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#Udaichandraprachin
उदयचन्द्रने अपभ्रश-भाषामें 'सुअंधदहमीकहा' (सुगंधदशमी कथा) ग्रंथकी रचना की है। कविने इस ग्रंथके अन्त में अपना संक्षिप्त परिचय दिया है
इय सुअदिवहि कहिय सवित्थर, मई गावित्ति सुणाइय मणहर ।
णियकुलगह-उज्जोइय-चंदई। सजण-मण-कय-णयणाणदई ।
भवियण-कपणग-मणहर भासई | जसहर-पहायकूमारहो वायई।
बुयण सुयणहं विणउ करतई । बहसुसील-देमइयहि कतई।
एमहि पुणु वि सुपास-जिणंसर। कवि कम्मक्खा मह परमेसर ।
इन पंक्तियोंसे स्पष्ट है कि कविका नाम उदयचन्द्र था और उसकी पली का देवमति ।
श्री डॉ. हीरालालजी जैनने उदयचन्द्रके सम्बन्धमें प्रकाश डालते हुए लिखा है कि सुगन्ध-दशमी ग्रंथके कर्ता वे ही उदयचन्द्र हैं, जिनका उल्लेख विनयचन्द्र मुनिने अपने गुरुके रूपमें किया है। "निसरपंचमीकहा में विनय बन्दने अपनेको माथुरसंघका मनि बताया है। और इस प्रन्यकी रचना त्रिभुवनगिरिको तलहटीमें की गई बतलायो है । लिखा है--
पविवि पंच महागुरु सारद परिवि मणि ।
उदयचंदु गुरु सुमरिवि बंदिय बालमुणि ||
विणयचंदु फल अक्खइ णिञ्झरपंचामहि ।
णिसुणहु धम्मकहाणउ कहिज जिणागमहि ।
तिहुयणगिरि-तलहट्टी बहु रासउ रइड ।
माथुरसंघहं मुणिवरु-विणयचंदि कहिउ ॥
उदयचंदु गुणगणहरु गरुबउ ।
सो मई भावें मणि अणुसरिया ।।
बालइंदु मुणि विवि गिरतरु ।
णरगउत्तारी कमि कहतरु॥
विनयचन्द्रमुनिकी एक अन्य रचना 'चूनड़ी' उपलब्ध है, जिसमें उन्होंने माथुरसंघके मुनि उदयचन्द्र तथा बालचन्द्रको नमस्कार किया है। और त्रिभुवनगिरिनगरके अजयनरेन्द्रकृत 'राजबिहार को अपनी रचनाका स्थान बताया है
माथुरसंघह उदयमुणीसरु ।
पपचिव बान्दु मुम् गणम् !
जंपइ विणयमयंकु मुणि ।
तियणगिरिपुर जगि विक्खायऊ ।
सग्गखंड णं धरयलि आयउ !!
तहि गिवसते मुणिव अजयरिंदहो राजाविहारहि ।
वेगें विरइय चूनडिय सोहहु मुणिवर जे सुयधारहि ।।
इन उद्धरणोंसे यह अवगत होता है कि उदयचन्द्र माथुरसंघके थे । सुगन्ध दशमीकथाकी रचनाके समय वे गृहस्थ थे। उन्होंने अपनी पत्नीका नाम देवमति बताया है। यही कारण है कि बिनयचन्द्रने निज्झरपंचमीकहाँ' और बालचन्द्रने 'नरगउतारी कथा' में उन्हें गुरु-विद्यागरुके रूपमें स्मरण किया है, नमस्कार नहीं किया। उदयचन्द्रने दीक्षा लेकर जब मुनिचर्या ग्रहण कर ली, तो विनयचन्द्रने उन्हें 'चूनड़ी में मुनीश्वर कहा है और अपने दीक्षागुरु बालचंद्र के साथ उन्हें भी नमस्कार किया है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि विनय चन्द्रने विद्यागुरु होने से उदयचन्द्रका सर्वत्र पहले उल्लेख किया है और दीक्षागुरू बालचन्द्रका पश्चात् । बालचन्द्रने भी उदयचन्द्रको गुरुरूपमें स्मरण किया है।
उदयचन्द्र, बालचन्द्र और विनयचन्द्र माथुर संघके मुनि थे। इस संघका साहित्यिक उल्लेख सर्वप्रथम अमितगतिके प्रन्थों में मिलता है। सुभाषितरत सन्दोहका रचनाकाल संवत् १०५८ है और इस संघके दूसरे बड़े साहित्यकार अमरकोत्ति थे, जिन्होंने वि० सं० १२४७ में अपन शका 'छक्कम्मोवाएस' लिखा. है । अतएव उदयचन्द्र माथुर संघके आचार्य थे।
उदयचन्द्रने सुगन्धदशमी कथाके रचना-स्थानका उल्लेख नहीं किया; किन्तु उनके शिष्य बालचन्द्रने 'नरगउतारीकथा' का रचनास्थल यमुना नदीके तटपर बसा हुआ महावन बतलाया है। बिनयचन्द्रने अपनी दो रच नाओं-निरपंचमीकथा' और 'चुनड़ी' को त्रिभुवनागरिमें इचित कहा है। डॉ० हीरालालजीने महावनको मथुराके निकट यमुनानदीके तटपर बसा हुआ बताया है। और निभुवनगिरि तिहनगढ़ धनगिर है, जो मथुरा या महावनसे दक्षिण पश्चिमकी ओर लगभग ६० मील दूर राजस्थानके पुराने करौली राज्य
और भरतपुर राज्य में पढ़ता है । इस प्रकार इन प्रन्यकारोंका निवास और विहार प्रदेश मथुरा जिला और भरतपुर राज्यका भूभाग माना जा सकता है।
उदयचन्द्रने अपनी रचना सुगन्धदशमीकथामें रचनाकालका निर्देश नहीं किया है और न विनयचन्द्रने ही अपनी किसी रचनामें रचनाकालका उल्लेख किया है। चनड़ीमें यह अवश्य लिखा है कि त्रिभुवनगिरिमें अजय नरेन्द्र के राजविहारमें रहते हुए इस ग्रंथकी रचना की । डॉ० हीरालाल जैनकार कथन है कि भरतपुर राज्य और मथुरा जिलाके भूमिप्रदेशपर यदुवंशी राजा ओंका राज्य था, जिसकी राजधानी श्रीपष-बयाना थी। यहाँ ११वीं शतीके पूर्वाद्धमें जगत्पाल नामक राजा हुए। उनके उत्तराधिकारी विजयपाल थे, जिनका उल्लेख विजय नामसे बयानाके सन् १०४४ ई० के उत्कीर्ण लेख में किया गया है। इनसे उत्तराधिकार त्रिभुवनपालने बयानासे १४ मील दूरीपर तिहन गढ़ नामका किला बनवाया । इस वंशके अजयपाल नामक राजाको एक प्रशस्ति खुदी मिली है, जिसके अनुसार सन् १९५० ई० में उनका राज्य वर्तमान था। इनका उत्तराधिकारी हरिपाल हुआ, जिसका ११७० ई० का अभिलेख मिला है।
तिहनगढ़ या थनगढ़पर ११९६ ई. मुइजुद्दीन मु० गोरीने आक्रमण कर वहाँके राजा कुवरपालको परास्त किया। और वह दुर्ग बहाउद्दीन तुरिलको सौंप बिया । इस प्रकार मथुरपर १२वीं शती तक यदुवंशकी राज्यपरम्परा बनी रही।
