हैशटैग
#PanditRoopchand
पं० रूपचन्द्र और पाण्डेय रूपचन्द्र दोनों अभिन्न व्यक्ति प्रतीत होते हैं। महाकवि बनारसीदासने इन दोनोंका उल्लेख किया है। नाटकसमयसारकी प्रशस्तिमें रूपचन्दप द्धित कहा है और अर्द्धकथानक पाण्डेय रूपचन्द कहा गया है । बनारसीदासने अपने गुरुरूपमें पाण्डेय रूपचन्दका उल्लेख करते हुए लिखा है
तब बनारसी और भयो । स्यादवाद परिनति परिनयो ।
पांढ़े रूपचन्द्र गुरु पास । सुन्यो ग्रन्थ मन भयो हुलास ॥
फिर तिस समै बरम बीच । रूपचन्दको आई मीच ।
सुनि-सुनि रूपचन्दके बैन । बानारसी भयो दिढ़ जेन ॥
उक्त उद्धरणो की मेगा सन्तान होगा 'क पंडित रूपचन्द्र और पाण्डेय रूपचन्द्र अभिन्न व्यक्ति हैं । ये महाकवि बनारसीदागके गुरु हैं । बनारसीदास रूपचन्दका परिचय प्ररतुत करते का बताया है कि इनका जन्म-स्थान कोइदेश में स्थित सलेमपुर था । ये गर्गगोत्री अग्रवाल कुल के भूषण थे। इनके पितामहका माम भामह और पिताका नाम भगवानदास था | भगवानदासकी दो पत्नियों थीं, जिनमे प्रथमरे ब्रह्मदास नामक पुत्रका जन्म हुआ और दूसरी पत्नासे पाँच पुत्र हा.-१. हरिगज, २. भपति, ३. अभयराज, ४, कोत्तिचन्द, ५. रूपचन्द ।
यह रूपचन्न ही रूपचन्द पाण्डेय हैं। भारतीय पंडित होनेके कारण इनकी उपाधि पाण्डेय थी। ये जैन-सिद्धान्तके मर्मज्ञ विद्वान थे । और शिक्षा अर्जनहेतु बनारसकी यात्रा को थी । महाकवि बनारसीदासने इन्हों रूपचन्द को अपना गुरु बताया है और पाण्डेयशब्दसे उनका उल्लेख किया है।
जब महाकवि बनारसीदासको व्यवसायके हेतु आगराको यात्रा करनी पड़ी थी और व्यापार में असफल होनेके कारण आग रामें उनका समय काव्य रचना लिखने और विद्वानोंको गोष्ठीमें सम्मिलित होने में व्यतीत होता था, तभी सं० १६९२में इनके गुरु पाण्डेयरूपचन्दका आगरा में आगमन हुआ।
सोलहसै बानबे लौं, कियो नियत रसपान ।
पै कवीसुरी सब सब भई, स्याद्वाद परवान ।
अगायास इस ही समय, नगर आगरे थान ।
रूपचन्द पंडित गनी, आयो आगम जान ।
-अर्द्धकथानक पृ० ५७, पद्य ६२२-६३०
इन्होंने आगरा में तिहुना नामक मन्दिरमें डेरा डाला। उनके आगमनसे बनारसीदासको पर्याप्त प्रोत्साहन मिला । यहाँ इन्हीं पापडेयरूपचन्दसे कविने गोम्मटसार-प्रन्थको व्याख्या सुनी थी | सं० १६९४में पाण्डेयरूपचन्दकी मुत्यु हो गई।
श्री पं० श्रीनाथूरामजी प्रेमीने रूपचन्चको पाण्डेयरूपचन्दसे भिन्न माना है। उन्होंने बताया है कि कवि बनारसीदासने अपने नाटकसमयसारमें अपने जिन पांच साथियों का उल्लेख किया है। उनमें एक रूपचन्द भी हैं, जो पाण्डेय रूपचन्दसे भिन्न है । बनारसीदास इन रूपचन्दके साथ भी परमार्थको चर्चा किया करते थे। पर हमारी दृष्टिमें पंडित रूपचन्द और पाण्डेयरूपचन्द भिन्न नहीं है-एक ही व्यक्ति हैं। यही रूपचन्द बनारसीदासके गुरु हैं और बनारसीदास इनसे अध्यात्मचर्चा करते थे।
पाण्डेयरूपचन्दका समय बनारसीदासके समयके आसपास है । महाकवि बनारसोबासका जन्म सं० १६४३ में हुआ और पाण्डेय रूपचन्द इनसे अवस्थामें कुछ बड़े ही होंगे। बहुत संभव है कि इनका जन्म सं०१६४०के आसपास हुआ होगा। अर्धकथानकमें बनारसीदासने पाण्डेय रूपचन्दका उल्लेख किया है। अतएव इनका समय वि०को १७वीं शती सुनिश्चित है। रूपचन्दने संस्कृत और हिन्दी इन दोनों भाषामि रचनाएं लिखी हैं । इन द्वारा संस्कृत में लिखित समवशरणपूला अथवा केवल शान-चर्चा ग्रन्थ उपलब्ध हैं । इस ग्रन्थकी प्रशस्तिमें पाण्डेय रूपचन्दने अपना परिचय प्रस्तुन किया है। हिन्दी में इनके द्वारा लिखित रचनाएं अध्यात्म, भक्ति और रूपक काव्य-सम्बन्धी हैं | इन रचनाओंसे इनके शास्त्रीय और काव्यात्मक ज्ञानका अनुमान किया जा सकता है। पाण्डेयरूपचन्द सहज कवि हैं । इनकी रचनाओंमें सहज स्वाभाविकता पाई जाती है ।
