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#Vinaychandraprachin
विनयचन्द्र उदयचन्द्रके प्रशिष्य और बालचन्द्र के शिष्य थे । उदयचन्द्र और बालचंद्रके समयपर पूर्व में प्रकाश डाला जा चुका है। अतएब उनका समय ई० सन्की १२वीं शताब्दी प्रायः निर्णीत है।
विनयचन्द्र ने तीन रचनाएँ लिखी हैं -१. चुनड़ीरास, २. निर्झरपंचमीकहारास और ३. कल्याणकरास । चुनड़ीरासमें ३२ पद्य हैं। यह रूपक-काव्य है। कवि मुनिविनयचन्द्रने चुनड़ी नामक उत्तरीयबस्त्रको रूपक बनाकर गीतिकाव्यकी रचना की है। कोई मुग्धा युवती हुँसती हुई अपने पतिसे कहती है कि हे प्रिय ! जिनमंदिरमें भक्ति भावपूर्वक दर्शन करने जाइये और कृपाकर मेरे लिये एक अनुपम चुनड़ी छपवाकर ले आइये, जिससे में जिनशासनमें प्रवीण हो स । वह यह भी अनु रोध करती है कि यदि आप उसप्रकारकी चनड़ी छपवाकर नहीं दे सकेंगे, तो वह छापने वाला छीपा तानाकशी करेगा। पति पत्नीको बातें सुनकर कहता है- हे मुग्वे, वह छीपा मुझे जैनसिद्धान्तके रहस्यसे परिपूर्ण एक सुन्दर चुनड़ी छापक देनेको कहता है।
दादा गुरु | उदयचन्द्र |
गुरु | बालचंद्र |
कविने इस चूनड़ीरासमें द्रव्य, अस्तिकाय, मुण-पर्याय, तत्त्व, दशधर्म, प्रत आदिका विश्लेषण किया है। . चूनड़ी उत्तरीयवस्त्र है, जिसे राजस्थानकी महिलाएँ ओढ़ती हैं । कविने इसी रूपकके माध्यमसे संकेतों द्वारा जैन सिद्धान्तके सत्त्वोंकी अभिव्यंजना की है। यह गीतिकाव्य कण्ठको तो विभूषित करता ही है, साथ ही भेदविज्ञानको भी शिक्षा देता है।
इस सरस, मनोरम और चित्ताकर्षक रचना पर कविकी एक स्वोपज्ञ टीका भी उपलब्ध है, जिसमें चूनड़ीरासमें दिये गये शब्दोंके रहस्यको उद्घाटित किया गया है।
निर्झरपंचमीकहामें निझरपंचीके व्रतका फल बतलाया गया है। इस अत्तकी विधिका निरूपण करते हुए कविन स्वयं लिखा है
"धवल पक्खि आसाहिं पंचमि जागरण,
सुह उपवासइ किज्जइ कातिग उज्जवण ।
अह सावण आरंभिय पुज्जा आगहणो,
इह मह णिज्झर-पंचमि अक्खिय भय-हरणे ॥"
अर्थात् वाषाढ़ शुक्ला पंचमीके दिन जागरणपूर्वक उपवास करे और कार्तिकके महीने में उसका उद्यापन करे। अथवा श्रावणमें आरंभ फर अगहनके महीने में उद्यापन करे । उद्यापनमें पांच छत्र, पांच चमर, पाँच वर्तन, पांच शास्त्र और पाँच चन्दोवे या अन्य उपकरण मंदिरमें प्रदान करने चाहिए। यदि उचा पनको शक्ति न हो, तो दूने दिनों तक व्रत करना चाहिए।
निझरपंचमीव्रतके उद्यापनमें पंच परमेष्ठीको पृथक्-पृथक् पाँच पूजा, चौबीसीपूजन, विद्यमानविंशतितीर्थकरपूजन, आदिनाथपूजन और महावीर स्वामीका पूजन, इस प्रकार नौ पूजन किये जाते हैं। कवि विनयचन्द्रने इस कथामें निरपंचमीव्रतके फलको प्राप्त करनेवाले व्यक्तिको कथा भी लिखी है।