इस ऐतिहासिक विवेचनसे यह स्पष्ट होता है। कि सुगन्धदशमीकथाके कत्ता उदयचन्द्र के शिष्य बिनयचन्द्रने जिस त्रिभुवनगिरिमें अपनी दो रचनाएँ पूर्ण की थी उसका निर्माण यदुवंशी त्रिभुवनपालने अपने नामसे सन् १०४४ ई. के कुछ काल पश्चात् कराया। चुनड़ीकी रचना अजयनरेन्द्रके जिस राज विहारमे रहकर को भी वह निस्सन्देह उन्हीं अजयपाल नरेश द्वारा निर्मित हुआ होगा, जिनका ११५० ई० का उत्कीर्ण लेख महावन में मिला है। सन् ११९६ ई० में मुसलमानोंके आक्रमणस त्रिभुवनगिरि यदुवंशी राजाओंके हाथसे निकल चुका था। अतएव त्रिभुवन गरिमें लिखे गये उक्त दोनों ग्रंथोंका रचनाकाल १५५० ई०-११९६ ई० के बीच संभव है। चुनड़ीकी रचनाके समय उदयचन्द्र मुनि हो चुके थे, पर सुगन्धदशमीकथाको रचनाके समय के गृहस्थ थे । अतएव बालचन्द्र का समय ई सन्की १२वीं शताब्दी माना जा सकता है ।
काब उदयचन्द्रकी 'सुअंधदमीकहा' नामको एक ही रचना उपलब्ध है। सुगन्धदशमी कथा में बताया गया है कि मुनिनिन्दाके प्रभावसे कुष्ठरोगको उत्पत्ति, नीच योनियों में जन्म तथा शरीर में दुर्गन्धका होना एवं धर्माचरणके प्रभाव से पापका निवारण होकर स्वर्ग एवं उच्च कुलमें जन्म होता है। कथामें बताया है कि एक बार राजा-रानी दोनों वन-बिहारके लिए जा रहे थे कि सुदर्शन नामक मुनि आहारके लिए आते दिखाई दिये। राजाने अपनी पत्नीको उन्हें आहार करानेके लिये वापस भेजा । रानीने कद्ध हो मुनिराजको कड़वी तुम्बीका आहार करवाया । उसकी वेदनासे मुनिका स्वर्गवास हो गया । राजाको जब यह समा चार मिला तो उन्होंने उसे निरादरपूर्वक निकाल दिया। उसे कुष्ठ ब्याधि हो गई और वह सात दिनके भीतर मर गई। कुत्ती, सूकरी, शृगाली, गदही आदि नीच योनियों में जन्म लेकर अन्ततः पूतगन्धाके रूपमें उत्पन्न हुई।
सुव्रता आर्थिकासे अपने पूर्वभवका वृत्तान्त सुनकर पूतगन्धाको बड़ी आत्म ग्लानि हुई और उसने मुनिराजसे उस पापसे मुक्ति प्राप्त करनेके लिये सुगन्ध दशमीबत ग्रहण किया और इस व्रतके प्रभावसे दुर्गन्धा अपने अगले जन्ममें रस्नपुरके सेठ जिनदत्तकी रूपवती पुत्री तिलकति हुई। उसके जन्मके कुछ ही दिन बाद उसको माताका देहान्त हो गया। तथा उसके पित्ताने दूसरा विवाह कर लिया। इस पल्लोसे उसे तेजमतो कन्या उत्पन्न हुई। सौतेली माँ अपनी पुत्रीको जितना अधिक प्यार करती थी, तिलकमतीसे उतना ही देष । इस कारण इस कन्याका जीवन बड़े दुःससे व्यतीत होने सन्न किया के बयस्क होनेपर पिताको विवाहको चिन्ता हुई। पर इसी समय वाहें हम नरेश कनकप्रभका आदेश मिला कि - रत्नोंको खरीदनेके लिए देशान्तर जायें । जाते समय समय से अपनी पत्नसिं कह गया कि सुयोग्य वर देखकर दोनों कन्याओंका विवाह कर देना । जो भी बर घरमें आते वे तिलकतिके रूपपर मुग्ध हो जाते और उसीकी याचना करते । पर सेठनी उसकी बुराई कर अपनी पुषीको आगे करती और उसीकी प्रशंसा करती | तो भी बरके हठसे विवाह तिलकत्तिका ही पक्का करना पड़ा। विवाहके दिन सेठानी तिलकमतिको यह कहकर श्मसानमें बैठा आई कि उनकी कुलप्रथानुसार उसका वर वहीं आकर उससे विवाह करेगा, किन्तु घर आकर उसने यह हल्ला मचा दिया कि तिलक मति कहीं भाग गई। लग्नकी बेला तक उसका पता न चल सकनेके कारण वरका विवाह तेजमतीके साथ करना पड़ा । इस प्रकार कपटजाल द्वारा सेठानी ने अपनी इच्छा पूर्ण की।
इधर राजाने भवनपर चढ़ कर देखा कि एक सुन्दर कन्या श्मशान में बैठी हुई है । वह उसके पास गया और सारी बातें जानकर उससे विवाह कर लिया। राजाने अपना नाम पिंडार बतलाया। कन्याने यह सारा समाचार अपनी सौतेली माँको कहा । सौतेली माँने एक पृथक् गृहमें उसके रहनेकी व्यवस्था कर दी। राजा रात्रिको उसके पास आता और सूर्योदयके पूर्व ही चला जाता । पतिने रत्नजटित वस्त्राभूषण भी उसे दिये, जिन्हें देख सेठानी घबरा गई । और उसने निश्चय किया कि उसके पतिने राजाके यहाँसे इसे चुराया है। इसी बीच सेठ भी विदेशसे लौट बाया। सेठानीने सब वृत्तान्त सुनाकर राजाको खबर दी। राजाने चिन्ता व्यक्त की और सेठको अपनी पुत्रीसे चोरका पता प्राप्त करनेका आग्रह किया । पुत्री ने कहा कि मैं तो उन्हें केवल चरणके स्पर्शसे पहचान सकती हूँ। अन्य कोई परिचय नहीं । इस पर राजाने एक भोजका आयोजन कराया, जिसमें सुगन्धाको आँखे बांधकर अभ्यागतोंके पैर बुलानेका काम सौंपा गया । इस उपायसे राजा ही पकड़ा गया। राजाने उस कन्यासे विवाह करने का अपना समस्त वृत्तान्त कह सुनाया, जिससे समस्त वातावरण आनन्दसे भर गया। इस प्रकार मुनिके प्रति दुर्भावके कारण जो रस्नी दुःखी, दरिद्री और दुर्गन्धा हुई थी वही सुगन्धदशमीव्रतके पुण्य प्रभावसे पुनः रानीके पदको प्राप्त हुई।
यह कथा वर्णनात्मक शैली में लिखी गई है, पर बीच-बीचमें आये हुए संवाद बहुत ही सरस और रोचक हैं। राजा-रानीसे कहता है
दिट्ठा वि सुदसणु मुगिरिदु। मयलंझणहीण अउन्ध-इंदु ।
दो-दोसा-आसा चत्तकाउ । णाणत्तय-जुत्तउ वीयराउ ।
सब्बंग-मलेण तिमिलानु । चलगिहा : भिमत ।
परमेसरु सिरि मासोपवासि | गिरिकंदरे अहन मरााणबासि ।
सो पेवित्रवि परमाणदएण । पणिय पिथपरमसणेहएण !
