हैशटैग
#Swayambhu
महाकवि स्वयंभु अपभ्रंश-साहित्यके ऐसे कवि हैं, जिन्होंने लोकचिका सर्वाधिक ध्यान रखा है । स्वयंभुकी रचनाएँ अपशकी आख्यानात्मक रचनाएं हैं, जिनका प्रभाव उत्तरवर्ती समस्त कवियोपर पड़ा है । काव्य
रचयिता के साथ स्वयंभु छन्दशास्त्र और व्याकरणके भी प्रकाण्ड पण्डित थे।छन्दचड़ामणि, बिजयपरिशेष और कविराज धवल इनके विरुद थे।
कवि स्वयंभुके पिताका नाम मारुतदेव और माताका नाम पधिनी था । मारुतदेव भी कवि थे । स्वयंभुने छन्दमें तहा य माउरदेवस्स' कहकर उनका निम्नलिखित दोहा उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत किया है
लद्धउ मित्त भमतेण रमणा अरचदेण ।।
सो सिज्जते सिजइ वि तह भरइ भरतेण ॥४-१
स्वयंभुदेव गृहस्थ थे, मुनि नहीं । 'पउमरिज' से अनगत होता है कि इनका कई पत्नियां थीं, जिनमेसे दोके नाम प्रसिद्ध है-एक अइच्चंबाआदित्यम्बा) और दुसरो सामिअंब्बा । ये दोनों हो पत्नियाँ सूशिक्षिता थीं। प्रथम पत्नीने अयोध्याकाण्ड और दूसरीने विद्याधरकाण्डकी प्रतिलिपि की थी। कविने उक्त दोनों काण्ड अपनी पत्नियोंसे लिखवाये थे ।
स्वयंभुदेवके अनेक पुत्र थे, जिनमें सबसे छोटे पुत्र त्रिभुवनस्वयंभु थे। श्रीप्रेमीजीका अनुमान है कि त्रिभुवनस्वयंभुकी माताका नाम सुअब्बा था, जो स्वयंभुदेवकी तृतीया पत्नी थीं। श्रीप्रेमौजीने अपने कथनकी पुष्टिके लिये निम्नलिखित पद्य उद्धृत किया है
सचे वि सुआ पंजरसुअन्च पढ़ि अक्ख राई सिक्खंति ।
कइराअस्स सुओ सुअव्व-सुइ-ाब्भ संभूत्रो॥
अपभ्रंशमें 'सुअ' शब्दसे सुत्त और शुक दोनोंका बोध होता है। इस पद्यमें कहा है कि सारेही सुत पिंजरेके सुओंके समान पढ़े हुए ही अक्षर सीखते हैं, पर कविराजसुत त्रिभुवन "भूत इब श्रुतिगर्भसम्भूत है। यहाँ श्लेष द्वारा सुअब्बाके शुचि गर्भसे उत्पन्न त्रिभुवन अर्थ भी प्रकट होता है। अतएव यह अनुमान सहजमें ही किया जा सकता है कि त्रिभुबनस्वयंभुको माताका नाम सुअब्बा था।
स्वयंभु शरीरसे बहुत दुबले-पतले और लँचे पादके थे। उनकी नाक चपटी और दाँत विरल थे । स्वयंभुका व्यक्तित्व प्रभावक था | वे शरीरसे क्षीण काय होने पर भी ज्ञानसे पुष्टकाय थे। स्वयंभुने अपने वंश, गोत्र आदिका निर्देश नहीं किया, पर पुष्पदन्तने अपने महापुराणमें इन्हें आपुलसंघीय बताया है । इस प्रकार ये यापनीय सम्प्रदायके अनुयायी जान पड़ते हैं।
स्वयंभूने अपने जन्मसे किस स्थानको पवित्र किया, यह कहना कठिन है, पर यह अनुमान सहजमें ही लगाया जा सकता है कि वे दाक्षिणात्य थे। उनके परिवार और सम्पकी व्यक्तियोंके नाम दाक्षिणात्य हैं। भारतदेव, धवलइया, बन्दइया, नाग आइच्चंबा, सामिअंब्बा आदि नाम कर्नाटकी हैं। अतएव इनका दाक्षिणात्य होना अबाधित है।
स्वयंभुदेव पहले धनञ्जयके आश्रित रहे और पश्चात् धवलइयाके । 'पउमचरिउ' की रचनामें कविने धनञ्जयका और 'रिट्ठमिचरिस' की रच नामें घबलइयाका प्रत्येक सन्धिमें उल्लेख किया है।
कवि स्वयंभुदेवने अपने समयके सम्बन्धमें कुछ भी निर्देश नहीं किया है। पर इनके द्वारा स्मृत कवि और अन्य कवियों द्वारा इनका उल्लेख किये जानेसे इनके स्थितिकालका अनुमान किया जा सकता है। कवि स्वयंभुदेवने 'पउमचरिउ' और "रिट्ठणेमिचार'मैं अपने पूर्ववर्ती कवियों और उनके कुछ अन्धोंका उल्लेख किया है। इससे उनके समयकी पूर्व सीमा निश्चित की जा सकती है । पाँच महाकाव्य, पिंगलका छन्दशास्त्र, भरतका नाट्यशास्त्र, भामह और दण्डीके अलंकारशास्त्र, इन्द्रके व्याकरण, व्यास-बाणका अक्षराडम्बर, नोहर्षका निपुणत्व और रविषेणाचार्यको रामकथा उल्लिखित है। इन समस्त अल्लेखोंमें रविषेण और उनका पारित ही अर्वाचीन है। पद्मचरितकी रचना वि० सं० ७३४ में हुई है। अतएव स्वयंभुके समयको पूर्वावधि वि० सं० ७३४ के बाद है।
स्वयंभुका उल्लेख महाकवि पुष्पदन्तने अपने पुराण में किया है और महा पुराणको रचना वि० सं० १०१६ में सम्पन्न हुई है। अतएव स्वयंभके समयको उत्तरसीमा वि० सं० १०१६ है। इस प्रकार स्वयं भदेव वि० सं० ७२४-१०१६ वि० सं० के मध्यवर्ती हैं। श्री प्रेमीजीने निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है 'स्वयंभुदेव हरिवंशपुराण कर्ता जिनसेनसे कुछ पहले ही हुए होंगे, क्योंकि जिस तरह उन्होंने 'पउमचरिउ' में रविषेणका उल्लेख किया है, उसी तरह 'रिट्ठमिचरिउ में हरिबंशके कर्ता जिनसेनका भी उल्लेख अवश्य किया होता यदि वे उनसे पहले हो गये होते तो। इसी तरह आदिपुराण, उत्तरपुराणके कर्ता जिनसेन, गुणभद्र भी स्वयंभुदेव द्वारा स्मरण किये जाने चाहिये थे। यह बात नहीं जंचती कि बाण, श्रीहर्ष, आदि अजैन कवियोंकी तो चर्चा करते और जिनसेन आदिको छोड़ देते। इससे यही अनुमान होता है कि स्वयंभुदेव दोनों जिनसेनोंसे कुछ पहले हो चुके होंगे । हरिबंशको रचना वि० सं०-८४० में समाप्त हुई थी। इसलिये ७३४ से ८४० के बीच स्वयंभुका समय माना जा सकता है।' डा. देवेन्द्र जैनने इनका समय ई० सन् ७८३ अनुमानित किया है। . यह अनुमान ठीक सिद्ध होता है।
कविकी अभी तक कुल तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं और तीन रचनाएं उनके नाम पर और मानी जाती हैं
१. पङमचरिड
२. रिदमिचरिउ
३. स्वयंभुछन्द
४. सोडयचरिउ
५. पंचमिचरित
६. स्वयंभुव्याकरण
१. पउमचरित
