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#RaighuPrachin
महाकवि रइघु ड्के पिताका नाम हरिसिंह और पितामहका नाम संधपत्ति देवराज था। इनकी मां का नाम विजयश्री और पलीका नाम सावित्री था। इन्हें सावित्रीके गर्भसे उदयराज नामक पुत्र भी प्राप्त था। जिस समय उदयराजका जन्म हुआ, उस समय कबि अपने 'मिणारिउ' की रचना कर रहा था। रइघु पद्मावतीपुरबालवंशमें उत्पन्न हुए थे। इनका अपरनाम सिंहसेन भी बताया जाता है । रइधू अपने माता-पिताके तुतीय पुत्र थे। इनके अन्य दो बड़े भाई भी थे, जिनके नाम क्रमशः बहोल और मानसिंह थे। रइधू काष्ठासंघ माथुर गच्छकी पुष्करमणीय शाखासे.सम्बद थे।
रइघु के ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों से अवगत होता है कि हिसार, रोहतक, कुरुक्षेत्र, पानीपत, ग्वालियर, सोनीपत और योगिनीपुर आदि स्थानोंके श्रावकोंमें उनकी अच्छी प्रतिष्ठा थी। वे अन्य-रचनाके साथ मूर्ति-प्रतिष्ठा एवं अन्य क्रिया काण्ड भी करते थे। रइधुके बालमित्र कमलसिंह संघवीने उन्हें बिम्ब प्रतिष्ठाकारक कहा है। गृहस्थ होने पर भी कवि प्रतिष्ठाचार्यका कार्य सम्पन्न करता था।
कविके निवास स्थानके सम्बन्धमें निश्चित रूपसे कुछ नहीं कहा जा सकता है । पर बालियर, उज्जयिनीके उनके भौगोलिक वर्णनको देखनेसे यह अनुमान सहज में लगाया जा सकता है कि कविको जन्मभूमि ग्वालियरके आसपास कहीं होनी चाहिये; क्योंकि उसने ग्वालियरकी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थितियोंका जैसा विस्तृत वर्णन किया है उससे नगरीके प्रति कविका आकर्षण सिद्ध होता है । अतएव कधिका जन्मस्थान ग्वालियर के आसपास होनी चाहिये ।
रइघु ने अपने गुरुके रूपमें भट्टारक गुणकीर्ति, यश:कीति, श्रीपाल ब्रह्म, कमलकीति, शुभचन्द्र और भट्टारक कुमारसनका स्मरण किया है। इन भट्टा रकोंके आशीर्वाद और प्रेरणासे कविने विभिन्न कृतियोंकी रचना की है।
महाकवि रइघु ने अपनी रचनाओं की प्रशस्तियों में उनके रचनाकालपर प्रकाश डाला है। अभिलेखों और परवर्ती साहित्यकारोंके स्मरणसे भी करिके समय पर प्रकाश पड़ता है।कविने'सम्मत्तगुणनिहाणकन्य'को प्रशस्ति में इस ग्रन्ध का रचनाकाल वि० सं० १४६९ भाद्रपद शुक्ला पूणिमा मंगलबार दिया है । 'सुक्कोमलचरित' का रचनाकाल वि० सं० १४९६ अंकित है 1 रइधु-साहित्यमें गणेशनृपसुत राजा डोंगरसिंहका विस्तृत वर्णन आया है। रके 'सम्मइ जिणारउ के एक उल्लेख के अनुसार वह उस समय ग्वालियर दुर्गम ही निवास कर रहा था। इससे ज्ञात होता है कि डोंगर सिंहका राज्यकाल वि० सं० १४. ८२-१५११ है । अत: 'सम्मइजिणचरिउ' की रचना भी इसी समय हुई होगी।
वि० सं० १४२.७ का एक मूत्तिलेख उपलब्ध है, जिसमें कवि रइधूको प्रतिष्ठाचार्य कहा गया है। 'सुक्कोसलचरिउ' के पूर्व कवि रिण मिचरिउ', 'पासणाहरित', 'बलहद्दचरिउ', 'तेसट्टिमहापुरिसचरिड', 'मेहेसरचरिउ', 'जसहरचरिउ', 'वित्तसार', 'जीबंधरचरिउ', 'सावयारउ' और 'महापुराण'
की रचना कर चुका था।
महाकवि रइघु ने 'धण्णकुमारचरित' की रचना गुरु गुणकीति भट्टारकके आदेशसे की है और गुणकीर्तिका समय अनुमानतः वि० सं० १४५७-१४८६ के मध्य है। कवि महिंदुने अपने 'संतिणाहचरिउ'में अपने पूर्ववर्ती कवियोंके साथ रइधूका भी उल्लेख किया है। इससे यह सिद्ध है कि रइध वि० सं० १९८७ के पूर्व ल्यात हो चुके थे।
श्री डॉ. राजाराम जैनने रइध-साहित्यके अध्ययनके आधारपर निम्न लिखित निष्कर्ष उपस्थित किये हैं
१. महाकवि रइघुने भट्टारक गुणकीतिको अपना गुरु माना है। पद्मनाभ कायस्थने भी राजा बीरमदेव तोमर के मन्त्री कुशराज के लिये भट्टारक गुणकोति के आदेशोपदेशसे 'दयासुन्दरकान्य' ( यशोधरचरित ) लिखा था। बीरमदेव तोमरका समय वि० सं०१४५७-१४७६ है । अत: गुणकोतिका भी प्रारंभिक काल उसे माना जा सकता है। अतः वि० सं० १४५७ रइधुके रचनाकालकी पूर्वावधि सिद्ध होती है।
२. रइघु ने कमलकीत्तिके शिष्य भट्टारक शुभचन्द्र तथा दूंगरसिंहके पुत्र राजा कीतिसिंहके कालकी घटनाओंके बाद अन्य किसी भी राजा या भट्टारक अथवा अन्य किसी भी घटनाका उल्लेख नहीं किया, जिससे विदित होता है कि उक्त भट्टारक एवं राजा कौत्तिसिंहका समय ही रइधूका साहित्यिक अथवा जीवनका अन्तिम काल रहा होगा। राजा कीतिसिंह सम्बन्धी अन्तिम उल्लेख वि० सं० १५३६ का प्राप्त होता है। अतः यही रहधूकालको उत्तराधि स्थिर होती है।
इस प्रकार रइघुका रचनाकाल वि० सं० १४५७-१५३६ सिद्ध होता है।
महापानि रइधने अकेले ही विपुल परिमाणमें प्रन्थोंकी रचना की है। इसे महाकवि न कहनार एक पुस्तकालय-रचयिता कहा जा सकता है।
डा० राजाराम जैनने विभिन्न स्रोतोंके आधारपर अभी तक कविकी ३७ रचनाओंका अन्वेषण किया है ।।
१. मेहेसरचारक (अपरनाम आदिपुराण), २. मिणाहरित (अपरनाम रिट्ठमि रउ), ३. 'पासणाहरिज, ४, सम्मइजिणचरिउ, ५. तिमट्टिमहा पुरिस रउ, ६. महापुराण, ७. बलहद्दचरिउ, ८. हरिवंशपुराण, २. श्रीपाल चरित, १०, प्रद्युम्नचरित, ११. वृत्तसार, १२. कारणगुणषोडशी, १३. दशलक्षण जयमाला, १४. रत्नत्रयी, १५, षड्धर्मोपदेशमाला, १६ भविष्यदत्तचरित, १७. करकंडुचरित, १८. आत्मसम्बोधकान्य, १९. उपदेशरत्नमाला, २०. जिमंधर चरित, २१. पुण्याश्रवकथा, २२. सम्यक्त्वगुणनिधानकाव्य, २३. सम्यग्गणारोहण काव्य, २४. षोडशकारणजयमाला, २५. बारहभावना (हिन्दी), २६. सम्बोध पंचाशिका, २७. धन्यकुमारचरित, २८. सिद्धान्तार्थसार, २९. बृत्सिद्धचक्रपूजा (संस्कृत), ३०. सम्यक्त्वभावना, ३१. जसहरचरिज, ३२ जीणंधरचरित, ३३. कोमुइकहापबंधु, ३४. सुक्कोसलचरित, ३५. सुदंसणचरिउ, ३६, सिद्धचक्क माहप्प, ३७. अणमउकहा ।।
