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#Kankamar
मुनि कनकामर ने 'करकंडुचरिङ'के आदि और अन्तमें अपने गुरुका नाम पंडित या बुधमंगलदेव बताया है | अन्तिम प्रशस्तिमें कहा है कि वे ब्राह्मणा वंशके चन्द्रऋषिगोत्रीय थे। जब विरक्त होकर बे दिगम्बर मुनि हो गये, तो उनका नाम कनकामर प्रसिद्ध हुआ | श्री डॉ हीरालालजी जैन ने बताया है कि पट्टाबलियोंके अनुसार सुहस्तिके शिष्य सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध द्वारा स्थापित कोटिकगणकी बैरिशाखाका एक कुल चन्द्रनामक हुआ । चन्द्रकुलके भी अनेक अन्वय और गच्छ हुए । उत्तराध्ययनको शिष्यहिता नामक वृत्तिके कर्ता शान्ति सूरि चन्द्रकुलके काठक रायसे उत्पन्न थारापद्र-गच्छके थे और सुखबोधटीका के कर्ता देवेन्द्र पणि भी चन्द्रकुलके थे। किन्तु ये सब श्वेताम्बर परम्पराके भेद-प्रभेद हैं, दिगम्बर परम्पराके नहीं। मुनि कानकामर दिगम्बर मुनि थे । अतएव कमकामरका चन्द्रऋषिगोत्र देशीगण के चन्द्रकराचार्याम्नायके अन्तर्गत है । इतिहाससे यह सिद्ध है कि चन्दल नरेशोंने भी अपनेको चन्द्रायऋषि वंशी कहा है। अत: बहुत संभव है कि चन्द्रकराचार्याम्नाय चन्देल वंशी राज कुलमेंसे ही हुए किसी जैन मुनिने स्थापित किया हो। स्वयं कनकामर भी इसी कुलके रहे हों।
कविकी गुरुपरम्पराके सम्बन्ध में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती । अन्तिम प्रशस्तिमें उन्होंने अपनेको बुधमंगलदेवका शिष्य कहा है | श्री डॉ० हीरालाल जी जैनने रत्नाकर या धर्मरत्नाकर नामक संस्कृत-ग्रंथके रचयिता पं० मंगल देवको कहा है। इस मंथकी पाण्डुलिपियां जयपुर और कारंजामें प्राप्त हैं। जयपुरकी प्रतिमें पुष्पिकानाक्य निम्न प्रकार है
"सं० १६८० वर्षे काष्ठासंघे नन्दतटग्रामे भट्टारकश्रीभूषणशिष्यपंडित मंगलकृतशास्त्ररत्नाकरनाम शास्त्र सम्पूर्ण ।"
इससे डॉ० जैनने यह अनुमान लगाया है कि सं० १६८० ग्रंथ रचनाका काल नहीं, लेखनका काल है। कारंजाके शास्त्रभंडारकी प्रतिमें उसका लेखनकाल १६६७ अंकित किया है। काष्ठासंघ और नन्दीतट ग्रामका प्राचीन तम उल्लेख देवसेनकृत दर्शनसार गाथा ३८ में प्राप्त होता है, जहाँ वि० सं० ७५३ में नन्दितटग्राममें काष्ठासंघको उत्पत्ति बताई गई है। यदि कनकामरके कालके समीप श्रीभूषण और उनके शिष्य मंगलदेवका अस्तित्व सिद्ध हो जाय, तो उनकी परम्परा साटासंग और मलिटर पापके साथ जोडी जा सकती है।
'करकंडचरिउ' की रचना 'आसाइय'नगरीमें रहकर कविने की है । कारंजा की प्रतिमें 'आसाइम' नगरी पर 'आशापुरी' टिप्पण मिलता है, जिससे जान पड़ता है कि उस नगरीको आशापुरी भी कहते थे ।
इटावासे ९ मील की दूरी पर आसयखेड़ा नामक ग्राम है । यह ग्राम जैनियों का प्राचीन स्थान है । आसइ गाँव एक मंचे खेड़ेपर बसा हुआ है, जिसके पश्चिमी ओर बिशाल खण्डहर पड़े हुए हैं। उस पर बहुत दिगम्बर जैन प्रतिमाएं विखरी हुई मिलती हैं। यह आसाइय ग्राम अपने दुर्ग के लिए प्रसिद्ध था । इसे चन्द्रपालने बनवाया था । मुनि कनकामरने आसाइय नगरीमें आकर अपने 'करकंडुचरिउ' की रचना की थी, जहाक नरेश विजयपाल, भुपाल और कर्णथे ! अतः संभव है कि यह असाइयनगरी वर्तमान आसयखेड़ा ही हो ।
ई. सन् १०१७में मुहम्मद तुगलकने मथुरासे कन्नौज तक आक्रमण किया था। इटावाके पास मुंजके किले में हिन्दुओंसे उसका जबरदस्त संघर्ष हुआ। वहाँसे सुल्तानने आसइके दुर्गपर आक्रमण किया। उस समय आसइका शासक चाण्डाल भोर था। मुसलमानलेखकोंने लिखा है कि मुहम्मद तुगलकने पांचों किलोको गिरवाकर मिट्टी में मिला दिया। अत: यह संभव नहीं कि ई० सन्१०१७के पश्चात् कनकामर उसका उल्लेख नगरीके रूपमें करें।
डॉ.जैनने भोपालके समीप नासापुरीनामक ग्रामका उल्लेख किया है । वहाँ आशापुरीदेवीको असाधारण मूत्ति विद्यमान है । संभवतः इसीपरसे इस ग्रामका नाम आशापुर पड़ा होगा। वहाँ एक जैन मन्दिरके भी भानावशेष प्राप्त हैं। उनमें एक १६ फुट ऊंनी शान्तिनाथ तीर्थकरकी प्रतिमा भी है। डॉ. जैन इसी आशापुरीको कनकामरके द्वारा उल्लिखित आसाइय मानते हैं।
कवि कनकामरने ग्रंथके रचनाकालका उल्लेख नहीं किया है। उन्होंने अपने से पूर्ववर्ती सिद्धसेन, समन्तभद्र, अकलंक, जयदेव, स्वयंभू और पुष्पदन्तका उल्लेख किया है । पुष्पदन्तने अपना महापुराण ई० सन् १६५में समास किया था । अतएव करवचरिउकी रचना ई० सन् ९६५के पहले नहीं हो सकती है । इस ग्रंथकी प्राचीन हस्तलिखित प्रति वि० सं० १५०२को उपलब्ध है। अत: कविका समय सं० १५०२के पश्चात् भी नहीं हो सकता है।
'करकंडुचरिउ'की अन्तिम प्रशस्तिमें विजयपाल, भूपाल और कर्ण इन तीन राजाओंका उल्लेख आता है | इतिहास बतलाता है कि विश्वामित्र-गोत्र के क्षत्रीयवंशमें विजयपाल नामके एक राजा हुए, जिनके पुत्र भुवनपाल थे । उन्होंने कलचुरी, गुर्जर और दक्षिणको जीता था। एक अन्य अभिलेखसे बांदा जिलेके अन्तर्गस चन्देलोंको राजधानी कालिनरका निर्देश मिलता है। इसमें विजयपालके पुत्र भूमिपालका तथा दक्षिण दिशा और कर्णराजाको जीतनेका उल्लेख है । एक अन्य अभिलेख जबलपुर जिले के अन्तर्गत तावरमें मिला है | उसमें भूमिपाल के उत्पन्न होनेका उल्लेख आया है। तथा किसी सम्बन्धमें त्रिपुरी और सिंहपुरीका भी निर्देश है। यह अभिलेख ११वीं-१२वों शताब्दीका अनुमान किया गया है। इन लेखोंके विजयपाल और उनके पुत्र भुवनपाल या भूमिपाल तथा हमारे अन्धके विजयपाल और भूमिपाल एक ही है । कण नरेन्द्रका समावेश भी इन्हीं अभिलेखों में हो जाता है।
डॉ० जैनने इतिहासके आलोकमें विजयपाल, कीत्तिवर्मा (भुवनपाल) और कर्ण इन तीनों राजाओंका अस्तित्व ई० सन् १०४०-१०५१के आस-पास बतलाया है। अतः करकंडचरिउका रचनाकाल ग्यारहवीं शतीका मध्यभाग सिद्ध होता है। प्रशस्तिके अनुसार पूष्पदन्तके पश्चात् अर्थात् १६५ ई० के अनन्तर और १०५१ ई० के पूर्व कनकामरका समय होना चाहिए । वि० सं० १०६७ के लगभग कालिंजरमें विजयपाल नामक राजा हुआ । यह प्रतापी कलचुरोनरेश कण देवका समकालीन था। इसके पुत्र कोत्तिवर्माने कर्णदेव को पराजित किया था। अतएव मुनि कनकामरका समय वि की १२वीं शताब्दी है।
'करकंडचरिउ' १० सन्धियों में विभक्त है। इसमें करकण्ड महाराजकी कथा वर्णित है । कथाका सारांश निम्न प्रकार है