'पउमाचार एक श्रेष्ठ महाकाय सनसमालो गीका रूप देकर कविने उक्त ग्रन्यकी विशेषता प्रदर्शित की है
बदमाण-मुहकुहर-विणिग्गय रामकहा-गहएह कमागय
अक्खर-वास-जलोह-मणोहर सु-अलंकार छन्द-मच्छोहर
दोह-समास-पवाहावं किय सक्कय-पायय पुलिणालंकिय
देसीभाषा-उभय-तडुज्जल कवि-दुक्कर-घण-सह-सिलायल'
'पउमरिउ' का ग्रन्थप्रमाण बारह हजार श्लोक है। और इसमें सब मिलाकर १० सन्धियां हैं।
विद्याधरकाण्ड २० सन्धियाँ, अयोध्याकाण्ड २२ सन्धियां, सुन्दरकाण्ड, १४ सन्धियाँ, युद्धकाण्ड २१ सन्धियाँ, उत्तरकाण्ड १३ सन्धियाँ ।
इन नब्बे सन्धियोंमें ८३ सन्धियोंकी रचना स्वयम्भुदेवने की है । विद्याधर काण्डमें कुलकरोंके उल्लेख के अनन्तर राक्षस और वानरबंशका विकास बतलाया गया है। अयोध्या में संगरचक्रवर्ती उत्पन्न हुमा । उसके साठ हजार पुत्र थे। एक बार वे केलासपर्वतपर ऋषभदेवको बन्दनाके लिये गये। वहाँ पर जिनमन्दिरों की सुरक्षाके लिये उन्होंने उसके चारों ओर खाई खोदना आरम्भ किया । घरणेन्द्र कुपित हुआ और उसने सबको भस्म कर दिया, केवल भगीरथ और भीम ही शेष घले। ची को बरबा औः या भगीरथको राज्य देकर दीक्षित हो गया। सगर राजाका समची सहस्राक्ष था । उसने अपने पिताको हत्या करनेवाले पुण्यमेघ पर चढ़ाई की और उसे मार डाला ! उसका पुत्र तोयदवाहन किसी प्रकार भाग कर द्वितीय तीर्थकर अजितनाथके समव शरणमें पहुँचा। सहस्राक्ष भी यहाँ आया। पर समवशरण में प्रवेश करते हो उसका क्रोध नष्ट हो गया । इसी तोयदवाहनदे लकानगरीकी नींव डाली और यहीं से राक्षसवंश आरंभ हुआ।
सगरके बाद ६४वीं पीढ़ी में कीतिधवल अयोध्याके राज्यपर आसीन हुआ । उसका साला श्रीकण्ठ सपत्नीक यहां आया। कीर्तिधवलने प्रसन्न होकर उसे बानरद्वीप दे दिया । श्रीकण्ठने पहाड़ीपर किष्कपुर बसाया । तदनन्तर अमर प्रभु राजा हुआ। उसने लंकाको राजकुमारीसे विवाह किया। नववधू जब ससुराल में आयी, तो आँगनमें बन्दरोंके सजीव चित्र देखकर भयभीत हो गयी । इसपर अमरप्रभु चित्रकारपर अप्रसन्न हो उठे । मन्त्रियोंने उसे बताया कि वानरोंसे उसके परिवारका पुराना सम्बन्ध चला जा रहा है । उसे तोड़ना ठीक नहीं। उसने बानरको अपना राजविह मान लिया । लंकामें राक्षसवंशको समद्धि हई और क्रमश: मालीके भाई सुमालीका पुत्र रत्ननव-राजा हुआ। उसके तीन पुत्र थे-रावण, विभीषण और कुम्भकरण | एक लड़की भी थी चन्द्रनखा । रावण अत्यन्त शरवीर और पराक्रमी था । मन्दोदरीके सिवा उसकी छह हजार रानियाँ थीं । रावण किष्कपुरके राजा बालिको हराना चाहता था। पर उसे उल्टी हार खानी पड़ी । बालि अपने अनुज सुग्रीवको राज्य देकर तप करने चला गया । रावण बड़ा जिनभक्त था । उसने अपने पराक्रमसे यम, इन्द्र, वरुण आदि राजाओंको परास्त किया था।
अयोध्याकाण्डमें अयोध्याके राजाओंका वर्णन आया है। इस नगरीमें ऋषभदेवके वंशसे समयानुसार अनेक राजा हएं और सबने दिगम्बर दोक्षा लेकर तपस्या की और मोक्ष प्राप्त किया । इस वंशके राजा रघुके अरण्य नामक पुत्र हुआ। इसकी रानीका नाम पृथ्वीमति था। इस दम्पत्तिके दो पुत्र हुए अनन्त रथ और दशरथ । राजा अरण्य अपने बड़े पुत्र सहित संसारसे विरक्त हो तपस्या करने चला गया । तथा अयोध्याका शासनभार दशरथको मिला | एक दिन दशरथकी सभामें नारद मुनि आये। उन्होंने कहा कि रावणने किसी निमित्तज्ञानीसे यह जान लिया है कि दशरथपुत्र और जनकपुत्री के निमित्तसे उसकी मृत्यु होगी। अतः उसने विभोषणको आप दोनोंको मारनेके लिये नियुक्त किया है । आप सावधान होकर कहीं छुप जायें। राजा दशरथ अपनी रक्षाके लिये देश-देशान्तर में गये और मार्ग में कंफेयीसे विवाह किया । कुछ समय पश्चात् महाराज दशरथके चार पुत्र हुए और एक युद्ध में प्रसन्न होकर उन्होंने कैकेयी को वरदान भी दिया। रामके राज्यभिषेकके समय कैकेयीने वरदान मांगा, जिससे राम, लक्ष्मण और सीता बन गये तथा महाराज दशरथने जिनदीक्षा प्रहण की । सीताहरण हो जानेपर रामने वानरवंशी विद्याधर पवनजय और अम्बनाके पुत्र हनुमान एवं सुग्रीवसे मित्रता की । रामने सुग्रीवके शत्रु साहस गतिका वध कर सदाके लिये सुग्रीवको अपने वश कर लिया और इन्हींके साहाय्य से रावणका वध कर सौताको प्राप्त किया।
अयोध्या लौटकर लोकापवादके भयसे सीताका निर्वासन किया । सौभाग्य से जिस स्थानपर जंगलमें सीताको छोड़ा गया था, वनजंघ राजा वहाँ आया और अपने घर ले जाकर सीताका संरक्षण करने लगा | सोताके पुत्र लवणा कंशने अपके पराक्रमसे सारे को बीमार न मागकी पति पती : जब यह वीर दिग्विजय करता हुआ अयोध्या आया, तो रामसे युद्ध हुआ तथा इसी युद्ध में पिता-पुत्र परस्परमें परिचित भी हुए । सीता अग्निपरीक्षा उत्तीर्ण हुई । वह विरक्त हो तपस्या करने चली गयी और स्त्रीलिंग छेदकर स्वर्ग प्राप्त किया। लक्ष्मणकी मृत्यु हो जानेपर राम शोकाभिभूत हो गये । कुछ काल पश्चात् बोध प्राप्त कर दिगम्बर मुनि बन दुर्टर तपश्चरण कर मोक्ष प्राप्त किया।
यह सफल महाकाव्य है । इसकी आदिकालिक कथा रामकथा है । अवान्तर या प्रासंगिक कथाएँ बानरवंश और विद्याधरवंशके आख्यानके रूपमें आयी हैं। प्रासंगिक कथावस्तुमें प्रकरी और पताका दोनों ही प्रकारको कथाए हैं। पताकारूपमें सुग्रीव और मास्तनन्दनकी कथाएं आधिकारिक कथाके साथ-साथ चली हैं और प्रकरीरूपमें वालि, भामण्डल, वनजंघ आदि राजाओंके आख्यान हैं। कथागठनको दृष्टिसे कार्य-अवस्थाएं, अर्थ-प्रकृतियाँ और सन्धियाँ सभी विद्यमान हैं। नायक, रस, अलंकार, संवाद, वस्तुण्यापारवर्णन आदि सभी दुष्टियोंसे यह काव्य उत्तम कोटिका काध्य है। यहां कविके प्रकृतिवर्णनको उपस्थित किया जाता है । कनिने इसमें उपमा और उत्प्रेक्षाओंका सुन्दर जाल बाँधा है
