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#Vijayvarni
विजयवर्णीने 'शृंगारार्णवचन्द्रिका' नामक ग्रंथको रचना कर अलंकार शास्त्रके विकासमें योगदान दिया है। इनके व्यक्तिगत जीवनके सम्बन्धमें कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं है। ग्रन्थप्रशस्ति और पुष्पिकासे यह ज्ञात होता है कि वे मुनीन्द्र विजयकीत्तिके शिष्य थे | एक दिन बातचीतके क्रममें वंगवाडीके कामरायने इनसे कविताके विभिन्न पहलुओंको व्याख्या प्रस्तुत करनेका आग्रह किया । राजाको प्रार्थनापर इन्होंने 'अलंकारसंग्रह अपरनाम 'शृंगारार्णव चन्द्रिका'की रचना की।
इस रचनामें बिजयवर्णीने विभिन्न विषयोंपर विचार करते हुए अलंकार, अलंकारोंके लक्षण और उदाहरण लिखे हैं। उदाहरणों में कामरायकी प्रशंसा की गयी है । रचनाको प्रस्तावनामें विजयवर्णीने कर्णाटकके कवियोंकी कविताओंके संदर्भ दिये हैं। इन संदर्भोके अध्ययनसे इस तथ्यपर पहुँचते हैं कि विजयवर्णीने गुणवर्मन आदि कवियोंकी रचनाओंका अध्ययन किया था। वे राजा कामरायके व्यक्तिगत सम्पर्क में थे।
ग्रन्थके आरम्भमें लिखा है
"श्रीमद्विजयकोर्तीन्दोः सूक्तिसंदोहकौमुदी।
मदीचित्तसंतापं हत्वानन्दं दद्यात्परम् ।।१४॥
श्रीमद्विषयकीख्यगुरुराजपदाम्बुजम् ।
मदीयचित्तकासारे स्थेयात् संशुद्धधाजले शि५||
गणवर्मादिकर्नाटकवीनां सूक्तिसंचयः ।
वाणीविलासं देयात्ते रसिकानन्ददायिनम् ॥१७॥
" विजयवर्णीने अपनी प्रशस्तिमें आश्रयदाता कामरायका निर्देश किया है। इन्हें स्याहादधर्म में चित्त लगानेवाला और सर्वजन-उपकारक बताया है।
ई. सन् १९५७में बंगवाडीपर वीर नरसिंह शासन करता था । उसका एक भाई पाण्ड्यराज था । चन्द्रशेखर वोर नरसिंहका पुत्र था और यह १२०८ ई० में सिंहासनासीन हुआ था और उसका छोटा भाई पाण्डयष्प ई० सन् १२२४में राज्यपर अभिषिक्त हुआ था। उनकी बहन बिटुलदेवी ई० सन् १२३२में राज्यप्रतिनिधि नियुक्त की गौं ! बिटुलदेवीका पुत्र ही कामराय था, जो ई० सन् १२६४में राज्यासन हुआ। इतिहास बतलाता है कि सोमवंशी कदम्बोंकी एक शाखा वंगवंशके नामसे प्रसिद्ध थी और इस बंशका शासन दक्षिण कन्नड जिलेके अन्तर्गत बंगवाडीपर विद्यमान था । वीर नरसिंह बंग राजने ई० सन् १९५७से ई० सन् १२०८ तक शासन किया। इसके पश्चात् चन्द्रशेखरवंग और पाण्ड्यवंगने ई० सन् १२३५ तक राज्य किया । पाण्ड्य बंगकी बहन रानी बिटुलदेवी ई० सन् १२३९से ई० सन १२४४ तक राज्या सीन रहीं। तत्पश्चात् रानी बिट्ठलदेवी अथवा बिटुलाम्बाका पुत्र कामराय बैंगनरेन्द्र हमा । 'विजयवर्णी ने उसे गुणार्णव और 'राजेन्द्रपूजिस' लिखा है। प्रशस्तिमें बताया है
"स्याद्वादधर्मपरमामृतदसचित्तः
सर्वोपकारिजिननापपदाअभृङ्गः ।
कादम्बवंशजलराशिसुधामयूखः
श्रीरायवंगनृपतिर्जगतीह जीयात् ।।
कोतिस्ते विमला सदा बरगुणा वाणी जयश्रीपरा
लक्ष्मीः सर्वहिता सुखं सुरसुखं दानं विधानं महत् ।
ज्ञानं पीनमिदं पराक्रमगणस्तुङ्गो नय: कोमलो
रूपं कान्ततरं जयन्तनिभ भी श्रीरायभूमीश्वर।'
कामरायको वर्णीने पाण्ड्यवंगका भागिनेय बताया है
'तस्य श्रीपाण्ड्यवङ्गस्य भागिनेयो गुणार्णवः ।
विट्ठलाम्बामहादेवीपुत्री राजेन्द्रपूजितः ।।
' विजयवर्गीके समयका निश्चय करनेके लिए 'श्रृंगारार्णवचन्द्रिका का प्रताप रुद्रयशोभूषण, शृंगारार्णव और अमृतनन्दिके अलंकारसंग्रहके साथ तुलनात्मक अध्ययन करनेसे ऐसा प्रतीत होता है कि 'श्रृंगारार्णवचन्द्रिका' विषय और प्रति पादनशैलीकी दृष्टिसे 'प्रतापरुद्रयशोभूषण' और 'अलंकारसंग्रह से बहुत प्रभावित है । अथवा यह भी संभव है कि इन दोनों ग्रंथोंको शृंगारार्णवन्द्रि काने प्रभावित किया हो । डॉ. पी. बी. काणेने 'प्रतापरुद्रयशोभूषण'का रचनाकाल १४वीं शती माना है और श्रीबालकृष्णमूत्तिने अमृतानन्दिका १३वीं शती निर्धारित किया है। पर सी० कुन्हनराजा अमृतानन्द योगीका समय १४वीं शसीका प्रथम अद्धाश मानते हैं। इस प्रकार 'शृंगारार्णवचन्द्रिकाका रचनाकाल १३वीं शती माना जा सकता है।
