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#VeerKavi
महाकवि वीरने 'जंबुसामिचरिउ"मैं अपना परिचय दिया है । उनका जन्म मालवा देशके गुस्खखेड नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता 'लाङजागउ' गोत्रके महाकवि देवदत्त थे । देवदत्तने १. बरांगचरित २. शान्तिनाथराय ३. सद्धयवीर कथा और ४. अम्बादेवीरासकी रचना की थी। महाकवि वीरने अपने पिताको स्वयं तथा पुष्पदन्तके पश्चात् तीसरा स्थान दिया है। कविने लिखा है कि स्वयंभूके होने से अपन शका प्रथम कवि, पुष्पदन्तके होनेसे अपनीशका द्वितीय कवि और देवदतके होनेसे अपनाके तृतीय कविकी ख्याति हुई है। वीर कविने अपने समय तक सीन ही कवि अपन शके माने हैं। स्वयंभु, पुष्पदन्त और देवदत्त । इससे यह ध्वनिस होता है कि कवि वीरके पिता देवदत्त भी अपभ्रशके यातिनामा कवि थे ।
कविकी मौका नाम श्री सनुबा था और इनके सीहल्ल, लक्षणांक तथा जसई ये तीन भाई थे। कविकी चार पलियाँ थीं-१. जिनमति २. पावती ३. लीलावती ४. जयादेवी । इनकी प्रथम पत्लिसे नेमिचन्द्र नामक पुत्र उत्पन्न हमा था । बीर संस्कृत काव्य रचनामें भी निपुण ये; किन्तु पिताके मित्रोंकी प्रेरणा और आग्रहसे संस्कृत काव्यरचनाको छोड़कर अपभ्रंशप्रबन्धशेलोमें जंबुसामिचरिउ की रचना की है।
कविका लाडवागज वंश इतिहास प्रसिद्ध बहुत पुराना है। इस वंशका प्रारंभ, पुनाट संघसे हुआ है। इस संघके आचार्य पुनाट-कर्नाटक प्रदेश में विहार करते थे। इसलिए इसका नाम पुनाट पड़ा । तदनन्तर इसका प्रमुख कार्यक्षेत्र लाउबागड-गुजरात और सागवाड़ाके आसपासका प्रदेश हुआ। इसीलिए इसका नाम लाइवागडगच्छ पड़ा। पुम्नाट संघके प्राचीनतम ज्ञात आचार्य जिनसेन प्रथम हैं जिन्होंने शक संवत् : ०५ (वि० सं०८४०) में वर्धमानपुरके पार्श्वनाथ तथा दोस्तटिकाके शान्तिनाथ जिनालयमें रहकर हरिबंशपुराणकी रचना की है
धर्मरत्नाकर नामक ग्रंथके रचयिता आचार्य जयसेन लाहबागड संघक प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने वि० सं० १०५५ में कर्नाटक-कराड (बम्बई) में निवास कर उक्त प्रथको रचनाको पूर्ण किया था । इसी गणमें प्रहाम्नरिन रचयिता महासेन, हरिषेण, विजयकीर्ति आदि अनेक आचार्य हुए हैं।
महाकवि वीर काव्य, व्याकरण, तर्क, कोष, छन्दशास्त्र, द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग आदि विषयोंके ज्ञाता थे। 'जंबुसामिचरिउ'मैं' समाविष्ट पौराणिक घटनाओंके अध्ययनसे अवगत होता है कि महाकवि घोरके बल जैन पौराणिक परम्पराके हो साता नहीं थे अपितु बाल्मीकिरामायण, महाभारत, शिवपुराण, विष्णुपुराण, भरतनाट्यशास्त्र, सेतुबन्धकाव्य आदि ग्रंथोंके भी पंडित थे। इनके व्यक्तित्वमें नम्रता और राजनीति-दक्षताका विशेष रूपसे समावेश हुआ है। कविको अपने पूर्वजोंपर गर्व है। वह महाकाव्य रचयिताके रूप में अपने पिताका आदरपूर्वक उल्लेख करता है ।
संस्कृत भाषाका प्रौढ़ कवि और काव्य अध्येता होने के कारण धीर कविकी रचनामें पर्याप्त प्रौढ़ता दृष्टिगोचर होती है । वोरके 'जंबुसामिचरिउसे यह भी स्पष्ट है कि वह धर्मका परम श्रद्धालु, भक्तवती और कर्मसंस्कारोंपर आस्था रखनेवाला था। उसकी प्रकृति अत्यन्त उदार और मिलनसार थो। यही कारण है कि उसने मित्रों को प्रेरणाको स्वीकारकर अपन शमें काट्यकी रचना की।
वीर कविको समाजफे विभिन्न वर्गों एवं जीवन यापनके विविध साधनोंका साक्षात् अनुभव था। वह श्रद्धावान् सद् गृहस्थ था। उसने मेघवनपत्तनमें तीर्थंकर महावीरकी प्रतिमा स्थापित करवाई थी।
कविके व्यक्तित्वको हम उनके निम्न कथनसे परख सकते हैं
देत दरिछं परदसणदुम्मणं सरसकन्चसम्बस्स।
कइवीरसरिसपुरिसं घरणिधरती कयत्यासि |
हत्थे चाओ चरणपणमणं साहसीताण सोसे ।
सच्चावाणी वयणकमलए वच्छे सच्चापविती ।।
दरिद्रोंको दान, दूसरेके दुःखमें दुखी, सरसकाव्यको हो सर्वस्व मानने वाले पुरुषोंको धारण करनेसे ही पृथ्वी कृतार्थ होती है। हाथमें अनुष, साधुचरिस, महापुरुषों के चरणोंमें प्रणाम, मुख में सच्ची वाणी, हृदयमें स्वच्छप्रवृत्ति, कानोंसे सुने हुए धृतका ग्रहण एवं भुजलताओंमें विक्रम, वीर पुरुषका सहज परिकर होता है।
इस कथनसे स्पष्ट है कि कविके व्यक्तित्वमें उदारता थो, वह दरिद्रोंको दान देता था और दूसरोंके दुःखमें पूर्ण सहानुभूतिका व्यवहार करता था। कवि बीरताको भी जीवन के लिए आवश्यक मानता है। यही कारण है कि उसने युद्धोंका ऐसा सजीव चित्रण किया है जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वह युद्धभूमिमें सम्मिलित हुआ होगा ।
कवियोंके चरणों में नतमस्तक होना भी उसका कवित्वके प्रति सद्भाव व्यक्त करता है । सत्यवचन, पवित्र हृदय, अनवरत स्वाध्याय, भुजपराक्रम और दयाभाव उसके व्यक्तित्वके प्रमुख गुण हैं ।
'जंबुसा मिचरिज'को प्रशस्तिमें कविन इस अन्यका रचनाकाल वि० सं० १०७६ माघ शुक्ला दशमी बताया है। लिखा है
"विक्कमनिवकालानो छाहात्तरदससएसु बरिसाणं ।
माहम्मि सुद्धपक्से दसम्म दिवसम्म संतम्मि !॥ २॥"
प्रस्तुत काव्यके अन्तःसाक्ष्य तथा अन्य बाह्यसाक्ष्योंसे भी प्रशस्तिमें उल्लि खित समय ठीक सिद्ध होता है। कवि वीरने महाकवि स्वयंभ, पुष्पदन्त एवं अपने पिता देवदत्तका उल्लेख किया है । पुष्पदन्तके उल्लेखसे ऐसा ज्ञात होता है कि जब यह महाकवि अपने जीवनका उत्तराईकाल यापन कर रहा था
और जिस समय राष्ट्रकट राजा कष्ण ततीयको मुत्यके पांच ही वर्ष हए थे उस समय धारा नरेश परमारवंशीय राजा सीयक या श्री हर्षने कृष्ण तृतीयके उत्तराधिकारी और अनुज खोट्टिगदेवको आक्रमण करके मार डाला था एवं मान्यखेटपुरीको बुरी तरह लूटा तथा ध्वस्त किया था (वि० सं० १०२९) । इस समय पुष्पदन्तके महापुराणकी रचना पूर्ण हो चुकी थी और अभिमानमेरु महाकवि पुषदन्तको ख्याति मालवा प्रान्त में भी हो चुकी थी। इसी समय वीर कविने अपने बाल्यकालमें ही सरस्वतीके इस वरद पुत्रकी ख्याति सुनी होगीऔर इसकी रचनाओं का अध्ययन किया होगा । यतः जंबुगामिचरिउपर पुष्य दन्तकी रचनाओंका गम्भीर और व्यापक प्रभाव दिखलायी पड़ता है। अत: कविके समयकी पूर्व सीमा वि० सं० १०२५ के लगभग आती है।
