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#Panditlaakhu
पं० लाखू द्वारा विरचित 'जिनदत्तकथा' अपभ्र शके कथा-काव्यों में उत्तम रचना है। कविने अपने लिए 'लक्खण' शब्द का प्रयोग किया है। पर लक्ष्मण रत्नदेवके पुत्र हैं और पुरवाडबंशमें उत्पन्न हुए हैं। किन्तु लाखूका जन्म जाय सवंशमें हुआ है । अतएव लक्ष्मण और लालू दोनों भिन्न कालके भिन्न कवि हैं।
कवि लाखू जायस या जयसवालवंशमें हुए थे। इनके प्रपितामहका नाम कोशवाल था, जो जायसवंशके प्रधान तथा अत्यन्त प्रसिद्ध नरनाथ थे। कविने उनका निवास त्रिभुवनगिरि कहा है । यह त्रिभुवनगढ़ या तिहुनगढ़ भरतपुर जिले में बयानाके निकट १५ मील पश्चिम-दक्षिणमें करौली राज्यका प्रसिद्ध ताहनगढ़ है। इस दुर्गका निर्माण और नामकरण परमभट्टारक महा राजाधिराज त्रिभुवनपाल या तिहुणपालने किया था । इसीलिए यह तिहनगढ़या त्रिभुवनगिरि कहलाया है। इसका निर्देश कवि बुलाकीचन्दके वचनकोश मैं भी मिलता है।
लाखू तिहुणगढ़से आकर बिलरामपुरमें बस गये थे। कविने स्वयं लिखा है
सो तिहुवगिरिभग्गउजवेण, चित्त बलेण मिच्छाहिवेण ।
लक्खणु सब्याउ समाणु साउ विच्छोयज विहिणा जयण राउ ।
सो इत्त तस्य हिद्धंतु पत्तु पुरे विल्लरामे लक्खणु सुपत्तु ।
-प्रशस्तिका अंतिमभाग
इससे स्पष्ट है कि लाखू तिहुनगढ़से चलकर बिलरामपुरमें बस गये थे ।अन्यकी प्रशस्तिसे यह भी स्पष्ट होता है कि कोसवाल राजा थे और उनका यश चारों ओर व्याप्त था। कविकै पिता भी कहींके राजा थे । कधिके पिता का नाम साहुल और माताका नाम जयता था । 'अणुव्रतरलप्रदीप'को प्रशस्तिसे भी यही सिद्ध होता है।
कविका जन्म कब और कहाँ हुआ, यह निश्चितरूपसे नहीं कहा जा सकता है । पर त्रिभुवनगिरिके बसाये जाने और विध्वंस किये जाने वाली घटनाओं तथा दुबकुंडके अभिलेख और मदनसागर ( अहारक्षेत्र, टीकमगढ़, मध्यप्रदेश ) में प्राप्त मूर्तिलेखोंसे यह सिद्ध हो जाता है कि ११वीं शताब्दीमें जयसवाल अपने मूलस्थानको छोड़ कर कई स्थानों में बस गये थे। संभवत: तभी कविके पूर्वज त्रिभुवनगिरिमें आकर बस गये होंगे ।
अणुव्रतरत्नप्रदीप में लिखा है कि यमुना नदीके तट पर रायद्दिय नामकी महानगरी थी । वहाँ आहवमल्लदेव नामके राजा राज्य करते थे। वे चौहान बंशके भूषण थे। उन्होंने हम्मीरवीरके मनके शूलको नष्ट किया था। उनकी पट्टरानीका नाम ईसरदे था। इस नगरमें कविकुलमंडल प्रसिद्ध कवि लक्षण रहते थे। एक दिन राभिके समय उनके मन में विचार आया कि उत्तम कवित्व शक्ति, विद्याविलास और पाण्डित्य ये सभी गुण व्यर्थ जा रहे हैं । इसी विचारमें मान कदिको निद्रा आ गई और स्वप्नमें उसने शासन-देवताके दर्शन किये। शासन-देवताने स्वप्नमें बताया कि अब कवित्वशक्ति प्रकाशित होगी ।
प्रात:काल जागने पर कविने स्वप्नदर्शनके सम्बन्धमें विचार किया और उसने देवीकी प्रेरणा समझ कर काव्य-रचना करनेका संकल्प किया । और फलत: कवि महामंत्री कण्हसे मिला । कहने कविसे भक्तिभावसहित सागारधर्म के निरूपण करनेका अनुरोध किया ।
इससे यह सिद्ध होता है कि कवि त्रिभुवनगिरिसे आकर समबर्बाद्दय नमरी में रहने लमा था। यह रायबदिय आगरा और बांदीकुईके बीच में विद्यमान है ।' इससे ज्ञात होता है कि कविका बंश रायबदियमें भी रहा है। श्री डा० देवेन्द्र कुमार शास्त्रीने लिखा है कि यदि जिनदत्तकथा बिल्लरामपुरबासी जिनधर के पुत्र श्रीधरके अनुरोध और सुख-सुविधा प्रदान करने पर लिखी गई, तो अणु प्रतरत्न प्रदीप आहबमल्लके मन्त्री कृष्णके आश्रयमें तथा उन्होंके अनुरोधसे चन्द्रवाङनगरमें रचा गया । आहबमल्लकी वंश-परम्परा भी चन्द्रवाड नगरसे बसलायी गयी है। इससे स्पष्ट है कि सं० १२७५ में कदि सपरिवार बिल्लराम पुरमें था और सं० १३१३ में चन्द्रवाडनगर ( फिरोजाबादके ) पासमें । यदि हम कनिका जन्म तिहनगढ़में भी मान लें तो फिर रायद्दियमें वह कब रहा होगा। हमारे विचारमें लाखके बाबा रायद्धियके रहने वाले होंगे 1 किसी समय तिह नगढ़ अत्यन्त समृद्ध नगर रहा होगा। इसलिए उससे आकर्षित हो वहाँ जाकर बस गये होंगे । किन्तु तिहनगढ़के भग्न हो जाने पर वे सपरिवार बिल्लरामपुरमें पहुँच कर रहने लगे होंगे। संभवतः वहीं लाखुका जन्म हुआ होगा। और श्रीधरसे गाढ़ी मित्रता कर सुखस समय बिताने लगे होगे। परन्तु श्रीधरके देहावसान पर तथा राज्याश्रयके आकर्षणसे चन्द्रबाडनगरीमें बस गये होंगे।
उपयुक्त उद्धरणसे यह निष्कर्ष निकलता है कि कवि लक्खणने अणुव्रतरत्न प्रदीपको रचना रायड्डिय नगरीमें की और 'जिनदत्तकथा' की रचना बिल्ल रामपुर में की होगी।
कवि अपने समयका प्रतिभाशाली और लोकप्रिय कवि रहा है। उसका व्यक्तित्व अत्यन्त स्निग्ध और मिलनसार था। यही कारण है कि श्रीधर जैसे व्यक्तियोंसे उसकी गाड़ी मित्रता थी। जिनदत्तकथाके वर्णनोंसे यह भी प्रतीत होता है कि कवि गृहस्थ रहा है। प्रभुचरणोंका भक्त रहने पर भी वह कर्म सिद्धान्तके प्रति अटूट विश्वास रखता है। शील-संयम उसके जीवन के विशेष गुण हैं।