बंगरायकी जेसी प्रशंशा कविने की है उससे भी यही ध्वनित होता है कि विजयवर्णी बंगनरेश कामरायका समकालीन है | कामरायके आश्रयमें रहकर उनकी प्रार्थनासे ही श्रृंगारार्णवचन्द्रिकाका प्रणयन किया गया है ।
विजयवर्गीको शृंगाराणवचन्द्रिका नामक एक ही रचना प्राप्त होती है। विजयवर्गीने पूर्वशास्त्रोंका आश्रय ग्रहण कर हो इस अलंकारग्रन्थको लिखा है। उन्होंने व्याख्यात्मक एवं परिचयात्मक पद्यपंक्तियाँ मौलिकरूपमें लिखी हैं । विषयके अध्ययनसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि कविने परम्परासे प्राप्त अलंकारसम्बन्धी विषयोंको ग्रहण कर इस शास्त्रकी रचना की है। कविकी काव्यप्रतिभा सामान्य प्रतीत होती है। वह स्थान-स्थानपर यतिभंग दोष करता चला गया है । यद्यपि विषयवस्तुकी अपेक्षा यह ग्रंथ साहित्यदर्पणादि ग्रन्थों की अपेक्षा सरल और सरस है तो भी पूर्व कवियोका ऋण इसपर स्पष्टतः झलाता
श्रृंगाराणवचन्द्रिका दश परिच्छेदोंमें विभक्त है--
१. वर्णगणफलनिर्णय,
२. काव्यगतशब्दार्थनिर्णय,
३. रसभावनिर्णय
४. नायकभेदनिर्णय,
५. दसगुणनिर्णय,
६. रीतिनिर्णय,
७. वृत्तिनिर्णय,
८. शय्याभागनिर्णय,
९. अलंकारनिर्णय और
१०. दोषगुणनिर्णय ।
प्रथम परिच्छेदमें मंगलपद्यके पश्चात् कदम्बवंशका सामान्य परिचय दिया गया है और बताया गया है कि कामरायको प्रार्थनासे विजयवर्णीने अलंकार शास्त्रका निरूपण किया। काव्यको परिभाषाके पश्चात् पद्य, गद्य और मिश्र ये तीनों कान्यके भेद बणित हैं। इस अध्यायका नाम वर्णगणफलनिर्णय है। अतः नामानुसार वर्ण और गणका फल बतलाया गया है। किस वर्णसे काव्य आरम्भ होनेपर सुखप्रद होता है और किस वर्णसे काव्य आरम्भ होनेपर दुःखप्रद होता है, इसका कथन आया है। लिखा है
अकारादिक्षकारान्ता वर्णास्तेषु शुभावहाः ।
केचित् केचिदनिटाख्यं वितरन्ति फलं नृणाम् ।।
ददात्यवर्णः संप्रीतिमिवों मुदमुखहेत् ।
कुर्यादुवर्णो द्रविणं ततः स्वरचतुष्टयम् ।।
अपक्ष्यातिफलं दद्यादेचः सुखफलावहाः ।
बिन्दुविसर्गास्तु पादौ संभवन्ति नो।।
कखगधाश्च लक्ष्मी ते वितरन्ति फलोसमाम् ।
दत्ते चकारोऽपख्याति छकारः प्रीतिसौख्यदः ।।
मिश्रलाभं अकारोऽयं विधत्ते भीभूतिद्वयम् ।
सः करोति टठो खेबदुःखे । कुरुतः क्रमात् ॥
सभी वर्ण शुभप्रद है; पर बीच-बीच में कुछ वर्ण अनिष्टफलप्रद भी बसाये गये हैं। अवर्णसे काव्यारम्भ करनेपर प्रोसि यवर्णस काव्य आरम्भ करनेपर बानन्द और जवर्णसे काट्यारम्भ करने पर धनकी प्राप्ति होती है। ऐच, ए, ऐ, ओ, औ वर्णोसे काव्यारम्भ करनेपर सुख फल प्राप्त होता है और अल ऋल वर्षासे काब्यारम्भ करनेपर अपकीति होती है। छ, त्र, “ और ; पदादिमें नहीं रहते हैं। क ख ग घ वर्णोसे काव्यारम्भ करनेपर उत्तम फलकी प्राप्ति होती है। चकारसे काव्दारम्भ करनेपर अपकीति, कारसे काव्यारम्भ करनेपर प्रीति-सौख्य, जकारसे काठ्यारम्भ करनेपर मित्रलाभ, झकारसे काव्यारम्भ करनेपर भय और ट कार-उकारसे काब्यारम्भ करनेपर खेद और दुःख प्राप्त होते हैं। डकारसे काव्यारम्भ करनेपर शोभाकर, ढकारसे काठ्यारम्भ करनेपर अशोभाकर णकारसे काव्यारम्भ करनेपर भ्रमण और तकारसे काव्यारम्भ करनेपर सुख होता है । इस प्रकार वर्ण और गणोंका फल बताया गया है।
द्वितीय परिच्छेदमें काव्यगत शब्दार्थका निश्चय किया है। इसमें ४२ पद्य हैं। मुख्य और गौण अर्थोके प्रतिपादनके पश्चात् शब्दके भेद बतलाये गये हैं ।
तसीय परिच्छेदमें रसभावका निश्चय किया गया है। पारम्भमें ही बताया है कि निर्दोष वर्ण और गणसे युक्त रहनेपर भी निर्मलार्थ तथा शब्दसहित काव्य नीरस होनेपर उसी प्रकार रुचिकर नहीं होता जिस प्रकार बिना लवणका व्यञ्जन । पश्चात विजयवर्णीने स्थायीभावका स्वरूप, मेद एवं रसोंका निरूपण किया है। लिखा है
'निरवचवर्णगणयुतमपि काश्यं निर्मलार्थ शब्दयुतम् ।
निलेवणशामिव तन्न रोचते नीरसं सतां मानसे ॥३शशा'