इतना ही नहीं जंबुसामिचरिउपर नयनन्दिके सुदसणचरिउ (वि० सं० ११००) का प्रभाव भी दष्टिगोचर होता है। एक बान और विचारणीय यह है कि जंबुसामिचरिउकी पंचम, षष्ठ और सप्तम सन्धियोंमें हंसद्वीपके राजा रत्न शेखर द्वारा केरल के घेर लिये जाने और मगधराज श्रेणिकको सहायतासे राजा रत्नशेखरको परास्त किये जानेके बहानेसे वीर कविने जिस ऐतिहासिक युद्ध घटनाकी ओर संकेत किया है उसमें कविने स्वयं भी एक पक्षकी ओरसे भाग लिया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं | यह घटना परिवर्तितरूपमें मुंजके बारा केरल, चोल तथा दक्षिणके अन्य प्रदेशोंपर वि० सं० १०३०-१०५० के बीच आक्रमण करके उन्हें विजित करनेकी मालूम पड़ती है ।
वीरकविके पश्चात् ब्रह्मजिनदासका संस्कृत 'जम्बुस्वामिचरित मिलता है जिसे उन्होंने वि० सं० १५२० में पूर्ण किया । यह रचना अपभ्रश काव्यका संस्कृत रूपान्तर है। महाकवि 'रइष ने भी 'अंबुसामिचरिउका निर्देश किया है। हरिषेणको 'धम्मपरिक्खा' वि० सं० १.४४ में लिखी गई है । अतः हरिषेण और पुष्पदन्त इन दोनोंके साथ कविका सम्बन्ध रहा प्रतीत होता है। जैन ग्रन्थावली में 'जंबुचरिउ'का उल्लेख आया है । इस ग्रन्थको रचना भी अपभ्रंशमें वि० सं० १०७६ में हुई है । जंबुचरिजके रचयिता सागरदत्त है, जो 'जंबुसामि चरित' के समान हो विषयवस्तुका वर्णन करते हैं। अतएव प्रशस्तिमें निर्दिष्ट जंबुसाभिचरिउका रचनाकाल यथार्थ है।
महाकवि वीरकी एक ही रचना जंबुसामिचरिउ उपलब्ध है। यह अपभ्रश का महाकाव्य है और यह रचना ११ सन्धियोंमें पूर्ण हुई है ।
मंगलाचरणके अनन्सर कवि सज्जन-दुर्जन स्मरण करता है। पूर्ववर्ती कवियों के स्मरणके अनन्तर कवि अपनी अल्पमता प्रदर्शित करता है। मगधदेश और राजगहका सुन्दर काव्यशैली में वर्णन किया गया है। तीर्थकर महावीरका विपुलाचलपर समवशरण पहुँचता है। और श्रेणिक प्रश्न करते हैं और गौतम गणघर उन प्रश्नोंका उत्तर देते हैं।
मगध-मण्डल में वर्षमान नामक ग्राममें सोमशर्मनामक गुणवान ब्राह्मण रहता था और जिसकी पत्नी सोमशर्मा नामक थी। उनके भवदत्त और भवदेव नामक दो पुत्र थे। जब वे क्रमशः १८ और १२ वर्षके थे तब उनके पिताका स्वर्गवास हो गया और उनकी माता भी सती हो गई | माता-पिताके स्वर्गवास के अनन्तर भाई भवदत्त न्यायपूर्वक गृहस्थधर्मका पालन करने लगा। कुछ समय पश्चात् सुधर्म मुनिका उपदेश सुनकर भवदत्तको वैराग्य हो गया और छोटे भाई भमयः। गृहस्थी मार सकार पर संघ का हो गया। बारह वर्ष पश्चात् मुनि संघ विहार करता हुआ पुनः जसो गाँवमं आया । छोटे भाई भवदेवको भी दीक्षित करनेकी इच्छासे गुरुको अनुज्ञा लेकर भवदत्त मुनि भवदेवके घर आया। बड़े भाईका आगमन सुनकर वह बाहर आया उस समय भवदेवक विवाहको तैयारियां हो रही थीं । अतएवं बह नववधूको अर्द्ध मंडित ही छोड़कर भवदत्त के पास आया । भवदेवके आग्रहसे वहीं आहार लेकर जहाँ संघ ठहरा हुआ था वहाँ भवदत्त मुनि लौट आया । भवदेव भी भाईके साथ श्रद्धा और संकोचवश मुनि संघमें चला पाया । यहाँ मुभिजनों की प्रेरणा तथा भाईकी अन्तरंग इच्छाके सम्मानार्थ बेमनसे भवदेवने मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली । सदनन्तर संघ वहाँस विहार कर गया। भवदेव दिनरात नागवसुके ध्यान में लीन रहता हआ घर लौटकर पुनः उसके साथ काम भोग भोगनेके अवसरकी प्रतीक्षामें समय व्यतीत करने लगा। १२ वर्ष पश्चात् मुनि सघ पुन: उसी वधमान गाँव के निकट आकर ठहरा । भवदेव इससे बहुत उल्हसित हुबा और बहाना करके अपने घरकी ओर चल पड़ा ।
गांवके बाहर ही एक जिन चैत्यालयमें उसकी नागवसुसे भेंट हो गई । वत्तोंके पालनेसे अति कृशगात्र अस्थिपंजर मात्र शेष रहनेसे भबदेव उसे पह चान नहीं सका । अपने कुल और पत्नीके सम्बन्धमें पूछने पर नागवसुने उसे पहचान लिया । नागवसुने उसे अपना परिचय दिया और तपः शुष्क शरीर दिखलाकर नाना प्रकारसे धर्मोपदेश दे भवदेवको प्रतिबद्ध किया । इस प्रकार बोध प्राप्त कर शवदेवने आचार्यके पास जाकर प्रायश्चित्त लिया और पुनः दीक्षा ग्रहण कर कठोर तपश्चरण किया । और मृत्यु के अनन्तर तृतीय स्वर्ग प्राप्त किया।
स्वर्गसे च्युत हो भवदत्त पूर्व विदेहमें राजा वज्रदन्त और उसकी रानी यशोधनाके मर्भसे सागरचन्द्र नामक पुत्र हुआ। और भवदेवका जीव वहाँके राजा महापद्म और वनमाला नामक पटरानीका शिवकुमार नामक पुत्र हुआ। कालान्तरमें सागरचन्द्र दीक्षित हो गया। उसने भवदेवके जीव युवराज शिव कुमारको प्रतियोधित करनेका प्रयास किया; पर माता-पिताको अनुज्ञा न मिलने से वह घर में ही धर्म-साधन करने लगा। इस तपके प्रभाबसे भवदेवने पुनः स्वर्गमें जन्म ग्रहण किया और भवदत्तके जीव सागरचन्द्रने आयुष्य पूर्ण कर स्वर्ग में जन्म प्राप्त किया ।
चौथो सन्धिसे जम्बूस्वामीको कथा आरंभ होती है। इनके पिताका नाम अहंदास था | सन्धि जन्म, वसन्तोत्सव, जलक्रीड़ा आदिका वर्णन आया है। अनन्तर उनके द्वारा मत्त गजको परास्त करनेका कथन आया है।
पांचवीसे सातवीं सन्धितक जम्बूस्वामीके अनेक दीरतापूर्ण कार्योका वर्णन किया है। महषि सुधास्वामी अपने पांच शिष्योंके साथ उपवन में आते हैं। जम्बुस्वामी उनके दर्शन कर नमस्कार करते हैं। वे अपने पूर्वभवोंका वृत्तान्त जान कर विरक्त हो घर छोड़ना चाहते हैं। माता समझाती है। सामरदत्त श्रेष्ठिका भेजा हुआ मनुष्य आकर जम्बूका विवाह निश्चित करता है। श्रेष्ठियोंकी कमलश्री, कनकनी, विनयात्री और रूपश्री नामक चार कन्याओंसे जम्बू का विवाह होसा है।
