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#PanditBanarsidas
बीहोलिया वंशकी परम्परामें श्रीमाल जातिके अन्तर्गत बनारसीदासका एक धनी-मानी सम्भ्रान्त परिवार में जन्म हुआ। इनके प्रपितामह जिनदासका 'साका' चलता था। पितामह मूलदास हिन्दी और फारसीके पंडित थे । और ये नरवर (मालवा)में वहाँके मुसलमान-नबाबके मोदी होकर गये थे। इनके मातामह मदनसिंह पिनालिया जौनपुरके प्रसिद्ध जोहरी थे। पिता खड्गसेन कुछ दिनों तक बंगालके सुल्तान मोदीखोके पोतदार थे । और कुछ दिनोंके उपरान्त जौनपुरमें जवाहरातका व्यापार करने लगे थे। इस प्रकार कविका वंश सम्पन्न था तथा अन्य सम्बन्धी भी बनी थे।
खड्गसेनको बहुत दिनों तक सन्तानको प्राप्ति नहीं हुई थी और जो सन्तान लाभ हुआ भी, वह असमयमें ही स्वर्गस्थ हो गया। अतएव पुत्र-कामनासे प्रेरित हो खड्गसेनने रोहतकपुरको सतीकी यात्रा को ।
बनारसीदासका जन्म वि० सं० १६४३ माघ, शुक्ला एकादशी रविवारको रोहिणी नक्षत्रमें हुआ और बालकका नाम विक्रमाजीत रखा गया । खड्गसेन बालकके जन्मके छ: सात महीने के पश्चात् पार्श्वनाथकी यात्रा करने काशी गये । बड़े भक्तिभावसे पूजन किया और बालकको भगवत्-चरणोंमें रख दिया तथा उसके दो युष्मकी प्रार्थना की । मन्दिरके पुजारीने मायाचार कर खगसेनसे कहा कि तुम्हारी प्रार्थना पार्श्वनायके वक्षने स्वीकार कर ली है। तुम्हारा पुत्र दीर्घायुष्क होगा। अब तुम उसका नाम बनारसीदास रख दो। उसो दिनसे विक्रमाजीतनाम परिवत्तित हो बनारसीदास हो गया । पाँच वर्षकी अवस्थामें बनारसीदासको संग्रहणी रोग हो गया और यह डेढ़-दो वर्षों तक चलता रहा । बोमारीसे मुक्त होकर बनारसीदासने विद्याध्ययन के लिए गुरु-चरणोंका आश्रय ग्रहण किया।
नव वर्षको अवस्था में इनकी सगाई हो गई और इसके दो वर्ष पश्चात् सं. १६५४ में विवाह हो गया। बनारसीदासका अध्ययनक्रम टूटने लगा। फिर भी उन्होंने विद्याप्राप्तिके योगको विसी तरह बनाये रखनेका प्रयास किया। १४ वर्षको अवस्था में उन्होंने पं. देवीदाससे विद्याध्ययनका संयोग प्राप्त किया। पंडितजीसे अनेकार्थनाममाला, ज्योतिषशास्त्र, अलंकार तथा कोकशास्त्र आदिका अध्ययन किया। आगे चलकर इन्होंने अध्यात्मके प्रखर पडिस मुनि भानुचन्द्रसे भो विविध-शास्त्रों का अध्ययन आरंभ किया । पंचसंधि, कोष, छन्द, स्तवन, सामाणिकपाठ आदिका अच्छा अभ्यास किया। बनारसीदासको उक्त शिक्षासे यह स्पष्ट है कि वे बहुत उच्चकोटिकी शिक्षा नहीं प्राप्त कर सके थे। पर उनकी प्रतिभा इतनो प्रखर थी, जिससे वे संस्कृत के बड़े-बड़े ग्रंथोंको समझ लेते थे।
१४ वर्षको अवस्था में प्रवेश करते हो कविको कामुकता जाग उठी और वह ऐयाशी करने लगा | अपने अर्द्धकथानक में स्वयं कविने लिखा है
तजि कुल-आन लोककी लाज, भयो बनारसि आसिख बाज ||१७०।।
करै आसिस्त्री भरत न घोर, दरदबंद ज्यों सेख फकीर ।
इक-टक देख ध्यान सो धरे, पिता आपनेको धन हरे ॥१७॥
चोर चुनी मानिक मनी, आने पान मिठाई बनी।
भेज पेसकसी हितपास, आप गरीब कहाचे दास ।।१७२।।
माता-पिताको दृष्टि बचाकर मांग, रल तथा रुपये चुराकर स्वयं उड़ाना खाना और अधिकांशप्रेम-पात्रोंमें वितरित करनेका एक लम्बा क्रम बंध गया । मुनि भानुचन्द्रने भी इन्हें समझानेका बहुत प्रयास किया, पर सब व्यर्थ हुआ । कविने इसी अवस्था में एक हजार दोहा-चौपाईप्रमाण नवरसको कविता लिखी थी, जिसे पीछे बोष आनेपर गोमती में प्रवाहित कर दिया । १५ वर्ष १० महोना की अवस्थामें कवि सजधज अपनी ससुराल खैरावातसे पत्नीका द्विरागमग कराने गया । ससुराल में एक माह रहनेके उपरान्त कविको पूर्वोपार्जित अशु भोदयके कारण कुष्ठ रोग हो गया। विवाहिता भार्या और सासुके अतिरिक्त सबने साय छोड दिया । वहाँके एक नाईकी चिकित्सासे कविको कुष्ठ-रोगसे मुक्ति मिली। कविके पिता खड्गसेन सं० १६६१में हीरानन्दजी द्वारा चलाये गये शिखरजी यात्रा-संमें यात्रार्थ चले गये । बनारसीदास बनारस आदि स्थानों में घूमकर अपना समय-यापन करते रहे ।
वि० सं० १६६६में एक दिन पिताने पुत्रसे कहा-"वत्स ! अब तुम सयाने हो गये हो, अतः घरका सब कामकाज संभालो और हमें धर्मध्यान करने दो।" पिताको इच्छानुसार कवि घरका काम-काज करने लगा। कुछ दिन उपरान्त वह दो होरेकी अंगठी, २४ माणिक्य, ३४ मणियाँ, ९ नीलम, २० पत्रा, ४ गाँठ फुटकर चुन्नी इस प्रकार जवाहरात, २० मन घी, २ कुप्पे तेल, २०० रुपयेका कपड़ा और कुछ नगद रुपये लेकर आगराको व्यापार करने चला । प्रतिदिन पाँच कोसके हिसाबसे चलकर गाड़ियां इटावाके निकट आई। वहाँ मंजिल पूरी हो जानेसे एक बीहड़ स्थानपर डेरा डाला। थोड़े समय विश्राम कर पाये थे कि मूसलाधार बारिस होने लगी । तूफान और पानी इतनी तेजीसे बह रहे थे कि खुले मैदानमें रहना अत्यन्त कठिन था। गाड़ियों जहाँ-की-तहाँ छोड़ साथी इधर-उधर भागने लगे। शहर में भी कहीं शरण न मिली । किसी प्रकार चौकी दारोंकी झोपड़ी में शरण मिली और कष्टपूर्वक रात्रि व्यतीत हुई। प्रातःकाल गाड़ियाँ लेकर आगरेको चला और मोतीकट रामें एक मकान लेकर सारा सामान रख दिया। व्यापारसे अनभिज्ञ होनेके कारण कविको घो, तैल और कपड़े में घाटा ही रहा । बिक्रीके रुपयोंको हुण्डी द्वारा जौनपुर भेज दिया । जवाहरात घाटे में चे और दुर्भाग्यसे कुछ जवाहरात उससे कहीं गिर गये। माल बहुत था | इससे अत्यधिक हानि हुई । एक जड़ाऊ मुद्रिका सड़कपर गिर गई और दो जड़ाऊ पहुँची किसी सेठको बेंची थी, जिसका दुसरे दिन दिवाला निकल गया। इस प्रकार धनके नष्ट होनेसे बनारसीदासके हृदयको बहुत बड़ा धक्का लगा। इससे संध्या-समय उन्हें ज्वर चढ़ आया और दस लंधनोंके पश्चात् ठीक हुआ । इसी बीच पिताके कई पत्र आये, पर इन्होंने लज्जावश उत्तर नहीं दिया । सत्य छिपाये नहीं छिपता । अत: इनके बड़े बहनोई उत्तमचन्द जौहरीने समस्त घटनाएं इनके पिसाके पास जोनपुर लिख दी । खड्गसेन पश्चाताप करने लगे।
जब बनारसोदासके पास कुछ न बचा, तब गृहस्थीकी चीजें बेंच-बेंच कर खाने लगे। समय काटनेके लिये मृगावती और मधुमालती नामक पुस्तकोंको बैठे पढ़ा करते थे। दो-चार रसिक श्रोता भी आकर सुनते थे । एक कचौड़ी वाला भी इन श्रोताओंमें था, जिसके यहाँस कई महीनों सक दोनों शाम उधार लेकर कचौड़ियां खाते रहे। फिर एक दिन एकान्तमें
