हैशटैग
#Shreedhar2
श्रीधर द्वितीयको भी विबुध श्रीपर कहा गया है। इन्होंने अपभ्रंशमें 'भविसरत्तचरित' की रचना चन्द्रबाइनगरमें स्थित माथुरवंशीय नारायणके पुत्र सुपट्ट साहू' की प्रेरणासे की है। यह काव्य नारायण साहूकी भार्या रूपिणीके निमित्त लिखा गया है।
सुपट्ट साहू नारायणके पुत्र थे। उनके ज्येष्ठ भ्राताका नाम वासुदेव था । कविने ग्रंथके अन्त में सुपट्ट साहू और रूपिणीकी प्रशंसा करते हुए पूरा विवरण दिया है । साहूके पूर्वज अपने समय में प्रसिद्ध थे। उसकी सीता नामक गृहिणी थी, जो विनय आदि निर्मल गुणोंसे भूषित थी। उनके हालनामक पुत्र उत्पन्न हुआ । उन दोनोंके जगविख्यात देवचन्द नामका पुत्र हुआ। वह माथुरकुल का भूषण और गुणरत्नोंकी खान था । जैनधर्ममें उसकी प्रगाढ़ श्रद्धा थी। लक्ष्मीके समान उसकी मादी नामको धर्मपत्नी थी। उसके गर्भसे काञ्चनवर्ण साधारणनामके पुत्रने जन्म लिया। उसके दो पुत्र हुए। दूसरेका नाम नारायण था । इसी नारायणकी भार्या 'रूपिणी' थी, जिसने इस प्रन्थको लिख वाया । नारायण के पांच पुत्र हुए । सभी गुणवान और श्रद्धालु थे।
ग्रन्थके रचयिता श्रीधर द्वितीय मुनि थे । उनका व्यक्तित्व रत्नत्रयस्वरूप था। अपने प्रेरक सुपट्ट साहकी अनन्य भक्ति, दान, पूजा, व्रत, आदि धार्मिक अनुष्ठानोंको कविने प्रशंसा की है।
कबिने 'भविसयत्तचरिउ' के रचनाकालका निर्देश किया है
णरणाक्किमाइच्चकाले, पयहत्तए सुधारए विसालें ।
बारहसय बरिसहिं परिगएहि फागुण-मासम्मि बलखपाले, दसमिहि-दिणे तिमिरुककर विवक्खे ।
रविवार समाणिउ एउ सस्थु, जिइ मई परियाणि सुप्पसत्थु ।
भासिउ भविस्सयत्तहो चरित्त, पंचर्चाम उचबासहो फलु पवित्तु ।
१. सिरिचन्दवारणयरहिएण, जिगमम्मकरणउपकठिएण।
माहरकुलगयणतमोहरेण, विबह-पण-सुखयामणधणहरेण । मइवरसुपट्टणामालएण विणएण भणिसं जोडेवि पाणि । - भविष्यदत्तचरित, १,२ । 'झ्य सिरिभविसयत्तचरिए विवृहसिरिसकइसिरिहर-बिरहए साहणरायण-मज्जा-रप्पि णिणामांकिर' । वही।
अर्थात् वि० सं० १२०० फालाम शक्ला दशमी, रविचारके दिन यह ग्रंथ पूर्ण हुआ। इस रचनाकालके निर्देशसे यह स्पष्ट है कि इन विबुध श्रीधरका समय वि० को १३वीं शती है । आमेर-शास्त्रभण्डारकी प्रतिमें उक्त रचना कालका उल्लेख हुमा है। पुष्पिकाबाक्य में कविने स्वनामके साथ अपने प्रेरक का नाम भी अंकित किया है
"इय सिरि-भविसयत्त-चरिए विवुह-सिरिसुकइसिरिहर-विरइए साहु णारायण-भज्जा-कप्पिणि-गामांकिए भविसयत्त-उप्पत्ति-वण्णणो णाम पहमो परि च्छेओ समत्तो।। सन्धि १"
कवि विबुध श्रीधरने भविसयत्तरिउकी रचना कर कथा-साहित्यके विकासको एक नई मोड़ दी है । इस ग्रंयका प्रमाण १५३० श्लोक है।
तीर्थंकरोंकी वन्दनाके पश्चात कविने कथाका आरंभ किया है। कुरुजांगल देशमें हस्तिनापुर नामका नगर है। इस नगरमें भूपालनामका राजा राज्य करता था। राजाने नानागुण-अलंकृत धनपतिको नगरसेठके पट्टपर आसीन किया । धनपतिका विवाह धनेश्वरकी रूपवती कन्या कमल भोके साथ सम्पन्न हुआ। कई वर्ष व्यतीत हो जानेपर भी इस दम्पत्तिको सन्तानलाभ न
हुआ।
एक दिन उस नगरमें सुगुप्ति नामके मुनिराज पधारे | कमलश्रीने पादचंदन कर प्रश्न किया-स्वामिन् ! मुझ मन्दागिनीके पुत्र उत्पन्न होगा या नहीं ? मुनिराजने उत्तरमै पुत्रलाभ होनेका आश्वासन दिया।
कुछ समय पश्चात् धनपतिको सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ। बालकका वापिन संस्कार सम्पन्न किया गया और उसका नाम भविष्यदत्त रखा गया। पांच वर्ष की अवस्था में भविष्यदत्तका विद्यारंभ-संस्कार सम्पन्न हुआ और आठ वर्ष की अवस्थामें उसे उपाध्यायके यहाँ विभिन्न शास्त्रोंके अध्ययनार्थ भेज दिया।
द्वितीय परिच्छेद में बताया है कि पूर्व जन्ममें की गई मुनिनिन्दाके फलस्वरूप धनपतिने कमलीका त्याग कर दिया । कमलश्री रोती हुई अपने पिताके घर गई । धनपतिका भेजा हमा गुणवान् पुरुष धनेश्वर के यहाँ आयाऔर कहने लगा कि कमलनीमें कोई दोष नहीं है, पर पुर्वकर्मादयके विपाक से धनपत्ति इससे घृणा करता है । अतएव आप इसे अपने यहाँ स्थान दीजिए।