इसमें १०१ दोहों का संग्रह है। ये सभी दोहे अध्यात्म-विषयक हैं। कविने विषय-वासनाको अनित्यता, क्षण भंगुरता और असारताका सजीव चित्रण किया है। प्रत्येक दोहेके प्रथम चरण में विषयजनित्त दुःस्त्र तथा उसके सुपभोगसे उत्पन्न असन्तोष और दोहेके दूसरे चरण में उपमान या दृष्टान्त द्वारा पूर्व कथनकी पुष्टि की गई है । प्रायः समस्त दोहोंमें अर्थान्तरन्यास पाया जाता है।
विषयन सेवत हउ भले, तृष्णा तउ न बुझाय ।
जिमि जल वारा पीव तइ, बालइ तिस अधिकाय ॥
विषमन सेवत दुःख बड़इ, देखहु किन जिन जोइ ।
खाज खुजावत ही भला, पुनि दुःख इनउ होय ॥९॥
सेवस ही जु मधुर विषय, करुए होंहि निदान ।
विषफल मीठे खातके, अंतहि हरहिं परान ॥१२॥
विषय-सुखोंको निस्सारता दिखलानेके पश्चात् कवि सहज सुखका वर्णन करता है, जिसके प्राप्त होते आत्मा निहाल हो जाती है। यह सहल सुख स्थात्मानुभूतिरूप है । जिस प्रकार पाषाणमें सुवर्ण, पुष्पमें गन्ध, तिल में तेल व्याप्त है, उसी प्रकार आस्मा प्रत्येक घटमें विद्यमान है। जो व्यक्ति जड़-चेसन का परिझानी है, जिसने दोनों दृश्योंके स्वभावको भली प्रकार अवगत कर लिया है, वही व्यक्ति ज्ञानदर्शन-चैतन्यात्मक स्वपरिणतिका अनुभवकर सहल सुखको प्राप्त कर सकता है । कविने सहज सुखको विवेचित करते हुए लिखा है
चेतन सहज सुख ही बिना, इहु तृष्णा न बुझाइ ।
सहज समिनिसाहत नगद जगन माम मुगाई ।।३।।
यह एक छोटी-सी कृति है । इसमें १६ पद्य है और सभी पद्य आध्यात्मिक हैं। जीवनको सम्बोधन कर उसे राग देष-मोहसे पृथक रहनेकी चेतावनी दी गई है । आत्माका वास्तविक स्वरूप सत्, चित् आनन्दमय है। इस स्वरूपको जीव अपनी पुरुषार्थहीनताके कारण भूल जाता है और रागद्वैषरूपी विकृतिको ही अपना निजरूप मान लेता है । इस विकारसे दूर रहने के लिए कवि बार-बार चेतावनी देता है। पहला पद निम्न प्रकार है--
चेतन हो चेत न चेतक काहिन हो ।
गाफिल होइ न कहा रहे विधिवस हो ।
............................."चेतन हो ॥
१०१ कवित्त और सवेया छन्दोंका यह संग्रह है। जैन सिद्धान्त भवन आराकी हस्तलिखित प्रतिमें इसे रूपचन्द-शतक कहा गया है। समस्त छन्द अध्यात्मपूर्ण है । जीवन, जगत और जीवकी वर्तमान विकृत अवस्थाका चित्रण इन सवैयों में पाया जाता है । कविने लिखा है कि यह जीब महासूखकी शय्याका त्यागकर क्षणिक सुम्न के प्रलोभनमें आकर संसारम भट कता है और अनेक प्रकारके कष्टोंको सहन करता है। मिथ्यात्व-आत्मानुभव से बहिर्मुख प्रवृत्ति का निरोच समतारसके उत्पन्न होनेपर ही प्राप्त होता है । यह समता आत्माका निजी पुरुषार्थ है । जब समस्त परद्रयों के संयोगको छोड़ आत्मा अपने स्वरूप में विचरण करने लगता है, तो समतारसकी प्राप्ति होती है। कविने इस समतारसका विवेचन निम्न प्रकार किया है
भूल गयो निज सेज महासुख, मान रह्यो सुख सेज पराई ।
आस-हुतासन तेज महा जिहि, सेज अनेक अनन्त जराई॥
कित पूरी भई जु मिथ्यामतिकी इति, भेवविज्ञान घटा जु भराई ।
उमग्यौ समितारस मेव महा. जिह वेग हि आस-हुतास सिराई ।।८।।
यदि आत्मा मिथ्या स्थितिको दूर कर समतारसका पान करने लगे, तो उसे अपने में परमात्माका दर्शन हो सकता है, क्योंकि कर्म आदि परसंयोगी हैं । जिस प्रकार दूध और पानी मिल जानेपर एक प्रतीत होते हैं, पर वास्तवमें उनका गुण-धर्म पृथक-पृथक है । जो व्यक्ति दुव्य और तत्त्वोंके स्वभावको यथार्थ रूपमें अवगत कर निमओ रूपका अनुभव करता है उसका उत्थान स्वयमेव हो जाता है। यह सत्य है कि उत्पाद-व्ययत्रीव्यात्मक उस आत्मतत्वकी प्राप्ति निजानुभूतिसे ही होती है और उसीसे मिथ्यात्वका भय भी होता है। कविने उक्त तथ्यपर बहुत ही सुन्दर प्रकाश डाला है :
काहू न मिलायौ जाने करम-संजोगी सदा,
छोर नीर पाइयो अनादि हीका धरा है ।
अमिल मिलाय जड़ जीव गुन भेद न्यारे,
न्यारे पर भाव परि आप होमें धरा है |