इन्होंने उससे कहा-
तुम उधार कीनो बहुत, अब आगे जनि देव ।
मेरे पास कछू नहीं, वाम कहाँ सौं लेह ।।
कचौड़ी वाला सज्जन था । उसने उत्तर दिया
कई कचौड़ीवाला नर, बीस सवेया खाइ ।
तुमसों कोउ न कछु कहै, जहं भावे सह जाह ।।
कवि निश्चिन्त होकर छ:-सात महीने तक भरपेट कचौड़ियां खाता रहा । और जब परसमें पैसे हए, तो १५ रुपयेका हिसाब साफ कर दिया । कुछ समय पश्चात् कवि अपनी ससुराल खैराबाद पहुंचा । उनकी पत्नीने वास्तविक स्थिति जानकर इनको स्वयंके अजित बीस रुपये तथा अपनी मातासे २०० रुपये व्यापार करने के लिये दिलाए । कवि आगरा पाकर पुनः व्यापार करने लगा, पर यहाँ भी दुर्भाग्यवश घाटा हो रहा । फलत: वह अपने मित्र नरोत्तमदासके यहाँ रहने लगा ! दुर्भाग्य जीवन-पर्यन्त साथमें लगा रहा । अतः आगरा लौटते समय कुरी नामक ग्राममें झूठे सिक्के चलानेका भयंकर अपराध लगाया गया । और इन्हें मृत्यु-दण्ड दिया गया। किसी प्रकार बनारसीदास वहाँस छूटे । इनकी दो पत्नियों और नौ बच्चोंका भी स्वर्गवास हुआ। सं. १६९८में अपनो सीसरी पलीके साथ बैठा हुआ कवि कहता है
नो बालक हुए मुए, रहे नारि-नर दोह।
ज्यों तरुवर पतझारह, रहें दूंठसे होइ ।।
कवि जन्मना श्वेताम्बर-सम्प्रदायका अनुयायी था | उसने खरतरगच्ची श्वेताम्बराचार्य भानुचन्द्रसे शिक्षा प्राप्त की थी। उसके सभी मित्र भी श्वेताम्बर सम्प्रदायके अनुयायी थे। पर सं०१६८०के पश्चात् कविका झुकाव दिगम्बर सम्प्रदायकी मान्यताओंकी ओर हुआ। इन्हें खैराबाद निवासी अर्थमलजीने समयसारको हिन्दी अर्थ सहित राजमलको टीका सौंप दी । इस अयका अध्ययन करनेसे उन्हें दिगम्बर सम्प्रदायकी श्रद्धा हो गयो । सं० १६५२में अध्यात्म के प्रकाण्ड पंडित रूपचन्द्र पाण्डेय आगरा आये । रूपचन्दने गोम्मटसार प्रन्यका प्रवचन आरंभ किया, जिसे सुनकर बनारसीदास दिगम्बर सम्प्रदायके अनुयायी बन गये। यही कारण है कि उनकी सभी रचनाओंमें दिगम्बरत्वकी मलक मिलती है।
बनारसीदासका समय वि० की १७वीं शती निश्चित है, क्योंकि उन्होंने स्वयं ही अपने अर्द्धकथानकमें अपनी जीवन-तिथियोंके सम्बन्ध में प्रकाश डाला है।
बनारसीदासके नामसे निम्न लिखित रचनाएं प्रचलित हैं-१. नाममाला, २. समयसारनाटक, ३. बनारसीविलास, ४. अद्धकथानक, ५. मोहविवेकयुन एवं ६. नवरसपद्यावली।
प्रा रचनाओं में नाममाला सबसे पूर्व की है। इसका समाप्ति काल वि० सं० १६७० आश्विन शुक्ला दशमी है। परममिन नरोत्तमदास सोबरा और थानमल सोवराकी प्रेरणासे कविने यह रचना लिखी है। यह पञ्च बद्ध शब्दकोष १७५ दोहोंमें लिखा गया है। प्रसिद्ध कवि धनञ्जयको सस्कृत नाममाला और अनेकार्थकोशके आधारपर इस ग्रंथको रचना हुई है । कविको इसकी साज-सज्जा, व्यवस्था, शब्द-योजना और लोकप्रचलित शब्दोंकी योजनाके कारण इसे मौलिक माना जा सकता है।
अध्यात्म-संत कविवर बनारसीदासकी समस्त कृतियों में नाटक-समयसार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। आचार्य कुन्दकुन्दके समय पाहुडपर आचार्य अमृतचन्द्रको आत्मख्याति नामक विशद टीका है। ग्रंथके मूल भावोंको विस्तृत करने के लिए कुछ संस्कृत-पद्य भी लिखे गये हैं, जो कलश नामसे प्रसिद्ध हैं। इसमें २७७ पद्य हैं। इन कलशोंपर भट्टारक शुभचन्द्रकी परमाध्यात्मतरंगिणीनामक संस्कृत-टीका भी है। पाण्डेय राजमलने कलशों पर बाल-बोधिनी नामक हिन्दी-टीका भी लिखी है। इसी टीकाको प्राप्त कर बनारसीदासने कवित्तबद्ध नाटक-समयसारकी रचना की है। इस ग्रंधमें ३१० दोहा-सोरठा, २४५ इकत्तीसा कवित,८६ चौपाई,७ तेइसा सवैया, २० छप्पय, १८ घनाक्षरी, ७ अडिल्ल ओर ४ कुंडलियां इस प्रकार सब मिलाकर ७२७ पध है। बनारसीदासने इस रचनाको वि० सं० १६९३ आश्विन शुक्ला, अयो दशी रविवारको समाप्त किया है।
नाटक-समयसारमें जीवद्वार अजीवहार, कर्ता-कर्म-क्रियाद्वार, पुण्यपाप एकत्व-द्वार, आसव-द्वार, संवरद्वार, निर्जराद्वार, बन्धवार, मोक्षद्वार सर्व विशुद्धि द्वार, स्थावावद्वार, साध्यसाधकद्वार और चतुर्दश गुणस्थानाधिकार प्रकरण हैं। नामानुसार इन प्रकरमोंमें विषयोंका निरूपण किया गया है। कविने इस नाटकको यथार्थताका विश्लेषण करते हुए लिखा है
काया चित्रसारीमै करम-परजंक भारी,
मायाकी संबारी सेज चादर कलपना ।
शैन करे चेतन अचेतनता नींद लिए,
मोहकी मरोर यहै लोचनको हफ्ना ।।
उदै बल जोर यहै श्वासको सबद घोर,
विर्ष सुखकारी जाकी दौर यहै सपना |
ऐसी मूल-दशामें मगन रहे तिहुँकाल,
धावे भ्रम-जालमें न पावे रूप अपना ।
अज्ञानी व्यक्ति चमके कारण अपने स्वरूपको विस्मत कर संसार में जन्म मरणके कष्ट उठा रहा है। कवि कहता है कि कायाकी चित्रशालामें कर्मका पलग बिछाया गया है । उसपर मायाकी सेज सजाकर मिथ्या कल्पनाको चादर डाल रखी है। इस शय्यापर अचेतनकी नींद में चेतन सोता है । मोहकी मरोड़ नेत्रोंका बन्द करना-झपकी लेना है। कर्मके उदयका बल ही स्वासका घोर शब्द है | विषय-सुखको दौर ही स्वप्न है । इस प्रकार तीनों कालोंमें अज्ञानकी निद्रामें मग्न यह आत्मा भ्रमजाल में दौड़ती है। अपने स्वरूपको कभी नहीं पाती । अज्ञानी जीवको बह निद्रा ही संसार-परिभ्रमणका कारण है । मिथ्या तत्त्वोंकी श्रद्धा होनेसे ही इस जीव को इस प्रकारकी निद्रा अभिभूत करती है। आत्मा अपने शुद्ध निर्मल और शक्तिशाली स्वरूपको विस्मृत कर ही इस ध्यापक असत्यको सत्य-रूपमें समझती है।
इस प्रकार कविने रूपक द्वारा अज्ञानी-जीवको स्थितिका मार्मिक चित्र उप स्थित किया है । आत्मा सुख-शान्तिका अक्षय भण्डार है। इसमें ज्ञान, सुख, वीर्य आदि गण पूर्णरूपेण विद्यमान हैं। अतएव प्रत्येक व्यक्तिको इसी शुद्धात्मा की उपलब्धि करने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। कविने बताया है कि शानी व्यक्ति संसारको समस्त-क्रियाओंका करते हुए भी अपनेको भिन्न एवं निमल समझता है।
जैसे निशि-बासर कमल रहें पक ही में,
पंकज कहावे पै न बाके बिग पंक है।
जैसे मन्त्रवादी विषधरसों गहा गास,
मन्त्रकी शकति बाके बिना विष डंक है ।।
जैसे जीभ गहे चिकनाई रहे रूम्बे अग,
पानी में कनक जसे काईसे अटंक है ।
तैसे ज्ञानवान नाना भौति करतुत अने,
किरियाते भिन्न माने मोते निष्कलंक है ।।
