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#Ramchandramumukshu
रामचन्द्र मुमुक्षुने 'पुण्यानव-कथाकोश'को रचना की है। इस ग्रन्थकी पुष्पिकाओंमें बताया गया है कि वे दिश्यमुनि केशवनन्दिके शिष्य थे । प्रशस्तिमें लिखा है
"यो भव्याज दिवाकरो यमकरो मारेभपञ्चाननो
नानादुःखविधायिकर्मकुभूतो वञायते दिव्यधीः ।
यो योगीन्द्रनरेन्द्रवन्दितपदो विद्यार्णवोत्तीर्णवान्
ख्यातः केशवनन्दिदेवसिप: श्रीकुन्दकुन्दान्वयः ।।१।।
शिष्योऽभूत्तस्य भव्यः सकलजनहितो रामचन्द्रो मुमुक्षु
त्विा शब्दापशब्दान् सुविशदयशसः पयनम्याहयाद्वे ।
बन्द्याद वादीभसिंहात् परमयतिपते: सोन्यधाद्भव्यहती
ग्रन्थं पुण्यासवाख्यं गिरिसमितिमिते (५७) दिव्यपद्ये: कथार्थः ।।
अर्थात् आचार्य कुन्दकुन्दको वंशपरम्परामें विव्यबुद्धिके धारक केशव नन्दि नामके प्रसिद्ध यतीन्द्र हुए । वे भव्यजीवरूप कमलोंको विकसित करने के लिए सूर्यसमान, संघमके परिपालक, कामदेवरूप, हाथोके नष्ट करने में सिंहके समान पराक्रमी और अनेक दुःखोंको उत्पन्न करनेवाले कर्मरूपी पर्वतके भेदनेके लिए कठोर वनके समान थे । बड़े बड़े ऋषि और राजा महाराजा उनके चरणोंकी वन्दना करते थे। वे समस्त विद्याओं में निष्णात थे।
उनका भव्य शिष्य समस्त जनोंके हितका अभिलाषी रामचन्द्र मुमुक्षु हुआ । उसने यशस्वी पमनन्दि नामक मुनिके पासमें शब्द और अपशब्दोंको जानकर व्याकरणशास्त्रका अध्ययन करके कथाके अभिप्रायको प्रकट करने बाले ५७ पद्यों द्वारा भव्यजीवोंके निमित्त इस पुण्यानव कथा ग्रन्थको रचा है। वे पधानन्दि मुनीन्द्र फैली हुई अतिशय निर्मल कोतिसे विभूषित, वन्दनीय एवं वादीरूपी हाथियोंको परास्त करनेके लिए सिंहके समान थे । कुन्दकुन्दाचार्यको इस वंशपरम्परामें पचनन्दि विरात्रिक हुए । वे देशीयगणमें मुख्य और संघके स्वामी थे। इसके पश्चात् माधवनन्दि पंडित हुए, जो महादेवको उपमाको धारण करते थे। इनसे सिद्धान्तशास्त्रक पारंगत मासोपवासी गुणरत्नोंसे विभूषित, पंडितोंमें प्रधान वसुनन्दि सूरि हुए। वसुनन्दिके शिष्य मौलिनामक गणी हुए।
ये निरन्तर भव्यजीवरूप कमलोंके प्रफुल्लित करने में सूर्यके समान तत्पर थे । थे देवों के द्वारा बन्दनीय थे।
जनके शिष्य मनिसमूहके द्वारा बन्दनीय श्रीनन्दि सूरि हुए । उनका कात्ति चन्द्रमाके समान थी। वे ७२ कलाओं में प्रवीण थे । उन्होंने अपने ज्ञान के तेजसे सभी दिशाओंको आलोकित कर दिया था। श्रीनन्दि चार्वाक, बौद्ध, जैन, सांख्य, शैव आदि दर्शनोंके बिहान् थे ।
