हैशटैग
#NagdevPrachin
नागदेव संस्कृत के अच्छे कवि और गद्यकार हैं। इन्होंने 'मदनपराजय' ग्रन्थ के आरम्भमें अपना परिचय दिया है। बताया है कि पृथ्वी पर पवित्र रघुकुलरूपी कमलको विकसित करने के लिये सूर्यके समान चंगदेव हुआ । चंग देव कल्पवृक्षके समान याचकोंके मनोरथको पूर्ण करनेवाला था । इसका पुत्र हरिदेव हुआ। हरिदेव दुर्जन कवि-हाथियों के लिये सिंहके समान था । हरि देवका पुत्र नागदेव हुआ, जिसकी प्रसिद्धि इस भूतलपर महान वैद्यराजके रूप में थी।
नागदेवके हेम और राम नामक दो पुत्र हुए। ये दोनों भाई भी अच्छे देद्य थे । रामके प्रियंकर नामक एक पुत्र हुआ, जो अर्थियोंके लिये बड़ा प्रिय था । नियंकरके भी श्री मल्लगित् नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। श्री मल्लगित् जिनेन्द्र भगवानके चरणकमलके प्रति उन्मत्त भ्रमरके समान अनुरागी था और चिकित्साशास्त्रसमुद्र में पारंगत था ।
मल्लुमित्का पुत्र में नागदेव हूँ। मैं अल्पज्ञ हूँ । छन्द, अलंकार, काव्य और व्याकरणशास्त्रका भी मुझे परिचय नहीं है ।
इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि नागदेव सारस्वतकुलमें उत्पन्न हुआ था और उसके परिवारके सभी व्यक्ति चिकित्साशास्त्र या अन्य किसी शास्त्रसे परिचित थे ।
यः शुद्धरामकुलपयविकासनार्को
जातोऽधिना सुरतरु वि चङ्गदेवः ।
तनन्दनो हरिरसत्कचिनागसिंहः
तस्माभिषजनपति वि नागदेवः ॥ २ ॥
तज्जावुभौ सुभिषाविद् हेमरामौ
रामाभियंकर इति प्रियदोथिनां यः।
तज्जश्चिकित्सितमहाम्बुधिपारमात :
प्रोमल्लुगिज्जिनपदाम्बुजमत्तमङ्गः ॥ ३ ॥
तजोऽहं नागदेवाच्यः स्तोकशानन संयुतः ।
फन्दोलकारकाम्यानि नाभिधानानि वेदाम्यहम् ।। ४ ।।
नागदेवने 'मदनपराजय'की रचना कब की, इसका निर्देश कहीं नहीं मिलता है । 'मदनपराजय' पर आशाधरका प्रभाव दिखलाई पड़ता है तथा ग्रन्थकाने स्वयं इस बातको स्वीकार किया है कि हरदेवने अपभ्रंशमें 'मदनपराजय' ग्रंथ लिखा है उसी ग्रन्धतो आधारपर संस्कृत-भाषामें 'मदनपराजय' लिखा गया है। अतः हरदेवके पश्चात ही नागदेवका समय होना चाहिए। हरदेवने भी 'मयणपराज'का रचनाकाल अंकित नहीं किया है। इस ग्रन्थको आमेर भंडारको पाण्डुलिपि वि० सं० १५७६ की लिखी हुई है। अतः हरदेवका समय इसके पूर्व सुनिश्चित है। साहित्य, भाषा एवं प्रतिपादन होलोको दृष्टिसे 'मयणपगज'का रचनाकाल १४ वीं शती प्रतीत होता है । अतएव नागदेवका समय १४वीं शतीके लगभग होना चाहिए। यदि आशाधरके प्रभावको नाग देवपर स्वीकार किया जाय, तो इभका गया १४वी मातीमा ए ट होगा है । यत: आशाधरने 'अनगारधर्मामृत'को टोका वि० सं० १३०० में समाप्त की थी। इस दष्टिसे नागदेवका समय वि० की १४ वीं शती माना जा सकता है। नागदेवने अपने अन्धमें अनेक ग्रन्थोंके उद्धरण प्रस्तुत किये हैं। इन उद्धरणों के अध्ययनसे भी नागदेवका समय १४ वीं शती आता है । 