आत्मामें अशुद्धि पर-द्रव्यके संयोगसे आई है । यद्यपि मूलद्रव्य अन्य प्रकार रूप परिणमन नहीं करता, तो भी परद्रव्यके निमित्तसे अवस्था मलिन हो जाती है। जब सम्यक्त्वके साथ ज्ञानमें भी सच्चाई उत्पन्न होती है तो शान-रूप आत्मा परदन्योंसे अपनेको भिन्न सभाकर शुद्धात्म अवस्थाको प्राप्त होती है। कवि कहता है कि कमल रात-दिन कमें रहता है तथा पंकज कहा जाता है फिर भी कीचड़से ना महा अलग रहना है। मन्त्रवादी सर्पको अपना गात्र पकड़ाता है। परन्तु मन्त्र-शक्किसे विषके रहते हुए भी सर्पका दंश निविष रहता है। पानीमें पड़ा रहनेपर भी जैसे स्वर्ण में काई नहीं लगसी उसी प्रकार ज्ञानो व्यक्ति संसारको समस्त क्रियाओंको करते हुए भी अपनेको भिन्न एवं निर्मल समझता है।
इस नाटक-समयसारमें अज्ञानीकी विभिन्न अवस्थाएँ, ज्ञानीकी अवस्थाए', ज्ञानीका हृदय, संसार और शरीरका स्वरूप-दर्शन, आत्म-जागति, यात्माकी अनेकता, मनको विचित्र दोड़ एवं सप्तव्यसनोंका सच्चा स्वरूप प्रतिपादित करनेके साथ जीव, अजीव, बास्रब, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्वोंका काव्य-रूपमें चित्रण किया है।
इस ग्रन्थमें महाकवि बनारसीदासको ४८ रचनाओंका संकलन है। यह संग्रह आगरानिवासी दीवान जगजीवनजीने बनारसीदासके स्वर्गवासके कुछ समयके पश्चात् वि० सं० १७०१ चैत्र शुक्ला द्वितीयाको किया है। बनारसीदासने वि० सं० १७०७ फाल्गुन शुक्ला सप्तमोको कम-प्रकृति विषानकी रचना की थी। यह रचना भी इस संग्रहमें समाविष्ट है। संगृहीत रचनाओंके नाम निम्न प्रकार हैं
१. जिनसहस्रनाम, २. सूक्तिमुक्तावलो, ३. शानबावनी, ४. वेदनिर्णय पंचाशिका, ५. शलाकापुरुषोंकी नामावली, ६. मार्गणाविधार, ७. कर्मप्रकृति विधान, ८. कल्याणमन्दिरस्तोत्र, ५. साधुबन्दना, १०, मोमपैडो, ११. करम छत्तीसी, १२. ध्यानबत्तीसी, १३. अध्यात्मबत्तीसी, १४. सानपच्चीसी, १५. शिव पच्चोसी १६. भवसिन्धुचतुर्दशी १७. अध्यात्मफाग १८. सोलतिषि १९. तेरह काठिया, २७. अध्यात्मगीत, २१. पंचपविधान, २२. सुमतिदेवीके अष्टोत्तर शत नाम, २३. शारदाष्टक, २४. नवदुर्गाविधान, २५. नामनिर्णयविधान, २६. नवरत्मकवित्त, २७. अष्टप्रकारी जिनपूजा, २८. दशदानविधान, २६. दश बोल, ३०. पहेली, ३१, प्रश्नोत्तरदोहा, ३२. प्रश्नोत्तरमाला, ३३. अवस्थाष्टक, ३४. षटदर्शनाष्टक, ३५. चातुर्वर्ण, ३६. अजितनाथके छन्द, ३७: शान्तिनाथ स्तुति ३८. नवसेनाविधान, ३९. नाटकसमयसारके कवित्त, ४०. फुटकर कविता, ४१. गोरखनाथके वचन,४२. वैद्य आदिके भेद, ४३, परमार्थवनिका, ४४. उपा. दान-निमित्तकी चिट्ठी, ४५. सदान-निमित दो, शान्मपद, ४५१ पर मार्थ हिंडोलना, ४८. अष्टपदी मल्हार |
इन समस्त रचनाओं में हमें महाकविको बहमखी प्रतिभा, काव्य-कुशलता एवं अगाध विद्वत्ताके दर्शन होते हैं। धार्मिक मुक्तकोंमें कविने उपमा, रूपक, दुष्टान्त, अनुप्रास आदि अलंकारोंकी योजना की है। सैज्ञान्तिक-रचनाओंमें विषय-प्रधान वर्णन-शैली है। इन रचनाओंमें कवि, कवि न रहकर, ताकिक हो गया है। अतः कविता सको, गणनाओं, उक्तियों और दृष्टान्तोंसे बहुधा बोझिल हो गई हैं । कविने सभी सिद्धान्तोंका समावेश सरल शैली में किया है ।
-इस रचनाको कुछ लोग बनारसीदासकृत मानते हैं और कुछ लोग उसके विरोधी भो हैं । कृत्तिके आरंभमें कहा है कि मेरे पूर्ववर्ती कविमल्ल, लालदास और गोपाल द्वारा पृथक-पृथक रवे गये मोहविवेकयुद्ध के आधारपर उनका सार लेकर इस ग्रंथको संक्षेपमें रचना की जा रही है । इससे स्पष्ट है कि कविने उक्त तीनों कवियोंके ग्रंथोंका सार ग्रहणकर ही अपने इस ग्रन्थको रचना की है।
इसमें ११० दोहा-चौपाई है। यह लघु वपद्ध-काव्य है । इसका नायक मोह है और प्रतिनायक विवेक । दोनोंमें विवाद होता है और दामों ओरको सेनाएँ संजकर युद्ध करती हैं। महाकवि बनारसीदासको शैलो प्रसन्न और गम्भीर है। उन्होंने अध्यात्मकी बड़ी-से-बड़ी बातोंको संक्षेपमें सरलता पूर्वक गुम्फित कर दिया है।
बद्धकथानकमें कविने अपनी आत्मकथा लिखी है । इसमें सं० १६९८ तक की सभी घटनाएं आ गई हैं। कविने ५५वर्षोंका यथार्थ जोवनवृत्त अंकित किया है।
बीहोलिया वंशकी परम्परामें श्रीमाल जातिके अन्तर्गत बनारसीदासका एक धनी-मानी सम्भ्रान्त परिवार में जन्म हुआ। इनके प्रपितामह जिनदासका 'साका' चलता था। पितामह मूलदास हिन्दी और फारसीके पंडित थे । और ये नरवर (मालवा)में वहाँके मुसलमान-नबाबके मोदी होकर गये थे। इनके मातामह मदनसिंह पिनालिया जौनपुरके प्रसिद्ध जोहरी थे। पिता खड्गसेन कुछ दिनों तक बंगालके सुल्तान मोदीखोके पोतदार थे । और कुछ दिनोंके उपरान्त जौनपुरमें जवाहरातका व्यापार करने लगे थे। इस प्रकार कविका वंश सम्पन्न था तथा अन्य सम्बन्धी भी बनी थे।
खड्गसेनको बहुत दिनों तक सन्तानको प्राप्ति नहीं हुई थी और जो सन्तान लाभ हुआ भी, वह असमयमें ही स्वर्गस्थ हो गया। अतएव पुत्र-कामनासे प्रेरित हो खड्गसेनने रोहतकपुरको सतीकी यात्रा को ।
बनारसीदासका जन्म वि० सं० १६४३ माघ, शुक्ला एकादशी रविवारको रोहिणी नक्षत्रमें हुआ और बालकका नाम विक्रमाजीत रखा गया । खड्गसेन बालकके जन्मके छ: सात महीने के पश्चात् पार्श्वनाथकी यात्रा करने काशी गये । बड़े भक्तिभावसे पूजन किया और बालकको भगवत्-चरणोंमें रख दिया तथा उसके दो युष्मकी प्रार्थना की । मन्दिरके पुजारीने मायाचार कर खगसेनसे कहा कि तुम्हारी प्रार्थना पार्श्वनायके वक्षने स्वीकार कर ली है। तुम्हारा पुत्र दीर्घायुष्क होगा। अब तुम उसका नाम बनारसीदास रख दो। उसो दिनसे विक्रमाजीतनाम परिवत्तित हो बनारसीदास हो गया । पाँच वर्षकी अवस्थामें बनारसीदासको संग्रहणी रोग हो गया और यह डेढ़-दो वर्षों तक चलता रहा । बोमारीसे मुक्त होकर बनारसीदासने विद्याध्ययन के लिए गुरु-चरणोंका आश्रय ग्रहण किया।
नव वर्षको अवस्था में इनकी सगाई हो गई और इसके दो वर्ष पश्चात् सं. १६५४ में विवाह हो गया। बनारसीदासका अध्ययनक्रम टूटने लगा। फिर भी उन्होंने विद्याप्राप्तिके योगको विसी तरह बनाये रखनेका प्रयास किया। १४ वर्षको अवस्था में उन्होंने पं. देवीदाससे विद्याध्ययनका संयोग प्राप्त किया। पंडितजीसे अनेकार्थनाममाला, ज्योतिषशास्त्र, अलंकार तथा कोकशास्त्र आदिका अध्ययन किया। आगे चलकर इन्होंने अध्यात्मके प्रखर पडिस मुनि भानुचन्द्रसे भो विविध-शास्त्रों का अध्ययन आरंभ किया । पंचसंधि, कोष, छन्द, स्तवन, सामाणिकपाठ आदिका अच्छा अभ्यास किया। बनारसीदासको उक्त शिक्षासे यह स्पष्ट है कि वे बहुत उच्चकोटिकी शिक्षा नहीं प्राप्त कर सके थे। पर उनकी प्रतिभा इतनो प्रखर थी, जिससे वे संस्कृत के बड़े-बड़े ग्रंथोंको समझ लेते थे।