काइ भरमायौ नाहिं भम्यो भूल आपन ही,
आपने प्रकास के विभाव भिन्न घरा है।
साचे अविनासी परमातम प्रगट भयो,
नास्यो है मिथ्यात वस्यो वहाँ ग्यान धरा है ।।१५।।
खटोलनागोत छोटी-सी कृत्ति है। इसमें कुल १३ पद्य हैं। यह रूपक काव्य है। कविने बताया है कि संसाररूपी मन्दिरमें एक खटोला है, जिसमें कोधादि चार पग हैं। काम और कपटका सिरा है और चिन्ता और रतिकी पाटी है । यह अविरतिके बानोंसे बुना है और उसमें आशा की आइवाइन लगायी गयी है । मनरूपी बढ़ईने विविध कौंको सहायतासे उसका निर्माण किया है। जीवरूपी पथिक इस खटोलेपर अनादिकालसे लेटा हुआ मोहकी गहरी निद्रामें सो रहा है। पांच पापरूपी चोरोंने उसकी संयम रूपी संपत्तिको चुरा लिया है । मोहनिद्राके भंग न होने के कारण ही यह आत्मा निर्वाण-सुखसे वंचित है। वीतरागी गुरु या तीर्थकरके उपदेशसे यह काल रात्रि समाप्त हो सकती है और सम्यक्त्वरूपी सूर्यका उदय हो सकता है । कवि ने इस प्रकार शरीरको खटोलाका रूपक देकर अध्यात्मिक तत्वोंका विवेचन किया है । पद्य बहुत ही सुन्दर और काव्यचमत्कारपूर्ण है। उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियाँ उद्धत को जाती हैं
भव रतिमंदिर पौठियो, खटोला मेरो, कोपादिक पग चारि।
काम कपट सीरा दोक, चिन्ता रति दोउ पाटि ॥
अविरति दिन बानि बुनो, मिथ्या माई विसाल।
आशा-अडवाइनि दई, शंकादिक वसु साल ॥
राग-द्वेष दोउ गडुवा, कुमति सुकोमल सौरि ।
जीच-पथिक तह पोडियो, परपरिणति संग गोरि ॥४॥
रूपचन्दके बाद मामा की हमें उरलाई हो चुके हैं। ये भी पद भक्तिरससे पूर्ण है। कविने अपने आराध्यकी भक्ति करते हुए उसके रूप-लावण्यका विवेचन किया है। कवि एक पदमें अपने आराध्यके मुखको अपूर्व चन्द्रमा बसलाता है और इस अपूर्व चन्द्रमाकी सर्क द्वारा पुष्टि करता है
प्रभु मुख-चन्द अपूरब तेरौं ।
संसत सकल-कला-परिपूरन,
पारे तुम तिहुँ जगत उजेरो प्रभु०।
निरूप-गग निरदोष निरंजनु,
निरावरनु जड़ जाय निवेरो।
कुमुद विरोषि कृसी कृतसागरु,
अहि निसि अमृत श्रचे जु घनेरी प्रभु० ॥२।।
उदै अस्त बन रहितु निरन्तरू,
सुर नर मुनि आनन्द जनेरी॥
रूपचन्द इमि नैनन देवत्ति,
हरषित मन-चकोर भयो मेरो प्रभु० ॥३॥
-इस रचनासे प्रायः सभी लोग सपरिचित हैं। कविने तीर्थकरके पञ्चकल्याणकोंकी माथा काव्यरूपमें निबद्ध की है।
पं० रूपचन्द्र और पाण्डेय रूपचन्द्र दोनों अभिन्न व्यक्ति प्रतीत होते हैं। महाकवि बनारसीदासने इन दोनोंका उल्लेख किया है। नाटकसमयसारकी प्रशस्तिमें रूपचन्दप द्धित कहा है और अर्द्धकथानक पाण्डेय रूपचन्द कहा गया है । बनारसीदासने अपने गुरुरूपमें पाण्डेय रूपचन्दका उल्लेख करते हुए लिखा है
तब बनारसी और भयो । स्यादवाद परिनति परिनयो ।
पांढ़े रूपचन्द्र गुरु पास । सुन्यो ग्रन्थ मन भयो हुलास ॥
फिर तिस समै बरम बीच । रूपचन्दको आई मीच ।
सुनि-सुनि रूपचन्दके बैन । बानारसी भयो दिढ़ जेन ॥
उक्त उद्धरणो की मेगा सन्तान होगा 'क पंडित रूपचन्द्र और पाण्डेय रूपचन्द्र अभिन्न व्यक्ति हैं । ये महाकवि बनारसीदागके गुरु हैं । बनारसीदास रूपचन्दका परिचय प्ररतुत करते का बताया है कि इनका जन्म-स्थान कोइदेश में स्थित सलेमपुर था । ये गर्गगोत्री अग्रवाल कुल के भूषण थे। इनके पितामहका माम भामह और पिताका नाम भगवानदास था | भगवानदासकी दो पत्नियों थीं, जिनमे प्रथमरे ब्रह्मदास नामक पुत्रका जन्म हुआ और दूसरी पत्नासे पाँच पुत्र हा.-१. हरिगज, २. भपति, ३. अभयराज, ४, कोत्तिचन्द, ५. रूपचन्द ।
यह रूपचन्न ही रूपचन्द पाण्डेय हैं। भारतीय पंडित होनेके कारण इनकी उपाधि पाण्डेय थी। ये जैन-सिद्धान्तके मर्मज्ञ विद्वान थे । और शिक्षा अर्जनहेतु बनारसकी यात्रा को थी । महाकवि बनारसीदासने इन्हों रूपचन्द को अपना गुरु बताया है और पाण्डेयशब्दसे उनका उल्लेख किया है।