अंगदेशकी चम्पापुरी नगरी में धाडीवाहन राजा राज्य करता था । एक बार बह कुसुमपुरको गया और वहां पद्मावतो नामको एक युवतीको देखकर उसपर मोहित हा गया । युवतीका संरक्षक एक माली था, जिससे बातचीत करनेपर पता लगा कि यह युवती यथार्थमें कोशाम्बोके राजा बसुपालको पुत्रो है। जन्म समयके अपशकुनके कारण पिताने उसे यमुना नदीमें प्रवाहित कर दिया था | राजपुत्री जानकर धाड़ीवाहनने उसका पाणिग्रहण कर लिया । और उमे चम्पापुदीमें ले आया । कुछ काल पश्चात् वह गर्भवती हुई और उसे यह दोहला उत्पन्न हुआ कि मन्द-मन्द बरसातमें बह नररूप धारण करके अपनेपतिके साथ एक हाथीपर सवार होकर नगरका परिभ्रमण करे । राजाने रानी: का दोहलापूर्ण करने के लिए वैसा ही प्रबन्ध किया, पर दुष्ट हाथी राजा-रानीको लेकर जंगलकी ओर भाग निकला। रानी ने समझा-बुझाकर राजाको एक वृक्ष की डाली पकड़कर अपने प्राण बचाने के लिए राजी कर लिया। और स्वयं उस हाथीपर सवार रहकर जंगल में पहुंची । वह हाथी एक जलाशयमें घुसा । रानीने कूदकर अपने प्राण बचाये ! जब वह बनमें पहुंची, तो सूखा हुआ वह बन हरा भरा हो गया । इस समाचारको प्राप्तकर धनमाली वहां आया और उसे बहन बनाकर अपने साथ ले गया। मालिनको पद्मावतीके रूपपर ईया हुई और उसने किसी बहानेसे उसे अपने घरसे निकाल दिया । निराश होकर रानी श्मशानभूमिमें आई और वहीं उसे पुत्र उत्पन्न हुआ ।मुनिके अभिशापसे मातंग बने हुए विद्याधरने उस पुत्रको ग्रहण कर लिया और अभिशापकी बात बतलाकर रानीको उसने आश्वस्त किया। मातंगने उस बालकको शिक्षित किया । हाथमें कंडु-सूखी खुजली होने के कारण उसका नाम 'करकंड पड़ गया। जब यह युनावस्थाको प्राप्त हुआ, तर दन्तीपुरके राजाका परलोकवास हो गया । मन्त्रियोंने देवी विधिसे उत्तरा धिकारीका चयन करना चाहा और इस विधिमें करकेडुको राजा बना दिया गया ।
करकंडुका बिबाह गिरिनगरकी राजकुमारी मदनावलीसे हुआ । एक बार उसके दरबारमें चम्पाके राजाका दूत आया, जिसने उससे चम्पानरेशका आधिपत्य स्वीकार करनेकी प्रेरणा की। करकंडु कोधित हुआ और उसने तत्काल चम्पापर आक्रमण कर दिया। दोनों ओरसे घमासान युद्ध होने लगा। अन्तमें पद्यावतीने रणभूमिमें उपस्थित होकर पिता-पत्रका सम्मेलन करा दिया । धाड़ीवाहन पुत्ररत्नको प्राप्त कर बहुत हर्षित हुआ और वह चम्पाका राज्य करकांड को सौंप दीक्षित हो गया । एक बार करकंड्ने द्रविड़ देशके चोल, चेर और पाण्ड्य नरेशोंपर आक्रमण किया । मार्गमें वह तेरापुर मगरमें पहुँचा । वहाँके राजा शिवने भेंट की और आकर बताया कि वहाँसे पास ही एक पहाड़ीके चढ़ावपर एक गुफा है तथा उसी पहाड़के कपर एक भारी बामी है, जिसकी पूजा प्रतिदिन एक हाथी किया करता है। यह सुनकर करकंडु शिवराजाके साथ उस पहाड़ोपर गया | उसने गुफामें भगवान् पाश्व नाथका दर्शन किया और ऊपर चढ़कर बामीको भी देखा । उनके समक्ष ही हाथीने आकर कमल-पुत्रोंसे उस बामोकी पूजा की | करकंड़ने यह जानकर कि अवश्य ही यहां कोई देव-मूति होगी, उस बामीको खुदवाया । उसका अनुमान सत्य निकला । वहाँ पाश्वनाथ भगवानकी मूत्ति निकली, जिसे बड़ी भक्ति से उसी गुफामें ले आये । इस बार करकंडुने पुरानी प्रतिमाका अवलोकन किया । सिंहासनपर उन्हें एक गाँठ-सी दिखलाई पड़ी, जो शोभाको बिगाड़ रही थी । एक पुराने शिल्पकारसे पूछनेपर उसने कहा कि जब यह गुफा बनाई गई थी, तब वहाँ एक जलवाहिनी निकल पड़ी थी । उसे रोकने के लिए हो वह गाँठ दी गई है । करकंडुको जल बाहिनीके दर्शनका कौतुल उत्पन्न हुआ और शिल्पकारको बहुत रोकने पर भी उसने उस गांठको तोड़वा डाला । गाँठके टूटते ही वहाँ एक भयंकर जलप्रवाह निकल पड़ा, जिसे रोकना असंभव हो गया । मुफा जलसे भर गई । करकंडुको अपने किये पर पश्चात्ताप होने लगा। निदान एक विद्याधरने आकर उसका सम्बोधन किया, उस प्रवाहको रोकनेका वचन दिया तथा उस गुफाके बनने का इतिहास भी कह सुनाया।
ना निवासके सुनले अनन्त हुने हाँ दो पुगाएं और बनवाई । इसी बीच एक विद्याधर हाथीका रूप धरकर आया और करकंडुको भुलाकर मदनावलीको हरकर ले गया।करकंडु सिंहलदीप पहुंचा और वहाँको राजपुत्री रतिवेगाका पाणिग्रहण किया । जब बह जलमार्ग से लौट रहा था, तो एक मच्छने उसकी नौकापर आक्रमण किया | वह उसे मारने समुद्र में कूद पड़ा । मच्छ मारा गया, पर वह नावपर न था सका | उसे एक विद्याधरपुत्री हरकर ले गयी। रतिवेगाने किनारेपर आकर, शोकसे अधीर हो पूजा-पाठ प्रारंभ किया जिससे पद्मावतीने प्रकट हो उसे आश्वासन दिया | उधर विद्याधरोने कररंडुसे विवाह कर लिया और नववधु सहित रतिवेगासे आ मिला।
करकडुने चोल, चेर और पांच नरेशोंकी सम्मिलित सेनाका सामना किया और उन्हें हराकर प्रण पूरा किया। जब वह लौटकर पुनः तेरापुर आया, तो कुटिल विद्याधरने मदनावलीको लाकर सौंप दिया। बह चम्पापुरी आकर सुख-पूर्वक राज्य करने लगा।
एक दिन बनमालीने आकर सूचना दी कि नगरके उपबनमें शोलगप्त नामक मुनिराज पधारे हैं। राजा अत्यन्त भफिभावसे पुरजन-परिजन सहित उनके चरणों में उपस्थित हुआ और अपने जीवनसम्बन्धी अनेक प्रश्न पूछे। राजा मुनिराजसे अपने पूर्व जन्मोंकी कथाओंको सुनकर विरक्त हो गया और अपने पुत्र बसुपालको राज्य दे मुनि बन गया। रानियों और माता पद्मावती भीआर्यिका हो गई । करकडुने घोर तपश्चरणकर मोक्ष प्राप्त किया ।
चरितनायकको कथाके अतिरिक्त अवान्तर ६ कथाएं भी आयी हैं। प्रथमचार कथाएं द्वितीय सन्धिमें वर्णित हैं। इनमें क्रमशः मन्त्रशक्तिका प्रभाव, बमानसे यापत्ति नीलसुंगतिका बुरा पनिपार और सत्संगतिका शुभ परिणाम दिखाया गया है। पांचवीं कथा एक विद्याधरने मदनावलीके विरहसे व्याकुल करकंडुको यह समझाने के लिए सुनाई कि वियोगके बाद भी पति-पत्नीका सम्मिलन हो जाता है। छठो कथा पांचवीं कथाके अन्तर्गत ही आई है। सातवीं कथा शुभ शकुमका फन बतलाने के लिये कही गई है । आठवीं कथा पद्मावतीने समुद्र में विद्याचरी द्वारा करकंडुके हरण किये जानेपर शोकाकुला रतिवेगाको सुनाई है। नवीं कथा आठवीं कथाका प्रारंभिक भाग है, जो एक तोतेकी कथा के रूपमें स्वतन्त्र अस्तित्व रखती है।
ये कथाए' मूलकथाके विकासमें अधिक सहायक नहीं हो पाती । इनके आधारपर कविने कथावस्तुको रोचक बनाने का प्रयास किया है । वस्तुमें रसो स्कर्ष, पात्रोको चरित्रगत विशेषता और काश्योंमें प्राप्य प्राकृतिक दृश्योंक वर्णनके अभावको कविने भिन्न-भिन्न कथाओं के प्रयोग दारा पूरा करने का प्रयल किया है।
करकंडुचरित्र धार्मिक कथा-काव्य है । इसमें अलौकिक और चमत्कावपूर्ण घटनाओंके साथ काव्यत्तत्त्व भी प्रचुररूपमें पाये जाते हैं।
इस काध्यमें मानव-जगत और प्राकृतिक-जगत दोनोंका वर्णन पाया जाता है | करकंडुके दन्तिपुरमें प्रवेश करनेपर नगरकी नारियोंके हृदयकी व्यग्रता विचित्र हो जाती है। यह वर्णन कान्यकी दृष्टिसे बहुत ही सरस और आक र्षक है
ताहि पुरवरि खुहियाउ रमणियाउ झापद्रिय-मुणि-मण-दमणियाउ ।
कवि रहसई तरलिय चलिय गारि, विहउफ्फज संठिय का वि दारि ।
क वि धावइ गणिव गेहलुद्ध परिहाणु ण गलियउ गणइ मुख ।
क वि कज्जल बलहड अहरे देइ णयणुल्ला। लक्खारसु करेइ ।
