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#Shreechand
श्रीचन्दका नाम 'दसणकहरयणकरंड'में पंडित श्रीचन्द्र भी आया है। कविने अपना परिचय 'दसणकहरयणकरंडु'के अन्सकी प्रशस्तिमें अंकिस किया है । कविने लिखा है
देशोगणपहाणु गुणगणहरु, बबइण्ण णावइ सई गणहरु ।
भब्वमणो-गशिप-दिणेसा, मिरिमिनि ति मुनित्ति गुणीराम ।।
सासु सीसु पंडियचूडामणि, सिरिगंगेयपमह पउरावणि ।
xx धम्मुव रिसिंहचे जसरूवज, सिरिसुयकित्तिणामु संभूयउ ।
सिरि चंदुज्जलजसु संजायज, णामे सहसकित्ति विक्खायउ ।
सिरिचंदु णामु सोहण मुणीसु, संजायज पंडिउ परम सीम् ।
तेणेउ अणेयच्चरियथामु, दसणकहरयणकरडुणामु ।
कारिंदही रज्बेसहो सिरिसिरिमालपुरम्मि ।
बुहसिरिचदें एज कर गंदउ कञ्चु जयम्मि ।
इस प्रशस्तिसे तथा कथाकोशकी प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि श्रीचन्द्र के पूर्व तीन विशेषण प्राप्त होते हैं- कवि, मुनि और पंडित । श्रीचन्द मुनि थे और अन्य-रचना करनेसे वे कवि और पंडितकी उपाधिसे अलंकृत थे। श्रीचन्द ने प्रशस्तियोंमें अपनी गरुपरम्परा निम्न प्रकार अंकित की है
देशीगण, कुन्दकुन्दान्वय
श्रीकीति
श्रुतकीति
सहस्रकीति
वीरचन्द्र
श्रीचन्द्र
सहस्रकीतिके पांच शिष्य थे-देवचन्द्र, वासवमुनि, उदयकोति, शुभचन्द्र और वीरचन्द्र । इन पांचों शिष्योंमेंसे वीरचन्द्र अन्तिम शिष्य थे। इन्हीं वीरचन्द्र के शिष्य श्रीचन्द्र हैं।
गुरु | वीरचन्द्र |
श्रीचन्द्रने कथाकोशकी रचनाके प्रेरकोंका वंशपरिचय विस्तारपूर्वक दिया है । बताया है कि सौराष्ट्र देशके अहिल्लपुर (पाटण) नामक नगरमें प्राग्वाट वंशीय सज्जन नामके एक व्यक्ति हुए, जो मूलराल नरेशके धर्मस्थानके गोष्ठी कार अर्थात् धार्मिक कथावार्ता सुनानेवाले थे । इनके पुत्र कृष्ण हुए, जिनकी भगिनीका नाम जयन्ती और पत्नी का नाम राणू था। उनके तीन पुत्र हुए बीजा, साहनपाल और साडदेव तथा चार कन्याएँ-श्री, श्रृंगारदेवी, सुन्दू और सोनू । इनमें सुन्दू या सुन्दुका विशेषरूपसे जैनधर्मके उद्धार और प्रचारमें रुचि रखती थी। कृष्णको इस सन्तानने अपने कर्मक्षयसे हेतु कथाकोशकी व्याख्या कराई । आगे इसो प्रशस्तिमें बताया गया है कि कर्त्ताने भव्योंकी प्रार्थनासे पूर्व आचार्यकी कृतिको अवगत कर इस सुन्दर कथाकोशको रचना की।
इस कथनसे यह अनुमान होता है कि इस विषयपर पूर्वाचार्यकी कोई रचना श्रीचन्द्रमुनिके सम्मुख थी। प्रथम उन्होंने उसी रचनाका व्याख्यान श्रावकोंको सुनाया होगा, जो उन्हें बहुत रोचक प्रतीत हुआ। इसीसे उन्होंने उनसे प्रार्थना की कि आप स्वतन्त्ररूपसे कथाकोशकी रचना कीजिये । फल स्वरूप प्रस्तुत ग्रन्थका प्रणयन किया गया है । प्रशस्तिमें ग्रंथकारके व्याख्यातृत्व और कवित्व आदि गुणोंका विशेषरूपसे निर्देश किया गया है। अतएव यह स्पष्ट है कि सौराष्ट्र देशके अणहिल्लपुरमें कृष्ण श्रावक और उनके परिवारको प्रेरणासे कथाकोश ग्रन्धकी रचना हुई है।
'दसणकहरमणकरडु' ग्रंथको सन्धियोंके पुष्पिकावाक्योंमें 'पं० श्रीचन्द्र कृत' निर्देश मिलता है । यह निर्देश सोलहबों सन्धि तक ही पाया जाता है।
१७वीं से २१ची सन्धि तककी पुषिकाओं में 'इय सिरिचन्दमुणीन्दकए' (इति श्रीचन्द्रमुनिकृस) उल्लेख मिलता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि 'दसणकहरयणकरड' की १६वीं सन्धिकी रचना तक श्रीचन्द्र श्रावक थे, पर इसके पश्चात उन्होंने मुनि-दीक्षा ग्रहण की होगी। अतएब उन्होंने 'दसणकह रमणकरंडु' की अवशिष्ट सन्त्रियाँ और कथाकोशको रचना मुनि अवस्थामें को है
श्रीचन्द्रका व्यक्तित्व श्रावक और श्रमण दोनोंका समन्वित रूप है । कवित्वके साथ उनकी व्याख्यानशैली भी मनोहर थी। श्रीचन्द्र राजाश्रयमें भी थे । श्रीमालपुर और अणहिल्लपुरके साथ उनका निकटका सम्बन्ध था । रचनासे यह भी जात होता है कि श्रीचन्द्र मनुष्यजन्मको दुर्लभ समझ दिगम्बर दीक्षामें प्रवृत्त हुए थे। मनुष्यअन्मको दुर्लभताके लिए उन्होंने पाशक, धान्य धूस, रत्नकथा, स्वप्न, चन्द्रकवेध, कूर्मकथा, युग्म और परमाणुको दृष्टान्त कथाएं उपस्थित को हैं, जिससे उनका अध्यात्मप्रेमप्रकट होता है। कविके आख्यानको इस शैलोसे यह भी ध्वनित होता है कि वे संसारमें धर्म पुरुषार्थको महत्त्व देते थे।
कवि श्रीचन्द्रने 'दसणकहरयणकरंडु'को प्रशस्तिमें उसके रचनाकालका निर्देश किया है। बताया है
एघारहत्तेवीसा वाससया विक्कमस्स गरवइणो ।
जइया गया हु तइया समाणियं सुंदरं कब्धं ॥१॥
कण्ण-परिदहो रज्जेसहो सिरिसिरिमालपुरम्मि ।
बुह-सिरिचंदें एउ किउ पंदउ कन्च जम्मि ।।२।।
अर्थात् वि० सं० ११२३ व्यतीत होनेपर कर्ण नरेन्द्र के राज्यमें श्रीमालपुरमें विद्वान् श्रीचन्द्रने इस 'दसणकहरयणकरंडु' काव्यको रचना की। यह कर्ण सोलंकीनरेश भीमदेव प्रथमके उत्तराधिकारी थे और इन्होंने सन् १०१४से ई० सन् १८१४ तक राज्य किया है। अतएव कचिने ई० सन् १०६६में उक्त ग्रंथकी रचना की है, जो कर्णके राज्यकालमें सम्पन्न हुई है।