कल्याणकरासमें तीर्थकरोंके पंचकल्याणकोंकी तिथियोंका निर्देश फिया गया है। कविने लिखा है
पढम पक्खि दुइजहि आसाढहि, रिसइ गन्भजहिं उत्तर साहिं ।
अंधियारो छहि तहिमि ( हर ) वंदमि वासुपुज्य गम्भुत्थउ ।
विमल सुसिद्धङ अमिहि दसमिहि, गामि जिण जम्मणु, सह तउ ।
सिद्ध सुहंकर सिद्धि पड्ड ।।२।।
कविने अंतिम पद्यमें बताया है कि एक तिथिमें एक कल्याणक हो, तो एक भक्त करे, दो कल्याणक हों तो निविकृत्ति यह एक स्थानक करे, तीन हो तो आचाम्ल करे, चार हों तो उपवास करे अथवा सभी कल्याणकदिवसमें एक उपवास ही करे।
कविने लिखा है "
एयभत्तु एक्विजि कल्लाणइ, पिहि णिबिडि अहव इग ठाणइ ।
तिहि आयंबिलु जिणु भणइ, चहि होइ उपवासु गिहत्वहं ।
अह्वा सयलह खवविहि, विणयचंदमुणि कहिज समत्यहं ।
सिद्धि सुहकर सिद्धिपहुः" इस काध्यमें २५ पद्य हैं ! एक-एक पनामें प्रत्येक तीर्थकरके कल्याणकको तिथियाँ बतलायी गई हैं। किसी-किसी पद्यमें दो-दो तीर्थकरोंकी कल्याणक तिथियाँ हैं और कहीं दो-दो पद्योंमें एक ही तीर्थंकरके कल्याणकको तिथि है। भाषा शैली प्रौढ़ है। यहाँ उदाहरणार्थ एक पद्य प्रस्तुत किया जाता है
जिम्मल दुइजहि सुविहि सु केवलु
मिहि छलिहि गब्भु सुमंगलु।
अरजिण-णाणु दुवारसिहि संभव-संभव पुण्णिम-धासरि
णब कल्लाणहं अठ्ठ दिण इय विहि पलहिं कत्तिय-अवसरि ।
विनयचन्द्र उदयचन्द्रके प्रशिष्य और बालचन्द्र के शिष्य थे । उदयचन्द्र और बालचंद्रके समयपर पूर्व में प्रकाश डाला जा चुका है। अतएब उनका समय ई० सन्की १२वीं शताब्दी प्रायः निर्णीत है।
विनयचन्द्र ने तीन रचनाएँ लिखी हैं -१. चुनड़ीरास, २. निर्झरपंचमीकहारास और ३. कल्याणकरास । चुनड़ीरासमें ३२ पद्य हैं। यह रूपक-काव्य है। कवि मुनिविनयचन्द्रने चुनड़ी नामक उत्तरीयबस्त्रको रूपक बनाकर गीतिकाव्यकी रचना की है। कोई मुग्धा युवती हुँसती हुई अपने पतिसे कहती है कि हे प्रिय ! जिनमंदिरमें भक्ति भावपूर्वक दर्शन करने जाइये और कृपाकर मेरे लिये एक अनुपम चुनड़ी छपवाकर ले आइये, जिससे में जिनशासनमें प्रवीण हो स । वह यह भी अनु रोध करती है कि यदि आप उसप्रकारकी चनड़ी छपवाकर नहीं दे सकेंगे, तो वह छापने वाला छीपा तानाकशी करेगा। पति पत्नीको बातें सुनकर कहता है- हे मुग्वे, वह छीपा मुझे जैनसिद्धान्तके रहस्यसे परिपूर्ण एक सुन्दर चुनड़ी छापक देनेको कहता है।
दादा गुरु | उदयचन्द्र |
गुरु | बालचंद्र |
कविने इस चूनड़ीरासमें द्रव्य, अस्तिकाय, मुण-पर्याय, तत्त्व, दशधर्म, प्रत आदिका विश्लेषण किया है। . चूनड़ी उत्तरीयवस्त्र है, जिसे राजस्थानकी महिलाएँ ओढ़ती हैं । कविने इसी रूपकके माध्यमसे संकेतों द्वारा जैन सिद्धान्तके सत्त्वोंकी अभिव्यंजना की है। यह गीतिकाव्य कण्ठको तो विभूषित करता ही है, साथ ही भेदविज्ञानको भी शिक्षा देता है।