१४ वर्षको अवस्था में प्रवेश करते हो कविको कामुकता जाग उठी और वह ऐयाशी करने लगा | अपने अर्द्धकथानक में स्वयं कविने लिखा है
तजि कुल-आन लोककी लाज, भयो बनारसि आसिख बाज ||१७०।।
करै आसिस्त्री भरत न घोर, दरदबंद ज्यों सेख फकीर ।
इक-टक देख ध्यान सो धरे, पिता आपनेको धन हरे ॥१७॥
चोर चुनी मानिक मनी, आने पान मिठाई बनी।
भेज पेसकसी हितपास, आप गरीब कहाचे दास ।।१७२।।
माता-पिताको दृष्टि बचाकर मांग, रल तथा रुपये चुराकर स्वयं उड़ाना खाना और अधिकांशप्रेम-पात्रोंमें वितरित करनेका एक लम्बा क्रम बंध गया । मुनि भानुचन्द्रने भी इन्हें समझानेका बहुत प्रयास किया, पर सब व्यर्थ हुआ । कविने इसी अवस्था में एक हजार दोहा-चौपाईप्रमाण नवरसको कविता लिखी थी, जिसे पीछे बोष आनेपर गोमती में प्रवाहित कर दिया । १५ वर्ष १० महोना की अवस्थामें कवि सजधज अपनी ससुराल खैरावातसे पत्नीका द्विरागमग कराने गया । ससुराल में एक माह रहनेके उपरान्त कविको पूर्वोपार्जित अशु भोदयके कारण कुष्ठ रोग हो गया। विवाहिता भार्या और सासुके अतिरिक्त सबने साय छोड दिया । वहाँके एक नाईकी चिकित्सासे कविको कुष्ठ-रोगसे मुक्ति मिली। कविके पिता खड्गसेन सं० १६६१में हीरानन्दजी द्वारा चलाये गये शिखरजी यात्रा-संमें यात्रार्थ चले गये । बनारसीदास बनारस आदि स्थानों में घूमकर अपना समय-यापन करते रहे ।
वि० सं० १६६६में एक दिन पिताने पुत्रसे कहा-"वत्स ! अब तुम सयाने हो गये हो, अतः घरका सब कामकाज संभालो और हमें धर्मध्यान करने दो।" पिताको इच्छानुसार कवि घरका काम-काज करने लगा। कुछ दिन उपरान्त वह दो होरेकी अंगठी, २४ माणिक्य, ३४ मणियाँ, ९ नीलम, २० पत्रा, ४ गाँठ फुटकर चुन्नी इस प्रकार जवाहरात, २० मन घी, २ कुप्पे तेल, २०० रुपयेका कपड़ा और कुछ नगद रुपये लेकर आगराको व्यापार करने चला । प्रतिदिन पाँच कोसके हिसाबसे चलकर गाड़ियां इटावाके निकट आई। वहाँ मंजिल पूरी हो जानेसे एक बीहड़ स्थानपर डेरा डाला। थोड़े समय विश्राम कर पाये थे कि मूसलाधार बारिस होने लगी । तूफान और पानी इतनी तेजीसे बह रहे थे कि खुले मैदानमें रहना अत्यन्त कठिन था। गाड़ियों जहाँ-की-तहाँ छोड़ साथी इधर-उधर भागने लगे। शहर में भी कहीं शरण न मिली । किसी प्रकार चौकी दारोंकी झोपड़ी में शरण मिली और कष्टपूर्वक रात्रि व्यतीत हुई। प्रातःकाल गाड़ियाँ लेकर आगरेको चला और मोतीकट रामें एक मकान लेकर सारा सामान रख दिया। व्यापारसे अनभिज्ञ होनेके कारण कविको घो, तैल और कपड़े में घाटा ही रहा । बिक्रीके रुपयोंको हुण्डी द्वारा जौनपुर भेज दिया । जवाहरात घाटे में चे और दुर्भाग्यसे कुछ जवाहरात उससे कहीं गिर गये। माल बहुत था | इससे अत्यधिक हानि हुई । एक जड़ाऊ मुद्रिका सड़कपर गिर गई और दो जड़ाऊ पहुँची किसी सेठको बेंची थी, जिसका दुसरे दिन दिवाला निकल गया। इस प्रकार धनके नष्ट होनेसे बनारसीदासके हृदयको बहुत बड़ा धक्का लगा। इससे संध्या-समय उन्हें ज्वर चढ़ आया और दस लंधनोंके पश्चात् ठीक हुआ । इसी बीच पिताके कई पत्र आये, पर इन्होंने लज्जावश उत्तर नहीं दिया । सत्य छिपाये नहीं छिपता । अत: इनके बड़े बहनोई उत्तमचन्द जौहरीने समस्त घटनाएं इनके पिसाके पास जोनपुर लिख दी । खड्गसेन पश्चाताप करने लगे।
जब बनारसोदासके पास कुछ न बचा, तब गृहस्थीकी चीजें बेंच-बेंच कर खाने लगे। समय काटनेके लिये मृगावती और मधुमालती नामक पुस्तकोंको बैठे पढ़ा करते थे। दो-चार रसिक श्रोता भी आकर सुनते थे । एक कचौड़ी वाला भी इन श्रोताओंमें था, जिसके यहाँस कई महीनों सक दोनों शाम उधार लेकर कचौड़ियां खाते रहे। फिर एक दिन एकान्तमें
इन्होंने उससे कहा-
तुम उधार कीनो बहुत, अब आगे जनि देव ।
मेरे पास कछू नहीं, वाम कहाँ सौं लेह ।।
कचौड़ी वाला सज्जन था । उसने उत्तर दिया
कई कचौड़ीवाला नर, बीस सवेया खाइ ।
तुमसों कोउ न कछु कहै, जहं भावे सह जाह ।।
कवि निश्चिन्त होकर छ:-सात महीने तक भरपेट कचौड़ियां खाता रहा । और जब परसमें पैसे हए, तो १५ रुपयेका हिसाब साफ कर दिया । कुछ समय पश्चात् कवि अपनी ससुराल खैराबाद पहुंचा । उनकी पत्नीने वास्तविक स्थिति जानकर इनको स्वयंके अजित बीस रुपये तथा अपनी मातासे २०० रुपये व्यापार करने के लिये दिलाए । कवि आगरा पाकर पुनः व्यापार करने लगा, पर यहाँ भी दुर्भाग्यवश घाटा हो रहा । फलत: वह अपने मित्र नरोत्तमदासके यहाँ रहने लगा ! दुर्भाग्य जीवन-पर्यन्त साथमें लगा रहा । अतः आगरा लौटते समय कुरी नामक ग्राममें झूठे सिक्के चलानेका भयंकर अपराध लगाया गया । और इन्हें मृत्यु-दण्ड दिया गया। किसी प्रकार बनारसीदास वहाँस छूटे । इनकी दो पत्नियों और नौ बच्चोंका भी स्वर्गवास हुआ। सं. १६९८में अपनो सीसरी पलीके साथ बैठा हुआ कवि कहता है
नो बालक हुए मुए, रहे नारि-नर दोह।
ज्यों तरुवर पतझारह, रहें दूंठसे होइ ।।
कवि जन्मना श्वेताम्बर-सम्प्रदायका अनुयायी था | उसने खरतरगच्ची श्वेताम्बराचार्य भानुचन्द्रसे शिक्षा प्राप्त की थी। उसके सभी मित्र भी श्वेताम्बर सम्प्रदायके अनुयायी थे। पर सं०१६८०के पश्चात् कविका झुकाव दिगम्बर सम्प्रदायकी मान्यताओंकी ओर हुआ। इन्हें खैराबाद निवासी अर्थमलजीने समयसारको हिन्दी अर्थ सहित राजमलको टीका सौंप दी । इस अयका अध्ययन करनेसे उन्हें दिगम्बर सम्प्रदायकी श्रद्धा हो गयो । सं० १६५२में अध्यात्म के प्रकाण्ड पंडित रूपचन्द्र पाण्डेय आगरा आये । रूपचन्दने गोम्मटसार प्रन्यका प्रवचन आरंभ किया, जिसे सुनकर बनारसीदास दिगम्बर सम्प्रदायके अनुयायी बन गये। यही कारण है कि उनकी सभी रचनाओंमें दिगम्बरत्वकी मलक मिलती है।
बनारसीदासका समय वि० की १७वीं शती निश्चित है, क्योंकि उन्होंने स्वयं ही अपने अर्द्धकथानकमें अपनी जीवन-तिथियोंके सम्बन्ध में प्रकाश डाला है।
बनारसीदासके नामसे निम्न लिखित रचनाएं प्रचलित हैं-१. नाममाला, २. समयसारनाटक, ३. बनारसीविलास, ४. अद्धकथानक, ५. मोहविवेकयुन एवं ६. नवरसपद्यावली।