श्रीमाल अपरनाम भीनमाल दक्षिण मारवाड़की राजधानी थी । सोलंकी नरेश भीमदेवने सन् १७६० ई. में बहाँके परमारवंशी राजा कृष्णराजको पराजितकर बंदोमहमें डाल दिया और भीनमालपर अधिकार कर लिया। उनका यह अधिकार उनके उत्तराधिकारी कर्णतक स्थिर रहा प्रतीत होता है।
'दसणकहरयणकरंडू'को १६वीं सन्धि तक 'पंडित' विशेषण उपलब्ध होता है और इसके पश्चात् 'मुनि विशेषण प्राप्त होने लगता है। कथाकोशकी रचना 'दर्शनकथारत्नकरण्ड के पश्चात् हुई होगी। श्री डॉ० हीरालालजीने इस ग्रंथ का रचनाकाल ई० सन् १०७०के लगभग माना है।'
कथाकोषको प्रशस्तिसे यह स्पष्ट है कि महाश्रावक कृष्णके परिवारकी प्रेरणासे यह ग्रंथ लिखा है। इनके पिता सज्जन मलराजनरेशके धर्मस्थानके गोष्ठीकार थे । ये मूलराज वही हैं, जिन्होंने गुजरातमें बनराज द्वारा स्थापित चाबड़ावंशको च्युतकर ई० सन् ९४१में सोलंकी चालुक्य वंशको स्थापना की पी। प्रशस्तिमें यह भी बताया गया है कि प्रधकारके परदादागुरु श्रुतकीत्तिके चरणोंकी पुजा गांगेय, भोजदेव आदि बड़े-बड़े राजाओंने को थी । डॉ हीरा लालजीका अनुमान है कि गांगेय निश्चयतः शाहल (जबलपुरके आस-पासका प्रदेश) के के ही कलचुरी नरेश गांगेयदेव होगा बाहिर, जीप पश्चा सन् २०१५ के लगभग सिंहासनारून होकर सन् १०३८ तक राज्य करते रहे । भोजदेव धाराके वे ही परमारवंशी राखा है, जिन्होंने ई० सन् २००० से १०५५ तक मालवापर राज्य किया सपा जिनका गुजरातके सोलंकी राजाओंसे अनेक बार संघर्ष हुआ । अतएव श्रीचन्द्रका समय ई० सनको ११वीं शती होना चाहिए।
श्रीचन्द्र मुनिकी दो रचनाएं उपलब्ध है.---
'दसणकहरयणकरंडु' और 'कहाकीसु।
प्रथम अन्धमें २१ सन्धियाँ हैं। प्रथम सन्धिमें देव, गुरू और धर्म तथा गुण दोषोंका वर्णन है। इसमें ३९ कड़वक है। उसमक्षमादि दश धर्म, २२ परीषह, पंचाचार, १२ तप आदिका कथन किया है। पंचास्तिकाय और षड्द्रव्यका वर्णन भी इसी सन्धिमें आया है। समस्त कोंक भेद-प्रभेदका कथन भी प्राप्त होता है । कविने नामकर्मको ४२ प्रकृतियोंका निर्देश करते हुए लिखा है--
णारय-तिरिय-गराण, सह देवाउ चउत्पा ।
जामहो णामहं मेड, सुण एवहि बायालीसज ||३||
गइ जाइ णामु तणु अंगु-बंगु, णिम्माणय बंधण पाम अंगु ।
संघायणामु संठाणणामु, संहणणणामु भासह अकामु ।।
रस फास गंधु अणुपुचिणामु, बणागुरुलह उवधायणामु ।
परघायातप उज्जोवणामु, उस्सास विहायगई सणामु ॥
साहारण पत्तेयंगणाम, तस थावर सुहमासुहमणामु ।।
सोहागणामु दोहागणामु, सुस्सर-दुस्सर सुह-असुहणाभु ।।
पज्जत इयर थिर अधिर णामु, आदेउ तहाउणादेउणामु ।।
जकित्ति अजस किप्तीण णामु, तित्थयरणामु सिवसोक्षधाम् ।
इय पिडापिडा पद्धि जणिय, चालीसदु जाहिय भेय भणिय ।
णामक्ख होसि तेणबइ भेय, विवरिहि जइ जाहि विणेय ।
द्वितीय सन्धिमें सुभौम चक्रवतीको उत्पत्ति और परशुरामके मरणका वर्णन किया गया है । तृतीय सन्धि पद्यरथ राजाका उपसर्ग-सहन, आकाश गमन, विद्यासाधन और अंजनचौरका निर्वाण-गमन वणित है। चतुर्थ सन्धि में अनन्तमतीकी कथा आयी है। पंचम सन्धिमें निविचिकित्सागुणका वर्णन आया है। षष्ट सन्धिमें अमढष्टिगुणका वर्णन है। सप्तम सन्धिमें उपगृहन और स्थितिकरणके कथानक आये हैं । अष्टम सन्धिमें वात्सल्य-गणकी कथा वर्णित है । नवम सन्धिमें प्रभावना अंगकी कथा आयो है। दशम सन्धिमें कौमुदीन्यात्राका वर्णन है। ग्यारहवीं सन्धिमें उदितोदय सहित उपदेशदान वर्णित है । बारहवीं सन्धिमें परिवारसहित उदितोदयका तपश्चरण-ग्रहण आया है । १३वीं सन्धिमें बेत्तालकथानक वर्णित है। १४वी सन्धिमें माला कथानक आया है। १५वीं सन्धिमें सोमश्रीकी कथा वर्णित है। १६वी सन्धिमें काशोदेश, वाराणसी नगरीके वर्णनके पश्चात् भषि और नियमोंका वर्णन है। १७वीं सन्धि अनस्तमित अर्थात् रात्रिभोजनत्यागनतकी कथा वर्णित है। १८वीं सन्धिमें दया-धर्मके फलको प्राप्त करने वालोंको कथा वर्णित है । १९वीं सन्धि नरकगसिके दुःखोंका वर्णन किया गया है । २०वीं सन्धिमें बिना जाने हुए फल-भक्षणके त्यागको कथा वणित है । २१वीं सन्धि उदितोदय राजाओं को परिव्रज्या और उनका स्वर्गगमन आया है । इस प्रकार इस ग्रन्थ में सम्य ग्दर्शनके आठ अंग, तनियम, रात्रिभोजनत्याग आदिके कथानक वर्णित हैं।कथाओं के द्वारा कविने धर्म-तत्त्वको हृदयंगम करानेका प्रयास किया है।
इस ग्रन्थमें ५३ सन्धियाँ हैं और प्रत्येक सन्धिमें कम-से-कम एक कथा अवश्य आयी है। ये सभी कथाएं धार्मिक और उपदेशप्रद है । कथाओंका उद्देश्य मनुष्यके हृदय में निवेद-भाव जागृत कर वैराग्यकी ओर अग्रसर करना है। कथाकोषमें आई हुई कथाएँ तीर्थंकर महावीर के कालसे मुरुपरम्परा द्वारा निरन्तर चलती आ रही हैं । प्रथम सन्धिमें पात्रदान द्वारा धनकी सार्थकता प्रतिपादित कर स्वाध्यायसे लाभ और उसकी आवश्यकतापर जोर दिया है। इस सन्धिके अन्त में सोमशर्मा ज्ञानसम्पादनसे निराश हो