'मदनपराजय'की जो पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध हैं उनमें एक प्रति भट्टारक महेन्द्रको त्तिके मास्त्रभण्डार आमेर की है। यह प्रति वि० सं० १५७३ में सूर्यसेन नरेशके राज्यकाल में लिखी मई है । इस ग्रन्थको प्रशस्तिमें बताया है कि मलसंघ कुन्दकुन्दाचार्यके आम्नाय तथा सरस्वतीगच्छमें जिनेन्द्रसूरिके पट्टपर प्रभाचन्द्र भट्टारक हुए, जिनके आम्नायवर्ती नरसिंहके सुपुत्र होलाने यह प्रति लिखकर किसी नती पात्रके लिये समर्पित की। नरसिंह खण्डेलवासके निवासी पाम्पल्य कुलके थे। इनकी पत्नीका नाम मणिका था। दोनोंके होला नामक पुत्र था, जिसकी पत्नीका नाम वाणभू था । होलाके बाला और पर्वत नामक दो भाई थे और इस प्रतिको लिखाने में तथा वतीके लिए समर्पण करने में इन दोनों भाइयों का सहयोग था । इस लेखसे यह भी प्रतीत होता है कि बाला की पत्नीका नाम धान्या था । और इसके कुम्भ और बाहू नामक दो पुत्र भी थे।
इस पाण्डुलिपिके अवलोकनसे इतना स्पष्ट है कि नागदेवका समय वि० सं. १५७३ के पूर्व है। अतएव संक्षेपमें ग्रन्धके अध्ययनसे नागदेवका समय आशाधरके समकालीन या उनसे कुछ ही बाद होना चाहिए। नागदेव बड़े ही प्रतिभाशाली और सफल काव्यलेखक थे।
'मदनपराजय' के पुष्पिका-वाक्योंमें लिखा मिलता है-इति "ठाकुरमाइन्ददेवस्तुतजिन (नाग) देवविरचिते स्मरपराजये संस्कृतबन्धे श्रुतावस्थानाम प्रथमपरिच्छेद:"।
ठाकुर माइन्ददेव और जिनदेवको किस प्रकार इस ग्रन्थका का बसलाया गया है । श्री जैनसिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था कलकत्तासे प्रकाशित और श्री पं० गजाधरलालजी न्यायतीर्थ द्वारा अनूदित 'मकरध्वजपराजय के परिच्छेदके अन्तमें भी मदनपराजयके कर्ताको ठाकुर माइन्ददेवसुत जिनदेव सूचित किया गया है। यों तो मदनपराजयके प्रारम्भमें ही नागदेवने अपने पिताका नाम भल्लुगित बताया है। नागदेवसे पूर्व छठो पीढ़ी में हुए हरदेवने 'मदनपराजय' को अपभ्रंशमें लिखा है | श्री डा. हीरालालजोने अपने एक निबन्धमें लिखा है "इस काव्यका ठाकुर मयन्ददेवके पुत्र जिनदेवने अपने स्मरपराजयमें परिवर्द्धन किया, ऐसा प्रतीत होता है"", पर जबतक ‘मदनपराजय' और 'स्मरपराजय' ये दोनों रचना स्वतन्त्र रूप से उपलब्ध नहीं होती है तब तक यह केवल अनुमानमात्र है। हमारा अनुमान है कि नागदेवने 'मदनपराजय'को ही स्मर पराजय, मारपराजय और जिनस्तोत्रके नामसे अभिहित किया है। अतएव नागदेवका ही अपरनाम जिनदेव होना चाहिए।
नागदेव द्वारा रचित मदनपराजय प्राप्त होता है | सम्यक्त्वकौमुदी और मदनपराजयमें भाषासाम्य, शैलीसाम्य और अन्योधुत पद्यसाम्य होनेसे सम्यक्त्वकौमुदीके रचयिता भी नागदेव अनुमानित किये जा सकते हैं, पर यथार्थतः नागदेवका एक ही ग्रन्थ मदनपराजय उपलब्ध है ।
'मदनपराजय'में रूपयशैली द्वारा मदनके पराजित होनेकी कथा गणित है। यह कथा रूपकशेली में लिखी गई है। बताया है कि भवनामक नगरमें मकरध्वज नामक राजा राज्य करता था। एक दिन उसको सभामें शल्या, गारव, कर्मदण्ड, दोष और आश्रव आदि सभी योबा उपस्थित थे। प्रधान सचिव मोह भी वर्तमान था। मकरध्वजने वार्तालापके प्रसंगमें मोहसे किसी अपूर्व समाचार सुनानेकी बात कही । उत्तरमें उसने मकरध्वजसे कहा--राजन आज एक ही नया समाधार है और वह यह है कि जिनराकका बहुत ही शीघ्र मुक्ति-कन्याके साथ विवाह होने जा रहा है । मकरध्वजने अबतक जिनराजका नाम नहीं सुना था और मुक्तिकन्यासे भी उसका कोई परिचय नहीं था। वह जिनराज और मुक्तिकन्याका परिचय प्राप्तकर पाश्चर्यचकित हुआ।