जब महाकवि बनारसीदासको व्यवसायके हेतु आगराको यात्रा करनी पड़ी थी और व्यापार में असफल होनेके कारण आग रामें उनका समय काव्य रचना लिखने और विद्वानोंको गोष्ठीमें सम्मिलित होने में व्यतीत होता था, तभी सं० १६९२में इनके गुरु पाण्डेयरूपचन्दका आगरा में आगमन हुआ।
सोलहसै बानबे लौं, कियो नियत रसपान ।
पै कवीसुरी सब सब भई, स्याद्वाद परवान ।
अगायास इस ही समय, नगर आगरे थान ।
रूपचन्द पंडित गनी, आयो आगम जान ।
-अर्द्धकथानक पृ० ५७, पद्य ६२२-६३०
इन्होंने आगरा में तिहुना नामक मन्दिरमें डेरा डाला। उनके आगमनसे बनारसीदासको पर्याप्त प्रोत्साहन मिला । यहाँ इन्हीं पापडेयरूपचन्दसे कविने गोम्मटसार-प्रन्थको व्याख्या सुनी थी | सं० १६९४में पाण्डेयरूपचन्दकी मुत्यु हो गई।
श्री पं० श्रीनाथूरामजी प्रेमीने रूपचन्चको पाण्डेयरूपचन्दसे भिन्न माना है। उन्होंने बताया है कि कवि बनारसीदासने अपने नाटकसमयसारमें अपने जिन पांच साथियों का उल्लेख किया है। उनमें एक रूपचन्द भी हैं, जो पाण्डेय रूपचन्दसे भिन्न है । बनारसीदास इन रूपचन्दके साथ भी परमार्थको चर्चा किया करते थे। पर हमारी दृष्टिमें पंडित रूपचन्द और पाण्डेयरूपचन्द भिन्न नहीं है-एक ही व्यक्ति हैं। यही रूपचन्द बनारसीदासके गुरु हैं और बनारसीदास इनसे अध्यात्मचर्चा करते थे।
पाण्डेयरूपचन्दका समय बनारसीदासके समयके आसपास है । महाकवि बनारसोबासका जन्म सं० १६४३ में हुआ और पाण्डेय रूपचन्द इनसे अवस्थामें कुछ बड़े ही होंगे। बहुत संभव है कि इनका जन्म सं०१६४०के आसपास हुआ होगा। अर्धकथानकमें बनारसीदासने पाण्डेय रूपचन्दका उल्लेख किया है। अतएव इनका समय वि०को १७वीं शती सुनिश्चित है। रूपचन्दने संस्कृत और हिन्दी इन दोनों भाषामि रचनाएं लिखी हैं । इन द्वारा संस्कृत में लिखित समवशरणपूला अथवा केवल शान-चर्चा ग्रन्थ उपलब्ध हैं । इस ग्रन्थकी प्रशस्तिमें पाण्डेय रूपचन्दने अपना परिचय प्रस्तुन किया है। हिन्दी में इनके द्वारा लिखित रचनाएं अध्यात्म, भक्ति और रूपक काव्य-सम्बन्धी हैं | इन रचनाओंसे इनके शास्त्रीय और काव्यात्मक ज्ञानका अनुमान किया जा सकता है। पाण्डेयरूपचन्द सहज कवि हैं । इनकी रचनाओंमें सहज स्वाभाविकता पाई जाती है ।
इसमें १०१ दोहों का संग्रह है। ये सभी दोहे अध्यात्म-विषयक हैं। कविने विषय-वासनाको अनित्यता, क्षण भंगुरता और असारताका सजीव चित्रण किया है। प्रत्येक दोहेके प्रथम चरण में विषयजनित्त दुःस्त्र तथा उसके सुपभोगसे उत्पन्न असन्तोष और दोहेके दूसरे चरण में उपमान या दृष्टान्त द्वारा पूर्व कथनकी पुष्टि की गई है । प्रायः समस्त दोहोंमें अर्थान्तरन्यास पाया जाता है।
विषयन सेवत हउ भले, तृष्णा तउ न बुझाय ।
जिमि जल वारा पीव तइ, बालइ तिस अधिकाय ॥
विषमन सेवत दुःख बड़इ, देखहु किन जिन जोइ ।
खाज खुजावत ही भला, पुनि दुःख इनउ होय ॥९॥
सेवस ही जु मधुर विषय, करुए होंहि निदान ।
विषफल मीठे खातके, अंतहि हरहिं परान ॥१२॥
विषय-सुखोंको निस्सारता दिखलानेके पश्चात् कवि सहज सुखका वर्णन करता है, जिसके प्राप्त होते आत्मा निहाल हो जाती है। यह सहल सुख स्थात्मानुभूतिरूप है । जिस प्रकार पाषाणमें सुवर्ण, पुष्पमें गन्ध, तिल में तेल व्याप्त है, उसी प्रकार आस्मा प्रत्येक घटमें विद्यमान है। जो व्यक्ति जड़-चेसन का परिझानी है, जिसने दोनों दृश्योंके स्वभावको भली प्रकार अवगत कर लिया है, वही व्यक्ति ज्ञानदर्शन-चैतन्यात्मक स्वपरिणतिका अनुभवकर सहल सुखको प्राप्त कर सकता है । कविने सहज सुखको विवेचित करते हुए लिखा है
चेतन सहज सुख ही बिना, इहु तृष्णा न बुझाइ ।
सहज समिनिसाहत नगद जगन माम मुगाई ।।३।।