जम्बुके हृदय में पुनः वैराग्य जाग्रत होता है। उनकी पलियाँ वैराग्य विरोधो-कथाएँ कहती हैं। जम्बू महिलाओं को निन्दा करता हुआ वैराग्य निरू पक कथानक कहता है । इस प्रकार मदरात्रि व्यतीत हो जाती है। इतने में ही विधुन्चर चोर, चोरी करता हुआ वहां आता है । जम्बूस्वामीको माता भी जागती थी। उसने कहा-चोर, जो चाहता है, ले ले' | चोरको जम्बूको मातासे जम्बके वैराग्य-भावकी सूचना मिलती है । विद्युचरने प्रतिज्ञा की कि वह या तो जम्बूको रागी बना देगा, अन्यथा स्वयं वह वैरागी बन जायगा । जम्बको माता उस चोरको उस समय अपना छोटा भाई कहकर जम्बूके पास ले जाती जाती है, ताकि विधुच्चर अपने कार्य में सफल हो।
दशवीं सन्धिमें जम्बू और विद्युच्चर एक दुसरेको प्रभावित करने के लिए अनेक आख्यान सुनाते हैं। जम्बू वेराम्यप्रधान एवं विषय-भोगकी निस्मारता प्रतिपादक आख्यान कहते हैं और विद्युच्चर इसके विपरीत बैराग्यको निस्सा रता दिखलानेवाले विषयभोग-प्रतिपादक आख्यान | जम्बूस्वामोको अन्तमें विजय होती है। वे सुधर्मास्वामीसे दीक्षा लेते हैं और उनका सभी पत्नियाँ भी आयिका हो जाती हैं। जम्बूस्वामी केवलज्ञान प्राप्तकर अन्त में निर्वाण पद लाभ करते हैं।
विद्युच्चर भी दशविध धर्मका पालन करता हुआ तपस्या हारा सर्वार्थसिद्धि लाभ करता है | जम्बूरिउके पढ़नेसे मंगल-लाभका संकेत करते हुए कृत्ति समाप्त होती है।
इस ग्रन्थमें जम्बूस्वामीके पूर्वजन्मोंका भी वर्णन आया है। पूर्वजन्मोंमें वह शिवकुमार और भवदेव था और उसका बड़ा भाई सागरचन्द और भवदत्त । भवदेनके जीवन में स्वाभाविकता है। भवदत्तके कारण ही भवदेवके जीवन में उतार-चढ़ाव और अन्तर्द्वन्द्व उपस्थित होते हैं । जम्बूस्वामीकी पलियों के पूर्व जन्म-प्रसंग कथा-प्रवाहमें योग नहीं देते । अतः वे अनावश्यक जैसे प्रतीत होते हैं।
जम्बूस्वामोके चरित्रको कवि जिस दिशाकी ओर मोड़ना चाहता है उसी ओर वह मड़ता गया। कविने नायकके जीवनमें किसी भी प्रकारकी अस्वा भाविकता चित्रित नहीं की है । राग और वैराग्यके मध्य जम्बूस्वामीका जीवन विकसित होता है।
'जम्बूसामिचरिङ' में शास्त्रीय महाकाव्य के सभी लक्षण घटित होते हैं। सुगठित इतिवृत्त के साथ देश, नगर, ग्राम, शेल, अटवी, उपवन, उद्यान, सरिता, ऋतु, सूर्योदय, चन्द्रोदय आदिका सुन्दर चित्रण आया है। रसभाव-योजनाकी दुष्टिसे यह एक प्रेमाख्यानक महाकाव्य है । इस महाकाव्यका आरंभ भस्वघोष कृत 'सौन्दरनन्द' मान सम्मान बड़े भाई हम छोटे भाई भयरवके अनिच्छापूर्वक दीक्षित कर लिये जानेसे प्रियावियोगजन्य विप्रलम्भ शृंगारसे होता है | भवदेव के प्रेमकी प्रकर्षता और महत्सा इसमें है कि वह जनसंघक कठोर अनुशासन में दिगम्बर मुनिके वेशमें बड़े भाईको देखरेख में रहते हुए भी तथा जैन मुनिके अतिकठोर आचारका पालन करते हुए भी १२ वर्षाका दीर्घ काल अपनी पत्नी नागवसुके रूप-चिन्तनमें व्यतीत कर देता है । और अपनी प्रियाका निशिदिन ध्यान करता रहता है। १२ वर्ष पश्चात् वह अपने गांव लौटता है और प्रिया द्वारा ही उद्बोधन प्राप्त करता है। इस प्रकार काब्यकी कथावस्तु विप्रलंभ शृंगारसे आरंभ होकर शान्त रसमें समाविष्ट होती है । वीर (४।२१), गेन्द्र (५॥३,५।१३), भयानक (१०।२), बीभत्स (१०२६), करुण (२२५,१।१७), अद्भुत (२३, ५।२) एवं वात्सल्य (७१३, ६१७) में रसका परिणाम आया है।
अलंकारोंमें उपारा १६, मालोपमा ५८, मालोत्प्रेक्षा ८।१०, फलोत्प्रेक्षा ४१४, रूपकमाला ३२७, मिदर्शना १३, दृष्टान्त ११२, बक्रोत्ति ४१८, विभावना ४१८, विरोधाभास २।१२, व्यतिरेक ४|१७, सन्देह ४।१९९, भ्रान्तिमान् ५।२, और अतिशयोक्ति १।१७ अलंकार पाये जाते हैं।
छन्दोंमें करिमकरभुजा (७।१०), दीपक (४।२२), पारणक (१२२), पडिया (१८), अलिल्लह (श६), सिंहावलोक (६६), त्रोटनक (४७), पादाकुलक (११), उबंशी (३), सारीय (५।१४), स्रग्विणी (२९, ४१६), मदनावतार (१९१०), त्रिपदी शंखनारी (४५), सामानिका (२।१७), भुजंगप्रयात (४२१), दिनमणि (७५), गाथा (९२१), उद्गाथा (१), दोहा (१४), रत्नमालिका (२०१५) मणिशेखर (५1८) मालागाहो (४), दण्डक (४८) का प्रयोग कविने किया है । इस प्रकार महाकाव्यके सभी तत्त्व जंबुसामिचरिउमें पाये जाते हैं।
महाकवि वीरने 'जंबुसामिचरिउ"मैं अपना परिचय दिया है । उनका जन्म मालवा देशके गुस्खखेड नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता 'लाङजागउ' गोत्रके महाकवि देवदत्त थे । देवदत्तने १. बरांगचरित २. शान्तिनाथराय ३. सद्धयवीर कथा और ४. अम्बादेवीरासकी रचना की थी। महाकवि वीरने अपने पिताको स्वयं तथा पुष्पदन्तके पश्चात् तीसरा स्थान दिया है। कविने लिखा है कि स्वयंभूके होने से अपन शका प्रथम कवि, पुष्पदन्तके होनेसे अपनीशका द्वितीय कवि और देवदतके होनेसे अपनाके तृतीय कविकी ख्याति हुई है। वीर कविने अपने समय तक सीन ही कवि अपन शके माने हैं। स्वयंभु, पुष्पदन्त और देवदत्त । इससे यह ध्वनिस होता है कि कवि वीरके पिता देवदत्त भी अपभ्रशके यातिनामा कवि थे ।
कविकी मौका नाम श्री सनुबा था और इनके सीहल्ल, लक्षणांक तथा जसई ये तीन भाई थे। कविकी चार पलियाँ थीं-१. जिनमति २. पावती ३. लीलावती ४. जयादेवी । इनकी प्रथम पत्लिसे नेमिचन्द्र नामक पुत्र उत्पन्न हमा था । बीर संस्कृत काव्य रचनामें भी निपुण ये; किन्तु पिताके मित्रोंकी प्रेरणा और आग्रहसे संस्कृत काव्यरचनाको छोड़कर अपभ्रंशप्रबन्धशेलोमें जंबुसामिचरिउ की रचना की है।
कविका लाडवागज वंश इतिहास प्रसिद्ध बहुत पुराना है। इस वंशका प्रारंभ, पुनाट संघसे हुआ है। इस संघके आचार्य पुनाट-कर्नाटक प्रदेश में विहार करते थे। इसलिए इसका नाम पुनाट पड़ा । तदनन्तर इसका प्रमुख कार्यक्षेत्र लाउबागड-गुजरात और सागवाड़ाके आसपासका प्रदेश हुआ। इसीलिए इसका नाम लाइवागडगच्छ पड़ा। पुम्नाट संघके प्राचीनतम ज्ञात आचार्य जिनसेन प्रथम हैं जिन्होंने शक संवत् : ०५ (वि० सं०८४०) में वर्धमानपुरके पार्श्वनाथ तथा दोस्तटिकाके शान्तिनाथ जिनालयमें रहकर हरिबंशपुराणकी रचना की है
धर्मरत्नाकर नामक ग्रंथके रचयिता आचार्य जयसेन लाहबागड संघक प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने वि० सं० १०५५ में कर्नाटक-कराड (बम्बई) में निवास कर उक्त प्रथको रचनाको पूर्ण किया था । इसी गणमें प्रहाम्नरिन रचयिता महासेन, हरिषेण, विजयकीर्ति आदि अनेक आचार्य हुए हैं।