कमलश्रोके चले जानेके पश्चात् धनपतिने अपना द्वितीय विवाह धनदत्तसेठको पुत्री सरूपाके साथ कर लिया । इससे बन्धुदत्त नामक पुत्र उत्पन्न हुमा, जो साक्षात् कामदेवके समान था । युवा होनेपर बन्धुदत्त अपने ५०० साथियों के साथ व्यापारके लिए स्वर्णद्वीप जानेकी तैयारी करने लगा । जब भविष्यदत को स्वर्णद्वीप जानेवाले व्यापारियोंका समाचार मिला, तो वह अपनी माताको आज्ञा लेकर अपने सौतेले भाई बन्धुदससे मिला और साथ चलने की इच्छा व्यक्त की । सरूपाने बन्धुदत्तको सिखलाया कि अवसर हाथ आते हो तुम भविष्य दत्तको मार डालना।
शुभ मुहूर्तमें जलपोतों द्वारा प्रस्थान किया गया और वे मदनद्वीप पहुंचे। वहाँसे आवश्यक सामग्री लेकर और भविष्यदत्तको वहीं छोड़कर बन्धुदत्तने अपने जलपोतको आगे बढ़ा दिया । भविष्यदत्त उस जनशून्य बनमें विलाप करता हुआ भ्रमण करने लगा।
तृतीय परिच्छेदमें भविष्यदत्त जिनदेवका स्मरण करता हुआ प्रभातकाल में उठता है और चलकर तिलकपुर पहुंचता है। यहाँ भविष्यदत्तका मित्र विद्युत्प्रभ यनोधर मुनिराजसे अपनी पूर्वभवावलि जान कर अपने मित्रसे मिलने के हेतु चल पड़ता है। विद्युत्प्रभके संकेतसे भविष्यदत्तका विवाह वहाँ रहने वाली सुन्दरी भविष्यानुरूपाके साथ हो जाता है ।
इधर कमलश्री अपने पुत्रके वियोगमें क्षीण होने लगो । उसने सुपत्ता नामक आर्यिकासे श्रुतपंचमीव्रत ग्रहण किया और विधिवत् उसका पालन करने लगी।
चतुर्थ परिच्छेदमें भविष्यानुरूपाका मधुर आख्यान आता है । भविष्यानुरूपा और भविष्यदत्त विपुल धन-रत्नोंके साथ समुद्रके तटपर पहुँचते हैं। संयोगसे इसी समय बंधुदत्त अपने जलपोतको लोटाता हुआ उघर आता है। वह उत्सुकता वश अपने जलपोतको तटपर खड़ा करता है। भविष्यदत्त अपने समस्त समान सहित भविष्यानुरूपाको जलपोत पर बैठा देता है। इतनेमें भविष्यानुरूपाको स्मरण आता है कि उसकी नाममुद्रा तिलकपुरकी सेजपर छट गई है। वह अपने पतिदेवको मुद्रिका लानेके लिए भेज देती है और उधर बंधुदत्त अपने जहाजको खोल देता है । बन्धुदत्त भविष्यानुरूपाको प्रलोभन देता है और अपने अधीन करना चाहता है । भविष्यानुरूपा समुदमें कूद कर प्राण देना चाहती है; पर बनदेवी स्वप्नमें आकर उसे धैर्य देती है और कहती है कि तुम्हारा पति एक महीने में तुमसे मिलेगा, तुम चिन्ता मत करो।
बन्धुदत्तका जलपोत हस्तिनापुर लौट आता है और बह घोषित कर देता है कि भविष्यानुरूपा उसको वाग्दत्ता पत्नी है और वह शीघ्न ही उसके साथ विवाह करेगा।
इधर भविष्यदन तिलकपुरके सुनसान बनमें उदास मन होकर निवासहै। वह चन्द्रप्रभके जिनालयमें जाकर विधिवत् भक्तिभाव करता है। इतने में वहाँ एक विद्याधर उपस्थित होता है और उससे कहता है कि मैं तुम्हें विमान में जाकर हस्तिनाग र पहुँचाने के लिए आया है। भविष्यदत्त नानाप्रकारके रत्नोंको लेकर हस्तिनापुर आता है और मौके चरणवन्दन कर आशीर्वाद लेता है। दूसरे दिन प्रातःकाल भविष्यदत्त विविध प्रकारके मणि-माणिक्योंको लेकर राजाके समक्ष उपस्थित हुआ । भविष्यदत्तके मामाने राजासे कहा कि हमारे भांजेके साथ बंधुदत्तका झगड़ा है । राजाने धनपति सेठको बुलाया; पर सेठने घरमें विवाह होनेसे इस प्रसंगको टालना चाहा । तब राजाने उसे बलात् बुलाया। कमलनीने जाकर राजाके समक्ष भविष्यानुरूपाकी नागमुद्रा तथा अन्य वस्त्राभूषण उपस्थित किये । राजा बन्धुदतको करतूतको समझ गया और दह बन्धुदत्तको मारने के लिये तैयार हुआ | पर भविष्यदत्तने उसके प्राणोंकी रक्षा की। राजाने भविष्यदत्तको आधा सिंहासन दिया और अपनी पुत्रीको देने का वचन दिया | धनपतिने कमलश्रीसे अपने व्यवहारके लिए क्षमा याचना की। भविष्यदत्तका भविष्यानुरूपाके साथ पाणिग्रहण सम्पन्न हुआ। राजाने भी आधा राज्य देकर अपनी पुत्री सुमित्राका भविष्यदत्तके साथ विवाह कर दिया ।