यह एक छोटी-सी कृति है । इसमें १६ पद्य है और सभी पद्य आध्यात्मिक हैं। जीवनको सम्बोधन कर उसे राग देष-मोहसे पृथक रहनेकी चेतावनी दी गई है । आत्माका वास्तविक स्वरूप सत्, चित् आनन्दमय है। इस स्वरूपको जीव अपनी पुरुषार्थहीनताके कारण भूल जाता है और रागद्वैषरूपी विकृतिको ही अपना निजरूप मान लेता है । इस विकारसे दूर रहने के लिए कवि बार-बार चेतावनी देता है। पहला पद निम्न प्रकार है--
चेतन हो चेत न चेतक काहिन हो ।
गाफिल होइ न कहा रहे विधिवस हो ।
............................."चेतन हो ॥
१०१ कवित्त और सवेया छन्दोंका यह संग्रह है। जैन सिद्धान्त भवन आराकी हस्तलिखित प्रतिमें इसे रूपचन्द-शतक कहा गया है। समस्त छन्द अध्यात्मपूर्ण है । जीवन, जगत और जीवकी वर्तमान विकृत अवस्थाका चित्रण इन सवैयों में पाया जाता है । कविने लिखा है कि यह जीब महासूखकी शय्याका त्यागकर क्षणिक सुम्न के प्रलोभनमें आकर संसारम भट कता है और अनेक प्रकारके कष्टोंको सहन करता है। मिथ्यात्व-आत्मानुभव से बहिर्मुख प्रवृत्ति का निरोच समतारसके उत्पन्न होनेपर ही प्राप्त होता है । यह समता आत्माका निजी पुरुषार्थ है । जब समस्त परद्रयों के संयोगको छोड़ आत्मा अपने स्वरूप में विचरण करने लगता है, तो समतारसकी प्राप्ति होती है। कविने इस समतारसका विवेचन निम्न प्रकार किया है
भूल गयो निज सेज महासुख, मान रह्यो सुख सेज पराई ।
आस-हुतासन तेज महा जिहि, सेज अनेक अनन्त जराई॥
कित पूरी भई जु मिथ्यामतिकी इति, भेवविज्ञान घटा जु भराई ।
उमग्यौ समितारस मेव महा. जिह वेग हि आस-हुतास सिराई ।।८।।
यदि आत्मा मिथ्या स्थितिको दूर कर समतारसका पान करने लगे, तो उसे अपने में परमात्माका दर्शन हो सकता है, क्योंकि कर्म आदि परसंयोगी हैं । जिस प्रकार दूध और पानी मिल जानेपर एक प्रतीत होते हैं, पर वास्तवमें उनका गुण-धर्म पृथक-पृथक है । जो व्यक्ति दुव्य और तत्त्वोंके स्वभावको यथार्थ रूपमें अवगत कर निमओ रूपका अनुभव करता है उसका उत्थान स्वयमेव हो जाता है। यह सत्य है कि उत्पाद-व्ययत्रीव्यात्मक उस आत्मतत्वकी प्राप्ति निजानुभूतिसे ही होती है और उसीसे मिथ्यात्वका भय भी होता है। कविने उक्त तथ्यपर बहुत ही सुन्दर प्रकाश डाला है :
काहू न मिलायौ जाने करम-संजोगी सदा,
छोर नीर पाइयो अनादि हीका धरा है ।
अमिल मिलाय जड़ जीव गुन भेद न्यारे,
न्यारे पर भाव परि आप होमें धरा है |
काइ भरमायौ नाहिं भम्यो भूल आपन ही,
आपने प्रकास के विभाव भिन्न घरा है।
साचे अविनासी परमातम प्रगट भयो,
नास्यो है मिथ्यात वस्यो वहाँ ग्यान धरा है ।।१५।।
खटोलनागोत छोटी-सी कृत्ति है। इसमें कुल १३ पद्य हैं। यह रूपक काव्य है। कविने बताया है कि संसाररूपी मन्दिरमें एक खटोला है, जिसमें कोधादि चार पग हैं। काम और कपटका सिरा है और चिन्ता और रतिकी पाटी है । यह अविरतिके बानोंसे बुना है और उसमें आशा की आइवाइन लगायी गयी है । मनरूपी बढ़ईने विविध कौंको सहायतासे उसका निर्माण किया है। जीवरूपी पथिक इस खटोलेपर अनादिकालसे लेटा हुआ मोहकी गहरी निद्रामें सो रहा है। पांच पापरूपी चोरोंने उसकी संयम रूपी संपत्तिको चुरा लिया है । मोहनिद्राके भंग न होने के कारण ही यह आत्मा निर्वाण-सुखसे वंचित है। वीतरागी गुरु या तीर्थकरके उपदेशसे यह काल रात्रि समाप्त हो सकती है और सम्यक्त्वरूपी सूर्यका उदय हो सकता है । कवि ने इस प्रकार शरीरको खटोलाका रूपक देकर अध्यात्मिक तत्वोंका विवेचन किया है । पद्य बहुत ही सुन्दर और काव्यचमत्कारपूर्ण है। उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियाँ उद्धत को जाती हैं
भव रतिमंदिर पौठियो, खटोला मेरो, कोपादिक पग चारि।
काम कपट सीरा दोक, चिन्ता रति दोउ पाटि ॥
अविरति दिन बानि बुनो, मिथ्या माई विसाल।
आशा-अडवाइनि दई, शंकादिक वसु साल ॥
राग-द्वेष दोउ गडुवा, कुमति सुकोमल सौरि ।