इह पेसणजोगुण अण्णु को वि । सो हर्ख मि अह व फुडु पत्तु होइ ।
जाएप्पिण अणुराएण वृत्त । पारण करावहि मुणि तुरंत ।
लब्भइ पियमेलण भवसमुद्दे । बणकीलारोहणू गय वरिदे ।
इउ सुलहड जीवहो भवि जि भए । दुलहङ जिणधम्मु भवण्णपए ।
दुलहड गुपनदाणु वि विमलु । मुत्ताहल-सिणिहि जेम जल्लु ।
अर्थात् मुनीश्वर सुदर्शनका दर्शन पाकर राजाको परमानन्द हुआ । उन्होंने अपनी गनी श्रीमतीसे कहा--'प्रिय ! इस समय हमें अपने कर्तव्यका निर्वाह करना चाहिए। मुनि आहार-दानकी क्रिया सेवक-सेविकाओंसे सम्पन्न होने की नहीं। इसे तो मुझे या तुम्हें सम्पन्न करना होगा । अतएव तुम स्वयं बाकर धर्मानुराग सहित मासोपनासी मुनिराजकी पारणा कराओ। इस भव सागरमें नियमिलन, बनक्रीडा, राजारोहण आदि सुख तो इस जीवको जन्म जन्मान्तरमें सुलभ हैं; किन्तु इस भव-समुदमें जिनधर्मकी प्राप्ति दुर्लभ है। और उसमें भी अतिदुर्लभ है इद्ध सुपात्रदानका अवसर । जिस प्रकार मुक्ता फलकी सीपके लिये स्वातिनक्षत्रका जलबिन्दु दुर्लभ होता है। अतएव सद्भाव सहित घर जाकर अनुरागसहित इन मुनिराजको आहार कराओ, जो प्राशुक और गीला हो, मधुर और रसीला हो, जिससे इनका धर्मसाधन सुलभ हो ।
कटुकफलोंका आहार-दान करनेसे रानीको अनेक कुगतियों में भ्रमण करना पड़ा। प्रथम-सन्धिके १२ कड़वकोंमें कुगति-भ्रमणके अनन्तर मुनिराज द्वारा विधिपूर्वक सुगन्धदशमीव्रतका विवेचन किया गया है। और दुर्गन्धाने उस व्रतका विधिपूर्वक पालन किया है। कविने विमाता और तिलकमतीके संवादका भी अच्छा चित्रण किया है। परीक्षाके हेतु राजाने भोजका आयोजन किया और उसी भोजमें राजा पत्तिके रूप में पहचाना गया। इस प्रकार कविने इस कथाको पूर्णतया सरस बनाने का प्रयास किया है।
उदयचन्द्रने अपभ्रश-भाषामें 'सुअंधदहमीकहा' (सुगंधदशमी कथा) ग्रंथकी रचना की है। कविने इस ग्रंथके अन्त में अपना संक्षिप्त परिचय दिया है
इय सुअदिवहि कहिय सवित्थर, मई गावित्ति सुणाइय मणहर ।
णियकुलगह-उज्जोइय-चंदई। सजण-मण-कय-णयणाणदई ।
भवियण-कपणग-मणहर भासई | जसहर-पहायकूमारहो वायई।
बुयण सुयणहं विणउ करतई । बहसुसील-देमइयहि कतई।
एमहि पुणु वि सुपास-जिणंसर। कवि कम्मक्खा मह परमेसर ।
इन पंक्तियोंसे स्पष्ट है कि कविका नाम उदयचन्द्र था और उसकी पली का देवमति ।
श्री डॉ. हीरालालजी जैनने उदयचन्द्रके सम्बन्धमें प्रकाश डालते हुए लिखा है कि सुगन्ध-दशमी ग्रंथके कर्ता वे ही उदयचन्द्र हैं, जिनका उल्लेख विनयचन्द्र मुनिने अपने गुरुके रूपमें किया है। "निसरपंचमीकहा में विनय बन्दने अपनेको माथुरसंघका मनि बताया है। और इस प्रन्यकी रचना त्रिभुवनगिरिको तलहटीमें की गई बतलायो है । लिखा है--
पविवि पंच महागुरु सारद परिवि मणि ।
उदयचंदु गुरु सुमरिवि बंदिय बालमुणि ||
विणयचंदु फल अक्खइ णिञ्झरपंचामहि ।
णिसुणहु धम्मकहाणउ कहिज जिणागमहि ।
तिहुयणगिरि-तलहट्टी बहु रासउ रइड ।
माथुरसंघहं मुणिवरु-विणयचंदि कहिउ ॥
उदयचंदु गुणगणहरु गरुबउ ।
सो मई भावें मणि अणुसरिया ।।
बालइंदु मुणि विवि गिरतरु ।
णरगउत्तारी कमि कहतरु॥
विनयचन्द्रमुनिकी एक अन्य रचना 'चूनड़ी' उपलब्ध है, जिसमें उन्होंने माथुरसंघके मुनि उदयचन्द्र तथा बालचन्द्रको नमस्कार किया है। और त्रिभुवनगिरिनगरके अजयनरेन्द्रकृत 'राजबिहार को अपनी रचनाका स्थान बताया है
माथुरसंघह उदयमुणीसरु ।
पपचिव बान्दु मुम् गणम् !