सात्त्विकभावका विश्लेषण भी उदाहरण सहित किया गया है । रसोंके सोदाहरणस्वरूप निरूपणके पश्चात् रसोंके विरोधी रसोंका भी कथन किया है।
चतुर्थ परिच्छेद नायकमेनिश्चयका है। नायकमें जनानुराग, प्रियंवद,वाग्मित्व, शौच, विनय, स्मृति, कुलीनता, स्थिरता, दृढ़ता, माधुर्य, शौर्य, नवयौवन, उत्साह, दक्षता, बुद्धि, त्याग, तेज, कला, धर्मशास्त्रशता और प्रशा ये नायकके गुण माने गये हैं। नायकके चार भेद हैं-धीरोदात्त, घोरललित, धीरशान्त और धीरोद्धत। क्षमा, सामर्थ्य, गांभीर्य, दया, आत्मश्लाघान्य यादि गुण धीरोदात्त नायकके माने गये हैं। इस प्रकार नायक, प्रतिनायक आदिके स्वरूप, भेद और उदाहरण वर्णित हैं।
पांचवें परिच्छेदमें दस गुणोंका कथन आया है ।
षष्ठ परिच्छेदमें रीतिका स्वरूप और भेद, सप्तममें वृत्तिका भेद और स्वरूप बताया गया है । कैशिको, आर्यभटी, भारत और सास्वती इन बारहतियांका उदाहरणसहित निरूपण आया है। अष्टम परिच्छेदमें शय्यापाक और द्राक्षापाकके लक्षण आये हैं। नवम परिच्छेदमें अलंकारोंका निर्णय किया गया है। उपमाके विपर्यासोपमा, मोहो पमा, संशयोपमा, निर्णयोपमा, श्लेषोपमा, सन्तानोपमा, निन्दोपमा, आचिल्या सोपमा, विरोधोपमा, प्रतिशेधोपमा, चटूपमा, तत्त्वाख्यानोपमा, असाधारणोपमा, अभूतोपमा, असंभाषितोपमा, बहूपमा, विक्रियोपमा, मालोपमा, वाक्यार्थोपमा, प्रतिवस्तूपमा, तुल्ययोगोपमा, हेतुपमा, आदि उपमाके भेदोंका सोदाहरण स्व रूप बतलाया है । रूपक अलंकारके प्रसंगमें समस्तरूपक, व्यस्तरूपक, समस्त. व्यस्तरूपक, सकलापक, अवयवरूपक, अयुक्तरूपक, विषमरूपक, विरुद्धरूपक, हेतुरूपक, उपमारूपक, व्यतिरेकरूपक, क्षेपरूपक, समाधानरूपक, रूपकरूपक, अपहतिरूपक आदि भेदोंका विवेचन किया है। वृत्तिमलंकारके अन्तर्गत उसके भेद-भेद भी वर्णित हैं । दीपक, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, विभावना, आक्षेप, उदात्त, प्रेय, ऊर्जस्व, विशेषोक्ति, तुल्ययोगिता, श्लेष, निदर्शना, व्याअस्तुति, आशीः, अक्सरसार, भ्रान्तिमान, संशय, एकावलो, परिकर, परिसंख्या, प्रश्नोत्तर, संकर, आदि अलंकारोंक मेद-अभेदों सहित लक्षण व उदाहरणोंका विवेचन किया है।
दशम परिच्छेदमें दोष और गुणोंका विवेचन किया है। यह परिच्छेद काव्यके दोष और गुणोंको अवगत करने के लिए विशेष उपयोगी है । इस प्रकार इस ग्रंथमें अलंकारशास्त्रका निरूपण विस्तारपूर्वक किया गया है। आचार्य विजयवर्षीने सरस शैलीमें अलंकार-विषयका समावेश किया है।
विजयवर्णीने 'शृंगारार्णवचन्द्रिका' नामक ग्रंथको रचना कर अलंकार शास्त्रके विकासमें योगदान दिया है। इनके व्यक्तिगत जीवनके सम्बन्धमें कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं है। ग्रन्थप्रशस्ति और पुष्पिकासे यह ज्ञात होता है कि वे मुनीन्द्र विजयकीत्तिके शिष्य थे | एक दिन बातचीतके क्रममें वंगवाडीके कामरायने इनसे कविताके विभिन्न पहलुओंको व्याख्या प्रस्तुत करनेका आग्रह किया । राजाको प्रार्थनापर इन्होंने 'अलंकारसंग्रह अपरनाम 'शृंगारार्णव चन्द्रिका'की रचना की।
इस रचनामें बिजयवर्णीने विभिन्न विषयोंपर विचार करते हुए अलंकार, अलंकारोंके लक्षण और उदाहरण लिखे हैं। उदाहरणों में कामरायकी प्रशंसा की गयी है । रचनाको प्रस्तावनामें विजयवर्णीने कर्णाटकके कवियोंकी कविताओंके संदर्भ दिये हैं। इन संदर्भोके अध्ययनसे इस तथ्यपर पहुँचते हैं कि विजयवर्णीने गुणवर्मन आदि कवियोंकी रचनाओंका अध्ययन किया था। वे राजा कामरायके व्यक्तिगत सम्पर्क में थे।
ग्रन्थके आरम्भमें लिखा है
"श्रीमद्विजयकोर्तीन्दोः सूक्तिसंदोहकौमुदी।
मदीचित्तसंतापं हत्वानन्दं दद्यात्परम् ।।१४॥
श्रीमद्विषयकीख्यगुरुराजपदाम्बुजम् ।
मदीयचित्तकासारे स्थेयात् संशुद्धधाजले शि५||
गणवर्मादिकर्नाटकवीनां सूक्तिसंचयः ।
वाणीविलासं देयात्ते रसिकानन्ददायिनम् ॥१७॥