जीच-पथिक तह पोडियो, परपरिणति संग गोरि ॥४॥
रूपचन्दके बाद मामा की हमें उरलाई हो चुके हैं। ये भी पद भक्तिरससे पूर्ण है। कविने अपने आराध्यकी भक्ति करते हुए उसके रूप-लावण्यका विवेचन किया है। कवि एक पदमें अपने आराध्यके मुखको अपूर्व चन्द्रमा बसलाता है और इस अपूर्व चन्द्रमाकी सर्क द्वारा पुष्टि करता है
प्रभु मुख-चन्द अपूरब तेरौं ।
संसत सकल-कला-परिपूरन,
पारे तुम तिहुँ जगत उजेरो प्रभु०।
निरूप-गग निरदोष निरंजनु,
निरावरनु जड़ जाय निवेरो।
कुमुद विरोषि कृसी कृतसागरु,
अहि निसि अमृत श्रचे जु घनेरी प्रभु० ॥२।।
उदै अस्त बन रहितु निरन्तरू,
सुर नर मुनि आनन्द जनेरी॥
रूपचन्द इमि नैनन देवत्ति,
हरषित मन-चकोर भयो मेरो प्रभु० ॥३॥
-इस रचनासे प्रायः सभी लोग सपरिचित हैं। कविने तीर्थकरके पञ्चकल्याणकोंकी माथा काव्यरूपमें निबद्ध की है।
#PanditRoopchand
आचार्यतुल्य पंडित रूपचंद 17वीं शताब्दी (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 28 मई 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 28 May 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
पं० रूपचन्द्र और पाण्डेय रूपचन्द्र दोनों अभिन्न व्यक्ति प्रतीत होते हैं। महाकवि बनारसीदासने इन दोनोंका उल्लेख किया है। नाटकसमयसारकी प्रशस्तिमें रूपचन्दप द्धित कहा है और अर्द्धकथानक पाण्डेय रूपचन्द कहा गया है । बनारसीदासने अपने गुरुरूपमें पाण्डेय रूपचन्दका उल्लेख करते हुए लिखा है
तब बनारसी और भयो । स्यादवाद परिनति परिनयो ।
पांढ़े रूपचन्द्र गुरु पास । सुन्यो ग्रन्थ मन भयो हुलास ॥
फिर तिस समै बरम बीच । रूपचन्दको आई मीच ।
सुनि-सुनि रूपचन्दके बैन । बानारसी भयो दिढ़ जेन ॥
उक्त उद्धरणो की मेगा सन्तान होगा 'क पंडित रूपचन्द्र और पाण्डेय रूपचन्द्र अभिन्न व्यक्ति हैं । ये महाकवि बनारसीदागके गुरु हैं । बनारसीदास रूपचन्दका परिचय प्ररतुत करते का बताया है कि इनका जन्म-स्थान कोइदेश में स्थित सलेमपुर था । ये गर्गगोत्री अग्रवाल कुल के भूषण थे। इनके पितामहका माम भामह और पिताका नाम भगवानदास था | भगवानदासकी दो पत्नियों थीं, जिनमे प्रथमरे ब्रह्मदास नामक पुत्रका जन्म हुआ और दूसरी पत्नासे पाँच पुत्र हा.-१. हरिगज, २. भपति, ३. अभयराज, ४, कोत्तिचन्द, ५. रूपचन्द ।
यह रूपचन्न ही रूपचन्द पाण्डेय हैं। भारतीय पंडित होनेके कारण इनकी उपाधि पाण्डेय थी। ये जैन-सिद्धान्तके मर्मज्ञ विद्वान थे । और शिक्षा अर्जनहेतु बनारसकी यात्रा को थी । महाकवि बनारसीदासने इन्हों रूपचन्द को अपना गुरु बताया है और पाण्डेयशब्दसे उनका उल्लेख किया है।
जब महाकवि बनारसीदासको व्यवसायके हेतु आगराको यात्रा करनी पड़ी थी और व्यापार में असफल होनेके कारण आग रामें उनका समय काव्य रचना लिखने और विद्वानोंको गोष्ठीमें सम्मिलित होने में व्यतीत होता था, तभी सं० १६९२में इनके गुरु पाण्डेयरूपचन्दका आगरा में आगमन हुआ।
सोलहसै बानबे लौं, कियो नियत रसपान ।
पै कवीसुरी सब सब भई, स्याद्वाद परवान ।
अगायास इस ही समय, नगर आगरे थान ।
रूपचन्द पंडित गनी, आयो आगम जान ।
-अर्द्धकथानक पृ० ५७, पद्य ६२२-६३०
इन्होंने आगरा में तिहुना नामक मन्दिरमें डेरा डाला। उनके आगमनसे बनारसीदासको पर्याप्त प्रोत्साहन मिला । यहाँ इन्हीं पापडेयरूपचन्दसे कविने गोम्मटसार-प्रन्थको व्याख्या सुनी थी | सं० १६९४में पाण्डेयरूपचन्दकी मुत्यु हो गई।
श्री पं० श्रीनाथूरामजी प्रेमीने रूपचन्चको पाण्डेयरूपचन्दसे भिन्न माना है। उन्होंने बताया है कि कवि बनारसीदासने अपने नाटकसमयसारमें अपने जिन पांच साथियों का उल्लेख किया है। उनमें एक रूपचन्द भी हैं, जो पाण्डेय रूपचन्दसे भिन्न है । बनारसीदास इन रूपचन्दके साथ भी परमार्थको चर्चा किया करते थे। पर हमारी दृष्टिमें पंडित रूपचन्द और पाण्डेयरूपचन्द भिन्न नहीं है-एक ही व्यक्ति हैं। यही रूपचन्द बनारसीदासके गुरु हैं और बनारसीदास इनसे अध्यात्मचर्चा करते थे।