कविने 'अणुन्नतरत्न-प्रदीप में उसके रचनाकालका उल्लेख किया है
तेरह-सयन्तेरह-उत्तराले, परिगलिय-विक्कमाइच्चकाले।
संवेयरइह सञ्चहं समक्ख, कत्तिय-मासम्मि असेय-पक्खे।
सत्तमि-दिगण गुम्बारे समोप अहमि-रिसाले साहिल-जोगा।
नव-मास रयतें पायउत्थु, सम्मत्तउ कमे कमे एहु सत्थु ।
-'अणुव्रतरत्नप्रदीप', अन्तिम प्रशस्ति ।
वि० सं० १३१३ कार्तिक कृष्ण सप्तमी गुरुवार, पुष्य नक्षत्र, साध्य योग में नौ महीने में यह अन्थ लिखा गया ।
कविने 'जिणवत्तकहा' में रचनाकालका उल्लेख करते हुए लिखा है
बारहसयं सत्तरयं पंचुत्तरयं विक्कमकाल-बिइत्तन ।
पढमपक्ख रविवारए छठ्ठि सहारए, पुसमासि संमत्तिज ।।
अर्थात वि० सं० १२७५ पौष कृष्णा षष्ठी रविवारके दिन इस कथाग्रन्थकी रचना समाप्त हुई। इस प्रकार कविका साहित्यिक जीबन बि० सं० १२७५ से आरम्भ होकर वि० सं० १३१३ तक बना रहता है । कविने प्रथम रचना लिखने के पश्चात् द्वितीय रचना ३८ बर्षके पश्चात् लिखी है। यही कारण है कि कविको चिन्ता उत्पन्न हुई कि उसको कवित्वशक्ति क्षीण हो चुकी है। अतएव रात्रिमें शासन-देवताका स्वप्न में दर्शन कर पुनः कान्य-रचनामें प्रवृत्त हुआ।
कबिके आश्रयदाता चौहानवंशी राजा आहबमल्ल थे । आहवमल्लने मुसल मानोंसे टक्कर लेकर विजय प्राप्त की और हम्मीरबीरकी सहायता की । हम्मीर देव रणथम्भौरके राजा थे। अल्लाउद्दीन खिलजीने सन् १२५९में रणथम्भौर पर आक्रमण किया और इस युद्धमें हम्मीरदेव काम आये । इस प्रकार आहब मल्लके साथ कविको ऐतिहासिकता सिद्ध हो जाती है।
तिहनगढ़ या त्रिभुवनमिरिमें यदुवंशी राजाओंका राज्य था। कवि लाखू इसी परिवारसे सम्बद्ध था । ऐतिहासिक दृष्टिसे मथुराके यदुवंशी राजा जये न्द्रपाल हुए और उनके पुत्र विजयपाल । इनके उत्तराधिकारी धर्मपाल और धर्मपालके उत्तराधिकारी अजयपाल हुए। ११५० ई० में इनका राज्य था । उनके उत्तराधिकारी कुवरपाल हुए। वस्तुतः अजयपालके उत्तराधिकारी हर पाल हए । ये हरपाल उनके पुत्र थे। महावनमें ई० सन् १९७० का हरपालका एक अभिलेख मिला है। हरपालके पुत्र कोषपाल थे, जो लाखूके पितामहके पिता थे ।
कोषपालके पुत्र यशपाल और यशपालके लाहद हुए। इनको जिन मती भार्या थी । इससे अल्हण,गाहुल, साहुल, सोहण, रयण, मयण और सतण हुए। इनमेंसे साहुल लाखूके पिता थे । इस प्रकार लक्वणका सम्बन्ध यदुवंशी राजघरानेके साथ रहा है।
कविकी तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं
(१)चंदणछट्ठीकहाँ,
(२) जिणयत्त कहा और
(३) अणुवय-रयण-पईव ।
कविकी प्रारम्भिक रचना है और इसका रचना-काल वि० सं० १२७० रहा होगा। यह रचना साधारण है और कविने इसके अन्तमें
अपना नामांकन किया है
"इय चंदणछट्टिहिं जो पालइ बहु लक्खणु ।
सो दिवि भुजिवि सोक्नु मोक्खहु गाणे लक्खणु।"
इसकी प्रति आमेर शास्त्र-मंडारमें प्राप्त है । कविने जिन दत्तके चरितका मुम्फन ११ सन्धियोंमें किया है। मगधराज्यके अन्तर्गत बसन्त पुर नगरके राजा शशिशेखर और उनकी रानी मैनासुन्दरीके वर्णनके पश्चात् उस मगरके श्रेष्ठि जीवदेव और उनकी पत्नी जीवनजसाके सौन्दर्यका वर्णन किया गया है। प्रभुभक्तिके प्रसादसे जीवनजसा एक सुन्दर पुत्रको जन्म देती है, जिसका नाम जिनदत्त रखा जाता है। जिनदसके वयस्क होनेपर उसका विवाह चम्पानगरीके सेठकी सुन्दरी कन्या विमलमतीके साथ सम्पन्न होता है।
जिनदत्त धनोपार्जनके लिए अनेक व्यापारियोंके साथ समुद्र-यात्रा करता हुआ सिंहलद्वीप पहुँचता है और वहाँके राजाको सुन्दरी राजकुमारी श्रीमती उससे प्रभावित होती है । दोनोंका विवाह होता है। जिनदत्त श्रीमती को जिनधर्मका उपदेश देता है । कालान्तरमें वह प्रचुर धन-सम्पत्ति अर्जित कर अपने साथियोंके साथ स्वदेश लोटता है। ईष्याक कारण उसका एक सम्बन्धी धोखेसे उसे एक समुद्र में गिरा देता है और स्वयं श्रीमतीसे प्रेमका प्रस्ताव करता है। श्रीमती शीलकतमें हड़ रहती है। जहाज चम्पानगरी पहुंचता है और श्रीमती बहाँके एक चैत्यमें ध्यानस्थ हो जाती है। जिनदत्त भी भाग्यसे बचकर मणिवीण पहुंचता है और वहाँ शृंगारमतीसे विवाह करता है। वह किसी प्रकार चम्पानगरीमें पहुँचता है और वहाँ श्रीमती और विमलवतीसे भेंट करता है और उनको लेकर अपने नगर वसन्तपुरमें चला आता है। माता-पिता पुत्र
और पुत्रवधुओंको प्राप्तकर प्रसन्न होते हैं।
कुछ दिनोंके पश्चात् जिनदत्तको समाधिगुप्त मुनिके दर्शन होते हैं । उनसे अपने पूर्वभव सुनकर वह विरक्त हो जाता है और मुनिदीक्षा ग्रहण कर लेता. है तथा तपश्चरण द्वारा निर्वाण प्राप्त करता है।
कविने लोक-कथानकोंको धार्मिक रूप दिया है तथा घटनाओंका स्वाभा विक विकास दिखलाया है। इतना ही नहीं, कविने नगर-वर्णन, रूप-वर्णन, बाल-वर्णन, संयोग-वियोग-वर्णन, विवाह-वर्णन तथा नायकके साहसिक कार्यों का वर्णन कर कथाको रोचक बनाया है ।।