कविको रचना करनेको प्रेरणा सरस्वतीसे प्राप्त हुई थी। कहा जाता है कि एक दिन कवि चिन्तित अवस्थामें रात्रिमं सोया । स्थानमें सरस्वतीने दर्शन दिया और काव्य रचनेकी प्रेरणा दी । कबिने लिखा है
सिविणंतरे दिट्ठ सुयदेवि सुपसम्या ।
आहासए तुज्झ हङ जाए सुपसण्ण ।।
परिहरहि मर्णाचत करि भब्यु णिसु कन्षु ।
खलयणई मा डरहि भउ हरिउ मई सब्ब ।।
तो देविवरण पडिउवि साणंदु ।
तक्खणेण संयणाल उलिउ जि गय-तंदु ।
सम्मइ०-१२-४ । अर्थात् प्रमुदितमना सरस्वतीदेवीने स्वप्नमें दर्शन दिया और कहा कि मैं तुमपर प्रसन्न हूँ | मनकी समस्त चिन्ताएं छोड़ हे भव्य ! तुम निरंतर काव्य रचना करते रहो । दुर्जनोंसें भय करने की आवश्यकता नहीं, क्यों कि भय सम्पूर्ण बुद्धिका आहरण कर लेता है। कवि कहता है कि मैं सरस्वतीके वचनोंसे प्रति बुद्ध होकर आनन्दित हो उठा और काव्य-रचनामें प्रवृत्त हा गया | कविकी रचनाओंके प्रेरक अनेक श्रावक रहे हैं, जिससे कवि इतने विशाल-साहित्यका निर्माण कर सका है।
पासणाहचरिङ'में कविने २३वे तीर्थकर पार्श्वनाथकी कथा निबद्ध की है। यह ग्रन्थ डॉ राजाराम जैन द्वारा सम्पादित होकर शोलापुर दोसी-ग्रन्ध मालासे प्रकाशित है। यह कविका पौराणिक महाकाव्य है। कविने इसम पार्श्वनाथकी साधनाके अतिरिक्त उनके शौर्य, बीर्य, पराक्रम आदि गुणोंको भी उद्घाटित किया है। काव्यके संवाद रुचिकर हैं और उनसे पात्रोके चरित्र पर पूरा प्रकाश पड़ता है। रइन्चकी समस्त कृत्तियों में यह रचना अधिक सरस और काव्यगुणोंसे युक्त है । कथावस्तु सात सन्धियों में विभक्त है।
णेमिणाहचरिज' में रखें तीर्थकर नेमिनाथका जीवन पणित है। इसकी कथावस्तु १४ सन्धियोंमें विभक्त है और ३०२ कड़बक हैं। इस पौराणिक महा काव्य में भी रस, अलंकार आदिकी योजमा हुई है। इसमें ऋपभदेव, और बर्द्धमानका भी कथन आया है। प्रसंगवश भरत चक्रवर्ती, भोगभूमि, कर्म भूमि, स्वर्ग, नरक, य, समुद्र, भरत, ऐशवतादि क्षेत्र, पट् कुलाचल, गंगा, सिन्धु आदि नदियाँ, रत्नत्रय, पंचाणुव्रत, तीन गुणात, चार शिक्षानत, अष्ट मूलगुण, बद्रव्य एवं थावकाचार आदिका निरूपण किया गया है। भुनिधर्म के वर्णन-प्रसंग में ५ समिति, ३ गुप्ति, १० धर्म द्वादश अनुप्रेक्षा, २२ परीषहजय और षडावश्यकका कथन आया है । इसप्रकार यह काव्य दर्शन और पुराण तत्त्वकी दृष्टिसे भी समृद्ध है।
सम्मजिणचरिउ'-इस काव्य में अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीरका जीवनचरित मुम्फित है। कविने दर्शन, ज्ञान और चारित्रको चर्चाके अनन्तर वस्तुवर्णनोंको भी सरस बनाया है। महावीर शंशव-कालमें प्रवेश करते हैं। माता-पिता स्नेहवश उन्हें विविध-प्रकारके वस्त्राभूषण धारण कराते हैं। कवि इस मार्मिक प्रसंगका वर्णन करता हुआ लिखता है
सिरि-सेहरु गिरूवमु रयणु-अडिउ । कुडल-जुउ सरेणि सुरेण घडिउ ।
भालयलि-तिलउ गलि कुसुममाल | कंकहि हत्यु अलिगण खल ॥
किकिणिहि-सह-मोहिय-कुरंग । कडि-मेहलडिकदेहि अभंग ।।
तह कट्टाफ दि मणि छुरियबंतु । जरु-हार अहारहिँ सहतु ।
वर-सज्जिय पाहि पइट्ठ ! अंगुलिय समुद्दादय गुणछ ।
-सम्मइ.-५/२३१५-१।
इस काव्यमें जयकुमार और सुलोचनाकी कथा अंकित है । इस ग्रन्थमें कुल १३ सन्धियाँ ३७४ कड़वक और १२ संस्कृत पद्य हैं । यद्यपि इसमें मेघेश्वरको कथा अंकित की गई है, पर कविने उसमें अपनी विशेषता भी प्रदर्शित की है । वह गंमा नदीमें निमग्न हाथीपरमे सुलोचनाको जलमें गिरा देता है । आचार्य जिनसेन अपने महापुराणमें सुलोचनासे केवल चीत्कार कराके ही गङ्गा देवी द्वारा हाथीका उद्धार करा देते हैं। पर महाकवि रधु इस प्रसंगको अत्यन्त मार्मिक बनाने के लिए सती-साध्वी नायिका सुलोचनाको करुण चीत्कार करते हुए मूच्छित रूपमें अंकित करते हैं। पश्चात् उसके सतीत्वको उद्दाम व्यंजनाके हेतु उसे हाथीपरमे गङ्गाके भयानक गर्तमें गिरा देते हैं । नायिकाको प्रार्थना एवं उसके पुण्यप्रभाबसे गङ्गादेवो प्रत्यक्ष होती है और सुलोचनाका जय-जय कार करती हुई गङ्गातटपर निर्मित रलटित प्रासादमें सिंहासनपर उसे आरूढ़ कर देती है। कथानकका चरमोत्कर्ष इसी स्थानपर संपादित हो जाता है। कविने मेहसरचरिउको पौराणिक काव्य बनानेका पूरा प्रयास किया है।
श्रीपालचरितकी दो धाराएं उपलब्ध होती हैं । एक धारा दिगम्बर सम्प्र दायमें प्रचलित है और दूसरी श्वेताम्बर सम्प्रदायमें । दोनों सम्प्रदायोंकी कथा वस्तु में निम्नलिखित अन्तर है--
१. माता-पिताके नाम सम्बन्धी अन्तर ।
२. श्रीपालकी राजगदी और रोग सम्बन्धी अन्तर ।
३. माँका साथ रहना तथा वैद्य सम्बन्धी अन्तर ।
४. मदनसुन्दरी विवाह सम्बन्धी अन्तर ।
५. मदनादि कुमारियोंकी माता तथा कुमारियोंके नामों में अन्तर ।
६. विवाहके बाद श्रीपालके भ्रमण में अन्तर ।
७. श्रीपालका माता एवं पत्नीसे सम्मेलनमें अन्तर ।
श्रीपालचरित एक पौराणिक चरित-काव्य है । कविने श्रीपाल और नयना सुन्दरोके आख्यानको लेकर सिद्धचक्रविधानके महत्त्वको अकित किया है। यह विधान बड़ा ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है और उसके द्वारा कुष्ठ जैसे रोगोंको दूर किया जा सकता है। नयनासुन्दरी अपने पिताको निर्भीकतापूर्वक उत्तर देती हुई कहती है
भो ताय-ताय पई णिरु अजुतु । जंपियज ण मुणियउ जिणहु सुत्तु ।
बरकुलि उवण्ण जा कण्ण होइ । सा लज्ज |मेल्लइ एच्छ लोय ।
वाद-विवाउ नउ जत्तु ताउ ।तह पुणु तुअ अनवमि णिणि राय ।
बिहुलोयविरुद्ध एहु कम्मु ।जं सु सईवरु मिण्हह सुछम्म ।