इस सरस, मनोरम और चित्ताकर्षक रचना पर कविकी एक स्वोपज्ञ टीका भी उपलब्ध है, जिसमें चूनड़ीरासमें दिये गये शब्दोंके रहस्यको उद्घाटित किया गया है।
निर्झरपंचमीकहामें निझरपंचीके व्रतका फल बतलाया गया है। इस अत्तकी विधिका निरूपण करते हुए कविन स्वयं लिखा है
"धवल पक्खि आसाहिं पंचमि जागरण,
सुह उपवासइ किज्जइ कातिग उज्जवण ।
अह सावण आरंभिय पुज्जा आगहणो,
इह मह णिज्झर-पंचमि अक्खिय भय-हरणे ॥"
अर्थात् वाषाढ़ शुक्ला पंचमीके दिन जागरणपूर्वक उपवास करे और कार्तिकके महीने में उसका उद्यापन करे। अथवा श्रावणमें आरंभ फर अगहनके महीने में उद्यापन करे । उद्यापनमें पांच छत्र, पांच चमर, पाँच वर्तन, पांच शास्त्र और पाँच चन्दोवे या अन्य उपकरण मंदिरमें प्रदान करने चाहिए। यदि उचा पनको शक्ति न हो, तो दूने दिनों तक व्रत करना चाहिए।
निझरपंचमीव्रतके उद्यापनमें पंच परमेष्ठीको पृथक्-पृथक् पाँच पूजा, चौबीसीपूजन, विद्यमानविंशतितीर्थकरपूजन, आदिनाथपूजन और महावीर स्वामीका पूजन, इस प्रकार नौ पूजन किये जाते हैं। कवि विनयचन्द्रने इस कथामें निरपंचमीव्रतके फलको प्राप्त करनेवाले व्यक्तिको कथा भी लिखी है।
कल्याणकरासमें तीर्थकरोंके पंचकल्याणकोंकी तिथियोंका निर्देश फिया गया है। कविने लिखा है
पढम पक्खि दुइजहि आसाढहि, रिसइ गन्भजहिं उत्तर साहिं ।
अंधियारो छहि तहिमि ( हर ) वंदमि वासुपुज्य गम्भुत्थउ ।
विमल सुसिद्धङ अमिहि दसमिहि, गामि जिण जम्मणु, सह तउ ।
सिद्ध सुहंकर सिद्धि पड्ड ।।२।।
कविने अंतिम पद्यमें बताया है कि एक तिथिमें एक कल्याणक हो, तो एक भक्त करे, दो कल्याणक हों तो निविकृत्ति यह एक स्थानक करे, तीन हो तो आचाम्ल करे, चार हों तो उपवास करे अथवा सभी कल्याणकदिवसमें एक उपवास ही करे।
कविने लिखा है "
एयभत्तु एक्विजि कल्लाणइ, पिहि णिबिडि अहव इग ठाणइ ।
तिहि आयंबिलु जिणु भणइ, चहि होइ उपवासु गिहत्वहं ।
अह्वा सयलह खवविहि, विणयचंदमुणि कहिज समत्यहं ।
सिद्धि सुहकर सिद्धिपहुः" इस काध्यमें २५ पद्य हैं ! एक-एक पनामें प्रत्येक तीर्थकरके कल्याणकको तिथियाँ बतलायी गई हैं। किसी-किसी पद्यमें दो-दो तीर्थकरोंकी कल्याणक तिथियाँ हैं और कहीं दो-दो पद्योंमें एक ही तीर्थंकरके कल्याणकको तिथि है। भाषा शैली प्रौढ़ है। यहाँ उदाहरणार्थ एक पद्य प्रस्तुत किया जाता है
जिम्मल दुइजहि सुविहि सु केवलु
मिहि छलिहि गब्भु सुमंगलु।
अरजिण-णाणु दुवारसिहि संभव-संभव पुण्णिम-धासरि
णब कल्लाणहं अठ्ठ दिण इय विहि पलहिं कत्तिय-अवसरि ।
#Vinaychandraprachin