प्रा रचनाओं में नाममाला सबसे पूर्व की है। इसका समाप्ति काल वि० सं० १६७० आश्विन शुक्ला दशमी है। परममिन नरोत्तमदास सोबरा और थानमल सोवराकी प्रेरणासे कविने यह रचना लिखी है। यह पञ्च बद्ध शब्दकोष १७५ दोहोंमें लिखा गया है। प्रसिद्ध कवि धनञ्जयको सस्कृत नाममाला और अनेकार्थकोशके आधारपर इस ग्रंथको रचना हुई है । कविको इसकी साज-सज्जा, व्यवस्था, शब्द-योजना और लोकप्रचलित शब्दोंकी योजनाके कारण इसे मौलिक माना जा सकता है।
अध्यात्म-संत कविवर बनारसीदासकी समस्त कृतियों में नाटक-समयसार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। आचार्य कुन्दकुन्दके समय पाहुडपर आचार्य अमृतचन्द्रको आत्मख्याति नामक विशद टीका है। ग्रंथके मूल भावोंको विस्तृत करने के लिए कुछ संस्कृत-पद्य भी लिखे गये हैं, जो कलश नामसे प्रसिद्ध हैं। इसमें २७७ पद्य हैं। इन कलशोंपर भट्टारक शुभचन्द्रकी परमाध्यात्मतरंगिणीनामक संस्कृत-टीका भी है। पाण्डेय राजमलने कलशों पर बाल-बोधिनी नामक हिन्दी-टीका भी लिखी है। इसी टीकाको प्राप्त कर बनारसीदासने कवित्तबद्ध नाटक-समयसारकी रचना की है। इस ग्रंधमें ३१० दोहा-सोरठा, २४५ इकत्तीसा कवित,८६ चौपाई,७ तेइसा सवैया, २० छप्पय, १८ घनाक्षरी, ७ अडिल्ल ओर ४ कुंडलियां इस प्रकार सब मिलाकर ७२७ पध है। बनारसीदासने इस रचनाको वि० सं० १६९३ आश्विन शुक्ला, अयो दशी रविवारको समाप्त किया है।
नाटक-समयसारमें जीवद्वार अजीवहार, कर्ता-कर्म-क्रियाद्वार, पुण्यपाप एकत्व-द्वार, आसव-द्वार, संवरद्वार, निर्जराद्वार, बन्धवार, मोक्षद्वार सर्व विशुद्धि द्वार, स्थावावद्वार, साध्यसाधकद्वार और चतुर्दश गुणस्थानाधिकार प्रकरण हैं। नामानुसार इन प्रकरमोंमें विषयोंका निरूपण किया गया है। कविने इस नाटकको यथार्थताका विश्लेषण करते हुए लिखा है
काया चित्रसारीमै करम-परजंक भारी,
मायाकी संबारी सेज चादर कलपना ।
शैन करे चेतन अचेतनता नींद लिए,
मोहकी मरोर यहै लोचनको हफ्ना ।।
उदै बल जोर यहै श्वासको सबद घोर,
विर्ष सुखकारी जाकी दौर यहै सपना |
ऐसी मूल-दशामें मगन रहे तिहुँकाल,
धावे भ्रम-जालमें न पावे रूप अपना ।
अज्ञानी व्यक्ति चमके कारण अपने स्वरूपको विस्मत कर संसार में जन्म मरणके कष्ट उठा रहा है। कवि कहता है कि कायाकी चित्रशालामें कर्मका पलग बिछाया गया है । उसपर मायाकी सेज सजाकर मिथ्या कल्पनाको चादर डाल रखी है। इस शय्यापर अचेतनकी नींद में चेतन सोता है । मोहकी मरोड़ नेत्रोंका बन्द करना-झपकी लेना है। कर्मके उदयका बल ही स्वासका घोर शब्द है | विषय-सुखको दौर ही स्वप्न है । इस प्रकार तीनों कालोंमें अज्ञानकी निद्रामें मग्न यह आत्मा भ्रमजाल में दौड़ती है। अपने स्वरूपको कभी नहीं पाती । अज्ञानी जीवको बह निद्रा ही संसार-परिभ्रमणका कारण है । मिथ्या तत्त्वोंकी श्रद्धा होनेसे ही इस जीव को इस प्रकारकी निद्रा अभिभूत करती है। आत्मा अपने शुद्ध निर्मल और शक्तिशाली स्वरूपको विस्मृत कर ही इस ध्यापक असत्यको सत्य-रूपमें समझती है।
इस प्रकार कविने रूपक द्वारा अज्ञानी-जीवको स्थितिका मार्मिक चित्र उप स्थित किया है । आत्मा सुख-शान्तिका अक्षय भण्डार है। इसमें ज्ञान, सुख, वीर्य आदि गण पूर्णरूपेण विद्यमान हैं। अतएव प्रत्येक व्यक्तिको इसी शुद्धात्मा की उपलब्धि करने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। कविने बताया है कि शानी व्यक्ति संसारको समस्त-क्रियाओंका करते हुए भी अपनेको भिन्न एवं निमल समझता है।
जैसे निशि-बासर कमल रहें पक ही में,
पंकज कहावे पै न बाके बिग पंक है।
जैसे मन्त्रवादी विषधरसों गहा गास,
मन्त्रकी शकति बाके बिना विष डंक है ।।
जैसे जीभ गहे चिकनाई रहे रूम्बे अग,
पानी में कनक जसे काईसे अटंक है ।
तैसे ज्ञानवान नाना भौति करतुत अने,
किरियाते भिन्न माने मोते निष्कलंक है ।।
आत्मामें अशुद्धि पर-द्रव्यके संयोगसे आई है । यद्यपि मूलद्रव्य अन्य प्रकार रूप परिणमन नहीं करता, तो भी परद्रव्यके निमित्तसे अवस्था मलिन हो जाती है। जब सम्यक्त्वके साथ ज्ञानमें भी सच्चाई उत्पन्न होती है तो शान-रूप आत्मा परदन्योंसे अपनेको भिन्न सभाकर शुद्धात्म अवस्थाको प्राप्त होती है। कवि कहता है कि कमल रात-दिन कमें रहता है तथा पंकज कहा जाता है फिर भी कीचड़से ना महा अलग रहना है। मन्त्रवादी सर्पको अपना गात्र पकड़ाता है। परन्तु मन्त्र-शक्किसे विषके रहते हुए भी सर्पका दंश निविष रहता है। पानीमें पड़ा रहनेपर भी जैसे स्वर्ण में काई नहीं लगसी उसी प्रकार ज्ञानो व्यक्ति संसारको समस्त क्रियाओंको करते हुए भी अपनेको भिन्न एवं निर्मल समझता है।
इस नाटक-समयसारमें अज्ञानीकी विभिन्न अवस्थाएँ, ज्ञानीकी अवस्थाए', ज्ञानीका हृदय, संसार और शरीरका स्वरूप-दर्शन, आत्म-जागति, यात्माकी अनेकता, मनको विचित्र दोड़ एवं सप्तव्यसनोंका सच्चा स्वरूप प्रतिपादित करनेके साथ जीव, अजीव, बास्रब, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्वोंका काव्य-रूपमें चित्रण किया है।
इस ग्रन्थमें महाकवि बनारसीदासको ४८ रचनाओंका संकलन है। यह संग्रह आगरानिवासी दीवान जगजीवनजीने बनारसीदासके स्वर्गवासके कुछ समयके पश्चात् वि० सं० १७०१ चैत्र शुक्ला द्वितीयाको किया है। बनारसीदासने वि० सं० १७०७ फाल्गुन शुक्ला सप्तमोको कम-प्रकृति विषानकी रचना की थी। यह रचना भी इस संग्रहमें समाविष्ट है। संगृहीत रचनाओंके नाम निम्न प्रकार हैं
१. जिनसहस्रनाम, २. सूक्तिमुक्तावलो, ३. शानबावनी, ४. वेदनिर्णय पंचाशिका, ५. शलाकापुरुषोंकी नामावली, ६. मार्गणाविधार, ७. कर्मप्रकृति विधान, ८. कल्याणमन्दिरस्तोत्र, ५. साधुबन्दना, १०, मोमपैडो, ११. करम छत्तीसी, १२. ध्यानबत्तीसी, १३. अध्यात्मबत्तीसी, १४. सानपच्चीसी, १५. शिव पच्चोसी १६. भवसिन्धुचतुर्दशी १७. अध्यात्मफाग १८. सोलतिषि १९. तेरह काठिया, २७. अध्यात्मगीत, २१. पंचपविधान, २२. सुमतिदेवीके अष्टोत्तर शत नाम, २३. शारदाष्टक, २४. नवदुर्गाविधान, २५. नामनिर्णयविधान, २६. नवरत्मकवित्त, २७. अष्टप्रकारी जिनपूजा, २८. दशदानविधान, २६. दश बोल, ३०. पहेली, ३१, प्रश्नोत्तरदोहा, ३२. प्रश्नोत्तरमाला, ३३. अवस्थाष्टक, ३४. षटदर्शनाष्टक, ३५. चातुर्वर्ण, ३६. अजितनाथके छन्द, ३७: शान्तिनाथ स्तुति ३८. नवसेनाविधान, ३९. नाटकसमयसारके कवित्त, ४०. फुटकर कविता, ४१. गोरखनाथके वचन,४२. वैद्य आदिके भेद, ४३, परमार्थवनिका, ४४. उपा. दान-निमित्तकी चिट्ठी, ४५. सदान-निमित दो, शान्मपद, ४५१ पर मार्थ हिंडोलना, ४८. अष्टपदी मल्हार |