पंचम परिच्छेद भविष्यदत्तके राज्य करनेसे आरंभ होता है । भविष्यानुरूपा को दोहला उत्पन्न हुआ और उसने तिलकद्वीप जानेकी इच्छा प्रकट की । इतनेमें मनोवेग नामका एक विद्याधर भविष्यदत्तके पास आया और कहा कि मेरी माता तुम्हारे घरमें प्रियाके गर्भ में आई है। ऐसा मुझसे मुनिराजने कहा है । अतएव आप भविष्यानुरूपाके साथ मेरे विमानमें बैठकर तिलकद्वीपकी यात्रा कीजिये । भविष्यदत्तने भविष्यातुरूपाको तिलकद्वीपका दर्शन कराया। भविष्यानुरूपाके गर्भसे सोमप्रभ नामक पुत्र उत्पन्न हुमा । कुछ वर्षोंके पश्चात् कंचनप्रभ नामक द्वितीय पुत्र उत्पन्न हुआ। तदनन्तर तारा और सुतारा नामको पुत्रियां उत्पन्न हुई । सुमिनाके गर्भसे धरणीपति नामक पुत्र और धारिणी नामकी कन्या हुई । इस प्रकार भविष्यदत्त परिवार सहित राज्य करता रहा । उसने मणिभद्रकी सहायतासे सिंहलद्वीप तक अपनी कोत्ति न्यार कर ली और अनेक राजाओंको अपने अधीन किया । एक दिन वह सपरिवार चारणऋद्धिधारी मुनिके दर्शन के लिए गया । उसने मुनिराजसे श्रावकके प्रत पहण किये ।
पठ परिच्छेदमें भविष्यदत्तके निर्वाण-लाभका वर्णन है। कमलश्री, सुव्रताके साथ आर्यिका हो जाती है और धनपति ऐलकबत ग्रहण कर लेते हैं। बह कठोर तप कर दसवें स्वर्ग में इन्द्र होते हैं और कमलश्री स्त्रीलिंगका छेद कर रत्नचूल नामका देव होती है । भविष्यानुरूपा भी स्वर्ग में जाकर देव हुई
और वहाँसे पृथ्वीतल पर आकर पुत्र हुई । विवुध श्रीधरने कथाके मर्मस्पर्शी स्थलोको पर्याप्त रसमय बनानेका प्रयास किया है। कमलश्री रात-दिन रोती है। उसकी आँखसे अश्रुधारा प्रवाहित होती है। भूखी, प्यासी और क्षीण शरीर होनेपर भी अपने मैले शरीरपर ध्यान नहीं देती | कविने लिखा है--
ता भणई किसोयरि कमलसिरि ण करमि कमल मुहुल्लउ ।
पर सुमति हे सुउ होइ मह फुट्ट ण मण हियउल्लेउ । (३,१६)
रोबइ धुवइ गयण चुव अंसुव जलधार्हि बत्तओ ।
भुक्लई खोण देह तम्हाइय ण मुणई मलिण गत्तओ । (४५)
कविने प्रकृति-चित्रण भी बहुत ही मनोरम शैलीमें उपस्थित किया है। भविष्यदत्त भयानक वनमें मदजलसे भरे हुए हाथियों को देखता है । इस वनमें कहीं पर शाखामृग निर्भय होकर डालियोंसे विपके हुए थे; कहीं पर छोटी और कहींपर आकाशको छूने वाली बड़ी वृक्ष-शाखाओंपर लोटते हुए हरे फलोंको तोड़ते हुए वानर दिखलाई दे रहे थे। कहीं पर पुष्ट शरीर वाले सूबर, कहीं पर विकराल कालके समान बन्य-पा दिखाई पड़ रहे थे ! उसीके पास झरना प्रवाहित हो रहा, था जो पहाड़को गुफाओंको अपने कल-कल शब्दसे भर रहा था।
तें बाहुडडेग कमलसिरिपुत्तेण
दिवाई तिरियाई बहुदुखभरियाई
रायवरहो जतासु मयजलविलित्तासु
कित्युवि मयाहीसु अणुलग्गु गिरभीसु
कित्युवि महोया गयणयलावगया
सहासु लोडंतु हरिफलई तोहंतु
केथुनि वराहाहं वलवंतरेहाह
महबग्धु आलमगु रोसेण परिभग्गु
केरथुवि विरालाई दिट्टई करालाई
केत्युवि सियालाई जुज्झति थूलाई
तहे पासे णिज्झरइ सरंतई गिरिकन्दर-विवराई भरंतई ।
इस ग्रन्थके संवाद भी बड़े रोचक है । प्रबन्ध-रचनामें कविने स्वाभावि कताके साथ काव्य-रूढ़ियों का पालन किया है। यह ग्रन्थ कडवक-पद्धतिमें पद्धडिया-छन्दमें लिखा गया है।
श्रीधर द्वितीयको भी विबुध श्रीपर कहा गया है। इन्होंने अपभ्रंशमें 'भविसरत्तचरित' की रचना चन्द्रबाइनगरमें स्थित माथुरवंशीय नारायणके पुत्र सुपट्ट साहू' की प्रेरणासे की है। यह काव्य नारायण साहूकी भार्या रूपिणीके निमित्त लिखा गया है।
सुपट्ट साहू नारायणके पुत्र थे। उनके ज्येष्ठ भ्राताका नाम वासुदेव था । कविने ग्रंथके अन्त में सुपट्ट साहू और रूपिणीकी प्रशंसा करते हुए पूरा विवरण दिया है । साहूके पूर्वज अपने समय में प्रसिद्ध थे। उसकी सीता नामक गृहिणी थी, जो विनय आदि निर्मल गुणोंसे भूषित थी। उनके हालनामक पुत्र उत्पन्न हुआ । उन दोनोंके जगविख्यात देवचन्द नामका पुत्र हुआ। वह माथुरकुल का भूषण और गुणरत्नोंकी खान था । जैनधर्ममें उसकी प्रगाढ़ श्रद्धा थी। लक्ष्मीके समान उसकी मादी नामको धर्मपत्नी थी। उसके गर्भसे काञ्चनवर्ण साधारणनामके पुत्रने जन्म लिया। उसके दो पुत्र हुए। दूसरेका नाम नारायण था । इसी नारायणकी भार्या 'रूपिणी' थी, जिसने इस प्रन्थको लिख वाया । नारायण के पांच पुत्र हुए । सभी गुणवान और श्रद्धालु थे।
ग्रन्थके रचयिता श्रीधर द्वितीय मुनि थे । उनका व्यक्तित्व रत्नत्रयस्वरूप था। अपने प्रेरक सुपट्ट साहकी अनन्य भक्ति, दान, पूजा, व्रत, आदि धार्मिक अनुष्ठानोंको कविने प्रशंसा की है।
कबिने 'भविसयत्तचरिउ' के रचनाकालका निर्देश किया है
णरणाक्किमाइच्चकाले, पयहत्तए सुधारए विसालें ।
बारहसय बरिसहिं परिगएहि फागुण-मासम्मि बलखपाले, दसमिहि-दिणे तिमिरुककर विवक्खे ।