महाकवि वीर काव्य, व्याकरण, तर्क, कोष, छन्दशास्त्र, द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग आदि विषयोंके ज्ञाता थे। 'जंबुसामिचरिउ'मैं' समाविष्ट पौराणिक घटनाओंके अध्ययनसे अवगत होता है कि महाकवि घोरके बल जैन पौराणिक परम्पराके हो साता नहीं थे अपितु बाल्मीकिरामायण, महाभारत, शिवपुराण, विष्णुपुराण, भरतनाट्यशास्त्र, सेतुबन्धकाव्य आदि ग्रंथोंके भी पंडित थे। इनके व्यक्तित्वमें नम्रता और राजनीति-दक्षताका विशेष रूपसे समावेश हुआ है। कविको अपने पूर्वजोंपर गर्व है। वह महाकाव्य रचयिताके रूप में अपने पिताका आदरपूर्वक उल्लेख करता है ।
संस्कृत भाषाका प्रौढ़ कवि और काव्य अध्येता होने के कारण धीर कविकी रचनामें पर्याप्त प्रौढ़ता दृष्टिगोचर होती है । वोरके 'जंबुसामिचरिउसे यह भी स्पष्ट है कि वह धर्मका परम श्रद्धालु, भक्तवती और कर्मसंस्कारोंपर आस्था रखनेवाला था। उसकी प्रकृति अत्यन्त उदार और मिलनसार थो। यही कारण है कि उसने मित्रों को प्रेरणाको स्वीकारकर अपन शमें काट्यकी रचना की।
वीर कविको समाजफे विभिन्न वर्गों एवं जीवन यापनके विविध साधनोंका साक्षात् अनुभव था। वह श्रद्धावान् सद् गृहस्थ था। उसने मेघवनपत्तनमें तीर्थंकर महावीरकी प्रतिमा स्थापित करवाई थी।
कविके व्यक्तित्वको हम उनके निम्न कथनसे परख सकते हैं
देत दरिछं परदसणदुम्मणं सरसकन्चसम्बस्स।
कइवीरसरिसपुरिसं घरणिधरती कयत्यासि |
हत्थे चाओ चरणपणमणं साहसीताण सोसे ।
सच्चावाणी वयणकमलए वच्छे सच्चापविती ।।
दरिद्रोंको दान, दूसरेके दुःखमें दुखी, सरसकाव्यको हो सर्वस्व मानने वाले पुरुषोंको धारण करनेसे ही पृथ्वी कृतार्थ होती है। हाथमें अनुष, साधुचरिस, महापुरुषों के चरणोंमें प्रणाम, मुख में सच्ची वाणी, हृदयमें स्वच्छप्रवृत्ति, कानोंसे सुने हुए धृतका ग्रहण एवं भुजलताओंमें विक्रम, वीर पुरुषका सहज परिकर होता है।
इस कथनसे स्पष्ट है कि कविके व्यक्तित्वमें उदारता थो, वह दरिद्रोंको दान देता था और दूसरोंके दुःखमें पूर्ण सहानुभूतिका व्यवहार करता था। कवि बीरताको भी जीवन के लिए आवश्यक मानता है। यही कारण है कि उसने युद्धोंका ऐसा सजीव चित्रण किया है जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वह युद्धभूमिमें सम्मिलित हुआ होगा ।
कवियोंके चरणों में नतमस्तक होना भी उसका कवित्वके प्रति सद्भाव व्यक्त करता है । सत्यवचन, पवित्र हृदय, अनवरत स्वाध्याय, भुजपराक्रम और दयाभाव उसके व्यक्तित्वके प्रमुख गुण हैं ।
'जंबुसा मिचरिज'को प्रशस्तिमें कविन इस अन्यका रचनाकाल वि० सं० १०७६ माघ शुक्ला दशमी बताया है। लिखा है
"विक्कमनिवकालानो छाहात्तरदससएसु बरिसाणं ।
माहम्मि सुद्धपक्से दसम्म दिवसम्म संतम्मि !॥ २॥"
प्रस्तुत काव्यके अन्तःसाक्ष्य तथा अन्य बाह्यसाक्ष्योंसे भी प्रशस्तिमें उल्लि खित समय ठीक सिद्ध होता है। कवि वीरने महाकवि स्वयंभ, पुष्पदन्त एवं अपने पिता देवदत्तका उल्लेख किया है । पुष्पदन्तके उल्लेखसे ऐसा ज्ञात होता है कि जब यह महाकवि अपने जीवनका उत्तराईकाल यापन कर रहा था
और जिस समय राष्ट्रकट राजा कष्ण ततीयको मुत्यके पांच ही वर्ष हए थे उस समय धारा नरेश परमारवंशीय राजा सीयक या श्री हर्षने कृष्ण तृतीयके उत्तराधिकारी और अनुज खोट्टिगदेवको आक्रमण करके मार डाला था एवं मान्यखेटपुरीको बुरी तरह लूटा तथा ध्वस्त किया था (वि० सं० १०२९) । इस समय पुष्पदन्तके महापुराणकी रचना पूर्ण हो चुकी थी और अभिमानमेरु महाकवि पुषदन्तको ख्याति मालवा प्रान्त में भी हो चुकी थी। इसी समय वीर कविने अपने बाल्यकालमें ही सरस्वतीके इस वरद पुत्रकी ख्याति सुनी होगीऔर इसकी रचनाओं का अध्ययन किया होगा । यतः जंबुगामिचरिउपर पुष्य दन्तकी रचनाओंका गम्भीर और व्यापक प्रभाव दिखलायी पड़ता है। अत: कविके समयकी पूर्व सीमा वि० सं० १०२५ के लगभग आती है।
इतना ही नहीं जंबुसामिचरिउपर नयनन्दिके सुदसणचरिउ (वि० सं० ११००) का प्रभाव भी दष्टिगोचर होता है। एक बान और विचारणीय यह है कि जंबुसामिचरिउकी पंचम, षष्ठ और सप्तम सन्धियोंमें हंसद्वीपके राजा रत्न शेखर द्वारा केरल के घेर लिये जाने और मगधराज श्रेणिकको सहायतासे राजा रत्नशेखरको परास्त किये जानेके बहानेसे वीर कविने जिस ऐतिहासिक युद्ध घटनाकी ओर संकेत किया है उसमें कविने स्वयं भी एक पक्षकी ओरसे भाग लिया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं | यह घटना परिवर्तितरूपमें मुंजके बारा केरल, चोल तथा दक्षिणके अन्य प्रदेशोंपर वि० सं० १०३०-१०५० के बीच आक्रमण करके उन्हें विजित करनेकी मालूम पड़ती है ।
वीरकविके पश्चात् ब्रह्मजिनदासका संस्कृत 'जम्बुस्वामिचरित मिलता है जिसे उन्होंने वि० सं० १५२० में पूर्ण किया । यह रचना अपभ्रश काव्यका संस्कृत रूपान्तर है। महाकवि 'रइष ने भी 'अंबुसामिचरिउका निर्देश किया है। हरिषेणको 'धम्मपरिक्खा' वि० सं० १.४४ में लिखी गई है । अतः हरिषेण और पुष्पदन्त इन दोनोंके साथ कविका सम्बन्ध रहा प्रतीत होता है। जैन ग्रन्थावली में 'जंबुचरिउ'का उल्लेख आया है । इस ग्रन्थको रचना भी अपभ्रंशमें वि० सं० १०७६ में हुई है । जंबुचरिजके रचयिता सागरदत्त है, जो 'जंबुसामि चरित' के समान हो विषयवस्तुका वर्णन करते हैं। अतएव प्रशस्तिमें निर्दिष्ट जंबुसाभिचरिउका रचनाकाल यथार्थ है।
महाकवि वीरकी एक ही रचना जंबुसामिचरिउ उपलब्ध है। यह अपभ्रश का महाकाव्य है और यह रचना ११ सन्धियोंमें पूर्ण हुई है ।
मंगलाचरणके अनन्सर कवि सज्जन-दुर्जन स्मरण करता है। पूर्ववर्ती कवियों के स्मरणके अनन्तर कवि अपनी अल्पमता प्रदर्शित करता है। मगधदेश और राजगहका सुन्दर काव्यशैली में वर्णन किया गया है। तीर्थकर महावीरका विपुलाचलपर समवशरण पहुँचता है। और श्रेणिक प्रश्न करते हैं और गौतम गणघर उन प्रश्नोंका उत्तर देते हैं।