वह मुक्ति कन्याका वर्णन सुनते हो उसपर मुग्ध हो गया और उसने विचार व्यक्त किया कि संग्रामभूमिमें जिनराजको परास्त कर वह स्वयं ही उसके साथ विवाह करेगा। मोहने नीतिकौशलसे उसे अकेले संग्रामभूमिमें उतरनेसे रोका । मकरध्वजने मोहकी बात मान ली। किन्तु उसने मोहको आज्ञा दी कि बह जिनराजपर चढ़ाई करनेके लिए शीघ्र हो अपनो समस्त सेना तैयार करके ले आये।
मकरध्वजकी रति और प्रीति नामक दो पत्नियां थीं । उसने रतिको मुक्ति कन्याको मकरध्वजके साथ विवाह कराने हेतु समझानेको भेजा। मार्गमें मोहकी रसिसे भेंट हुई। मोहने रतिको लौटा दिया और मकरध्वजको बुरा भला कहा । मोहको सम्मलिके अनुसार मकरध्वजने राग-द्वेष नामके दूतोंको जिनराज के पास भेजा । दूतोंने जिनराजको सभामें जाकर मकरध्वजका संदेश सुनाया | वे कहने लगे कि मकरध्वजका आदेश है कि आप मुक्ति-कन्याके साथ विवाह न करें और आप अपने तीनों रत्न महाराज मकरध्वजको भेट कर दें और उनको अधीनता स्वीकार कर लें। जिनराजने मकरध्वजके प्रस्तावको स्वीकार नहीं किया। जत्र गग-द्वेष बढ़-बढ़कर बातें करने लगे, ता संयमने उन्हें चांटा लगाकर उन्हें सभाम अलग कर दिया । संयनसे अपमानिन होकार भाग-द्वेष मकरध्वजके पास आ गये । मकरध्वज जिनेन्द्रके समाचारको सुन. कर उत्तेजित हुआ। उसने अन्यायको बुलाकर अपनी सेनाको तैयार करनेका आदेश दिया । जिन राजकी सेना संवेगकी अध्यक्षतामें तैयार होने लगी। मकर ध्वजने बहिरात्माको जिनराजके पास भेजा और क्रोध, द्वेष आदिने वीरता पूर्वक संवेग, निदके साथ मुक्त किया। जिनराजने शुक्लध्यानरूपी बीरके द्वारा कर्म धनुषको तोड़कर मुक्ति-कन्याको प्रसन्न किया । मकरध्वजकी समस्त सेना छिन्न-भिन्न हो गई और मुक्तिश्नीने जिनराजका वरण किया।
इस रूपक काव्यमें कवि नागदेवने अपनी कल्पनाका सुक्ष्म प्रयोग किया है। इस संदर्भ में कविने मुक्ति कन्याका जैसा हृदयग्राही चित्रण किया है वैग: अन्यत्र मिलना दुष्कर है।
अलंकार, ग्म और भाव संयोजनकी दृष्टिसे भी यह काव्य कम महन्यप, नहीं है।
नागदेव संस्कृत के अच्छे कवि और गद्यकार हैं। इन्होंने 'मदनपराजय' ग्रन्थ के आरम्भमें अपना परिचय दिया है। बताया है कि पृथ्वी पर पवित्र रघुकुलरूपी कमलको विकसित करने के लिये सूर्यके समान चंगदेव हुआ । चंग देव कल्पवृक्षके समान याचकोंके मनोरथको पूर्ण करनेवाला था । इसका पुत्र हरिदेव हुआ। हरिदेव दुर्जन कवि-हाथियों के लिये सिंहके समान था । हरि देवका पुत्र नागदेव हुआ, जिसकी प्रसिद्धि इस भूतलपर महान वैद्यराजके रूप में थी।
नागदेवके हेम और राम नामक दो पुत्र हुए। ये दोनों भाई भी अच्छे देद्य थे । रामके प्रियंकर नामक एक पुत्र हुआ, जो अर्थियोंके लिये बड़ा प्रिय था । नियंकरके भी श्री मल्लगित् नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। श्री मल्लगित् जिनेन्द्र भगवानके चरणकमलके प्रति उन्मत्त भ्रमरके समान अनुरागी था और चिकित्साशास्त्रसमुद्र में पारंगत था ।
मल्लुमित्का पुत्र में नागदेव हूँ। मैं अल्पज्ञ हूँ । छन्द, अलंकार, काव्य और व्याकरणशास्त्रका भी मुझे परिचय नहीं है ।
इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि नागदेव सारस्वतकुलमें उत्पन्न हुआ था और उसके परिवारके सभी व्यक्ति चिकित्साशास्त्र या अन्य किसी शास्त्रसे परिचित थे ।
