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#Taranswami
तारणस्वामी बालब्रह्मचारी थे । आरम्भसे ही उन्हें घरसे उदासीनता और आत्मकल्याणकी रुचि रही। कुन्दकुन्दके समयसार, पूज्यपादके इष्टोपदेश और समाधिशतक तथा योगीन्दुके परमात्मप्रकाश और योगसारका उनपर प्रभाव लक्षित होता है। संवेगी-श्रावक रहते हुए भी अध्यात्म-शानकी भूख और उसके प्रसारको लगन उनमें दृष्टिगोचर होती है।
तारणस्वामीका जन्म अगहन सुदी ७, विक्रम संवत् १५०५ में पुष्पावती (कटनी, मध्यप्रदेश) में हुआ था। पिसाका नाम गढ़ासाहू और मासाका नाम वीरश्री था। ज्येष्ठ वदो६, विक्रम संवत् १५७२ में शरीरत्याग हुआ था। ६७ वर्षके यशस्वी दीर्घ जीवन में इन्होंने ज्ञान-प्रचारके साथ १४ ग्रन्थोंकी रचना भी को है। ये सभी ग्रन्थ आध्यात्मिक हैं, जिन्हें तारण-अध्यात्मवाणीके नामसे जाना जाता है । वे १४ ग्रन्थ निम्न प्रकार है
१.मालारोहण-इसमें 'ओम' के स्वरूपपर प्रकाश डाला गया है और बताया गया है कि जो इस 'ओम्' का ध्यान करते हैं उन्हें परमात्मपदको प्राप्ति तथा अक्षयानन्दकी प्राप्ति होती है।
२. पण्डितपूजा-आत्माके अस्तित्व आदिका कथन करते हुए इसमें आत्म देवदर्शन, मिनथ-गुरु-सेवा, जिनवाणीका स्वाध्याय, इन्द्रिय-दमन आदि क्रियाओं को आत्मस्वरुपकी प्राप्तिका साधन बताया है। सम्यग्दष्टि ही आस्तिक होता है और आस्तिक ही पूर्ण ज्ञानी एवं परमपदका स्वामी होता है। नास्तिकको संसारमें ही भ्रमण करना पड़ता है, इत्यादिका सुन्दर विवेचन इसमें है।
३.कमलबसीसी-इसमें जीवनको कचा उठाने के लिए आठ बातोंका निर्देश है-१. चिन्तारहित जीवन-यापन, २.सुखी और प्रसन्न रहना, ३. संसारको रंगमंच समझना, ४. मनको स्वच्छ रखना, ५. अच्छे कार्यों में प्रमाद न करना, सहनशील बनना और परोपकारमें निरत रहना, ६. आडम्बर और विलासतासे दूर रहना, ७. कर्तव्यका पालन तथा ८. निर्भय रहना ।
४. श्रावकाचार—इसमें श्रावकके पाँच अणुव्रत, तीन गुणस्त और चार शिक्षाबत इन बारह व्रतोंके पालनपर बल देते हुए बारह अवत (५. मिथ्याभाव,३. मूढ़ता और ४. कषायभाव)के त्यागका उपदेश दिया गया है।
५. सानसमुच्चयसार- इसमें जानके महत्वका कथन किया है।
६. उपदेशशुद्धसार-आत्माको परमात्मा स्वरूप समझकर उसे शुद्ध-बुद्ध बनाने के लिए सम्यकदर्शन, सम्यज्ञान और सम्यकचारित्रको अपनाने का उपदेश है।
७. त्रिभंगीसार-इसमें कर्मावके कारण तीन मिथ्याभावों और उनके निरोधक कारणोंको बताते हुए आयुबन्धकी विभागीका कथन किया है ।
८. चौधोसठाना--इसमें गति, इन्द्रिय, काय आदि १८ विधियोंसे जीवोंके भावों द्वारा उनको उन्नति-अवनतिको दिखाया गया है।
९. ममलपाह-इसमें १६४ भजनों के माध्यमसे ३२०० गाथाओंमें नि स्चयनयकी अपेक्षासे प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा आदिका विवेचन है ।