इस कथा-काव्यमें कई मार्मिक स्थल हैं, जिनमें मनुष्य-जीवनके विविध मार्मिक प्रसंगोंको सुन्दर योजना हुई है। बेटीको भावभीनी बिदाई, माताका नई बहका स्वागत करना, बेटेकी आरती उतारना, जिनदत्तका समुद्र में उतरना, समुद्र-संतरण, वनिताओंका करुण-विलाप ऐसे सरस प्रसंग हैं, जिनके अध्ययन से मानवीय संवेदनाओंकी अनुभूति द्वारा पाठकका हृदय द्रवित एवं दीप्त हो जाता है । लज्जा, सौताम्य, मोह, विरोध, भाग, अलमसा समति, चिन्ता, वित्तक, धूति, चपलता, विषाद, उग्रता आदि अनेक संचारी भाव उबुद्ध होकर स्थायी भावोंको उद्दीप्त किया है। संयोग-वियोगवर्णनमें कविने रतिभावको सुन्दर अभिव्यंजना की है । श्लेष, यमक, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, स्वभावोक्ति, विशेषोक्ति, लोकोक्ति, विनोक्ति, सन्देह आदि अलंकारोंकी योजना की गयी है। छन्दोंमें विलासिनी, मौक्तिकदाम, मनोहरदाम, आरनाल, सोमराजी ललिता, अमरपुरसुन्दरी, मदनावतार, पसिनी, पंचचामर, पमाडिया, नाराच, भ्रमरपद, तोड़या, त्रिभंगिका, जम्भेटिया, समानिका और आवली आदि प्रयुक्त
कविने शृंगार और वीर-रसकी बहुत ही सुन्दर योजना की है । करुण रस भी कई सन्द में आया है। अनुषयरयणपईय
इस ग्रंथमें कविने श्रावकोंके पालन करने योग्य अणुव्रतोंका कथन किया है। विषय-प्रतिपादनके लिये कथाओंका भी आश्रय लिया गया है। कविने लिखा है
मिच्छत्त-जरहिव-संसण-मित्त
णाणिय-गरिंद महनियनिमित्त ॥१॥
अवराह-चलाइय-विसम-वाय
वियसिय-जीवणरुह-वयण छाय
भय-मरियागय-अण-रक्सवाल
छण ससि-परिसर दल विउल-भाल ।
संसार-सरणि-परिभमण-भीय
गुरुचरण-कुसेसय-चंचरीय ।
पोसिय-धापासिय-विबुद-वाग
णाणिय-णिरुवम-णिव-णीइ-मग ।
अस-पसर-भरिय भंड-खंड
मिच्छत्त-महीहर-कुलिस-दंड ।
तजिय-माया-मय-माण-डंभ
महमइ-करेणु-आलाण-यंभ।
समयानुवेइ गुरुपण-विणीय
दुत्थिय-गर-गिब्बाणावणीय ।
शास्त्रोपदेशके वचनामृतके पानसे तृप्त भव्यजन मिथ्यात्वरूपी जीर्ण वृक्षको समाप्त कर डालते हैं। सम्यक्त्वरूपी सूर्यके उदय होते ही मिथ्यात्वरूपी अंधकार क्षीण हो जाता है। अपराधरूपी मेघोंको छिन्न-भिन्न करनेके लिए प्रचण्ड वायु, विकसित कमलके समान मुखकोतिके धारक, भयसे लदे हुए आने वाले जनोंके रक्षपाल, पूर्ण चन्द्रमण्डलके अर्द्धभाग समान भालयुक्त, संसार सरणिमें परिभ्रमणसे भीत, गुरुके चरणकमलोंके चंचरीक, धर्मके आथित हुए समझदार लोगोंका पोषण करने वाले, निरुपम राजनीतिमार्गके ज्ञाता, यशके प्रसारसे ब्रह्माण्डखण्डको भर देने वाले, मिथ्यात्वरूपी पर्वतके वजदण्ड, माया, मद, मान और दंभके त्यागी, महामतिरूपी हस्तिको बांधनेके स्तंभ, समयवेदी, गुरुजन, विनीत और दुःखित नरोंके कल्पवृक्ष, तुम कविजनोंके मनोरंजन, पाप विभंजन, गुणगणरूपी मणियोंके रत्नाकर और समस्त कलाओंके निर्मलसागर हो।
इस प्रकार कथाके माध्यमसे अणुक्त, गुणवत, शिक्षाव्रत, सप्तव्यसनत्याग, चार कषायोंका त्याग, इन्द्रियोंका निग्रह, अष्टांग सम्यकदर्शन, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चार पुरुषार्थ, स्वाध्याय, आत्मसन्तोष, जिनपूजा, गुरुभक्ति आदि धार्मिकतत्वोंका परिचय प्रस्तुत किया है।
लेखककी शैली उपदेशप्रद न होकर आख्यानात्मक है । और कविने अन्या पदेश द्वारा धार्मिक तत्वोंकी अभिव्यन्जना की है। यह ग्रंथ लघुकाय होनेपरभी कथाके माध्यमसे धार्मिक तत्त्वोंकी जानकारी प्रस्तुत करता है।
पं० लाखू द्वारा विरचित 'जिनदत्तकथा' अपभ्र शके कथा-काव्यों में उत्तम रचना है। कविने अपने लिए 'लक्खण' शब्द का प्रयोग किया है। पर लक्ष्मण रत्नदेवके पुत्र हैं और पुरवाडबंशमें उत्पन्न हुए हैं। किन्तु लाखूका जन्म जाय सवंशमें हुआ है । अतएव लक्ष्मण और लालू दोनों भिन्न कालके भिन्न कवि हैं।
कवि लाखू जायस या जयसवालवंशमें हुए थे। इनके प्रपितामहका नाम कोशवाल था, जो जायसवंशके प्रधान तथा अत्यन्त प्रसिद्ध नरनाथ थे। कविने उनका निवास त्रिभुवनगिरि कहा है । यह त्रिभुवनगढ़ या तिहुनगढ़ भरतपुर जिले में बयानाके निकट १५ मील पश्चिम-दक्षिणमें करौली राज्यका प्रसिद्ध ताहनगढ़ है। इस दुर्गका निर्माण और नामकरण परमभट्टारक महा राजाधिराज त्रिभुवनपाल या तिहुणपालने किया था । इसीलिए यह तिहनगढ़या त्रिभुवनगिरि कहलाया है। इसका निर्देश कवि बुलाकीचन्दके वचनकोश मैं भी मिलता है।
लाखू तिहुणगढ़से आकर बिलरामपुरमें बस गये थे। कविने स्वयं लिखा है
सो तिहुवगिरिभग्गउजवेण, चित्त बलेण मिच्छाहिवेण ।
लक्खणु सब्याउ समाणु साउ विच्छोयज विहिणा जयण राउ ।
सो इत्त तस्य हिद्धंतु पत्तु पुरे विल्लरामे लक्खणु सुपत्तु ।
-प्रशस्तिका अंतिमभाग
इससे स्पष्ट है कि लाखू तिहुनगढ़से चलकर बिलरामपुरमें बस गये थे ।अन्यकी प्रशस्तिसे यह भी स्पष्ट होता है कि कोसवाल राजा थे और उनका यश चारों ओर व्याप्त था। कविकै पिता भी कहींके राजा थे । कधिके पिता का नाम साहुल और माताका नाम जयता था । 'अणुव्रतरलप्रदीप'को प्रशस्तिसे भी यही सिद्ध होता है।