णिगंथवित्ति क वि अणुसरेइ विवरीउ डिंभु कवि कहिँ लेइ ।
कवि उरु कराल करइ बाल, सिरु छडिवि कड़ियले धरइ माल ।
णिय-गंदण मणिवि के वि वराय मज्जारु ण मेल्लइ साशुराय ।
क विधावइ णणिल मणे घरंति विहलंघल मोहइ घर सरति ।
घाता-कवि माणमहल्ली भयणभर करकंडहो समहिय चलिय ।
थिर-थोर-पओहरि मयणयण उत्तप्त-फणयछवि उज्जलिय ॥२॥
अर्थात् करकंडके आगमनपर ध्यानावस्थित मुनियों के मनको विचलित करनेवाली सुन्दरियाँ भी विक्षुब्ध हो उठीं। कोई स्त्री आवेगले चंचल हो चल पड़ी, कोई विह्वल हो द्वार पर खड़ी हो गई, कोई मुग्धा प्रेमलुब्ध हो दौड़ पड़ी, किसीने गिरते हुए वस्त्रको भी परवाह न की, कोई अवरों पर काजल भरने लगी, कोई आँखों में लाक्षारस लगाने लगी, कोई दिगम्बरोंके समान आचरण करने लभी, किसीने बच्चेको उल्टा ही गोद में ले लिया, किसीने नपुरको हाथमें पहना, किसीने सिरके स्थानपर कटिप्रदेशपर माला डाल ली और कोई बेचारी बिल्लीके बच्चेको अपना पुत्र समझ सप्रेम छोड़ना नहीं चाहती।"... कोई स्थिर और स्थूल पयोधर बाली, तप्त कनकच्छविके समान उज्वल वर्ण वाली, मृगनयनी, मामिनी कामाकुल हो करकंडुके सामने चल पड़ो ।
शोलगुम मुनिराजके आगमनपर पुरनारियोंके हृदयमें जैसा उत्साह दिखलाई पड़ता है वैसा अन्यत्र संभव नहीं । कविने लिखा है कि कोई सुन्दरी मानिनी मुनिके चरणकमलमें अनुरक्त हो चल दो, कोई नपुर-शब्दोंसे झनझन करती हुई मानों मुनिगुणगान करती हुई चल पड़ी । कोई मुनिदर्शनोंका हृदयमें ध्यान धरती हुई जाते हुए पतिका भी विचार नहीं करतो । कोई थालमें अक्षत और धूप भरकर बच्चेको ले वेगसे चल पड़ी | कोई सुगन्धयुक्त जाती हुई ऐसी प्रतीत होती थी, मानों विद्याधरो पृथ्वो पर शोभित हो रही हो ।'
कचि देश, नगर, ग्राम, प्रासाद, द्वीप, श्मशान आदिक वर्णनमें भा अत्यन्त पटु है। अंगदेशका चित्रण करते समय उसने उस देशको पथ्वीरूपो मारीके रूपमें अनुभव किया है । इस प्रसंगमें सरावर, धान्यसे भरे खेत, कृषक बालाएं, पथिक, विकसित कमल आदिका भी चित्रण किया गया है ।२।
कनकामरने शृंगार, बीर और भयानक रसका अद्भुत चित्रण किया है। नारीरूप-वर्णनमें कविने परम्पराका आश्रय लिया है और परम्परामुक्त उप मानोंका प्रयोग कर नारीके नख-शिखका चित्रण किया है । पद्मावतीके रूप चित्रणमें अधरोंकी रक्तिमाका कारण आगे उठी हुई नासिकाको उन्नतिपर
अधरोंका कोप कल्पित किया गया है।
रतिवेगाके विलापमें कविने ऊहात्मक प्रसंगोंका प्रयोग किया है । वर्णनमें संवेदनाका बाहुल्य है। इसी प्रकार मदनावलीके विलुप्त होनेपर करकंडुका विलाप भी पाषाणको पिघला देने वाला है। संसारको नश्वरता और अस्थिरताका चित्रण करते हुए कविने बताया है कि कालके प्रभावसे कोई नहीं बचता । युवा, वृद्ध, बालक, चक्रवर्ती, विद्याधर, किन्नर, खेचर, सुर, अमरपत्ति सब कालके वशवों हैं ।' प्रत्येक प्राणी अपने कर्मोंके लिए उत्तरदायी, वह अकेला ही संसारमें जन्म ग्रहण करता है, अकेला ही दुःख भोगता है और अकेला ही मृत्यु प्राप्त करता है ।
करकंडुको प्रघाण करते समय गंगा नदी मिलता है। कविने गंगाका वर्णन जीवन्त रूपमें प्रस्तुत किया है
गंगापरसु संपत्तएण गंगाणइ दिट्ठी जंतरण ।
सा सोहइ सिय-जल कुडिलवति, णं सेयभुवंगही महिल जति ।
दुरात वहती अइविहाई, हिमवंत-गिरिंदहो कित्ति णाई।
विहिं कूलहिँ लोहिं म्हंतएहि आइच्चहो जलु परिदितिहि ।
दभकियउहि करयलहिं णई भणइ णाई एयहि छलहिं ।
हउँ सुद्धिय णियमगेण जामि मा रूसहि अम्महो उवरि सामि ।
शुभ्र जलयुक्त, कुटिल प्रवाहबाली गंगा ऐसी शोभित हो रही थी, मानों शेषनागकी स्त्री जा रही हो। दुरसे बहतो हुई गंगा ऐसी दिखलाई पड़ती थी, जैसे वह हिमवत्त गिरीन्द्रकी कोत्ति हो! दोनों कूलों पर नहाते हुए और आदित्य को जल चढ़ाते हुए, दर्भसे युक्त केंचे उठाये हुए करतलों सहित लोगोंके द्वारा मानों इसी बहानेसे नदी कह रही है ''मैं शुद्ध हूँ और अपने मार्गसे जाती हूँ। हे स्वामी ! मेरे ऊपर रुष्ट मत होइये ।" कविके वर्णनमें स्वाभाविकता है ।
कविने भाषाको प्रभावोत्पादक बनाने के लिए भावानुरूप शब्दोंका प्रयोग किया है । पद-योजनामें छन्दप्रवाह भी सहायता प्रदान करता है । ध्वन्यात्मक शब्दोंका प्रयोग भी यथास्थान किया गया है। कविने विभिन्न प्रकारके छन्द और अलंकारोंकी योजना द्वारा इस कान्यको सरस बनाया है।
मुनि कनकामर ने 'करकंडुचरिङ'के आदि और अन्तमें अपने गुरुका नाम पंडित या बुधमंगलदेव बताया है | अन्तिम प्रशस्तिमें कहा है कि वे ब्राह्मणा वंशके चन्द्रऋषिगोत्रीय थे। जब विरक्त होकर बे दिगम्बर मुनि हो गये, तो उनका नाम कनकामर प्रसिद्ध हुआ | श्री डॉ हीरालालजी जैन ने बताया है कि पट्टाबलियोंके अनुसार सुहस्तिके शिष्य सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध द्वारा स्थापित कोटिकगणकी बैरिशाखाका एक कुल चन्द्रनामक हुआ । चन्द्रकुलके भी अनेक अन्वय और गच्छ हुए । उत्तराध्ययनको शिष्यहिता नामक वृत्तिके कर्ता शान्ति सूरि चन्द्रकुलके काठक रायसे उत्पन्न थारापद्र-गच्छके थे और सुखबोधटीका के कर्ता देवेन्द्र पणि भी चन्द्रकुलके थे। किन्तु ये सब श्वेताम्बर परम्पराके भेद-प्रभेद हैं, दिगम्बर परम्पराके नहीं। मुनि कानकामर दिगम्बर मुनि थे । अतएव कमकामरका चन्द्रऋषिगोत्र देशीगण के चन्द्रकराचार्याम्नायके अन्तर्गत है । इतिहाससे यह सिद्ध है कि चन्दल नरेशोंने भी अपनेको चन्द्रायऋषि वंशी कहा है। अत: बहुत संभव है कि चन्द्रकराचार्याम्नाय चन्देल वंशी राज कुलमेंसे ही हुए किसी जैन मुनिने स्थापित किया हो। स्वयं कनकामर भी इसी कुलके रहे हों।
कविकी गुरुपरम्पराके सम्बन्ध में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती । अन्तिम प्रशस्तिमें उन्होंने अपनेको बुधमंगलदेवका शिष्य कहा है | श्री डॉ० हीरालाल जी जैनने रत्नाकर या धर्मरत्नाकर नामक संस्कृत-ग्रंथके रचयिता पं० मंगल देवको कहा है। इस मंथकी पाण्डुलिपियां जयपुर और कारंजामें प्राप्त हैं। जयपुरकी प्रतिमें पुष्पिकानाक्य निम्न प्रकार है
"सं० १६८० वर्षे काष्ठासंघे नन्दतटग्रामे भट्टारकश्रीभूषणशिष्यपंडित मंगलकृतशास्त्ररत्नाकरनाम शास्त्र सम्पूर्ण ।"
इससे डॉ० जैनने यह अनुमान लगाया है कि सं० १६८० ग्रंथ रचनाका काल नहीं, लेखनका काल है। कारंजाके शास्त्रभंडारकी प्रतिमें उसका लेखनकाल १६६७ अंकित किया है। काष्ठासंघ और नन्दीतट ग्रामका प्राचीन तम उल्लेख देवसेनकृत दर्शनसार गाथा ३८ में प्राप्त होता है, जहाँ वि० सं० ७५३ में नन्दितटग्राममें काष्ठासंघको उत्पत्ति बताई गई है। यदि कनकामरके कालके समीप श्रीभूषण और उनके शिष्य मंगलदेवका अस्तित्व सिद्ध हो जाय, तो उनकी परम्परा साटासंग और मलिटर पापके साथ जोडी जा सकती है।