रविवार समाणिउ एउ सस्थु, जिइ मई परियाणि सुप्पसत्थु ।
भासिउ भविस्सयत्तहो चरित्त, पंचर्चाम उचबासहो फलु पवित्तु ।
१. सिरिचन्दवारणयरहिएण, जिगमम्मकरणउपकठिएण।
माहरकुलगयणतमोहरेण, विबह-पण-सुखयामणधणहरेण । मइवरसुपट्टणामालएण विणएण भणिसं जोडेवि पाणि । - भविष्यदत्तचरित, १,२ । 'झ्य सिरिभविसयत्तचरिए विवृहसिरिसकइसिरिहर-बिरहए साहणरायण-मज्जा-रप्पि णिणामांकिर' । वही।
अर्थात् वि० सं० १२०० फालाम शक्ला दशमी, रविचारके दिन यह ग्रंथ पूर्ण हुआ। इस रचनाकालके निर्देशसे यह स्पष्ट है कि इन विबुध श्रीधरका समय वि० को १३वीं शती है । आमेर-शास्त्रभण्डारकी प्रतिमें उक्त रचना कालका उल्लेख हुमा है। पुष्पिकाबाक्य में कविने स्वनामके साथ अपने प्रेरक का नाम भी अंकित किया है
"इय सिरि-भविसयत्त-चरिए विवुह-सिरिसुकइसिरिहर-विरइए साहु णारायण-भज्जा-कप्पिणि-गामांकिए भविसयत्त-उप्पत्ति-वण्णणो णाम पहमो परि च्छेओ समत्तो।। सन्धि १"
कवि विबुध श्रीधरने भविसयत्तरिउकी रचना कर कथा-साहित्यके विकासको एक नई मोड़ दी है । इस ग्रंयका प्रमाण १५३० श्लोक है।
तीर्थंकरोंकी वन्दनाके पश्चात कविने कथाका आरंभ किया है। कुरुजांगल देशमें हस्तिनापुर नामका नगर है। इस नगरमें भूपालनामका राजा राज्य करता था। राजाने नानागुण-अलंकृत धनपतिको नगरसेठके पट्टपर आसीन किया । धनपतिका विवाह धनेश्वरकी रूपवती कन्या कमल भोके साथ सम्पन्न हुआ। कई वर्ष व्यतीत हो जानेपर भी इस दम्पत्तिको सन्तानलाभ न
हुआ।
एक दिन उस नगरमें सुगुप्ति नामके मुनिराज पधारे | कमलश्रीने पादचंदन कर प्रश्न किया-स्वामिन् ! मुझ मन्दागिनीके पुत्र उत्पन्न होगा या नहीं ? मुनिराजने उत्तरमै पुत्रलाभ होनेका आश्वासन दिया।
कुछ समय पश्चात् धनपतिको सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ। बालकका वापिन संस्कार सम्पन्न किया गया और उसका नाम भविष्यदत्त रखा गया। पांच वर्ष की अवस्था में भविष्यदत्तका विद्यारंभ-संस्कार सम्पन्न हुआ और आठ वर्ष की अवस्थामें उसे उपाध्यायके यहाँ विभिन्न शास्त्रोंके अध्ययनार्थ भेज दिया।
द्वितीय परिच्छेद में बताया है कि पूर्व जन्ममें की गई मुनिनिन्दाके फलस्वरूप धनपतिने कमलीका त्याग कर दिया । कमलश्री रोती हुई अपने पिताके घर गई । धनपतिका भेजा हमा गुणवान् पुरुष धनेश्वर के यहाँ आयाऔर कहने लगा कि कमलनीमें कोई दोष नहीं है, पर पुर्वकर्मादयके विपाक से धनपत्ति इससे घृणा करता है । अतएव आप इसे अपने यहाँ स्थान दीजिए।
कमलश्रोके चले जानेके पश्चात् धनपतिने अपना द्वितीय विवाह धनदत्तसेठको पुत्री सरूपाके साथ कर लिया । इससे बन्धुदत्त नामक पुत्र उत्पन्न हुमा, जो साक्षात् कामदेवके समान था । युवा होनेपर बन्धुदत्त अपने ५०० साथियों के साथ व्यापारके लिए स्वर्णद्वीप जानेकी तैयारी करने लगा । जब भविष्यदत को स्वर्णद्वीप जानेवाले व्यापारियोंका समाचार मिला, तो वह अपनी माताको आज्ञा लेकर अपने सौतेले भाई बन्धुदससे मिला और साथ चलने की इच्छा व्यक्त की । सरूपाने बन्धुदत्तको सिखलाया कि अवसर हाथ आते हो तुम भविष्य दत्तको मार डालना।
शुभ मुहूर्तमें जलपोतों द्वारा प्रस्थान किया गया और वे मदनद्वीप पहुंचे। वहाँसे आवश्यक सामग्री लेकर और भविष्यदत्तको वहीं छोड़कर बन्धुदत्तने अपने जलपोतको आगे बढ़ा दिया । भविष्यदत्त उस जनशून्य बनमें विलाप करता हुआ भ्रमण करने लगा।
तृतीय परिच्छेदमें भविष्यदत्त जिनदेवका स्मरण करता हुआ प्रभातकाल में उठता है और चलकर तिलकपुर पहुंचता है। यहाँ भविष्यदत्तका मित्र विद्युत्प्रभ यनोधर मुनिराजसे अपनी पूर्वभवावलि जान कर अपने मित्रसे मिलने के हेतु चल पड़ता है। विद्युत्प्रभके संकेतसे भविष्यदत्तका विवाह वहाँ रहने वाली सुन्दरी भविष्यानुरूपाके साथ हो जाता है ।
इधर कमलश्री अपने पुत्रके वियोगमें क्षीण होने लगो । उसने सुपत्ता नामक आर्यिकासे श्रुतपंचमीव्रत ग्रहण किया और विधिवत् उसका पालन करने लगी।