हसइ व रिउ-धिरु मुह-क्य बंधरू ।
विद्रुममाहरू मात्तिय ईतरु ।।१।।
छिचइ व मत्थए मेछ-महीहरु ।
तुज्झु बि मज्झु वि कवणु पईहरु |२||
जं चन्द्रकन्त-सलिलाहिसित्तु । अहिसेय-पणालुवफुसिय-चित्तु ॥ ३॥
जं विद्यम-मसाय-कन्तिकाहिं । पिउ गयगुव सरवणु-पन्तियाहि ।। ४ ।।
जं इन्द्राणील-माला-मसीएं । आलिहइ दिस-भित्तीएं तीएं ।। ५ ।।
बहि पोमराय-मणि-गणु विहाइ । बिउ अहिणव-सम्झा-राउ-गाई ॥ ६ ॥
इसप्रकार यह अन्य अपभ्रंश-काव्यका मुकुटर्माण है।
यह हरिवंशपुराणके नामसे प्रसिद्ध है। अठारह हजार श्लोकप्रमाण हैऔर ११२ सन्धियाँ हैं । इसमें तीन काण्ड हैं—यादव, कुरु और युद्ध । यादवमें १३, कुरुमें १९, और युद्ध में ६० सन्धियाँ हैं । सन्धियोंकी यह गणना युद्धकाण्डके यन्तमें अंकित है । यहाँ यह भी बताया गया गया कि प्रत्येक काण्ड कब लिखा गया और उसकी रचनामें कितना समय लगा। इन सन्धियोंमें ९९ सन्धि स्वंभुदेवके द्वारा लिखी गयी है । २५वी सन्धिके अन्त में एक पद आया है, जिसमेंबताया है कि पउमचारउ या सुचयधारउ बनकर अब में हरिवंशको स्वनामें . . प्रवृत्त होता हूँ।
'रिडणे मिचरिउ' अपभ्रंश-भाषाका प्रबन्धकाव्य है। रिदमिर्चारउकी रचना धवलइयाके आश्रयमें की गयी है। इस ग्रन्थ में रखें तीर्थंकर नेमिनाथ, श्रीकृष्ण और यादवोंकी कथा अंकित है ।
यह ग्रन्थ पड़ियाबद्ध शैली में लिखा गया है। अभी तक यह अप्राप्त है। इसमें नागकुमारकी कथा वर्णित है ।
स्वयंभुदेवने एक छन्दग्रन्धकी रचना की है, जिसका प्रकाशन प्रो० एच० डोर वेलणकरने किया है। इस ग्रन्थके प्रारम्भके तीन अध्यायोंमें प्राकृत्तके वर्णवत्तोंका और पांच शेष अध्यायोंमें अपन शके छन्दोंका विवेचन किया है। साथ ही छन्दोंके उदाहरण भी पूर्वकवियोंके ग्रन्थोंसे चुनकर दिये गये हैं।
इस ग्रन्थ के अन्तिम अध्यायमें दाहा, अडिल्ला, पड़िया आदि छन्दोंके स्वोपज्ञ उदाहरण दिये गये हैं । इस ग्रन्थमें पदमचरिज, बम्महतिलय, रक्षणा वली आदि ग्रन्थोंके भी उदाहरण दिये गये हैं। इसके अतिरिक्त प्राकृतिके ब्रह्मदत्त, दिवाकर, अंगारगण, मारुतदेव, हरदास, हरदत्त, धणदत्त, गुणधर, जोवदेव, विमलदेव, मुलदेव, कुमारदत्त, त्रिलोचन आदि कवियोंके नाम भी बाये हैं। अपनश-करियों में चतुर्मुख, धुस, घनदेव, धइल्ल, अज्जदेव, गोइन्द, सुद्धसील, जिणआस, विअड्ढके नाम भी आये हैं ।
पउमरिउके एक पद्यसे कवि अपभ्रंश-व्याकरण का भी संकेत प्राप्त होता है । बताया है कि अपन दारूप मतवाला हाथी तभी तक स्वच्छन्दतासे भ्रमण करता है, जब तक कि स्वयंभुव्याकरणरूप अंकुश नहीं पड़ता 1 परन्तु यह व्याकरणग्रन्थ अभी तक अनुपलब्ध है। श्रीप्रेमीजीका मत है कि सुद्धय चरिय कोई पृथक ग्रन्थ नहीं है, यह सुव्ययचरिउ होना चाहिए, जो पउम चरिउका अपर नाम है 1 निश्चयतः अपन शकाव्य-रचयिताओं में स्वयंभुका महनीय स्थान है। ये काव्य और शास्त्र दोनोंके पारंगत विद्वान हैं। इनकी राम अदितनी शनाया और मानारी सरसर, पाप्त है। प्रकृतिचित्रण और निरीक्षणको समता उनमें अद्भुत थी।
महाकवि स्वयंभु अपभ्रंश-साहित्यके ऐसे कवि हैं, जिन्होंने लोकचिका सर्वाधिक ध्यान रखा है । स्वयंभुकी रचनाएँ अपशकी आख्यानात्मक रचनाएं हैं, जिनका प्रभाव उत्तरवर्ती समस्त कवियोपर पड़ा है । काव्य
रचयिता के साथ स्वयंभु छन्दशास्त्र और व्याकरणके भी प्रकाण्ड पण्डित थे।छन्दचड़ामणि, बिजयपरिशेष और कविराज धवल इनके विरुद थे।
कवि स्वयंभुके पिताका नाम मारुतदेव और माताका नाम पधिनी था । मारुतदेव भी कवि थे । स्वयंभुने छन्दमें तहा य माउरदेवस्स' कहकर उनका निम्नलिखित दोहा उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत किया है
लद्धउ मित्त भमतेण रमणा अरचदेण ।।
सो सिज्जते सिजइ वि तह भरइ भरतेण ॥४-१
स्वयंभुदेव गृहस्थ थे, मुनि नहीं । 'पउमरिज' से अनगत होता है कि इनका कई पत्नियां थीं, जिनमेसे दोके नाम प्रसिद्ध है-एक अइच्चंबाआदित्यम्बा) और दुसरो सामिअंब्बा । ये दोनों हो पत्नियाँ सूशिक्षिता थीं। प्रथम पत्नीने अयोध्याकाण्ड और दूसरीने विद्याधरकाण्डकी प्रतिलिपि की थी। कविने उक्त दोनों काण्ड अपनी पत्नियोंसे लिखवाये थे ।
स्वयंभुदेवके अनेक पुत्र थे, जिनमें सबसे छोटे पुत्र त्रिभुवनस्वयंभु थे। श्रीप्रेमीजीका अनुमान है कि त्रिभुवनस्वयंभुकी माताका नाम सुअब्बा था, जो स्वयंभुदेवकी तृतीया पत्नी थीं। श्रीप्रेमौजीने अपने कथनकी पुष्टिके लिये निम्नलिखित पद्य उद्धृत किया है
सचे वि सुआ पंजरसुअन्च पढ़ि अक्ख राई सिक्खंति ।
कइराअस्स सुओ सुअव्व-सुइ-ाब्भ संभूत्रो॥
अपभ्रंशमें 'सुअ' शब्दसे सुत्त और शुक दोनोंका बोध होता है। इस पद्यमें कहा है कि सारेही सुत पिंजरेके सुओंके समान पढ़े हुए ही अक्षर सीखते हैं, पर कविराजसुत त्रिभुवन "भूत इब श्रुतिगर्भसम्भूत है। यहाँ श्लेष द्वारा सुअब्बाके शुचि गर्भसे उत्पन्न त्रिभुवन अर्थ भी प्रकट होता है। अतएव यह अनुमान सहजमें ही किया जा सकता है कि त्रिभुबनस्वयंभुको माताका नाम सुअब्बा था।