जंपइ विणयमयंकु मुणि ।
तियणगिरिपुर जगि विक्खायऊ ।
सग्गखंड णं धरयलि आयउ !!
तहि गिवसते मुणिव अजयरिंदहो राजाविहारहि ।
वेगें विरइय चूनडिय सोहहु मुणिवर जे सुयधारहि ।।
इन उद्धरणोंसे यह अवगत होता है कि उदयचन्द्र माथुरसंघके थे । सुगन्ध दशमीकथाकी रचनाके समय वे गृहस्थ थे। उन्होंने अपनी पत्नीका नाम देवमति बताया है। यही कारण है कि बिनयचन्द्रने निज्झरपंचमीकहाँ' और बालचन्द्रने 'नरगउतारी कथा' में उन्हें गुरु-विद्यागरुके रूपमें स्मरण किया है, नमस्कार नहीं किया। उदयचन्द्रने दीक्षा लेकर जब मुनिचर्या ग्रहण कर ली, तो विनयचन्द्रने उन्हें 'चूनड़ी में मुनीश्वर कहा है और अपने दीक्षागुरु बालचंद्र के साथ उन्हें भी नमस्कार किया है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि विनय चन्द्रने विद्यागुरु होने से उदयचन्द्रका सर्वत्र पहले उल्लेख किया है और दीक्षागुरू बालचन्द्रका पश्चात् । बालचन्द्रने भी उदयचन्द्रको गुरुरूपमें स्मरण किया है।
उदयचन्द्र, बालचन्द्र और विनयचन्द्र माथुर संघके मुनि थे। इस संघका साहित्यिक उल्लेख सर्वप्रथम अमितगतिके प्रन्थों में मिलता है। सुभाषितरत सन्दोहका रचनाकाल संवत् १०५८ है और इस संघके दूसरे बड़े साहित्यकार अमरकोत्ति थे, जिन्होंने वि० सं० १२४७ में अपन शका 'छक्कम्मोवाएस' लिखा. है । अतएव उदयचन्द्र माथुर संघके आचार्य थे।
उदयचन्द्रने सुगन्धदशमी कथाके रचना-स्थानका उल्लेख नहीं किया; किन्तु उनके शिष्य बालचन्द्रने 'नरगउतारीकथा' का रचनास्थल यमुना नदीके तटपर बसा हुआ महावन बतलाया है। बिनयचन्द्रने अपनी दो रच नाओं-निरपंचमीकथा' और 'चुनड़ी' को त्रिभुवनागरिमें इचित कहा है। डॉ० हीरालालजीने महावनको मथुराके निकट यमुनानदीके तटपर बसा हुआ बताया है। और निभुवनगिरि तिहनगढ़ धनगिर है, जो मथुरा या महावनसे दक्षिण पश्चिमकी ओर लगभग ६० मील दूर राजस्थानके पुराने करौली राज्य
और भरतपुर राज्य में पढ़ता है । इस प्रकार इन प्रन्यकारोंका निवास और विहार प्रदेश मथुरा जिला और भरतपुर राज्यका भूभाग माना जा सकता है।
उदयचन्द्रने अपनी रचना सुगन्धदशमीकथामें रचनाकालका निर्देश नहीं किया है और न विनयचन्द्रने ही अपनी किसी रचनामें रचनाकालका उल्लेख किया है। चनड़ीमें यह अवश्य लिखा है कि त्रिभुवनगिरिमें अजय नरेन्द्र के राजविहारमें रहते हुए इस ग्रंथकी रचना की । डॉ० हीरालाल जैनकार कथन है कि भरतपुर राज्य और मथुरा जिलाके भूमिप्रदेशपर यदुवंशी राजा ओंका राज्य था, जिसकी राजधानी श्रीपष-बयाना थी। यहाँ ११वीं शतीके पूर्वाद्धमें जगत्पाल नामक राजा हुए। उनके उत्तराधिकारी विजयपाल थे, जिनका उल्लेख विजय नामसे बयानाके सन् १०४४ ई० के उत्कीर्ण लेख में किया गया है। इनसे उत्तराधिकार त्रिभुवनपालने बयानासे १४ मील दूरीपर तिहन गढ़ नामका किला बनवाया । इस वंशके अजयपाल नामक राजाको एक प्रशस्ति खुदी मिली है, जिसके अनुसार सन् १९५० ई० में उनका राज्य वर्तमान था। इनका उत्तराधिकारी हरिपाल हुआ, जिसका ११७० ई० का अभिलेख मिला है।
तिहनगढ़ या थनगढ़पर ११९६ ई. मुइजुद्दीन मु० गोरीने आक्रमण कर वहाँके राजा कुवरपालको परास्त किया। और वह दुर्ग बहाउद्दीन तुरिलको सौंप बिया । इस प्रकार मथुरपर १२वीं शती तक यदुवंशकी राज्यपरम्परा बनी रही।
इस ऐतिहासिक विवेचनसे यह स्पष्ट होता है। कि सुगन्धदशमीकथाके कत्ता उदयचन्द्र के शिष्य बिनयचन्द्रने जिस त्रिभुवनगिरिमें अपनी दो रचनाएँ पूर्ण की थी उसका निर्माण यदुवंशी त्रिभुवनपालने अपने नामसे सन् १०४४ ई. के कुछ काल पश्चात् कराया। चुनड़ीकी रचना अजयनरेन्द्रके जिस राज विहारमे रहकर को भी वह निस्सन्देह उन्हीं अजयपाल नरेश द्वारा निर्मित हुआ होगा, जिनका ११५० ई० का उत्कीर्ण लेख महावन में मिला है। सन् ११९६ ई० में मुसलमानोंके आक्रमणस त्रिभुवनगिरि यदुवंशी राजाओंके हाथसे निकल चुका था। अतएव त्रिभुवन गरिमें लिखे गये उक्त दोनों ग्रंथोंका रचनाकाल १५५० ई०-११९६ ई० के बीच संभव है। चुनड़ीकी रचनाके समय उदयचन्द्र मुनि हो चुके थे, पर सुगन्धदशमीकथाको रचनाके समय के गृहस्थ थे । अतएव बालचन्द्र का समय ई सन्की १२वीं शताब्दी माना जा सकता है ।