समाधिमरण ग्रहण करता है तथा पाँच दिनोंके समाधिमरण द्वारा स्वर्गम अबधि मानी देव होता है ।द्वितीय सन्धिमें सम्यक्त्वके अतिचार और शंकादि दोषों के उदा हरण आये हैं | इन उदाहरणोंको स्पष्ट करने के लिए आख्यानोंकी योजना की गई है । तृतीय सन्धिमें उपगृहन आदि सम्यक्त्व के चार गुण बतलाये हैं और उपग्रहनका दृष्टान्त पन मारने का पुजापुर के राजकुमार विशाखको कथा आई है। प्रसंगवश इस कथामें विष्णुकुमारमुनि और राजा बलिका आख्यान भी वर्णित है। चतुर्थ सन्धिमें प्रभावनाविषयक वच्चकुमारको कथा अंकित है। पंचम सन्धिमें श्रद्धानका फल प्रतिपादित करनेके लिए हस्तिनापुर, के राजा धनपाल और सेठ जिनदासकी कथा आयी है। छठी सन्धिमें श्रुत्त विनयका आख्यान, गुरुनिन्हबकथा, ध्यंजनहीनकथा, अर्थहीनकथा, सक्षम सन्धिमें नामदत्तमुनिकथा, शूरमित्रकथा, वासुदेवकथा, कल्हासमित्रकथा और हंसकथा, अष्टम सन्धिमें हरिषेणचक्रीकथा, नवम सन्धि में विष्णुप्रद्युम्न कथा और मनुष्यजन्मकी दुर्लभता सिद्ध करनेवाले दृष्टान्त, दशम सन्धिमें संघश्रीकथा, एकादश सन्धि में द्रव्यदत्तका आख्यान, जिनदत्त-वसुदत्तका आख्यान, लकुचकुमारका आख्यान, पचरथका आख्यान, ब्रह्मदत्तचक्रवर्ती आख्यान, जिनदास-आख्यान, रुद्रदत्त-आख्यान, द्वादश सन्धिमें श्रेणिकचरित, अयोदश सन्धिमें श्रेणिकका महावीरके समवशरण में जाना और वहाँ धर्मोपदेश का श्रवण करना, पन्द्रहवीं और सोलहवीं सन्धियों में विविध प्रश्न और आख्यानोंका वर्णन है। सत्रहवीं और अठाहरची सन्धिमें करकंडका चरित वणित है । १९ बों और २० वी सन्धिमें रोहिणीचरित वणित है। २१ वीं सन्धिमें भक्ति और पूजाफल सम्बन्धो आख्यान निबद्ध हैं । रवी सन्धिमें नमो कारमन्त्रकी अराधनाके फल को बतलानेवाले सुदर्शन आदिके आख्यान अंकित हैं । २३ वीं, २४ वीं और २५ बी सन्धियों में ज्ञानोपयोगके फलसम्बन्धी कथानक अंकित हैं। २६ वीं और २७ वी सन्धिमें दान और धर्मसम्बन्धी कथानक आये हैं । २८ वीसे लेकर ३४ वीं सन्धि तक पंच पाप और विकारसम्बन्धी तथ्यों के विश्लेषण के लिए कथानक अंकित किये गये हैं। ३५ बी सन्धि प्रशंसनीय महिलाओंक आख्यान, ३६ वीं सन्धिमें श्रावकधर्म और पंचाक्षरमन्त्रके उप देशसम्बन्धी आख्यान गुम्फित है। ३७ वी सन्धिमें शकटमुनि और पाराशरकी कथा, ३८ बी सन्धिमें सात्यकीरूद्रकथा, ६९.वी सन्धिमें राजमुनि कथा, ४० वौं सन्धिमें अर्थको अनर्थमूलता सूचक आख्यान वर्णित हैं। ४१ वीं सन्धिौ धनके निमित्तसे दुःख प्राप्त करनेवाले व्यक्तियोंके आख्यान बणित हैं। ४२वी सन्धिम निदानसे सम्बन्धित कथाएं आयी हैं। ४३वीं सन्धिमें तीनों शल्योंसे सम्बन्धित कथानक, ४४ वीं सन्धिमें स्पर्शन-इन्द्रियके अधीन रहनेवाले
तथा चारों कषायोंका सेवन करनेवाले व्यक्तियोंके कथानक आये हैं; ४५ वीं, ४६ वीं, ४७ वीं, ४८ वीं, ४९ वीं और ५० वीं सन्धियों में परीषहोंपर विजय करने वाले शोलसेन्द्र, सुकुमाल, सुकोशल, राजकुमार, सनत्कुमारचक्रवर्ती, भद्रबाहु, धर्मघोषमुनि, वृषभसेनमुनि अग्निपुत्र, अभयघोष, विद्युच्चर मुनि, चिला. पुत्र, धन्यकुमार, चाणक्यमुनि और ऋषभसेनमुनिकी कथाएँ बणित हैं । ५१ वौं सन्धिमें प्रत्याख्यानके अखण्ड पालनपर श्रीपालकथा, प्रायश्चित्तपर राजपुत्रकथा, आहारगुद्धिपर शालिसिस्थकथा, भोजनकी लोलुपतापर सुभौम चक्रवर्तीकथा और संसारको अनिष्टतापर धनदेवकथा आई है । ५२ वी सन्धि में कर्मफल की प्रबलतापर सुभोगनृपकथा, अत्तभंगपर धर्मसिंहमुनिकथा, ऋषभसेनमुनिकथा और आत्मघात द्वारा संघरवापर जयसेननृपकथा आई है। ५३ वी सन्धिमें समाधिमरणपर शकटालमुनिको कथा अंकित है। इस कथाथमें नगर, देश, ग्राम आदिके वर्णनके साथ यथास्थान अलंकारोंका भी प्रयोग किया गया है।
श्रीचन्दका नाम 'दसणकहरयणकरंड'में पंडित श्रीचन्द्र भी आया है। कविने अपना परिचय 'दसणकहरयणकरंडु'के अन्सकी प्रशस्तिमें अंकिस किया है । कविने लिखा है
देशोगणपहाणु गुणगणहरु, बबइण्ण णावइ सई गणहरु ।
भब्वमणो-गशिप-दिणेसा, मिरिमिनि ति मुनित्ति गुणीराम ।।
सासु सीसु पंडियचूडामणि, सिरिगंगेयपमह पउरावणि ।
xx धम्मुव रिसिंहचे जसरूवज, सिरिसुयकित्तिणामु संभूयउ ।
सिरि चंदुज्जलजसु संजायज, णामे सहसकित्ति विक्खायउ ।
सिरिचंदु णामु सोहण मुणीसु, संजायज पंडिउ परम सीम् ।
तेणेउ अणेयच्चरियथामु, दसणकहरयणकरडुणामु ।
कारिंदही रज्बेसहो सिरिसिरिमालपुरम्मि ।
बुहसिरिचदें एज कर गंदउ कञ्चु जयम्मि ।
इस प्रशस्तिसे तथा कथाकोशकी प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि श्रीचन्द्र के पूर्व तीन विशेषण प्राप्त होते हैं- कवि, मुनि और पंडित । श्रीचन्द मुनि थे और अन्य-रचना करनेसे वे कवि और पंडितकी उपाधिसे अलंकृत थे। श्रीचन्द ने प्रशस्तियोंमें अपनी गरुपरम्परा निम्न प्रकार अंकित की है
देशीगण, कुन्दकुन्दान्वय
श्रीकीति
श्रुतकीति
सहस्रकीति
वीरचन्द्र
श्रीचन्द्र
सहस्रकीतिके पांच शिष्य थे-देवचन्द्र, वासवमुनि, उदयकोति, शुभचन्द्र और वीरचन्द्र । इन पांचों शिष्योंमेंसे वीरचन्द्र अन्तिम शिष्य थे। इन्हीं वीरचन्द्र के शिष्य श्रीचन्द्र हैं।
गुरु | वीरचन्द्र |