पाण्डेयरूपचन्दका समय बनारसीदासके समयके आसपास है । महाकवि बनारसोबासका जन्म सं० १६४३ में हुआ और पाण्डेय रूपचन्द इनसे अवस्थामें कुछ बड़े ही होंगे। बहुत संभव है कि इनका जन्म सं०१६४०के आसपास हुआ होगा। अर्धकथानकमें बनारसीदासने पाण्डेय रूपचन्दका उल्लेख किया है। अतएव इनका समय वि०को १७वीं शती सुनिश्चित है। रूपचन्दने संस्कृत और हिन्दी इन दोनों भाषामि रचनाएं लिखी हैं । इन द्वारा संस्कृत में लिखित समवशरणपूला अथवा केवल शान-चर्चा ग्रन्थ उपलब्ध हैं । इस ग्रन्थकी प्रशस्तिमें पाण्डेय रूपचन्दने अपना परिचय प्रस्तुन किया है। हिन्दी में इनके द्वारा लिखित रचनाएं अध्यात्म, भक्ति और रूपक काव्य-सम्बन्धी हैं | इन रचनाओंसे इनके शास्त्रीय और काव्यात्मक ज्ञानका अनुमान किया जा सकता है। पाण्डेयरूपचन्द सहज कवि हैं । इनकी रचनाओंमें सहज स्वाभाविकता पाई जाती है ।
इसमें १०१ दोहों का संग्रह है। ये सभी दोहे अध्यात्म-विषयक हैं। कविने विषय-वासनाको अनित्यता, क्षण भंगुरता और असारताका सजीव चित्रण किया है। प्रत्येक दोहेके प्रथम चरण में विषयजनित्त दुःस्त्र तथा उसके सुपभोगसे उत्पन्न असन्तोष और दोहेके दूसरे चरण में उपमान या दृष्टान्त द्वारा पूर्व कथनकी पुष्टि की गई है । प्रायः समस्त दोहोंमें अर्थान्तरन्यास पाया जाता है।
विषयन सेवत हउ भले, तृष्णा तउ न बुझाय ।
जिमि जल वारा पीव तइ, बालइ तिस अधिकाय ॥
विषमन सेवत दुःख बड़इ, देखहु किन जिन जोइ ।
खाज खुजावत ही भला, पुनि दुःख इनउ होय ॥९॥
सेवस ही जु मधुर विषय, करुए होंहि निदान ।
विषफल मीठे खातके, अंतहि हरहिं परान ॥१२॥
विषय-सुखोंको निस्सारता दिखलानेके पश्चात् कवि सहज सुखका वर्णन करता है, जिसके प्राप्त होते आत्मा निहाल हो जाती है। यह सहल सुख स्थात्मानुभूतिरूप है । जिस प्रकार पाषाणमें सुवर्ण, पुष्पमें गन्ध, तिल में तेल व्याप्त है, उसी प्रकार आस्मा प्रत्येक घटमें विद्यमान है। जो व्यक्ति जड़-चेसन का परिझानी है, जिसने दोनों दृश्योंके स्वभावको भली प्रकार अवगत कर लिया है, वही व्यक्ति ज्ञानदर्शन-चैतन्यात्मक स्वपरिणतिका अनुभवकर सहल सुखको प्राप्त कर सकता है । कविने सहज सुखको विवेचित करते हुए लिखा है
चेतन सहज सुख ही बिना, इहु तृष्णा न बुझाइ ।
सहज समिनिसाहत नगद जगन माम मुगाई ।।३।।
यह एक छोटी-सी कृति है । इसमें १६ पद्य है और सभी पद्य आध्यात्मिक हैं। जीवनको सम्बोधन कर उसे राग देष-मोहसे पृथक रहनेकी चेतावनी दी गई है । आत्माका वास्तविक स्वरूप सत्, चित् आनन्दमय है। इस स्वरूपको जीव अपनी पुरुषार्थहीनताके कारण भूल जाता है और रागद्वैषरूपी विकृतिको ही अपना निजरूप मान लेता है । इस विकारसे दूर रहने के लिए कवि बार-बार चेतावनी देता है। पहला पद निम्न प्रकार है--
चेतन हो चेत न चेतक काहिन हो ।
गाफिल होइ न कहा रहे विधिवस हो ।
............................."चेतन हो ॥
१०१ कवित्त और सवेया छन्दोंका यह संग्रह है। जैन सिद्धान्त भवन आराकी हस्तलिखित प्रतिमें इसे रूपचन्द-शतक कहा गया है। समस्त छन्द अध्यात्मपूर्ण है । जीवन, जगत और जीवकी वर्तमान विकृत अवस्थाका चित्रण इन सवैयों में पाया जाता है । कविने लिखा है कि यह जीब महासूखकी शय्याका त्यागकर क्षणिक सुम्न के प्रलोभनमें आकर संसारम भट कता है और अनेक प्रकारके कष्टोंको सहन करता है। मिथ्यात्व-आत्मानुभव से बहिर्मुख प्रवृत्ति का निरोच समतारसके उत्पन्न होनेपर ही प्राप्त होता है । यह समता आत्माका निजी पुरुषार्थ है । जब समस्त परद्रयों के संयोगको छोड़ आत्मा अपने स्वरूप में विचरण करने लगता है, तो समतारसकी प्राप्ति होती है। कविने इस समतारसका विवेचन निम्न प्रकार किया है