स्वयंभु शरीरसे बहुत दुबले-पतले और लँचे पादके थे। उनकी नाक चपटी और दाँत विरल थे । स्वयंभुका व्यक्तित्व प्रभावक था | वे शरीरसे क्षीण काय होने पर भी ज्ञानसे पुष्टकाय थे। स्वयंभुने अपने वंश, गोत्र आदिका निर्देश नहीं किया, पर पुष्पदन्तने अपने महापुराणमें इन्हें आपुलसंघीय बताया है । इस प्रकार ये यापनीय सम्प्रदायके अनुयायी जान पड़ते हैं।
स्वयंभूने अपने जन्मसे किस स्थानको पवित्र किया, यह कहना कठिन है, पर यह अनुमान सहजमें ही लगाया जा सकता है कि वे दाक्षिणात्य थे। उनके परिवार और सम्पकी व्यक्तियोंके नाम दाक्षिणात्य हैं। भारतदेव, धवलइया, बन्दइया, नाग आइच्चंबा, सामिअंब्बा आदि नाम कर्नाटकी हैं। अतएव इनका दाक्षिणात्य होना अबाधित है।
स्वयंभुदेव पहले धनञ्जयके आश्रित रहे और पश्चात् धवलइयाके । 'पउमचरिउ' की रचनामें कविने धनञ्जयका और 'रिट्ठमिचरिस' की रच नामें घबलइयाका प्रत्येक सन्धिमें उल्लेख किया है।
कवि स्वयंभुदेवने अपने समयके सम्बन्धमें कुछ भी निर्देश नहीं किया है। पर इनके द्वारा स्मृत कवि और अन्य कवियों द्वारा इनका उल्लेख किये जानेसे इनके स्थितिकालका अनुमान किया जा सकता है। कवि स्वयंभुदेवने 'पउमचरिउ' और "रिट्ठणेमिचार'मैं अपने पूर्ववर्ती कवियों और उनके कुछ अन्धोंका उल्लेख किया है। इससे उनके समयकी पूर्व सीमा निश्चित की जा सकती है । पाँच महाकाव्य, पिंगलका छन्दशास्त्र, भरतका नाट्यशास्त्र, भामह और दण्डीके अलंकारशास्त्र, इन्द्रके व्याकरण, व्यास-बाणका अक्षराडम्बर, नोहर्षका निपुणत्व और रविषेणाचार्यको रामकथा उल्लिखित है। इन समस्त अल्लेखोंमें रविषेण और उनका पारित ही अर्वाचीन है। पद्मचरितकी रचना वि० सं० ७३४ में हुई है। अतएव स्वयंभुके समयको पूर्वावधि वि० सं० ७३४ के बाद है।
स्वयंभुका उल्लेख महाकवि पुष्पदन्तने अपने पुराण में किया है और महा पुराणको रचना वि० सं० १०१६ में सम्पन्न हुई है। अतएव स्वयंभके समयको उत्तरसीमा वि० सं० १०१६ है। इस प्रकार स्वयं भदेव वि० सं० ७२४-१०१६ वि० सं० के मध्यवर्ती हैं। श्री प्रेमीजीने निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है 'स्वयंभुदेव हरिवंशपुराण कर्ता जिनसेनसे कुछ पहले ही हुए होंगे, क्योंकि जिस तरह उन्होंने 'पउमचरिउ' में रविषेणका उल्लेख किया है, उसी तरह 'रिट्ठमिचरिउ में हरिबंशके कर्ता जिनसेनका भी उल्लेख अवश्य किया होता यदि वे उनसे पहले हो गये होते तो। इसी तरह आदिपुराण, उत्तरपुराणके कर्ता जिनसेन, गुणभद्र भी स्वयंभुदेव द्वारा स्मरण किये जाने चाहिये थे। यह बात नहीं जंचती कि बाण, श्रीहर्ष, आदि अजैन कवियोंकी तो चर्चा करते और जिनसेन आदिको छोड़ देते। इससे यही अनुमान होता है कि स्वयंभुदेव दोनों जिनसेनोंसे कुछ पहले हो चुके होंगे । हरिबंशको रचना वि० सं०-८४० में समाप्त हुई थी। इसलिये ७३४ से ८४० के बीच स्वयंभुका समय माना जा सकता है।' डा. देवेन्द्र जैनने इनका समय ई० सन् ७८३ अनुमानित किया है। . यह अनुमान ठीक सिद्ध होता है।
कविकी अभी तक कुल तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं और तीन रचनाएं उनके नाम पर और मानी जाती हैं
१. पङमचरिड
२. रिदमिचरिउ
३. स्वयंभुछन्द
४. सोडयचरिउ
५. पंचमिचरित
६. स्वयंभुव्याकरण
१. पउमचरित
'पउमाचार एक श्रेष्ठ महाकाय सनसमालो गीका रूप देकर कविने उक्त ग्रन्यकी विशेषता प्रदर्शित की है
बदमाण-मुहकुहर-विणिग्गय रामकहा-गहएह कमागय
अक्खर-वास-जलोह-मणोहर सु-अलंकार छन्द-मच्छोहर
दोह-समास-पवाहावं किय सक्कय-पायय पुलिणालंकिय
देसीभाषा-उभय-तडुज्जल कवि-दुक्कर-घण-सह-सिलायल'
'पउमरिउ' का ग्रन्थप्रमाण बारह हजार श्लोक है। और इसमें सब मिलाकर १० सन्धियां हैं।
विद्याधरकाण्ड २० सन्धियाँ, अयोध्याकाण्ड २२ सन्धियां, सुन्दरकाण्ड, १४ सन्धियाँ, युद्धकाण्ड २१ सन्धियाँ, उत्तरकाण्ड १३ सन्धियाँ ।
इन नब्बे सन्धियोंमें ८३ सन्धियोंकी रचना स्वयम्भुदेवने की है । विद्याधर काण्डमें कुलकरोंके उल्लेख के अनन्तर राक्षस और वानरबंशका विकास बतलाया गया है। अयोध्या में संगरचक्रवर्ती उत्पन्न हुमा । उसके साठ हजार पुत्र थे। एक बार वे केलासपर्वतपर ऋषभदेवको बन्दनाके लिये गये। वहाँ पर जिनमन्दिरों की सुरक्षाके लिये उन्होंने उसके चारों ओर खाई खोदना आरम्भ किया । घरणेन्द्र कुपित हुआ और उसने सबको भस्म कर दिया, केवल भगीरथ और भीम ही शेष घले। ची को बरबा औः या भगीरथको राज्य देकर दीक्षित हो गया। सगर राजाका समची सहस्राक्ष था । उसने अपने पिताको हत्या करनेवाले पुण्यमेघ पर चढ़ाई की और उसे मार डाला ! उसका पुत्र तोयदवाहन किसी प्रकार भाग कर द्वितीय तीर्थकर अजितनाथके समव शरणमें पहुँचा। सहस्राक्ष भी यहाँ आया। पर समवशरण में प्रवेश करते हो उसका क्रोध नष्ट हो गया । इसी तोयदवाहनदे लकानगरीकी नींव डाली और यहीं से राक्षसवंश आरंभ हुआ।