श्रीचन्द्रने कथाकोशकी रचनाके प्रेरकोंका वंशपरिचय विस्तारपूर्वक दिया है । बताया है कि सौराष्ट्र देशके अहिल्लपुर (पाटण) नामक नगरमें प्राग्वाट वंशीय सज्जन नामके एक व्यक्ति हुए, जो मूलराल नरेशके धर्मस्थानके गोष्ठी कार अर्थात् धार्मिक कथावार्ता सुनानेवाले थे । इनके पुत्र कृष्ण हुए, जिनकी भगिनीका नाम जयन्ती और पत्नी का नाम राणू था। उनके तीन पुत्र हुए बीजा, साहनपाल और साडदेव तथा चार कन्याएँ-श्री, श्रृंगारदेवी, सुन्दू और सोनू । इनमें सुन्दू या सुन्दुका विशेषरूपसे जैनधर्मके उद्धार और प्रचारमें रुचि रखती थी। कृष्णको इस सन्तानने अपने कर्मक्षयसे हेतु कथाकोशकी व्याख्या कराई । आगे इसो प्रशस्तिमें बताया गया है कि कर्त्ताने भव्योंकी प्रार्थनासे पूर्व आचार्यकी कृतिको अवगत कर इस सुन्दर कथाकोशको रचना की।
इस कथनसे यह अनुमान होता है कि इस विषयपर पूर्वाचार्यकी कोई रचना श्रीचन्द्रमुनिके सम्मुख थी। प्रथम उन्होंने उसी रचनाका व्याख्यान श्रावकोंको सुनाया होगा, जो उन्हें बहुत रोचक प्रतीत हुआ। इसीसे उन्होंने उनसे प्रार्थना की कि आप स्वतन्त्ररूपसे कथाकोशकी रचना कीजिये । फल स्वरूप प्रस्तुत ग्रन्थका प्रणयन किया गया है । प्रशस्तिमें ग्रंथकारके व्याख्यातृत्व और कवित्व आदि गुणोंका विशेषरूपसे निर्देश किया गया है। अतएव यह स्पष्ट है कि सौराष्ट्र देशके अणहिल्लपुरमें कृष्ण श्रावक और उनके परिवारको प्रेरणासे कथाकोश ग्रन्धकी रचना हुई है।
'दसणकहरमणकरडु' ग्रंथको सन्धियोंके पुष्पिकावाक्योंमें 'पं० श्रीचन्द्र कृत' निर्देश मिलता है । यह निर्देश सोलहबों सन्धि तक ही पाया जाता है।
१७वीं से २१ची सन्धि तककी पुषिकाओं में 'इय सिरिचन्दमुणीन्दकए' (इति श्रीचन्द्रमुनिकृस) उल्लेख मिलता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि 'दसणकहरयणकरड' की १६वीं सन्धिकी रचना तक श्रीचन्द्र श्रावक थे, पर इसके पश्चात उन्होंने मुनि-दीक्षा ग्रहण की होगी। अतएब उन्होंने 'दसणकह रमणकरंडु' की अवशिष्ट सन्त्रियाँ और कथाकोशको रचना मुनि अवस्थामें को है
श्रीचन्द्रका व्यक्तित्व श्रावक और श्रमण दोनोंका समन्वित रूप है । कवित्वके साथ उनकी व्याख्यानशैली भी मनोहर थी। श्रीचन्द्र राजाश्रयमें भी थे । श्रीमालपुर और अणहिल्लपुरके साथ उनका निकटका सम्बन्ध था । रचनासे यह भी जात होता है कि श्रीचन्द्र मनुष्यजन्मको दुर्लभ समझ दिगम्बर दीक्षामें प्रवृत्त हुए थे। मनुष्यअन्मको दुर्लभताके लिए उन्होंने पाशक, धान्य धूस, रत्नकथा, स्वप्न, चन्द्रकवेध, कूर्मकथा, युग्म और परमाणुको दृष्टान्त कथाएं उपस्थित को हैं, जिससे उनका अध्यात्मप्रेमप्रकट होता है। कविके आख्यानको इस शैलोसे यह भी ध्वनित होता है कि वे संसारमें धर्म पुरुषार्थको महत्त्व देते थे।
कवि श्रीचन्द्रने 'दसणकहरयणकरंडु'को प्रशस्तिमें उसके रचनाकालका निर्देश किया है। बताया है
एघारहत्तेवीसा वाससया विक्कमस्स गरवइणो ।
जइया गया हु तइया समाणियं सुंदरं कब्धं ॥१॥
कण्ण-परिदहो रज्जेसहो सिरिसिरिमालपुरम्मि ।
बुह-सिरिचंदें एउ किउ पंदउ कन्च जम्मि ।।२।।
अर्थात् वि० सं० ११२३ व्यतीत होनेपर कर्ण नरेन्द्र के राज्यमें श्रीमालपुरमें विद्वान् श्रीचन्द्रने इस 'दसणकहरयणकरंडु' काव्यको रचना की। यह कर्ण सोलंकीनरेश भीमदेव प्रथमके उत्तराधिकारी थे और इन्होंने सन् १०१४से ई० सन् १८१४ तक राज्य किया है। अतएव कचिने ई० सन् १०६६में उक्त ग्रंथकी रचना की है, जो कर्णके राज्यकालमें सम्पन्न हुई है।
श्रीमाल अपरनाम भीनमाल दक्षिण मारवाड़की राजधानी थी । सोलंकी नरेश भीमदेवने सन् १७६० ई. में बहाँके परमारवंशी राजा कृष्णराजको पराजितकर बंदोमहमें डाल दिया और भीनमालपर अधिकार कर लिया। उनका यह अधिकार उनके उत्तराधिकारी कर्णतक स्थिर रहा प्रतीत होता है।
'दसणकहरयणकरंडू'को १६वीं सन्धि तक 'पंडित' विशेषण उपलब्ध होता है और इसके पश्चात् 'मुनि विशेषण प्राप्त होने लगता है। कथाकोशकी रचना 'दर्शनकथारत्नकरण्ड के पश्चात् हुई होगी। श्री डॉ० हीरालालजीने इस ग्रंथ का रचनाकाल ई० सन् १०७०के लगभग माना है।'
कथाकोषको प्रशस्तिसे यह स्पष्ट है कि महाश्रावक कृष्णके परिवारकी प्रेरणासे यह ग्रंथ लिखा है। इनके पिता सज्जन मलराजनरेशके धर्मस्थानके गोष्ठीकार थे । ये मूलराज वही हैं, जिन्होंने गुजरातमें बनराज द्वारा स्थापित चाबड़ावंशको च्युतकर ई० सन् ९४१में सोलंकी चालुक्य वंशको स्थापना की पी। प्रशस्तिमें यह भी बताया गया है कि प्रधकारके परदादागुरु श्रुतकीत्तिके चरणोंकी पुजा गांगेय, भोजदेव आदि बड़े-बड़े राजाओंने को थी । डॉ हीरा लालजीका अनुमान है कि गांगेय निश्चयतः शाहल (जबलपुरके आस-पासका प्रदेश) के के ही कलचुरी नरेश गांगेयदेव होगा बाहिर, जीप पश्चा सन् २०१५ के लगभग सिंहासनारून होकर सन् १०३८ तक राज्य करते रहे । भोजदेव धाराके वे ही परमारवंशी राखा है, जिन्होंने ई० सन् २००० से १०५५ तक मालवापर राज्य किया सपा जिनका गुजरातके सोलंकी राजाओंसे अनेक बार संघर्ष हुआ । अतएव श्रीचन्द्रका समय ई० सनको ११वीं शती होना चाहिए।
श्रीचन्द्र मुनिकी दो रचनाएं उपलब्ध है.---
'दसणकहरयणकरंडु' और 'कहाकीसु।
प्रथम अन्धमें २१ सन्धियाँ हैं। प्रथम सन्धिमें देव, गुरू और धर्म तथा गुण दोषोंका वर्णन है। इसमें ३९ कड़वक है। उसमक्षमादि दश धर्म, २२ परीषह, पंचाचार, १२ तप आदिका कथन किया है। पंचास्तिकाय और षड्द्रव्यका वर्णन भी इसी सन्धिमें आया है। समस्त कोंक भेद-प्रभेदका कथन भी प्राप्त होता है । कविने नामकर्मको ४२ प्रकृतियोंका निर्देश करते हुए लिखा है--