काब उदयचन्द्रकी 'सुअंधदमीकहा' नामको एक ही रचना उपलब्ध है। सुगन्धदशमी कथा में बताया गया है कि मुनिनिन्दाके प्रभावसे कुष्ठरोगको उत्पत्ति, नीच योनियों में जन्म तथा शरीर में दुर्गन्धका होना एवं धर्माचरणके प्रभाव से पापका निवारण होकर स्वर्ग एवं उच्च कुलमें जन्म होता है। कथामें बताया है कि एक बार राजा-रानी दोनों वन-बिहारके लिए जा रहे थे कि सुदर्शन नामक मुनि आहारके लिए आते दिखाई दिये। राजाने अपनी पत्नीको उन्हें आहार करानेके लिये वापस भेजा । रानीने कद्ध हो मुनिराजको कड़वी तुम्बीका आहार करवाया । उसकी वेदनासे मुनिका स्वर्गवास हो गया । राजाको जब यह समा चार मिला तो उन्होंने उसे निरादरपूर्वक निकाल दिया। उसे कुष्ठ ब्याधि हो गई और वह सात दिनके भीतर मर गई। कुत्ती, सूकरी, शृगाली, गदही आदि नीच योनियों में जन्म लेकर अन्ततः पूतगन्धाके रूपमें उत्पन्न हुई।
सुव्रता आर्थिकासे अपने पूर्वभवका वृत्तान्त सुनकर पूतगन्धाको बड़ी आत्म ग्लानि हुई और उसने मुनिराजसे उस पापसे मुक्ति प्राप्त करनेके लिये सुगन्ध दशमीबत ग्रहण किया और इस व्रतके प्रभावसे दुर्गन्धा अपने अगले जन्ममें रस्नपुरके सेठ जिनदत्तकी रूपवती पुत्री तिलकति हुई। उसके जन्मके कुछ ही दिन बाद उसको माताका देहान्त हो गया। तथा उसके पित्ताने दूसरा विवाह कर लिया। इस पल्लोसे उसे तेजमतो कन्या उत्पन्न हुई। सौतेली माँ अपनी पुत्रीको जितना अधिक प्यार करती थी, तिलकमतीसे उतना ही देष । इस कारण इस कन्याका जीवन बड़े दुःससे व्यतीत होने सन्न किया के बयस्क होनेपर पिताको विवाहको चिन्ता हुई। पर इसी समय वाहें हम नरेश कनकप्रभका आदेश मिला कि - रत्नोंको खरीदनेके लिए देशान्तर जायें । जाते समय समय से अपनी पत्नसिं कह गया कि सुयोग्य वर देखकर दोनों कन्याओंका विवाह कर देना । जो भी बर घरमें आते वे तिलकतिके रूपपर मुग्ध हो जाते और उसीकी याचना करते । पर सेठनी उसकी बुराई कर अपनी पुषीको आगे करती और उसीकी प्रशंसा करती | तो भी बरके हठसे विवाह तिलकत्तिका ही पक्का करना पड़ा। विवाहके दिन सेठानी तिलकमतिको यह कहकर श्मसानमें बैठा आई कि उनकी कुलप्रथानुसार उसका वर वहीं आकर उससे विवाह करेगा, किन्तु घर आकर उसने यह हल्ला मचा दिया कि तिलक मति कहीं भाग गई। लग्नकी बेला तक उसका पता न चल सकनेके कारण वरका विवाह तेजमतीके साथ करना पड़ा । इस प्रकार कपटजाल द्वारा सेठानी ने अपनी इच्छा पूर्ण की।
इधर राजाने भवनपर चढ़ कर देखा कि एक सुन्दर कन्या श्मशान में बैठी हुई है । वह उसके पास गया और सारी बातें जानकर उससे विवाह कर लिया। राजाने अपना नाम पिंडार बतलाया। कन्याने यह सारा समाचार अपनी सौतेली माँको कहा । सौतेली माँने एक पृथक् गृहमें उसके रहनेकी व्यवस्था कर दी। राजा रात्रिको उसके पास आता और सूर्योदयके पूर्व ही चला जाता । पतिने रत्नजटित वस्त्राभूषण भी उसे दिये, जिन्हें देख सेठानी घबरा गई । और उसने निश्चय किया कि उसके पतिने राजाके यहाँसे इसे चुराया है। इसी बीच सेठ भी विदेशसे लौट बाया। सेठानीने सब वृत्तान्त सुनाकर राजाको खबर दी। राजाने चिन्ता व्यक्त की और सेठको अपनी पुत्रीसे चोरका पता प्राप्त करनेका आग्रह किया । पुत्री ने कहा कि मैं तो उन्हें केवल चरणके स्पर्शसे पहचान सकती हूँ। अन्य कोई परिचय नहीं । इस पर राजाने एक भोजका आयोजन कराया, जिसमें सुगन्धाको आँखे बांधकर अभ्यागतोंके पैर बुलानेका काम सौंपा गया । इस उपायसे राजा ही पकड़ा गया। राजाने उस कन्यासे विवाह करने का अपना समस्त वृत्तान्त कह सुनाया, जिससे समस्त वातावरण आनन्दसे भर गया। इस प्रकार मुनिके प्रति दुर्भावके कारण जो रस्नी दुःखी, दरिद्री और दुर्गन्धा हुई थी वही सुगन्धदशमीव्रतके पुण्य प्रभावसे पुनः रानीके पदको प्राप्त हुई।
यह कथा वर्णनात्मक शैली में लिखी गई है, पर बीच-बीचमें आये हुए संवाद बहुत ही सरस और रोचक हैं। राजा-रानीसे कहता है
दिट्ठा वि सुदसणु मुगिरिदु। मयलंझणहीण अउन्ध-इंदु ।
दो-दोसा-आसा चत्तकाउ । णाणत्तय-जुत्तउ वीयराउ ।
सब्बंग-मलेण तिमिलानु । चलगिहा : भिमत ।
परमेसरु सिरि मासोपवासि | गिरिकंदरे अहन मरााणबासि ।
सो पेवित्रवि परमाणदएण । पणिय पिथपरमसणेहएण !