जइ मण इच्छइ किज्जइ विवाहु ।तो लोयसुहिला इहु पवाहु ।
अर्थात् हे पिलाजी, आपने जिलागमके किन हो मुनपने आप अपने पलिके चुनाव कर देनेका आदेश दिया है, किन्तु जो कन्याएं कुलीन होती हैं वे कभी भी ऐसी निलंजताका कार्य नहीं कर सकतीं । हे पिताजी, मैं इस सम्बन्ध में वाद-विवाद भी नहीं करना चाहती। अतएव हे राजन, मेरी प्रार्थना ध्यान पूर्वक सुनें | आपका यह कार्य लोक-बिरुद्ध होगा कि आपकी कन्या स्वयं अपने पतिका निर्वाचन करे । अतः मुझसे कहे बिना ही आपकी इच्छा जहाँ भी हो, वहीं पर मेरा विवाह कर दें।
नयनासुन्दरीको भवितव्यता पर अपूर्व विश्वास है। वह स्वयंकृत कर्मोक फलभोगको अनिवार्य समझती है। कविने प्रसंगवश सिद्धचक्रमहात्म्य, नवकार महात्म्य, पुण्यमहात्म्य, सम्यक्त्वमहात्म्य, उपकारमहिमा एवं धर्मानुष्ठानका महात्म्य बतलाया है। इस प्रकार यह रचना व्रतानुष्ठानकी दृष्टिसे भी महत्त्व पूर्ण है।
इस ग्रन्थमें रामकथा बर्णित है। बलभद् रामका अगर नाम है। कविने परम्परागत रामकथाको ग्रहण किया है और काव्योचित बनानेके लिए जहाँ तहाँ कथामें संशोधन और परिवर्तन भी किये हैं ।
यह लोकप्रिय आख्यान है । कवि रइधूने चार सन्धियों और ७४ कड़वकों में
इस अन्यको पूर्ण किया है। पुण्यपुरुष सुकोसलको कथा वर्णित है।
कविने धन्यकुमारके चरितको लेकर खण्डकाव्यको रचना की है । इस काव्य ग्रन्थमें बताया गया है कि पुण्यके उदयसे व्यक्तिको सभी प्रकारकी सामग्रियाँ प्राप्त होती हैं। कविने धर्म-महिमा, कर्म-महिमा, पुष्य-महिमा, उद्यम-महिमा,आदिका चित्रण किया है।
यह अध्यात्म और आचारमूलक काव्य है। इसमें कविने सम्यग्दर्शन और उसके आठ अंगोंके नामोल्लेख कर उन अंगोंको धारण करने के कारण प्रसिद्ध हुए महान् नर-नारियोंके कथानक अंकित किये हैं। अन्धमें चार सन्धियों और १०२ कड़वक हैं।
रइधुने भट्टारक कमलकीतिकी प्रेरणासे अग्रवालकुलोत्पन थीहेमराज संघ पतिके आश्रयमें रहकर इस ग्रन्थकी रचना की है । इसमें ४ सन्धियाँ और १०४ कड़वक हैं । पुण्यपुरुष यशोधरकी कथा वर्णित है ।
इस रचनामें कूल ८९३ गाथाएं हैं और ७ अंक हैं। कविने सिद्धोंको नम स्कार कर बलसार नामक ग्रन्थ लिखनेकी प्रतिज्ञा की है। इसमें सम्यग्दर्शन, १४ गुणस्थान, द्वादशवत, ११ प्रतिमा, पंचमहाव्रत, ५ समिति, षड्आवश्यक आदिके साथ कर्मोंकी समातियाँ जनादे. लसणे. कामग निशिय, प्रदेश बन्ध, अनुभागबन्ध, द्वादश अनुप्रेक्षाएं, दशधर्म, ध्यान, तीनों लोक आदिका वर्णन आया है। सिद्धान्त-विषयको समझनेके लिए यह ग्रन्ध उपयोगी है ।
इसमें १३ अंक और १९३३ गाथाएँ हैं । गुणस्थान, एकादश प्रतिमा, द्वादश व्रत, सप्त व्यसन, चतुर्विध दान, द्वादश तप, महानत, समितियाँ, पिण्डशुद्धि, उत्पाददोष, आहारदोष, संयोजनदोष, इंगारघूमदोष, दातृदोष, चतुर्दश मल प्रकार, पंचेन्द्रिय एवं मन निरोध, षड्झावश्यकः, कर्मबन्ध, कर्मप्रकृत्तियाँ, द्वादशां गभुत, द्वादशांगवाणीका वर्ण्य विषय, द्वादश अनुप्रेक्षा, दश धर्म, ध्यान आदिका वर्णन आया है।
इसमें रात्रि-भोजनत्यागका वर्णन है। तथा उससे सम्बन्धित कथा भी आई है।
इसप्रकार महाकवि रइधने काव्य, पुराण, सिद्धान्त, आचार एवं दर्शन विषयक रचनाएँ अपभ्रशमें प्रस्तुत कर अपनश-साहित्यको श्रीवृद्धि की है। श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीके पश्चात् रइधु-साहित्यको सुव्यवस्थितरूपसे प्रकाशमें लानेका श्रेय डॉ राजाराम जैनको है । महाकवि रघुने षट्धर्मोपदेश माला, उचएसरयणमाला, अप्पसंदोहकब्ध और संबोहपंचासिका जैसे आचार सम्बन्धी ग्रन्थोंकी भी रचना की है।
महाकवि रइघु ड्के पिताका नाम हरिसिंह और पितामहका नाम संधपत्ति देवराज था। इनकी मां का नाम विजयश्री और पलीका नाम सावित्री था। इन्हें सावित्रीके गर्भसे उदयराज नामक पुत्र भी प्राप्त था। जिस समय उदयराजका जन्म हुआ, उस समय कबि अपने 'मिणारिउ' की रचना कर रहा था। रइघु पद्मावतीपुरबालवंशमें उत्पन्न हुए थे। इनका अपरनाम सिंहसेन भी बताया जाता है । रइधू अपने माता-पिताके तुतीय पुत्र थे। इनके अन्य दो बड़े भाई भी थे, जिनके नाम क्रमशः बहोल और मानसिंह थे। रइधू काष्ठासंघ माथुर गच्छकी पुष्करमणीय शाखासे.सम्बद थे।
रइघु के ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों से अवगत होता है कि हिसार, रोहतक, कुरुक्षेत्र, पानीपत, ग्वालियर, सोनीपत और योगिनीपुर आदि स्थानोंके श्रावकोंमें उनकी अच्छी प्रतिष्ठा थी। वे अन्य-रचनाके साथ मूर्ति-प्रतिष्ठा एवं अन्य क्रिया काण्ड भी करते थे। रइधुके बालमित्र कमलसिंह संघवीने उन्हें बिम्ब प्रतिष्ठाकारक कहा है। गृहस्थ होने पर भी कवि प्रतिष्ठाचार्यका कार्य सम्पन्न करता था।
कविके निवास स्थानके सम्बन्धमें निश्चित रूपसे कुछ नहीं कहा जा सकता है । पर बालियर, उज्जयिनीके उनके भौगोलिक वर्णनको देखनेसे यह अनुमान सहज में लगाया जा सकता है कि कविको जन्मभूमि ग्वालियरके आसपास कहीं होनी चाहिये; क्योंकि उसने ग्वालियरकी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थितियोंका जैसा विस्तृत वर्णन किया है उससे नगरीके प्रति कविका आकर्षण सिद्ध होता है । अतएव कधिका जन्मस्थान ग्वालियर के आसपास होनी चाहिये ।
रइघु ने अपने गुरुके रूपमें भट्टारक गुणकीर्ति, यश:कीति, श्रीपाल ब्रह्म, कमलकीति, शुभचन्द्र और भट्टारक कुमारसनका स्मरण किया है। इन भट्टा रकोंके आशीर्वाद और प्रेरणासे कविने विभिन्न कृतियोंकी रचना की है।