णारय-तिरिय-गराण, सह देवाउ चउत्पा ।
जामहो णामहं मेड, सुण एवहि बायालीसज ||३||
गइ जाइ णामु तणु अंगु-बंगु, णिम्माणय बंधण पाम अंगु ।
संघायणामु संठाणणामु, संहणणणामु भासह अकामु ।।
रस फास गंधु अणुपुचिणामु, बणागुरुलह उवधायणामु ।
परघायातप उज्जोवणामु, उस्सास विहायगई सणामु ॥
साहारण पत्तेयंगणाम, तस थावर सुहमासुहमणामु ।।
सोहागणामु दोहागणामु, सुस्सर-दुस्सर सुह-असुहणाभु ।।
पज्जत इयर थिर अधिर णामु, आदेउ तहाउणादेउणामु ।।
जकित्ति अजस किप्तीण णामु, तित्थयरणामु सिवसोक्षधाम् ।
इय पिडापिडा पद्धि जणिय, चालीसदु जाहिय भेय भणिय ।
णामक्ख होसि तेणबइ भेय, विवरिहि जइ जाहि विणेय ।
द्वितीय सन्धिमें सुभौम चक्रवतीको उत्पत्ति और परशुरामके मरणका वर्णन किया गया है । तृतीय सन्धि पद्यरथ राजाका उपसर्ग-सहन, आकाश गमन, विद्यासाधन और अंजनचौरका निर्वाण-गमन वणित है। चतुर्थ सन्धि में अनन्तमतीकी कथा आयी है। पंचम सन्धिमें निविचिकित्सागुणका वर्णन आया है। षष्ट सन्धिमें अमढष्टिगुणका वर्णन है। सप्तम सन्धिमें उपगृहन और स्थितिकरणके कथानक आये हैं । अष्टम सन्धिमें वात्सल्य-गणकी कथा वर्णित है । नवम सन्धिमें प्रभावना अंगकी कथा आयो है। दशम सन्धिमें कौमुदीन्यात्राका वर्णन है। ग्यारहवीं सन्धिमें उदितोदय सहित उपदेशदान वर्णित है । बारहवीं सन्धिमें परिवारसहित उदितोदयका तपश्चरण-ग्रहण आया है । १३वीं सन्धिमें बेत्तालकथानक वर्णित है। १४वी सन्धिमें माला कथानक आया है। १५वीं सन्धिमें सोमश्रीकी कथा वर्णित है। १६वी सन्धिमें काशोदेश, वाराणसी नगरीके वर्णनके पश्चात् भषि और नियमोंका वर्णन है। १७वीं सन्धि अनस्तमित अर्थात् रात्रिभोजनत्यागनतकी कथा वर्णित है। १८वीं सन्धिमें दया-धर्मके फलको प्राप्त करने वालोंको कथा वर्णित है । १९वीं सन्धि नरकगसिके दुःखोंका वर्णन किया गया है । २०वीं सन्धिमें बिना जाने हुए फल-भक्षणके त्यागको कथा वणित है । २१वीं सन्धि उदितोदय राजाओं को परिव्रज्या और उनका स्वर्गगमन आया है । इस प्रकार इस ग्रन्थ में सम्य ग्दर्शनके आठ अंग, तनियम, रात्रिभोजनत्याग आदिके कथानक वर्णित हैं।कथाओं के द्वारा कविने धर्म-तत्त्वको हृदयंगम करानेका प्रयास किया है।
इस ग्रन्थमें ५३ सन्धियाँ हैं और प्रत्येक सन्धिमें कम-से-कम एक कथा अवश्य आयी है। ये सभी कथाएं धार्मिक और उपदेशप्रद है । कथाओंका उद्देश्य मनुष्यके हृदय में निवेद-भाव जागृत कर वैराग्यकी ओर अग्रसर करना है। कथाकोषमें आई हुई कथाएँ तीर्थंकर महावीर के कालसे मुरुपरम्परा द्वारा निरन्तर चलती आ रही हैं । प्रथम सन्धिमें पात्रदान द्वारा धनकी सार्थकता प्रतिपादित कर स्वाध्यायसे लाभ और उसकी आवश्यकतापर जोर दिया है। इस सन्धिके अन्त में सोमशर्मा ज्ञानसम्पादनसे निराश हो
समाधिमरण ग्रहण करता है तथा पाँच दिनोंके समाधिमरण द्वारा स्वर्गम अबधि मानी देव होता है ।द्वितीय सन्धिमें सम्यक्त्वके अतिचार और शंकादि दोषों के उदा हरण आये हैं | इन उदाहरणोंको स्पष्ट करने के लिए आख्यानोंकी योजना की गई है । तृतीय सन्धिमें उपगृहन आदि सम्यक्त्व के चार गुण बतलाये हैं और उपग्रहनका दृष्टान्त पन मारने का पुजापुर के राजकुमार विशाखको कथा आई है। प्रसंगवश इस कथामें विष्णुकुमारमुनि और राजा बलिका आख्यान भी वर्णित है। चतुर्थ सन्धिमें प्रभावनाविषयक वच्चकुमारको कथा अंकित है। पंचम सन्धिमें श्रद्धानका फल प्रतिपादित करनेके लिए हस्तिनापुर, के राजा धनपाल और सेठ जिनदासकी कथा आयी है। छठी सन्धिमें श्रुत्त विनयका आख्यान, गुरुनिन्हबकथा, ध्यंजनहीनकथा, अर्थहीनकथा, सक्षम सन्धिमें नामदत्तमुनिकथा, शूरमित्रकथा, वासुदेवकथा, कल्हासमित्रकथा और हंसकथा, अष्टम सन्धिमें हरिषेणचक्रीकथा, नवम सन्धि में विष्णुप्रद्युम्न कथा और मनुष्यजन्मकी दुर्लभता सिद्ध करनेवाले दृष्टान्त, दशम सन्धिमें संघश्रीकथा, एकादश सन्धि में द्रव्यदत्तका आख्यान, जिनदत्त-वसुदत्तका आख्यान, लकुचकुमारका आख्यान, पचरथका आख्यान, ब्रह्मदत्तचक्रवर्ती आख्यान, जिनदास-आख्यान, रुद्रदत्त-आख्यान, द्वादश सन्धिमें श्रेणिकचरित, अयोदश सन्धिमें श्रेणिकका महावीरके समवशरण में जाना और वहाँ धर्मोपदेश का श्रवण करना, पन्द्रहवीं और सोलहवीं सन्धियों में विविध प्रश्न और आख्यानोंका वर्णन है। सत्रहवीं और अठाहरची सन्धिमें करकंडका चरित वणित है । १९ बों और २० वी सन्धिमें रोहिणीचरित वणित है। २१ वीं सन्धिमें भक्ति और पूजाफल सम्बन्धो आख्यान निबद्ध हैं । रवी सन्धिमें नमो कारमन्त्रकी अराधनाके फल को बतलानेवाले सुदर्शन आदिके आख्यान अंकित हैं । २३ वीं, २४ वीं और २५ बी सन्धियों में ज्ञानोपयोगके फलसम्बन्धी कथानक अंकित हैं। २६ वीं और २७ वी सन्धिमें दान और धर्मसम्बन्धी कथानक आये हैं । २८ वीसे लेकर ३४ वीं सन्धि तक पंच पाप और विकारसम्बन्धी तथ्यों के विश्लेषण के लिए कथानक अंकित किये गये हैं। ३५ बी सन्धि प्रशंसनीय महिलाओंक आख्यान, ३६ वीं सन्धिमें श्रावकधर्म और पंचाक्षरमन्त्रके उप देशसम्बन्धी आख्यान गुम्फित है। ३७ वी सन्धिमें शकटमुनि और पाराशरकी कथा, ३८ बी सन्धिमें सात्यकीरूद्रकथा, ६९.वी सन्धिमें राजमुनि कथा, ४० वौं सन्धिमें अर्थको अनर्थमूलता सूचक आख्यान वर्णित हैं। ४१ वीं सन्धिौ धनके निमित्तसे दुःख प्राप्त करनेवाले व्यक्तियोंके आख्यान बणित हैं। ४२वी सन्धिम निदानसे सम्बन्धित कथाएं आयी हैं। ४३वीं सन्धिमें तीनों शल्योंसे सम्बन्धित कथानक, ४४ वीं सन्धिमें स्पर्शन-इन्द्रियके अधीन रहनेवाले