इन समस्त रचनाओं में हमें महाकविको बहमखी प्रतिभा, काव्य-कुशलता एवं अगाध विद्वत्ताके दर्शन होते हैं। धार्मिक मुक्तकोंमें कविने उपमा, रूपक, दुष्टान्त, अनुप्रास आदि अलंकारोंकी योजना की है। सैज्ञान्तिक-रचनाओंमें विषय-प्रधान वर्णन-शैली है। इन रचनाओंमें कवि, कवि न रहकर, ताकिक हो गया है। अतः कविता सको, गणनाओं, उक्तियों और दृष्टान्तोंसे बहुधा बोझिल हो गई हैं । कविने सभी सिद्धान्तोंका समावेश सरल शैली में किया है ।
-इस रचनाको कुछ लोग बनारसीदासकृत मानते हैं और कुछ लोग उसके विरोधी भो हैं । कृत्तिके आरंभमें कहा है कि मेरे पूर्ववर्ती कविमल्ल, लालदास और गोपाल द्वारा पृथक-पृथक रवे गये मोहविवेकयुद्ध के आधारपर उनका सार लेकर इस ग्रंथको संक्षेपमें रचना की जा रही है । इससे स्पष्ट है कि कविने उक्त तीनों कवियोंके ग्रंथोंका सार ग्रहणकर ही अपने इस ग्रन्थको रचना की है।
इसमें ११० दोहा-चौपाई है। यह लघु वपद्ध-काव्य है । इसका नायक मोह है और प्रतिनायक विवेक । दोनोंमें विवाद होता है और दामों ओरको सेनाएँ संजकर युद्ध करती हैं। महाकवि बनारसीदासको शैलो प्रसन्न और गम्भीर है। उन्होंने अध्यात्मकी बड़ी-से-बड़ी बातोंको संक्षेपमें सरलता पूर्वक गुम्फित कर दिया है।
बद्धकथानकमें कविने अपनी आत्मकथा लिखी है । इसमें सं० १६९८ तक की सभी घटनाएं आ गई हैं। कविने ५५वर्षोंका यथार्थ जोवनवृत्त अंकित किया है।
#PanditBanarsidas
आचार्यतुल्य पंडित बनारसीदास 17वीं शताब्दी (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 28 मई 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 28 May 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
बीहोलिया वंशकी परम्परामें श्रीमाल जातिके अन्तर्गत बनारसीदासका एक धनी-मानी सम्भ्रान्त परिवार में जन्म हुआ। इनके प्रपितामह जिनदासका 'साका' चलता था। पितामह मूलदास हिन्दी और फारसीके पंडित थे । और ये नरवर (मालवा)में वहाँके मुसलमान-नबाबके मोदी होकर गये थे। इनके मातामह मदनसिंह पिनालिया जौनपुरके प्रसिद्ध जोहरी थे। पिता खड्गसेन कुछ दिनों तक बंगालके सुल्तान मोदीखोके पोतदार थे । और कुछ दिनोंके उपरान्त जौनपुरमें जवाहरातका व्यापार करने लगे थे। इस प्रकार कविका वंश सम्पन्न था तथा अन्य सम्बन्धी भी बनी थे।
खड्गसेनको बहुत दिनों तक सन्तानको प्राप्ति नहीं हुई थी और जो सन्तान लाभ हुआ भी, वह असमयमें ही स्वर्गस्थ हो गया। अतएव पुत्र-कामनासे प्रेरित हो खड्गसेनने रोहतकपुरको सतीकी यात्रा को ।
बनारसीदासका जन्म वि० सं० १६४३ माघ, शुक्ला एकादशी रविवारको रोहिणी नक्षत्रमें हुआ और बालकका नाम विक्रमाजीत रखा गया । खड्गसेन बालकके जन्मके छ: सात महीने के पश्चात् पार्श्वनाथकी यात्रा करने काशी गये । बड़े भक्तिभावसे पूजन किया और बालकको भगवत्-चरणोंमें रख दिया तथा उसके दो युष्मकी प्रार्थना की । मन्दिरके पुजारीने मायाचार कर खगसेनसे कहा कि तुम्हारी प्रार्थना पार्श्वनायके वक्षने स्वीकार कर ली है। तुम्हारा पुत्र दीर्घायुष्क होगा। अब तुम उसका नाम बनारसीदास रख दो। उसो दिनसे विक्रमाजीतनाम परिवत्तित हो बनारसीदास हो गया । पाँच वर्षकी अवस्थामें बनारसीदासको संग्रहणी रोग हो गया और यह डेढ़-दो वर्षों तक चलता रहा । बोमारीसे मुक्त होकर बनारसीदासने विद्याध्ययन के लिए गुरु-चरणोंका आश्रय ग्रहण किया।
नव वर्षको अवस्था में इनकी सगाई हो गई और इसके दो वर्ष पश्चात् सं. १६५४ में विवाह हो गया। बनारसीदासका अध्ययनक्रम टूटने लगा। फिर भी उन्होंने विद्याप्राप्तिके योगको विसी तरह बनाये रखनेका प्रयास किया। १४ वर्षको अवस्था में उन्होंने पं. देवीदाससे विद्याध्ययनका संयोग प्राप्त किया। पंडितजीसे अनेकार्थनाममाला, ज्योतिषशास्त्र, अलंकार तथा कोकशास्त्र आदिका अध्ययन किया। आगे चलकर इन्होंने अध्यात्मके प्रखर पडिस मुनि भानुचन्द्रसे भो विविध-शास्त्रों का अध्ययन आरंभ किया । पंचसंधि, कोष, छन्द, स्तवन, सामाणिकपाठ आदिका अच्छा अभ्यास किया। बनारसीदासको उक्त शिक्षासे यह स्पष्ट है कि वे बहुत उच्चकोटिकी शिक्षा नहीं प्राप्त कर सके थे। पर उनकी प्रतिभा इतनो प्रखर थी, जिससे वे संस्कृत के बड़े-बड़े ग्रंथोंको समझ लेते थे।
१४ वर्षको अवस्था में प्रवेश करते हो कविको कामुकता जाग उठी और वह ऐयाशी करने लगा | अपने अर्द्धकथानक में स्वयं कविने लिखा है
तजि कुल-आन लोककी लाज, भयो बनारसि आसिख बाज ||१७०।।
करै आसिस्त्री भरत न घोर, दरदबंद ज्यों सेख फकीर ।
इक-टक देख ध्यान सो धरे, पिता आपनेको धन हरे ॥१७॥
चोर चुनी मानिक मनी, आने पान मिठाई बनी।
भेज पेसकसी हितपास, आप गरीब कहाचे दास ।।१७२।।
माता-पिताको दृष्टि बचाकर मांग, रल तथा रुपये चुराकर स्वयं उड़ाना खाना और अधिकांशप्रेम-पात्रोंमें वितरित करनेका एक लम्बा क्रम बंध गया । मुनि भानुचन्द्रने भी इन्हें समझानेका बहुत प्रयास किया, पर सब व्यर्थ हुआ । कविने इसी अवस्था में एक हजार दोहा-चौपाईप्रमाण नवरसको कविता लिखी थी, जिसे पीछे बोष आनेपर गोमती में प्रवाहित कर दिया । १५ वर्ष १० महोना की अवस्थामें कवि सजधज अपनी ससुराल खैरावातसे पत्नीका द्विरागमग कराने गया । ससुराल में एक माह रहनेके उपरान्त कविको पूर्वोपार्जित अशु भोदयके कारण कुष्ठ रोग हो गया। विवाहिता भार्या और सासुके अतिरिक्त सबने साय छोड दिया । वहाँके एक नाईकी चिकित्सासे कविको कुष्ठ-रोगसे मुक्ति मिली। कविके पिता खड्गसेन सं० १६६१में हीरानन्दजी द्वारा चलाये गये शिखरजी यात्रा-संमें यात्रार्थ चले गये । बनारसीदास बनारस आदि स्थानों में घूमकर अपना समय-यापन करते रहे ।
