हैशटैग
#NarsenOrNardev
कवि नरसेनका अन्य नाम नरदेव भी मिलता है । कविने अपने ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों में नामके अतिरिक्त किसी प्रकारका परिचय नहीं दिया है । सिद्ध. चक्ककहा' के अन्तमें लिखा हुआ मिलता है
सिद्धचक्कविहि गद्य पद, पटयेण भागट णिय-सनिय ।
भविषण-जण-आणंदयरे, करिबि जिणेसर-मत्तिए ।।२-३६।।
द्वितीय सन्धिके अन्त में निम्नलिखित पुष्पिका-वाक्य प्राप्त होता है
"इय सिद्धचक्ककहाए पडिण-धम्मस्थ-काम-मोक्खाए महाराय-चंपाहिब सिरिपालदेव-मयणासुन्दरिदेवि-चरिए पंडिय-सिरण रसेण-वरइए इहलोय-पर लोय-सुह-फल-कराए रोर-दुह-धोर-कोट्ठ-बाहि-भवणासणाए सिरिपाल-णि ध्वाण-गमणो गाम वीओ संधिपरिच्छेओ समत्तो।"
कवि नरसेन दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायी है। उसने श्रीपालकथा दिगम्बर-सम्प्रदायके अनुसार लिखी है | कविकी गुरुपरम्परा या वंशावला के सम्बन्धमें कुछ भी ज्ञात नहीं होता है |
कविने अपनी रचनाओं में रचनाकालका निर्देश नहीं किया है | "सिद्ध चक्ककहा की सबसे प्राचीन प्रति जयपुरके आमेर-शास्त्र-भण्डारमें वि० सं० १५१२की उपलब्ध होतो है । यदि इस प्रतिलिपिकालसे सौ-सवासौ वर्ष पूर्व भी कविका समय माना जाय, तो वि संध्की १४वीं शती सिद्ध हो जाता है । कवि धनपाल द्वितीयने 'बाहुबली चरिउ'म नरदेवका उल्लेख किया है
गवयारणेह परदेब वुत्तु, कइ असग विहिन करहो चरित्तु ।
'बाहुबलीचरिउ'का रचनाकाल वि० सं० १४५४ है । अतएब नरदेव या भरसेनका समय १४वीं पाती माना जा सकता है। दूसरी बात यह है कि रद्दऔर नरसेनकी श्रीपालकथाके तुलनात्मक अध्ययनसे यह ज्ञात हो जाता है कि नरसेनने अपने इस ग्रन्थको रइधके पहले लिखा है। अतः रइधके पूर्ववर्ती होनेसे भी नरसेनका समय १४वीं शती अनुमानित किया जा सकता है।
नरसेनको 'सिद्धचक्ककहा' और 'बढमाणकहा' अथवा 'जिगात्तिविहाण कहा ये दो रचनाएं प्रान हैं | डॉ देवेन्द्रकुमार शास्त्रीने भ्रमवश 'बढमाण कहा' और 'जिग रत्तिविहाणकहा को पृथक्-पृथक् मान लिया है । वस्तुत: ये दोनों एक ही रचना हैं । आमेर-भण्डारकी प्रतिमें लिखा है
इय जिणविहाणु पयासिज, जइ जिण-सासग गणहर भासिउ ।
पत्ता--सिरिणरसेणहो सामिउ सिरपुर, गामिज चड्ढमाणु-नित्थंकर |
जा मग्गिउ देइ करुण करेइ, रेड सुबोहिज गरु ।।
उपर्युक्त पक्तियोंसे यह स्पष्ट है कि वर्धमानकथा और जिनरात्रिविधानकथा दोनों एक ही अन्ध हैं। जिस रात्रि में भगवान महावीरने अविनाशी पद प्राप्त किया, उसी व्रतको कथा शिवरात्रिक समान लिखी गई है । इसमें तीर्थंकर महावीरका वर्तमान जीवनवृत्त भो अंकित है। कविको दूसरी रचना "सिद्धचवककहा' है। सिद्धचक्यामें उज्जयिनी नगरके प्रजापाल राजाको छोटी कन्या मैनासुन्दरी और चम्पा नगर्गक राजा श्रीपालका कथा अंकित है । इस कथाको पूर्व में भी लिखा जा चुका है। नरसनने दो सन्धियोंमें ही इस कथाको निबद्ध किया है । इस कथाग्रन्थमें पौराणिक तथ्योंकी सम्यक योजना की गई है । घटनाएँ सक्षिप्त हैं; पर उनमें स्वाभाविकता अधिक पाई जाती है। आधिकारिक कथामें पूर्ण प्रबाह और गतिशीलता है। प्रासंगिक कथाओंका प्रायः अभाव है; किन्तु घट नाओं और नुत्तोंकी योजनाने मुख्य कथाको गतिशील बनाया है । वस्तु-विषय और संघटनाको दृष्टिस अल्पकाय होनेपर भी यह सफल कथाकाच्य है ।