'करकंडचरिउ' की रचना 'आसाइय'नगरीमें रहकर कविने की है । कारंजा की प्रतिमें 'आसाइम' नगरी पर 'आशापुरी' टिप्पण मिलता है, जिससे जान पड़ता है कि उस नगरीको आशापुरी भी कहते थे ।
इटावासे ९ मील की दूरी पर आसयखेड़ा नामक ग्राम है । यह ग्राम जैनियों का प्राचीन स्थान है । आसइ गाँव एक मंचे खेड़ेपर बसा हुआ है, जिसके पश्चिमी ओर बिशाल खण्डहर पड़े हुए हैं। उस पर बहुत दिगम्बर जैन प्रतिमाएं विखरी हुई मिलती हैं। यह आसाइय ग्राम अपने दुर्ग के लिए प्रसिद्ध था । इसे चन्द्रपालने बनवाया था । मुनि कनकामरने आसाइय नगरीमें आकर अपने 'करकंडुचरिउ' की रचना की थी, जहाक नरेश विजयपाल, भुपाल और कर्णथे ! अतः संभव है कि यह असाइयनगरी वर्तमान आसयखेड़ा ही हो ।
ई. सन् १०१७में मुहम्मद तुगलकने मथुरासे कन्नौज तक आक्रमण किया था। इटावाके पास मुंजके किले में हिन्दुओंसे उसका जबरदस्त संघर्ष हुआ। वहाँसे सुल्तानने आसइके दुर्गपर आक्रमण किया। उस समय आसइका शासक चाण्डाल भोर था। मुसलमानलेखकोंने लिखा है कि मुहम्मद तुगलकने पांचों किलोको गिरवाकर मिट्टी में मिला दिया। अत: यह संभव नहीं कि ई० सन्१०१७के पश्चात् कनकामर उसका उल्लेख नगरीके रूपमें करें।
डॉ.जैनने भोपालके समीप नासापुरीनामक ग्रामका उल्लेख किया है । वहाँ आशापुरीदेवीको असाधारण मूत्ति विद्यमान है । संभवतः इसीपरसे इस ग्रामका नाम आशापुर पड़ा होगा। वहाँ एक जैन मन्दिरके भी भानावशेष प्राप्त हैं। उनमें एक १६ फुट ऊंनी शान्तिनाथ तीर्थकरकी प्रतिमा भी है। डॉ. जैन इसी आशापुरीको कनकामरके द्वारा उल्लिखित आसाइय मानते हैं।
कवि कनकामरने ग्रंथके रचनाकालका उल्लेख नहीं किया है। उन्होंने अपने से पूर्ववर्ती सिद्धसेन, समन्तभद्र, अकलंक, जयदेव, स्वयंभू और पुष्पदन्तका उल्लेख किया है । पुष्पदन्तने अपना महापुराण ई० सन् १६५में समास किया था । अतएव करवचरिउकी रचना ई० सन् ९६५के पहले नहीं हो सकती है । इस ग्रंथकी प्राचीन हस्तलिखित प्रति वि० सं० १५०२को उपलब्ध है। अत: कविका समय सं० १५०२के पश्चात् भी नहीं हो सकता है।
'करकंडुचरिउ'की अन्तिम प्रशस्तिमें विजयपाल, भूपाल और कर्ण इन तीन राजाओंका उल्लेख आता है | इतिहास बतलाता है कि विश्वामित्र-गोत्र के क्षत्रीयवंशमें विजयपाल नामके एक राजा हुए, जिनके पुत्र भुवनपाल थे । उन्होंने कलचुरी, गुर्जर और दक्षिणको जीता था। एक अन्य अभिलेखसे बांदा जिलेके अन्तर्गस चन्देलोंको राजधानी कालिनरका निर्देश मिलता है। इसमें विजयपालके पुत्र भूमिपालका तथा दक्षिण दिशा और कर्णराजाको जीतनेका उल्लेख है । एक अन्य अभिलेख जबलपुर जिले के अन्तर्गत तावरमें मिला है | उसमें भूमिपाल के उत्पन्न होनेका उल्लेख आया है। तथा किसी सम्बन्धमें त्रिपुरी और सिंहपुरीका भी निर्देश है। यह अभिलेख ११वीं-१२वों शताब्दीका अनुमान किया गया है। इन लेखोंके विजयपाल और उनके पुत्र भुवनपाल या भूमिपाल तथा हमारे अन्धके विजयपाल और भूमिपाल एक ही है । कण नरेन्द्रका समावेश भी इन्हीं अभिलेखों में हो जाता है।
डॉ० जैनने इतिहासके आलोकमें विजयपाल, कीत्तिवर्मा (भुवनपाल) और कर्ण इन तीनों राजाओंका अस्तित्व ई० सन् १०४०-१०५१के आस-पास बतलाया है। अतः करकंडचरिउका रचनाकाल ग्यारहवीं शतीका मध्यभाग सिद्ध होता है। प्रशस्तिके अनुसार पूष्पदन्तके पश्चात् अर्थात् १६५ ई० के अनन्तर और १०५१ ई० के पूर्व कनकामरका समय होना चाहिए । वि० सं० १०६७ के लगभग कालिंजरमें विजयपाल नामक राजा हुआ । यह प्रतापी कलचुरोनरेश कण देवका समकालीन था। इसके पुत्र कोत्तिवर्माने कर्णदेव को पराजित किया था। अतएव मुनि कनकामरका समय वि की १२वीं शताब्दी है।
'करकंडचरिउ' १० सन्धियों में विभक्त है। इसमें करकण्ड महाराजकी कथा वर्णित है । कथाका सारांश निम्न प्रकार है
अंगदेशकी चम्पापुरी नगरी में धाडीवाहन राजा राज्य करता था । एक बार बह कुसुमपुरको गया और वहां पद्मावतो नामको एक युवतीको देखकर उसपर मोहित हा गया । युवतीका संरक्षक एक माली था, जिससे बातचीत करनेपर पता लगा कि यह युवती यथार्थमें कोशाम्बोके राजा बसुपालको पुत्रो है। जन्म समयके अपशकुनके कारण पिताने उसे यमुना नदीमें प्रवाहित कर दिया था | राजपुत्री जानकर धाड़ीवाहनने उसका पाणिग्रहण कर लिया । और उमे चम्पापुदीमें ले आया । कुछ काल पश्चात् वह गर्भवती हुई और उसे यह दोहला उत्पन्न हुआ कि मन्द-मन्द बरसातमें बह नररूप धारण करके अपनेपतिके साथ एक हाथीपर सवार होकर नगरका परिभ्रमण करे । राजाने रानी: का दोहलापूर्ण करने के लिए वैसा ही प्रबन्ध किया, पर दुष्ट हाथी राजा-रानीको लेकर जंगलकी ओर भाग निकला। रानी ने समझा-बुझाकर राजाको एक वृक्ष की डाली पकड़कर अपने प्राण बचाने के लिए राजी कर लिया। और स्वयं उस हाथीपर सवार रहकर जंगल में पहुंची । वह हाथी एक जलाशयमें घुसा । रानीने कूदकर अपने प्राण बचाये ! जब वह बनमें पहुंची, तो सूखा हुआ वह बन हरा भरा हो गया । इस समाचारको प्राप्तकर धनमाली वहां आया और उसे बहन बनाकर अपने साथ ले गया। मालिनको पद्मावतीके रूपपर ईया हुई और उसने किसी बहानेसे उसे अपने घरसे निकाल दिया । निराश होकर रानी श्मशानभूमिमें आई और वहीं उसे पुत्र उत्पन्न हुआ ।मुनिके अभिशापसे मातंग बने हुए विद्याधरने उस पुत्रको ग्रहण कर लिया और अभिशापकी बात बतलाकर रानीको उसने आश्वस्त किया। मातंगने उस बालकको शिक्षित किया । हाथमें कंडु-सूखी खुजली होने के कारण उसका नाम 'करकंड पड़ गया। जब यह युनावस्थाको प्राप्त हुआ, तर दन्तीपुरके राजाका परलोकवास हो गया । मन्त्रियोंने देवी विधिसे उत्तरा धिकारीका चयन करना चाहा और इस विधिमें करकेडुको राजा बना दिया गया ।