मगध-मण्डल में वर्षमान नामक ग्राममें सोमशर्मनामक गुणवान ब्राह्मण रहता था और जिसकी पत्नी सोमशर्मा नामक थी। उनके भवदत्त और भवदेव नामक दो पुत्र थे। जब वे क्रमशः १८ और १२ वर्षके थे तब उनके पिताका स्वर्गवास हो गया और उनकी माता भी सती हो गई | माता-पिताके स्वर्गवास के अनन्तर भाई भवदत्त न्यायपूर्वक गृहस्थधर्मका पालन करने लगा। कुछ समय पश्चात् सुधर्म मुनिका उपदेश सुनकर भवदत्तको वैराग्य हो गया और छोटे भाई भमयः। गृहस्थी मार सकार पर संघ का हो गया। बारह वर्ष पश्चात् मुनि संघ विहार करता हुआ पुनः जसो गाँवमं आया । छोटे भाई भवदेवको भी दीक्षित करनेकी इच्छासे गुरुको अनुज्ञा लेकर भवदत्त मुनि भवदेवके घर आया। बड़े भाईका आगमन सुनकर वह बाहर आया उस समय भवदेवक विवाहको तैयारियां हो रही थीं । अतएवं बह नववधूको अर्द्ध मंडित ही छोड़कर भवदत्त के पास आया । भवदेवके आग्रहसे वहीं आहार लेकर जहाँ संघ ठहरा हुआ था वहाँ भवदत्त मुनि लौट आया । भवदेव भी भाईके साथ श्रद्धा और संकोचवश मुनि संघमें चला पाया । यहाँ मुभिजनों की प्रेरणा तथा भाईकी अन्तरंग इच्छाके सम्मानार्थ बेमनसे भवदेवने मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली । सदनन्तर संघ वहाँस विहार कर गया। भवदेव दिनरात नागवसुके ध्यान में लीन रहता हआ घर लौटकर पुनः उसके साथ काम भोग भोगनेके अवसरकी प्रतीक्षामें समय व्यतीत करने लगा। १२ वर्ष पश्चात् मुनि सघ पुन: उसी वधमान गाँव के निकट आकर ठहरा । भवदेव इससे बहुत उल्हसित हुबा और बहाना करके अपने घरकी ओर चल पड़ा ।
गांवके बाहर ही एक जिन चैत्यालयमें उसकी नागवसुसे भेंट हो गई । वत्तोंके पालनेसे अति कृशगात्र अस्थिपंजर मात्र शेष रहनेसे भबदेव उसे पह चान नहीं सका । अपने कुल और पत्नीके सम्बन्धमें पूछने पर नागवसुने उसे पहचान लिया । नागवसुने उसे अपना परिचय दिया और तपः शुष्क शरीर दिखलाकर नाना प्रकारसे धर्मोपदेश दे भवदेवको प्रतिबद्ध किया । इस प्रकार बोध प्राप्त कर शवदेवने आचार्यके पास जाकर प्रायश्चित्त लिया और पुनः दीक्षा ग्रहण कर कठोर तपश्चरण किया । और मृत्यु के अनन्तर तृतीय स्वर्ग प्राप्त किया।
स्वर्गसे च्युत हो भवदत्त पूर्व विदेहमें राजा वज्रदन्त और उसकी रानी यशोधनाके मर्भसे सागरचन्द्र नामक पुत्र हुआ। और भवदेवका जीव वहाँके राजा महापद्म और वनमाला नामक पटरानीका शिवकुमार नामक पुत्र हुआ। कालान्तरमें सागरचन्द्र दीक्षित हो गया। उसने भवदेवके जीव युवराज शिव कुमारको प्रतियोधित करनेका प्रयास किया; पर माता-पिताको अनुज्ञा न मिलने से वह घर में ही धर्म-साधन करने लगा। इस तपके प्रभाबसे भवदेवने पुनः स्वर्गमें जन्म ग्रहण किया और भवदत्तके जीव सागरचन्द्रने आयुष्य पूर्ण कर स्वर्ग में जन्म प्राप्त किया ।
चौथो सन्धिसे जम्बूस्वामीको कथा आरंभ होती है। इनके पिताका नाम अहंदास था | सन्धि जन्म, वसन्तोत्सव, जलक्रीड़ा आदिका वर्णन आया है। अनन्तर उनके द्वारा मत्त गजको परास्त करनेका कथन आया है।
पांचवीसे सातवीं सन्धितक जम्बूस्वामीके अनेक दीरतापूर्ण कार्योका वर्णन किया है। महषि सुधास्वामी अपने पांच शिष्योंके साथ उपवन में आते हैं। जम्बुस्वामी उनके दर्शन कर नमस्कार करते हैं। वे अपने पूर्वभवोंका वृत्तान्त जान कर विरक्त हो घर छोड़ना चाहते हैं। माता समझाती है। सामरदत्त श्रेष्ठिका भेजा हुआ मनुष्य आकर जम्बूका विवाह निश्चित करता है। श्रेष्ठियोंकी कमलश्री, कनकनी, विनयात्री और रूपश्री नामक चार कन्याओंसे जम्बू का विवाह होसा है।
जम्बुके हृदय में पुनः वैराग्य जाग्रत होता है। उनकी पलियाँ वैराग्य विरोधो-कथाएँ कहती हैं। जम्बू महिलाओं को निन्दा करता हुआ वैराग्य निरू पक कथानक कहता है । इस प्रकार मदरात्रि व्यतीत हो जाती है। इतने में ही विधुन्चर चोर, चोरी करता हुआ वहां आता है । जम्बूस्वामीको माता भी जागती थी। उसने कहा-चोर, जो चाहता है, ले ले' | चोरको जम्बूको मातासे जम्बके वैराग्य-भावकी सूचना मिलती है । विद्युचरने प्रतिज्ञा की कि वह या तो जम्बूको रागी बना देगा, अन्यथा स्वयं वह वैरागी बन जायगा । जम्बको माता उस चोरको उस समय अपना छोटा भाई कहकर जम्बूके पास ले जाती जाती है, ताकि विधुच्चर अपने कार्य में सफल हो।
दशवीं सन्धिमें जम्बू और विद्युच्चर एक दुसरेको प्रभावित करने के लिए अनेक आख्यान सुनाते हैं। जम्बू वेराम्यप्रधान एवं विषय-भोगकी निस्मारता प्रतिपादक आख्यान कहते हैं और विद्युच्चर इसके विपरीत बैराग्यको निस्सा रता दिखलानेवाले विषयभोग-प्रतिपादक आख्यान | जम्बूस्वामोको अन्तमें विजय होती है। वे सुधर्मास्वामीसे दीक्षा लेते हैं और उनका सभी पत्नियाँ भी आयिका हो जाती हैं। जम्बूस्वामी केवलज्ञान प्राप्तकर अन्त में निर्वाण पद लाभ करते हैं।
विद्युच्चर भी दशविध धर्मका पालन करता हुआ तपस्या हारा सर्वार्थसिद्धि लाभ करता है | जम्बूरिउके पढ़नेसे मंगल-लाभका संकेत करते हुए कृत्ति समाप्त होती है।
इस ग्रन्थमें जम्बूस्वामीके पूर्वजन्मोंका भी वर्णन आया है। पूर्वजन्मोंमें वह शिवकुमार और भवदेव था और उसका बड़ा भाई सागरचन्द और भवदत्त । भवदेनके जीवन में स्वाभाविकता है। भवदत्तके कारण ही भवदेवके जीवन में उतार-चढ़ाव और अन्तर्द्वन्द्व उपस्थित होते हैं । जम्बूस्वामीकी पलियों के पूर्व जन्म-प्रसंग कथा-प्रवाहमें योग नहीं देते । अतः वे अनावश्यक जैसे प्रतीत होते हैं।
जम्बूस्वामोके चरित्रको कवि जिस दिशाकी ओर मोड़ना चाहता है उसी ओर वह मड़ता गया। कविने नायकके जीवनमें किसी भी प्रकारकी अस्वा भाविकता चित्रित नहीं की है । राग और वैराग्यके मध्य जम्बूस्वामीका जीवन विकसित होता है।