" विजयवर्णीने अपनी प्रशस्तिमें आश्रयदाता कामरायका निर्देश किया है। इन्हें स्याहादधर्म में चित्त लगानेवाला और सर्वजन-उपकारक बताया है।
ई. सन् १९५७में बंगवाडीपर वीर नरसिंह शासन करता था । उसका एक भाई पाण्ड्यराज था । चन्द्रशेखर वोर नरसिंहका पुत्र था और यह १२०८ ई० में सिंहासनासीन हुआ था और उसका छोटा भाई पाण्डयष्प ई० सन् १२२४में राज्यपर अभिषिक्त हुआ था। उनकी बहन बिटुलदेवी ई० सन् १२३२में राज्यप्रतिनिधि नियुक्त की गौं ! बिटुलदेवीका पुत्र ही कामराय था, जो ई० सन् १२६४में राज्यासन हुआ। इतिहास बतलाता है कि सोमवंशी कदम्बोंकी एक शाखा वंगवंशके नामसे प्रसिद्ध थी और इस बंशका शासन दक्षिण कन्नड जिलेके अन्तर्गत बंगवाडीपर विद्यमान था । वीर नरसिंह बंग राजने ई० सन् १९५७से ई० सन् १२०८ तक शासन किया। इसके पश्चात् चन्द्रशेखरवंग और पाण्ड्यवंगने ई० सन् १२३५ तक राज्य किया । पाण्ड्य बंगकी बहन रानी बिटुलदेवी ई० सन् १२३९से ई० सन १२४४ तक राज्या सीन रहीं। तत्पश्चात् रानी बिट्ठलदेवी अथवा बिटुलाम्बाका पुत्र कामराय बैंगनरेन्द्र हमा । 'विजयवर्णी ने उसे गुणार्णव और 'राजेन्द्रपूजिस' लिखा है। प्रशस्तिमें बताया है
"स्याद्वादधर्मपरमामृतदसचित्तः
सर्वोपकारिजिननापपदाअभृङ्गः ।
कादम्बवंशजलराशिसुधामयूखः
श्रीरायवंगनृपतिर्जगतीह जीयात् ।।
कोतिस्ते विमला सदा बरगुणा वाणी जयश्रीपरा
लक्ष्मीः सर्वहिता सुखं सुरसुखं दानं विधानं महत् ।
ज्ञानं पीनमिदं पराक्रमगणस्तुङ्गो नय: कोमलो
रूपं कान्ततरं जयन्तनिभ भी श्रीरायभूमीश्वर।'
कामरायको वर्णीने पाण्ड्यवंगका भागिनेय बताया है
'तस्य श्रीपाण्ड्यवङ्गस्य भागिनेयो गुणार्णवः ।
विट्ठलाम्बामहादेवीपुत्री राजेन्द्रपूजितः ।।
' विजयवर्गीके समयका निश्चय करनेके लिए 'श्रृंगारार्णवचन्द्रिका का प्रताप रुद्रयशोभूषण, शृंगारार्णव और अमृतनन्दिके अलंकारसंग्रहके साथ तुलनात्मक अध्ययन करनेसे ऐसा प्रतीत होता है कि 'श्रृंगारार्णवचन्द्रिका' विषय और प्रति पादनशैलीकी दृष्टिसे 'प्रतापरुद्रयशोभूषण' और 'अलंकारसंग्रह से बहुत प्रभावित है । अथवा यह भी संभव है कि इन दोनों ग्रंथोंको शृंगारार्णवन्द्रि काने प्रभावित किया हो । डॉ. पी. बी. काणेने 'प्रतापरुद्रयशोभूषण'का रचनाकाल १४वीं शती माना है और श्रीबालकृष्णमूत्तिने अमृतानन्दिका १३वीं शती निर्धारित किया है। पर सी० कुन्हनराजा अमृतानन्द योगीका समय १४वीं शसीका प्रथम अद्धाश मानते हैं। इस प्रकार 'शृंगारार्णवचन्द्रिकाका रचनाकाल १३वीं शती माना जा सकता है।
बंगरायकी जेसी प्रशंशा कविने की है उससे भी यही ध्वनित होता है कि विजयवर्णी बंगनरेश कामरायका समकालीन है | कामरायके आश्रयमें रहकर उनकी प्रार्थनासे ही श्रृंगारार्णवचन्द्रिकाका प्रणयन किया गया है ।
विजयवर्गीको शृंगाराणवचन्द्रिका नामक एक ही रचना प्राप्त होती है। विजयवर्गीने पूर्वशास्त्रोंका आश्रय ग्रहण कर हो इस अलंकारग्रन्थको लिखा है। उन्होंने व्याख्यात्मक एवं परिचयात्मक पद्यपंक्तियाँ मौलिकरूपमें लिखी हैं । विषयके अध्ययनसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि कविने परम्परासे प्राप्त अलंकारसम्बन्धी विषयोंको ग्रहण कर इस शास्त्रकी रचना की है। कविकी काव्यप्रतिभा सामान्य प्रतीत होती है। वह स्थान-स्थानपर यतिभंग दोष करता चला गया है । यद्यपि विषयवस्तुकी अपेक्षा यह ग्रंथ साहित्यदर्पणादि ग्रन्थों की अपेक्षा सरल और सरस है तो भी पूर्व कवियोका ऋण इसपर स्पष्टतः झलाता
श्रृंगाराणवचन्द्रिका दश परिच्छेदोंमें विभक्त है--
१. वर्णगणफलनिर्णय,
२. काव्यगतशब्दार्थनिर्णय,
३. रसभावनिर्णय
४. नायकभेदनिर्णय,
५. दसगुणनिर्णय,
६. रीतिनिर्णय,
७. वृत्तिनिर्णय,
८. शय्याभागनिर्णय,
९. अलंकारनिर्णय और
१०. दोषगुणनिर्णय ।