भूल गयो निज सेज महासुख, मान रह्यो सुख सेज पराई ।
आस-हुतासन तेज महा जिहि, सेज अनेक अनन्त जराई॥
कित पूरी भई जु मिथ्यामतिकी इति, भेवविज्ञान घटा जु भराई ।
उमग्यौ समितारस मेव महा. जिह वेग हि आस-हुतास सिराई ।।८।।
यदि आत्मा मिथ्या स्थितिको दूर कर समतारसका पान करने लगे, तो उसे अपने में परमात्माका दर्शन हो सकता है, क्योंकि कर्म आदि परसंयोगी हैं । जिस प्रकार दूध और पानी मिल जानेपर एक प्रतीत होते हैं, पर वास्तवमें उनका गुण-धर्म पृथक-पृथक है । जो व्यक्ति दुव्य और तत्त्वोंके स्वभावको यथार्थ रूपमें अवगत कर निमओ रूपका अनुभव करता है उसका उत्थान स्वयमेव हो जाता है। यह सत्य है कि उत्पाद-व्ययत्रीव्यात्मक उस आत्मतत्वकी प्राप्ति निजानुभूतिसे ही होती है और उसीसे मिथ्यात्वका भय भी होता है। कविने उक्त तथ्यपर बहुत ही सुन्दर प्रकाश डाला है :
काहू न मिलायौ जाने करम-संजोगी सदा,
छोर नीर पाइयो अनादि हीका धरा है ।
अमिल मिलाय जड़ जीव गुन भेद न्यारे,
न्यारे पर भाव परि आप होमें धरा है |
काइ भरमायौ नाहिं भम्यो भूल आपन ही,
आपने प्रकास के विभाव भिन्न घरा है।
साचे अविनासी परमातम प्रगट भयो,
नास्यो है मिथ्यात वस्यो वहाँ ग्यान धरा है ।।१५।।
खटोलनागोत छोटी-सी कृत्ति है। इसमें कुल १३ पद्य हैं। यह रूपक काव्य है। कविने बताया है कि संसाररूपी मन्दिरमें एक खटोला है, जिसमें कोधादि चार पग हैं। काम और कपटका सिरा है और चिन्ता और रतिकी पाटी है । यह अविरतिके बानोंसे बुना है और उसमें आशा की आइवाइन लगायी गयी है । मनरूपी बढ़ईने विविध कौंको सहायतासे उसका निर्माण किया है। जीवरूपी पथिक इस खटोलेपर अनादिकालसे लेटा हुआ मोहकी गहरी निद्रामें सो रहा है। पांच पापरूपी चोरोंने उसकी संयम रूपी संपत्तिको चुरा लिया है । मोहनिद्राके भंग न होने के कारण ही यह आत्मा निर्वाण-सुखसे वंचित है। वीतरागी गुरु या तीर्थकरके उपदेशसे यह काल रात्रि समाप्त हो सकती है और सम्यक्त्वरूपी सूर्यका उदय हो सकता है । कवि ने इस प्रकार शरीरको खटोलाका रूपक देकर अध्यात्मिक तत्वोंका विवेचन किया है । पद्य बहुत ही सुन्दर और काव्यचमत्कारपूर्ण है। उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियाँ उद्धत को जाती हैं
भव रतिमंदिर पौठियो, खटोला मेरो, कोपादिक पग चारि।
काम कपट सीरा दोक, चिन्ता रति दोउ पाटि ॥
अविरति दिन बानि बुनो, मिथ्या माई विसाल।
आशा-अडवाइनि दई, शंकादिक वसु साल ॥
राग-द्वेष दोउ गडुवा, कुमति सुकोमल सौरि ।
जीच-पथिक तह पोडियो, परपरिणति संग गोरि ॥४॥
रूपचन्दके बाद मामा की हमें उरलाई हो चुके हैं। ये भी पद भक्तिरससे पूर्ण है। कविने अपने आराध्यकी भक्ति करते हुए उसके रूप-लावण्यका विवेचन किया है। कवि एक पदमें अपने आराध्यके मुखको अपूर्व चन्द्रमा बसलाता है और इस अपूर्व चन्द्रमाकी सर्क द्वारा पुष्टि करता है
प्रभु मुख-चन्द अपूरब तेरौं ।
संसत सकल-कला-परिपूरन,
पारे तुम तिहुँ जगत उजेरो प्रभु०।
निरूप-गग निरदोष निरंजनु,
निरावरनु जड़ जाय निवेरो।
कुमुद विरोषि कृसी कृतसागरु,
अहि निसि अमृत श्रचे जु घनेरी प्रभु० ॥२।।
उदै अस्त बन रहितु निरन्तरू,
सुर नर मुनि आनन्द जनेरी॥
रूपचन्द इमि नैनन देवत्ति,
हरषित मन-चकोर भयो मेरो प्रभु० ॥३॥
-इस रचनासे प्रायः सभी लोग सपरिचित हैं। कविने तीर्थकरके पञ्चकल्याणकोंकी माथा काव्यरूपमें निबद्ध की है।
Acharyatulya Pandit Roopchand 17th Century (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 28 May 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
#PanditRoopchand
15000
#PanditRoopchand
PanditRoopchand
You cannot copy content of this page