उपर्युक्त प्रशस्तिसे यह स्पष्ट है कि केशवनन्दि अच्छे विद्वान थे और उन्हीं शिष्य नबन्द्र मुन। रामचन्द्र महायशस्वी वादीभसिंह महामुनि पमान्दिसे व्याकरण शास्त्रका अध्ययन किया था। कुछ विद्वानोंका अभिमत है कि प्रशस्तिके अंतिम छः पद्य पीछेस जोड़े गये हैं। ये प्रशस्ति पद्य ग्रंथका मूल भाग प्रतीत नहीं होते। यह संभव है कि इस प्रशस्तिमें उल्लिखित पद्यमन्दि रामचन्द्रको व्याकरणगुरु रहे हों। प्रशस्तिका आधारपर, पद्मनन्दि, माधवनन्दि, बसुनन्दि, मोली या मौनी और श्रीनन्दि आचार्य हुए हैं। सिद्धान्त शास्त्रके ज्ञाता बसुनन्दि मूलाचारटीकाके रचयिता वसुनन्दि यदि हैं तो इनका समय १२३४ ई. के पूर्व होना चाहिए।
रामचन्द्र मुमुक्ष संस्कृत-भाषाके प्रौद्ध गद्यकार हैं। उन्होंने संस्कृत और कन्नड़ दोनों भाषाओंकी रचनाओंका पुण्यात्रवकथाकोशके रचने में उपयोग किया है । कन्नड़ भाषाके अभिज्ञ होनेसे उन्हें दक्षिणका निवासी या प्रबासी माना जा सकता है। रामचन्द्र के इस कथाकोशसे यह स्पष्ट होता है कि रच यित्ताकी कृति में व्याकरण-शैथिल्य है। उनकी शैली और मुहावरोंसे भी यहीं सिद्ध होता है।
गुरु | दिव्यमुनि केशवनन्दि |
रामचन्द्र मुमुक्षुने अपने लस्सनकाल के सम्बन्ध में कुछ भी उल्लेख नहीं किया है। इनके स्थितिकालका निर्णय ग्रन्थोंके उपयोगके आधारपर ही किया जा सकता है। इन्होंने हरिबंशपुराण, महापुराण और बृहद्वयाकोशका उपयोग किया है । हरिवंशपुराणका समय ई० सन् १७८८३, महापुराणका समय ई० सन् ८९७ और बृह्वामाकोशका ई० सन् २३१-३२ है । अतएव रामचन्द्रका समय ई० मन् की १०वीं शताब्दीके पश्चान् है । रामचन्दकी कृति के आधारसे कन्नड़ कवि नागराजने ई० सन् १३३१में कन्नडचंपूकी रचना की है । अतएव १३३१ के पूर्व इनका समय संभाव्य है। यदि प्रशस्तिमें उल्लिरिनत समुनन्दि मूला चारकी टीकाके रचयिता सिद्ध हो जायें, तो रामचन्द्रका समय १३वीं शतीके मध्यका भाग होगा।
दूसरी बात यह है कि रत्नकरण्डके टीकाकार प्रभाचन्द्रने रामचन्द्रको कथाएं इस टीकामें ग्रहण की है तो रामचन्द्र प्रभाचन्द्रसे भी पूर्व सिद्ध होंगे। हमारा अनुमान है कि पुण्यानवकथाकोशके रचयिता केशवनन्दिके शिष्य रामचन्द्र आशाधरके समकालीन या उनसे कुछ पूर्ववर्ती हैं ।
रामचन्द्र मुमुक्षुको पूण्यासवकथाकोशके साथ शान्तिनाथचरित कृति भी बतलायो जाती है । पचनन्दिके शिष्य रामचन्द्र द्वारा रचित धर्मपरीक्षा ग्रन्थ भी संभव है। पुण्यालव ४५०० श्लोकोंमें रचित कथा-ग्रन्थ है । इस ग्रन्थका सारांश कविने ५७ पद्यों में निबद्ध किया है । आठ कथायें पूजाके फलसे; नौ कथाएँ पंचनमस्कारके फलसे; ७ कथायें धुतोपयोगके फलसे; ७ कथाएं शोलके फल से सम्बद्ध; ७ कथाएँ उपवासके फल से और १५ कथाएँ दानके फलसे सम्बद्ध हैं। शैली वैदर्भी है, जिसे पूजा, दर्शन, स्वाध्याय आदिके फलों को कथाओंके माध्यम द्वारा व्यक्त किया गया है।
