जगसीके पुत्र साहू टोडरमलकी बहुत प्रशंसा की गई है। उसे कर्प के समान दानी, विद्वज्जनोंका सम्पोषक, रूप-लाचप्यसे युक्त और विवेको बताया है। नागकुमारपरितको रचने को प्रेरणा कविको इन्हीं टोडरमलसे प्राप्त हुई थी। अत: इस रचनाको पूर्णकर जब साहू टोडरमल के हाथमें इसे दिया गया, तो उसने इसे अपने सिरपर चढ़ापा और कवि माणिकराजका खूब सरकार किया | और उसे वस्त्राभूषण मेंट किये।
उपर्युक्त अन्यरचना-कालोसे यह स्पष्ट है कि कविका समय वि० को १६ वीं शती है।
अमरसनपरित-इस चरित-ग्रन्थ में मुनि अमरसेनका जीवनवृत्त अंकित है। कथावस्तु ७ सन्धियोंमें विभक्त है । ग्रन्थकी पाण्डुलिपि बामेर-शास्त्र. भण्डार जयपुरमें उपलब्ध है।
दुसरीकृति नागकुमारचरित है । इसमें पुण्यपुरुष नागकुमारकी कथा वणित है । कथावस्तु ९ सन्धियों में विभक्त है तथा ग्रंथप्रमाण ३३०० श्लोक है।
माणिक्यराजने अमरसेनचारउ नामक काध्यमें ग्वालियर नगरका पंगेन किया है। इस वर्णनका अनुसरण महाकवि रइधूके ग्वालियरनगर-वर्णनसे किया गया है। यहाँ उदाहरणार्थ रबध विरचित पासणाहरित और अमर सेनचरिउकी पंक्तियाँ तुलनाहेतु प्रस्तुत की जा रही हैं
महिबीडि पहाण णं गिरिरण, सुरह वि मणि विभव पिउँ ।
कड़सीसहिं मंडिज णं इहु पंडिउ, गोपायलु गामें मणि ।
-रइधुकृत पासणाहरि शरा१५-१६
महोबीढि पहाणउँ गुण-चरिद्छु, सुरहँ वि मणि विमर जणइ सुद्छु ।
वरतिगिणसालमंडिज पवितु, पांदह पंडिउ सुरपारपत्तु ।
-अमरसेनचरिउ १२३११-१८
कवि माणिकराजको भाषा-शैली पुष्ट है तथा चरित-कायोचित सभी गुण पाये जाते हैं।
#Maanikyaraj
आचार्यतुल्य माणिक्यराज 16वीं शताब्दी (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 23 मई 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 23 May 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
१६वीं शताब्दीके अपभ्रंशकाव्य-निर्माताओंमें माणिक्य राजका महत्त्व पूर्ण स्थान है। ये बहसूरा-बधसूरा) के पुत्र थे। जायस अथवा जयसवाल कुलरूपी कमलोंको प्रफुल्लित करनेके लिए सूर्य थे। इनकी माताका नाम दोवा देवी था । 'णायकुमारचरिउकी प्रशस्तिमें कविने अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है
तहिं णिवसइ पंडिउ सत्यखणि, सिरिजयसवालकुलकमलसरणि ।
इशखाकुवंस-महियवलि-वरिठ, बहसुरा-गंदणु सुयरिट्छु ।
उप्पण्णाउ दोबा-तपरिखाणु, बह माणिकुराये बुइहिमाणु ।
कवि माणिक्यराजने अमरसेन-चरितमें अपनी गुरुपरम्पराका निर्देश करते हुए लिखा है
"तव-तेय-णियत्ता किमल खीण, सिरिखेमकित्ति पट्टहि पवीण ।
सिरिहेमकित्ति जि यउ वाम, तहुं पट्टीव कुमर वि सेग णाम् ।
णिग्गथु दयाल उ जा बरिष्ट , जि कहिउ जिगागमभेउ सुट्छु ।
तड पट्टि विलि बुहपहाणु, सिरिहेमचंदु मय-तिमिर-भाणु ।
तं पट्टि धुरंधर वयपाणु, वर पोमणदि जो तबह खोणु ।
सं पणविदिणियगुरुसोलखाणि, णिग्मंथु दयाल अभियवाणि ।
" अर्थात् क्षेमकात्ति, हेमकीति, कुमारसेन, हेमचन्द्र और पानन्दि आचार्य हए । प्रस्तुत पद्मनन्दि तपस्वी, शालेको खान, निथ, दयालु और अमृतवाणी थे। ये पचनन्दि हो माणिक्य राजके गुरु थे।