'जम्बूसामिचरिङ' में शास्त्रीय महाकाव्य के सभी लक्षण घटित होते हैं। सुगठित इतिवृत्त के साथ देश, नगर, ग्राम, शेल, अटवी, उपवन, उद्यान, सरिता, ऋतु, सूर्योदय, चन्द्रोदय आदिका सुन्दर चित्रण आया है। रसभाव-योजनाकी दुष्टिसे यह एक प्रेमाख्यानक महाकाव्य है । इस महाकाव्यका आरंभ भस्वघोष कृत 'सौन्दरनन्द' मान सम्मान बड़े भाई हम छोटे भाई भयरवके अनिच्छापूर्वक दीक्षित कर लिये जानेसे प्रियावियोगजन्य विप्रलम्भ शृंगारसे होता है | भवदेव के प्रेमकी प्रकर्षता और महत्सा इसमें है कि वह जनसंघक कठोर अनुशासन में दिगम्बर मुनिके वेशमें बड़े भाईको देखरेख में रहते हुए भी तथा जैन मुनिके अतिकठोर आचारका पालन करते हुए भी १२ वर्षाका दीर्घ काल अपनी पत्नी नागवसुके रूप-चिन्तनमें व्यतीत कर देता है । और अपनी प्रियाका निशिदिन ध्यान करता रहता है। १२ वर्ष पश्चात् वह अपने गांव लौटता है और प्रिया द्वारा ही उद्बोधन प्राप्त करता है। इस प्रकार काब्यकी कथावस्तु विप्रलंभ शृंगारसे आरंभ होकर शान्त रसमें समाविष्ट होती है । वीर (४।२१), गेन्द्र (५॥३,५।१३), भयानक (१०।२), बीभत्स (१०२६), करुण (२२५,१।१७), अद्भुत (२३, ५।२) एवं वात्सल्य (७१३, ६१७) में रसका परिणाम आया है।
अलंकारोंमें उपारा १६, मालोपमा ५८, मालोत्प्रेक्षा ८।१०, फलोत्प्रेक्षा ४१४, रूपकमाला ३२७, मिदर्शना १३, दृष्टान्त ११२, बक्रोत्ति ४१८, विभावना ४१८, विरोधाभास २।१२, व्यतिरेक ४|१७, सन्देह ४।१९९, भ्रान्तिमान् ५।२, और अतिशयोक्ति १।१७ अलंकार पाये जाते हैं।
छन्दोंमें करिमकरभुजा (७।१०), दीपक (४।२२), पारणक (१२२), पडिया (१८), अलिल्लह (श६), सिंहावलोक (६६), त्रोटनक (४७), पादाकुलक (११), उबंशी (३), सारीय (५।१४), स्रग्विणी (२९, ४१६), मदनावतार (१९१०), त्रिपदी शंखनारी (४५), सामानिका (२।१७), भुजंगप्रयात (४२१), दिनमणि (७५), गाथा (९२१), उद्गाथा (१), दोहा (१४), रत्नमालिका (२०१५) मणिशेखर (५1८) मालागाहो (४), दण्डक (४८) का प्रयोग कविने किया है । इस प्रकार महाकाव्यके सभी तत्त्व जंबुसामिचरिउमें पाये जाते हैं।
#VeerKavi
आचार्यतुल्य वीर कवि 11वीं शताब्दी (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 14 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 14 April 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
महाकवि वीरने 'जंबुसामिचरिउ"मैं अपना परिचय दिया है । उनका जन्म मालवा देशके गुस्खखेड नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता 'लाङजागउ' गोत्रके महाकवि देवदत्त थे । देवदत्तने १. बरांगचरित २. शान्तिनाथराय ३. सद्धयवीर कथा और ४. अम्बादेवीरासकी रचना की थी। महाकवि वीरने अपने पिताको स्वयं तथा पुष्पदन्तके पश्चात् तीसरा स्थान दिया है। कविने लिखा है कि स्वयंभूके होने से अपन शका प्रथम कवि, पुष्पदन्तके होनेसे अपनीशका द्वितीय कवि और देवदतके होनेसे अपनाके तृतीय कविकी ख्याति हुई है। वीर कविने अपने समय तक सीन ही कवि अपन शके माने हैं। स्वयंभु, पुष्पदन्त और देवदत्त । इससे यह ध्वनिस होता है कि कवि वीरके पिता देवदत्त भी अपभ्रशके यातिनामा कवि थे ।
कविकी मौका नाम श्री सनुबा था और इनके सीहल्ल, लक्षणांक तथा जसई ये तीन भाई थे। कविकी चार पलियाँ थीं-१. जिनमति २. पावती ३. लीलावती ४. जयादेवी । इनकी प्रथम पत्लिसे नेमिचन्द्र नामक पुत्र उत्पन्न हमा था । बीर संस्कृत काव्य रचनामें भी निपुण ये; किन्तु पिताके मित्रोंकी प्रेरणा और आग्रहसे संस्कृत काव्यरचनाको छोड़कर अपभ्रंशप्रबन्धशेलोमें जंबुसामिचरिउ की रचना की है।
कविका लाडवागज वंश इतिहास प्रसिद्ध बहुत पुराना है। इस वंशका प्रारंभ, पुनाट संघसे हुआ है। इस संघके आचार्य पुनाट-कर्नाटक प्रदेश में विहार करते थे। इसलिए इसका नाम पुनाट पड़ा । तदनन्तर इसका प्रमुख कार्यक्षेत्र लाउबागड-गुजरात और सागवाड़ाके आसपासका प्रदेश हुआ। इसीलिए इसका नाम लाइवागडगच्छ पड़ा। पुम्नाट संघके प्राचीनतम ज्ञात आचार्य जिनसेन प्रथम हैं जिन्होंने शक संवत् : ०५ (वि० सं०८४०) में वर्धमानपुरके पार्श्वनाथ तथा दोस्तटिकाके शान्तिनाथ जिनालयमें रहकर हरिबंशपुराणकी रचना की है
धर्मरत्नाकर नामक ग्रंथके रचयिता आचार्य जयसेन लाहबागड संघक प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने वि० सं० १०५५ में कर्नाटक-कराड (बम्बई) में निवास कर उक्त प्रथको रचनाको पूर्ण किया था । इसी गणमें प्रहाम्नरिन रचयिता महासेन, हरिषेण, विजयकीर्ति आदि अनेक आचार्य हुए हैं।
महाकवि वीर काव्य, व्याकरण, तर्क, कोष, छन्दशास्त्र, द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग आदि विषयोंके ज्ञाता थे। 'जंबुसामिचरिउ'मैं' समाविष्ट पौराणिक घटनाओंके अध्ययनसे अवगत होता है कि महाकवि घोरके बल जैन पौराणिक परम्पराके हो साता नहीं थे अपितु बाल्मीकिरामायण, महाभारत, शिवपुराण, विष्णुपुराण, भरतनाट्यशास्त्र, सेतुबन्धकाव्य आदि ग्रंथोंके भी पंडित थे। इनके व्यक्तित्वमें नम्रता और राजनीति-दक्षताका विशेष रूपसे समावेश हुआ है। कविको अपने पूर्वजोंपर गर्व है। वह महाकाव्य रचयिताके रूप में अपने पिताका आदरपूर्वक उल्लेख करता है ।
संस्कृत भाषाका प्रौढ़ कवि और काव्य अध्येता होने के कारण धीर कविकी रचनामें पर्याप्त प्रौढ़ता दृष्टिगोचर होती है । वोरके 'जंबुसामिचरिउसे यह भी स्पष्ट है कि वह धर्मका परम श्रद्धालु, भक्तवती और कर्मसंस्कारोंपर आस्था रखनेवाला था। उसकी प्रकृति अत्यन्त उदार और मिलनसार थो। यही कारण है कि उसने मित्रों को प्रेरणाको स्वीकारकर अपन शमें काट्यकी रचना की।
वीर कविको समाजफे विभिन्न वर्गों एवं जीवन यापनके विविध साधनोंका साक्षात् अनुभव था। वह श्रद्धावान् सद् गृहस्थ था। उसने मेघवनपत्तनमें तीर्थंकर महावीरकी प्रतिमा स्थापित करवाई थी।
कविके व्यक्तित्वको हम उनके निम्न कथनसे परख सकते हैं
देत दरिछं परदसणदुम्मणं सरसकन्चसम्बस्स।
कइवीरसरिसपुरिसं घरणिधरती कयत्यासि |
हत्थे चाओ चरणपणमणं साहसीताण सोसे ।
सच्चावाणी वयणकमलए वच्छे सच्चापविती ।।
दरिद्रोंको दान, दूसरेके दुःखमें दुखी, सरसकाव्यको हो सर्वस्व मानने वाले पुरुषोंको धारण करनेसे ही पृथ्वी कृतार्थ होती है। हाथमें अनुष, साधुचरिस, महापुरुषों के चरणोंमें प्रणाम, मुख में सच्ची वाणी, हृदयमें स्वच्छप्रवृत्ति, कानोंसे सुने हुए धृतका ग्रहण एवं भुजलताओंमें विक्रम, वीर पुरुषका सहज परिकर होता है।