वि० सं० १६६६में एक दिन पिताने पुत्रसे कहा-"वत्स ! अब तुम सयाने हो गये हो, अतः घरका सब कामकाज संभालो और हमें धर्मध्यान करने दो।" पिताको इच्छानुसार कवि घरका काम-काज करने लगा। कुछ दिन उपरान्त वह दो होरेकी अंगठी, २४ माणिक्य, ३४ मणियाँ, ९ नीलम, २० पत्रा, ४ गाँठ फुटकर चुन्नी इस प्रकार जवाहरात, २० मन घी, २ कुप्पे तेल, २०० रुपयेका कपड़ा और कुछ नगद रुपये लेकर आगराको व्यापार करने चला । प्रतिदिन पाँच कोसके हिसाबसे चलकर गाड़ियां इटावाके निकट आई। वहाँ मंजिल पूरी हो जानेसे एक बीहड़ स्थानपर डेरा डाला। थोड़े समय विश्राम कर पाये थे कि मूसलाधार बारिस होने लगी । तूफान और पानी इतनी तेजीसे बह रहे थे कि खुले मैदानमें रहना अत्यन्त कठिन था। गाड़ियों जहाँ-की-तहाँ छोड़ साथी इधर-उधर भागने लगे। शहर में भी कहीं शरण न मिली । किसी प्रकार चौकी दारोंकी झोपड़ी में शरण मिली और कष्टपूर्वक रात्रि व्यतीत हुई। प्रातःकाल गाड़ियाँ लेकर आगरेको चला और मोतीकट रामें एक मकान लेकर सारा सामान रख दिया। व्यापारसे अनभिज्ञ होनेके कारण कविको घो, तैल और कपड़े में घाटा ही रहा । बिक्रीके रुपयोंको हुण्डी द्वारा जौनपुर भेज दिया । जवाहरात घाटे में चे और दुर्भाग्यसे कुछ जवाहरात उससे कहीं गिर गये। माल बहुत था | इससे अत्यधिक हानि हुई । एक जड़ाऊ मुद्रिका सड़कपर गिर गई और दो जड़ाऊ पहुँची किसी सेठको बेंची थी, जिसका दुसरे दिन दिवाला निकल गया। इस प्रकार धनके नष्ट होनेसे बनारसीदासके हृदयको बहुत बड़ा धक्का लगा। इससे संध्या-समय उन्हें ज्वर चढ़ आया और दस लंधनोंके पश्चात् ठीक हुआ । इसी बीच पिताके कई पत्र आये, पर इन्होंने लज्जावश उत्तर नहीं दिया । सत्य छिपाये नहीं छिपता । अत: इनके बड़े बहनोई उत्तमचन्द जौहरीने समस्त घटनाएं इनके पिसाके पास जोनपुर लिख दी । खड्गसेन पश्चाताप करने लगे।
जब बनारसोदासके पास कुछ न बचा, तब गृहस्थीकी चीजें बेंच-बेंच कर खाने लगे। समय काटनेके लिये मृगावती और मधुमालती नामक पुस्तकोंको बैठे पढ़ा करते थे। दो-चार रसिक श्रोता भी आकर सुनते थे । एक कचौड़ी वाला भी इन श्रोताओंमें था, जिसके यहाँस कई महीनों सक दोनों शाम उधार लेकर कचौड़ियां खाते रहे। फिर एक दिन एकान्तमें
इन्होंने उससे कहा-
तुम उधार कीनो बहुत, अब आगे जनि देव ।
मेरे पास कछू नहीं, वाम कहाँ सौं लेह ।।
कचौड़ी वाला सज्जन था । उसने उत्तर दिया
कई कचौड़ीवाला नर, बीस सवेया खाइ ।
तुमसों कोउ न कछु कहै, जहं भावे सह जाह ।।
कवि निश्चिन्त होकर छ:-सात महीने तक भरपेट कचौड़ियां खाता रहा । और जब परसमें पैसे हए, तो १५ रुपयेका हिसाब साफ कर दिया । कुछ समय पश्चात् कवि अपनी ससुराल खैराबाद पहुंचा । उनकी पत्नीने वास्तविक स्थिति जानकर इनको स्वयंके अजित बीस रुपये तथा अपनी मातासे २०० रुपये व्यापार करने के लिये दिलाए । कवि आगरा पाकर पुनः व्यापार करने लगा, पर यहाँ भी दुर्भाग्यवश घाटा हो रहा । फलत: वह अपने मित्र नरोत्तमदासके यहाँ रहने लगा ! दुर्भाग्य जीवन-पर्यन्त साथमें लगा रहा । अतः आगरा लौटते समय कुरी नामक ग्राममें झूठे सिक्के चलानेका भयंकर अपराध लगाया गया । और इन्हें मृत्यु-दण्ड दिया गया। किसी प्रकार बनारसीदास वहाँस छूटे । इनकी दो पत्नियों और नौ बच्चोंका भी स्वर्गवास हुआ। सं. १६९८में अपनो सीसरी पलीके साथ बैठा हुआ कवि कहता है
नो बालक हुए मुए, रहे नारि-नर दोह।
ज्यों तरुवर पतझारह, रहें दूंठसे होइ ।।
कवि जन्मना श्वेताम्बर-सम्प्रदायका अनुयायी था | उसने खरतरगच्ची श्वेताम्बराचार्य भानुचन्द्रसे शिक्षा प्राप्त की थी। उसके सभी मित्र भी श्वेताम्बर सम्प्रदायके अनुयायी थे। पर सं०१६८०के पश्चात् कविका झुकाव दिगम्बर सम्प्रदायकी मान्यताओंकी ओर हुआ। इन्हें खैराबाद निवासी अर्थमलजीने समयसारको हिन्दी अर्थ सहित राजमलको टीका सौंप दी । इस अयका अध्ययन करनेसे उन्हें दिगम्बर सम्प्रदायकी श्रद्धा हो गयो । सं० १६५२में अध्यात्म के प्रकाण्ड पंडित रूपचन्द्र पाण्डेय आगरा आये । रूपचन्दने गोम्मटसार प्रन्यका प्रवचन आरंभ किया, जिसे सुनकर बनारसीदास दिगम्बर सम्प्रदायके अनुयायी बन गये। यही कारण है कि उनकी सभी रचनाओंमें दिगम्बरत्वकी मलक मिलती है।
बनारसीदासका समय वि० की १७वीं शती निश्चित है, क्योंकि उन्होंने स्वयं ही अपने अर्द्धकथानकमें अपनी जीवन-तिथियोंके सम्बन्ध में प्रकाश डाला है।
बनारसीदासके नामसे निम्न लिखित रचनाएं प्रचलित हैं-१. नाममाला, २. समयसारनाटक, ३. बनारसीविलास, ४. अद्धकथानक, ५. मोहविवेकयुन एवं ६. नवरसपद्यावली।
प्रा रचनाओं में नाममाला सबसे पूर्व की है। इसका समाप्ति काल वि० सं० १६७० आश्विन शुक्ला दशमी है। परममिन नरोत्तमदास सोबरा और थानमल सोवराकी प्रेरणासे कविने यह रचना लिखी है। यह पञ्च बद्ध शब्दकोष १७५ दोहोंमें लिखा गया है। प्रसिद्ध कवि धनञ्जयको सस्कृत नाममाला और अनेकार्थकोशके आधारपर इस ग्रंथको रचना हुई है । कविको इसकी साज-सज्जा, व्यवस्था, शब्द-योजना और लोकप्रचलित शब्दोंकी योजनाके कारण इसे मौलिक माना जा सकता है।
अध्यात्म-संत कविवर बनारसीदासकी समस्त कृतियों में नाटक-समयसार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। आचार्य कुन्दकुन्दके समय पाहुडपर आचार्य अमृतचन्द्रको आत्मख्याति नामक विशद टीका है। ग्रंथके मूल भावोंको विस्तृत करने के लिए कुछ संस्कृत-पद्य भी लिखे गये हैं, जो कलश नामसे प्रसिद्ध हैं। इसमें २७७ पद्य हैं। इन कलशोंपर भट्टारक शुभचन्द्रकी परमाध्यात्मतरंगिणीनामक संस्कृत-टीका भी है। पाण्डेय राजमलने कलशों पर बाल-बोधिनी नामक हिन्दी-टीका भी लिखी है। इसी टीकाको प्राप्त कर बनारसीदासने कवित्तबद्ध नाटक-समयसारकी रचना की है। इस ग्रंधमें ३१० दोहा-सोरठा, २४५ इकत्तीसा कवित,८६ चौपाई,७ तेइसा सवैया, २० छप्पय, १८ घनाक्षरी, ७ अडिल्ल ओर ४ कुंडलियां इस प्रकार सब मिलाकर ७२७ पध है। बनारसीदासने इस रचनाको वि० सं० १६९३ आश्विन शुक्ला, अयो दशी रविवारको समाप्त किया है।
नाटक-समयसारमें जीवद्वार अजीवहार, कर्ता-कर्म-क्रियाद्वार, पुण्यपाप एकत्व-द्वार, आसव-द्वार, संवरद्वार, निर्जराद्वार, बन्धवार, मोक्षद्वार सर्व विशुद्धि द्वार, स्थावावद्वार, साध्यसाधकद्वार और चतुर्दश गुणस्थानाधिकार प्रकरण हैं। नामानुसार इन प्रकरमोंमें विषयोंका निरूपण किया गया है। कविने इस नाटकको यथार्थताका विश्लेषण करते हुए लिखा है
काया चित्रसारीमै करम-परजंक भारी,
मायाकी संबारी सेज चादर कलपना ।