चतुर्थ परिच्छेदमें भविष्यानुरूपाका मधुर आख्यान आता है । भविष्यानुरूपा और भविष्यदत्त विपुल धन-रत्नोंके साथ समुद्रके तटपर पहुँचते हैं। संयोगसे इसी समय बंधुदत्त अपने जलपोतको लोटाता हुआ उघर आता है। वह उत्सुकता वश अपने जलपोतको तटपर खड़ा करता है। भविष्यदत्त अपने समस्त समान सहित भविष्यानुरूपाको जलपोत पर बैठा देता है। इतनेमें भविष्यानुरूपाको स्मरण आता है कि उसकी नाममुद्रा तिलकपुरकी सेजपर छट गई है। वह अपने पतिदेवको मुद्रिका लानेके लिए भेज देती है और उधर बंधुदत्त अपने जहाजको खोल देता है । बन्धुदत्त भविष्यानुरूपाको प्रलोभन देता है और अपने अधीन करना चाहता है । भविष्यानुरूपा समुदमें कूद कर प्राण देना चाहती है; पर बनदेवी स्वप्नमें आकर उसे धैर्य देती है और कहती है कि तुम्हारा पति एक महीने में तुमसे मिलेगा, तुम चिन्ता मत करो।
बन्धुदत्तका जलपोत हस्तिनापुर लौट आता है और बह घोषित कर देता है कि भविष्यानुरूपा उसको वाग्दत्ता पत्नी है और वह शीघ्न ही उसके साथ विवाह करेगा।
इधर भविष्यदन तिलकपुरके सुनसान बनमें उदास मन होकर निवासहै। वह चन्द्रप्रभके जिनालयमें जाकर विधिवत् भक्तिभाव करता है। इतने में वहाँ एक विद्याधर उपस्थित होता है और उससे कहता है कि मैं तुम्हें विमान में जाकर हस्तिनाग र पहुँचाने के लिए आया है। भविष्यदत्त नानाप्रकारके रत्नोंको लेकर हस्तिनापुर आता है और मौके चरणवन्दन कर आशीर्वाद लेता है। दूसरे दिन प्रातःकाल भविष्यदत्त विविध प्रकारके मणि-माणिक्योंको लेकर राजाके समक्ष उपस्थित हुआ । भविष्यदत्तके मामाने राजासे कहा कि हमारे भांजेके साथ बंधुदत्तका झगड़ा है । राजाने धनपति सेठको बुलाया; पर सेठने घरमें विवाह होनेसे इस प्रसंगको टालना चाहा । तब राजाने उसे बलात् बुलाया। कमलनीने जाकर राजाके समक्ष भविष्यानुरूपाकी नागमुद्रा तथा अन्य वस्त्राभूषण उपस्थित किये । राजा बन्धुदतको करतूतको समझ गया और दह बन्धुदत्तको मारने के लिये तैयार हुआ | पर भविष्यदत्तने उसके प्राणोंकी रक्षा की। राजाने भविष्यदत्तको आधा सिंहासन दिया और अपनी पुत्रीको देने का वचन दिया | धनपतिने कमलश्रीसे अपने व्यवहारके लिए क्षमा याचना की। भविष्यदत्तका भविष्यानुरूपाके साथ पाणिग्रहण सम्पन्न हुआ। राजाने भी आधा राज्य देकर अपनी पुत्री सुमित्राका भविष्यदत्तके साथ विवाह कर दिया ।
पंचम परिच्छेद भविष्यदत्तके राज्य करनेसे आरंभ होता है । भविष्यानुरूपा को दोहला उत्पन्न हुआ और उसने तिलकद्वीप जानेकी इच्छा प्रकट की । इतनेमें मनोवेग नामका एक विद्याधर भविष्यदत्तके पास आया और कहा कि मेरी माता तुम्हारे घरमें प्रियाके गर्भ में आई है। ऐसा मुझसे मुनिराजने कहा है । अतएव आप भविष्यानुरूपाके साथ मेरे विमानमें बैठकर तिलकद्वीपकी यात्रा कीजिये । भविष्यदत्तने भविष्यातुरूपाको तिलकद्वीपका दर्शन कराया। भविष्यानुरूपाके गर्भसे सोमप्रभ नामक पुत्र उत्पन्न हुमा । कुछ वर्षोंके पश्चात् कंचनप्रभ नामक द्वितीय पुत्र उत्पन्न हुआ। तदनन्तर तारा और सुतारा नामको पुत्रियां उत्पन्न हुई । सुमिनाके गर्भसे धरणीपति नामक पुत्र और धारिणी नामकी कन्या हुई । इस प्रकार भविष्यदत्त परिवार सहित राज्य करता रहा । उसने मणिभद्रकी सहायतासे सिंहलद्वीप तक अपनी कोत्ति न्यार कर ली और अनेक राजाओंको अपने अधीन किया । एक दिन वह सपरिवार चारणऋद्धिधारी मुनिके दर्शन के लिए गया । उसने मुनिराजसे श्रावकके प्रत पहण किये ।
पठ परिच्छेदमें भविष्यदत्तके निर्वाण-लाभका वर्णन है। कमलश्री, सुव्रताके साथ आर्यिका हो जाती है और धनपति ऐलकबत ग्रहण कर लेते हैं। बह कठोर तप कर दसवें स्वर्ग में इन्द्र होते हैं और कमलश्री स्त्रीलिंगका छेद कर रत्नचूल नामका देव होती है । भविष्यानुरूपा भी स्वर्ग में जाकर देव हुई
और वहाँसे पृथ्वीतल पर आकर पुत्र हुई । विवुध श्रीधरने कथाके मर्मस्पर्शी स्थलोको पर्याप्त रसमय बनानेका प्रयास किया है। कमलश्री रात-दिन रोती है। उसकी आँखसे अश्रुधारा प्रवाहित होती है। भूखी, प्यासी और क्षीण शरीर होनेपर भी अपने मैले शरीरपर ध्यान नहीं देती | कविने लिखा है--
ता भणई किसोयरि कमलसिरि ण करमि कमल मुहुल्लउ ।
पर सुमति हे सुउ होइ मह फुट्ट ण मण हियउल्लेउ । (३,१६)
रोबइ धुवइ गयण चुव अंसुव जलधार्हि बत्तओ ।
भुक्लई खोण देह तम्हाइय ण मुणई मलिण गत्तओ । (४५)