१०. खातिकाविशेष—किन-किन अशुभ भावनाओंसे जीव निम्न गतियोंको प्राप्त होता है, इसका इसमें कथन है ।
११. सिद्धिस्वभाव—इसमें किन शुभ भावोंसे आत्मा उन्नति करता और सम्यक्त्व के उन्मुख होता है, इसका निरूपण है।
१२. सुम्नस्वभाव--ध्यानयोगके द्वारा राग-द्वेधके विकल्पोंकी शन्यता हो आत्मस्वरूपकी उपलब्धिका परम साधन है, इसका प्रतिपादन है।
१३. छ.ड्रस्थवाणी-इसमें अनन्त चतुष्टय और रलत्रययुक्त आत्मा ही उपादेय और गेय है तथा मिथ्याभावादिसे युक्त आत्मा हेय है। उपादेय २४४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी बाचार्य-परम्परा
आत्मा महावीरके समान वीतराग-सर्व है और हेय आत्मा छद्भस्थके समान रागो-अज्ञानी है, इसका विशद वर्णन है।
१४. नाममाला-तारणस्वामीका यह अन्तिम ग्रन्थ है। इसमें उनके उप देशके पात्र सभी भव्यात्माओंको नामावली है और बताया गया है कि उनके उपदेशके लिए जाति, पद, भाषा, वेश या धर्म की रेखाएं बाधक नहीं थी--सक जनके उपदेशसे लाभ उठाते थे ।
स्वामोजीके मुख्य तीन केन्द्र है..१. ज्ञान-साधना, २. ज्ञान-प्रचार और समाधिस्थल | श्री सेमरखेड़ो (सिरोंज से ६ मील दूर) जिला विदिशामें आपने ज्ञानर्जन किया था। वहाँ एक चेस्यालय, धर्मशाला और शास्त्रमण्डार है। बसन्त पंचमीपर वार्षिक मेला भरता है। श्रोनिसईजी (रेलवे स्टेशन परिया, जिला दमोहसे ११ मीलपर स्थित में अपने प्राप्त ज्ञानका प्रचार-प्रसार किया था । यहाँ भा विशाल चैत्यालय, धर्मशाला और शास्त्रभण्डार है। अगहन सुदी ७ को प्रतिवर्ष सामाजिक मेला लगता है | श्री मल्हारगढ़ (रेलवे स्टेशन मुंग वली, जिला गुनासे ९. मोलकी दूरीपर स्थित) में बेतवा नदीके सटपर स्वामीजीने उक्त अन्थोंका प्रणयन किया और यहीं समाधिपूर्वक देहत्याग किया। इसमें सन्देह नहीं कि तारणस्वामी १६वौं शतीके लोकोपकारी और अध्यात्म-प्रचारक सन्त हैं । इनके प्रन्थों को भाषा उस समयकी बोलवालको भाषा जान पड़ता है, जो अपभ्रंशकी कोटिमें रखी जा सकती है। हिन्दी, प्राकृत, संस्कृत और तत्कालीन बोलोके शब्दोंसे ही उनके ये ग्रन्थ सृजित है ।
इसप्रकार अपभ्रंश-साहित्यको विकासोन्मुख साहित्य-धारा ६छौं शतीके आरंभ होकर १७वीं शती तक अनवरत रूपसे चलतो रही । इन कवियोंने मध्य कालीन लोक-संस्कृति, साहित्य, उपासनापद्धति एवं उस समय में प्रचलित माचार-शास्त्रपर प्रकाश डाला है | अपभ्रंश कवियोंने तीर्थकर महाबोरकी उत्तरकालीन परम्पराका सम्यक निर्वाह किया है। पुराण, आचार-शास्त्र, प्रतविधान आदिपर सैकड़ों प्रन्योंकी उन्होंने रचना की है।