यः शुद्धरामकुलपयविकासनार्को
जातोऽधिना सुरतरु वि चङ्गदेवः ।
तनन्दनो हरिरसत्कचिनागसिंहः
तस्माभिषजनपति वि नागदेवः ॥ २ ॥
तज्जावुभौ सुभिषाविद् हेमरामौ
रामाभियंकर इति प्रियदोथिनां यः।
तज्जश्चिकित्सितमहाम्बुधिपारमात :
प्रोमल्लुगिज्जिनपदाम्बुजमत्तमङ्गः ॥ ३ ॥
तजोऽहं नागदेवाच्यः स्तोकशानन संयुतः ।
फन्दोलकारकाम्यानि नाभिधानानि वेदाम्यहम् ।। ४ ।।
नागदेवने 'मदनपराजय'की रचना कब की, इसका निर्देश कहीं नहीं मिलता है । 'मदनपराजय' पर आशाधरका प्रभाव दिखलाई पड़ता है तथा ग्रन्थकाने स्वयं इस बातको स्वीकार किया है कि हरदेवने अपभ्रंशमें 'मदनपराजय' ग्रंथ लिखा है उसी ग्रन्धतो आधारपर संस्कृत-भाषामें 'मदनपराजय' लिखा गया है। अतः हरदेवके पश्चात ही नागदेवका समय होना चाहिए। हरदेवने भी 'मयणपराज'का रचनाकाल अंकित नहीं किया है। इस ग्रन्थको आमेर भंडारको पाण्डुलिपि वि० सं० १५७६ की लिखी हुई है। अतः हरदेवका समय इसके पूर्व सुनिश्चित है। साहित्य, भाषा एवं प्रतिपादन होलोको दृष्टिसे 'मयणपगज'का रचनाकाल १४ वीं शती प्रतीत होता है । अतएव नागदेवका समय १४वीं शतीके लगभग होना चाहिए। यदि आशाधरके प्रभावको नाग देवपर स्वीकार किया जाय, तो इभका गया १४वी मातीमा ए ट होगा है । यत: आशाधरने 'अनगारधर्मामृत'को टोका वि० सं० १३०० में समाप्त की थी। इस दष्टिसे नागदेवका समय वि० की १४ वीं शती माना जा सकता है। नागदेवने अपने अन्धमें अनेक ग्रन्थोंके उद्धरण प्रस्तुत किये हैं। इन उद्धरणों के अध्ययनसे भी नागदेवका समय १४ वीं शती आता है । 'मदनपराजय'की जो पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध हैं उनमें एक प्रति भट्टारक महेन्द्रको त्तिके मास्त्रभण्डार आमेर की है। यह प्रति वि० सं० १५७३ में सूर्यसेन नरेशके राज्यकाल में लिखी मई है । इस ग्रन्थको प्रशस्तिमें बताया है कि मलसंघ कुन्दकुन्दाचार्यके आम्नाय तथा सरस्वतीगच्छमें जिनेन्द्रसूरिके पट्टपर प्रभाचन्द्र भट्टारक हुए, जिनके आम्नायवर्ती नरसिंहके सुपुत्र होलाने यह प्रति लिखकर किसी नती पात्रके लिये समर्पित की। नरसिंह खण्डेलवासके निवासी पाम्पल्य कुलके थे। इनकी पत्नीका नाम मणिका था। दोनोंके होला नामक पुत्र था, जिसकी पत्नीका नाम वाणभू था । होलाके बाला और पर्वत नामक दो भाई थे और इस प्रतिको लिखाने में तथा वतीके लिए समर्पण करने में इन दोनों भाइयों का सहयोग था । इस लेखसे यह भी प्रतीत होता है कि बाला की पत्नीका नाम धान्या था । और इसके कुम्भ और बाहू नामक दो पुत्र भी थे।
इस पाण्डुलिपिके अवलोकनसे इतना स्पष्ट है कि नागदेवका समय वि० सं. १५७३ के पूर्व है। अतएव संक्षेपमें ग्रन्धके अध्ययनसे नागदेवका समय आशाधरके समकालीन या उनसे कुछ ही बाद होना चाहिए। नागदेव बड़े ही प्रतिभाशाली और सफल काव्यलेखक थे।
'मदनपराजय' के पुष्पिका-वाक्योंमें लिखा मिलता है-इति "ठाकुरमाइन्ददेवस्तुतजिन (नाग) देवविरचिते स्मरपराजये संस्कृतबन्धे श्रुतावस्थानाम प्रथमपरिच्छेद:"।