इह पेसणजोगुण अण्णु को वि । सो हर्ख मि अह व फुडु पत्तु होइ ।
जाएप्पिण अणुराएण वृत्त । पारण करावहि मुणि तुरंत ।
लब्भइ पियमेलण भवसमुद्दे । बणकीलारोहणू गय वरिदे ।
इउ सुलहड जीवहो भवि जि भए । दुलहङ जिणधम्मु भवण्णपए ।
दुलहड गुपनदाणु वि विमलु । मुत्ताहल-सिणिहि जेम जल्लु ।
अर्थात् मुनीश्वर सुदर्शनका दर्शन पाकर राजाको परमानन्द हुआ । उन्होंने अपनी गनी श्रीमतीसे कहा--'प्रिय ! इस समय हमें अपने कर्तव्यका निर्वाह करना चाहिए। मुनि आहार-दानकी क्रिया सेवक-सेविकाओंसे सम्पन्न होने की नहीं। इसे तो मुझे या तुम्हें सम्पन्न करना होगा । अतएव तुम स्वयं बाकर धर्मानुराग सहित मासोपनासी मुनिराजकी पारणा कराओ। इस भव सागरमें नियमिलन, बनक्रीडा, राजारोहण आदि सुख तो इस जीवको जन्म जन्मान्तरमें सुलभ हैं; किन्तु इस भव-समुदमें जिनधर्मकी प्राप्ति दुर्लभ है। और उसमें भी अतिदुर्लभ है इद्ध सुपात्रदानका अवसर । जिस प्रकार मुक्ता फलकी सीपके लिये स्वातिनक्षत्रका जलबिन्दु दुर्लभ होता है। अतएव सद्भाव सहित घर जाकर अनुरागसहित इन मुनिराजको आहार कराओ, जो प्राशुक और गीला हो, मधुर और रसीला हो, जिससे इनका धर्मसाधन सुलभ हो ।
कटुकफलोंका आहार-दान करनेसे रानीको अनेक कुगतियों में भ्रमण करना पड़ा। प्रथम-सन्धिके १२ कड़वकोंमें कुगति-भ्रमणके अनन्तर मुनिराज द्वारा विधिपूर्वक सुगन्धदशमीव्रतका विवेचन किया गया है। और दुर्गन्धाने उस व्रतका विधिपूर्वक पालन किया है। कविने विमाता और तिलकमतीके संवादका भी अच्छा चित्रण किया है। परीक्षाके हेतु राजाने भोजका आयोजन किया और उसी भोजमें राजा पत्तिके रूप में पहचाना गया। इस प्रकार कविने इस कथाको पूर्णतया सरस बनाने का प्रयास किया है।
#Udaichandraprachin
आचार्यतुल्य उदयचन्द्र 12वीं शताब्दी (प्राचीन)
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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उदयचन्द्रने अपभ्रश-भाषामें 'सुअंधदहमीकहा' (सुगंधदशमी कथा) ग्रंथकी रचना की है। कविने इस ग्रंथके अन्त में अपना संक्षिप्त परिचय दिया है
इय सुअदिवहि कहिय सवित्थर, मई गावित्ति सुणाइय मणहर ।
णियकुलगह-उज्जोइय-चंदई। सजण-मण-कय-णयणाणदई ।
भवियण-कपणग-मणहर भासई | जसहर-पहायकूमारहो वायई।
बुयण सुयणहं विणउ करतई । बहसुसील-देमइयहि कतई।
एमहि पुणु वि सुपास-जिणंसर। कवि कम्मक्खा मह परमेसर ।
इन पंक्तियोंसे स्पष्ट है कि कविका नाम उदयचन्द्र था और उसकी पली का देवमति ।
श्री डॉ. हीरालालजी जैनने उदयचन्द्रके सम्बन्धमें प्रकाश डालते हुए लिखा है कि सुगन्ध-दशमी ग्रंथके कर्ता वे ही उदयचन्द्र हैं, जिनका उल्लेख विनयचन्द्र मुनिने अपने गुरुके रूपमें किया है। "निसरपंचमीकहा में विनय बन्दने अपनेको माथुरसंघका मनि बताया है। और इस प्रन्यकी रचना त्रिभुवनगिरिको तलहटीमें की गई बतलायो है । लिखा है--
पविवि पंच महागुरु सारद परिवि मणि ।
उदयचंदु गुरु सुमरिवि बंदिय बालमुणि ||
विणयचंदु फल अक्खइ णिञ्झरपंचामहि ।
णिसुणहु धम्मकहाणउ कहिज जिणागमहि ।
तिहुयणगिरि-तलहट्टी बहु रासउ रइड ।
माथुरसंघहं मुणिवरु-विणयचंदि कहिउ ॥
उदयचंदु गुणगणहरु गरुबउ ।
सो मई भावें मणि अणुसरिया ।।
बालइंदु मुणि विवि गिरतरु ।
णरगउत्तारी कमि कहतरु॥
विनयचन्द्रमुनिकी एक अन्य रचना 'चूनड़ी' उपलब्ध है, जिसमें उन्होंने माथुरसंघके मुनि उदयचन्द्र तथा बालचन्द्रको नमस्कार किया है। और त्रिभुवनगिरिनगरके अजयनरेन्द्रकृत 'राजबिहार को अपनी रचनाका स्थान बताया है
माथुरसंघह उदयमुणीसरु ।
पपचिव बान्दु मुम् गणम् !
जंपइ विणयमयंकु मुणि ।
तियणगिरिपुर जगि विक्खायऊ ।
सग्गखंड णं धरयलि आयउ !!