तारणस्वामी बालब्रह्मचारी थे । आरम्भसे ही उन्हें घरसे उदासीनता और आत्मकल्याणकी रुचि रही। कुन्दकुन्दके समयसार, पूज्यपादके इष्टोपदेश और समाधिशतक तथा योगीन्दुके परमात्मप्रकाश और योगसारका उनपर प्रभाव लक्षित होता है। संवेगी-श्रावक रहते हुए भी अध्यात्म-शानकी भूख और उसके प्रसारको लगन उनमें दृष्टिगोचर होती है।
तारणस्वामीका जन्म अगहन सुदी ७, विक्रम संवत् १५०५ में पुष्पावती (कटनी, मध्यप्रदेश) में हुआ था। पिसाका नाम गढ़ासाहू और मासाका नाम वीरश्री था। ज्येष्ठ वदो६, विक्रम संवत् १५७२ में शरीरत्याग हुआ था। ६७ वर्षके यशस्वी दीर्घ जीवन में इन्होंने ज्ञान-प्रचारके साथ १४ ग्रन्थोंकी रचना भी को है। ये सभी ग्रन्थ आध्यात्मिक हैं, जिन्हें तारण-अध्यात्मवाणीके नामसे जाना जाता है । वे १४ ग्रन्थ निम्न प्रकार है
१.मालारोहण-इसमें 'ओम' के स्वरूपपर प्रकाश डाला गया है और बताया गया है कि जो इस 'ओम्' का ध्यान करते हैं उन्हें परमात्मपदको प्राप्ति तथा अक्षयानन्दकी प्राप्ति होती है।
२. पण्डितपूजा-आत्माके अस्तित्व आदिका कथन करते हुए इसमें आत्म देवदर्शन, मिनथ-गुरु-सेवा, जिनवाणीका स्वाध्याय, इन्द्रिय-दमन आदि क्रियाओं को आत्मस्वरुपकी प्राप्तिका साधन बताया है। सम्यग्दष्टि ही आस्तिक होता है और आस्तिक ही पूर्ण ज्ञानी एवं परमपदका स्वामी होता है। नास्तिकको संसारमें ही भ्रमण करना पड़ता है, इत्यादिका सुन्दर विवेचन इसमें है।
३.कमलबसीसी-इसमें जीवनको कचा उठाने के लिए आठ बातोंका निर्देश है-१. चिन्तारहित जीवन-यापन, २.सुखी और प्रसन्न रहना, ३. संसारको रंगमंच समझना, ४. मनको स्वच्छ रखना, ५. अच्छे कार्यों में प्रमाद न करना, सहनशील बनना और परोपकारमें निरत रहना, ६. आडम्बर और विलासतासे दूर रहना, ७. कर्तव्यका पालन तथा ८. निर्भय रहना ।
४. श्रावकाचार—इसमें श्रावकके पाँच अणुव्रत, तीन गुणस्त और चार शिक्षाबत इन बारह व्रतोंके पालनपर बल देते हुए बारह अवत (५. मिथ्याभाव,३. मूढ़ता और ४. कषायभाव)के त्यागका उपदेश दिया गया है।
५. सानसमुच्चयसार- इसमें जानके महत्वका कथन किया है।
६. उपदेशशुद्धसार-आत्माको परमात्मा स्वरूप समझकर उसे शुद्ध-बुद्ध बनाने के लिए सम्यकदर्शन, सम्यज्ञान और सम्यकचारित्रको अपनाने का उपदेश है।
७. त्रिभंगीसार-इसमें कर्मावके कारण तीन मिथ्याभावों और उनके निरोधक कारणोंको बताते हुए आयुबन्धकी विभागीका कथन किया है ।
८. चौधोसठाना--इसमें गति, इन्द्रिय, काय आदि १८ विधियोंसे जीवोंके भावों द्वारा उनको उन्नति-अवनतिको दिखाया गया है।
९. ममलपाह-इसमें १६४ भजनों के माध्यमसे ३२०० गाथाओंमें नि स्चयनयकी अपेक्षासे प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा आदिका विवेचन है ।
१०. खातिकाविशेष—किन-किन अशुभ भावनाओंसे जीव निम्न गतियोंको प्राप्त होता है, इसका इसमें कथन है ।