कविका जन्म कब और कहाँ हुआ, यह निश्चितरूपसे नहीं कहा जा सकता है । पर त्रिभुवनगिरिके बसाये जाने और विध्वंस किये जाने वाली घटनाओं तथा दुबकुंडके अभिलेख और मदनसागर ( अहारक्षेत्र, टीकमगढ़, मध्यप्रदेश ) में प्राप्त मूर्तिलेखोंसे यह सिद्ध हो जाता है कि ११वीं शताब्दीमें जयसवाल अपने मूलस्थानको छोड़ कर कई स्थानों में बस गये थे। संभवत: तभी कविके पूर्वज त्रिभुवनगिरिमें आकर बस गये होंगे ।
अणुव्रतरत्नप्रदीप में लिखा है कि यमुना नदीके तट पर रायद्दिय नामकी महानगरी थी । वहाँ आहवमल्लदेव नामके राजा राज्य करते थे। वे चौहान बंशके भूषण थे। उन्होंने हम्मीरवीरके मनके शूलको नष्ट किया था। उनकी पट्टरानीका नाम ईसरदे था। इस नगरमें कविकुलमंडल प्रसिद्ध कवि लक्षण रहते थे। एक दिन राभिके समय उनके मन में विचार आया कि उत्तम कवित्व शक्ति, विद्याविलास और पाण्डित्य ये सभी गुण व्यर्थ जा रहे हैं । इसी विचारमें मान कदिको निद्रा आ गई और स्वप्नमें उसने शासन-देवताके दर्शन किये। शासन-देवताने स्वप्नमें बताया कि अब कवित्वशक्ति प्रकाशित होगी ।
प्रात:काल जागने पर कविने स्वप्नदर्शनके सम्बन्धमें विचार किया और उसने देवीकी प्रेरणा समझ कर काव्य-रचना करनेका संकल्प किया । और फलत: कवि महामंत्री कण्हसे मिला । कहने कविसे भक्तिभावसहित सागारधर्म के निरूपण करनेका अनुरोध किया ।
इससे यह सिद्ध होता है कि कवि त्रिभुवनगिरिसे आकर समबर्बाद्दय नमरी में रहने लमा था। यह रायबदिय आगरा और बांदीकुईके बीच में विद्यमान है ।' इससे ज्ञात होता है कि कविका बंश रायबदियमें भी रहा है। श्री डा० देवेन्द्र कुमार शास्त्रीने लिखा है कि यदि जिनदत्तकथा बिल्लरामपुरबासी जिनधर के पुत्र श्रीधरके अनुरोध और सुख-सुविधा प्रदान करने पर लिखी गई, तो अणु प्रतरत्न प्रदीप आहबमल्लके मन्त्री कृष्णके आश्रयमें तथा उन्होंके अनुरोधसे चन्द्रवाङनगरमें रचा गया । आहबमल्लकी वंश-परम्परा भी चन्द्रवाड नगरसे बसलायी गयी है। इससे स्पष्ट है कि सं० १२७५ में कदि सपरिवार बिल्लराम पुरमें था और सं० १३१३ में चन्द्रवाडनगर ( फिरोजाबादके ) पासमें । यदि हम कनिका जन्म तिहनगढ़में भी मान लें तो फिर रायद्दियमें वह कब रहा होगा। हमारे विचारमें लाखके बाबा रायद्धियके रहने वाले होंगे 1 किसी समय तिह नगढ़ अत्यन्त समृद्ध नगर रहा होगा। इसलिए उससे आकर्षित हो वहाँ जाकर बस गये होंगे । किन्तु तिहनगढ़के भग्न हो जाने पर वे सपरिवार बिल्लरामपुरमें पहुँच कर रहने लगे होंगे। संभवतः वहीं लाखुका जन्म हुआ होगा। और श्रीधरसे गाढ़ी मित्रता कर सुखस समय बिताने लगे होगे। परन्तु श्रीधरके देहावसान पर तथा राज्याश्रयके आकर्षणसे चन्द्रबाडनगरीमें बस गये होंगे।
उपयुक्त उद्धरणसे यह निष्कर्ष निकलता है कि कवि लक्खणने अणुव्रतरत्न प्रदीपको रचना रायड्डिय नगरीमें की और 'जिनदत्तकथा' की रचना बिल्ल रामपुर में की होगी।
कवि अपने समयका प्रतिभाशाली और लोकप्रिय कवि रहा है। उसका व्यक्तित्व अत्यन्त स्निग्ध और मिलनसार था। यही कारण है कि श्रीधर जैसे व्यक्तियोंसे उसकी गाड़ी मित्रता थी। जिनदत्तकथाके वर्णनोंसे यह भी प्रतीत होता है कि कवि गृहस्थ रहा है। प्रभुचरणोंका भक्त रहने पर भी वह कर्म सिद्धान्तके प्रति अटूट विश्वास रखता है। शील-संयम उसके जीवन के विशेष गुण हैं।
कविने 'अणुन्नतरत्न-प्रदीप में उसके रचनाकालका उल्लेख किया है
तेरह-सयन्तेरह-उत्तराले, परिगलिय-विक्कमाइच्चकाले।
संवेयरइह सञ्चहं समक्ख, कत्तिय-मासम्मि असेय-पक्खे।
सत्तमि-दिगण गुम्बारे समोप अहमि-रिसाले साहिल-जोगा।
नव-मास रयतें पायउत्थु, सम्मत्तउ कमे कमे एहु सत्थु ।
-'अणुव्रतरत्नप्रदीप', अन्तिम प्रशस्ति ।
वि० सं० १३१३ कार्तिक कृष्ण सप्तमी गुरुवार, पुष्य नक्षत्र, साध्य योग में नौ महीने में यह अन्थ लिखा गया ।
कविने 'जिणवत्तकहा' में रचनाकालका उल्लेख करते हुए लिखा है
बारहसयं सत्तरयं पंचुत्तरयं विक्कमकाल-बिइत्तन ।
पढमपक्ख रविवारए छठ्ठि सहारए, पुसमासि संमत्तिज ।।
अर्थात वि० सं० १२७५ पौष कृष्णा षष्ठी रविवारके दिन इस कथाग्रन्थकी रचना समाप्त हुई। इस प्रकार कविका साहित्यिक जीबन बि० सं० १२७५ से आरम्भ होकर वि० सं० १३१३ तक बना रहता है । कविने प्रथम रचना लिखने के पश्चात् द्वितीय रचना ३८ बर्षके पश्चात् लिखी है। यही कारण है कि कविको चिन्ता उत्पन्न हुई कि उसको कवित्वशक्ति क्षीण हो चुकी है। अतएव रात्रिमें शासन-देवताका स्वप्न में दर्शन कर पुनः कान्य-रचनामें प्रवृत्त हुआ।
कबिके आश्रयदाता चौहानवंशी राजा आहबमल्ल थे । आहवमल्लने मुसल मानोंसे टक्कर लेकर विजय प्राप्त की और हम्मीरबीरकी सहायता की । हम्मीर देव रणथम्भौरके राजा थे। अल्लाउद्दीन खिलजीने सन् १२५९में रणथम्भौर पर आक्रमण किया और इस युद्धमें हम्मीरदेव काम आये । इस प्रकार आहब मल्लके साथ कविको ऐतिहासिकता सिद्ध हो जाती है।