वर्णनोंकी मरसताने इस कथाकाव्यको अधिक रोचक बनाया है। विवाह वर्णन (१।१४), यात्राचर्णम (१।२४), समुद्यावावर्णन (१।२५), बुद्धवर्णन (शार६) और युद्धयात्रावर्णन (३२) आदिके द्वारा कविने भावोंको सशक्त बनाया है | संवाद और भावोंकी रमणीयता आद्यन्त व्याप्त है।
माताका उपदेश, महस्रकूट चैत्यालयको बन्दना, सिद्धचक्रवत्तका पालन, वीरदमनका साधु होना, मुनियोंसे पूर्वभवोंका वृत्तान्त सुनना तथा मुनिदीक्षा ग्रहण कर तपस्या करना आदि संदर्भोसे निवेदका संचार होता है।
कविने इस कथाकाव्यमें उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, निदर्शना, अनुमान आदि अलंकारोंकी योजना भी की है । इस प्रकार यह काव्य कवित्वको दृष्टिसे भी सुन्दर है।
कवि नरसेनका अन्य नाम नरदेव भी मिलता है । कविने अपने ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों में नामके अतिरिक्त किसी प्रकारका परिचय नहीं दिया है । सिद्ध. चक्ककहा' के अन्तमें लिखा हुआ मिलता है
सिद्धचक्कविहि गद्य पद, पटयेण भागट णिय-सनिय ।
भविषण-जण-आणंदयरे, करिबि जिणेसर-मत्तिए ।।२-३६।।
द्वितीय सन्धिके अन्त में निम्नलिखित पुष्पिका-वाक्य प्राप्त होता है
"इय सिद्धचक्ककहाए पडिण-धम्मस्थ-काम-मोक्खाए महाराय-चंपाहिब सिरिपालदेव-मयणासुन्दरिदेवि-चरिए पंडिय-सिरण रसेण-वरइए इहलोय-पर लोय-सुह-फल-कराए रोर-दुह-धोर-कोट्ठ-बाहि-भवणासणाए सिरिपाल-णि ध्वाण-गमणो गाम वीओ संधिपरिच्छेओ समत्तो।"
कवि नरसेन दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायी है। उसने श्रीपालकथा दिगम्बर-सम्प्रदायके अनुसार लिखी है | कविकी गुरुपरम्परा या वंशावला के सम्बन्धमें कुछ भी ज्ञात नहीं होता है |
कविने अपनी रचनाओं में रचनाकालका निर्देश नहीं किया है | "सिद्ध चक्ककहा की सबसे प्राचीन प्रति जयपुरके आमेर-शास्त्र-भण्डारमें वि० सं० १५१२की उपलब्ध होतो है । यदि इस प्रतिलिपिकालसे सौ-सवासौ वर्ष पूर्व भी कविका समय माना जाय, तो वि संध्की १४वीं शती सिद्ध हो जाता है । कवि धनपाल द्वितीयने 'बाहुबली चरिउ'म नरदेवका उल्लेख किया है
गवयारणेह परदेब वुत्तु, कइ असग विहिन करहो चरित्तु ।
'बाहुबलीचरिउ'का रचनाकाल वि० सं० १४५४ है । अतएब नरदेव या भरसेनका समय १४वीं पाती माना जा सकता है। दूसरी बात यह है कि रद्दऔर नरसेनकी श्रीपालकथाके तुलनात्मक अध्ययनसे यह ज्ञात हो जाता है कि नरसेनने अपने इस ग्रन्थको रइधके पहले लिखा है। अतः रइधके पूर्ववर्ती होनेसे भी नरसेनका समय १४वीं शती अनुमानित किया जा सकता है।
नरसेनको 'सिद्धचक्ककहा' और 'बढमाणकहा' अथवा 'जिगात्तिविहाण कहा ये दो रचनाएं प्रान हैं | डॉ देवेन्द्रकुमार शास्त्रीने भ्रमवश 'बढमाण कहा' और 'जिग रत्तिविहाणकहा को पृथक्-पृथक् मान लिया है । वस्तुत: ये दोनों एक ही रचना हैं । आमेर-भण्डारकी प्रतिमें लिखा है
इय जिणविहाणु पयासिज, जइ जिण-सासग गणहर भासिउ ।
पत्ता--सिरिणरसेणहो सामिउ सिरपुर, गामिज चड्ढमाणु-नित्थंकर |
जा मग्गिउ देइ करुण करेइ, रेड सुबोहिज गरु ।।