११. सिद्धिस्वभाव—इसमें किन शुभ भावोंसे आत्मा उन्नति करता और सम्यक्त्व के उन्मुख होता है, इसका निरूपण है।
१२. सुम्नस्वभाव--ध्यानयोगके द्वारा राग-द्वेधके विकल्पोंकी शन्यता हो आत्मस्वरूपकी उपलब्धिका परम साधन है, इसका प्रतिपादन है।
१३. छ.ड्रस्थवाणी-इसमें अनन्त चतुष्टय और रलत्रययुक्त आत्मा ही उपादेय और गेय है तथा मिथ्याभावादिसे युक्त आत्मा हेय है। उपादेय २४४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी बाचार्य-परम्परा
आत्मा महावीरके समान वीतराग-सर्व है और हेय आत्मा छद्भस्थके समान रागो-अज्ञानी है, इसका विशद वर्णन है।
१४. नाममाला-तारणस्वामीका यह अन्तिम ग्रन्थ है। इसमें उनके उप देशके पात्र सभी भव्यात्माओंको नामावली है और बताया गया है कि उनके उपदेशके लिए जाति, पद, भाषा, वेश या धर्म की रेखाएं बाधक नहीं थी--सक जनके उपदेशसे लाभ उठाते थे ।
स्वामोजीके मुख्य तीन केन्द्र है..१. ज्ञान-साधना, २. ज्ञान-प्रचार और समाधिस्थल | श्री सेमरखेड़ो (सिरोंज से ६ मील दूर) जिला विदिशामें आपने ज्ञानर्जन किया था। वहाँ एक चेस्यालय, धर्मशाला और शास्त्रमण्डार है। बसन्त पंचमीपर वार्षिक मेला भरता है। श्रोनिसईजी (रेलवे स्टेशन परिया, जिला दमोहसे ११ मीलपर स्थित में अपने प्राप्त ज्ञानका प्रचार-प्रसार किया था । यहाँ भा विशाल चैत्यालय, धर्मशाला और शास्त्रभण्डार है। अगहन सुदी ७ को प्रतिवर्ष सामाजिक मेला लगता है | श्री मल्हारगढ़ (रेलवे स्टेशन मुंग वली, जिला गुनासे ९. मोलकी दूरीपर स्थित) में बेतवा नदीके सटपर स्वामीजीने उक्त अन्थोंका प्रणयन किया और यहीं समाधिपूर्वक देहत्याग किया। इसमें सन्देह नहीं कि तारणस्वामी १६वौं शतीके लोकोपकारी और अध्यात्म-प्रचारक सन्त हैं । इनके प्रन्थों को भाषा उस समयकी बोलवालको भाषा जान पड़ता है, जो अपभ्रंशकी कोटिमें रखी जा सकती है। हिन्दी, प्राकृत, संस्कृत और तत्कालीन बोलोके शब्दोंसे ही उनके ये ग्रन्थ सृजित है ।
इसप्रकार अपभ्रंश-साहित्यको विकासोन्मुख साहित्य-धारा ६छौं शतीके आरंभ होकर १७वीं शती तक अनवरत रूपसे चलतो रही । इन कवियोंने मध्य कालीन लोक-संस्कृति, साहित्य, उपासनापद्धति एवं उस समय में प्रचलित माचार-शास्त्रपर प्रकाश डाला है | अपभ्रंश कवियोंने तीर्थकर महाबोरकी उत्तरकालीन परम्पराका सम्यक निर्वाह किया है। पुराण, आचार-शास्त्र, प्रतविधान आदिपर सैकड़ों प्रन्योंकी उन्होंने रचना की है।
#Taranswami
आचार्यतुल्य तरण स्वामी (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 26 मई 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 26 May 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