करकंडुका बिबाह गिरिनगरकी राजकुमारी मदनावलीसे हुआ । एक बार उसके दरबारमें चम्पाके राजाका दूत आया, जिसने उससे चम्पानरेशका आधिपत्य स्वीकार करनेकी प्रेरणा की। करकंडु कोधित हुआ और उसने तत्काल चम्पापर आक्रमण कर दिया। दोनों ओरसे घमासान युद्ध होने लगा। अन्तमें पद्यावतीने रणभूमिमें उपस्थित होकर पिता-पत्रका सम्मेलन करा दिया । धाड़ीवाहन पुत्ररत्नको प्राप्त कर बहुत हर्षित हुआ और वह चम्पाका राज्य करकांड को सौंप दीक्षित हो गया । एक बार करकंड्ने द्रविड़ देशके चोल, चेर और पाण्ड्य नरेशोंपर आक्रमण किया । मार्गमें वह तेरापुर मगरमें पहुँचा । वहाँके राजा शिवने भेंट की और आकर बताया कि वहाँसे पास ही एक पहाड़ीके चढ़ावपर एक गुफा है तथा उसी पहाड़के कपर एक भारी बामी है, जिसकी पूजा प्रतिदिन एक हाथी किया करता है। यह सुनकर करकंडु शिवराजाके साथ उस पहाड़ोपर गया | उसने गुफामें भगवान् पाश्व नाथका दर्शन किया और ऊपर चढ़कर बामीको भी देखा । उनके समक्ष ही हाथीने आकर कमल-पुत्रोंसे उस बामोकी पूजा की | करकंड़ने यह जानकर कि अवश्य ही यहां कोई देव-मूति होगी, उस बामीको खुदवाया । उसका अनुमान सत्य निकला । वहाँ पाश्वनाथ भगवानकी मूत्ति निकली, जिसे बड़ी भक्ति से उसी गुफामें ले आये । इस बार करकंडुने पुरानी प्रतिमाका अवलोकन किया । सिंहासनपर उन्हें एक गाँठ-सी दिखलाई पड़ी, जो शोभाको बिगाड़ रही थी । एक पुराने शिल्पकारसे पूछनेपर उसने कहा कि जब यह गुफा बनाई गई थी, तब वहाँ एक जलवाहिनी निकल पड़ी थी । उसे रोकने के लिए हो वह गाँठ दी गई है । करकंडुको जल बाहिनीके दर्शनका कौतुल उत्पन्न हुआ और शिल्पकारको बहुत रोकने पर भी उसने उस गांठको तोड़वा डाला । गाँठके टूटते ही वहाँ एक भयंकर जलप्रवाह निकल पड़ा, जिसे रोकना असंभव हो गया । मुफा जलसे भर गई । करकंडुको अपने किये पर पश्चात्ताप होने लगा। निदान एक विद्याधरने आकर उसका सम्बोधन किया, उस प्रवाहको रोकनेका वचन दिया तथा उस गुफाके बनने का इतिहास भी कह सुनाया।
ना निवासके सुनले अनन्त हुने हाँ दो पुगाएं और बनवाई । इसी बीच एक विद्याधर हाथीका रूप धरकर आया और करकंडुको भुलाकर मदनावलीको हरकर ले गया।करकंडु सिंहलदीप पहुंचा और वहाँको राजपुत्री रतिवेगाका पाणिग्रहण किया । जब बह जलमार्ग से लौट रहा था, तो एक मच्छने उसकी नौकापर आक्रमण किया | वह उसे मारने समुद्र में कूद पड़ा । मच्छ मारा गया, पर वह नावपर न था सका | उसे एक विद्याधरपुत्री हरकर ले गयी। रतिवेगाने किनारेपर आकर, शोकसे अधीर हो पूजा-पाठ प्रारंभ किया जिससे पद्मावतीने प्रकट हो उसे आश्वासन दिया | उधर विद्याधरोने कररंडुसे विवाह कर लिया और नववधु सहित रतिवेगासे आ मिला।
करकडुने चोल, चेर और पांच नरेशोंकी सम्मिलित सेनाका सामना किया और उन्हें हराकर प्रण पूरा किया। जब वह लौटकर पुनः तेरापुर आया, तो कुटिल विद्याधरने मदनावलीको लाकर सौंप दिया। बह चम्पापुरी आकर सुख-पूर्वक राज्य करने लगा।
एक दिन बनमालीने आकर सूचना दी कि नगरके उपबनमें शोलगप्त नामक मुनिराज पधारे हैं। राजा अत्यन्त भफिभावसे पुरजन-परिजन सहित उनके चरणों में उपस्थित हुआ और अपने जीवनसम्बन्धी अनेक प्रश्न पूछे। राजा मुनिराजसे अपने पूर्व जन्मोंकी कथाओंको सुनकर विरक्त हो गया और अपने पुत्र बसुपालको राज्य दे मुनि बन गया। रानियों और माता पद्मावती भीआर्यिका हो गई । करकडुने घोर तपश्चरणकर मोक्ष प्राप्त किया ।
चरितनायकको कथाके अतिरिक्त अवान्तर ६ कथाएं भी आयी हैं। प्रथमचार कथाएं द्वितीय सन्धिमें वर्णित हैं। इनमें क्रमशः मन्त्रशक्तिका प्रभाव, बमानसे यापत्ति नीलसुंगतिका बुरा पनिपार और सत्संगतिका शुभ परिणाम दिखाया गया है। पांचवीं कथा एक विद्याधरने मदनावलीके विरहसे व्याकुल करकंडुको यह समझाने के लिए सुनाई कि वियोगके बाद भी पति-पत्नीका सम्मिलन हो जाता है। छठो कथा पांचवीं कथाके अन्तर्गत ही आई है। सातवीं कथा शुभ शकुमका फन बतलाने के लिये कही गई है । आठवीं कथा पद्मावतीने समुद्र में विद्याचरी द्वारा करकंडुके हरण किये जानेपर शोकाकुला रतिवेगाको सुनाई है। नवीं कथा आठवीं कथाका प्रारंभिक भाग है, जो एक तोतेकी कथा के रूपमें स्वतन्त्र अस्तित्व रखती है।
ये कथाए' मूलकथाके विकासमें अधिक सहायक नहीं हो पाती । इनके आधारपर कविने कथावस्तुको रोचक बनाने का प्रयास किया है । वस्तुमें रसो स्कर्ष, पात्रोको चरित्रगत विशेषता और काश्योंमें प्राप्य प्राकृतिक दृश्योंक वर्णनके अभावको कविने भिन्न-भिन्न कथाओं के प्रयोग दारा पूरा करने का प्रयल किया है।
करकंडुचरित्र धार्मिक कथा-काव्य है । इसमें अलौकिक और चमत्कावपूर्ण घटनाओंके साथ काव्यत्तत्त्व भी प्रचुररूपमें पाये जाते हैं।
इस काध्यमें मानव-जगत और प्राकृतिक-जगत दोनोंका वर्णन पाया जाता है | करकंडुके दन्तिपुरमें प्रवेश करनेपर नगरकी नारियोंके हृदयकी व्यग्रता विचित्र हो जाती है। यह वर्णन कान्यकी दृष्टिसे बहुत ही सरस और आक र्षक है
ताहि पुरवरि खुहियाउ रमणियाउ झापद्रिय-मुणि-मण-दमणियाउ ।
कवि रहसई तरलिय चलिय गारि, विहउफ्फज संठिय का वि दारि ।
क वि धावइ गणिव गेहलुद्ध परिहाणु ण गलियउ गणइ मुख ।
क वि कज्जल बलहड अहरे देइ णयणुल्ला। लक्खारसु करेइ ।
णिगंथवित्ति क वि अणुसरेइ विवरीउ डिंभु कवि कहिँ लेइ ।
कवि उरु कराल करइ बाल, सिरु छडिवि कड़ियले धरइ माल ।
णिय-गंदण मणिवि के वि वराय मज्जारु ण मेल्लइ साशुराय ।
क विधावइ णणिल मणे घरंति विहलंघल मोहइ घर सरति ।
घाता-कवि माणमहल्ली भयणभर करकंडहो समहिय चलिय ।
थिर-थोर-पओहरि मयणयण उत्तप्त-फणयछवि उज्जलिय ॥२॥
अर्थात् करकंडके आगमनपर ध्यानावस्थित मुनियों के मनको विचलित करनेवाली सुन्दरियाँ भी विक्षुब्ध हो उठीं। कोई स्त्री आवेगले चंचल हो चल पड़ी, कोई विह्वल हो द्वार पर खड़ी हो गई, कोई मुग्धा प्रेमलुब्ध हो दौड़ पड़ी, किसीने गिरते हुए वस्त्रको भी परवाह न की, कोई अवरों पर काजल भरने लगी, कोई आँखों में लाक्षारस लगाने लगी, कोई दिगम्बरोंके समान आचरण करने लभी, किसीने बच्चेको उल्टा ही गोद में ले लिया, किसीने नपुरको हाथमें पहना, किसीने सिरके स्थानपर कटिप्रदेशपर माला डाल ली और कोई बेचारी बिल्लीके बच्चेको अपना पुत्र समझ सप्रेम छोड़ना नहीं चाहती।"... कोई स्थिर और स्थूल पयोधर बाली, तप्त कनकच्छविके समान उज्वल वर्ण वाली, मृगनयनी, मामिनी कामाकुल हो करकंडुके सामने चल पड़ो ।
शोलगुम मुनिराजके आगमनपर पुरनारियोंके हृदयमें जैसा उत्साह दिखलाई पड़ता है वैसा अन्यत्र संभव नहीं । कविने लिखा है कि कोई सुन्दरी मानिनी मुनिके चरणकमलमें अनुरक्त हो चल दो, कोई नपुर-शब्दोंसे झनझन करती हुई मानों मुनिगुणगान करती हुई चल पड़ी । कोई मुनिदर्शनोंका हृदयमें ध्यान धरती हुई जाते हुए पतिका भी विचार नहीं करतो । कोई थालमें अक्षत और धूप भरकर बच्चेको ले वेगसे चल पड़ी | कोई सुगन्धयुक्त जाती हुई ऐसी प्रतीत होती थी, मानों विद्याधरो पृथ्वो पर शोभित हो रही हो ।'
कचि देश, नगर, ग्राम, प्रासाद, द्वीप, श्मशान आदिक वर्णनमें भा अत्यन्त पटु है। अंगदेशका चित्रण करते समय उसने उस देशको पथ्वीरूपो मारीके रूपमें अनुभव किया है । इस प्रसंगमें सरावर, धान्यसे भरे खेत, कृषक बालाएं, पथिक, विकसित कमल आदिका भी चित्रण किया गया है ।२।
कनकामरने शृंगार, बीर और भयानक रसका अद्भुत चित्रण किया है। नारीरूप-वर्णनमें कविने परम्पराका आश्रय लिया है और परम्परामुक्त उप मानोंका प्रयोग कर नारीके नख-शिखका चित्रण किया है । पद्मावतीके रूप चित्रणमें अधरोंकी रक्तिमाका कारण आगे उठी हुई नासिकाको उन्नतिपर
अधरोंका कोप कल्पित किया गया है।