ठाकुर माइन्ददेव और जिनदेवको किस प्रकार इस ग्रन्थका का बसलाया गया है । श्री जैनसिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था कलकत्तासे प्रकाशित और श्री पं० गजाधरलालजी न्यायतीर्थ द्वारा अनूदित 'मकरध्वजपराजय के परिच्छेदके अन्तमें भी मदनपराजयके कर्ताको ठाकुर माइन्ददेवसुत जिनदेव सूचित किया गया है। यों तो मदनपराजयके प्रारम्भमें ही नागदेवने अपने पिताका नाम भल्लुगित बताया है। नागदेवसे पूर्व छठो पीढ़ी में हुए हरदेवने 'मदनपराजय' को अपभ्रंशमें लिखा है | श्री डा. हीरालालजोने अपने एक निबन्धमें लिखा है "इस काव्यका ठाकुर मयन्ददेवके पुत्र जिनदेवने अपने स्मरपराजयमें परिवर्द्धन किया, ऐसा प्रतीत होता है"", पर जबतक ‘मदनपराजय' और 'स्मरपराजय' ये दोनों रचना स्वतन्त्र रूप से उपलब्ध नहीं होती है तब तक यह केवल अनुमानमात्र है। हमारा अनुमान है कि नागदेवने 'मदनपराजय'को ही स्मर पराजय, मारपराजय और जिनस्तोत्रके नामसे अभिहित किया है। अतएव नागदेवका ही अपरनाम जिनदेव होना चाहिए।
नागदेव द्वारा रचित मदनपराजय प्राप्त होता है | सम्यक्त्वकौमुदी और मदनपराजयमें भाषासाम्य, शैलीसाम्य और अन्योधुत पद्यसाम्य होनेसे सम्यक्त्वकौमुदीके रचयिता भी नागदेव अनुमानित किये जा सकते हैं, पर यथार्थतः नागदेवका एक ही ग्रन्थ मदनपराजय उपलब्ध है ।
'मदनपराजय'में रूपयशैली द्वारा मदनके पराजित होनेकी कथा गणित है। यह कथा रूपकशेली में लिखी गई है। बताया है कि भवनामक नगरमें मकरध्वज नामक राजा राज्य करता था। एक दिन उसको सभामें शल्या, गारव, कर्मदण्ड, दोष और आश्रव आदि सभी योबा उपस्थित थे। प्रधान सचिव मोह भी वर्तमान था। मकरध्वजने वार्तालापके प्रसंगमें मोहसे किसी अपूर्व समाचार सुनानेकी बात कही । उत्तरमें उसने मकरध्वजसे कहा--राजन आज एक ही नया समाधार है और वह यह है कि जिनराकका बहुत ही शीघ्र मुक्ति-कन्याके साथ विवाह होने जा रहा है । मकरध्वजने अबतक जिनराजका नाम नहीं सुना था और मुक्तिकन्यासे भी उसका कोई परिचय नहीं था। वह जिनराज और मुक्तिकन्याका परिचय प्राप्तकर पाश्चर्यचकित हुआ।
वह मुक्ति कन्याका वर्णन सुनते हो उसपर मुग्ध हो गया और उसने विचार व्यक्त किया कि संग्रामभूमिमें जिनराजको परास्त कर वह स्वयं ही उसके साथ विवाह करेगा। मोहने नीतिकौशलसे उसे अकेले संग्रामभूमिमें उतरनेसे रोका । मकरध्वजने मोहकी बात मान ली। किन्तु उसने मोहको आज्ञा दी कि बह जिनराजपर चढ़ाई करनेके लिए शीघ्र हो अपनो समस्त सेना तैयार करके ले आये।
मकरध्वजकी रति और प्रीति नामक दो पत्नियां थीं । उसने रतिको मुक्ति कन्याको मकरध्वजके साथ विवाह कराने हेतु समझानेको भेजा। मार्गमें मोहकी रसिसे भेंट हुई। मोहने रतिको लौटा दिया और मकरध्वजको बुरा भला कहा । मोहको सम्मलिके अनुसार मकरध्वजने राग-द्वेष नामके दूतोंको जिनराज के पास भेजा । दूतोंने जिनराजको सभामें जाकर मकरध्वजका संदेश सुनाया | वे कहने लगे कि मकरध्वजका आदेश है कि आप मुक्ति-कन्याके साथ विवाह न करें और आप अपने तीनों रत्न महाराज मकरध्वजको भेट कर दें और उनको अधीनता स्वीकार कर लें। जिनराजने मकरध्वजके प्रस्तावको स्वीकार नहीं किया। जत्र गग-द्वेष बढ़-बढ़कर बातें करने लगे, ता संयमने उन्हें चांटा लगाकर उन्हें सभाम अलग कर दिया । संयनसे अपमानिन होकार भाग-द्वेष मकरध्वजके पास आ गये । मकरध्वज जिनेन्द्रके समाचारको सुन. कर उत्तेजित हुआ। उसने अन्यायको बुलाकर अपनी सेनाको तैयार करनेका आदेश दिया । जिन राजकी सेना संवेगकी अध्यक्षतामें तैयार होने लगी। मकर ध्वजने बहिरात्माको जिनराजके पास भेजा और क्रोध, द्वेष आदिने वीरता पूर्वक संवेग, निदके साथ मुक्त किया। जिनराजने शुक्लध्यानरूपी बीरके द्वारा कर्म धनुषको तोड़कर मुक्ति-कन्याको प्रसन्न किया । मकरध्वजकी समस्त सेना छिन्न-भिन्न हो गई और मुक्तिश्नीने जिनराजका वरण किया।