कविने प्रकृति-चित्रण भी बहुत ही मनोरम शैलीमें उपस्थित किया है। भविष्यदत्त भयानक वनमें मदजलसे भरे हुए हाथियों को देखता है । इस वनमें कहीं पर शाखामृग निर्भय होकर डालियोंसे विपके हुए थे; कहीं पर छोटी और कहींपर आकाशको छूने वाली बड़ी वृक्ष-शाखाओंपर लोटते हुए हरे फलोंको तोड़ते हुए वानर दिखलाई दे रहे थे। कहीं पर पुष्ट शरीर वाले सूबर, कहीं पर विकराल कालके समान बन्य-पा दिखाई पड़ रहे थे ! उसीके पास झरना प्रवाहित हो रहा, था जो पहाड़को गुफाओंको अपने कल-कल शब्दसे भर रहा था।
तें बाहुडडेग कमलसिरिपुत्तेण
दिवाई तिरियाई बहुदुखभरियाई
रायवरहो जतासु मयजलविलित्तासु
कित्युवि मयाहीसु अणुलग्गु गिरभीसु
कित्युवि महोया गयणयलावगया
सहासु लोडंतु हरिफलई तोहंतु
केथुनि वराहाहं वलवंतरेहाह
महबग्धु आलमगु रोसेण परिभग्गु
केरथुवि विरालाई दिट्टई करालाई
केत्युवि सियालाई जुज्झति थूलाई
तहे पासे णिज्झरइ सरंतई गिरिकन्दर-विवराई भरंतई ।
इस ग्रन्थके संवाद भी बड़े रोचक है । प्रबन्ध-रचनामें कविने स्वाभावि कताके साथ काव्य-रूढ़ियों का पालन किया है। यह ग्रन्थ कडवक-पद्धतिमें पद्धडिया-छन्दमें लिखा गया है।
#Shreedhar2
आचार्यतुल्य श्रीधर द्वितीय (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 25 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 25 April 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
श्रीधर द्वितीयको भी विबुध श्रीपर कहा गया है। इन्होंने अपभ्रंशमें 'भविसरत्तचरित' की रचना चन्द्रबाइनगरमें स्थित माथुरवंशीय नारायणके पुत्र सुपट्ट साहू' की प्रेरणासे की है। यह काव्य नारायण साहूकी भार्या रूपिणीके निमित्त लिखा गया है।
सुपट्ट साहू नारायणके पुत्र थे। उनके ज्येष्ठ भ्राताका नाम वासुदेव था । कविने ग्रंथके अन्त में सुपट्ट साहू और रूपिणीकी प्रशंसा करते हुए पूरा विवरण दिया है । साहूके पूर्वज अपने समय में प्रसिद्ध थे। उसकी सीता नामक गृहिणी थी, जो विनय आदि निर्मल गुणोंसे भूषित थी। उनके हालनामक पुत्र उत्पन्न हुआ । उन दोनोंके जगविख्यात देवचन्द नामका पुत्र हुआ। वह माथुरकुल का भूषण और गुणरत्नोंकी खान था । जैनधर्ममें उसकी प्रगाढ़ श्रद्धा थी। लक्ष्मीके समान उसकी मादी नामको धर्मपत्नी थी। उसके गर्भसे काञ्चनवर्ण साधारणनामके पुत्रने जन्म लिया। उसके दो पुत्र हुए। दूसरेका नाम नारायण था । इसी नारायणकी भार्या 'रूपिणी' थी, जिसने इस प्रन्थको लिख वाया । नारायण के पांच पुत्र हुए । सभी गुणवान और श्रद्धालु थे।
ग्रन्थके रचयिता श्रीधर द्वितीय मुनि थे । उनका व्यक्तित्व रत्नत्रयस्वरूप था। अपने प्रेरक सुपट्ट साहकी अनन्य भक्ति, दान, पूजा, व्रत, आदि धार्मिक अनुष्ठानोंको कविने प्रशंसा की है।
कबिने 'भविसयत्तचरिउ' के रचनाकालका निर्देश किया है
णरणाक्किमाइच्चकाले, पयहत्तए सुधारए विसालें ।
बारहसय बरिसहिं परिगएहि फागुण-मासम्मि बलखपाले, दसमिहि-दिणे तिमिरुककर विवक्खे ।
रविवार समाणिउ एउ सस्थु, जिइ मई परियाणि सुप्पसत्थु ।
भासिउ भविस्सयत्तहो चरित्त, पंचर्चाम उचबासहो फलु पवित्तु ।
१. सिरिचन्दवारणयरहिएण, जिगमम्मकरणउपकठिएण।
माहरकुलगयणतमोहरेण, विबह-पण-सुखयामणधणहरेण । मइवरसुपट्टणामालएण विणएण भणिसं जोडेवि पाणि । - भविष्यदत्तचरित, १,२ । 'झ्य सिरिभविसयत्तचरिए विवृहसिरिसकइसिरिहर-बिरहए साहणरायण-मज्जा-रप्पि णिणामांकिर' । वही।
अर्थात् वि० सं० १२०० फालाम शक्ला दशमी, रविचारके दिन यह ग्रंथ पूर्ण हुआ। इस रचनाकालके निर्देशसे यह स्पष्ट है कि इन विबुध श्रीधरका समय वि० को १३वीं शती है । आमेर-शास्त्रभण्डारकी प्रतिमें उक्त रचना कालका उल्लेख हुमा है। पुष्पिकाबाक्य में कविने स्वनामके साथ अपने प्रेरक का नाम भी अंकित किया है
"इय सिरि-भविसयत्त-चरिए विवुह-सिरिसुकइसिरिहर-विरइए साहु णारायण-भज्जा-कप्पिणि-गामांकिए भविसयत्त-उप्पत्ति-वण्णणो णाम पहमो परि च्छेओ समत्तो।। सन्धि १"
कवि विबुध श्रीधरने भविसयत्तरिउकी रचना कर कथा-साहित्यके विकासको एक नई मोड़ दी है । इस ग्रंयका प्रमाण १५३० श्लोक है।
तीर्थंकरोंकी वन्दनाके पश्चात कविने कथाका आरंभ किया है। कुरुजांगल देशमें हस्तिनापुर नामका नगर है। इस नगरमें भूपालनामका राजा राज्य करता था। राजाने नानागुण-अलंकृत धनपतिको नगरसेठके पट्टपर आसीन किया । धनपतिका विवाह धनेश्वरकी रूपवती कन्या कमल भोके साथ सम्पन्न हुआ। कई वर्ष व्यतीत हो जानेपर भी इस दम्पत्तिको सन्तानलाभ न