तिहनगढ़ या त्रिभुवनमिरिमें यदुवंशी राजाओंका राज्य था। कवि लाखू इसी परिवारसे सम्बद्ध था । ऐतिहासिक दृष्टिसे मथुराके यदुवंशी राजा जये न्द्रपाल हुए और उनके पुत्र विजयपाल । इनके उत्तराधिकारी धर्मपाल और धर्मपालके उत्तराधिकारी अजयपाल हुए। ११५० ई० में इनका राज्य था । उनके उत्तराधिकारी कुवरपाल हुए। वस्तुतः अजयपालके उत्तराधिकारी हर पाल हए । ये हरपाल उनके पुत्र थे। महावनमें ई० सन् १९७० का हरपालका एक अभिलेख मिला है। हरपालके पुत्र कोषपाल थे, जो लाखूके पितामहके पिता थे ।
कोषपालके पुत्र यशपाल और यशपालके लाहद हुए। इनको जिन मती भार्या थी । इससे अल्हण,गाहुल, साहुल, सोहण, रयण, मयण और सतण हुए। इनमेंसे साहुल लाखूके पिता थे । इस प्रकार लक्वणका सम्बन्ध यदुवंशी राजघरानेके साथ रहा है।
कविकी तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं
(१)चंदणछट्ठीकहाँ,
(२) जिणयत्त कहा और
(३) अणुवय-रयण-पईव ।
कविकी प्रारम्भिक रचना है और इसका रचना-काल वि० सं० १२७० रहा होगा। यह रचना साधारण है और कविने इसके अन्तमें
अपना नामांकन किया है
"इय चंदणछट्टिहिं जो पालइ बहु लक्खणु ।
सो दिवि भुजिवि सोक्नु मोक्खहु गाणे लक्खणु।"
इसकी प्रति आमेर शास्त्र-मंडारमें प्राप्त है । कविने जिन दत्तके चरितका मुम्फन ११ सन्धियोंमें किया है। मगधराज्यके अन्तर्गत बसन्त पुर नगरके राजा शशिशेखर और उनकी रानी मैनासुन्दरीके वर्णनके पश्चात् उस मगरके श्रेष्ठि जीवदेव और उनकी पत्नी जीवनजसाके सौन्दर्यका वर्णन किया गया है। प्रभुभक्तिके प्रसादसे जीवनजसा एक सुन्दर पुत्रको जन्म देती है, जिसका नाम जिनदत्त रखा जाता है। जिनदसके वयस्क होनेपर उसका विवाह चम्पानगरीके सेठकी सुन्दरी कन्या विमलमतीके साथ सम्पन्न होता है।
जिनदत्त धनोपार्जनके लिए अनेक व्यापारियोंके साथ समुद्र-यात्रा करता हुआ सिंहलद्वीप पहुँचता है और वहाँके राजाको सुन्दरी राजकुमारी श्रीमती उससे प्रभावित होती है । दोनोंका विवाह होता है। जिनदत्त श्रीमती को जिनधर्मका उपदेश देता है । कालान्तरमें वह प्रचुर धन-सम्पत्ति अर्जित कर अपने साथियोंके साथ स्वदेश लोटता है। ईष्याक कारण उसका एक सम्बन्धी धोखेसे उसे एक समुद्र में गिरा देता है और स्वयं श्रीमतीसे प्रेमका प्रस्ताव करता है। श्रीमती शीलकतमें हड़ रहती है। जहाज चम्पानगरी पहुंचता है और श्रीमती बहाँके एक चैत्यमें ध्यानस्थ हो जाती है। जिनदत्त भी भाग्यसे बचकर मणिवीण पहुंचता है और वहाँ शृंगारमतीसे विवाह करता है। वह किसी प्रकार चम्पानगरीमें पहुँचता है और वहाँ श्रीमती और विमलवतीसे भेंट करता है और उनको लेकर अपने नगर वसन्तपुरमें चला आता है। माता-पिता पुत्र
और पुत्रवधुओंको प्राप्तकर प्रसन्न होते हैं।
कुछ दिनोंके पश्चात् जिनदत्तको समाधिगुप्त मुनिके दर्शन होते हैं । उनसे अपने पूर्वभव सुनकर वह विरक्त हो जाता है और मुनिदीक्षा ग्रहण कर लेता. है तथा तपश्चरण द्वारा निर्वाण प्राप्त करता है।
कविने लोक-कथानकोंको धार्मिक रूप दिया है तथा घटनाओंका स्वाभा विक विकास दिखलाया है। इतना ही नहीं, कविने नगर-वर्णन, रूप-वर्णन, बाल-वर्णन, संयोग-वियोग-वर्णन, विवाह-वर्णन तथा नायकके साहसिक कार्यों का वर्णन कर कथाको रोचक बनाया है ।।
इस कथा-काव्यमें कई मार्मिक स्थल हैं, जिनमें मनुष्य-जीवनके विविध मार्मिक प्रसंगोंको सुन्दर योजना हुई है। बेटीको भावभीनी बिदाई, माताका नई बहका स्वागत करना, बेटेकी आरती उतारना, जिनदत्तका समुद्र में उतरना, समुद्र-संतरण, वनिताओंका करुण-विलाप ऐसे सरस प्रसंग हैं, जिनके अध्ययन से मानवीय संवेदनाओंकी अनुभूति द्वारा पाठकका हृदय द्रवित एवं दीप्त हो जाता है । लज्जा, सौताम्य, मोह, विरोध, भाग, अलमसा समति, चिन्ता, वित्तक, धूति, चपलता, विषाद, उग्रता आदि अनेक संचारी भाव उबुद्ध होकर स्थायी भावोंको उद्दीप्त किया है। संयोग-वियोगवर्णनमें कविने रतिभावको सुन्दर अभिव्यंजना की है । श्लेष, यमक, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, स्वभावोक्ति, विशेषोक्ति, लोकोक्ति, विनोक्ति, सन्देह आदि अलंकारोंकी योजना की गयी है। छन्दोंमें विलासिनी, मौक्तिकदाम, मनोहरदाम, आरनाल, सोमराजी ललिता, अमरपुरसुन्दरी, मदनावतार, पसिनी, पंचचामर, पमाडिया, नाराच, भ्रमरपद, तोड़या, त्रिभंगिका, जम्भेटिया, समानिका और आवली आदि प्रयुक्त
कविने शृंगार और वीर-रसकी बहुत ही सुन्दर योजना की है । करुण रस भी कई सन्द में आया है। अनुषयरयणपईय
इस ग्रंथमें कविने श्रावकोंके पालन करने योग्य अणुव्रतोंका कथन किया है। विषय-प्रतिपादनके लिये कथाओंका भी आश्रय लिया गया है। कविने लिखा है
मिच्छत्त-जरहिव-संसण-मित्त
णाणिय-गरिंद महनियनिमित्त ॥१॥
अवराह-चलाइय-विसम-वाय
वियसिय-जीवणरुह-वयण छाय
भय-मरियागय-अण-रक्सवाल
छण ससि-परिसर दल विउल-भाल ।
संसार-सरणि-परिभमण-भीय
गुरुचरण-कुसेसय-चंचरीय ।
पोसिय-धापासिय-विबुद-वाग
णाणिय-णिरुवम-णिव-णीइ-मग ।
अस-पसर-भरिय भंड-खंड
मिच्छत्त-महीहर-कुलिस-दंड ।
तजिय-माया-मय-माण-डंभ
महमइ-करेणु-आलाण-यंभ।
समयानुवेइ गुरुपण-विणीय
दुत्थिय-गर-गिब्बाणावणीय ।