इस रूपक काव्यमें कवि नागदेवने अपनी कल्पनाका सुक्ष्म प्रयोग किया है। इस संदर्भ में कविने मुक्ति कन्याका जैसा हृदयग्राही चित्रण किया है वैग: अन्यत्र मिलना दुष्कर है।
अलंकार, ग्म और भाव संयोजनकी दृष्टिसे भी यह काव्य कम महन्यप, नहीं है।
#NagdevPrachin
आचार्यतुल्य श्री १०८ नागदेव 14वीं शताब्दी (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 05 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 05 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
नागदेव संस्कृत के अच्छे कवि और गद्यकार हैं। इन्होंने 'मदनपराजय' ग्रन्थ के आरम्भमें अपना परिचय दिया है। बताया है कि पृथ्वी पर पवित्र रघुकुलरूपी कमलको विकसित करने के लिये सूर्यके समान चंगदेव हुआ । चंग देव कल्पवृक्षके समान याचकोंके मनोरथको पूर्ण करनेवाला था । इसका पुत्र हरिदेव हुआ। हरिदेव दुर्जन कवि-हाथियों के लिये सिंहके समान था । हरि देवका पुत्र नागदेव हुआ, जिसकी प्रसिद्धि इस भूतलपर महान वैद्यराजके रूप में थी।
नागदेवके हेम और राम नामक दो पुत्र हुए। ये दोनों भाई भी अच्छे देद्य थे । रामके प्रियंकर नामक एक पुत्र हुआ, जो अर्थियोंके लिये बड़ा प्रिय था । नियंकरके भी श्री मल्लगित् नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। श्री मल्लगित् जिनेन्द्र भगवानके चरणकमलके प्रति उन्मत्त भ्रमरके समान अनुरागी था और चिकित्साशास्त्रसमुद्र में पारंगत था ।
मल्लुमित्का पुत्र में नागदेव हूँ। मैं अल्पज्ञ हूँ । छन्द, अलंकार, काव्य और व्याकरणशास्त्रका भी मुझे परिचय नहीं है ।
इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि नागदेव सारस्वतकुलमें उत्पन्न हुआ था और उसके परिवारके सभी व्यक्ति चिकित्साशास्त्र या अन्य किसी शास्त्रसे परिचित थे ।
यः शुद्धरामकुलपयविकासनार्को
जातोऽधिना सुरतरु वि चङ्गदेवः ।
तनन्दनो हरिरसत्कचिनागसिंहः
तस्माभिषजनपति वि नागदेवः ॥ २ ॥
तज्जावुभौ सुभिषाविद् हेमरामौ
रामाभियंकर इति प्रियदोथिनां यः।
तज्जश्चिकित्सितमहाम्बुधिपारमात :
प्रोमल्लुगिज्जिनपदाम्बुजमत्तमङ्गः ॥ ३ ॥
तजोऽहं नागदेवाच्यः स्तोकशानन संयुतः ।
फन्दोलकारकाम्यानि नाभिधानानि वेदाम्यहम् ।। ४ ।।
नागदेवने 'मदनपराजय'की रचना कब की, इसका निर्देश कहीं नहीं मिलता है । 