अमरसेनप्रन्थकी अन्तिम प्रशस्तिमें पचनन्दिके एक और शिष्यका उल्लेख आया है, जिसका नाम देवनन्दि है। ये देवनन्दि श्रावकको एकादश प्रतिमाओंके पालन करनेवाले राग-द्वेष-मद-मोहके विनाशक, शुभध्यानमें अनुरक्त और उपशमभावो थे । इस ग्रन्धका प्रणयन रोहतकके पाश्वनाथ मन्दिरमें हुआ है ।
कवि माणिक्यराज अपभ्रंशके लब्धप्रतिष्ठ कवि हैं और इनका व्यक्तित्व सभी दृष्टियोंसे महनीय है।
कविने अमरसेनचरितकी रचना वि० सं० १५७६ चैत्र शुक्ला पंचमी शनिवार और कृतिका नक्षत्रम पूर्ण की है। ग्रन्थ को प्रशस्तिमें उबत रचना. कालका विवरण अंकित मिलता है
"विक्कमरायहु बवगई कालई, लसु मुगीस विसर अंकालाई ।
धरणि अंक सङ्घ चइत बिमाणे, सणिवारें सुय पंचर्चाम-दिवसें ।
कित्तिय वखत्तै सुहाएँ, हुउ उप्पण्णउ सुत्तु सुहजोएँ ।'
अमरसेनचरितके लिखने के एक वर्ष पश्चात् अर्थात् वि० सं० १५७७ को लिखी हुई प्रति उपलब्ध है। यह प्रति कात्तिक कृष्णा चतुर्थी रविवार के दिन कुरुजांगल देशके सुवर्णपथ (सुनपत) नगर में काष्ठासंघ माथुगन्वय पुष्करगणके भट्टारक गुणभद्को आम्नायमं उक्त नगरके निवासी अग्रवालवशोय भायल गोत्री साहू छर के पुत्र साहूँ बाटूके द्वारा लिखी गई।
दूसरी रचना नागकुमारचरितका प्रणयन विक्रम संवत् १५७९ में फाल्गुण शुक्ला नवमीके दिन हुआ है। इस ग्रन्थमें साहू जगसीके पुत्र साहू टोडरमलकी बहुत प्रशंसा की गई है। उसे कर्प के समान दानी, विद्वज्जनोंका सम्पोषक, रूप-लाचप्यसे युक्त और विवेको बताया है। नागकुमारपरितको रचने को प्रेरणा कविको इन्हीं टोडरमलसे प्राप्त हुई थी। अत: इस रचनाको पूर्णकर जब साहू टोडरमल के हाथमें इसे दिया गया, तो उसने इसे अपने सिरपर चढ़ापा और कवि माणिकराजका खूब सरकार किया | और उसे वस्त्राभूषण मेंट किये।
उपर्युक्त अन्यरचना-कालोसे यह स्पष्ट है कि कविका समय वि० को १६ वीं शती है।
अमरसनपरित-इस चरित-ग्रन्थ में मुनि अमरसेनका जीवनवृत्त अंकित है। कथावस्तु ७ सन्धियोंमें विभक्त है । ग्रन्थकी पाण्डुलिपि बामेर-शास्त्र. भण्डार जयपुरमें उपलब्ध है।
दुसरीकृति नागकुमारचरित है । इसमें पुण्यपुरुष नागकुमारकी कथा वणित है । कथावस्तु ९ सन्धियों में विभक्त है तथा ग्रंथप्रमाण ३३०० श्लोक है।
माणिक्यराजने अमरसेनचारउ नामक काध्यमें ग्वालियर नगरका पंगेन किया है। इस वर्णनका अनुसरण महाकवि रइधूके ग्वालियरनगर-वर्णनसे किया गया है। यहाँ उदाहरणार्थ रबध विरचित पासणाहरित और अमर सेनचरिउकी पंक्तियाँ तुलनाहेतु प्रस्तुत की जा रही हैं
महिबीडि पहाण णं गिरिरण, सुरह वि मणि विभव पिउँ ।
कड़सीसहिं मंडिज णं इहु पंडिउ, गोपायलु गामें मणि ।
-रइधुकृत पासणाहरि शरा१५-१६
महोबीढि पहाणउँ गुण-चरिद्छु, सुरहँ वि मणि विमर जणइ सुद्छु ।
वरतिगिणसालमंडिज पवितु, पांदह पंडिउ सुरपारपत्तु ।
-अमरसेनचरिउ १२३११-१८
कवि माणिकराजको भाषा-शैली पुष्ट है तथा चरित-कायोचित सभी गुण पाये जाते हैं।
Acharyatulya Maanikyaraj 16th Century (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 23 May 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
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