सगरके बाद ६४वीं पीढ़ी में कीतिधवल अयोध्याके राज्यपर आसीन हुआ । उसका साला श्रीकण्ठ सपत्नीक यहां आया। कीर्तिधवलने प्रसन्न होकर उसे बानरद्वीप दे दिया । श्रीकण्ठने पहाड़ीपर किष्कपुर बसाया । तदनन्तर अमर प्रभु राजा हुआ। उसने लंकाको राजकुमारीसे विवाह किया। नववधू जब ससुराल में आयी, तो आँगनमें बन्दरोंके सजीव चित्र देखकर भयभीत हो गयी । इसपर अमरप्रभु चित्रकारपर अप्रसन्न हो उठे । मन्त्रियोंने उसे बताया कि वानरोंसे उसके परिवारका पुराना सम्बन्ध चला जा रहा है । उसे तोड़ना ठीक नहीं। उसने बानरको अपना राजविह मान लिया । लंकामें राक्षसवंशको समद्धि हई और क्रमश: मालीके भाई सुमालीका पुत्र रत्ननव-राजा हुआ। उसके तीन पुत्र थे-रावण, विभीषण और कुम्भकरण | एक लड़की भी थी चन्द्रनखा । रावण अत्यन्त शरवीर और पराक्रमी था । मन्दोदरीके सिवा उसकी छह हजार रानियाँ थीं । रावण किष्कपुरके राजा बालिको हराना चाहता था। पर उसे उल्टी हार खानी पड़ी । बालि अपने अनुज सुग्रीवको राज्य देकर तप करने चला गया । रावण बड़ा जिनभक्त था । उसने अपने पराक्रमसे यम, इन्द्र, वरुण आदि राजाओंको परास्त किया था।
अयोध्याकाण्डमें अयोध्याके राजाओंका वर्णन आया है। इस नगरीमें ऋषभदेवके वंशसे समयानुसार अनेक राजा हएं और सबने दिगम्बर दोक्षा लेकर तपस्या की और मोक्ष प्राप्त किया । इस वंशके राजा रघुके अरण्य नामक पुत्र हुआ। इसकी रानीका नाम पृथ्वीमति था। इस दम्पत्तिके दो पुत्र हुए अनन्त रथ और दशरथ । राजा अरण्य अपने बड़े पुत्र सहित संसारसे विरक्त हो तपस्या करने चला गया । तथा अयोध्याका शासनभार दशरथको मिला | एक दिन दशरथकी सभामें नारद मुनि आये। उन्होंने कहा कि रावणने किसी निमित्तज्ञानीसे यह जान लिया है कि दशरथपुत्र और जनकपुत्री के निमित्तसे उसकी मृत्यु होगी। अतः उसने विभोषणको आप दोनोंको मारनेके लिये नियुक्त किया है । आप सावधान होकर कहीं छुप जायें। राजा दशरथ अपनी रक्षाके लिये देश-देशान्तर में गये और मार्ग में कंफेयीसे विवाह किया । कुछ समय पश्चात् महाराज दशरथके चार पुत्र हुए और एक युद्ध में प्रसन्न होकर उन्होंने कैकेयी को वरदान भी दिया। रामके राज्यभिषेकके समय कैकेयीने वरदान मांगा, जिससे राम, लक्ष्मण और सीता बन गये तथा महाराज दशरथने जिनदीक्षा प्रहण की । सीताहरण हो जानेपर रामने वानरवंशी विद्याधर पवनजय और अम्बनाके पुत्र हनुमान एवं सुग्रीवसे मित्रता की । रामने सुग्रीवके शत्रु साहस गतिका वध कर सदाके लिये सुग्रीवको अपने वश कर लिया और इन्हींके साहाय्य से रावणका वध कर सौताको प्राप्त किया।
अयोध्या लौटकर लोकापवादके भयसे सीताका निर्वासन किया । सौभाग्य से जिस स्थानपर जंगलमें सीताको छोड़ा गया था, वनजंघ राजा वहाँ आया और अपने घर ले जाकर सीताका संरक्षण करने लगा | सोताके पुत्र लवणा कंशने अपके पराक्रमसे सारे को बीमार न मागकी पति पती : जब यह वीर दिग्विजय करता हुआ अयोध्या आया, तो रामसे युद्ध हुआ तथा इसी युद्ध में पिता-पुत्र परस्परमें परिचित भी हुए । सीता अग्निपरीक्षा उत्तीर्ण हुई । वह विरक्त हो तपस्या करने चली गयी और स्त्रीलिंग छेदकर स्वर्ग प्राप्त किया। लक्ष्मणकी मृत्यु हो जानेपर राम शोकाभिभूत हो गये । कुछ काल पश्चात् बोध प्राप्त कर दिगम्बर मुनि बन दुर्टर तपश्चरण कर मोक्ष प्राप्त किया।
यह सफल महाकाव्य है । इसकी आदिकालिक कथा रामकथा है । अवान्तर या प्रासंगिक कथाएँ बानरवंश और विद्याधरवंशके आख्यानके रूपमें आयी हैं। प्रासंगिक कथावस्तुमें प्रकरी और पताका दोनों ही प्रकारको कथाए हैं। पताकारूपमें सुग्रीव और मास्तनन्दनकी कथाएं आधिकारिक कथाके साथ-साथ चली हैं और प्रकरीरूपमें वालि, भामण्डल, वनजंघ आदि राजाओंके आख्यान हैं। कथागठनको दृष्टिसे कार्य-अवस्थाएं, अर्थ-प्रकृतियाँ और सन्धियाँ सभी विद्यमान हैं। नायक, रस, अलंकार, संवाद, वस्तुण्यापारवर्णन आदि सभी दुष्टियोंसे यह काव्य उत्तम कोटिका काध्य है। यहां कविके प्रकृतिवर्णनको उपस्थित किया जाता है । कनिने इसमें उपमा और उत्प्रेक्षाओंका सुन्दर जाल बाँधा है
हसइ व रिउ-धिरु मुह-क्य बंधरू ।
विद्रुममाहरू मात्तिय ईतरु ।।१।।
छिचइ व मत्थए मेछ-महीहरु ।
तुज्झु बि मज्झु वि कवणु पईहरु |२||
जं चन्द्रकन्त-सलिलाहिसित्तु । अहिसेय-पणालुवफुसिय-चित्तु ॥ ३॥
जं विद्यम-मसाय-कन्तिकाहिं । पिउ गयगुव सरवणु-पन्तियाहि ।। ४ ।।
जं इन्द्राणील-माला-मसीएं । आलिहइ दिस-भित्तीएं तीएं ।। ५ ।।
बहि पोमराय-मणि-गणु विहाइ । बिउ अहिणव-सम्झा-राउ-गाई ॥ ६ ॥
इसप्रकार यह अन्य अपभ्रंश-काव्यका मुकुटर्माण है।
यह हरिवंशपुराणके नामसे प्रसिद्ध है। अठारह हजार श्लोकप्रमाण हैऔर ११२ सन्धियाँ हैं । इसमें तीन काण्ड हैं—यादव, कुरु और युद्ध । यादवमें १३, कुरुमें १९, और युद्ध में ६० सन्धियाँ हैं । सन्धियोंकी यह गणना युद्धकाण्डके यन्तमें अंकित है । यहाँ यह भी बताया गया गया कि प्रत्येक काण्ड कब लिखा गया और उसकी रचनामें कितना समय लगा। इन सन्धियोंमें ९९ सन्धि स्वंभुदेवके द्वारा लिखी गयी है । २५वी सन्धिके अन्त में एक पद आया है, जिसमेंबताया है कि पउमचारउ या सुचयधारउ बनकर अब में हरिवंशको स्वनामें . . प्रवृत्त होता हूँ।
'रिडणे मिचरिउ' अपभ्रंश-भाषाका प्रबन्धकाव्य है। रिदमिर्चारउकी रचना धवलइयाके आश्रयमें की गयी है। इस ग्रन्थ में रखें तीर्थंकर नेमिनाथ, श्रीकृष्ण और यादवोंकी कथा अंकित है ।
यह ग्रन्थ पड़ियाबद्ध शैली में लिखा गया है। अभी तक यह अप्राप्त है। इसमें नागकुमारकी कथा वर्णित है ।