शास्त्रोपदेशके वचनामृतके पानसे तृप्त भव्यजन मिथ्यात्वरूपी जीर्ण वृक्षको समाप्त कर डालते हैं। सम्यक्त्वरूपी सूर्यके उदय होते ही मिथ्यात्वरूपी अंधकार क्षीण हो जाता है। अपराधरूपी मेघोंको छिन्न-भिन्न करनेके लिए प्रचण्ड वायु, विकसित कमलके समान मुखकोतिके धारक, भयसे लदे हुए आने वाले जनोंके रक्षपाल, पूर्ण चन्द्रमण्डलके अर्द्धभाग समान भालयुक्त, संसार सरणिमें परिभ्रमणसे भीत, गुरुके चरणकमलोंके चंचरीक, धर्मके आथित हुए समझदार लोगोंका पोषण करने वाले, निरुपम राजनीतिमार्गके ज्ञाता, यशके प्रसारसे ब्रह्माण्डखण्डको भर देने वाले, मिथ्यात्वरूपी पर्वतके वजदण्ड, माया, मद, मान और दंभके त्यागी, महामतिरूपी हस्तिको बांधनेके स्तंभ, समयवेदी, गुरुजन, विनीत और दुःखित नरोंके कल्पवृक्ष, तुम कविजनोंके मनोरंजन, पाप विभंजन, गुणगणरूपी मणियोंके रत्नाकर और समस्त कलाओंके निर्मलसागर हो।
इस प्रकार कथाके माध्यमसे अणुक्त, गुणवत, शिक्षाव्रत, सप्तव्यसनत्याग, चार कषायोंका त्याग, इन्द्रियोंका निग्रह, अष्टांग सम्यकदर्शन, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चार पुरुषार्थ, स्वाध्याय, आत्मसन्तोष, जिनपूजा, गुरुभक्ति आदि धार्मिकतत्वोंका परिचय प्रस्तुत किया है।
लेखककी शैली उपदेशप्रद न होकर आख्यानात्मक है । और कविने अन्या पदेश द्वारा धार्मिक तत्वोंकी अभिव्यन्जना की है। यह ग्रंथ लघुकाय होनेपरभी कथाके माध्यमसे धार्मिक तत्त्वोंकी जानकारी प्रस्तुत करता है।
#Panditlaakhu
आचार्यतुल्य पंडित लाखू (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 25 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 26 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
पं० लाखू द्वारा विरचित 'जिनदत्तकथा' अपभ्र शके कथा-काव्यों में उत्तम रचना है। कविने अपने लिए 'लक्खण' शब्द का प्रयोग किया है। पर लक्ष्मण रत्नदेवके पुत्र हैं और पुरवाडबंशमें उत्पन्न हुए हैं। किन्तु लाखूका जन्म जाय सवंशमें हुआ है । अतएव लक्ष्मण और लालू दोनों भिन्न कालके भिन्न कवि हैं।
कवि लाखू जायस या जयसवालवंशमें हुए थे। इनके प्रपितामहका नाम कोशवाल था, जो जायसवंशके प्रधान तथा अत्यन्त प्रसिद्ध नरनाथ थे। कविने उनका निवास त्रिभुवनगिरि कहा है । यह त्रिभुवनगढ़ या तिहुनगढ़ भरतपुर जिले में बयानाके निकट १५ मील पश्चिम-दक्षिणमें करौली राज्यका प्रसिद्ध ताहनगढ़ है। इस दुर्गका निर्माण और नामकरण परमभट्टारक महा राजाधिराज त्रिभुवनपाल या तिहुणपालने किया था । इसीलिए यह तिहनगढ़या त्रिभुवनगिरि कहलाया है। इसका निर्देश कवि बुलाकीचन्दके वचनकोश मैं भी मिलता है।
लाखू तिहुणगढ़से आकर बिलरामपुरमें बस गये थे। कविने स्वयं लिखा है
सो तिहुवगिरिभग्गउजवेण, चित्त बलेण मिच्छाहिवेण ।
लक्खणु सब्याउ समाणु साउ विच्छोयज विहिणा जयण राउ ।
सो इत्त तस्य हिद्धंतु पत्तु पुरे विल्लरामे लक्खणु सुपत्तु ।
-प्रशस्तिका अंतिमभाग
इससे स्पष्ट है कि लाखू तिहुनगढ़से चलकर बिलरामपुरमें बस गये थे ।अन्यकी प्रशस्तिसे यह भी स्पष्ट होता है कि कोसवाल राजा थे और उनका यश चारों ओर व्याप्त था। कविकै पिता भी कहींके राजा थे । कधिके पिता का नाम साहुल और माताका नाम जयता था । 'अणुव्रतरलप्रदीप'को प्रशस्तिसे भी यही सिद्ध होता है।
कविका जन्म कब और कहाँ हुआ, यह निश्चितरूपसे नहीं कहा जा सकता है । पर त्रिभुवनगिरिके बसाये जाने और विध्वंस किये जाने वाली घटनाओं तथा दुबकुंडके अभिलेख और मदनसागर ( अहारक्षेत्र, टीकमगढ़, मध्यप्रदेश ) में प्राप्त मूर्तिलेखोंसे यह सिद्ध हो जाता है कि ११वीं शताब्दीमें जयसवाल अपने मूलस्थानको छोड़ कर कई स्थानों में बस गये थे। संभवत: तभी कविके पूर्वज त्रिभुवनगिरिमें आकर बस गये होंगे ।
अणुव्रतरत्नप्रदीप में लिखा है कि यमुना नदीके तट पर रायद्दिय नामकी महानगरी थी । वहाँ आहवमल्लदेव नामके राजा राज्य करते थे। वे चौहान बंशके भूषण थे। उन्होंने हम्मीरवीरके मनके शूलको नष्ट किया था। उनकी पट्टरानीका नाम ईसरदे था। इस नगरमें कविकुलमंडल प्रसिद्ध कवि लक्षण रहते थे। एक दिन राभिके समय उनके मन में विचार आया कि उत्तम कवित्व शक्ति, विद्याविलास और पाण्डित्य ये सभी गुण व्यर्थ जा रहे हैं । इसी विचारमें मान कदिको निद्रा आ गई और स्वप्नमें उसने शासन-देवताके दर्शन किये। शासन-देवताने स्वप्नमें बताया कि अब कवित्वशक्ति प्रकाशित होगी ।
प्रात:काल जागने पर कविने स्वप्नदर्शनके सम्बन्धमें विचार किया और उसने देवीकी प्रेरणा समझ कर काव्य-रचना करनेका संकल्प किया । और फलत: कवि महामंत्री कण्हसे मिला । कहने कविसे भक्तिभावसहित सागारधर्म के निरूपण करनेका अनुरोध किया ।