तहि गिवसते मुणिव अजयरिंदहो राजाविहारहि ।
वेगें विरइय चूनडिय सोहहु मुणिवर जे सुयधारहि ।।
इन उद्धरणोंसे यह अवगत होता है कि उदयचन्द्र माथुरसंघके थे । सुगन्ध दशमीकथाकी रचनाके समय वे गृहस्थ थे। उन्होंने अपनी पत्नीका नाम देवमति बताया है। यही कारण है कि बिनयचन्द्रने निज्झरपंचमीकहाँ' और बालचन्द्रने 'नरगउतारी कथा' में उन्हें गुरु-विद्यागरुके रूपमें स्मरण किया है, नमस्कार नहीं किया। उदयचन्द्रने दीक्षा लेकर जब मुनिचर्या ग्रहण कर ली, तो विनयचन्द्रने उन्हें 'चूनड़ी में मुनीश्वर कहा है और अपने दीक्षागुरु बालचंद्र के साथ उन्हें भी नमस्कार किया है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि विनय चन्द्रने विद्यागुरु होने से उदयचन्द्रका सर्वत्र पहले उल्लेख किया है और दीक्षागुरू बालचन्द्रका पश्चात् । बालचन्द्रने भी उदयचन्द्रको गुरुरूपमें स्मरण किया है।
उदयचन्द्र, बालचन्द्र और विनयचन्द्र माथुर संघके मुनि थे। इस संघका साहित्यिक उल्लेख सर्वप्रथम अमितगतिके प्रन्थों में मिलता है। सुभाषितरत सन्दोहका रचनाकाल संवत् १०५८ है और इस संघके दूसरे बड़े साहित्यकार अमरकोत्ति थे, जिन्होंने वि० सं० १२४७ में अपन शका 'छक्कम्मोवाएस' लिखा. है । अतएव उदयचन्द्र माथुर संघके आचार्य थे।
उदयचन्द्रने सुगन्धदशमी कथाके रचना-स्थानका उल्लेख नहीं किया; किन्तु उनके शिष्य बालचन्द्रने 'नरगउतारीकथा' का रचनास्थल यमुना नदीके तटपर बसा हुआ महावन बतलाया है। बिनयचन्द्रने अपनी दो रच नाओं-निरपंचमीकथा' और 'चुनड़ी' को त्रिभुवनागरिमें इचित कहा है। डॉ० हीरालालजीने महावनको मथुराके निकट यमुनानदीके तटपर बसा हुआ बताया है। और निभुवनगिरि तिहनगढ़ धनगिर है, जो मथुरा या महावनसे दक्षिण पश्चिमकी ओर लगभग ६० मील दूर राजस्थानके पुराने करौली राज्य
और भरतपुर राज्य में पढ़ता है । इस प्रकार इन प्रन्यकारोंका निवास और विहार प्रदेश मथुरा जिला और भरतपुर राज्यका भूभाग माना जा सकता है।
उदयचन्द्रने अपनी रचना सुगन्धदशमीकथामें रचनाकालका निर्देश नहीं किया है और न विनयचन्द्रने ही अपनी किसी रचनामें रचनाकालका उल्लेख किया है। चनड़ीमें यह अवश्य लिखा है कि त्रिभुवनगिरिमें अजय नरेन्द्र के राजविहारमें रहते हुए इस ग्रंथकी रचना की । डॉ० हीरालाल जैनकार कथन है कि भरतपुर राज्य और मथुरा जिलाके भूमिप्रदेशपर यदुवंशी राजा ओंका राज्य था, जिसकी राजधानी श्रीपष-बयाना थी। यहाँ ११वीं शतीके पूर्वाद्धमें जगत्पाल नामक राजा हुए। उनके उत्तराधिकारी विजयपाल थे, जिनका उल्लेख विजय नामसे बयानाके सन् १०४४ ई० के उत्कीर्ण लेख में किया गया है। इनसे उत्तराधिकार त्रिभुवनपालने बयानासे १४ मील दूरीपर तिहन गढ़ नामका किला बनवाया । इस वंशके अजयपाल नामक राजाको एक प्रशस्ति खुदी मिली है, जिसके अनुसार सन् १९५० ई० में उनका राज्य वर्तमान था। इनका उत्तराधिकारी हरिपाल हुआ, जिसका ११७० ई० का अभिलेख मिला है।
तिहनगढ़ या थनगढ़पर ११९६ ई. मुइजुद्दीन मु० गोरीने आक्रमण कर वहाँके राजा कुवरपालको परास्त किया। और वह दुर्ग बहाउद्दीन तुरिलको सौंप बिया । इस प्रकार मथुरपर १२वीं शती तक यदुवंशकी राज्यपरम्परा बनी रही।
इस ऐतिहासिक विवेचनसे यह स्पष्ट होता है। कि सुगन्धदशमीकथाके कत्ता उदयचन्द्र के शिष्य बिनयचन्द्रने जिस त्रिभुवनगिरिमें अपनी दो रचनाएँ पूर्ण की थी उसका निर्माण यदुवंशी त्रिभुवनपालने अपने नामसे सन् १०४४ ई. के कुछ काल पश्चात् कराया। चुनड़ीकी रचना अजयनरेन्द्रके जिस राज विहारमे रहकर को भी वह निस्सन्देह उन्हीं अजयपाल नरेश द्वारा निर्मित हुआ होगा, जिनका ११५० ई० का उत्कीर्ण लेख महावन में मिला है। सन् ११९६ ई० में मुसलमानोंके आक्रमणस त्रिभुवनगिरि यदुवंशी राजाओंके हाथसे निकल चुका था। अतएव त्रिभुवन गरिमें लिखे गये उक्त दोनों ग्रंथोंका रचनाकाल १५५० ई०-११९६ ई० के बीच संभव है। चुनड़ीकी रचनाके समय उदयचन्द्र मुनि हो चुके थे, पर सुगन्धदशमीकथाको रचनाके समय के गृहस्थ थे । अतएव बालचन्द्र का समय ई सन्की १२वीं शताब्दी माना जा सकता है ।
काब उदयचन्द्रकी 'सुअंधदमीकहा' नामको एक ही रचना उपलब्ध है। सुगन्धदशमी कथा में बताया गया है कि मुनिनिन्दाके प्रभावसे कुष्ठरोगको उत्पत्ति, नीच योनियों में जन्म तथा शरीर में दुर्गन्धका होना एवं धर्माचरणके प्रभाव से पापका निवारण होकर स्वर्ग एवं उच्च कुलमें जन्म होता है। कथामें बताया है कि एक बार राजा-रानी दोनों वन-बिहारके लिए जा रहे थे कि सुदर्शन नामक मुनि आहारके लिए आते दिखाई दिये। राजाने अपनी पत्नीको उन्हें आहार करानेके लिये वापस भेजा । रानीने कद्ध हो मुनिराजको कड़वी तुम्बीका आहार करवाया । उसकी वेदनासे मुनिका स्वर्गवास हो गया । राजाको जब यह समा चार मिला तो उन्होंने उसे निरादरपूर्वक निकाल दिया। उसे कुष्ठ ब्याधि हो गई और वह सात दिनके भीतर मर गई। कुत्ती, सूकरी, शृगाली, गदही आदि नीच योनियों में जन्म लेकर अन्ततः पूतगन्धाके रूपमें उत्पन्न हुई।