प्रथम परिच्छेदमें मंगलपद्यके पश्चात् कदम्बवंशका सामान्य परिचय दिया गया है और बताया गया है कि कामरायको प्रार्थनासे विजयवर्णीने अलंकार शास्त्रका निरूपण किया। काव्यको परिभाषाके पश्चात् पद्य, गद्य और मिश्र ये तीनों कान्यके भेद बणित हैं। इस अध्यायका नाम वर्णगणफलनिर्णय है। अतः नामानुसार वर्ण और गणका फल बतलाया गया है। किस वर्णसे काव्य आरम्भ होनेपर सुखप्रद होता है और किस वर्णसे काव्य आरम्भ होनेपर दुःखप्रद होता है, इसका कथन आया है। लिखा है
अकारादिक्षकारान्ता वर्णास्तेषु शुभावहाः ।
केचित् केचिदनिटाख्यं वितरन्ति फलं नृणाम् ।।
ददात्यवर्णः संप्रीतिमिवों मुदमुखहेत् ।
कुर्यादुवर्णो द्रविणं ततः स्वरचतुष्टयम् ।।
अपक्ष्यातिफलं दद्यादेचः सुखफलावहाः ।
बिन्दुविसर्गास्तु पादौ संभवन्ति नो।।
कखगधाश्च लक्ष्मी ते वितरन्ति फलोसमाम् ।
दत्ते चकारोऽपख्याति छकारः प्रीतिसौख्यदः ।।
मिश्रलाभं अकारोऽयं विधत्ते भीभूतिद्वयम् ।
सः करोति टठो खेबदुःखे । कुरुतः क्रमात् ॥
सभी वर्ण शुभप्रद है; पर बीच-बीच में कुछ वर्ण अनिष्टफलप्रद भी बसाये गये हैं। अवर्णसे काव्यारम्भ करनेपर प्रोसि यवर्णस काव्य आरम्भ करनेपर बानन्द और जवर्णसे काट्यारम्भ करने पर धनकी प्राप्ति होती है। ऐच, ए, ऐ, ओ, औ वर्णोसे काव्यारम्भ करनेपर सुख फल प्राप्त होता है और अल ऋल वर्षासे काब्यारम्भ करनेपर अपकीति होती है। छ, त्र, “ और ; पदादिमें नहीं रहते हैं। क ख ग घ वर्णोसे काव्यारम्भ करनेपर उत्तम फलकी प्राप्ति होती है। चकारसे काव्दारम्भ करनेपर अपकीति, कारसे काव्यारम्भ करनेपर प्रीति-सौख्य, जकारसे काठ्यारम्भ करनेपर मित्रलाभ, झकारसे काव्यारम्भ करनेपर भय और ट कार-उकारसे काब्यारम्भ करनेपर खेद और दुःख प्राप्त होते हैं। डकारसे काव्यारम्भ करनेपर शोभाकर, ढकारसे काठ्यारम्भ करनेपर अशोभाकर णकारसे काव्यारम्भ करनेपर भ्रमण और तकारसे काव्यारम्भ करनेपर सुख होता है । इस प्रकार वर्ण और गणोंका फल बताया गया है।
द्वितीय परिच्छेदमें काव्यगत शब्दार्थका निश्चय किया है। इसमें ४२ पद्य हैं। मुख्य और गौण अर्थोके प्रतिपादनके पश्चात् शब्दके भेद बतलाये गये हैं ।
तसीय परिच्छेदमें रसभावका निश्चय किया गया है। पारम्भमें ही बताया है कि निर्दोष वर्ण और गणसे युक्त रहनेपर भी निर्मलार्थ तथा शब्दसहित काव्य नीरस होनेपर उसी प्रकार रुचिकर नहीं होता जिस प्रकार बिना लवणका व्यञ्जन । पश्चात विजयवर्णीने स्थायीभावका स्वरूप, मेद एवं रसोंका निरूपण किया है। लिखा है
'निरवचवर्णगणयुतमपि काश्यं निर्मलार्थ शब्दयुतम् ।
निलेवणशामिव तन्न रोचते नीरसं सतां मानसे ॥३शशा'
सात्त्विकभावका विश्लेषण भी उदाहरण सहित किया गया है । रसोंके सोदाहरणस्वरूप निरूपणके पश्चात् रसोंके विरोधी रसोंका भी कथन किया है।
चतुर्थ परिच्छेद नायकमेनिश्चयका है। नायकमें जनानुराग, प्रियंवद,वाग्मित्व, शौच, विनय, स्मृति, कुलीनता, स्थिरता, दृढ़ता, माधुर्य, शौर्य, नवयौवन, उत्साह, दक्षता, बुद्धि, त्याग, तेज, कला, धर्मशास्त्रशता और प्रशा ये नायकके गुण माने गये हैं। नायकके चार भेद हैं-धीरोदात्त, घोरललित, धीरशान्त और धीरोद्धत। क्षमा, सामर्थ्य, गांभीर्य, दया, आत्मश्लाघान्य यादि गुण धीरोदात्त नायकके माने गये हैं। इस प्रकार नायक, प्रतिनायक आदिके स्वरूप, भेद और उदाहरण वर्णित हैं।
पांचवें परिच्छेदमें दस गुणोंका कथन आया है ।
षष्ठ परिच्छेदमें रीतिका स्वरूप और भेद, सप्तममें वृत्तिका भेद और स्वरूप बताया गया है । कैशिको, आर्यभटी, भारत और सास्वती इन बारहतियांका उदाहरणसहित निरूपण आया है। अष्टम परिच्छेदमें शय्यापाक और द्राक्षापाकके लक्षण आये हैं। नवम परिच्छेदमें अलंकारोंका निर्णय किया गया है। उपमाके विपर्यासोपमा, मोहो पमा, संशयोपमा, निर्णयोपमा, श्लेषोपमा, सन्तानोपमा, निन्दोपमा, आचिल्या सोपमा, विरोधोपमा, प्रतिशेधोपमा, चटूपमा, तत्त्वाख्यानोपमा, असाधारणोपमा, अभूतोपमा, असंभाषितोपमा, बहूपमा, विक्रियोपमा, मालोपमा, वाक्यार्थोपमा, प्रतिवस्तूपमा, तुल्ययोगोपमा, हेतुपमा, आदि उपमाके भेदोंका सोदाहरण स्व रूप बतलाया है । रूपक