'मदनपराजय' पर आशाधरका प्रभाव दिखलाई पड़ता है तथा ग्रन्थकाने स्वयं इस बातको स्वीकार किया है कि हरदेवने अपभ्रंशमें 'मदनपराजय' ग्रंथ लिखा है उसी ग्रन्धतो आधारपर संस्कृत-भाषामें 'मदनपराजय' लिखा गया है। अतः हरदेवके पश्चात ही नागदेवका समय होना चाहिए। हरदेवने भी 'मयणपराज'का रचनाकाल अंकित नहीं किया है। इस ग्रन्थको आमेर भंडारको पाण्डुलिपि वि० सं० १५७६ की लिखी हुई है। अतः हरदेवका समय इसके पूर्व सुनिश्चित है। साहित्य, भाषा एवं प्रतिपादन होलोको दृष्टिसे 'मयणपगज'का रचनाकाल १४ वीं शती प्रतीत होता है । अतएव नागदेवका समय १४वीं शतीके लगभग होना चाहिए। यदि आशाधरके प्रभावको नाग देवपर स्वीकार किया जाय, तो इभका गया १४वी मातीमा ए ट होगा है । यत: आशाधरने 'अनगारधर्मामृत'को टोका वि० सं० १३०० में समाप्त की थी। इस दष्टिसे नागदेवका समय वि० की १४ वीं शती माना जा सकता है। नागदेवने अपने अन्धमें अनेक ग्रन्थोंके उद्धरण प्रस्तुत किये हैं। इन उद्धरणों के अध्ययनसे भी नागदेवका समय १४ वीं शती आता है । 'मदनपराजय'की जो पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध हैं उनमें एक प्रति भट्टारक महेन्द्रको त्तिके मास्त्रभण्डार आमेर की है। यह प्रति वि० सं० १५७३ में सूर्यसेन नरेशके राज्यकाल में लिखी मई है । इस ग्रन्थको प्रशस्तिमें बताया है कि मलसंघ कुन्दकुन्दाचार्यके आम्नाय तथा सरस्वतीगच्छमें जिनेन्द्रसूरिके पट्टपर प्रभाचन्द्र भट्टारक हुए, जिनके आम्नायवर्ती नरसिंहके सुपुत्र होलाने यह प्रति लिखकर किसी नती पात्रके लिये समर्पित की। नरसिंह खण्डेलवासके निवासी पाम्पल्य कुलके थे। इनकी पत्नीका नाम मणिका था। दोनोंके होला नामक पुत्र था, जिसकी पत्नीका नाम वाणभू था । होलाके बाला और पर्वत नामक दो भाई थे और इस प्रतिको लिखाने में तथा वतीके लिए समर्पण करने में इन दोनों भाइयों का सहयोग था । इस लेखसे यह भी प्रतीत होता है कि बाला की पत्नीका नाम धान्या था । और इसके कुम्भ और बाहू नामक दो पुत्र भी थे।
इस पाण्डुलिपिके अवलोकनसे इतना स्पष्ट है कि नागदेवका समय वि० सं. १५७३ के पूर्व है। अतएव संक्षेपमें ग्रन्धके अध्ययनसे नागदेवका समय आशाधरके समकालीन या उनसे कुछ ही बाद होना चाहिए। नागदेव बड़े ही प्रतिभाशाली और सफल काव्यलेखक थे।
'मदनपराजय' के पुष्पिका-वाक्योंमें लिखा मिलता है-इति "ठाकुरमाइन्ददेवस्तुतजिन (नाग) देवविरचिते स्मरपराजये संस्कृतबन्धे श्रुतावस्थानाम प्रथमपरिच्छेद:"।
ठाकुर माइन्ददेव और जिनदेवको किस प्रकार इस ग्रन्थका का बसलाया गया है । श्री जैनसिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था कलकत्तासे प्रकाशित और श्री पं० गजाधरलालजी न्यायतीर्थ द्वारा अनूदित 'मकरध्वजपराजय के परिच्छेदके अन्तमें भी मदनपराजयके कर्ताको ठाकुर माइन्ददेवसुत जिनदेव सूचित किया गया है। यों तो मदनपराजयके प्रारम्भमें ही नागदेवने अपने पिताका नाम भल्लुगित बताया है। नागदेवसे पूर्व छठो पीढ़ी में हुए हरदेवने 'मदनपराजय' को अपभ्रंशमें लिखा है | श्री डा. हीरालालजोने अपने एक निबन्धमें लिखा है "इस काव्यका ठाकुर मयन्ददेवके पुत्र जिनदेवने अपने स्मरपराजयमें परिवर्द्धन किया, ऐसा प्रतीत होता है"", पर जबतक ‘मदनपराजय' और 'स्मरपराजय' ये दोनों रचना स्वतन्त्र रूप से उपलब्ध नहीं होती है तब तक यह केवल अनुमानमात्र है। हमारा अनुमान है कि नागदेवने 'मदनपराजय'को ही स्मर पराजय, मारपराजय और जिनस्तोत्रके नामसे अभिहित किया है। अतएव नागदेवका ही अपरनाम जिनदेव होना चाहिए।
नागदेव द्वारा रचित मदनपराजय प्राप्त होता है | सम्यक्त्वकौमुदी और मदनपराजयमें भाषासाम्य, शैलीसाम्य और अन्योधुत पद्यसाम्य होनेसे सम्यक्त्वकौमुदीके रचयिता भी नागदेव अनुमानित किये जा सकते हैं, पर यथार्थतः नागदेवका एक ही ग्रन्थ मदनपराजय उपलब्ध है ।