तथा चारों कषायोंका सेवन करनेवाले व्यक्तियोंके कथानक आये हैं; ४५ वीं, ४६ वीं, ४७ वीं, ४८ वीं, ४९ वीं और ५० वीं सन्धियों में परीषहोंपर विजय करने वाले शोलसेन्द्र, सुकुमाल, सुकोशल, राजकुमार, सनत्कुमारचक्रवर्ती, भद्रबाहु, धर्मघोषमुनि, वृषभसेनमुनि अग्निपुत्र, अभयघोष, विद्युच्चर मुनि, चिला. पुत्र, धन्यकुमार, चाणक्यमुनि और ऋषभसेनमुनिकी कथाएँ बणित हैं । ५१ वौं सन्धिमें प्रत्याख्यानके अखण्ड पालनपर श्रीपालकथा, प्रायश्चित्तपर राजपुत्रकथा, आहारगुद्धिपर शालिसिस्थकथा, भोजनकी लोलुपतापर सुभौम चक्रवर्तीकथा और संसारको अनिष्टतापर धनदेवकथा आई है । ५२ वी सन्धि में कर्मफल की प्रबलतापर सुभोगनृपकथा, अत्तभंगपर धर्मसिंहमुनिकथा, ऋषभसेनमुनिकथा और आत्मघात द्वारा संघरवापर जयसेननृपकथा आई है। ५३ वी सन्धिमें समाधिमरणपर शकटालमुनिको कथा अंकित है। इस कथाथमें नगर, देश, ग्राम आदिके वर्णनके साथ यथास्थान अलंकारोंका भी प्रयोग किया गया है।
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आचार्यतुल्य श्री चंद (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 16 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 16 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
श्रीचन्दका नाम 'दसणकहरयणकरंड'में पंडित श्रीचन्द्र भी आया है। कविने अपना परिचय 'दसणकहरयणकरंडु'के अन्सकी प्रशस्तिमें अंकिस किया है । कविने लिखा है
देशोगणपहाणु गुणगणहरु, बबइण्ण णावइ सई गणहरु ।
भब्वमणो-गशिप-दिणेसा, मिरिमिनि ति मुनित्ति गुणीराम ।।
सासु सीसु पंडियचूडामणि, सिरिगंगेयपमह पउरावणि ।
xx धम्मुव रिसिंहचे जसरूवज, सिरिसुयकित्तिणामु संभूयउ ।
सिरि चंदुज्जलजसु संजायज, णामे सहसकित्ति विक्खायउ ।
सिरिचंदु णामु सोहण मुणीसु, संजायज पंडिउ परम सीम् ।
तेणेउ अणेयच्चरियथामु, दसणकहरयणकरडुणामु ।
कारिंदही रज्बेसहो सिरिसिरिमालपुरम्मि ।
बुहसिरिचदें एज कर गंदउ कञ्चु जयम्मि ।
इस प्रशस्तिसे तथा कथाकोशकी प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि श्रीचन्द्र के पूर्व तीन विशेषण प्राप्त होते हैं- कवि, मुनि और पंडित । श्रीचन्द मुनि थे और अन्य-रचना करनेसे वे कवि और पंडितकी उपाधिसे अलंकृत थे। श्रीचन्द ने प्रशस्तियोंमें अपनी गरुपरम्परा निम्न प्रकार अंकित की है
देशीगण, कुन्दकुन्दान्वय
श्रीकीति
श्रुतकीति
सहस्रकीति
वीरचन्द्र
श्रीचन्द्र
सहस्रकीतिके पांच शिष्य थे-देवचन्द्र, वासवमुनि, उदयकोति, शुभचन्द्र और वीरचन्द्र । इन पांचों शिष्योंमेंसे वीरचन्द्र अन्तिम शिष्य थे। इन्हीं वीरचन्द्र के शिष्य श्रीचन्द्र हैं।
गुरु | वीरचन्द्र |
श्रीचन्द्रने कथाकोशकी रचनाके प्रेरकोंका वंशपरिचय विस्तारपूर्वक दिया है । बताया है कि सौराष्ट्र देशके अहिल्लपुर (पाटण) नामक नगरमें प्राग्वाट वंशीय सज्जन नामके एक व्यक्ति हुए, जो मूलराल नरेशके धर्मस्थानके गोष्ठी कार अर्थात् धार्मिक कथावार्ता सुनानेवाले थे । इनके पुत्र कृष्ण हुए, जिनकी भगिनीका नाम जयन्ती और पत्नी का नाम राणू था। उनके तीन पुत्र हुए बीजा, साहनपाल और साडदेव तथा चार कन्याएँ-श्री, श्रृंगारदेवी, सुन्दू और सोनू । इनमें सुन्दू या सुन्दुका विशेषरूपसे जैनधर्मके उद्धार और प्रचारमें रुचि रखती थी। कृष्णको इस सन्तानने अपने कर्मक्षयसे हेतु कथाकोशकी व्याख्या कराई । आगे इसो प्रशस्तिमें बताया गया है कि कर्त्ताने भव्योंकी प्रार्थनासे पूर्व आचार्यकी कृतिको अवगत कर इस सुन्दर कथाकोशको रचना की।
इस कथनसे यह अनुमान होता है कि इस विषयपर पूर्वाचार्यकी कोई रचना श्रीचन्द्रमुनिके सम्मुख थी। प्रथम उन्होंने उसी रचनाका व्याख्यान श्रावकोंको सुनाया होगा, जो उन्हें बहुत रोचक प्रतीत हुआ। इसीसे उन्होंने उनसे प्रार्थना की कि आप स्वतन्त्ररूपसे कथाकोशकी रचना कीजिये । फल स्वरूप प्रस्तुत ग्रन्थका प्रणयन किया गया है । प्रशस्तिमें ग्रंथकारके व्याख्यातृत्व और कवित्व आदि गुणोंका विशेषरूपसे निर्देश किया गया है। अतएव यह स्पष्ट है कि सौराष्ट्र देशके अणहिल्लपुरमें कृष्ण श्रावक और उनके परिवारको प्रेरणासे कथाकोश ग्रन्धकी रचना हुई है।
'दसणकहरमणकरडु' ग्रंथको सन्धियोंके पुष्पिकावाक्योंमें 'पं० श्रीचन्द्र कृत' निर्देश मिलता है । यह निर्देश सोलहबों सन्धि तक ही पाया जाता है।
१७वीं से २१ची सन्धि तककी पुषिकाओं में 'इय सिरिचन्दमुणीन्दकए' (इति श्रीचन्द्रमुनिकृस) उल्लेख मिलता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि 'दसणकहरयणकरड' की १६वीं सन्धिकी रचना तक श्रीचन्द्र श्रावक थे, पर इसके पश्चात उन्होंने मुनि-दीक्षा ग्रहण की होगी। अतएब उन्होंने 'दसणकह रमणकरंडु' की अवशिष्ट सन्त्रियाँ और कथाकोशको रचना मुनि अवस्थामें को है