शैन करे चेतन अचेतनता नींद लिए,
मोहकी मरोर यहै लोचनको हफ्ना ।।
उदै बल जोर यहै श्वासको सबद घोर,
विर्ष सुखकारी जाकी दौर यहै सपना |
ऐसी मूल-दशामें मगन रहे तिहुँकाल,
धावे भ्रम-जालमें न पावे रूप अपना ।
अज्ञानी व्यक्ति चमके कारण अपने स्वरूपको विस्मत कर संसार में जन्म मरणके कष्ट उठा रहा है। कवि कहता है कि कायाकी चित्रशालामें कर्मका पलग बिछाया गया है । उसपर मायाकी सेज सजाकर मिथ्या कल्पनाको चादर डाल रखी है। इस शय्यापर अचेतनकी नींद में चेतन सोता है । मोहकी मरोड़ नेत्रोंका बन्द करना-झपकी लेना है। कर्मके उदयका बल ही स्वासका घोर शब्द है | विषय-सुखको दौर ही स्वप्न है । इस प्रकार तीनों कालोंमें अज्ञानकी निद्रामें मग्न यह आत्मा भ्रमजाल में दौड़ती है। अपने स्वरूपको कभी नहीं पाती । अज्ञानी जीवको बह निद्रा ही संसार-परिभ्रमणका कारण है । मिथ्या तत्त्वोंकी श्रद्धा होनेसे ही इस जीव को इस प्रकारकी निद्रा अभिभूत करती है। आत्मा अपने शुद्ध निर्मल और शक्तिशाली स्वरूपको विस्मृत कर ही इस ध्यापक असत्यको सत्य-रूपमें समझती है।
इस प्रकार कविने रूपक द्वारा अज्ञानी-जीवको स्थितिका मार्मिक चित्र उप स्थित किया है । आत्मा सुख-शान्तिका अक्षय भण्डार है। इसमें ज्ञान, सुख, वीर्य आदि गण पूर्णरूपेण विद्यमान हैं। अतएव प्रत्येक व्यक्तिको इसी शुद्धात्मा की उपलब्धि करने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। कविने बताया है कि शानी व्यक्ति संसारको समस्त-क्रियाओंका करते हुए भी अपनेको भिन्न एवं निमल समझता है।
जैसे निशि-बासर कमल रहें पक ही में,
पंकज कहावे पै न बाके बिग पंक है।
जैसे मन्त्रवादी विषधरसों गहा गास,
मन्त्रकी शकति बाके बिना विष डंक है ।।
जैसे जीभ गहे चिकनाई रहे रूम्बे अग,
पानी में कनक जसे काईसे अटंक है ।
तैसे ज्ञानवान नाना भौति करतुत अने,
किरियाते भिन्न माने मोते निष्कलंक है ।।
आत्मामें अशुद्धि पर-द्रव्यके संयोगसे आई है । यद्यपि मूलद्रव्य अन्य प्रकार रूप परिणमन नहीं करता, तो भी परद्रव्यके निमित्तसे अवस्था मलिन हो जाती है। जब सम्यक्त्वके साथ ज्ञानमें भी सच्चाई उत्पन्न होती है तो शान-रूप आत्मा परदन्योंसे अपनेको भिन्न सभाकर शुद्धात्म अवस्थाको प्राप्त होती है। कवि कहता है कि कमल रात-दिन कमें रहता है तथा पंकज कहा जाता है फिर भी कीचड़से ना महा अलग रहना है। मन्त्रवादी सर्पको अपना गात्र पकड़ाता है। परन्तु मन्त्र-शक्किसे विषके रहते हुए भी सर्पका दंश निविष रहता है। पानीमें पड़ा रहनेपर भी जैसे स्वर्ण में काई नहीं लगसी उसी प्रकार ज्ञानो व्यक्ति संसारको समस्त क्रियाओंको करते हुए भी अपनेको भिन्न एवं निर्मल समझता है।
इस नाटक-समयसारमें अज्ञानीकी विभिन्न अवस्थाएँ, ज्ञानीकी अवस्थाए', ज्ञानीका हृदय, संसार और शरीरका स्वरूप-दर्शन, आत्म-जागति, यात्माकी अनेकता, मनको विचित्र दोड़ एवं सप्तव्यसनोंका सच्चा स्वरूप प्रतिपादित करनेके साथ जीव, अजीव, बास्रब, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्वोंका काव्य-रूपमें चित्रण किया है।
इस ग्रन्थमें महाकवि बनारसीदासको ४८ रचनाओंका संकलन है। यह संग्रह आगरानिवासी दीवान जगजीवनजीने बनारसीदासके स्वर्गवासके कुछ समयके पश्चात् वि० सं० १७०१ चैत्र शुक्ला द्वितीयाको किया है। बनारसीदासने वि० सं० १७०७ फाल्गुन शुक्ला सप्तमोको कम-प्रकृति विषानकी रचना की थी। यह रचना भी इस संग्रहमें समाविष्ट है। संगृहीत रचनाओंके नाम निम्न प्रकार हैं
१. जिनसहस्रनाम, २. सूक्तिमुक्तावलो, ३. शानबावनी, ४. वेदनिर्णय पंचाशिका, ५. शलाकापुरुषोंकी नामावली, ६. मार्गणाविधार, ७. कर्मप्रकृति विधान, ८. कल्याणमन्दिरस्तोत्र, ५. साधुबन्दना, १०, मोमपैडो, ११. करम छत्तीसी, १२. ध्यानबत्तीसी, १३. अध्यात्मबत्तीसी, १४. सानपच्चीसी, १५. शिव पच्चोसी १६. भवसिन्धुचतुर्दशी १७. अध्यात्मफाग १८. सोलतिषि १९. तेरह काठिया, २७. अध्यात्मगीत, २१. पंचपविधान, २२. सुमतिदेवीके अष्टोत्तर शत नाम, २३. शारदाष्टक, २४. नवदुर्गाविधान, २५. नामनिर्णयविधान, २६. नवरत्मकवित्त, २७. अष्टप्रकारी जिनपूजा, २८. दशदानविधान, २६. दश बोल, ३०. पहेली, ३१, प्रश्नोत्तरदोहा, ३२. प्रश्नोत्तरमाला, ३३. अवस्थाष्टक, ३४. षटदर्शनाष्टक, ३५. चातुर्वर्ण, ३६. अजितनाथके छन्द, ३७: शान्तिनाथ स्तुति ३८. नवसेनाविधान, ३९. नाटकसमयसारके कवित्त, ४०. फुटकर कविता, ४१. गोरखनाथके वचन,४२. वैद्य आदिके भेद, ४३, परमार्थवनिका, ४४. उपा. दान-निमित्तकी चिट्ठी, ४५. सदान-निमित दो, शान्मपद, ४५१ पर मार्थ हिंडोलना, ४८. अष्टपदी मल्हार |
इन समस्त रचनाओं में हमें महाकविको बहमखी प्रतिभा, काव्य-कुशलता एवं अगाध विद्वत्ताके दर्शन होते हैं। धार्मिक मुक्तकोंमें कविने उपमा, रूपक, दुष्टान्त, अनुप्रास आदि अलंकारोंकी योजना की है। सैज्ञान्तिक-रचनाओंमें विषय-प्रधान वर्णन-शैली है। इन रचनाओंमें कवि, कवि न रहकर, ताकिक हो गया है। अतः कविता सको, गणनाओं, उक्तियों और दृष्टान्तोंसे बहुधा बोझिल हो गई हैं । कविने सभी सिद्धान्तोंका समावेश सरल शैली में किया है ।
-इस रचनाको कुछ लोग बनारसीदासकृत मानते हैं और कुछ लोग उसके विरोधी भो हैं । कृत्तिके आरंभमें कहा है कि मेरे पूर्ववर्ती कविमल्ल, लालदास और गोपाल द्वारा पृथक-पृथक रवे गये मोहविवेकयुद्ध के आधारपर उनका सार लेकर इस ग्रंथको संक्षेपमें रचना की जा रही है । इससे स्पष्ट है कि कविने उक्त तीनों कवियोंके ग्रंथोंका सार ग्रहणकर ही अपने इस ग्रन्थको रचना की है।
इसमें ११० दोहा-चौपाई है। यह लघु वपद्ध-काव्य है । इसका नायक मोह है और प्रतिनायक विवेक । दोनोंमें विवाद होता है और दामों ओरको सेनाएँ संजकर युद्ध करती हैं। महाकवि बनारसीदासको शैलो प्रसन्न और गम्भीर है। उन्होंने अध्यात्मकी बड़ी-से-बड़ी बातोंको संक्षेपमें सरलता पूर्वक गुम्फित कर दिया है।
बद्धकथानकमें कविने अपनी आत्मकथा लिखी है । इसमें सं० १६९८ तक की सभी घटनाएं आ गई हैं। कविने ५५वर्षोंका यथार्थ जोवनवृत्त अंकित किया है।
Acharyatulya Pandit Banarsidas 17th Century (Prachin)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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