रामचन्द्र मुमुक्षुने 'पुण्यानव-कथाकोश'को रचना की है। इस ग्रन्थकी पुष्पिकाओंमें बताया गया है कि वे दिश्यमुनि केशवनन्दिके शिष्य थे । प्रशस्तिमें लिखा है
"यो भव्याज दिवाकरो यमकरो मारेभपञ्चाननो
नानादुःखविधायिकर्मकुभूतो वञायते दिव्यधीः ।
यो योगीन्द्रनरेन्द्रवन्दितपदो विद्यार्णवोत्तीर्णवान्
ख्यातः केशवनन्दिदेवसिप: श्रीकुन्दकुन्दान्वयः ।।१।।
शिष्योऽभूत्तस्य भव्यः सकलजनहितो रामचन्द्रो मुमुक्षु
त्विा शब्दापशब्दान् सुविशदयशसः पयनम्याहयाद्वे ।
बन्द्याद वादीभसिंहात् परमयतिपते: सोन्यधाद्भव्यहती
ग्रन्थं पुण्यासवाख्यं गिरिसमितिमिते (५७) दिव्यपद्ये: कथार्थः ।।
अर्थात् आचार्य कुन्दकुन्दको वंशपरम्परामें विव्यबुद्धिके धारक केशव नन्दि नामके प्रसिद्ध यतीन्द्र हुए । वे भव्यजीवरूप कमलोंको विकसित करने के लिए सूर्यसमान, संघमके परिपालक, कामदेवरूप, हाथोके नष्ट करने में सिंहके समान पराक्रमी और अनेक दुःखोंको उत्पन्न करनेवाले कर्मरूपी पर्वतके भेदनेके लिए कठोर वनके समान थे । बड़े बड़े ऋषि और राजा महाराजा उनके चरणोंकी वन्दना करते थे। वे समस्त विद्याओं में निष्णात थे।
उनका भव्य शिष्य समस्त जनोंके हितका अभिलाषी रामचन्द्र मुमुक्षु हुआ । उसने यशस्वी पमनन्दि नामक मुनिके पासमें शब्द और अपशब्दोंको जानकर व्याकरणशास्त्रका अध्ययन करके कथाके अभिप्रायको प्रकट करने बाले ५७ पद्यों द्वारा भव्यजीवोंके निमित्त इस पुण्यानव कथा ग्रन्थको रचा है। वे पधानन्दि मुनीन्द्र फैली हुई अतिशय निर्मल कोतिसे विभूषित, वन्दनीय एवं वादीरूपी हाथियोंको परास्त करनेके लिए सिंहके समान थे । कुन्दकुन्दाचार्यको इस वंशपरम्परामें पचनन्दि विरात्रिक हुए । वे देशीयगणमें मुख्य और संघके स्वामी थे। इसके पश्चात् माधवनन्दि पंडित हुए, जो महादेवको उपमाको धारण करते थे। इनसे सिद्धान्तशास्त्रक पारंगत मासोपवासी गुणरत्नोंसे विभूषित, पंडितोंमें प्रधान वसुनन्दि सूरि हुए। वसुनन्दिके शिष्य मौलिनामक गणी हुए।
ये निरन्तर भव्यजीवरूप कमलोंके प्रफुल्लित करने में सूर्यके समान तत्पर थे । थे देवों के द्वारा बन्दनीय थे।
जनके शिष्य मनिसमूहके द्वारा बन्दनीय श्रीनन्दि सूरि हुए । उनका कात्ति चन्द्रमाके समान थी। वे ७२ कलाओं में प्रवीण थे । उन्होंने अपने ज्ञान के तेजसे सभी दिशाओंको आलोकित कर दिया था। श्रीनन्दि चार्वाक, बौद्ध, जैन, सांख्य, शैव आदि दर्शनोंके बिहान् थे ।
उपर्युक्त प्रशस्तिसे यह स्पष्ट है कि केशवनन्दि अच्छे विद्वान थे और उन्हीं शिष्य नबन्द्र मुन। रामचन्द्र महायशस्वी वादीभसिंह महामुनि पमान्दिसे व्याकरण शास्त्रका अध्ययन किया था। कुछ विद्वानोंका अभिमत है कि प्रशस्तिके अंतिम छः पद्य पीछेस जोड़े गये हैं। ये प्रशस्ति पद्य ग्रंथका मूल भाग प्रतीत नहीं होते। यह संभव है कि इस प्रशस्तिमें उल्लिखित पद्यमन्दि रामचन्द्रको व्याकरणगुरु रहे हों। प्रशस्तिका आधारपर, पद्मनन्दि, माधवनन्दि, बसुनन्दि, मोली या मौनी और श्रीनन्दि आचार्य हुए हैं। सिद्धान्त शास्त्रके ज्ञाता बसुनन्दि मूलाचारटीकाके रचयिता वसुनन्दि यदि हैं तो इनका समय १२३४ ई. के पूर्व होना चाहिए।