रतिवेगाके विलापमें कविने ऊहात्मक प्रसंगोंका प्रयोग किया है । वर्णनमें संवेदनाका बाहुल्य है। इसी प्रकार मदनावलीके विलुप्त होनेपर करकंडुका विलाप भी पाषाणको पिघला देने वाला है। संसारको नश्वरता और अस्थिरताका चित्रण करते हुए कविने बताया है कि कालके प्रभावसे कोई नहीं बचता । युवा, वृद्ध, बालक, चक्रवर्ती, विद्याधर, किन्नर, खेचर, सुर, अमरपत्ति सब कालके वशवों हैं ।' प्रत्येक प्राणी अपने कर्मोंके लिए उत्तरदायी, वह अकेला ही संसारमें जन्म ग्रहण करता है, अकेला ही दुःख भोगता है और अकेला ही मृत्यु प्राप्त करता है ।
करकंडुको प्रघाण करते समय गंगा नदी मिलता है। कविने गंगाका वर्णन जीवन्त रूपमें प्रस्तुत किया है
गंगापरसु संपत्तएण गंगाणइ दिट्ठी जंतरण ।
सा सोहइ सिय-जल कुडिलवति, णं सेयभुवंगही महिल जति ।
दुरात वहती अइविहाई, हिमवंत-गिरिंदहो कित्ति णाई।
विहिं कूलहिँ लोहिं म्हंतएहि आइच्चहो जलु परिदितिहि ।
दभकियउहि करयलहिं णई भणइ णाई एयहि छलहिं ।
हउँ सुद्धिय णियमगेण जामि मा रूसहि अम्महो उवरि सामि ।
शुभ्र जलयुक्त, कुटिल प्रवाहबाली गंगा ऐसी शोभित हो रही थी, मानों शेषनागकी स्त्री जा रही हो। दुरसे बहतो हुई गंगा ऐसी दिखलाई पड़ती थी, जैसे वह हिमवत्त गिरीन्द्रकी कोत्ति हो! दोनों कूलों पर नहाते हुए और आदित्य को जल चढ़ाते हुए, दर्भसे युक्त केंचे उठाये हुए करतलों सहित लोगोंके द्वारा मानों इसी बहानेसे नदी कह रही है ''मैं शुद्ध हूँ और अपने मार्गसे जाती हूँ। हे स्वामी ! मेरे ऊपर रुष्ट मत होइये ।" कविके वर्णनमें स्वाभाविकता है ।
कविने भाषाको प्रभावोत्पादक बनाने के लिए भावानुरूप शब्दोंका प्रयोग किया है । पद-योजनामें छन्दप्रवाह भी सहायता प्रदान करता है । ध्वन्यात्मक शब्दोंका प्रयोग भी यथास्थान किया गया है। कविने विभिन्न प्रकारके छन्द और अलंकारोंकी योजना द्वारा इस कान्यको सरस बनाया है।
#Kankamar
आचार्यतुल्य मुनि कनकमार 11वीं शताब्दी (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 25 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 25 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
मुनि कनकामर ने 'करकंडुचरिङ'के आदि और अन्तमें अपने गुरुका नाम पंडित या बुधमंगलदेव बताया है | अन्तिम प्रशस्तिमें कहा है कि वे ब्राह्मणा वंशके चन्द्रऋषिगोत्रीय थे। जब विरक्त होकर बे दिगम्बर मुनि हो गये, तो उनका नाम कनकामर प्रसिद्ध हुआ | श्री डॉ हीरालालजी जैन ने बताया है कि पट्टाबलियोंके अनुसार सुहस्तिके शिष्य सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध द्वारा स्थापित कोटिकगणकी बैरिशाखाका एक कुल चन्द्रनामक हुआ । चन्द्रकुलके भी अनेक अन्वय और गच्छ हुए । उत्तराध्ययनको शिष्यहिता नामक वृत्तिके कर्ता शान्ति सूरि चन्द्रकुलके काठक रायसे उत्पन्न थारापद्र-गच्छके थे और सुखबोधटीका के कर्ता देवेन्द्र पणि भी चन्द्रकुलके थे। किन्तु ये सब श्वेताम्बर परम्पराके भेद-प्रभेद हैं, दिगम्बर परम्पराके नहीं। मुनि कानकामर दिगम्बर मुनि थे । अतएव कमकामरका चन्द्रऋषिगोत्र देशीगण के चन्द्रकराचार्याम्नायके अन्तर्गत है । इतिहाससे यह सिद्ध है कि चन्दल नरेशोंने भी अपनेको चन्द्रायऋषि वंशी कहा है। अत: बहुत संभव है कि चन्द्रकराचार्याम्नाय चन्देल वंशी राज कुलमेंसे ही हुए किसी जैन मुनिने स्थापित किया हो। स्वयं कनकामर भी इसी कुलके रहे हों।
कविकी गुरुपरम्पराके सम्बन्ध में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती । अन्तिम प्रशस्तिमें उन्होंने अपनेको बुधमंगलदेवका शिष्य कहा है | श्री डॉ० हीरालाल जी जैनने रत्नाकर या धर्मरत्नाकर नामक संस्कृत-ग्रंथके रचयिता पं० मंगल देवको कहा है। इस मंथकी पाण्डुलिपियां जयपुर और कारंजामें प्राप्त हैं। जयपुरकी प्रतिमें पुष्पिकानाक्य निम्न प्रकार है
"सं० १६८० वर्षे काष्ठासंघे नन्दतटग्रामे भट्टारकश्रीभूषणशिष्यपंडित मंगलकृतशास्त्ररत्नाकरनाम शास्त्र सम्पूर्ण ।"
इससे डॉ० जैनने यह अनुमान लगाया है कि सं० १६८० ग्रंथ रचनाका काल नहीं, लेखनका काल है। कारंजाके शास्त्रभंडारकी प्रतिमें उसका लेखनकाल १६६७ अंकित किया है। काष्ठासंघ और नन्दीतट ग्रामका प्राचीन तम उल्लेख देवसेनकृत दर्शनसार गाथा ३८ में प्राप्त होता है, जहाँ वि० सं० ७५३ में नन्दितटग्राममें काष्ठासंघको उत्पत्ति बताई गई है। यदि कनकामरके कालके समीप श्रीभूषण और उनके शिष्य मंगलदेवका अस्तित्व सिद्ध हो जाय, तो उनकी परम्परा साटासंग और मलिटर पापके साथ जोडी जा सकती है।
'करकंडचरिउ' की रचना 'आसाइय'नगरीमें रहकर कविने की है । कारंजा की प्रतिमें 'आसाइम' नगरी पर 'आशापुरी' टिप्पण मिलता है, जिससे जान पड़ता है कि उस नगरीको आशापुरी भी कहते थे ।
इटावासे ९ मील की दूरी पर आसयखेड़ा नामक ग्राम है । यह ग्राम जैनियों का प्राचीन स्थान है । आसइ गाँव एक मंचे खेड़ेपर बसा हुआ है, जिसके पश्चिमी ओर बिशाल खण्डहर पड़े हुए हैं। उस पर बहुत दिगम्बर जैन प्रतिमाएं विखरी हुई मिलती हैं। यह आसाइय ग्राम अपने दुर्ग के लिए प्रसिद्ध था । इसे चन्द्रपालने बनवाया था । मुनि कनकामरने आसाइय नगरीमें आकर अपने 'करकंडुचरिउ' की रचना की थी, जहाक नरेश विजयपाल, भुपाल और कर्णथे ! अतः संभव है कि यह असाइयनगरी वर्तमान आसयखेड़ा ही हो ।
ई. सन् १०१७में मुहम्मद तुगलकने मथुरासे कन्नौज तक आक्रमण किया था। इटावाके पास मुंजके किले में हिन्दुओंसे उसका जबरदस्त संघर्ष हुआ। वहाँसे सुल्तानने आसइके दुर्गपर आक्रमण किया। उस समय आसइका शासक चाण्डाल भोर था। मुसलमानलेखकोंने लिखा है कि मुहम्मद तुगलकने पांचों किलोको गिरवाकर मिट्टी में मिला दिया। अत: यह संभव नहीं कि ई० सन्१०१७के पश्चात् कनकामर उसका उल्लेख नगरीके रूपमें करें।
डॉ.जैनने भोपालके समीप नासापुरीनामक ग्रामका उल्लेख किया है । वहाँ आशापुरीदेवीको असाधारण मूत्ति विद्यमान है । संभवतः इसीपरसे इस ग्रामका नाम आशापुर पड़ा होगा। वहाँ एक जैन मन्दिरके भी भानावशेष प्राप्त हैं। उनमें एक १६ फुट ऊंनी शान्तिनाथ तीर्थकरकी प्रतिमा भी है। डॉ. जैन इसी आशापुरीको कनकामरके द्वारा उल्लिखित आसाइय मानते हैं।
कवि कनकामरने ग्रंथके रचनाकालका उल्लेख नहीं किया है। उन्होंने अपने से पूर्ववर्ती सिद्धसेन, समन्तभद्र, अकलंक, जयदेव, स्वयंभू और पुष्पदन्तका उल्लेख किया है । पुष्पदन्तने अपना महापुराण ई० सन् १६५में समास किया था । अतएव करवचरिउकी रचना ई० सन् ९६५के पहले नहीं हो सकती है । इस ग्रंथकी प्राचीन हस्तलिखित प्रति वि० सं० १५०२को उपलब्ध है। अत: कविका समय सं० १५०२के पश्चात् भी नहीं हो सकता है।