अलंकारके प्रसंगमें समस्तरूपक, व्यस्तरूपक, समस्त. व्यस्तरूपक, सकलापक, अवयवरूपक, अयुक्तरूपक, विषमरूपक, विरुद्धरूपक, हेतुरूपक, उपमारूपक, व्यतिरेकरूपक, क्षेपरूपक, समाधानरूपक, रूपकरूपक, अपहतिरूपक आदि भेदोंका विवेचन किया है। वृत्तिमलंकारके अन्तर्गत उसके भेद-भेद भी वर्णित हैं । दीपक, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, विभावना, आक्षेप, उदात्त, प्रेय, ऊर्जस्व, विशेषोक्ति, तुल्ययोगिता, श्लेष, निदर्शना, व्याअस्तुति, आशीः, अक्सरसार, भ्रान्तिमान, संशय, एकावलो, परिकर, परिसंख्या, प्रश्नोत्तर, संकर, आदि अलंकारोंक मेद-अभेदों सहित लक्षण व उदाहरणोंका विवेचन किया है।
दशम परिच्छेदमें दोष और गुणोंका विवेचन किया है। यह परिच्छेद काव्यके दोष और गुणोंको अवगत करने के लिए विशेष उपयोगी है । इस प्रकार इस ग्रंथमें अलंकारशास्त्रका निरूपण विस्तारपूर्वक किया गया है। आचार्य विजयवर्षीने सरस शैलीमें अलंकार-विषयका समावेश किया है।
#Vijayvarni
आचार्यतुल्य श्री १०८ विजयवर्णी (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 04 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 04 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
विजयवर्णीने 'शृंगारार्णवचन्द्रिका' नामक ग्रंथको रचना कर अलंकार शास्त्रके विकासमें योगदान दिया है। इनके व्यक्तिगत जीवनके सम्बन्धमें कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं है। ग्रन्थप्रशस्ति और पुष्पिकासे यह ज्ञात होता है कि वे मुनीन्द्र विजयकीत्तिके शिष्य थे | एक दिन बातचीतके क्रममें वंगवाडीके कामरायने इनसे कविताके विभिन्न पहलुओंको व्याख्या प्रस्तुत करनेका आग्रह किया । राजाको प्रार्थनापर इन्होंने 'अलंकारसंग्रह अपरनाम 'शृंगारार्णव चन्द्रिका'की रचना की।
इस रचनामें बिजयवर्णीने विभिन्न विषयोंपर विचार करते हुए अलंकार, अलंकारोंके लक्षण और उदाहरण लिखे हैं। उदाहरणों में कामरायकी प्रशंसा की गयी है । रचनाको प्रस्तावनामें विजयवर्णीने कर्णाटकके कवियोंकी कविताओंके संदर्भ दिये हैं। इन संदर्भोके अध्ययनसे इस तथ्यपर पहुँचते हैं कि विजयवर्णीने गुणवर्मन आदि कवियोंकी रचनाओंका अध्ययन किया था। वे राजा कामरायके व्यक्तिगत सम्पर्क में थे।
ग्रन्थके आरम्भमें लिखा है
"श्रीमद्विजयकोर्तीन्दोः सूक्तिसंदोहकौमुदी।
मदीचित्तसंतापं हत्वानन्दं दद्यात्परम् ।।१४॥
श्रीमद्विषयकीख्यगुरुराजपदाम्बुजम् ।
मदीयचित्तकासारे स्थेयात् संशुद्धधाजले शि५||
गणवर्मादिकर्नाटकवीनां सूक्तिसंचयः ।
वाणीविलासं देयात्ते रसिकानन्ददायिनम् ॥१७॥
" विजयवर्णीने अपनी प्रशस्तिमें आश्रयदाता कामरायका निर्देश किया है। इन्हें स्याहादधर्म में चित्त लगानेवाला और सर्वजन-उपकारक बताया है।
ई. सन् १९५७में बंगवाडीपर वीर नरसिंह शासन करता था । उसका एक भाई पाण्ड्यराज था । चन्द्रशेखर वोर नरसिंहका पुत्र था और यह १२०८ ई० में सिंहासनासीन हुआ था और उसका छोटा भाई पाण्डयष्प ई० सन् १२२४में राज्यपर अभिषिक्त हुआ था। उनकी बहन बिटुलदेवी ई० सन् १२३२में राज्यप्रतिनिधि नियुक्त की गौं ! बिटुलदेवीका पुत्र ही कामराय था, जो ई० सन् १२६४में राज्यासन हुआ। इतिहास बतलाता है कि सोमवंशी कदम्बोंकी एक शाखा वंगवंशके नामसे प्रसिद्ध थी और इस बंशका शासन दक्षिण कन्नड जिलेके अन्तर्गत बंगवाडीपर विद्यमान था । वीर नरसिंह बंग राजने ई० सन् १९५७से ई० सन् १२०८ तक शासन किया। इसके पश्चात् चन्द्रशेखरवंग और पाण्ड्यवंगने ई० सन् १२३५ तक राज्य किया । पाण्ड्य बंगकी बहन रानी बिटुलदेवी ई० सन् १२३९से ई० सन १२४४ तक राज्या सीन रहीं। तत्पश्चात् रानी बिट्ठलदेवी अथवा बिटुलाम्बाका पुत्र कामराय बैंगनरेन्द्र हमा । 'विजयवर्णी ने उसे गुणार्णव और 'राजेन्द्रपूजिस' लिखा है। प्रशस्तिमें बताया है
"स्याद्वादधर्मपरमामृतदसचित्तः
सर्वोपकारिजिननापपदाअभृङ्गः ।
कादम्बवंशजलराशिसुधामयूखः