उपर्युक्त पक्तियोंसे यह स्पष्ट है कि वर्धमानकथा और जिनरात्रिविधानकथा दोनों एक ही अन्ध हैं। जिस रात्रि में भगवान महावीरने अविनाशी पद प्राप्त किया, उसी व्रतको कथा शिवरात्रिक समान लिखी गई है । इसमें तीर्थंकर महावीरका वर्तमान जीवनवृत्त भो अंकित है। कविको दूसरी रचना "सिद्धचवककहा' है। सिद्धचक्यामें उज्जयिनी नगरके प्रजापाल राजाको छोटी कन्या मैनासुन्दरी और चम्पा नगर्गक राजा श्रीपालका कथा अंकित है । इस कथाको पूर्व में भी लिखा जा चुका है। नरसनने दो सन्धियोंमें ही इस कथाको निबद्ध किया है । इस कथाग्रन्थमें पौराणिक तथ्योंकी सम्यक योजना की गई है । घटनाएँ सक्षिप्त हैं; पर उनमें स्वाभाविकता अधिक पाई जाती है। आधिकारिक कथामें पूर्ण प्रबाह और गतिशीलता है। प्रासंगिक कथाओंका प्रायः अभाव है; किन्तु घट नाओं और नुत्तोंकी योजनाने मुख्य कथाको गतिशील बनाया है । वस्तु-विषय और संघटनाको दृष्टिस अल्पकाय होनेपर भी यह सफल कथाकाच्य है ।
वर्णनोंकी मरसताने इस कथाकाव्यको अधिक रोचक बनाया है। विवाह वर्णन (१।१४), यात्राचर्णम (१।२४), समुद्यावावर्णन (१।२५), बुद्धवर्णन (शार६) और युद्धयात्रावर्णन (३२) आदिके द्वारा कविने भावोंको सशक्त बनाया है | संवाद और भावोंकी रमणीयता आद्यन्त व्याप्त है।
माताका उपदेश, महस्रकूट चैत्यालयको बन्दना, सिद्धचक्रवत्तका पालन, वीरदमनका साधु होना, मुनियोंसे पूर्वभवोंका वृत्तान्त सुनना तथा मुनिदीक्षा ग्रहण कर तपस्या करना आदि संदर्भोसे निवेदका संचार होता है।
कविने इस कथाकाव्यमें उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, निदर्शना, अनुमान आदि अलंकारोंकी योजना भी की है । इस प्रकार यह काव्य कवित्वको दृष्टिसे भी सुन्दर है।
#NarsenOrNardev
आचार्यतुल्य नरसेन या नरदेव (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 19 मई 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 19 May 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
कवि नरसेनका अन्य नाम नरदेव भी मिलता है । कविने अपने ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों में नामके अतिरिक्त किसी प्रकारका परिचय नहीं दिया है । सिद्ध. चक्ककहा' के अन्तमें लिखा हुआ मिलता है
सिद्धचक्कविहि गद्य पद, पटयेण भागट णिय-सनिय ।
भविषण-जण-आणंदयरे, करिबि जिणेसर-मत्तिए ।।२-३६।।
द्वितीय सन्धिके अन्त में निम्नलिखित पुष्पिका-वाक्य प्राप्त होता है
"इय सिद्धचक्ककहाए पडिण-धम्मस्थ-काम-मोक्खाए महाराय-चंपाहिब सिरिपालदेव-मयणासुन्दरिदेवि-चरिए पंडिय-सिरण रसेण-वरइए इहलोय-पर लोय-सुह-फल-कराए रोर-दुह-धोर-कोट्ठ-बाहि-भवणासणाए सिरिपाल-णि ध्वाण-गमणो गाम वीओ संधिपरिच्छेओ समत्तो।"
कवि नरसेन दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायी है। उसने श्रीपालकथा दिगम्बर-सम्प्रदायके अनुसार लिखी है | कविकी गुरुपरम्परा या वंशावला के सम्बन्धमें कुछ भी ज्ञात नहीं होता है |