इस कथनसे स्पष्ट है कि कविके व्यक्तित्वमें उदारता थो, वह दरिद्रोंको दान देता था और दूसरोंके दुःखमें पूर्ण सहानुभूतिका व्यवहार करता था। कवि बीरताको भी जीवन के लिए आवश्यक मानता है। यही कारण है कि उसने युद्धोंका ऐसा सजीव चित्रण किया है जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वह युद्धभूमिमें सम्मिलित हुआ होगा ।
कवियोंके चरणों में नतमस्तक होना भी उसका कवित्वके प्रति सद्भाव व्यक्त करता है । सत्यवचन, पवित्र हृदय, अनवरत स्वाध्याय, भुजपराक्रम और दयाभाव उसके व्यक्तित्वके प्रमुख गुण हैं ।
'जंबुसा मिचरिज'को प्रशस्तिमें कविन इस अन्यका रचनाकाल वि० सं० १०७६ माघ शुक्ला दशमी बताया है। लिखा है
"विक्कमनिवकालानो छाहात्तरदससएसु बरिसाणं ।
माहम्मि सुद्धपक्से दसम्म दिवसम्म संतम्मि !॥ २॥"
प्रस्तुत काव्यके अन्तःसाक्ष्य तथा अन्य बाह्यसाक्ष्योंसे भी प्रशस्तिमें उल्लि खित समय ठीक सिद्ध होता है। कवि वीरने महाकवि स्वयंभ, पुष्पदन्त एवं अपने पिता देवदत्तका उल्लेख किया है । पुष्पदन्तके उल्लेखसे ऐसा ज्ञात होता है कि जब यह महाकवि अपने जीवनका उत्तराईकाल यापन कर रहा था
और जिस समय राष्ट्रकट राजा कष्ण ततीयको मुत्यके पांच ही वर्ष हए थे उस समय धारा नरेश परमारवंशीय राजा सीयक या श्री हर्षने कृष्ण तृतीयके उत्तराधिकारी और अनुज खोट्टिगदेवको आक्रमण करके मार डाला था एवं मान्यखेटपुरीको बुरी तरह लूटा तथा ध्वस्त किया था (वि० सं० १०२९) । इस समय पुष्पदन्तके महापुराणकी रचना पूर्ण हो चुकी थी और अभिमानमेरु महाकवि पुषदन्तको ख्याति मालवा प्रान्त में भी हो चुकी थी। इसी समय वीर कविने अपने बाल्यकालमें ही सरस्वतीके इस वरद पुत्रकी ख्याति सुनी होगीऔर इसकी रचनाओं का अध्ययन किया होगा । यतः जंबुगामिचरिउपर पुष्य दन्तकी रचनाओंका गम्भीर और व्यापक प्रभाव दिखलायी पड़ता है। अत: कविके समयकी पूर्व सीमा वि० सं० १०२५ के लगभग आती है।
इतना ही नहीं जंबुसामिचरिउपर नयनन्दिके सुदसणचरिउ (वि० सं० ११००) का प्रभाव भी दष्टिगोचर होता है। एक बान और विचारणीय यह है कि जंबुसामिचरिउकी पंचम, षष्ठ और सप्तम सन्धियोंमें हंसद्वीपके राजा रत्न शेखर द्वारा केरल के घेर लिये जाने और मगधराज श्रेणिकको सहायतासे राजा रत्नशेखरको परास्त किये जानेके बहानेसे वीर कविने जिस ऐतिहासिक युद्ध घटनाकी ओर संकेत किया है उसमें कविने स्वयं भी एक पक्षकी ओरसे भाग लिया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं | यह घटना परिवर्तितरूपमें मुंजके बारा केरल, चोल तथा दक्षिणके अन्य प्रदेशोंपर वि० सं० १०३०-१०५० के बीच आक्रमण करके उन्हें विजित करनेकी मालूम पड़ती है ।
वीरकविके पश्चात् ब्रह्मजिनदासका संस्कृत 'जम्बुस्वामिचरित मिलता है जिसे उन्होंने वि० सं० १५२० में पूर्ण किया । यह रचना अपभ्रश काव्यका संस्कृत रूपान्तर है। महाकवि 'रइष ने भी 'अंबुसामिचरिउका निर्देश किया है। हरिषेणको 'धम्मपरिक्खा' वि० सं० १.४४ में लिखी गई है । अतः हरिषेण और पुष्पदन्त इन दोनोंके साथ कविका सम्बन्ध रहा प्रतीत होता है। जैन ग्रन्थावली में 'जंबुचरिउ'का उल्लेख आया है । इस ग्रन्थको रचना भी अपभ्रंशमें वि० सं० १०७६ में हुई है । जंबुचरिजके रचयिता सागरदत्त है, जो 'जंबुसामि चरित' के समान हो विषयवस्तुका वर्णन करते हैं। अतएव प्रशस्तिमें निर्दिष्ट जंबुसाभिचरिउका रचनाकाल यथार्थ है।
महाकवि वीरकी एक ही रचना जंबुसामिचरिउ उपलब्ध है। यह अपभ्रश का महाकाव्य है और यह रचना ११ सन्धियोंमें पूर्ण हुई है ।
मंगलाचरणके अनन्सर कवि सज्जन-दुर्जन स्मरण करता है। पूर्ववर्ती कवियों के स्मरणके अनन्तर कवि अपनी अल्पमता प्रदर्शित करता है। मगधदेश और राजगहका सुन्दर काव्यशैली में वर्णन किया गया है। तीर्थकर महावीरका विपुलाचलपर समवशरण पहुँचता है। और श्रेणिक प्रश्न करते हैं और गौतम गणघर उन प्रश्नोंका उत्तर देते हैं।
मगध-मण्डल में वर्षमान नामक ग्राममें सोमशर्मनामक गुणवान ब्राह्मण रहता था और जिसकी पत्नी सोमशर्मा नामक थी। उनके भवदत्त और भवदेव नामक दो पुत्र थे। जब वे क्रमशः १८ और १२ वर्षके थे तब उनके पिताका स्वर्गवास हो गया और उनकी माता भी सती हो गई | माता-पिताके स्वर्गवास के अनन्तर भाई भवदत्त न्यायपूर्वक गृहस्थधर्मका पालन करने लगा। कुछ समय पश्चात् सुधर्म मुनिका उपदेश सुनकर भवदत्तको वैराग्य हो गया और छोटे भाई भमयः। गृहस्थी मार सकार पर संघ का हो गया। बारह वर्ष पश्चात् मुनि संघ विहार करता हुआ पुनः जसो गाँवमं आया । छोटे भाई भवदेवको भी दीक्षित करनेकी इच्छासे गुरुको अनुज्ञा लेकर भवदत्त मुनि भवदेवके घर आया। बड़े भाईका आगमन सुनकर वह बाहर आया उस समय भवदेवक विवाहको तैयारियां हो रही थीं । अतएवं बह नववधूको अर्द्ध मंडित ही छोड़कर भवदत्त के पास आया । भवदेवके आग्रहसे वहीं आहार लेकर जहाँ संघ ठहरा हुआ था वहाँ भवदत्त मुनि लौट आया । भवदेव भी भाईके साथ श्रद्धा और संकोचवश मुनि संघमें चला पाया । यहाँ मुभिजनों की प्रेरणा तथा भाईकी अन्तरंग इच्छाके सम्मानार्थ बेमनसे भवदेवने मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली । सदनन्तर संघ वहाँस विहार कर गया। भवदेव दिनरात नागवसुके ध्यान में लीन रहता हआ घर लौटकर पुनः उसके साथ काम भोग भोगनेके अवसरकी प्रतीक्षामें समय व्यतीत करने लगा। १२ वर्ष पश्चात् मुनि सघ पुन: उसी वधमान गाँव के निकट आकर ठहरा । भवदेव इससे बहुत उल्हसित हुबा और बहाना करके अपने घरकी ओर चल पड़ा ।
गांवके बाहर ही एक जिन चैत्यालयमें उसकी नागवसुसे भेंट हो गई । वत्तोंके पालनेसे अति कृशगात्र अस्थिपंजर मात्र शेष रहनेसे भबदेव उसे पह चान नहीं सका । अपने कुल और पत्नीके सम्बन्धमें पूछने पर नागवसुने उसे पहचान लिया । नागवसुने उसे अपना परिचय दिया और तपः शुष्क शरीर दिखलाकर नाना प्रकारसे धर्मोपदेश दे भवदेवको प्रतिबद्ध किया । इस प्रकार बोध प्राप्त कर शवदेवने आचार्यके पास जाकर प्रायश्चित्त लिया और पुनः दीक्षा ग्रहण कर कठोर तपश्चरण किया । और मृत्यु के अनन्तर तृतीय स्वर्ग प्राप्त किया।