इससे यह सिद्ध होता है कि कवि त्रिभुवनगिरिसे आकर समबर्बाद्दय नमरी में रहने लमा था। यह रायबदिय आगरा और बांदीकुईके बीच में विद्यमान है ।' इससे ज्ञात होता है कि कविका बंश रायबदियमें भी रहा है। श्री डा० देवेन्द्र कुमार शास्त्रीने लिखा है कि यदि जिनदत्तकथा बिल्लरामपुरबासी जिनधर के पुत्र श्रीधरके अनुरोध और सुख-सुविधा प्रदान करने पर लिखी गई, तो अणु प्रतरत्न प्रदीप आहबमल्लके मन्त्री कृष्णके आश्रयमें तथा उन्होंके अनुरोधसे चन्द्रवाङनगरमें रचा गया । आहबमल्लकी वंश-परम्परा भी चन्द्रवाड नगरसे बसलायी गयी है। इससे स्पष्ट है कि सं० १२७५ में कदि सपरिवार बिल्लराम पुरमें था और सं० १३१३ में चन्द्रवाडनगर ( फिरोजाबादके ) पासमें । यदि हम कनिका जन्म तिहनगढ़में भी मान लें तो फिर रायद्दियमें वह कब रहा होगा। हमारे विचारमें लाखके बाबा रायद्धियके रहने वाले होंगे 1 किसी समय तिह नगढ़ अत्यन्त समृद्ध नगर रहा होगा। इसलिए उससे आकर्षित हो वहाँ जाकर बस गये होंगे । किन्तु तिहनगढ़के भग्न हो जाने पर वे सपरिवार बिल्लरामपुरमें पहुँच कर रहने लगे होंगे। संभवतः वहीं लाखुका जन्म हुआ होगा। और श्रीधरसे गाढ़ी मित्रता कर सुखस समय बिताने लगे होगे। परन्तु श्रीधरके देहावसान पर तथा राज्याश्रयके आकर्षणसे चन्द्रबाडनगरीमें बस गये होंगे।
उपयुक्त उद्धरणसे यह निष्कर्ष निकलता है कि कवि लक्खणने अणुव्रतरत्न प्रदीपको रचना रायड्डिय नगरीमें की और 'जिनदत्तकथा' की रचना बिल्ल रामपुर में की होगी।
कवि अपने समयका प्रतिभाशाली और लोकप्रिय कवि रहा है। उसका व्यक्तित्व अत्यन्त स्निग्ध और मिलनसार था। यही कारण है कि श्रीधर जैसे व्यक्तियोंसे उसकी गाड़ी मित्रता थी। जिनदत्तकथाके वर्णनोंसे यह भी प्रतीत होता है कि कवि गृहस्थ रहा है। प्रभुचरणोंका भक्त रहने पर भी वह कर्म सिद्धान्तके प्रति अटूट विश्वास रखता है। शील-संयम उसके जीवन के विशेष गुण हैं।
कविने 'अणुन्नतरत्न-प्रदीप में उसके रचनाकालका उल्लेख किया है
तेरह-सयन्तेरह-उत्तराले, परिगलिय-विक्कमाइच्चकाले।
संवेयरइह सञ्चहं समक्ख, कत्तिय-मासम्मि असेय-पक्खे।
सत्तमि-दिगण गुम्बारे समोप अहमि-रिसाले साहिल-जोगा।
नव-मास रयतें पायउत्थु, सम्मत्तउ कमे कमे एहु सत्थु ।
-'अणुव्रतरत्नप्रदीप', अन्तिम प्रशस्ति ।
वि० सं० १३१३ कार्तिक कृष्ण सप्तमी गुरुवार, पुष्य नक्षत्र, साध्य योग में नौ महीने में यह अन्थ लिखा गया ।
कविने 'जिणवत्तकहा' में रचनाकालका उल्लेख करते हुए लिखा है
बारहसयं सत्तरयं पंचुत्तरयं विक्कमकाल-बिइत्तन ।
पढमपक्ख रविवारए छठ्ठि सहारए, पुसमासि संमत्तिज ।।
अर्थात वि० सं० १२७५ पौष कृष्णा षष्ठी रविवारके दिन इस कथाग्रन्थकी रचना समाप्त हुई। इस प्रकार कविका साहित्यिक जीबन बि० सं० १२७५ से आरम्भ होकर वि० सं० १३१३ तक बना रहता है । कविने प्रथम रचना लिखने के पश्चात् द्वितीय रचना ३८ बर्षके पश्चात् लिखी है। यही कारण है कि कविको चिन्ता उत्पन्न हुई कि उसको कवित्वशक्ति क्षीण हो चुकी है। अतएव रात्रिमें शासन-देवताका स्वप्न में दर्शन कर पुनः कान्य-रचनामें प्रवृत्त हुआ।
कबिके आश्रयदाता चौहानवंशी राजा आहबमल्ल थे । आहवमल्लने मुसल मानोंसे टक्कर लेकर विजय प्राप्त की और हम्मीरबीरकी सहायता की । हम्मीर देव रणथम्भौरके राजा थे। अल्लाउद्दीन खिलजीने सन् १२५९में रणथम्भौर पर आक्रमण किया और इस युद्धमें हम्मीरदेव काम आये । इस प्रकार आहब मल्लके साथ कविको ऐतिहासिकता सिद्ध हो जाती है।
तिहनगढ़ या त्रिभुवनमिरिमें यदुवंशी राजाओंका राज्य था। कवि लाखू इसी परिवारसे सम्बद्ध था । ऐतिहासिक दृष्टिसे मथुराके यदुवंशी राजा जये न्द्रपाल हुए और उनके पुत्र विजयपाल । इनके उत्तराधिकारी धर्मपाल और धर्मपालके उत्तराधिकारी अजयपाल हुए। ११५० ई० में इनका राज्य था । उनके उत्तराधिकारी कुवरपाल हुए। वस्तुतः अजयपालके उत्तराधिकारी हर पाल हए । ये हरपाल उनके पुत्र थे। महावनमें ई० सन् १९७० का हरपालका एक अभिलेख मिला है। हरपालके पुत्र कोषपाल थे, जो लाखूके पितामहके पिता थे ।
कोषपालके पुत्र यशपाल और यशपालके लाहद हुए। इनको जिन मती भार्या थी । इससे अल्हण,गाहुल, साहुल, सोहण, रयण, मयण और सतण हुए। इनमेंसे साहुल लाखूके पिता थे । इस प्रकार लक्वणका सम्बन्ध यदुवंशी राजघरानेके साथ रहा है।
कविकी तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं
(१)चंदणछट्ठीकहाँ,
(२) जिणयत्त कहा और
(३) अणुवय-रयण-पईव ।
कविकी प्रारम्भिक रचना है और इसका रचना-काल वि० सं० १२७० रहा होगा। यह रचना साधारण है और कविने इसके अन्तमें
अपना नामांकन किया है
"इय चंदणछट्टिहिं जो पालइ बहु लक्खणु ।
सो दिवि भुजिवि सोक्नु मोक्खहु गाणे लक्खणु।"
इसकी प्रति आमेर शास्त्र-मंडारमें प्राप्त है । कविने जिन दत्तके चरितका मुम्फन ११ सन्धियोंमें किया है। मगधराज्यके अन्तर्गत बसन्त पुर नगरके राजा शशिशेखर और उनकी रानी मैनासुन्दरीके वर्णनके पश्चात् उस मगरके श्रेष्ठि जीवदेव और उनकी पत्नी जीवनजसाके सौन्दर्यका वर्णन किया गया है। प्रभुभक्तिके प्रसादसे जीवनजसा एक सुन्दर पुत्रको जन्म देती है, जिसका नाम जिनदत्त रखा जाता है। जिनदसके वयस्क होनेपर उसका विवाह चम्पानगरीके सेठकी सुन्दरी कन्या विमलमतीके साथ सम्पन्न होता है।