'मदनपराजय'में रूपयशैली द्वारा मदनके पराजित होनेकी कथा गणित है। यह कथा रूपकशेली में लिखी गई है। बताया है कि भवनामक नगरमें मकरध्वज नामक राजा राज्य करता था। एक दिन उसको सभामें शल्या, गारव, कर्मदण्ड, दोष और आश्रव आदि सभी योबा उपस्थित थे। प्रधान सचिव मोह भी वर्तमान था। मकरध्वजने वार्तालापके प्रसंगमें मोहसे किसी अपूर्व समाचार सुनानेकी बात कही । उत्तरमें उसने मकरध्वजसे कहा--राजन आज एक ही नया समाधार है और वह यह है कि जिनराकका बहुत ही शीघ्र मुक्ति-कन्याके साथ विवाह होने जा रहा है । मकरध्वजने अबतक जिनराजका नाम नहीं सुना था और मुक्तिकन्यासे भी उसका कोई परिचय नहीं था। वह जिनराज और मुक्तिकन्याका परिचय प्राप्तकर पाश्चर्यचकित हुआ।
वह मुक्ति कन्याका वर्णन सुनते हो उसपर मुग्ध हो गया और उसने विचार व्यक्त किया कि संग्रामभूमिमें जिनराजको परास्त कर वह स्वयं ही उसके साथ विवाह करेगा। मोहने नीतिकौशलसे उसे अकेले संग्रामभूमिमें उतरनेसे रोका । मकरध्वजने मोहकी बात मान ली। किन्तु उसने मोहको आज्ञा दी कि बह जिनराजपर चढ़ाई करनेके लिए शीघ्र हो अपनो समस्त सेना तैयार करके ले आये।
मकरध्वजकी रति और प्रीति नामक दो पत्नियां थीं । उसने रतिको मुक्ति कन्याको मकरध्वजके साथ विवाह कराने हेतु समझानेको भेजा। मार्गमें मोहकी रसिसे भेंट हुई। मोहने रतिको लौटा दिया और मकरध्वजको बुरा भला कहा । मोहको सम्मलिके अनुसार मकरध्वजने राग-द्वेष नामके दूतोंको जिनराज के पास भेजा । दूतोंने जिनराजको सभामें जाकर मकरध्वजका संदेश सुनाया | वे कहने लगे कि मकरध्वजका आदेश है कि आप मुक्ति-कन्याके साथ विवाह न करें और आप अपने तीनों रत्न महाराज मकरध्वजको भेट कर दें और उनको अधीनता स्वीकार कर लें। जिनराजने मकरध्वजके प्रस्तावको स्वीकार नहीं किया। जत्र गग-द्वेष बढ़-बढ़कर बातें करने लगे, ता संयमने उन्हें चांटा लगाकर उन्हें सभाम अलग कर दिया । संयनसे अपमानिन होकार भाग-द्वेष मकरध्वजके पास आ गये । मकरध्वज जिनेन्द्रके समाचारको सुन. कर उत्तेजित हुआ। उसने अन्यायको बुलाकर अपनी सेनाको तैयार करनेका आदेश दिया । जिन राजकी सेना संवेगकी अध्यक्षतामें तैयार होने लगी। मकर ध्वजने बहिरात्माको जिनराजके पास भेजा और क्रोध, द्वेष आदिने वीरता पूर्वक संवेग, निदके साथ मुक्त किया। जिनराजने शुक्लध्यानरूपी बीरके द्वारा कर्म धनुषको तोड़कर मुक्ति-कन्याको प्रसन्न किया । मकरध्वजकी समस्त सेना छिन्न-भिन्न हो गई और मुक्तिश्नीने जिनराजका वरण किया।
इस रूपक काव्यमें कवि नागदेवने अपनी कल्पनाका सुक्ष्म प्रयोग किया है। इस संदर्भ में कविने मुक्ति कन्याका जैसा हृदयग्राही चित्रण किया है वैग: अन्यत्र मिलना दुष्कर है।
अलंकार, ग्म और भाव संयोजनकी दृष्टिसे भी यह काव्य कम महन्यप, नहीं है।
Acharyatulya Nagdev 14th Century (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 05 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
#NagdevPrachin
15000
#NagdevPrachin
NagdevPrachin
You cannot copy content of this page