महाकवि रइघु ने अपनी रचनाओं की प्रशस्तियों में उनके रचनाकालपर प्रकाश डाला है। अभिलेखों और परवर्ती साहित्यकारोंके स्मरणसे भी करिके समय पर प्रकाश पड़ता है।कविने'सम्मत्तगुणनिहाणकन्य'को प्रशस्ति में इस ग्रन्ध का रचनाकाल वि० सं० १४६९ भाद्रपद शुक्ला पूणिमा मंगलबार दिया है । 'सुक्कोमलचरित' का रचनाकाल वि० सं० १४९६ अंकित है 1 रइधु-साहित्यमें गणेशनृपसुत राजा डोंगरसिंहका विस्तृत वर्णन आया है। रके 'सम्मइ जिणारउ के एक उल्लेख के अनुसार वह उस समय ग्वालियर दुर्गम ही निवास कर रहा था। इससे ज्ञात होता है कि डोंगर सिंहका राज्यकाल वि० सं० १४. ८२-१५११ है । अत: 'सम्मइजिणचरिउ' की रचना भी इसी समय हुई होगी।
वि० सं० १४२.७ का एक मूत्तिलेख उपलब्ध है, जिसमें कवि रइधूको प्रतिष्ठाचार्य कहा गया है। 'सुक्कोसलचरिउ' के पूर्व कवि रिण मिचरिउ', 'पासणाहरित', 'बलहद्दचरिउ', 'तेसट्टिमहापुरिसचरिड', 'मेहेसरचरिउ', 'जसहरचरिउ', 'वित्तसार', 'जीबंधरचरिउ', 'सावयारउ' और 'महापुराण'
की रचना कर चुका था।
महाकवि रइघु ने 'धण्णकुमारचरित' की रचना गुरु गुणकीति भट्टारकके आदेशसे की है और गुणकीर्तिका समय अनुमानतः वि० सं० १४५७-१४८६ के मध्य है। कवि महिंदुने अपने 'संतिणाहचरिउ'में अपने पूर्ववर्ती कवियोंके साथ रइधूका भी उल्लेख किया है। इससे यह सिद्ध है कि रइध वि० सं० १९८७ के पूर्व ल्यात हो चुके थे।
श्री डॉ. राजाराम जैनने रइध-साहित्यके अध्ययनके आधारपर निम्न लिखित निष्कर्ष उपस्थित किये हैं
१. महाकवि रइघुने भट्टारक गुणकीतिको अपना गुरु माना है। पद्मनाभ कायस्थने भी राजा बीरमदेव तोमर के मन्त्री कुशराज के लिये भट्टारक गुणकोति के आदेशोपदेशसे 'दयासुन्दरकान्य' ( यशोधरचरित ) लिखा था। बीरमदेव तोमरका समय वि० सं०१४५७-१४७६ है । अत: गुणकोतिका भी प्रारंभिक काल उसे माना जा सकता है। अतः वि० सं० १४५७ रइधुके रचनाकालकी पूर्वावधि सिद्ध होती है।
२. रइघु ने कमलकीत्तिके शिष्य भट्टारक शुभचन्द्र तथा दूंगरसिंहके पुत्र राजा कीतिसिंहके कालकी घटनाओंके बाद अन्य किसी भी राजा या भट्टारक अथवा अन्य किसी भी घटनाका उल्लेख नहीं किया, जिससे विदित होता है कि उक्त भट्टारक एवं राजा कौत्तिसिंहका समय ही रइधूका साहित्यिक अथवा जीवनका अन्तिम काल रहा होगा। राजा कीतिसिंह सम्बन्धी अन्तिम उल्लेख वि० सं० १५३६ का प्राप्त होता है। अतः यही रहधूकालको उत्तराधि स्थिर होती है।
इस प्रकार रइघुका रचनाकाल वि० सं० १४५७-१५३६ सिद्ध होता है।
महापानि रइधने अकेले ही विपुल परिमाणमें प्रन्थोंकी रचना की है। इसे महाकवि न कहनार एक पुस्तकालय-रचयिता कहा जा सकता है।
डा० राजाराम जैनने विभिन्न स्रोतोंके आधारपर अभी तक कविकी ३७ रचनाओंका अन्वेषण किया है ।।
१. मेहेसरचारक (अपरनाम आदिपुराण), २. मिणाहरित (अपरनाम रिट्ठमि रउ), ३. 'पासणाहरिज, ४, सम्मइजिणचरिउ, ५. तिमट्टिमहा पुरिस रउ, ६. महापुराण, ७. बलहद्दचरिउ, ८. हरिवंशपुराण, २. श्रीपाल चरित, १०, प्रद्युम्नचरित, ११. वृत्तसार, १२. कारणगुणषोडशी, १३. दशलक्षण जयमाला, १४. रत्नत्रयी, १५, षड्धर्मोपदेशमाला, १६ भविष्यदत्तचरित, १७. करकंडुचरित, १८. आत्मसम्बोधकान्य, १९. उपदेशरत्नमाला, २०. जिमंधर चरित, २१. पुण्याश्रवकथा, २२. सम्यक्त्वगुणनिधानकाव्य, २३. सम्यग्गणारोहण काव्य, २४. षोडशकारणजयमाला, २५. बारहभावना (हिन्दी), २६. सम्बोध पंचाशिका, २७. धन्यकुमारचरित, २८. सिद्धान्तार्थसार, २९. बृत्सिद्धचक्रपूजा (संस्कृत), ३०. सम्यक्त्वभावना, ३१. जसहरचरिज, ३२ जीणंधरचरित, ३३. कोमुइकहापबंधु, ३४. सुक्कोसलचरित, ३५. सुदंसणचरिउ, ३६, सिद्धचक्क माहप्प, ३७. अणमउकहा ।।
कविको रचना करनेको प्रेरणा सरस्वतीसे प्राप्त हुई थी। कहा जाता है कि एक दिन कवि चिन्तित अवस्थामें रात्रिमं सोया । स्थानमें सरस्वतीने दर्शन दिया और काव्य रचनेकी प्रेरणा दी । कबिने लिखा है
सिविणंतरे दिट्ठ सुयदेवि सुपसम्या ।
आहासए तुज्झ हङ जाए सुपसण्ण ।।
परिहरहि मर्णाचत करि भब्यु णिसु कन्षु ।
खलयणई मा डरहि भउ हरिउ मई सब्ब ।।
तो देविवरण पडिउवि साणंदु ।
तक्खणेण संयणाल उलिउ जि गय-तंदु ।
सम्मइ०-१२-४ । अर्थात् प्रमुदितमना सरस्वतीदेवीने स्वप्नमें दर्शन दिया और कहा कि मैं तुमपर प्रसन्न हूँ | मनकी समस्त चिन्ताएं छोड़ हे भव्य ! तुम निरंतर काव्य रचना करते रहो । दुर्जनोंसें भय करने की आवश्यकता नहीं, क्यों कि भय सम्पूर्ण बुद्धिका आहरण कर लेता है। कवि कहता है कि मैं सरस्वतीके वचनोंसे प्रति बुद्ध होकर आनन्दित हो उठा और काव्य-रचनामें प्रवृत्त हा गया | कविकी रचनाओंके प्रेरक अनेक श्रावक रहे हैं, जिससे कवि इतने विशाल-साहित्यका निर्माण कर सका है।
पासणाहचरिङ'में कविने २३वे तीर्थकर पार्श्वनाथकी कथा निबद्ध की है। यह ग्रन्थ डॉ राजाराम जैन द्वारा सम्पादित होकर शोलापुर दोसी-ग्रन्ध मालासे प्रकाशित है। यह कविका पौराणिक महाकाव्य है। कविने इसम पार्श्वनाथकी साधनाके अतिरिक्त उनके शौर्य, बीर्य, पराक्रम आदि गुणोंको भी उद्घाटित किया है। काव्यके संवाद रुचिकर हैं और उनसे पात्रोके चरित्र पर पूरा प्रकाश पड़ता है। रइन्चकी समस्त कृत्तियों में यह रचना अधिक सरस और काव्यगुणोंसे युक्त है । कथावस्तु सात सन्धियों में विभक्त है।
णेमिणाहचरिज' में रखें तीर्थकर नेमिनाथका जीवन पणित है। इसकी कथावस्तु १४ सन्धियोंमें विभक्त है और ३०२ कड़बक हैं। इस पौराणिक महा काव्य में भी रस, अलंकार आदिकी योजमा हुई है। इसमें ऋपभदेव, और बर्द्धमानका भी कथन आया है। प्रसंगवश भरत चक्रवर्ती, भोगभूमि, कर्म भूमि, स्वर्ग, नरक, य, समुद्र, भरत, ऐशवतादि क्षेत्र, पट् कुलाचल, गंगा, सिन्धु आदि नदियाँ, रत्नत्रय, पंचाणुव्रत, तीन गुणात, चार शिक्षानत, अष्ट मूलगुण, बद्रव्य एवं थावकाचार आदिका निरूपण किया गया है। भुनिधर्म के वर्णन-प्रसंग में ५ समिति, ३ गुप्ति, १० धर्म द्वादश अनुप्रेक्षा, २२ परीषहजय और षडावश्यकका कथन आया है । इसप्रकार यह काव्य दर्शन और पुराण तत्त्वकी दृष्टिसे भी समृद्ध है।