श्रीचन्द्रका व्यक्तित्व श्रावक और श्रमण दोनोंका समन्वित रूप है । कवित्वके साथ उनकी व्याख्यानशैली भी मनोहर थी। श्रीचन्द्र राजाश्रयमें भी थे । श्रीमालपुर और अणहिल्लपुरके साथ उनका निकटका सम्बन्ध था । रचनासे यह भी जात होता है कि श्रीचन्द्र मनुष्यजन्मको दुर्लभ समझ दिगम्बर दीक्षामें प्रवृत्त हुए थे। मनुष्यअन्मको दुर्लभताके लिए उन्होंने पाशक, धान्य धूस, रत्नकथा, स्वप्न, चन्द्रकवेध, कूर्मकथा, युग्म और परमाणुको दृष्टान्त कथाएं उपस्थित को हैं, जिससे उनका अध्यात्मप्रेमप्रकट होता है। कविके आख्यानको इस शैलोसे यह भी ध्वनित होता है कि वे संसारमें धर्म पुरुषार्थको महत्त्व देते थे।
कवि श्रीचन्द्रने 'दसणकहरयणकरंडु'को प्रशस्तिमें उसके रचनाकालका निर्देश किया है। बताया है
एघारहत्तेवीसा वाससया विक्कमस्स गरवइणो ।
जइया गया हु तइया समाणियं सुंदरं कब्धं ॥१॥
कण्ण-परिदहो रज्जेसहो सिरिसिरिमालपुरम्मि ।
बुह-सिरिचंदें एउ किउ पंदउ कन्च जम्मि ।।२।।
अर्थात् वि० सं० ११२३ व्यतीत होनेपर कर्ण नरेन्द्र के राज्यमें श्रीमालपुरमें विद्वान् श्रीचन्द्रने इस 'दसणकहरयणकरंडु' काव्यको रचना की। यह कर्ण सोलंकीनरेश भीमदेव प्रथमके उत्तराधिकारी थे और इन्होंने सन् १०१४से ई० सन् १८१४ तक राज्य किया है। अतएव कचिने ई० सन् १०६६में उक्त ग्रंथकी रचना की है, जो कर्णके राज्यकालमें सम्पन्न हुई है।
श्रीमाल अपरनाम भीनमाल दक्षिण मारवाड़की राजधानी थी । सोलंकी नरेश भीमदेवने सन् १७६० ई. में बहाँके परमारवंशी राजा कृष्णराजको पराजितकर बंदोमहमें डाल दिया और भीनमालपर अधिकार कर लिया। उनका यह अधिकार उनके उत्तराधिकारी कर्णतक स्थिर रहा प्रतीत होता है।
'दसणकहरयणकरंडू'को १६वीं सन्धि तक 'पंडित' विशेषण उपलब्ध होता है और इसके पश्चात् 'मुनि विशेषण प्राप्त होने लगता है। कथाकोशकी रचना 'दर्शनकथारत्नकरण्ड के पश्चात् हुई होगी। श्री डॉ० हीरालालजीने इस ग्रंथ का रचनाकाल ई० सन् १०७०के लगभग माना है।'
कथाकोषको प्रशस्तिसे यह स्पष्ट है कि महाश्रावक कृष्णके परिवारकी प्रेरणासे यह ग्रंथ लिखा है। इनके पिता सज्जन मलराजनरेशके धर्मस्थानके गोष्ठीकार थे । ये मूलराज वही हैं, जिन्होंने गुजरातमें बनराज द्वारा स्थापित चाबड़ावंशको च्युतकर ई० सन् ९४१में सोलंकी चालुक्य वंशको स्थापना की पी। प्रशस्तिमें यह भी बताया गया है कि प्रधकारके परदादागुरु श्रुतकीत्तिके चरणोंकी पुजा गांगेय, भोजदेव आदि बड़े-बड़े राजाओंने को थी । डॉ हीरा लालजीका अनुमान है कि गांगेय निश्चयतः शाहल (जबलपुरके आस-पासका प्रदेश) के के ही कलचुरी नरेश गांगेयदेव होगा बाहिर, जीप पश्चा सन् २०१५ के लगभग सिंहासनारून होकर सन् १०३८ तक राज्य करते रहे । भोजदेव धाराके वे ही परमारवंशी राखा है, जिन्होंने ई० सन् २००० से १०५५ तक मालवापर राज्य किया सपा जिनका गुजरातके सोलंकी राजाओंसे अनेक बार संघर्ष हुआ । अतएव श्रीचन्द्रका समय ई० सनको ११वीं शती होना चाहिए।
श्रीचन्द्र मुनिकी दो रचनाएं उपलब्ध है.---
'दसणकहरयणकरंडु' और 'कहाकीसु।
प्रथम अन्धमें २१ सन्धियाँ हैं। प्रथम सन्धिमें देव, गुरू और धर्म तथा गुण दोषोंका वर्णन है। इसमें ३९ कड़वक है। उसमक्षमादि दश धर्म, २२ परीषह, पंचाचार, १२ तप आदिका कथन किया है। पंचास्तिकाय और षड्द्रव्यका वर्णन भी इसी सन्धिमें आया है। समस्त कोंक भेद-प्रभेदका कथन भी प्राप्त होता है । कविने नामकर्मको ४२ प्रकृतियोंका निर्देश करते हुए लिखा है--
णारय-तिरिय-गराण, सह देवाउ चउत्पा ।
जामहो णामहं मेड, सुण एवहि बायालीसज ||३||
गइ जाइ णामु तणु अंगु-बंगु, णिम्माणय बंधण पाम अंगु ।
संघायणामु संठाणणामु, संहणणणामु भासह अकामु ।।
रस फास गंधु अणुपुचिणामु, बणागुरुलह उवधायणामु ।
परघायातप उज्जोवणामु, उस्सास विहायगई सणामु ॥
साहारण पत्तेयंगणाम, तस थावर सुहमासुहमणामु ।।
सोहागणामु दोहागणामु, सुस्सर-दुस्सर सुह-असुहणाभु ।।
पज्जत इयर थिर अधिर णामु, आदेउ तहाउणादेउणामु ।।
जकित्ति अजस किप्तीण णामु, तित्थयरणामु सिवसोक्षधाम् ।
इय पिडापिडा पद्धि जणिय, चालीसदु जाहिय भेय भणिय ।
णामक्ख होसि तेणबइ भेय, विवरिहि जइ जाहि विणेय ।
द्वितीय सन्धिमें सुभौम चक्रवतीको उत्पत्ति और परशुरामके मरणका वर्णन किया गया है । तृतीय सन्धि पद्यरथ राजाका उपसर्ग-सहन, आकाश गमन, विद्यासाधन और अंजनचौरका निर्वाण-गमन वणित है। चतुर्थ सन्धि में अनन्तमतीकी कथा आयी है। पंचम सन्धिमें निविचिकित्सागुणका वर्णन आया है। षष्ट सन्धिमें अमढष्टिगुणका वर्णन है। सप्तम सन्धिमें उपगृहन और स्थितिकरणके कथानक आये हैं । अष्टम सन्धिमें वात्सल्य-गणकी कथा वर्णित है । नवम सन्धिमें प्रभावना अंगकी कथा आयो है। दशम सन्धिमें कौमुदीन्यात्राका वर्णन है। ग्यारहवीं सन्धिमें उदितोदय सहित उपदेशदान वर्णित है । बारहवीं सन्धिमें परिवारसहित उदितोदयका तपश्चरण-ग्रहण आया है । १३वीं सन्धिमें बेत्तालकथानक वर्णित है। १४वी सन्धिमें माला कथानक आया है। १५वीं सन्धिमें सोमश्रीकी कथा वर्णित है। १६वी सन्धिमें काशोदेश, वाराणसी नगरीके वर्णनके पश्चात् भषि और नियमोंका वर्णन है। १७वीं सन्धि अनस्तमित अर्थात् रात्रिभोजनत्यागनतकी कथा वर्णित है। १८वीं सन्धिमें दया-धर्मके फलको प्राप्त करने वालोंको कथा वर्णित है । १९वीं सन्धि नरकगसिके दुःखोंका वर्णन किया गया है । २०वीं सन्धिमें बिना जाने हुए फल-भक्षणके त्यागको कथा वणित है । २१वीं सन्धि उदितोदय राजाओं को परिव्रज्या और उनका स्वर्गगमन आया है । इस प्रकार इस ग्रन्थ में सम्य ग्दर्शनके आठ अंग, तनियम, रात्रिभोजनत्याग आदिके कथानक वर्णित हैं।कथाओं के द्वारा कविने धर्म-तत्त्वको हृदयंगम करानेका प्रयास किया है।