हुआ।
एक दिन उस नगरमें सुगुप्ति नामके मुनिराज पधारे | कमलश्रीने पादचंदन कर प्रश्न किया-स्वामिन् ! मुझ मन्दागिनीके पुत्र उत्पन्न होगा या नहीं ? मुनिराजने उत्तरमै पुत्रलाभ होनेका आश्वासन दिया।
कुछ समय पश्चात् धनपतिको सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ। बालकका वापिन संस्कार सम्पन्न किया गया और उसका नाम भविष्यदत्त रखा गया। पांच वर्ष की अवस्था में भविष्यदत्तका विद्यारंभ-संस्कार सम्पन्न हुआ और आठ वर्ष की अवस्थामें उसे उपाध्यायके यहाँ विभिन्न शास्त्रोंके अध्ययनार्थ भेज दिया।
द्वितीय परिच्छेद में बताया है कि पूर्व जन्ममें की गई मुनिनिन्दाके फलस्वरूप धनपतिने कमलीका त्याग कर दिया । कमलश्री रोती हुई अपने पिताके घर गई । धनपतिका भेजा हमा गुणवान् पुरुष धनेश्वर के यहाँ आयाऔर कहने लगा कि कमलनीमें कोई दोष नहीं है, पर पुर्वकर्मादयके विपाक से धनपत्ति इससे घृणा करता है । अतएव आप इसे अपने यहाँ स्थान दीजिए।
कमलश्रोके चले जानेके पश्चात् धनपतिने अपना द्वितीय विवाह धनदत्तसेठको पुत्री सरूपाके साथ कर लिया । इससे बन्धुदत्त नामक पुत्र उत्पन्न हुमा, जो साक्षात् कामदेवके समान था । युवा होनेपर बन्धुदत्त अपने ५०० साथियों के साथ व्यापारके लिए स्वर्णद्वीप जानेकी तैयारी करने लगा । जब भविष्यदत को स्वर्णद्वीप जानेवाले व्यापारियोंका समाचार मिला, तो वह अपनी माताको आज्ञा लेकर अपने सौतेले भाई बन्धुदससे मिला और साथ चलने की इच्छा व्यक्त की । सरूपाने बन्धुदत्तको सिखलाया कि अवसर हाथ आते हो तुम भविष्य दत्तको मार डालना।
शुभ मुहूर्तमें जलपोतों द्वारा प्रस्थान किया गया और वे मदनद्वीप पहुंचे। वहाँसे आवश्यक सामग्री लेकर और भविष्यदत्तको वहीं छोड़कर बन्धुदत्तने अपने जलपोतको आगे बढ़ा दिया । भविष्यदत्त उस जनशून्य बनमें विलाप करता हुआ भ्रमण करने लगा।
तृतीय परिच्छेदमें भविष्यदत्त जिनदेवका स्मरण करता हुआ प्रभातकाल में उठता है और चलकर तिलकपुर पहुंचता है। यहाँ भविष्यदत्तका मित्र विद्युत्प्रभ यनोधर मुनिराजसे अपनी पूर्वभवावलि जान कर अपने मित्रसे मिलने के हेतु चल पड़ता है। विद्युत्प्रभके संकेतसे भविष्यदत्तका विवाह वहाँ रहने वाली सुन्दरी भविष्यानुरूपाके साथ हो जाता है ।
इधर कमलश्री अपने पुत्रके वियोगमें क्षीण होने लगो । उसने सुपत्ता नामक आर्यिकासे श्रुतपंचमीव्रत ग्रहण किया और विधिवत् उसका पालन करने लगी।
चतुर्थ परिच्छेदमें भविष्यानुरूपाका मधुर आख्यान आता है । भविष्यानुरूपा और भविष्यदत्त विपुल धन-रत्नोंके साथ समुद्रके तटपर पहुँचते हैं। संयोगसे इसी समय बंधुदत्त अपने जलपोतको लोटाता हुआ उघर आता है। वह उत्सुकता वश अपने जलपोतको तटपर खड़ा करता है। भविष्यदत्त अपने समस्त समान सहित भविष्यानुरूपाको जलपोत पर बैठा देता है। इतनेमें भविष्यानुरूपाको स्मरण आता है कि उसकी नाममुद्रा तिलकपुरकी सेजपर छट गई है। वह अपने पतिदेवको मुद्रिका लानेके लिए भेज देती है और उधर बंधुदत्त अपने जहाजको खोल देता है । बन्धुदत्त भविष्यानुरूपाको प्रलोभन देता है और अपने अधीन करना चाहता है । भविष्यानुरूपा समुदमें कूद कर प्राण देना चाहती है; पर बनदेवी स्वप्नमें आकर उसे धैर्य देती है और कहती है कि तुम्हारा पति एक महीने में तुमसे मिलेगा, तुम चिन्ता मत करो।
बन्धुदत्तका जलपोत हस्तिनापुर लौट आता है और बह घोषित कर देता है कि भविष्यानुरूपा उसको वाग्दत्ता पत्नी है और वह शीघ्न ही उसके साथ विवाह करेगा।