तारणस्वामी बालब्रह्मचारी थे । आरम्भसे ही उन्हें घरसे उदासीनता और आत्मकल्याणकी रुचि रही। कुन्दकुन्दके समयसार, पूज्यपादके इष्टोपदेश और समाधिशतक तथा योगीन्दुके परमात्मप्रकाश और योगसारका उनपर प्रभाव लक्षित होता है। संवेगी-श्रावक रहते हुए भी अध्यात्म-शानकी भूख और उसके प्रसारको लगन उनमें दृष्टिगोचर होती है।
तारणस्वामीका जन्म अगहन सुदी ७, विक्रम संवत् १५०५ में पुष्पावती (कटनी, मध्यप्रदेश) में हुआ था। पिसाका नाम गढ़ासाहू और मासाका नाम वीरश्री था। ज्येष्ठ वदो६, विक्रम संवत् १५७२ में शरीरत्याग हुआ था। ६७ वर्षके यशस्वी दीर्घ जीवन में इन्होंने ज्ञान-प्रचारके साथ १४ ग्रन्थोंकी रचना भी को है। ये सभी ग्रन्थ आध्यात्मिक हैं, जिन्हें तारण-अध्यात्मवाणीके नामसे जाना जाता है । वे १४ ग्रन्थ निम्न प्रकार है
१.मालारोहण-इसमें 'ओम' के स्वरूपपर प्रकाश डाला गया है और बताया गया है कि जो इस 'ओम्' का ध्यान करते हैं उन्हें परमात्मपदको प्राप्ति तथा अक्षयानन्दकी प्राप्ति होती है।
२. पण्डितपूजा-आत्माके अस्तित्व आदिका कथन करते हुए इसमें आत्म देवदर्शन, मिनथ-गुरु-सेवा, जिनवाणीका स्वाध्याय, इन्द्रिय-दमन आदि क्रियाओं को आत्मस्वरुपकी प्राप्तिका साधन बताया है। सम्यग्दष्टि ही आस्तिक होता है और आस्तिक ही पूर्ण ज्ञानी एवं परमपदका स्वामी होता है। नास्तिकको संसारमें ही भ्रमण करना पड़ता है, इत्यादिका सुन्दर विवेचन इसमें है।
३.कमलबसीसी-इसमें जीवनको कचा उठाने के लिए आठ बातोंका निर्देश है-१. चिन्तारहित जीवन-यापन, २.सुखी और प्रसन्न रहना, ३. संसारको रंगमंच समझना, ४. मनको स्वच्छ रखना, ५. अच्छे कार्यों में प्रमाद न करना, सहनशील बनना और परोपकारमें निरत रहना, ६. आडम्बर और विलासतासे दूर रहना, ७. कर्तव्यका पालन तथा ८. निर्भय रहना ।
४. श्रावकाचार—इसमें श्रावकके पाँच अणुव्रत, तीन गुणस्त और चार शिक्षाबत इन बारह व्रतोंके पालनपर बल देते हुए बारह अवत (५. मिथ्याभाव,३. मूढ़ता और ४. कषायभाव)के त्यागका उपदेश दिया गया है।
५. सानसमुच्चयसार- इसमें जानके महत्वका कथन किया है।
६. उपदेशशुद्धसार-आत्माको परमात्मा स्वरूप समझकर उसे शुद्ध-बुद्ध बनाने के लिए सम्यकदर्शन, सम्यज्ञान और सम्यकचारित्रको अपनाने का उपदेश है।
७. त्रिभंगीसार-इसमें कर्मावके कारण तीन मिथ्याभावों और उनके निरोधक कारणोंको बताते हुए आयुबन्धकी विभागीका कथन किया है ।
८. चौधोसठाना--इसमें गति, इन्द्रिय, काय आदि १८ विधियोंसे जीवोंके भावों द्वारा उनको उन्नति-अवनतिको दिखाया गया है।
९. ममलपाह-इसमें १६४ भजनों के माध्यमसे ३२०० गाथाओंमें नि स्चयनयकी अपेक्षासे प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा आदिका विवेचन है ।