रामचन्द्र मुमुक्ष संस्कृत-भाषाके प्रौद्ध गद्यकार हैं। उन्होंने संस्कृत और कन्नड़ दोनों भाषाओंकी रचनाओंका पुण्यात्रवकथाकोशके रचने में उपयोग किया है । कन्नड़ भाषाके अभिज्ञ होनेसे उन्हें दक्षिणका निवासी या प्रबासी माना जा सकता है। रामचन्द्र के इस कथाकोशसे यह स्पष्ट होता है कि रच यित्ताकी कृति में व्याकरण-शैथिल्य है। उनकी शैली और मुहावरोंसे भी यहीं सिद्ध होता है।
गुरु | दिव्यमुनि केशवनन्दि |
रामचन्द्र मुमुक्षुने अपने लस्सनकाल के सम्बन्ध में कुछ भी उल्लेख नहीं किया है। इनके स्थितिकालका निर्णय ग्रन्थोंके उपयोगके आधारपर ही किया जा सकता है। इन्होंने हरिबंशपुराण, महापुराण और बृहद्वयाकोशका उपयोग किया है । हरिवंशपुराणका समय ई० सन् १७८८३, महापुराणका समय ई० सन् ८९७ और बृह्वामाकोशका ई० सन् २३१-३२ है । अतएव रामचन्द्रका समय ई० मन् की १०वीं शताब्दीके पश्चान् है । रामचन्दकी कृति के आधारसे कन्नड़ कवि नागराजने ई० सन् १३३१में कन्नडचंपूकी रचना की है । अतएव १३३१ के पूर्व इनका समय संभाव्य है। यदि प्रशस्तिमें उल्लिरिनत समुनन्दि मूला चारकी टीकाके रचयिता सिद्ध हो जायें, तो रामचन्द्रका समय १३वीं शतीके मध्यका भाग होगा।
दूसरी बात यह है कि रत्नकरण्डके टीकाकार प्रभाचन्द्रने रामचन्द्रको कथाएं इस टीकामें ग्रहण की है तो रामचन्द्र प्रभाचन्द्रसे भी पूर्व सिद्ध होंगे। हमारा अनुमान है कि पुण्यानवकथाकोशके रचयिता केशवनन्दिके शिष्य रामचन्द्र आशाधरके समकालीन या उनसे कुछ पूर्ववर्ती हैं ।
रामचन्द्र मुमुक्षुको पूण्यासवकथाकोशके साथ शान्तिनाथचरित कृति भी बतलायो जाती है । पचनन्दिके शिष्य रामचन्द्र द्वारा रचित धर्मपरीक्षा ग्रन्थ भी संभव है। पुण्यालव ४५०० श्लोकोंमें रचित कथा-ग्रन्थ है । इस ग्रन्थका सारांश कविने ५७ पद्यों में निबद्ध किया है । आठ कथायें पूजाके फलसे; नौ कथाएँ पंचनमस्कारके फलसे; ७ कथायें धुतोपयोगके फलसे; ७ कथाएं शोलके फल से सम्बद्ध; ७ कथाएँ उपवासके फल से और १५ कथाएँ दानके फलसे सम्बद्ध हैं। शैली वैदर्भी है, जिसे पूजा, दर्शन, स्वाध्याय आदिके फलों को कथाओंके माध्यम द्वारा व्यक्त किया गया है।
#Ramchandramumukshu
आचार्यतुल्य श्री १०८ रामचन्द्र मुमुक्षु
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 06 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 06 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