स्वयंभुदेवने एक छन्दग्रन्धकी रचना की है, जिसका प्रकाशन प्रो० एच० डोर वेलणकरने किया है। इस ग्रन्थके प्रारम्भके तीन अध्यायोंमें प्राकृत्तके वर्णवत्तोंका और पांच शेष अध्यायोंमें अपन शके छन्दोंका विवेचन किया है। साथ ही छन्दोंके उदाहरण भी पूर्वकवियोंके ग्रन्थोंसे चुनकर दिये गये हैं।
इस ग्रन्थ के अन्तिम अध्यायमें दाहा, अडिल्ला, पड़िया आदि छन्दोंके स्वोपज्ञ उदाहरण दिये गये हैं । इस ग्रन्थमें पदमचरिज, बम्महतिलय, रक्षणा वली आदि ग्रन्थोंके भी उदाहरण दिये गये हैं। इसके अतिरिक्त प्राकृतिके ब्रह्मदत्त, दिवाकर, अंगारगण, मारुतदेव, हरदास, हरदत्त, धणदत्त, गुणधर, जोवदेव, विमलदेव, मुलदेव, कुमारदत्त, त्रिलोचन आदि कवियोंके नाम भी बाये हैं। अपनश-करियों में चतुर्मुख, धुस, घनदेव, धइल्ल, अज्जदेव, गोइन्द, सुद्धसील, जिणआस, विअड्ढके नाम भी आये हैं ।
पउमरिउके एक पद्यसे कवि अपभ्रंश-व्याकरण का भी संकेत प्राप्त होता है । बताया है कि अपन दारूप मतवाला हाथी तभी तक स्वच्छन्दतासे भ्रमण करता है, जब तक कि स्वयंभुव्याकरणरूप अंकुश नहीं पड़ता 1 परन्तु यह व्याकरणग्रन्थ अभी तक अनुपलब्ध है। श्रीप्रेमीजीका मत है कि सुद्धय चरिय कोई पृथक ग्रन्थ नहीं है, यह सुव्ययचरिउ होना चाहिए, जो पउम चरिउका अपर नाम है 1 निश्चयतः अपन शकाव्य-रचयिताओं में स्वयंभुका महनीय स्थान है। ये काव्य और शास्त्र दोनोंके पारंगत विद्वान हैं। इनकी राम अदितनी शनाया और मानारी सरसर, पाप्त है। प्रकृतिचित्रण और निरीक्षणको समता उनमें अद्भुत थी।
#Swayambhu
आचार्यतुल्य महाकवि स्वयंभू देव (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 12 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 12 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
महाकवि स्वयंभु अपभ्रंश-साहित्यके ऐसे कवि हैं, जिन्होंने लोकचिका सर्वाधिक ध्यान रखा है । स्वयंभुकी रचनाएँ अपशकी आख्यानात्मक रचनाएं हैं, जिनका प्रभाव उत्तरवर्ती समस्त कवियोपर पड़ा है । काव्य
रचयिता के साथ स्वयंभु छन्दशास्त्र और व्याकरणके भी प्रकाण्ड पण्डित थे।छन्दचड़ामणि, बिजयपरिशेष और कविराज धवल इनके विरुद थे।
कवि स्वयंभुके पिताका नाम मारुतदेव और माताका नाम पधिनी था । मारुतदेव भी कवि थे । स्वयंभुने छन्दमें तहा य माउरदेवस्स' कहकर उनका निम्नलिखित दोहा उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत किया है
लद्धउ मित्त भमतेण रमणा अरचदेण ।।
सो सिज्जते सिजइ वि तह भरइ भरतेण ॥४-१
स्वयंभुदेव गृहस्थ थे, मुनि नहीं । 'पउमरिज' से अनगत होता है कि इनका कई पत्नियां थीं, जिनमेसे दोके नाम प्रसिद्ध है-एक अइच्चंबाआदित्यम्बा) और दुसरो सामिअंब्बा । ये दोनों हो पत्नियाँ सूशिक्षिता थीं। प्रथम पत्नीने अयोध्याकाण्ड और दूसरीने विद्याधरकाण्डकी प्रतिलिपि की थी। कविने उक्त दोनों काण्ड अपनी पत्नियोंसे लिखवाये थे ।
स्वयंभुदेवके अनेक पुत्र थे, जिनमें सबसे छोटे पुत्र त्रिभुवनस्वयंभु थे। श्रीप्रेमीजीका अनुमान है कि त्रिभुवनस्वयंभुकी माताका नाम सुअब्बा था, जो स्वयंभुदेवकी तृतीया पत्नी थीं। श्रीप्रेमौजीने अपने कथनकी पुष्टिके लिये निम्नलिखित पद्य उद्धृत किया है
सचे वि सुआ पंजरसुअन्च पढ़ि अक्ख राई सिक्खंति ।
कइराअस्स सुओ सुअव्व-सुइ-ाब्भ संभूत्रो॥
अपभ्रंशमें 'सुअ' शब्दसे सुत्त और शुक दोनोंका बोध होता है। इस पद्यमें कहा है कि सारेही सुत पिंजरेके सुओंके समान पढ़े हुए ही अक्षर सीखते हैं, पर कविराजसुत त्रिभुवन "भूत इब श्रुतिगर्भसम्भूत है। यहाँ श्लेष द्वारा सुअब्बाके शुचि गर्भसे उत्पन्न त्रिभुवन अर्थ भी प्रकट होता है। अतएव यह अनुमान सहजमें ही किया जा सकता है कि त्रिभुबनस्वयंभुको माताका नाम सुअब्बा था।
स्वयंभु शरीरसे बहुत दुबले-पतले और लँचे पादके थे। उनकी नाक चपटी और दाँत विरल थे । स्वयंभुका व्यक्तित्व प्रभावक था | वे शरीरसे क्षीण काय होने पर भी ज्ञानसे पुष्टकाय थे। स्वयंभुने अपने वंश, गोत्र आदिका निर्देश नहीं किया, पर पुष्पदन्तने अपने महापुराणमें इन्हें आपुलसंघीय बताया है । इस प्रकार ये यापनीय सम्प्रदायके अनुयायी जान पड़ते हैं।
स्वयंभूने अपने जन्मसे किस स्थानको पवित्र किया, यह कहना कठिन है, पर यह अनुमान सहजमें ही लगाया जा सकता है कि वे दाक्षिणात्य थे। उनके परिवार और सम्पकी व्यक्तियोंके नाम दाक्षिणात्य हैं। भारतदेव, धवलइया, बन्दइया, नाग आइच्चंबा, सामिअंब्बा आदि नाम कर्नाटकी हैं। अतएव इनका दाक्षिणात्य होना अबाधित है।
स्वयंभुदेव पहले धनञ्जयके आश्रित रहे और पश्चात् धवलइयाके । 'पउमचरिउ' की रचनामें कविने धनञ्जयका और 'रिट्ठमिचरिस' की रच नामें घबलइयाका प्रत्येक सन्धिमें उल्लेख किया है।
कवि स्वयंभुदेवने अपने समयके सम्बन्धमें कुछ भी निर्देश नहीं किया है। पर इनके द्वारा स्मृत कवि और अन्य कवियों द्वारा इनका उल्लेख किये जानेसे इनके स्थितिकालका अनुमान किया जा सकता है। कवि स्वयंभुदेवने 'पउमचरिउ' और "रिट्ठणेमिचार'मैं अपने पूर्ववर्ती कवियों और उनके कुछ अन्धोंका उल्लेख किया है। इससे उनके समयकी पूर्व सीमा निश्चित की जा सकती है । पाँच महाकाव्य, पिंगलका छन्दशास्त्र, भरतका नाट्यशास्त्र, भामह और दण्डीके अलंकारशास्त्र, इन्द्रके व्याकरण, व्यास-बाणका अक्षराडम्बर, नोहर्षका निपुणत्व और रविषेणाचार्यको रामकथा उल्लिखित है। इन समस्त अल्लेखोंमें रविषेण और उनका पारित ही अर्वाचीन है। पद्मचरितकी रचना वि० सं० ७३४ में हुई है। अतएव स्वयंभुके समयको पूर्वावधि वि० सं० ७३४ के बाद है।