जिनदत्त धनोपार्जनके लिए अनेक व्यापारियोंके साथ समुद्र-यात्रा करता हुआ सिंहलद्वीप पहुँचता है और वहाँके राजाको सुन्दरी राजकुमारी श्रीमती उससे प्रभावित होती है । दोनोंका विवाह होता है। जिनदत्त श्रीमती को जिनधर्मका उपदेश देता है । कालान्तरमें वह प्रचुर धन-सम्पत्ति अर्जित कर अपने साथियोंके साथ स्वदेश लोटता है। ईष्याक कारण उसका एक सम्बन्धी धोखेसे उसे एक समुद्र में गिरा देता है और स्वयं श्रीमतीसे प्रेमका प्रस्ताव करता है। श्रीमती शीलकतमें हड़ रहती है। जहाज चम्पानगरी पहुंचता है और श्रीमती बहाँके एक चैत्यमें ध्यानस्थ हो जाती है। जिनदत्त भी भाग्यसे बचकर मणिवीण पहुंचता है और वहाँ शृंगारमतीसे विवाह करता है। वह किसी प्रकार चम्पानगरीमें पहुँचता है और वहाँ श्रीमती और विमलवतीसे भेंट करता है और उनको लेकर अपने नगर वसन्तपुरमें चला आता है। माता-पिता पुत्र
और पुत्रवधुओंको प्राप्तकर प्रसन्न होते हैं।
कुछ दिनोंके पश्चात् जिनदत्तको समाधिगुप्त मुनिके दर्शन होते हैं । उनसे अपने पूर्वभव सुनकर वह विरक्त हो जाता है और मुनिदीक्षा ग्रहण कर लेता. है तथा तपश्चरण द्वारा निर्वाण प्राप्त करता है।
कविने लोक-कथानकोंको धार्मिक रूप दिया है तथा घटनाओंका स्वाभा विक विकास दिखलाया है। इतना ही नहीं, कविने नगर-वर्णन, रूप-वर्णन, बाल-वर्णन, संयोग-वियोग-वर्णन, विवाह-वर्णन तथा नायकके साहसिक कार्यों का वर्णन कर कथाको रोचक बनाया है ।।
इस कथा-काव्यमें कई मार्मिक स्थल हैं, जिनमें मनुष्य-जीवनके विविध मार्मिक प्रसंगोंको सुन्दर योजना हुई है। बेटीको भावभीनी बिदाई, माताका नई बहका स्वागत करना, बेटेकी आरती उतारना, जिनदत्तका समुद्र में उतरना, समुद्र-संतरण, वनिताओंका करुण-विलाप ऐसे सरस प्रसंग हैं, जिनके अध्ययन से मानवीय संवेदनाओंकी अनुभूति द्वारा पाठकका हृदय द्रवित एवं दीप्त हो जाता है । लज्जा, सौताम्य, मोह, विरोध, भाग, अलमसा समति, चिन्ता, वित्तक, धूति, चपलता, विषाद, उग्रता आदि अनेक संचारी भाव उबुद्ध होकर स्थायी भावोंको उद्दीप्त किया है। संयोग-वियोगवर्णनमें कविने रतिभावको सुन्दर अभिव्यंजना की है । श्लेष, यमक, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, स्वभावोक्ति, विशेषोक्ति, लोकोक्ति, विनोक्ति, सन्देह आदि अलंकारोंकी योजना की गयी है। छन्दोंमें विलासिनी, मौक्तिकदाम, मनोहरदाम, आरनाल, सोमराजी ललिता, अमरपुरसुन्दरी, मदनावतार, पसिनी, पंचचामर, पमाडिया, नाराच, भ्रमरपद, तोड़या, त्रिभंगिका, जम्भेटिया, समानिका और आवली आदि प्रयुक्त
कविने शृंगार और वीर-रसकी बहुत ही सुन्दर योजना की है । करुण रस भी कई सन्द में आया है। अनुषयरयणपईय
इस ग्रंथमें कविने श्रावकोंके पालन करने योग्य अणुव्रतोंका कथन किया है। विषय-प्रतिपादनके लिये कथाओंका भी आश्रय लिया गया है। कविने लिखा है
मिच्छत्त-जरहिव-संसण-मित्त
णाणिय-गरिंद महनियनिमित्त ॥१॥
अवराह-चलाइय-विसम-वाय
वियसिय-जीवणरुह-वयण छाय
भय-मरियागय-अण-रक्सवाल
छण ससि-परिसर दल विउल-भाल ।
संसार-सरणि-परिभमण-भीय
गुरुचरण-कुसेसय-चंचरीय ।
पोसिय-धापासिय-विबुद-वाग
णाणिय-णिरुवम-णिव-णीइ-मग ।
अस-पसर-भरिय भंड-खंड
मिच्छत्त-महीहर-कुलिस-दंड ।
तजिय-माया-मय-माण-डंभ
महमइ-करेणु-आलाण-यंभ।
समयानुवेइ गुरुपण-विणीय
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शास्त्रोपदेशके वचनामृतके पानसे तृप्त भव्यजन मिथ्यात्वरूपी जीर्ण वृक्षको समाप्त कर डालते हैं। सम्यक्त्वरूपी सूर्यके उदय होते ही मिथ्यात्वरूपी अंधकार क्षीण हो जाता है। अपराधरूपी मेघोंको छिन्न-भिन्न करनेके लिए प्रचण्ड वायु, विकसित कमलके समान मुखकोतिके धारक, भयसे लदे हुए आने वाले जनोंके रक्षपाल, पूर्ण चन्द्रमण्डलके अर्द्धभाग समान भालयुक्त, संसार सरणिमें परिभ्रमणसे भीत, गुरुके चरणकमलोंके चंचरीक, धर्मके आथित हुए समझदार लोगोंका पोषण करने वाले, निरुपम राजनीतिमार्गके ज्ञाता, यशके प्रसारसे ब्रह्माण्डखण्डको भर देने वाले, मिथ्यात्वरूपी पर्वतके वजदण्ड, माया, मद, मान और दंभके त्यागी, महामतिरूपी हस्तिको बांधनेके स्तंभ, समयवेदी, गुरुजन, विनीत और दुःखित नरोंके कल्पवृक्ष, तुम कविजनोंके मनोरंजन, पाप विभंजन, गुणगणरूपी मणियोंके रत्नाकर और समस्त कलाओंके निर्मलसागर हो।
इस प्रकार कथाके माध्यमसे अणुक्त, गुणवत, शिक्षाव्रत, सप्तव्यसनत्याग, चार कषायोंका त्याग, इन्द्रियोंका निग्रह, अष्टांग सम्यकदर्शन, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चार पुरुषार्थ, स्वाध्याय, आत्मसन्तोष, जिनपूजा, गुरुभक्ति आदि धार्मिकतत्वोंका परिचय प्रस्तुत किया है।
लेखककी शैली उपदेशप्रद न होकर आख्यानात्मक है । और कविने अन्या पदेश द्वारा धार्मिक तत्वोंकी अभिव्यन्जना की है। यह ग्रंथ लघुकाय होनेपरभी कथाके माध्यमसे धार्मिक तत्त्वोंकी जानकारी प्रस्तुत करता है।
Acharyatulya Pandit Laakhu (Prachin)
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