श्रीरायवंगनृपतिर्जगतीह जीयात् ।।
कोतिस्ते विमला सदा बरगुणा वाणी जयश्रीपरा
लक्ष्मीः सर्वहिता सुखं सुरसुखं दानं विधानं महत् ।
ज्ञानं पीनमिदं पराक्रमगणस्तुङ्गो नय: कोमलो
रूपं कान्ततरं जयन्तनिभ भी श्रीरायभूमीश्वर।'
कामरायको वर्णीने पाण्ड्यवंगका भागिनेय बताया है
'तस्य श्रीपाण्ड्यवङ्गस्य भागिनेयो गुणार्णवः ।
विट्ठलाम्बामहादेवीपुत्री राजेन्द्रपूजितः ।।
' विजयवर्गीके समयका निश्चय करनेके लिए 'श्रृंगारार्णवचन्द्रिका का प्रताप रुद्रयशोभूषण, शृंगारार्णव और अमृतनन्दिके अलंकारसंग्रहके साथ तुलनात्मक अध्ययन करनेसे ऐसा प्रतीत होता है कि 'श्रृंगारार्णवचन्द्रिका' विषय और प्रति पादनशैलीकी दृष्टिसे 'प्रतापरुद्रयशोभूषण' और 'अलंकारसंग्रह से बहुत प्रभावित है । अथवा यह भी संभव है कि इन दोनों ग्रंथोंको शृंगारार्णवन्द्रि काने प्रभावित किया हो । डॉ. पी. बी. काणेने 'प्रतापरुद्रयशोभूषण'का रचनाकाल १४वीं शती माना है और श्रीबालकृष्णमूत्तिने अमृतानन्दिका १३वीं शती निर्धारित किया है। पर सी० कुन्हनराजा अमृतानन्द योगीका समय १४वीं शसीका प्रथम अद्धाश मानते हैं। इस प्रकार 'शृंगारार्णवचन्द्रिकाका रचनाकाल १३वीं शती माना जा सकता है।
बंगरायकी जेसी प्रशंशा कविने की है उससे भी यही ध्वनित होता है कि विजयवर्णी बंगनरेश कामरायका समकालीन है | कामरायके आश्रयमें रहकर उनकी प्रार्थनासे ही श्रृंगारार्णवचन्द्रिकाका प्रणयन किया गया है ।
विजयवर्गीको शृंगाराणवचन्द्रिका नामक एक ही रचना प्राप्त होती है। विजयवर्गीने पूर्वशास्त्रोंका आश्रय ग्रहण कर हो इस अलंकारग्रन्थको लिखा है। उन्होंने व्याख्यात्मक एवं परिचयात्मक पद्यपंक्तियाँ मौलिकरूपमें लिखी हैं । विषयके अध्ययनसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि कविने परम्परासे प्राप्त अलंकारसम्बन्धी विषयोंको ग्रहण कर इस शास्त्रकी रचना की है। कविकी काव्यप्रतिभा सामान्य प्रतीत होती है। वह स्थान-स्थानपर यतिभंग दोष करता चला गया है । यद्यपि विषयवस्तुकी अपेक्षा यह ग्रंथ साहित्यदर्पणादि ग्रन्थों की अपेक्षा सरल और सरस है तो भी पूर्व कवियोका ऋण इसपर स्पष्टतः झलाता
श्रृंगाराणवचन्द्रिका दश परिच्छेदोंमें विभक्त है--
१. वर्णगणफलनिर्णय,
२. काव्यगतशब्दार्थनिर्णय,
३. रसभावनिर्णय
४. नायकभेदनिर्णय,
५. दसगुणनिर्णय,
६. रीतिनिर्णय,
७. वृत्तिनिर्णय,
८. शय्याभागनिर्णय,
९. अलंकारनिर्णय और
१०. दोषगुणनिर्णय ।
प्रथम परिच्छेदमें मंगलपद्यके पश्चात् कदम्बवंशका सामान्य परिचय दिया गया है और बताया गया है कि कामरायको प्रार्थनासे विजयवर्णीने अलंकार शास्त्रका निरूपण किया। काव्यको परिभाषाके पश्चात् पद्य, गद्य और मिश्र ये तीनों कान्यके भेद बणित हैं। इस अध्यायका नाम वर्णगणफलनिर्णय है। अतः नामानुसार वर्ण और गणका फल बतलाया गया है। किस वर्णसे काव्य आरम्भ होनेपर सुखप्रद होता है और किस वर्णसे काव्य आरम्भ होनेपर दुःखप्रद होता है, इसका कथन आया है। लिखा है
अकारादिक्षकारान्ता वर्णास्तेषु शुभावहाः ।
केचित् केचिदनिटाख्यं वितरन्ति फलं नृणाम् ।।
ददात्यवर्णः संप्रीतिमिवों मुदमुखहेत् ।
कुर्यादुवर्णो द्रविणं ततः स्वरचतुष्टयम् ।।
अपक्ष्यातिफलं दद्यादेचः सुखफलावहाः ।
बिन्दुविसर्गास्तु पादौ संभवन्ति नो।।
कखगधाश्च लक्ष्मी ते वितरन्ति फलोसमाम् ।
दत्ते चकारोऽपख्याति छकारः प्रीतिसौख्यदः ।।
मिश्रलाभं अकारोऽयं विधत्ते भीभूतिद्वयम् ।
सः करोति टठो खेबदुःखे । कुरुतः क्रमात् ॥