सुव्रता आर्थिकासे अपने पूर्वभवका वृत्तान्त सुनकर पूतगन्धाको बड़ी आत्म ग्लानि हुई और उसने मुनिराजसे उस पापसे मुक्ति प्राप्त करनेके लिये सुगन्ध दशमीबत ग्रहण किया और इस व्रतके प्रभावसे दुर्गन्धा अपने अगले जन्ममें रस्नपुरके सेठ जिनदत्तकी रूपवती पुत्री तिलकति हुई। उसके जन्मके कुछ ही दिन बाद उसको माताका देहान्त हो गया। तथा उसके पित्ताने दूसरा विवाह कर लिया। इस पल्लोसे उसे तेजमतो कन्या उत्पन्न हुई। सौतेली माँ अपनी पुत्रीको जितना अधिक प्यार करती थी, तिलकमतीसे उतना ही देष । इस कारण इस कन्याका जीवन बड़े दुःससे व्यतीत होने सन्न किया के बयस्क होनेपर पिताको विवाहको चिन्ता हुई। पर इसी समय वाहें हम नरेश कनकप्रभका आदेश मिला कि - रत्नोंको खरीदनेके लिए देशान्तर जायें । जाते समय समय से अपनी पत्नसिं कह गया कि सुयोग्य वर देखकर दोनों कन्याओंका विवाह कर देना । जो भी बर घरमें आते वे तिलकतिके रूपपर मुग्ध हो जाते और उसीकी याचना करते । पर सेठनी उसकी बुराई कर अपनी पुषीको आगे करती और उसीकी प्रशंसा करती | तो भी बरके हठसे विवाह तिलकत्तिका ही पक्का करना पड़ा। विवाहके दिन सेठानी तिलकमतिको यह कहकर श्मसानमें बैठा आई कि उनकी कुलप्रथानुसार उसका वर वहीं आकर उससे विवाह करेगा, किन्तु घर आकर उसने यह हल्ला मचा दिया कि तिलक मति कहीं भाग गई। लग्नकी बेला तक उसका पता न चल सकनेके कारण वरका विवाह तेजमतीके साथ करना पड़ा । इस प्रकार कपटजाल द्वारा सेठानी ने अपनी इच्छा पूर्ण की।
इधर राजाने भवनपर चढ़ कर देखा कि एक सुन्दर कन्या श्मशान में बैठी हुई है । वह उसके पास गया और सारी बातें जानकर उससे विवाह कर लिया। राजाने अपना नाम पिंडार बतलाया। कन्याने यह सारा समाचार अपनी सौतेली माँको कहा । सौतेली माँने एक पृथक् गृहमें उसके रहनेकी व्यवस्था कर दी। राजा रात्रिको उसके पास आता और सूर्योदयके पूर्व ही चला जाता । पतिने रत्नजटित वस्त्राभूषण भी उसे दिये, जिन्हें देख सेठानी घबरा गई । और उसने निश्चय किया कि उसके पतिने राजाके यहाँसे इसे चुराया है। इसी बीच सेठ भी विदेशसे लौट बाया। सेठानीने सब वृत्तान्त सुनाकर राजाको खबर दी। राजाने चिन्ता व्यक्त की और सेठको अपनी पुत्रीसे चोरका पता प्राप्त करनेका आग्रह किया । पुत्री ने कहा कि मैं तो उन्हें केवल चरणके स्पर्शसे पहचान सकती हूँ। अन्य कोई परिचय नहीं । इस पर राजाने एक भोजका आयोजन कराया, जिसमें सुगन्धाको आँखे बांधकर अभ्यागतोंके पैर बुलानेका काम सौंपा गया । इस उपायसे राजा ही पकड़ा गया। राजाने उस कन्यासे विवाह करने का अपना समस्त वृत्तान्त कह सुनाया, जिससे समस्त वातावरण आनन्दसे भर गया। इस प्रकार मुनिके प्रति दुर्भावके कारण जो रस्नी दुःखी, दरिद्री और दुर्गन्धा हुई थी वही सुगन्धदशमीव्रतके पुण्य प्रभावसे पुनः रानीके पदको प्राप्त हुई।
यह कथा वर्णनात्मक शैली में लिखी गई है, पर बीच-बीचमें आये हुए संवाद बहुत ही सरस और रोचक हैं। राजा-रानीसे कहता है
दिट्ठा वि सुदसणु मुगिरिदु। मयलंझणहीण अउन्ध-इंदु ।
दो-दोसा-आसा चत्तकाउ । णाणत्तय-जुत्तउ वीयराउ ।
सब्बंग-मलेण तिमिलानु । चलगिहा : भिमत ।
परमेसरु सिरि मासोपवासि | गिरिकंदरे अहन मरााणबासि ।
सो पेवित्रवि परमाणदएण । पणिय पिथपरमसणेहएण !
इह पेसणजोगुण अण्णु को वि । सो हर्ख मि अह व फुडु पत्तु होइ ।
जाएप्पिण अणुराएण वृत्त । पारण करावहि मुणि तुरंत ।
लब्भइ पियमेलण भवसमुद्दे । बणकीलारोहणू गय वरिदे ।
इउ सुलहड जीवहो भवि जि भए । दुलहङ जिणधम्मु भवण्णपए ।
दुलहड गुपनदाणु वि विमलु । मुत्ताहल-सिणिहि जेम जल्लु ।
अर्थात् मुनीश्वर सुदर्शनका दर्शन पाकर राजाको परमानन्द हुआ । उन्होंने अपनी गनी श्रीमतीसे कहा--'प्रिय ! इस समय हमें अपने कर्तव्यका निर्वाह करना चाहिए। मुनि आहार-दानकी क्रिया सेवक-सेविकाओंसे सम्पन्न होने की नहीं। इसे तो मुझे या तुम्हें सम्पन्न करना होगा । अतएव तुम स्वयं बाकर धर्मानुराग सहित मासोपनासी मुनिराजकी पारणा कराओ। इस भव सागरमें नियमिलन, बनक्रीडा, राजारोहण आदि सुख तो इस जीवको जन्म जन्मान्तरमें सुलभ हैं; किन्तु इस भव-समुदमें जिनधर्मकी प्राप्ति दुर्लभ है। और उसमें भी अतिदुर्लभ है इद्ध सुपात्रदानका अवसर । जिस प्रकार मुक्ता फलकी सीपके लिये स्वातिनक्षत्रका जलबिन्दु दुर्लभ होता है। अतएव सद्भाव सहित घर जाकर अनुरागसहित इन मुनिराजको आहार कराओ, जो प्राशुक और गीला हो, मधुर और रसीला हो, जिससे इनका धर्मसाधन सुलभ हो ।
कटुकफलोंका आहार-दान करनेसे रानीको अनेक कुगतियों में भ्रमण करना पड़ा। प्रथम-सन्धिके १२ कड़वकोंमें कुगति-भ्रमणके अनन्तर मुनिराज द्वारा विधिपूर्वक सुगन्धदशमीव्रतका विवेचन किया गया है। और दुर्गन्धाने उस व्रतका विधिपूर्वक पालन किया है। कविने विमाता और तिलकमतीके संवादका भी अच्छा चित्रण किया है। परीक्षाके हेतु राजाने भोजका आयोजन किया और उसी भोजमें राजा पत्तिके रूप में पहचाना गया। इस प्रकार कविने इस कथाको पूर्णतया सरस बनाने का प्रयास किया है।
Acharyatulya Udaichandra 12th Century (Prachin)
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