१०. खातिकाविशेष—किन-किन अशुभ भावनाओंसे जीव निम्न गतियोंको प्राप्त होता है, इसका इसमें कथन है ।
११. सिद्धिस्वभाव—इसमें किन शुभ भावोंसे आत्मा उन्नति करता और सम्यक्त्व के उन्मुख होता है, इसका निरूपण है।
१२. सुम्नस्वभाव--ध्यानयोगके द्वारा राग-द्वेधके विकल्पोंकी शन्यता हो आत्मस्वरूपकी उपलब्धिका परम साधन है, इसका प्रतिपादन है।
१३. छ.ड्रस्थवाणी-इसमें अनन्त चतुष्टय और रलत्रययुक्त आत्मा ही उपादेय और गेय है तथा मिथ्याभावादिसे युक्त आत्मा हेय है। उपादेय २४४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी बाचार्य-परम्परा
आत्मा महावीरके समान वीतराग-सर्व है और हेय आत्मा छद्भस्थके समान रागो-अज्ञानी है, इसका विशद वर्णन है।
१४. नाममाला-तारणस्वामीका यह अन्तिम ग्रन्थ है। इसमें उनके उप देशके पात्र सभी भव्यात्माओंको नामावली है और बताया गया है कि उनके उपदेशके लिए जाति, पद, भाषा, वेश या धर्म की रेखाएं बाधक नहीं थी--सक जनके उपदेशसे लाभ उठाते थे ।
स्वामोजीके मुख्य तीन केन्द्र है..१. ज्ञान-साधना, २. ज्ञान-प्रचार और समाधिस्थल | श्री सेमरखेड़ो (सिरोंज से ६ मील दूर) जिला विदिशामें आपने ज्ञानर्जन किया था। वहाँ एक चेस्यालय, धर्मशाला और शास्त्रमण्डार है। बसन्त पंचमीपर वार्षिक मेला भरता है। श्रोनिसईजी (रेलवे स्टेशन परिया, जिला दमोहसे ११ मीलपर स्थित में अपने प्राप्त ज्ञानका प्रचार-प्रसार किया था । यहाँ भा विशाल चैत्यालय, धर्मशाला और शास्त्रभण्डार है। अगहन सुदी ७ को प्रतिवर्ष सामाजिक मेला लगता है | श्री मल्हारगढ़ (रेलवे स्टेशन मुंग वली, जिला गुनासे ९. मोलकी दूरीपर स्थित) में बेतवा नदीके सटपर स्वामीजीने उक्त अन्थोंका प्रणयन किया और यहीं समाधिपूर्वक देहत्याग किया। इसमें सन्देह नहीं कि तारणस्वामी १६वौं शतीके लोकोपकारी और अध्यात्म-प्रचारक सन्त हैं । इनके प्रन्थों को भाषा उस समयकी बोलवालको भाषा जान पड़ता है, जो अपभ्रंशकी कोटिमें रखी जा सकती है। हिन्दी, प्राकृत, संस्कृत और तत्कालीन बोलोके शब्दोंसे ही उनके ये ग्रन्थ सृजित है ।
इसप्रकार अपभ्रंश-साहित्यको विकासोन्मुख साहित्य-धारा ६छौं शतीके आरंभ होकर १७वीं शती तक अनवरत रूपसे चलतो रही । इन कवियोंने मध्य कालीन लोक-संस्कृति, साहित्य, उपासनापद्धति एवं उस समय में प्रचलित माचार-शास्त्रपर प्रकाश डाला है | अपभ्रंश कवियोंने तीर्थकर महाबोरकी उत्तरकालीन परम्पराका सम्यक निर्वाह किया है। पुराण, आचार-शास्त्र, प्रतविधान आदिपर सैकड़ों प्रन्योंकी उन्होंने रचना की है।
Acharyatulya Taran Swami (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 26 May 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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