सम्मजिणचरिउ'-इस काव्य में अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीरका जीवनचरित मुम्फित है। कविने दर्शन, ज्ञान और चारित्रको चर्चाके अनन्तर वस्तुवर्णनोंको भी सरस बनाया है। महावीर शंशव-कालमें प्रवेश करते हैं। माता-पिता स्नेहवश उन्हें विविध-प्रकारके वस्त्राभूषण धारण कराते हैं। कवि इस मार्मिक प्रसंगका वर्णन करता हुआ लिखता है
सिरि-सेहरु गिरूवमु रयणु-अडिउ । कुडल-जुउ सरेणि सुरेण घडिउ ।
भालयलि-तिलउ गलि कुसुममाल | कंकहि हत्यु अलिगण खल ॥
किकिणिहि-सह-मोहिय-कुरंग । कडि-मेहलडिकदेहि अभंग ।।
तह कट्टाफ दि मणि छुरियबंतु । जरु-हार अहारहिँ सहतु ।
वर-सज्जिय पाहि पइट्ठ ! अंगुलिय समुद्दादय गुणछ ।
-सम्मइ.-५/२३१५-१।
इस काव्यमें जयकुमार और सुलोचनाकी कथा अंकित है । इस ग्रन्थमें कुल १३ सन्धियाँ ३७४ कड़वक और १२ संस्कृत पद्य हैं । यद्यपि इसमें मेघेश्वरको कथा अंकित की गई है, पर कविने उसमें अपनी विशेषता भी प्रदर्शित की है । वह गंमा नदीमें निमग्न हाथीपरमे सुलोचनाको जलमें गिरा देता है । आचार्य जिनसेन अपने महापुराणमें सुलोचनासे केवल चीत्कार कराके ही गङ्गा देवी द्वारा हाथीका उद्धार करा देते हैं। पर महाकवि रधु इस प्रसंगको अत्यन्त मार्मिक बनाने के लिए सती-साध्वी नायिका सुलोचनाको करुण चीत्कार करते हुए मूच्छित रूपमें अंकित करते हैं। पश्चात् उसके सतीत्वको उद्दाम व्यंजनाके हेतु उसे हाथीपरमे गङ्गाके भयानक गर्तमें गिरा देते हैं । नायिकाको प्रार्थना एवं उसके पुण्यप्रभाबसे गङ्गादेवो प्रत्यक्ष होती है और सुलोचनाका जय-जय कार करती हुई गङ्गातटपर निर्मित रलटित प्रासादमें सिंहासनपर उसे आरूढ़ कर देती है। कथानकका चरमोत्कर्ष इसी स्थानपर संपादित हो जाता है। कविने मेहसरचरिउको पौराणिक काव्य बनानेका पूरा प्रयास किया है।
श्रीपालचरितकी दो धाराएं उपलब्ध होती हैं । एक धारा दिगम्बर सम्प्र दायमें प्रचलित है और दूसरी श्वेताम्बर सम्प्रदायमें । दोनों सम्प्रदायोंकी कथा वस्तु में निम्नलिखित अन्तर है--
१. माता-पिताके नाम सम्बन्धी अन्तर ।
२. श्रीपालकी राजगदी और रोग सम्बन्धी अन्तर ।
३. माँका साथ रहना तथा वैद्य सम्बन्धी अन्तर ।
४. मदनसुन्दरी विवाह सम्बन्धी अन्तर ।
५. मदनादि कुमारियोंकी माता तथा कुमारियोंके नामों में अन्तर ।
६. विवाहके बाद श्रीपालके भ्रमण में अन्तर ।
७. श्रीपालका माता एवं पत्नीसे सम्मेलनमें अन्तर ।
श्रीपालचरित एक पौराणिक चरित-काव्य है । कविने श्रीपाल और नयना सुन्दरोके आख्यानको लेकर सिद्धचक्रविधानके महत्त्वको अकित किया है। यह विधान बड़ा ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है और उसके द्वारा कुष्ठ जैसे रोगोंको दूर किया जा सकता है। नयनासुन्दरी अपने पिताको निर्भीकतापूर्वक उत्तर देती हुई कहती है
भो ताय-ताय पई णिरु अजुतु । जंपियज ण मुणियउ जिणहु सुत्तु ।
बरकुलि उवण्ण जा कण्ण होइ । सा लज्ज |मेल्लइ एच्छ लोय ।
वाद-विवाउ नउ जत्तु ताउ ।तह पुणु तुअ अनवमि णिणि राय ।
बिहुलोयविरुद्ध एहु कम्मु ।जं सु सईवरु मिण्हह सुछम्म ।
जइ मण इच्छइ किज्जइ विवाहु ।तो लोयसुहिला इहु पवाहु ।
अर्थात् हे पिलाजी, आपने जिलागमके किन हो मुनपने आप अपने पलिके चुनाव कर देनेका आदेश दिया है, किन्तु जो कन्याएं कुलीन होती हैं वे कभी भी ऐसी निलंजताका कार्य नहीं कर सकतीं । हे पिताजी, मैं इस सम्बन्ध में वाद-विवाद भी नहीं करना चाहती। अतएव हे राजन, मेरी प्रार्थना ध्यान पूर्वक सुनें | आपका यह कार्य लोक-बिरुद्ध होगा कि आपकी कन्या स्वयं अपने पतिका निर्वाचन करे । अतः मुझसे कहे बिना ही आपकी इच्छा जहाँ भी हो, वहीं पर मेरा विवाह कर दें।
नयनासुन्दरीको भवितव्यता पर अपूर्व विश्वास है। वह स्वयंकृत कर्मोक फलभोगको अनिवार्य समझती है। कविने प्रसंगवश सिद्धचक्रमहात्म्य, नवकार महात्म्य, पुण्यमहात्म्य, सम्यक्त्वमहात्म्य, उपकारमहिमा एवं धर्मानुष्ठानका महात्म्य बतलाया है। इस प्रकार यह रचना व्रतानुष्ठानकी दृष्टिसे भी महत्त्व पूर्ण है।
इस ग्रन्थमें रामकथा बर्णित है। बलभद् रामका अगर नाम है। कविने परम्परागत रामकथाको ग्रहण किया है और काव्योचित बनानेके लिए जहाँ तहाँ कथामें संशोधन और परिवर्तन भी किये हैं ।
यह लोकप्रिय आख्यान है । कवि रइधूने चार सन्धियों और ७४ कड़वकों में
इस अन्यको पूर्ण किया है। पुण्यपुरुष सुकोसलको कथा वर्णित है।
कविने धन्यकुमारके चरितको लेकर खण्डकाव्यको रचना की है । इस काव्य ग्रन्थमें बताया गया है कि पुण्यके उदयसे व्यक्तिको सभी प्रकारकी सामग्रियाँ प्राप्त होती हैं। कविने धर्म-महिमा, कर्म-महिमा, पुष्य-महिमा, उद्यम-महिमा,आदिका चित्रण किया है।
यह अध्यात्म और आचारमूलक काव्य है। इसमें कविने सम्यग्दर्शन और उसके आठ अंगोंके नामोल्लेख कर उन अंगोंको धारण करने के कारण प्रसिद्ध हुए महान् नर-नारियोंके कथानक अंकित किये हैं। अन्धमें चार सन्धियों और १०२ कड़वक हैं।
रइधुने भट्टारक कमलकीतिकी प्रेरणासे अग्रवालकुलोत्पन थीहेमराज संघ पतिके आश्रयमें रहकर इस ग्रन्थकी रचना की है । इसमें ४ सन्धियाँ और १०४ कड़वक हैं । पुण्यपुरुष यशोधरकी कथा वर्णित है ।