स्वयंभुका उल्लेख महाकवि पुष्पदन्तने अपने पुराण में किया है और महा पुराणको रचना वि० सं० १०१६ में सम्पन्न हुई है। अतएव स्वयंभके समयको उत्तरसीमा वि० सं० १०१६ है। इस प्रकार स्वयं भदेव वि० सं० ७२४-१०१६ वि० सं० के मध्यवर्ती हैं। श्री प्रेमीजीने निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है 'स्वयंभुदेव हरिवंशपुराण कर्ता जिनसेनसे कुछ पहले ही हुए होंगे, क्योंकि जिस तरह उन्होंने 'पउमचरिउ' में रविषेणका उल्लेख किया है, उसी तरह 'रिट्ठमिचरिउ में हरिबंशके कर्ता जिनसेनका भी उल्लेख अवश्य किया होता यदि वे उनसे पहले हो गये होते तो। इसी तरह आदिपुराण, उत्तरपुराणके कर्ता जिनसेन, गुणभद्र भी स्वयंभुदेव द्वारा स्मरण किये जाने चाहिये थे। यह बात नहीं जंचती कि बाण, श्रीहर्ष, आदि अजैन कवियोंकी तो चर्चा करते और जिनसेन आदिको छोड़ देते। इससे यही अनुमान होता है कि स्वयंभुदेव दोनों जिनसेनोंसे कुछ पहले हो चुके होंगे । हरिबंशको रचना वि० सं०-८४० में समाप्त हुई थी। इसलिये ७३४ से ८४० के बीच स्वयंभुका समय माना जा सकता है।' डा. देवेन्द्र जैनने इनका समय ई० सन् ७८३ अनुमानित किया है। . यह अनुमान ठीक सिद्ध होता है।
कविकी अभी तक कुल तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं और तीन रचनाएं उनके नाम पर और मानी जाती हैं
१. पङमचरिड
२. रिदमिचरिउ
३. स्वयंभुछन्द
४. सोडयचरिउ
५. पंचमिचरित
६. स्वयंभुव्याकरण
१. पउमचरित
'पउमाचार एक श्रेष्ठ महाकाय सनसमालो गीका रूप देकर कविने उक्त ग्रन्यकी विशेषता प्रदर्शित की है
बदमाण-मुहकुहर-विणिग्गय रामकहा-गहएह कमागय
अक्खर-वास-जलोह-मणोहर सु-अलंकार छन्द-मच्छोहर
दोह-समास-पवाहावं किय सक्कय-पायय पुलिणालंकिय
देसीभाषा-उभय-तडुज्जल कवि-दुक्कर-घण-सह-सिलायल'
'पउमरिउ' का ग्रन्थप्रमाण बारह हजार श्लोक है। और इसमें सब मिलाकर १० सन्धियां हैं।
विद्याधरकाण्ड २० सन्धियाँ, अयोध्याकाण्ड २२ सन्धियां, सुन्दरकाण्ड, १४ सन्धियाँ, युद्धकाण्ड २१ सन्धियाँ, उत्तरकाण्ड १३ सन्धियाँ ।
इन नब्बे सन्धियोंमें ८३ सन्धियोंकी रचना स्वयम्भुदेवने की है । विद्याधर काण्डमें कुलकरोंके उल्लेख के अनन्तर राक्षस और वानरबंशका विकास बतलाया गया है। अयोध्या में संगरचक्रवर्ती उत्पन्न हुमा । उसके साठ हजार पुत्र थे। एक बार वे केलासपर्वतपर ऋषभदेवको बन्दनाके लिये गये। वहाँ पर जिनमन्दिरों की सुरक्षाके लिये उन्होंने उसके चारों ओर खाई खोदना आरम्भ किया । घरणेन्द्र कुपित हुआ और उसने सबको भस्म कर दिया, केवल भगीरथ और भीम ही शेष घले। ची को बरबा औः या भगीरथको राज्य देकर दीक्षित हो गया। सगर राजाका समची सहस्राक्ष था । उसने अपने पिताको हत्या करनेवाले पुण्यमेघ पर चढ़ाई की और उसे मार डाला ! उसका पुत्र तोयदवाहन किसी प्रकार भाग कर द्वितीय तीर्थकर अजितनाथके समव शरणमें पहुँचा। सहस्राक्ष भी यहाँ आया। पर समवशरण में प्रवेश करते हो उसका क्रोध नष्ट हो गया । इसी तोयदवाहनदे लकानगरीकी नींव डाली और यहीं से राक्षसवंश आरंभ हुआ।
सगरके बाद ६४वीं पीढ़ी में कीतिधवल अयोध्याके राज्यपर आसीन हुआ । उसका साला श्रीकण्ठ सपत्नीक यहां आया। कीर्तिधवलने प्रसन्न होकर उसे बानरद्वीप दे दिया । श्रीकण्ठने पहाड़ीपर किष्कपुर बसाया । तदनन्तर अमर प्रभु राजा हुआ। उसने लंकाको राजकुमारीसे विवाह किया। नववधू जब ससुराल में आयी, तो आँगनमें बन्दरोंके सजीव चित्र देखकर भयभीत हो गयी । इसपर अमरप्रभु चित्रकारपर अप्रसन्न हो उठे । मन्त्रियोंने उसे बताया कि वानरोंसे उसके परिवारका पुराना सम्बन्ध चला जा रहा है । उसे तोड़ना ठीक नहीं। उसने बानरको अपना राजविह मान लिया । लंकामें राक्षसवंशको समद्धि हई और क्रमश: मालीके भाई सुमालीका पुत्र रत्ननव-राजा हुआ। उसके तीन पुत्र थे-रावण, विभीषण और कुम्भकरण | एक लड़की भी थी चन्द्रनखा । रावण अत्यन्त शरवीर और पराक्रमी था । मन्दोदरीके सिवा उसकी छह हजार रानियाँ थीं । रावण किष्कपुरके राजा बालिको हराना चाहता था। पर उसे उल्टी हार खानी पड़ी । बालि अपने अनुज सुग्रीवको राज्य देकर तप करने चला गया । रावण बड़ा जिनभक्त था । उसने अपने पराक्रमसे यम, इन्द्र, वरुण आदि राजाओंको परास्त किया था।
अयोध्याकाण्डमें अयोध्याके राजाओंका वर्णन आया है। इस नगरीमें ऋषभदेवके वंशसे समयानुसार अनेक राजा हएं और सबने दिगम्बर दोक्षा लेकर तपस्या की और मोक्ष प्राप्त किया । इस वंशके राजा रघुके अरण्य नामक पुत्र हुआ। इसकी रानीका नाम पृथ्वीमति था। इस दम्पत्तिके दो पुत्र हुए अनन्त रथ और दशरथ । राजा अरण्य अपने बड़े पुत्र सहित संसारसे विरक्त हो तपस्या करने चला गया । तथा अयोध्याका शासनभार दशरथको मिला | एक दिन दशरथकी सभामें नारद मुनि आये। उन्होंने कहा कि रावणने किसी निमित्तज्ञानीसे यह जान लिया है कि दशरथपुत्र और जनकपुत्री के निमित्तसे उसकी मृत्यु होगी। अतः उसने विभोषणको आप दोनोंको मारनेके लिये नियुक्त किया है । आप सावधान होकर कहीं छुप जायें। राजा दशरथ अपनी रक्षाके लिये देश-देशान्तर में गये और मार्ग में कंफेयीसे विवाह किया । कुछ समय पश्चात् महाराज दशरथके चार पुत्र हुए और एक युद्ध में प्रसन्न होकर उन्होंने कैकेयी को वरदान भी दिया। रामके राज्यभिषेकके समय कैकेयीने वरदान मांगा, जिससे राम, लक्ष्मण और सीता बन गये तथा महाराज दशरथने जिनदीक्षा प्रहण की । सीताहरण हो जानेपर रामने वानरवंशी विद्याधर पवनजय और अम्बनाके पुत्र हनुमान एवं सुग्रीवसे मित्रता की । रामने सुग्रीवके शत्रु साहस गतिका वध कर सदाके लिये सुग्रीवको अपने वश कर लिया और इन्हींके साहाय्य से रावणका वध कर सौताको प्राप्त किया।