रामचन्द्र मुमुक्षुने 'पुण्यानव-कथाकोश'को रचना की है। इस ग्रन्थकी पुष्पिकाओंमें बताया गया है कि वे दिश्यमुनि केशवनन्दिके शिष्य थे । प्रशस्तिमें लिखा है
"यो भव्याज दिवाकरो यमकरो मारेभपञ्चाननो
नानादुःखविधायिकर्मकुभूतो वञायते दिव्यधीः ।
यो योगीन्द्रनरेन्द्रवन्दितपदो विद्यार्णवोत्तीर्णवान्
ख्यातः केशवनन्दिदेवसिप: श्रीकुन्दकुन्दान्वयः ।।१।।
शिष्योऽभूत्तस्य भव्यः सकलजनहितो रामचन्द्रो मुमुक्षु
त्विा शब्दापशब्दान् सुविशदयशसः पयनम्याहयाद्वे ।
बन्द्याद वादीभसिंहात् परमयतिपते: सोन्यधाद्भव्यहती
ग्रन्थं पुण्यासवाख्यं गिरिसमितिमिते (५७) दिव्यपद्ये: कथार्थः ।।
अर्थात् आचार्य कुन्दकुन्दको वंशपरम्परामें विव्यबुद्धिके धारक केशव नन्दि नामके प्रसिद्ध यतीन्द्र हुए । वे भव्यजीवरूप कमलोंको विकसित करने के लिए सूर्यसमान, संघमके परिपालक, कामदेवरूप, हाथोके नष्ट करने में सिंहके समान पराक्रमी और अनेक दुःखोंको उत्पन्न करनेवाले कर्मरूपी पर्वतके भेदनेके लिए कठोर वनके समान थे । बड़े बड़े ऋषि और राजा महाराजा उनके चरणोंकी वन्दना करते थे। वे समस्त विद्याओं में निष्णात थे।
उनका भव्य शिष्य समस्त जनोंके हितका अभिलाषी रामचन्द्र मुमुक्षु हुआ । उसने यशस्वी पमनन्दि नामक मुनिके पासमें शब्द और अपशब्दोंको जानकर व्याकरणशास्त्रका अध्ययन करके कथाके अभिप्रायको प्रकट करने बाले ५७ पद्यों द्वारा भव्यजीवोंके निमित्त इस पुण्यानव कथा ग्रन्थको रचा है। वे पधानन्दि मुनीन्द्र फैली हुई अतिशय निर्मल कोतिसे विभूषित, वन्दनीय एवं वादीरूपी हाथियोंको परास्त करनेके लिए सिंहके समान थे । कुन्दकुन्दाचार्यको इस वंशपरम्परामें पचनन्दि विरात्रिक हुए । वे देशीयगणमें मुख्य और संघके स्वामी थे। इसके पश्चात् माधवनन्दि पंडित हुए, जो महादेवको उपमाको धारण करते थे। इनसे सिद्धान्तशास्त्रक पारंगत मासोपवासी गुणरत्नोंसे विभूषित, पंडितोंमें प्रधान वसुनन्दि सूरि हुए। वसुनन्दिके शिष्य मौलिनामक गणी हुए।
ये निरन्तर भव्यजीवरूप कमलोंके प्रफुल्लित करने में सूर्यके समान तत्पर थे । थे देवों के द्वारा बन्दनीय थे।
जनके शिष्य मनिसमूहके द्वारा बन्दनीय श्रीनन्दि सूरि हुए । उनका कात्ति चन्द्रमाके समान थी। वे ७२ कलाओं में प्रवीण थे । उन्होंने अपने ज्ञान के तेजसे सभी दिशाओंको आलोकित कर दिया था। श्रीनन्दि चार्वाक, बौद्ध, जैन, सांख्य, शैव आदि दर्शनोंके बिहान् थे ।