इस रचनामें कूल ८९३ गाथाएं हैं और ७ अंक हैं। कविने सिद्धोंको नम स्कार कर बलसार नामक ग्रन्थ लिखनेकी प्रतिज्ञा की है। इसमें सम्यग्दर्शन, १४ गुणस्थान, द्वादशवत, ११ प्रतिमा, पंचमहाव्रत, ५ समिति, षड्आवश्यक आदिके साथ कर्मोंकी समातियाँ जनादे. लसणे. कामग निशिय, प्रदेश बन्ध, अनुभागबन्ध, द्वादश अनुप्रेक्षाएं, दशधर्म, ध्यान, तीनों लोक आदिका वर्णन आया है। सिद्धान्त-विषयको समझनेके लिए यह ग्रन्ध उपयोगी है ।
इसमें १३ अंक और १९३३ गाथाएँ हैं । गुणस्थान, एकादश प्रतिमा, द्वादश व्रत, सप्त व्यसन, चतुर्विध दान, द्वादश तप, महानत, समितियाँ, पिण्डशुद्धि, उत्पाददोष, आहारदोष, संयोजनदोष, इंगारघूमदोष, दातृदोष, चतुर्दश मल प्रकार, पंचेन्द्रिय एवं मन निरोध, षड्झावश्यकः, कर्मबन्ध, कर्मप्रकृत्तियाँ, द्वादशां गभुत, द्वादशांगवाणीका वर्ण्य विषय, द्वादश अनुप्रेक्षा, दश धर्म, ध्यान आदिका वर्णन आया है।
इसमें रात्रि-भोजनत्यागका वर्णन है। तथा उससे सम्बन्धित कथा भी आई है।
इसप्रकार महाकवि रइधने काव्य, पुराण, सिद्धान्त, आचार एवं दर्शन विषयक रचनाएँ अपभ्रशमें प्रस्तुत कर अपनश-साहित्यको श्रीवृद्धि की है। श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीके पश्चात् रइधु-साहित्यको सुव्यवस्थितरूपसे प्रकाशमें लानेका श्रेय डॉ राजाराम जैनको है । महाकवि रघुने षट्धर्मोपदेश माला, उचएसरयणमाला, अप्पसंदोहकब्ध और संबोहपंचासिका जैसे आचार सम्बन्धी ग्रन्थोंकी भी रचना की है।
#RaighuPrachin
आचार्यतुल्य महाकवि रायघु 16वीं शताब्दी (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 16 मई 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 16 May 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
महाकवि रइघु ड्के पिताका नाम हरिसिंह और पितामहका नाम संधपत्ति देवराज था। इनकी मां का नाम विजयश्री और पलीका नाम सावित्री था। इन्हें सावित्रीके गर्भसे उदयराज नामक पुत्र भी प्राप्त था। जिस समय उदयराजका जन्म हुआ, उस समय कबि अपने 'मिणारिउ' की रचना कर रहा था। रइघु पद्मावतीपुरबालवंशमें उत्पन्न हुए थे। इनका अपरनाम सिंहसेन भी बताया जाता है । रइधू अपने माता-पिताके तुतीय पुत्र थे। इनके अन्य दो बड़े भाई भी थे, जिनके नाम क्रमशः बहोल और मानसिंह थे। रइधू काष्ठासंघ माथुर गच्छकी पुष्करमणीय शाखासे.सम्बद थे।
रइघु के ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों से अवगत होता है कि हिसार, रोहतक, कुरुक्षेत्र, पानीपत, ग्वालियर, सोनीपत और योगिनीपुर आदि स्थानोंके श्रावकोंमें उनकी अच्छी प्रतिष्ठा थी। वे अन्य-रचनाके साथ मूर्ति-प्रतिष्ठा एवं अन्य क्रिया काण्ड भी करते थे। रइधुके बालमित्र कमलसिंह संघवीने उन्हें बिम्ब प्रतिष्ठाकारक कहा है। गृहस्थ होने पर भी कवि प्रतिष्ठाचार्यका कार्य सम्पन्न करता था।
कविके निवास स्थानके सम्बन्धमें निश्चित रूपसे कुछ नहीं कहा जा सकता है । पर बालियर, उज्जयिनीके उनके भौगोलिक वर्णनको देखनेसे यह अनुमान सहज में लगाया जा सकता है कि कविको जन्मभूमि ग्वालियरके आसपास कहीं होनी चाहिये; क्योंकि उसने ग्वालियरकी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थितियोंका जैसा विस्तृत वर्णन किया है उससे नगरीके प्रति कविका आकर्षण सिद्ध होता है । अतएव कधिका जन्मस्थान ग्वालियर के आसपास होनी चाहिये ।
रइघु ने अपने गुरुके रूपमें भट्टारक गुणकीर्ति, यश:कीति, श्रीपाल ब्रह्म, कमलकीति, शुभचन्द्र और भट्टारक कुमारसनका स्मरण किया है। इन भट्टा रकोंके आशीर्वाद और प्रेरणासे कविने विभिन्न कृतियोंकी रचना की है।
महाकवि रइघु ने अपनी रचनाओं की प्रशस्तियों में उनके रचनाकालपर प्रकाश डाला है। अभिलेखों और परवर्ती साहित्यकारोंके स्मरणसे भी करिके समय पर प्रकाश पड़ता है।कविने'सम्मत्तगुणनिहाणकन्य'को प्रशस्ति में इस ग्रन्ध का रचनाकाल वि० सं० १४६९ भाद्रपद शुक्ला पूणिमा मंगलबार दिया है । 'सुक्कोमलचरित' का रचनाकाल वि० सं० १४९६ अंकित है 1 रइधु-साहित्यमें गणेशनृपसुत राजा डोंगरसिंहका विस्तृत वर्णन आया है। रके 'सम्मइ जिणारउ के एक उल्लेख के अनुसार वह उस समय ग्वालियर दुर्गम ही निवास कर रहा था। इससे ज्ञात होता है कि डोंगर सिंहका राज्यकाल वि० सं० १४. ८२-१५११ है । अत: 'सम्मइजिणचरिउ' की रचना भी इसी समय हुई होगी।
वि० सं० १४२.७ का एक मूत्तिलेख उपलब्ध है, जिसमें कवि रइधूको प्रतिष्ठाचार्य कहा गया है। 'सुक्कोसलचरिउ' के पूर्व कवि रिण मिचरिउ', 'पासणाहरित', 'बलहद्दचरिउ', 'तेसट्टिमहापुरिसचरिड', 'मेहेसरचरिउ', 'जसहरचरिउ', 'वित्तसार', 'जीबंधरचरिउ', 'सावयारउ' और 'महापुराण'
की रचना कर चुका था।
महाकवि रइघु ने 'धण्णकुमारचरित' की रचना गुरु गुणकीति भट्टारकके आदेशसे की है और गुणकीर्तिका समय अनुमानतः वि० सं० १४५७-१४८६ के मध्य है। कवि महिंदुने अपने 'संतिणाहचरिउ'में अपने पूर्ववर्ती कवियोंके साथ रइधूका भी उल्लेख किया है। इससे यह सिद्ध है कि रइध वि० सं० १९८७ के पूर्व ल्यात हो चुके थे।
श्री डॉ. राजाराम जैनने रइध-साहित्यके अध्ययनके आधारपर निम्न लिखित निष्कर्ष उपस्थित किये हैं
१. महाकवि रइघुने भट्टारक गुणकीतिको अपना गुरु माना है। पद्मनाभ कायस्थने भी राजा बीरमदेव तोमर के मन्त्री कुशराज के लिये भट्टारक गुणकोति के आदेशोपदेशसे 'दयासुन्दरकान्य' ( यशोधरचरित ) लिखा था। बीरमदेव तोमरका समय वि० सं०१४५७-१४७६ है । अत: गुणकोतिका भी प्रारंभिक काल उसे माना जा सकता है। अतः वि० सं० १४५७ रइधुके रचनाकालकी पूर्वावधि सिद्ध होती है।