इस ग्रन्थमें ५३ सन्धियाँ हैं और प्रत्येक सन्धिमें कम-से-कम एक कथा अवश्य आयी है। ये सभी कथाएं धार्मिक और उपदेशप्रद है । कथाओंका उद्देश्य मनुष्यके हृदय में निवेद-भाव जागृत कर वैराग्यकी ओर अग्रसर करना है। कथाकोषमें आई हुई कथाएँ तीर्थंकर महावीर के कालसे मुरुपरम्परा द्वारा निरन्तर चलती आ रही हैं । प्रथम सन्धिमें पात्रदान द्वारा धनकी सार्थकता प्रतिपादित कर स्वाध्यायसे लाभ और उसकी आवश्यकतापर जोर दिया है। इस सन्धिके अन्त में सोमशर्मा ज्ञानसम्पादनसे निराश हो
समाधिमरण ग्रहण करता है तथा पाँच दिनोंके समाधिमरण द्वारा स्वर्गम अबधि मानी देव होता है ।द्वितीय सन्धिमें सम्यक्त्वके अतिचार और शंकादि दोषों के उदा हरण आये हैं | इन उदाहरणोंको स्पष्ट करने के लिए आख्यानोंकी योजना की गई है । तृतीय सन्धिमें उपगृहन आदि सम्यक्त्व के चार गुण बतलाये हैं और उपग्रहनका दृष्टान्त पन मारने का पुजापुर के राजकुमार विशाखको कथा आई है। प्रसंगवश इस कथामें विष्णुकुमारमुनि और राजा बलिका आख्यान भी वर्णित है। चतुर्थ सन्धिमें प्रभावनाविषयक वच्चकुमारको कथा अंकित है। पंचम सन्धिमें श्रद्धानका फल प्रतिपादित करनेके लिए हस्तिनापुर, के राजा धनपाल और सेठ जिनदासकी कथा आयी है। छठी सन्धिमें श्रुत्त विनयका आख्यान, गुरुनिन्हबकथा, ध्यंजनहीनकथा, अर्थहीनकथा, सक्षम सन्धिमें नामदत्तमुनिकथा, शूरमित्रकथा, वासुदेवकथा, कल्हासमित्रकथा और हंसकथा, अष्टम सन्धिमें हरिषेणचक्रीकथा, नवम सन्धि में विष्णुप्रद्युम्न कथा और मनुष्यजन्मकी दुर्लभता सिद्ध करनेवाले दृष्टान्त, दशम सन्धिमें संघश्रीकथा, एकादश सन्धि में द्रव्यदत्तका आख्यान, जिनदत्त-वसुदत्तका आख्यान, लकुचकुमारका आख्यान, पचरथका आख्यान, ब्रह्मदत्तचक्रवर्ती आख्यान, जिनदास-आख्यान, रुद्रदत्त-आख्यान, द्वादश सन्धिमें श्रेणिकचरित, अयोदश सन्धिमें श्रेणिकका महावीरके समवशरण में जाना और वहाँ धर्मोपदेश का श्रवण करना, पन्द्रहवीं और सोलहवीं सन्धियों में विविध प्रश्न और आख्यानोंका वर्णन है। सत्रहवीं और अठाहरची सन्धिमें करकंडका चरित वणित है । १९ बों और २० वी सन्धिमें रोहिणीचरित वणित है। २१ वीं सन्धिमें भक्ति और पूजाफल सम्बन्धो आख्यान निबद्ध हैं । रवी सन्धिमें नमो कारमन्त्रकी अराधनाके फल को बतलानेवाले सुदर्शन आदिके आख्यान अंकित हैं । २३ वीं, २४ वीं और २५ बी सन्धियों में ज्ञानोपयोगके फलसम्बन्धी कथानक अंकित हैं। २६ वीं और २७ वी सन्धिमें दान और धर्मसम्बन्धी कथानक आये हैं । २८ वीसे लेकर ३४ वीं सन्धि तक पंच पाप और विकारसम्बन्धी तथ्यों के विश्लेषण के लिए कथानक अंकित किये गये हैं। ३५ बी सन्धि प्रशंसनीय महिलाओंक आख्यान, ३६ वीं सन्धिमें श्रावकधर्म और पंचाक्षरमन्त्रके उप देशसम्बन्धी आख्यान गुम्फित है। ३७ वी सन्धिमें शकटमुनि और पाराशरकी कथा, ३८ बी सन्धिमें सात्यकीरूद्रकथा, ६९.वी सन्धिमें राजमुनि कथा, ४० वौं सन्धिमें अर्थको अनर्थमूलता सूचक आख्यान वर्णित हैं। ४१ वीं सन्धिौ धनके निमित्तसे दुःख प्राप्त करनेवाले व्यक्तियोंके आख्यान बणित हैं। ४२वी सन्धिम निदानसे सम्बन्धित कथाएं आयी हैं। ४३वीं सन्धिमें तीनों शल्योंसे सम्बन्धित कथानक, ४४ वीं सन्धिमें स्पर्शन-इन्द्रियके अधीन रहनेवाले
तथा चारों कषायोंका सेवन करनेवाले व्यक्तियोंके कथानक आये हैं; ४५ वीं, ४६ वीं, ४७ वीं, ४८ वीं, ४९ वीं और ५० वीं सन्धियों में परीषहोंपर विजय करने वाले शोलसेन्द्र, सुकुमाल, सुकोशल, राजकुमार, सनत्कुमारचक्रवर्ती, भद्रबाहु, धर्मघोषमुनि, वृषभसेनमुनि अग्निपुत्र, अभयघोष, विद्युच्चर मुनि, चिला. पुत्र, धन्यकुमार, चाणक्यमुनि और ऋषभसेनमुनिकी कथाएँ बणित हैं । ५१ वौं सन्धिमें प्रत्याख्यानके अखण्ड पालनपर श्रीपालकथा, प्रायश्चित्तपर राजपुत्रकथा, आहारगुद्धिपर शालिसिस्थकथा, भोजनकी लोलुपतापर सुभौम चक्रवर्तीकथा और संसारको अनिष्टतापर धनदेवकथा आई है । ५२ वी सन्धि में कर्मफल की प्रबलतापर सुभोगनृपकथा, अत्तभंगपर धर्मसिंहमुनिकथा, ऋषभसेनमुनिकथा और आत्मघात द्वारा संघरवापर जयसेननृपकथा आई है। ५३ वी सन्धिमें समाधिमरणपर शकटालमुनिको कथा अंकित है। इस कथाथमें नगर, देश, ग्राम आदिके वर्णनके साथ यथास्थान अलंकारोंका भी प्रयोग किया गया है।
Acharyatulya Shree Chand (Prachin)
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