सभी वर्ण शुभप्रद है; पर बीच-बीच में कुछ वर्ण अनिष्टफलप्रद भी बसाये गये हैं। अवर्णसे काव्यारम्भ करनेपर प्रोसि यवर्णस काव्य आरम्भ करनेपर बानन्द और जवर्णसे काट्यारम्भ करने पर धनकी प्राप्ति होती है। ऐच, ए, ऐ, ओ, औ वर्णोसे काव्यारम्भ करनेपर सुख फल प्राप्त होता है और अल ऋल वर्षासे काब्यारम्भ करनेपर अपकीति होती है। छ, त्र, “ और ; पदादिमें नहीं रहते हैं। क ख ग घ वर्णोसे काव्यारम्भ करनेपर उत्तम फलकी प्राप्ति होती है। चकारसे काव्दारम्भ करनेपर अपकीति, कारसे काव्यारम्भ करनेपर प्रीति-सौख्य, जकारसे काठ्यारम्भ करनेपर मित्रलाभ, झकारसे काव्यारम्भ करनेपर भय और ट कार-उकारसे काब्यारम्भ करनेपर खेद और दुःख प्राप्त होते हैं। डकारसे काव्यारम्भ करनेपर शोभाकर, ढकारसे काठ्यारम्भ करनेपर अशोभाकर णकारसे काव्यारम्भ करनेपर भ्रमण और तकारसे काव्यारम्भ करनेपर सुख होता है । इस प्रकार वर्ण और गणोंका फल बताया गया है।
द्वितीय परिच्छेदमें काव्यगत शब्दार्थका निश्चय किया है। इसमें ४२ पद्य हैं। मुख्य और गौण अर्थोके प्रतिपादनके पश्चात् शब्दके भेद बतलाये गये हैं ।
तसीय परिच्छेदमें रसभावका निश्चय किया गया है। पारम्भमें ही बताया है कि निर्दोष वर्ण और गणसे युक्त रहनेपर भी निर्मलार्थ तथा शब्दसहित काव्य नीरस होनेपर उसी प्रकार रुचिकर नहीं होता जिस प्रकार बिना लवणका व्यञ्जन । पश्चात विजयवर्णीने स्थायीभावका स्वरूप, मेद एवं रसोंका निरूपण किया है। लिखा है
'निरवचवर्णगणयुतमपि काश्यं निर्मलार्थ शब्दयुतम् ।
निलेवणशामिव तन्न रोचते नीरसं सतां मानसे ॥३शशा'
सात्त्विकभावका विश्लेषण भी उदाहरण सहित किया गया है । रसोंके सोदाहरणस्वरूप निरूपणके पश्चात् रसोंके विरोधी रसोंका भी कथन किया है।
चतुर्थ परिच्छेद नायकमेनिश्चयका है। नायकमें जनानुराग, प्रियंवद,वाग्मित्व, शौच, विनय, स्मृति, कुलीनता, स्थिरता, दृढ़ता, माधुर्य, शौर्य, नवयौवन, उत्साह, दक्षता, बुद्धि, त्याग, तेज, कला, धर्मशास्त्रशता और प्रशा ये नायकके गुण माने गये हैं। नायकके चार भेद हैं-धीरोदात्त, घोरललित, धीरशान्त और धीरोद्धत। क्षमा, सामर्थ्य, गांभीर्य, दया, आत्मश्लाघान्य यादि गुण धीरोदात्त नायकके माने गये हैं। इस प्रकार नायक, प्रतिनायक आदिके स्वरूप, भेद और उदाहरण वर्णित हैं।
पांचवें परिच्छेदमें दस गुणोंका कथन आया है ।
षष्ठ परिच्छेदमें रीतिका स्वरूप और भेद, सप्तममें वृत्तिका भेद और स्वरूप बताया गया है । कैशिको, आर्यभटी, भारत और सास्वती इन बारहतियांका उदाहरणसहित निरूपण आया है। अष्टम परिच्छेदमें शय्यापाक और द्राक्षापाकके लक्षण आये हैं। नवम परिच्छेदमें अलंकारोंका निर्णय किया गया है। उपमाके विपर्यासोपमा, मोहो पमा, संशयोपमा, निर्णयोपमा, श्लेषोपमा, सन्तानोपमा, निन्दोपमा, आचिल्या सोपमा, विरोधोपमा, प्रतिशेधोपमा, चटूपमा, तत्त्वाख्यानोपमा, असाधारणोपमा, अभूतोपमा, असंभाषितोपमा, बहूपमा, विक्रियोपमा, मालोपमा, वाक्यार्थोपमा, प्रतिवस्तूपमा, तुल्ययोगोपमा, हेतुपमा, आदि उपमाके भेदोंका सोदाहरण स्व रूप बतलाया है । रूपक अलंकारके प्रसंगमें समस्तरूपक, व्यस्तरूपक, समस्त. व्यस्तरूपक, सकलापक, अवयवरूपक, अयुक्तरूपक, विषमरूपक, विरुद्धरूपक, हेतुरूपक, उपमारूपक, व्यतिरेकरूपक, क्षेपरूपक, समाधानरूपक, रूपकरूपक, अपहतिरूपक आदि भेदोंका विवेचन किया है। वृत्तिमलंकारके अन्तर्गत उसके भेद-भेद भी वर्णित हैं । दीपक, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, विभावना, आक्षेप, उदात्त, प्रेय, ऊर्जस्व, विशेषोक्ति, तुल्ययोगिता, श्लेष, निदर्शना, व्याअस्तुति, आशीः, अक्सरसार, भ्रान्तिमान, संशय, एकावलो, परिकर, परिसंख्या, प्रश्नोत्तर, संकर, आदि अलंकारोंक मेद-अभेदों सहित लक्षण व उदाहरणोंका विवेचन किया है।
दशम परिच्छेदमें दोष और गुणोंका विवेचन किया है। यह परिच्छेद काव्यके दोष और गुणोंको अवगत करने के लिए विशेष उपयोगी है । इस प्रकार इस ग्रंथमें अलंकारशास्त्रका निरूपण विस्तारपूर्वक किया गया है। आचार्य विजयवर्षीने सरस शैलीमें अलंकार-विषयका समावेश किया है।
Acharyatulya Vijayvarni (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 04 April 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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