२. रइघु ने कमलकीत्तिके शिष्य भट्टारक शुभचन्द्र तथा दूंगरसिंहके पुत्र राजा कीतिसिंहके कालकी घटनाओंके बाद अन्य किसी भी राजा या भट्टारक अथवा अन्य किसी भी घटनाका उल्लेख नहीं किया, जिससे विदित होता है कि उक्त भट्टारक एवं राजा कौत्तिसिंहका समय ही रइधूका साहित्यिक अथवा जीवनका अन्तिम काल रहा होगा। राजा कीतिसिंह सम्बन्धी अन्तिम उल्लेख वि० सं० १५३६ का प्राप्त होता है। अतः यही रहधूकालको उत्तराधि स्थिर होती है।
इस प्रकार रइघुका रचनाकाल वि० सं० १४५७-१५३६ सिद्ध होता है।
महापानि रइधने अकेले ही विपुल परिमाणमें प्रन्थोंकी रचना की है। इसे महाकवि न कहनार एक पुस्तकालय-रचयिता कहा जा सकता है।
डा० राजाराम जैनने विभिन्न स्रोतोंके आधारपर अभी तक कविकी ३७ रचनाओंका अन्वेषण किया है ।।
१. मेहेसरचारक (अपरनाम आदिपुराण), २. मिणाहरित (अपरनाम रिट्ठमि रउ), ३. 'पासणाहरिज, ४, सम्मइजिणचरिउ, ५. तिमट्टिमहा पुरिस रउ, ६. महापुराण, ७. बलहद्दचरिउ, ८. हरिवंशपुराण, २. श्रीपाल चरित, १०, प्रद्युम्नचरित, ११. वृत्तसार, १२. कारणगुणषोडशी, १३. दशलक्षण जयमाला, १४. रत्नत्रयी, १५, षड्धर्मोपदेशमाला, १६ भविष्यदत्तचरित, १७. करकंडुचरित, १८. आत्मसम्बोधकान्य, १९. उपदेशरत्नमाला, २०. जिमंधर चरित, २१. पुण्याश्रवकथा, २२. सम्यक्त्वगुणनिधानकाव्य, २३. सम्यग्गणारोहण काव्य, २४. षोडशकारणजयमाला, २५. बारहभावना (हिन्दी), २६. सम्बोध पंचाशिका, २७. धन्यकुमारचरित, २८. सिद्धान्तार्थसार, २९. बृत्सिद्धचक्रपूजा (संस्कृत), ३०. सम्यक्त्वभावना, ३१. जसहरचरिज, ३२ जीणंधरचरित, ३३. कोमुइकहापबंधु, ३४. सुक्कोसलचरित, ३५. सुदंसणचरिउ, ३६, सिद्धचक्क माहप्प, ३७. अणमउकहा ।।
कविको रचना करनेको प्रेरणा सरस्वतीसे प्राप्त हुई थी। कहा जाता है कि एक दिन कवि चिन्तित अवस्थामें रात्रिमं सोया । स्थानमें सरस्वतीने दर्शन दिया और काव्य रचनेकी प्रेरणा दी । कबिने लिखा है
सिविणंतरे दिट्ठ सुयदेवि सुपसम्या ।
आहासए तुज्झ हङ जाए सुपसण्ण ।।
परिहरहि मर्णाचत करि भब्यु णिसु कन्षु ।
खलयणई मा डरहि भउ हरिउ मई सब्ब ।।
तो देविवरण पडिउवि साणंदु ।
तक्खणेण संयणाल उलिउ जि गय-तंदु ।
सम्मइ०-१२-४ । अर्थात् प्रमुदितमना सरस्वतीदेवीने स्वप्नमें दर्शन दिया और कहा कि मैं तुमपर प्रसन्न हूँ | मनकी समस्त चिन्ताएं छोड़ हे भव्य ! तुम निरंतर काव्य रचना करते रहो । दुर्जनोंसें भय करने की आवश्यकता नहीं, क्यों कि भय सम्पूर्ण बुद्धिका आहरण कर लेता है। कवि कहता है कि मैं सरस्वतीके वचनोंसे प्रति बुद्ध होकर आनन्दित हो उठा और काव्य-रचनामें प्रवृत्त हा गया | कविकी रचनाओंके प्रेरक अनेक श्रावक रहे हैं, जिससे कवि इतने विशाल-साहित्यका निर्माण कर सका है।
पासणाहचरिङ'में कविने २३वे तीर्थकर पार्श्वनाथकी कथा निबद्ध की है। यह ग्रन्थ डॉ राजाराम जैन द्वारा सम्पादित होकर शोलापुर दोसी-ग्रन्ध मालासे प्रकाशित है। यह कविका पौराणिक महाकाव्य है। कविने इसम पार्श्वनाथकी साधनाके अतिरिक्त उनके शौर्य, बीर्य, पराक्रम आदि गुणोंको भी उद्घाटित किया है। काव्यके संवाद रुचिकर हैं और उनसे पात्रोके चरित्र पर पूरा प्रकाश पड़ता है। रइन्चकी समस्त कृत्तियों में यह रचना अधिक सरस और काव्यगुणोंसे युक्त है । कथावस्तु सात सन्धियों में विभक्त है।
णेमिणाहचरिज' में रखें तीर्थकर नेमिनाथका जीवन पणित है। इसकी कथावस्तु १४ सन्धियोंमें विभक्त है और ३०२ कड़बक हैं। इस पौराणिक महा काव्य में भी रस, अलंकार आदिकी योजमा हुई है। इसमें ऋपभदेव, और बर्द्धमानका भी कथन आया है। प्रसंगवश भरत चक्रवर्ती, भोगभूमि, कर्म भूमि, स्वर्ग, नरक, य, समुद्र, भरत, ऐशवतादि क्षेत्र, पट् कुलाचल, गंगा, सिन्धु आदि नदियाँ, रत्नत्रय, पंचाणुव्रत, तीन गुणात, चार शिक्षानत, अष्ट मूलगुण, बद्रव्य एवं थावकाचार आदिका निरूपण किया गया है। भुनिधर्म के वर्णन-प्रसंग में ५ समिति, ३ गुप्ति, १० धर्म द्वादश अनुप्रेक्षा, २२ परीषहजय और षडावश्यकका कथन आया है । इसप्रकार यह काव्य दर्शन और पुराण तत्त्वकी दृष्टिसे भी समृद्ध है।
सम्मजिणचरिउ'-इस काव्य में अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीरका जीवनचरित मुम्फित है। कविने दर्शन, ज्ञान और चारित्रको चर्चाके अनन्तर वस्तुवर्णनोंको भी सरस बनाया है। महावीर शंशव-कालमें प्रवेश करते हैं। माता-पिता स्नेहवश उन्हें विविध-प्रकारके वस्त्राभूषण धारण कराते हैं। कवि इस मार्मिक प्रसंगका वर्णन करता हुआ लिखता है
सिरि-सेहरु गिरूवमु रयणु-अडिउ । कुडल-जुउ सरेणि सुरेण घडिउ ।
भालयलि-तिलउ गलि कुसुममाल | कंकहि हत्यु अलिगण खल ॥
किकिणिहि-सह-मोहिय-कुरंग । कडि-मेहलडिकदेहि अभंग ।।
तह कट्टाफ दि मणि छुरियबंतु । जरु-हार अहारहिँ सहतु ।
वर-सज्जिय पाहि पइट्ठ ! अंगुलिय समुद्दादय गुणछ ।
-सम्मइ.-५/२३१५-१।
इस काव्यमें जयकुमार और सुलोचनाकी कथा अंकित है । इस ग्रन्थमें कुल १३ सन्धियाँ ३७४ कड़वक और १२ संस्कृत पद्य हैं । यद्यपि इसमें मेघेश्वरको कथा अंकित की गई है, पर कविने उसमें अपनी विशेषता भी प्रदर्शित की है । वह गंमा नदीमें निमग्न हाथीपरमे सुलोचनाको जलमें गिरा देता है । आचार्य जिनसेन अपने महापुराणमें सुलोचनासे केवल चीत्कार कराके ही गङ्गा देवी द्वारा हाथीका उद्धार करा देते हैं। पर महाकवि रधु इस प्रसंगको अत्यन्त मार्मिक बनाने के लिए सती-साध्वी नायिका सुलोचनाको करुण चीत्कार करते हुए मूच्छित रूपमें अंकित करते हैं। पश्चात् उसके सतीत्वको उद्दाम व्यंजनाके हेतु उसे हाथीपरमे गङ्गाके भयानक गर्तमें गिरा देते हैं । नायिकाको प्रार्थना एवं उसके पुण्यप्रभाबसे गङ्गादेवो प्रत्यक्ष होती है और सुलोचनाका जय-जय कार करती हुई गङ्गातटपर निर्मित रलटित प्रासादमें सिंहासनपर उसे आरूढ़ कर देती है। कथानकका चरमोत्कर्ष इसी स्थानपर संपादित हो जाता है। कविने मेहसरचरिउको पौराणिक काव्य बनानेका पूरा प्रयास किया है।