उपर्युक्त प्रशस्तिसे यह स्पष्ट है कि केशवनन्दि अच्छे विद्वान थे और उन्हीं शिष्य नबन्द्र मुन। रामचन्द्र महायशस्वी वादीभसिंह महामुनि पमान्दिसे व्याकरण शास्त्रका अध्ययन किया था। कुछ विद्वानोंका अभिमत है कि प्रशस्तिके अंतिम छः पद्य पीछेस जोड़े गये हैं। ये प्रशस्ति पद्य ग्रंथका मूल भाग प्रतीत नहीं होते। यह संभव है कि इस प्रशस्तिमें उल्लिखित पद्यमन्दि रामचन्द्रको व्याकरणगुरु रहे हों। प्रशस्तिका आधारपर, पद्मनन्दि, माधवनन्दि, बसुनन्दि, मोली या मौनी और श्रीनन्दि आचार्य हुए हैं। सिद्धान्त शास्त्रके ज्ञाता बसुनन्दि मूलाचारटीकाके रचयिता वसुनन्दि यदि हैं तो इनका समय १२३४ ई. के पूर्व होना चाहिए।
रामचन्द्र मुमुक्ष संस्कृत-भाषाके प्रौद्ध गद्यकार हैं। उन्होंने संस्कृत और कन्नड़ दोनों भाषाओंकी रचनाओंका पुण्यात्रवकथाकोशके रचने में उपयोग किया है । कन्नड़ भाषाके अभिज्ञ होनेसे उन्हें दक्षिणका निवासी या प्रबासी माना जा सकता है। रामचन्द्र के इस कथाकोशसे यह स्पष्ट होता है कि रच यित्ताकी कृति में व्याकरण-शैथिल्य है। उनकी शैली और मुहावरोंसे भी यहीं सिद्ध होता है।
गुरु | दिव्यमुनि केशवनन्दि |
रामचन्द्र मुमुक्षुने अपने लस्सनकाल के सम्बन्ध में कुछ भी उल्लेख नहीं किया है। इनके स्थितिकालका निर्णय ग्रन्थोंके उपयोगके आधारपर ही किया जा सकता है। इन्होंने हरिबंशपुराण, महापुराण और बृहद्वयाकोशका उपयोग किया है । हरिवंशपुराणका समय ई० सन् १७८८३, महापुराणका समय ई० सन् ८९७ और बृह्वामाकोशका ई० सन् २३१-३२ है । अतएव रामचन्द्रका समय ई० मन् की १०वीं शताब्दीके पश्चान् है । रामचन्दकी कृति के आधारसे कन्नड़ कवि नागराजने ई० सन् १३३१में कन्नडचंपूकी रचना की है । अतएव १३३१ के पूर्व इनका समय संभाव्य है। यदि प्रशस्तिमें उल्लिरिनत समुनन्दि मूला चारकी टीकाके रचयिता सिद्ध हो जायें, तो रामचन्द्रका समय १३वीं शतीके मध्यका भाग होगा।
दूसरी बात यह है कि रत्नकरण्डके टीकाकार प्रभाचन्द्रने रामचन्द्रको कथाएं इस टीकामें ग्रहण की है तो रामचन्द्र प्रभाचन्द्रसे भी पूर्व सिद्ध होंगे। हमारा अनुमान है कि पुण्यानवकथाकोशके रचयिता केशवनन्दिके शिष्य रामचन्द्र आशाधरके समकालीन या उनसे कुछ पूर्ववर्ती हैं ।
रामचन्द्र मुमुक्षुको पूण्यासवकथाकोशके साथ शान्तिनाथचरित कृति भी बतलायो जाती है । पचनन्दिके शिष्य रामचन्द्र द्वारा रचित धर्मपरीक्षा ग्रन्थ भी संभव है। पुण्यालव ४५०० श्लोकोंमें रचित कथा-ग्रन्थ है । इस ग्रन्थका सारांश कविने ५७ पद्यों में निबद्ध किया है । आठ कथायें पूजाके फलसे; नौ कथाएँ पंचनमस्कारके फलसे; ७ कथायें धुतोपयोगके फलसे; ७ कथाएं शोलके फल से सम्बद्ध; ७ कथाएँ उपवासके फल से और १५ कथाएँ दानके फलसे सम्बद्ध हैं। शैली वैदर्भी है, जिसे पूजा, दर्शन, स्वाध्याय आदिके फलों को कथाओंके माध्यम द्वारा व्यक्त किया गया है।
Acharyatulya Ramchandra Mumukshu (Prachin)
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