कविने अपनी रचनाओं में रचनाकालका निर्देश नहीं किया है | "सिद्ध चक्ककहा की सबसे प्राचीन प्रति जयपुरके आमेर-शास्त्र-भण्डारमें वि० सं० १५१२की उपलब्ध होतो है । यदि इस प्रतिलिपिकालसे सौ-सवासौ वर्ष पूर्व भी कविका समय माना जाय, तो वि संध्की १४वीं शती सिद्ध हो जाता है । कवि धनपाल द्वितीयने 'बाहुबली चरिउ'म नरदेवका उल्लेख किया है
गवयारणेह परदेब वुत्तु, कइ असग विहिन करहो चरित्तु ।
'बाहुबलीचरिउ'का रचनाकाल वि० सं० १४५४ है । अतएब नरदेव या भरसेनका समय १४वीं पाती माना जा सकता है। दूसरी बात यह है कि रद्दऔर नरसेनकी श्रीपालकथाके तुलनात्मक अध्ययनसे यह ज्ञात हो जाता है कि नरसेनने अपने इस ग्रन्थको रइधके पहले लिखा है। अतः रइधके पूर्ववर्ती होनेसे भी नरसेनका समय १४वीं शती अनुमानित किया जा सकता है।
नरसेनको 'सिद्धचक्ककहा' और 'बढमाणकहा' अथवा 'जिगात्तिविहाण कहा ये दो रचनाएं प्रान हैं | डॉ देवेन्द्रकुमार शास्त्रीने भ्रमवश 'बढमाण कहा' और 'जिग रत्तिविहाणकहा को पृथक्-पृथक् मान लिया है । वस्तुत: ये दोनों एक ही रचना हैं । आमेर-भण्डारकी प्रतिमें लिखा है
इय जिणविहाणु पयासिज, जइ जिण-सासग गणहर भासिउ ।
पत्ता--सिरिणरसेणहो सामिउ सिरपुर, गामिज चड्ढमाणु-नित्थंकर |
जा मग्गिउ देइ करुण करेइ, रेड सुबोहिज गरु ।।
उपर्युक्त पक्तियोंसे यह स्पष्ट है कि वर्धमानकथा और जिनरात्रिविधानकथा दोनों एक ही अन्ध हैं। जिस रात्रि में भगवान महावीरने अविनाशी पद प्राप्त किया, उसी व्रतको कथा शिवरात्रिक समान लिखी गई है । इसमें तीर्थंकर महावीरका वर्तमान जीवनवृत्त भो अंकित है। कविको दूसरी रचना "सिद्धचवककहा' है। सिद्धचक्यामें उज्जयिनी नगरके प्रजापाल राजाको छोटी कन्या मैनासुन्दरी और चम्पा नगर्गक राजा श्रीपालका कथा अंकित है । इस कथाको पूर्व में भी लिखा जा चुका है। नरसनने दो सन्धियोंमें ही इस कथाको निबद्ध किया है । इस कथाग्रन्थमें पौराणिक तथ्योंकी सम्यक योजना की गई है । घटनाएँ सक्षिप्त हैं; पर उनमें स्वाभाविकता अधिक पाई जाती है। आधिकारिक कथामें पूर्ण प्रबाह और गतिशीलता है। प्रासंगिक कथाओंका प्रायः अभाव है; किन्तु घट नाओं और नुत्तोंकी योजनाने मुख्य कथाको गतिशील बनाया है । वस्तु-विषय और संघटनाको दृष्टिस अल्पकाय होनेपर भी यह सफल कथाकाच्य है ।
वर्णनोंकी मरसताने इस कथाकाव्यको अधिक रोचक बनाया है। विवाह वर्णन (१।१४), यात्राचर्णम (१।२४), समुद्यावावर्णन (१।२५), बुद्धवर्णन (शार६) और युद्धयात्रावर्णन (३२) आदिके द्वारा कविने भावोंको सशक्त बनाया है | संवाद और भावोंकी रमणीयता आद्यन्त व्याप्त है।
माताका उपदेश, महस्रकूट चैत्यालयको बन्दना, सिद्धचक्रवत्तका पालन, वीरदमनका साधु होना, मुनियोंसे पूर्वभवोंका वृत्तान्त सुनना तथा मुनिदीक्षा ग्रहण कर तपस्या करना आदि संदर्भोसे निवेदका संचार होता है।
कविने इस कथाकाव्यमें उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, निदर्शना, अनुमान आदि अलंकारोंकी योजना भी की है । इस प्रकार यह काव्य कवित्वको दृष्टिसे भी सुन्दर है।
Acharyatulya Narsen Or Nardev (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 19 May 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
#NarsenOrNardev
15000
#NarsenOrNardev
NarsenOrNardev
You cannot copy content of this page