श्रीपालचरितकी दो धाराएं उपलब्ध होती हैं । एक धारा दिगम्बर सम्प्र दायमें प्रचलित है और दूसरी श्वेताम्बर सम्प्रदायमें । दोनों सम्प्रदायोंकी कथा वस्तु में निम्नलिखित अन्तर है--
१. माता-पिताके नाम सम्बन्धी अन्तर ।
२. श्रीपालकी राजगदी और रोग सम्बन्धी अन्तर ।
३. माँका साथ रहना तथा वैद्य सम्बन्धी अन्तर ।
४. मदनसुन्दरी विवाह सम्बन्धी अन्तर ।
५. मदनादि कुमारियोंकी माता तथा कुमारियोंके नामों में अन्तर ।
६. विवाहके बाद श्रीपालके भ्रमण में अन्तर ।
७. श्रीपालका माता एवं पत्नीसे सम्मेलनमें अन्तर ।
श्रीपालचरित एक पौराणिक चरित-काव्य है । कविने श्रीपाल और नयना सुन्दरोके आख्यानको लेकर सिद्धचक्रविधानके महत्त्वको अकित किया है। यह विधान बड़ा ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है और उसके द्वारा कुष्ठ जैसे रोगोंको दूर किया जा सकता है। नयनासुन्दरी अपने पिताको निर्भीकतापूर्वक उत्तर देती हुई कहती है
भो ताय-ताय पई णिरु अजुतु । जंपियज ण मुणियउ जिणहु सुत्तु ।
बरकुलि उवण्ण जा कण्ण होइ । सा लज्ज |मेल्लइ एच्छ लोय ।
वाद-विवाउ नउ जत्तु ताउ ।तह पुणु तुअ अनवमि णिणि राय ।
बिहुलोयविरुद्ध एहु कम्मु ।जं सु सईवरु मिण्हह सुछम्म ।
जइ मण इच्छइ किज्जइ विवाहु ।तो लोयसुहिला इहु पवाहु ।
अर्थात् हे पिलाजी, आपने जिलागमके किन हो मुनपने आप अपने पलिके चुनाव कर देनेका आदेश दिया है, किन्तु जो कन्याएं कुलीन होती हैं वे कभी भी ऐसी निलंजताका कार्य नहीं कर सकतीं । हे पिताजी, मैं इस सम्बन्ध में वाद-विवाद भी नहीं करना चाहती। अतएव हे राजन, मेरी प्रार्थना ध्यान पूर्वक सुनें | आपका यह कार्य लोक-बिरुद्ध होगा कि आपकी कन्या स्वयं अपने पतिका निर्वाचन करे । अतः मुझसे कहे बिना ही आपकी इच्छा जहाँ भी हो, वहीं पर मेरा विवाह कर दें।
नयनासुन्दरीको भवितव्यता पर अपूर्व विश्वास है। वह स्वयंकृत कर्मोक फलभोगको अनिवार्य समझती है। कविने प्रसंगवश सिद्धचक्रमहात्म्य, नवकार महात्म्य, पुण्यमहात्म्य, सम्यक्त्वमहात्म्य, उपकारमहिमा एवं धर्मानुष्ठानका महात्म्य बतलाया है। इस प्रकार यह रचना व्रतानुष्ठानकी दृष्टिसे भी महत्त्व पूर्ण है।
इस ग्रन्थमें रामकथा बर्णित है। बलभद् रामका अगर नाम है। कविने परम्परागत रामकथाको ग्रहण किया है और काव्योचित बनानेके लिए जहाँ तहाँ कथामें संशोधन और परिवर्तन भी किये हैं ।
यह लोकप्रिय आख्यान है । कवि रइधूने चार सन्धियों और ७४ कड़वकों में
इस अन्यको पूर्ण किया है। पुण्यपुरुष सुकोसलको कथा वर्णित है।
कविने धन्यकुमारके चरितको लेकर खण्डकाव्यको रचना की है । इस काव्य ग्रन्थमें बताया गया है कि पुण्यके उदयसे व्यक्तिको सभी प्रकारकी सामग्रियाँ प्राप्त होती हैं। कविने धर्म-महिमा, कर्म-महिमा, पुष्य-महिमा, उद्यम-महिमा,आदिका चित्रण किया है।
यह अध्यात्म और आचारमूलक काव्य है। इसमें कविने सम्यग्दर्शन और उसके आठ अंगोंके नामोल्लेख कर उन अंगोंको धारण करने के कारण प्रसिद्ध हुए महान् नर-नारियोंके कथानक अंकित किये हैं। अन्धमें चार सन्धियों और १०२ कड़वक हैं।
रइधुने भट्टारक कमलकीतिकी प्रेरणासे अग्रवालकुलोत्पन थीहेमराज संघ पतिके आश्रयमें रहकर इस ग्रन्थकी रचना की है । इसमें ४ सन्धियाँ और १०४ कड़वक हैं । पुण्यपुरुष यशोधरकी कथा वर्णित है ।
इस रचनामें कूल ८९३ गाथाएं हैं और ७ अंक हैं। कविने सिद्धोंको नम स्कार कर बलसार नामक ग्रन्थ लिखनेकी प्रतिज्ञा की है। इसमें सम्यग्दर्शन, १४ गुणस्थान, द्वादशवत, ११ प्रतिमा, पंचमहाव्रत, ५ समिति, षड्आवश्यक आदिके साथ कर्मोंकी समातियाँ जनादे. लसणे. कामग निशिय, प्रदेश बन्ध, अनुभागबन्ध, द्वादश अनुप्रेक्षाएं, दशधर्म, ध्यान, तीनों लोक आदिका वर्णन आया है। सिद्धान्त-विषयको समझनेके लिए यह ग्रन्ध उपयोगी है ।
इसमें १३ अंक और १९३३ गाथाएँ हैं । गुणस्थान, एकादश प्रतिमा, द्वादश व्रत, सप्त व्यसन, चतुर्विध दान, द्वादश तप, महानत, समितियाँ, पिण्डशुद्धि, उत्पाददोष, आहारदोष, संयोजनदोष, इंगारघूमदोष, दातृदोष, चतुर्दश मल प्रकार, पंचेन्द्रिय एवं मन निरोध, षड्झावश्यकः, कर्मबन्ध, कर्मप्रकृत्तियाँ, द्वादशां गभुत, द्वादशांगवाणीका वर्ण्य विषय, द्वादश अनुप्रेक्षा, दश धर्म, ध्यान आदिका वर्णन आया है।
इसमें रात्रि-भोजनत्यागका वर्णन है। तथा उससे सम्बन्धित कथा भी आई है।
इसप्रकार महाकवि रइधने काव्य, पुराण, सिद्धान्त, आचार एवं दर्शन विषयक रचनाएँ अपभ्रशमें प्रस्तुत कर अपनश-साहित्यको श्रीवृद्धि की है। श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीके पश्चात् रइधु-साहित्यको सुव्यवस्थितरूपसे प्रकाशमें लानेका श्रेय डॉ राजाराम जैनको है । महाकवि रघुने षट्धर्मोपदेश माला, उचएसरयणमाला, अप्पसंदोहकब्ध और संबोहपंचासिका जैसे आचार सम्बन्धी ग्रन्थोंकी भी रचना की है।
Acharyatulya Mahakavi Raighu 16th Century (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 16 May 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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