अयोध्या लौटकर लोकापवादके भयसे सीताका निर्वासन किया । सौभाग्य से जिस स्थानपर जंगलमें सीताको छोड़ा गया था, वनजंघ राजा वहाँ आया और अपने घर ले जाकर सीताका संरक्षण करने लगा | सोताके पुत्र लवणा कंशने अपके पराक्रमसे सारे को बीमार न मागकी पति पती : जब यह वीर दिग्विजय करता हुआ अयोध्या आया, तो रामसे युद्ध हुआ तथा इसी युद्ध में पिता-पुत्र परस्परमें परिचित भी हुए । सीता अग्निपरीक्षा उत्तीर्ण हुई । वह विरक्त हो तपस्या करने चली गयी और स्त्रीलिंग छेदकर स्वर्ग प्राप्त किया। लक्ष्मणकी मृत्यु हो जानेपर राम शोकाभिभूत हो गये । कुछ काल पश्चात् बोध प्राप्त कर दिगम्बर मुनि बन दुर्टर तपश्चरण कर मोक्ष प्राप्त किया।
यह सफल महाकाव्य है । इसकी आदिकालिक कथा रामकथा है । अवान्तर या प्रासंगिक कथाएँ बानरवंश और विद्याधरवंशके आख्यानके रूपमें आयी हैं। प्रासंगिक कथावस्तुमें प्रकरी और पताका दोनों ही प्रकारको कथाए हैं। पताकारूपमें सुग्रीव और मास्तनन्दनकी कथाएं आधिकारिक कथाके साथ-साथ चली हैं और प्रकरीरूपमें वालि, भामण्डल, वनजंघ आदि राजाओंके आख्यान हैं। कथागठनको दृष्टिसे कार्य-अवस्थाएं, अर्थ-प्रकृतियाँ और सन्धियाँ सभी विद्यमान हैं। नायक, रस, अलंकार, संवाद, वस्तुण्यापारवर्णन आदि सभी दुष्टियोंसे यह काव्य उत्तम कोटिका काध्य है। यहां कविके प्रकृतिवर्णनको उपस्थित किया जाता है । कनिने इसमें उपमा और उत्प्रेक्षाओंका सुन्दर जाल बाँधा है
हसइ व रिउ-धिरु मुह-क्य बंधरू ।
विद्रुममाहरू मात्तिय ईतरु ।।१।।
छिचइ व मत्थए मेछ-महीहरु ।
तुज्झु बि मज्झु वि कवणु पईहरु |२||
जं चन्द्रकन्त-सलिलाहिसित्तु । अहिसेय-पणालुवफुसिय-चित्तु ॥ ३॥
जं विद्यम-मसाय-कन्तिकाहिं । पिउ गयगुव सरवणु-पन्तियाहि ।। ४ ।।
जं इन्द्राणील-माला-मसीएं । आलिहइ दिस-भित्तीएं तीएं ।। ५ ।।
बहि पोमराय-मणि-गणु विहाइ । बिउ अहिणव-सम्झा-राउ-गाई ॥ ६ ॥
इसप्रकार यह अन्य अपभ्रंश-काव्यका मुकुटर्माण है।
यह हरिवंशपुराणके नामसे प्रसिद्ध है। अठारह हजार श्लोकप्रमाण हैऔर ११२ सन्धियाँ हैं । इसमें तीन काण्ड हैं—यादव, कुरु और युद्ध । यादवमें १३, कुरुमें १९, और युद्ध में ६० सन्धियाँ हैं । सन्धियोंकी यह गणना युद्धकाण्डके यन्तमें अंकित है । यहाँ यह भी बताया गया गया कि प्रत्येक काण्ड कब लिखा गया और उसकी रचनामें कितना समय लगा। इन सन्धियोंमें ९९ सन्धि स्वंभुदेवके द्वारा लिखी गयी है । २५वी सन्धिके अन्त में एक पद आया है, जिसमेंबताया है कि पउमचारउ या सुचयधारउ बनकर अब में हरिवंशको स्वनामें . . प्रवृत्त होता हूँ।
'रिडणे मिचरिउ' अपभ्रंश-भाषाका प्रबन्धकाव्य है। रिदमिर्चारउकी रचना धवलइयाके आश्रयमें की गयी है। इस ग्रन्थ में रखें तीर्थंकर नेमिनाथ, श्रीकृष्ण और यादवोंकी कथा अंकित है ।
यह ग्रन्थ पड़ियाबद्ध शैली में लिखा गया है। अभी तक यह अप्राप्त है। इसमें नागकुमारकी कथा वर्णित है ।
स्वयंभुदेवने एक छन्दग्रन्धकी रचना की है, जिसका प्रकाशन प्रो० एच० डोर वेलणकरने किया है। इस ग्रन्थके प्रारम्भके तीन अध्यायोंमें प्राकृत्तके वर्णवत्तोंका और पांच शेष अध्यायोंमें अपन शके छन्दोंका विवेचन किया है। साथ ही छन्दोंके उदाहरण भी पूर्वकवियोंके ग्रन्थोंसे चुनकर दिये गये हैं।
इस ग्रन्थ के अन्तिम अध्यायमें दाहा, अडिल्ला, पड़िया आदि छन्दोंके स्वोपज्ञ उदाहरण दिये गये हैं । इस ग्रन्थमें पदमचरिज, बम्महतिलय, रक्षणा वली आदि ग्रन्थोंके भी उदाहरण दिये गये हैं। इसके अतिरिक्त प्राकृतिके ब्रह्मदत्त, दिवाकर, अंगारगण, मारुतदेव, हरदास, हरदत्त, धणदत्त, गुणधर, जोवदेव, विमलदेव, मुलदेव, कुमारदत्त, त्रिलोचन आदि कवियोंके नाम भी बाये हैं। अपनश-करियों में चतुर्मुख, धुस, घनदेव, धइल्ल, अज्जदेव, गोइन्द, सुद्धसील, जिणआस, विअड्ढके नाम भी आये हैं ।
पउमरिउके एक पद्यसे कवि अपभ्रंश-व्याकरण का भी संकेत प्राप्त होता है । बताया है कि अपन दारूप मतवाला हाथी तभी तक स्वच्छन्दतासे भ्रमण करता है, जब तक कि स्वयंभुव्याकरणरूप अंकुश नहीं पड़ता 1 परन्तु यह व्याकरणग्रन्थ अभी तक अनुपलब्ध है। श्रीप्रेमीजीका मत है कि सुद्धय चरिय कोई पृथक ग्रन्थ नहीं है, यह सुव्ययचरिउ होना चाहिए, जो पउम चरिउका अपर नाम है 1 निश्चयतः अपन शकाव्य-रचयिताओं में स्वयंभुका महनीय स्थान है। ये काव्य और शास्त्र दोनोंके पारंगत विद्वान हैं। इनकी राम अदितनी शनाया और मानारी सरसर, पाप्त है। प्रकृतिचित्रण और निरीक्षणको समता उनमें अद्भुत थी।
Acharyatulya Mahakavi Swayambhu Dev (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 12 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
#Swayambhu
15000
#Swayambhu
Swayambhu
You cannot copy content of this page