'करकंडुचरिउ'की अन्तिम प्रशस्तिमें विजयपाल, भूपाल और कर्ण इन तीन राजाओंका उल्लेख आता है | इतिहास बतलाता है कि विश्वामित्र-गोत्र के क्षत्रीयवंशमें विजयपाल नामके एक राजा हुए, जिनके पुत्र भुवनपाल थे । उन्होंने कलचुरी, गुर्जर और दक्षिणको जीता था। एक अन्य अभिलेखसे बांदा जिलेके अन्तर्गस चन्देलोंको राजधानी कालिनरका निर्देश मिलता है। इसमें विजयपालके पुत्र भूमिपालका तथा दक्षिण दिशा और कर्णराजाको जीतनेका उल्लेख है । एक अन्य अभिलेख जबलपुर जिले के अन्तर्गत तावरमें मिला है | उसमें भूमिपाल के उत्पन्न होनेका उल्लेख आया है। तथा किसी सम्बन्धमें त्रिपुरी और सिंहपुरीका भी निर्देश है। यह अभिलेख ११वीं-१२वों शताब्दीका अनुमान किया गया है। इन लेखोंके विजयपाल और उनके पुत्र भुवनपाल या भूमिपाल तथा हमारे अन्धके विजयपाल और भूमिपाल एक ही है । कण नरेन्द्रका समावेश भी इन्हीं अभिलेखों में हो जाता है।
डॉ० जैनने इतिहासके आलोकमें विजयपाल, कीत्तिवर्मा (भुवनपाल) और कर्ण इन तीनों राजाओंका अस्तित्व ई० सन् १०४०-१०५१के आस-पास बतलाया है। अतः करकंडचरिउका रचनाकाल ग्यारहवीं शतीका मध्यभाग सिद्ध होता है। प्रशस्तिके अनुसार पूष्पदन्तके पश्चात् अर्थात् १६५ ई० के अनन्तर और १०५१ ई० के पूर्व कनकामरका समय होना चाहिए । वि० सं० १०६७ के लगभग कालिंजरमें विजयपाल नामक राजा हुआ । यह प्रतापी कलचुरोनरेश कण देवका समकालीन था। इसके पुत्र कोत्तिवर्माने कर्णदेव को पराजित किया था। अतएव मुनि कनकामरका समय वि की १२वीं शताब्दी है।
'करकंडचरिउ' १० सन्धियों में विभक्त है। इसमें करकण्ड महाराजकी कथा वर्णित है । कथाका सारांश निम्न प्रकार है
अंगदेशकी चम्पापुरी नगरी में धाडीवाहन राजा राज्य करता था । एक बार बह कुसुमपुरको गया और वहां पद्मावतो नामको एक युवतीको देखकर उसपर मोहित हा गया । युवतीका संरक्षक एक माली था, जिससे बातचीत करनेपर पता लगा कि यह युवती यथार्थमें कोशाम्बोके राजा बसुपालको पुत्रो है। जन्म समयके अपशकुनके कारण पिताने उसे यमुना नदीमें प्रवाहित कर दिया था | राजपुत्री जानकर धाड़ीवाहनने उसका पाणिग्रहण कर लिया । और उमे चम्पापुदीमें ले आया । कुछ काल पश्चात् वह गर्भवती हुई और उसे यह दोहला उत्पन्न हुआ कि मन्द-मन्द बरसातमें बह नररूप धारण करके अपनेपतिके साथ एक हाथीपर सवार होकर नगरका परिभ्रमण करे । राजाने रानी: का दोहलापूर्ण करने के लिए वैसा ही प्रबन्ध किया, पर दुष्ट हाथी राजा-रानीको लेकर जंगलकी ओर भाग निकला। रानी ने समझा-बुझाकर राजाको एक वृक्ष की डाली पकड़कर अपने प्राण बचाने के लिए राजी कर लिया। और स्वयं उस हाथीपर सवार रहकर जंगल में पहुंची । वह हाथी एक जलाशयमें घुसा । रानीने कूदकर अपने प्राण बचाये ! जब वह बनमें पहुंची, तो सूखा हुआ वह बन हरा भरा हो गया । इस समाचारको प्राप्तकर धनमाली वहां आया और उसे बहन बनाकर अपने साथ ले गया। मालिनको पद्मावतीके रूपपर ईया हुई और उसने किसी बहानेसे उसे अपने घरसे निकाल दिया । निराश होकर रानी श्मशानभूमिमें आई और वहीं उसे पुत्र उत्पन्न हुआ ।मुनिके अभिशापसे मातंग बने हुए विद्याधरने उस पुत्रको ग्रहण कर लिया और अभिशापकी बात बतलाकर रानीको उसने आश्वस्त किया। मातंगने उस बालकको शिक्षित किया । हाथमें कंडु-सूखी खुजली होने के कारण उसका नाम 'करकंड पड़ गया। जब यह युनावस्थाको प्राप्त हुआ, तर दन्तीपुरके राजाका परलोकवास हो गया । मन्त्रियोंने देवी विधिसे उत्तरा धिकारीका चयन करना चाहा और इस विधिमें करकेडुको राजा बना दिया गया ।
करकंडुका बिबाह गिरिनगरकी राजकुमारी मदनावलीसे हुआ । एक बार उसके दरबारमें चम्पाके राजाका दूत आया, जिसने उससे चम्पानरेशका आधिपत्य स्वीकार करनेकी प्रेरणा की। करकंडु कोधित हुआ और उसने तत्काल चम्पापर आक्रमण कर दिया। दोनों ओरसे घमासान युद्ध होने लगा। अन्तमें पद्यावतीने रणभूमिमें उपस्थित होकर पिता-पत्रका सम्मेलन करा दिया । धाड़ीवाहन पुत्ररत्नको प्राप्त कर बहुत हर्षित हुआ और वह चम्पाका राज्य करकांड को सौंप दीक्षित हो गया । एक बार करकंड्ने द्रविड़ देशके चोल, चेर और पाण्ड्य नरेशोंपर आक्रमण किया । मार्गमें वह तेरापुर मगरमें पहुँचा । वहाँके राजा शिवने भेंट की और आकर बताया कि वहाँसे पास ही एक पहाड़ीके चढ़ावपर एक गुफा है तथा उसी पहाड़के कपर एक भारी बामी है, जिसकी पूजा प्रतिदिन एक हाथी किया करता है। यह सुनकर करकंडु शिवराजाके साथ उस पहाड़ोपर गया | उसने गुफामें भगवान् पाश्व नाथका दर्शन किया और ऊपर चढ़कर बामीको भी देखा । उनके समक्ष ही हाथीने आकर कमल-पुत्रोंसे उस बामोकी पूजा की | करकंड़ने यह जानकर कि अवश्य ही यहां कोई देव-मूति होगी, उस बामीको खुदवाया । उसका अनुमान सत्य निकला । वहाँ पाश्वनाथ भगवानकी मूत्ति निकली, जिसे बड़ी भक्ति से उसी गुफामें ले आये । इस बार करकंडुने पुरानी प्रतिमाका अवलोकन किया । सिंहासनपर उन्हें एक गाँठ-सी दिखलाई पड़ी, जो शोभाको बिगाड़ रही थी । एक पुराने शिल्पकारसे पूछनेपर उसने कहा कि जब यह गुफा बनाई गई थी, तब वहाँ एक जलवाहिनी निकल पड़ी थी । उसे रोकने के लिए हो वह गाँठ दी गई है । करकंडुको जल बाहिनीके दर्शनका कौतुल उत्पन्न हुआ और शिल्पकारको बहुत रोकने पर भी उसने उस गांठको तोड़वा डाला । गाँठके टूटते ही वहाँ एक भयंकर जलप्रवाह निकल पड़ा, जिसे रोकना असंभव हो गया । मुफा जलसे भर गई । करकंडुको अपने किये पर पश्चात्ताप होने लगा। निदान एक विद्याधरने आकर उसका सम्बोधन किया, उस प्रवाहको रोकनेका वचन दिया तथा उस गुफाके बनने का इतिहास भी कह सुनाया।
ना निवासके सुनले अनन्त हुने हाँ दो पुगाएं और बनवाई । इसी बीच एक विद्याधर हाथीका रूप धरकर आया और करकंडुको भुलाकर मदनावलीको हरकर ले गया।करकंडु सिंहलदीप पहुंचा और वहाँको राजपुत्री रतिवेगाका पाणिग्रहण किया । जब बह जलमार्ग से लौट रहा था, तो एक मच्छने उसकी नौकापर आक्रमण किया | वह उसे मारने समुद्र में कूद पड़ा । मच्छ मारा गया, पर वह नावपर न था सका | उसे एक विद्याधरपुत्री हरकर ले गयी। रतिवेगाने किनारेपर आकर, शोकसे अधीर हो पूजा-पाठ प्रारंभ किया जिससे पद्मावतीने प्रकट हो उसे आश्वासन दिया | उधर विद्याधरोने कररंडुसे विवाह कर लिया और नववधु सहित रतिवेगासे आ मिला।
करकडुने चोल, चेर और पांच नरेशोंकी सम्मिलित सेनाका सामना किया और उन्हें हराकर प्रण पूरा किया। जब वह लौटकर पुनः तेरापुर आया, तो कुटिल विद्याधरने मदनावलीको लाकर सौंप दिया। बह चम्पापुरी आकर सुख-पूर्वक राज्य करने लगा।