स्वर्गसे च्युत हो भवदत्त पूर्व विदेहमें राजा वज्रदन्त और उसकी रानी यशोधनाके मर्भसे सागरचन्द्र नामक पुत्र हुआ। और भवदेवका जीव वहाँके राजा महापद्म और वनमाला नामक पटरानीका शिवकुमार नामक पुत्र हुआ। कालान्तरमें सागरचन्द्र दीक्षित हो गया। उसने भवदेवके जीव युवराज शिव कुमारको प्रतियोधित करनेका प्रयास किया; पर माता-पिताको अनुज्ञा न मिलने से वह घर में ही धर्म-साधन करने लगा। इस तपके प्रभाबसे भवदेवने पुनः स्वर्गमें जन्म ग्रहण किया और भवदत्तके जीव सागरचन्द्रने आयुष्य पूर्ण कर स्वर्ग में जन्म प्राप्त किया ।
चौथो सन्धिसे जम्बूस्वामीको कथा आरंभ होती है। इनके पिताका नाम अहंदास था | सन्धि जन्म, वसन्तोत्सव, जलक्रीड़ा आदिका वर्णन आया है। अनन्तर उनके द्वारा मत्त गजको परास्त करनेका कथन आया है।
पांचवीसे सातवीं सन्धितक जम्बूस्वामीके अनेक दीरतापूर्ण कार्योका वर्णन किया है। महषि सुधास्वामी अपने पांच शिष्योंके साथ उपवन में आते हैं। जम्बुस्वामी उनके दर्शन कर नमस्कार करते हैं। वे अपने पूर्वभवोंका वृत्तान्त जान कर विरक्त हो घर छोड़ना चाहते हैं। माता समझाती है। सामरदत्त श्रेष्ठिका भेजा हुआ मनुष्य आकर जम्बूका विवाह निश्चित करता है। श्रेष्ठियोंकी कमलश्री, कनकनी, विनयात्री और रूपश्री नामक चार कन्याओंसे जम्बू का विवाह होसा है।
जम्बुके हृदय में पुनः वैराग्य जाग्रत होता है। उनकी पलियाँ वैराग्य विरोधो-कथाएँ कहती हैं। जम्बू महिलाओं को निन्दा करता हुआ वैराग्य निरू पक कथानक कहता है । इस प्रकार मदरात्रि व्यतीत हो जाती है। इतने में ही विधुन्चर चोर, चोरी करता हुआ वहां आता है । जम्बूस्वामीको माता भी जागती थी। उसने कहा-चोर, जो चाहता है, ले ले' | चोरको जम्बूको मातासे जम्बके वैराग्य-भावकी सूचना मिलती है । विद्युचरने प्रतिज्ञा की कि वह या तो जम्बूको रागी बना देगा, अन्यथा स्वयं वह वैरागी बन जायगा । जम्बको माता उस चोरको उस समय अपना छोटा भाई कहकर जम्बूके पास ले जाती जाती है, ताकि विधुच्चर अपने कार्य में सफल हो।
दशवीं सन्धिमें जम्बू और विद्युच्चर एक दुसरेको प्रभावित करने के लिए अनेक आख्यान सुनाते हैं। जम्बू वेराम्यप्रधान एवं विषय-भोगकी निस्मारता प्रतिपादक आख्यान कहते हैं और विद्युच्चर इसके विपरीत बैराग्यको निस्सा रता दिखलानेवाले विषयभोग-प्रतिपादक आख्यान | जम्बूस्वामोको अन्तमें विजय होती है। वे सुधर्मास्वामीसे दीक्षा लेते हैं और उनका सभी पत्नियाँ भी आयिका हो जाती हैं। जम्बूस्वामी केवलज्ञान प्राप्तकर अन्त में निर्वाण पद लाभ करते हैं।
विद्युच्चर भी दशविध धर्मका पालन करता हुआ तपस्या हारा सर्वार्थसिद्धि लाभ करता है | जम्बूरिउके पढ़नेसे मंगल-लाभका संकेत करते हुए कृत्ति समाप्त होती है।
इस ग्रन्थमें जम्बूस्वामीके पूर्वजन्मोंका भी वर्णन आया है। पूर्वजन्मोंमें वह शिवकुमार और भवदेव था और उसका बड़ा भाई सागरचन्द और भवदत्त । भवदेनके जीवन में स्वाभाविकता है। भवदत्तके कारण ही भवदेवके जीवन में उतार-चढ़ाव और अन्तर्द्वन्द्व उपस्थित होते हैं । जम्बूस्वामीकी पलियों के पूर्व जन्म-प्रसंग कथा-प्रवाहमें योग नहीं देते । अतः वे अनावश्यक जैसे प्रतीत होते हैं।
जम्बूस्वामोके चरित्रको कवि जिस दिशाकी ओर मोड़ना चाहता है उसी ओर वह मड़ता गया। कविने नायकके जीवनमें किसी भी प्रकारकी अस्वा भाविकता चित्रित नहीं की है । राग और वैराग्यके मध्य जम्बूस्वामीका जीवन विकसित होता है।
'जम्बूसामिचरिङ' में शास्त्रीय महाकाव्य के सभी लक्षण घटित होते हैं। सुगठित इतिवृत्त के साथ देश, नगर, ग्राम, शेल, अटवी, उपवन, उद्यान, सरिता, ऋतु, सूर्योदय, चन्द्रोदय आदिका सुन्दर चित्रण आया है। रसभाव-योजनाकी दुष्टिसे यह एक प्रेमाख्यानक महाकाव्य है । इस महाकाव्यका आरंभ भस्वघोष कृत 'सौन्दरनन्द' मान सम्मान बड़े भाई हम छोटे भाई भयरवके अनिच्छापूर्वक दीक्षित कर लिये जानेसे प्रियावियोगजन्य विप्रलम्भ शृंगारसे होता है | भवदेव के प्रेमकी प्रकर्षता और महत्सा इसमें है कि वह जनसंघक कठोर अनुशासन में दिगम्बर मुनिके वेशमें बड़े भाईको देखरेख में रहते हुए भी तथा जैन मुनिके अतिकठोर आचारका पालन करते हुए भी १२ वर्षाका दीर्घ काल अपनी पत्नी नागवसुके रूप-चिन्तनमें व्यतीत कर देता है । और अपनी प्रियाका निशिदिन ध्यान करता रहता है। १२ वर्ष पश्चात् वह अपने गांव लौटता है और प्रिया द्वारा ही उद्बोधन प्राप्त करता है। इस प्रकार काब्यकी कथावस्तु विप्रलंभ शृंगारसे आरंभ होकर शान्त रसमें समाविष्ट होती है । वीर (४।२१), गेन्द्र (५॥३,५।१३), भयानक (१०।२), बीभत्स (१०२६), करुण (२२५,१।१७), अद्भुत (२३, ५।२) एवं वात्सल्य (७१३, ६१७) में रसका परिणाम आया है।
अलंकारोंमें उपारा १६, मालोपमा ५८, मालोत्प्रेक्षा ८।१०, फलोत्प्रेक्षा ४१४, रूपकमाला ३२७, मिदर्शना १३, दृष्टान्त ११२, बक्रोत्ति ४१८, विभावना ४१८, विरोधाभास २।१२, व्यतिरेक ४|१७, सन्देह ४।१९९, भ्रान्तिमान् ५।२, और अतिशयोक्ति १।१७ अलंकार पाये जाते हैं।
छन्दोंमें करिमकरभुजा (७।१०), दीपक (४।२२), पारणक (१२२), पडिया (१८), अलिल्लह (श६), सिंहावलोक (६६), त्रोटनक (४७), पादाकुलक (११), उबंशी (३), सारीय (५।१४), स्रग्विणी (२९, ४१६), मदनावतार (१९१०), त्रिपदी शंखनारी (४५), सामानिका (२।१७), भुजंगप्रयात (४२१), दिनमणि (७५), गाथा (९२१), उद्गाथा (१), दोहा (१४), रत्नमालिका (२०१५) मणिशेखर (५1८) मालागाहो (४), दण्डक (४८) का प्रयोग कविने किया है । इस प्रकार महाकाव्यके सभी तत्त्व जंबुसामिचरिउमें पाये जाते हैं।
Acharyatulya Veer Kavi 11th Century (Prachin)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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