इधर भविष्यदन तिलकपुरके सुनसान बनमें उदास मन होकर निवासहै। वह चन्द्रप्रभके जिनालयमें जाकर विधिवत् भक्तिभाव करता है। इतने में वहाँ एक विद्याधर उपस्थित होता है और उससे कहता है कि मैं तुम्हें विमान में जाकर हस्तिनाग र पहुँचाने के लिए आया है। भविष्यदत्त नानाप्रकारके रत्नोंको लेकर हस्तिनापुर आता है और मौके चरणवन्दन कर आशीर्वाद लेता है। दूसरे दिन प्रातःकाल भविष्यदत्त विविध प्रकारके मणि-माणिक्योंको लेकर राजाके समक्ष उपस्थित हुआ । भविष्यदत्तके मामाने राजासे कहा कि हमारे भांजेके साथ बंधुदत्तका झगड़ा है । राजाने धनपति सेठको बुलाया; पर सेठने घरमें विवाह होनेसे इस प्रसंगको टालना चाहा । तब राजाने उसे बलात् बुलाया। कमलनीने जाकर राजाके समक्ष भविष्यानुरूपाकी नागमुद्रा तथा अन्य वस्त्राभूषण उपस्थित किये । राजा बन्धुदतको करतूतको समझ गया और दह बन्धुदत्तको मारने के लिये तैयार हुआ | पर भविष्यदत्तने उसके प्राणोंकी रक्षा की। राजाने भविष्यदत्तको आधा सिंहासन दिया और अपनी पुत्रीको देने का वचन दिया | धनपतिने कमलश्रीसे अपने व्यवहारके लिए क्षमा याचना की। भविष्यदत्तका भविष्यानुरूपाके साथ पाणिग्रहण सम्पन्न हुआ। राजाने भी आधा राज्य देकर अपनी पुत्री सुमित्राका भविष्यदत्तके साथ विवाह कर दिया ।
पंचम परिच्छेद भविष्यदत्तके राज्य करनेसे आरंभ होता है । भविष्यानुरूपा को दोहला उत्पन्न हुआ और उसने तिलकद्वीप जानेकी इच्छा प्रकट की । इतनेमें मनोवेग नामका एक विद्याधर भविष्यदत्तके पास आया और कहा कि मेरी माता तुम्हारे घरमें प्रियाके गर्भ में आई है। ऐसा मुझसे मुनिराजने कहा है । अतएव आप भविष्यानुरूपाके साथ मेरे विमानमें बैठकर तिलकद्वीपकी यात्रा कीजिये । भविष्यदत्तने भविष्यातुरूपाको तिलकद्वीपका दर्शन कराया। भविष्यानुरूपाके गर्भसे सोमप्रभ नामक पुत्र उत्पन्न हुमा । कुछ वर्षोंके पश्चात् कंचनप्रभ नामक द्वितीय पुत्र उत्पन्न हुआ। तदनन्तर तारा और सुतारा नामको पुत्रियां उत्पन्न हुई । सुमिनाके गर्भसे धरणीपति नामक पुत्र और धारिणी नामकी कन्या हुई । इस प्रकार भविष्यदत्त परिवार सहित राज्य करता रहा । उसने मणिभद्रकी सहायतासे सिंहलद्वीप तक अपनी कोत्ति न्यार कर ली और अनेक राजाओंको अपने अधीन किया । एक दिन वह सपरिवार चारणऋद्धिधारी मुनिके दर्शन के लिए गया । उसने मुनिराजसे श्रावकके प्रत पहण किये ।
पठ परिच्छेदमें भविष्यदत्तके निर्वाण-लाभका वर्णन है। कमलश्री, सुव्रताके साथ आर्यिका हो जाती है और धनपति ऐलकबत ग्रहण कर लेते हैं। बह कठोर तप कर दसवें स्वर्ग में इन्द्र होते हैं और कमलश्री स्त्रीलिंगका छेद कर रत्नचूल नामका देव होती है । भविष्यानुरूपा भी स्वर्ग में जाकर देव हुई
और वहाँसे पृथ्वीतल पर आकर पुत्र हुई । विवुध श्रीधरने कथाके मर्मस्पर्शी स्थलोको पर्याप्त रसमय बनानेका प्रयास किया है। कमलश्री रात-दिन रोती है। उसकी आँखसे अश्रुधारा प्रवाहित होती है। भूखी, प्यासी और क्षीण शरीर होनेपर भी अपने मैले शरीरपर ध्यान नहीं देती | कविने लिखा है--
ता भणई किसोयरि कमलसिरि ण करमि कमल मुहुल्लउ ।
पर सुमति हे सुउ होइ मह फुट्ट ण मण हियउल्लेउ । (३,१६)
रोबइ धुवइ गयण चुव अंसुव जलधार्हि बत्तओ ।
भुक्लई खोण देह तम्हाइय ण मुणई मलिण गत्तओ । (४५)
कविने प्रकृति-चित्रण भी बहुत ही मनोरम शैलीमें उपस्थित किया है। भविष्यदत्त भयानक वनमें मदजलसे भरे हुए हाथियों को देखता है । इस वनमें कहीं पर शाखामृग निर्भय होकर डालियोंसे विपके हुए थे; कहीं पर छोटी और कहींपर आकाशको छूने वाली बड़ी वृक्ष-शाखाओंपर लोटते हुए हरे फलोंको तोड़ते हुए वानर दिखलाई दे रहे थे। कहीं पर पुष्ट शरीर वाले सूबर, कहीं पर विकराल कालके समान बन्य-पा दिखाई पड़ रहे थे ! उसीके पास झरना प्रवाहित हो रहा, था जो पहाड़को गुफाओंको अपने कल-कल शब्दसे भर रहा था।
तें बाहुडडेग कमलसिरिपुत्तेण
दिवाई तिरियाई बहुदुखभरियाई
रायवरहो जतासु मयजलविलित्तासु
कित्युवि मयाहीसु अणुलग्गु गिरभीसु
कित्युवि महोया गयणयलावगया
सहासु लोडंतु हरिफलई तोहंतु
केथुनि वराहाहं वलवंतरेहाह
महबग्धु आलमगु रोसेण परिभग्गु
केरथुवि विरालाई दिट्टई करालाई
केत्युवि सियालाई जुज्झति थूलाई
तहे पासे णिज्झरइ सरंतई गिरिकन्दर-विवराई भरंतई ।
इस ग्रन्थके संवाद भी बड़े रोचक है । प्रबन्ध-रचनामें कविने स्वाभावि कताके साथ काव्य-रूढ़ियों का पालन किया है। यह ग्रन्थ कडवक-पद्धतिमें पद्धडिया-छन्दमें लिखा गया है।
Acharyatulya Shreedhar 2nd (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 25 April 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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