एक दिन बनमालीने आकर सूचना दी कि नगरके उपबनमें शोलगप्त नामक मुनिराज पधारे हैं। राजा अत्यन्त भफिभावसे पुरजन-परिजन सहित उनके चरणों में उपस्थित हुआ और अपने जीवनसम्बन्धी अनेक प्रश्न पूछे। राजा मुनिराजसे अपने पूर्व जन्मोंकी कथाओंको सुनकर विरक्त हो गया और अपने पुत्र बसुपालको राज्य दे मुनि बन गया। रानियों और माता पद्मावती भीआर्यिका हो गई । करकडुने घोर तपश्चरणकर मोक्ष प्राप्त किया ।
चरितनायकको कथाके अतिरिक्त अवान्तर ६ कथाएं भी आयी हैं। प्रथमचार कथाएं द्वितीय सन्धिमें वर्णित हैं। इनमें क्रमशः मन्त्रशक्तिका प्रभाव, बमानसे यापत्ति नीलसुंगतिका बुरा पनिपार और सत्संगतिका शुभ परिणाम दिखाया गया है। पांचवीं कथा एक विद्याधरने मदनावलीके विरहसे व्याकुल करकंडुको यह समझाने के लिए सुनाई कि वियोगके बाद भी पति-पत्नीका सम्मिलन हो जाता है। छठो कथा पांचवीं कथाके अन्तर्गत ही आई है। सातवीं कथा शुभ शकुमका फन बतलाने के लिये कही गई है । आठवीं कथा पद्मावतीने समुद्र में विद्याचरी द्वारा करकंडुके हरण किये जानेपर शोकाकुला रतिवेगाको सुनाई है। नवीं कथा आठवीं कथाका प्रारंभिक भाग है, जो एक तोतेकी कथा के रूपमें स्वतन्त्र अस्तित्व रखती है।
ये कथाए' मूलकथाके विकासमें अधिक सहायक नहीं हो पाती । इनके आधारपर कविने कथावस्तुको रोचक बनाने का प्रयास किया है । वस्तुमें रसो स्कर्ष, पात्रोको चरित्रगत विशेषता और काश्योंमें प्राप्य प्राकृतिक दृश्योंक वर्णनके अभावको कविने भिन्न-भिन्न कथाओं के प्रयोग दारा पूरा करने का प्रयल किया है।
करकंडुचरित्र धार्मिक कथा-काव्य है । इसमें अलौकिक और चमत्कावपूर्ण घटनाओंके साथ काव्यत्तत्त्व भी प्रचुररूपमें पाये जाते हैं।
इस काध्यमें मानव-जगत और प्राकृतिक-जगत दोनोंका वर्णन पाया जाता है | करकंडुके दन्तिपुरमें प्रवेश करनेपर नगरकी नारियोंके हृदयकी व्यग्रता विचित्र हो जाती है। यह वर्णन कान्यकी दृष्टिसे बहुत ही सरस और आक र्षक है
ताहि पुरवरि खुहियाउ रमणियाउ झापद्रिय-मुणि-मण-दमणियाउ ।
कवि रहसई तरलिय चलिय गारि, विहउफ्फज संठिय का वि दारि ।
क वि धावइ गणिव गेहलुद्ध परिहाणु ण गलियउ गणइ मुख ।
क वि कज्जल बलहड अहरे देइ णयणुल्ला। लक्खारसु करेइ ।
णिगंथवित्ति क वि अणुसरेइ विवरीउ डिंभु कवि कहिँ लेइ ।
कवि उरु कराल करइ बाल, सिरु छडिवि कड़ियले धरइ माल ।
णिय-गंदण मणिवि के वि वराय मज्जारु ण मेल्लइ साशुराय ।
क विधावइ णणिल मणे घरंति विहलंघल मोहइ घर सरति ।
घाता-कवि माणमहल्ली भयणभर करकंडहो समहिय चलिय ।
थिर-थोर-पओहरि मयणयण उत्तप्त-फणयछवि उज्जलिय ॥२॥
अर्थात् करकंडके आगमनपर ध्यानावस्थित मुनियों के मनको विचलित करनेवाली सुन्दरियाँ भी विक्षुब्ध हो उठीं। कोई स्त्री आवेगले चंचल हो चल पड़ी, कोई विह्वल हो द्वार पर खड़ी हो गई, कोई मुग्धा प्रेमलुब्ध हो दौड़ पड़ी, किसीने गिरते हुए वस्त्रको भी परवाह न की, कोई अवरों पर काजल भरने लगी, कोई आँखों में लाक्षारस लगाने लगी, कोई दिगम्बरोंके समान आचरण करने लभी, किसीने बच्चेको उल्टा ही गोद में ले लिया, किसीने नपुरको हाथमें पहना, किसीने सिरके स्थानपर कटिप्रदेशपर माला डाल ली और कोई बेचारी बिल्लीके बच्चेको अपना पुत्र समझ सप्रेम छोड़ना नहीं चाहती।"... कोई स्थिर और स्थूल पयोधर बाली, तप्त कनकच्छविके समान उज्वल वर्ण वाली, मृगनयनी, मामिनी कामाकुल हो करकंडुके सामने चल पड़ो ।
शोलगुम मुनिराजके आगमनपर पुरनारियोंके हृदयमें जैसा उत्साह दिखलाई पड़ता है वैसा अन्यत्र संभव नहीं । कविने लिखा है कि कोई सुन्दरी मानिनी मुनिके चरणकमलमें अनुरक्त हो चल दो, कोई नपुर-शब्दोंसे झनझन करती हुई मानों मुनिगुणगान करती हुई चल पड़ी । कोई मुनिदर्शनोंका हृदयमें ध्यान धरती हुई जाते हुए पतिका भी विचार नहीं करतो । कोई थालमें अक्षत और धूप भरकर बच्चेको ले वेगसे चल पड़ी | कोई सुगन्धयुक्त जाती हुई ऐसी प्रतीत होती थी, मानों विद्याधरो पृथ्वो पर शोभित हो रही हो ।'
कचि देश, नगर, ग्राम, प्रासाद, द्वीप, श्मशान आदिक वर्णनमें भा अत्यन्त पटु है। अंगदेशका चित्रण करते समय उसने उस देशको पथ्वीरूपो मारीके रूपमें अनुभव किया है । इस प्रसंगमें सरावर, धान्यसे भरे खेत, कृषक बालाएं, पथिक, विकसित कमल आदिका भी चित्रण किया गया है ।२।
कनकामरने शृंगार, बीर और भयानक रसका अद्भुत चित्रण किया है। नारीरूप-वर्णनमें कविने परम्पराका आश्रय लिया है और परम्परामुक्त उप मानोंका प्रयोग कर नारीके नख-शिखका चित्रण किया है । पद्मावतीके रूप चित्रणमें अधरोंकी रक्तिमाका कारण आगे उठी हुई नासिकाको उन्नतिपर
अधरोंका कोप कल्पित किया गया है।
रतिवेगाके विलापमें कविने ऊहात्मक प्रसंगोंका प्रयोग किया है । वर्णनमें संवेदनाका बाहुल्य है। इसी प्रकार मदनावलीके विलुप्त होनेपर करकंडुका विलाप भी पाषाणको पिघला देने वाला है। संसारको नश्वरता और अस्थिरताका चित्रण करते हुए कविने बताया है कि कालके प्रभावसे कोई नहीं बचता । युवा, वृद्ध, बालक, चक्रवर्ती, विद्याधर, किन्नर, खेचर, सुर, अमरपत्ति सब कालके वशवों हैं ।' प्रत्येक प्राणी अपने कर्मोंके लिए उत्तरदायी, वह अकेला ही संसारमें जन्म ग्रहण करता है, अकेला ही दुःख भोगता है और अकेला ही मृत्यु प्राप्त करता है ।
करकंडुको प्रघाण करते समय गंगा नदी मिलता है। कविने गंगाका वर्णन जीवन्त रूपमें प्रस्तुत किया है
गंगापरसु संपत्तएण गंगाणइ दिट्ठी जंतरण ।
सा सोहइ सिय-जल कुडिलवति, णं सेयभुवंगही महिल जति ।
दुरात वहती अइविहाई, हिमवंत-गिरिंदहो कित्ति णाई।
विहिं कूलहिँ लोहिं म्हंतएहि आइच्चहो जलु परिदितिहि ।
दभकियउहि करयलहिं णई भणइ णाई एयहि छलहिं ।
हउँ सुद्धिय णियमगेण जामि मा रूसहि अम्महो उवरि सामि ।
शुभ्र जलयुक्त, कुटिल प्रवाहबाली गंगा ऐसी शोभित हो रही थी, मानों शेषनागकी स्त्री जा रही हो। दुरसे बहतो हुई गंगा ऐसी दिखलाई पड़ती थी, जैसे वह हिमवत्त गिरीन्द्रकी कोत्ति हो! दोनों कूलों पर नहाते हुए और आदित्य को जल चढ़ाते हुए, दर्भसे युक्त केंचे उठाये हुए करतलों सहित लोगोंके द्वारा मानों इसी बहानेसे नदी कह रही है ''मैं शुद्ध हूँ और अपने मार्गसे जाती हूँ। हे स्वामी ! मेरे ऊपर रुष्ट मत होइये ।" कविके वर्णनमें स्वाभाविकता है ।
कविने भाषाको प्रभावोत्पादक बनाने के लिए भावानुरूप शब्दोंका प्रयोग किया है । पद-योजनामें छन्दप्रवाह भी सहायता प्रदान करता है । ध्वन्यात्मक शब्दोंका प्रयोग भी यथास्थान किया गया है। कविने विभिन्न प्रकारके छन्द और अलंकारोंकी योजना द्वारा इस कान्यको सरस बनाया है।
Acharyatulya Muni Kankamar 11th Century (Prachin)
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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