आचार्यतुल्य विनयचन्द्र (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 27 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 27 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
विनयचन्द्र उदयचन्द्रके प्रशिष्य और बालचन्द्र के शिष्य थे । उदयचन्द्र और बालचंद्रके समयपर पूर्व में प्रकाश डाला जा चुका है। अतएब उनका समय ई० सन्की १२वीं शताब्दी प्रायः निर्णीत है।
विनयचन्द्र ने तीन रचनाएँ लिखी हैं -१. चुनड़ीरास, २. निर्झरपंचमीकहारास और ३. कल्याणकरास । चुनड़ीरासमें ३२ पद्य हैं। यह रूपक-काव्य है। कवि मुनिविनयचन्द्रने चुनड़ी नामक उत्तरीयबस्त्रको रूपक बनाकर गीतिकाव्यकी रचना की है। कोई मुग्धा युवती हुँसती हुई अपने पतिसे कहती है कि हे प्रिय ! जिनमंदिरमें भक्ति भावपूर्वक दर्शन करने जाइये और कृपाकर मेरे लिये एक अनुपम चुनड़ी छपवाकर ले आइये, जिससे में जिनशासनमें प्रवीण हो स । वह यह भी अनु रोध करती है कि यदि आप उसप्रकारकी चनड़ी छपवाकर नहीं दे सकेंगे, तो वह छापने वाला छीपा तानाकशी करेगा। पति पत्नीको बातें सुनकर कहता है- हे मुग्वे, वह छीपा मुझे जैनसिद्धान्तके रहस्यसे परिपूर्ण एक सुन्दर चुनड़ी छापक देनेको कहता है।
दादा गुरु | उदयचन्द्र |
गुरु | बालचंद्र |
कविने इस चूनड़ीरासमें द्रव्य, अस्तिकाय, मुण-पर्याय, तत्त्व, दशधर्म, प्रत आदिका विश्लेषण किया है। . चूनड़ी उत्तरीयवस्त्र है, जिसे राजस्थानकी महिलाएँ ओढ़ती हैं । कविने इसी रूपकके माध्यमसे संकेतों द्वारा जैन सिद्धान्तके सत्त्वोंकी अभिव्यंजना की है। यह गीतिकाव्य कण्ठको तो विभूषित करता ही है, साथ ही भेदविज्ञानको भी शिक्षा देता है।
इस सरस, मनोरम और चित्ताकर्षक रचना पर कविकी एक स्वोपज्ञ टीका भी उपलब्ध है, जिसमें चूनड़ीरासमें दिये गये शब्दोंके रहस्यको उद्घाटित किया गया है।
निर्झरपंचमीकहामें निझरपंचीके व्रतका फल बतलाया गया है। इस अत्तकी विधिका निरूपण करते हुए कविन स्वयं लिखा है
"धवल पक्खि आसाहिं पंचमि जागरण,
सुह उपवासइ किज्जइ कातिग उज्जवण ।
अह सावण आरंभिय पुज्जा आगहणो,
इह मह णिज्झर-पंचमि अक्खिय भय-हरणे ॥"
अर्थात् वाषाढ़ शुक्ला पंचमीके दिन जागरणपूर्वक उपवास करे और कार्तिकके महीने में उसका उद्यापन करे। अथवा श्रावणमें आरंभ फर अगहनके महीने में उद्यापन करे । उद्यापनमें पांच छत्र, पांच चमर, पाँच वर्तन, पांच शास्त्र और पाँच चन्दोवे या अन्य उपकरण मंदिरमें प्रदान करने चाहिए। यदि उचा पनको शक्ति न हो, तो दूने दिनों तक व्रत करना चाहिए।
निझरपंचमीव्रतके उद्यापनमें पंच परमेष्ठीको पृथक्-पृथक् पाँच पूजा, चौबीसीपूजन, विद्यमानविंशतितीर्थकरपूजन, आदिनाथपूजन और महावीर स्वामीका पूजन, इस प्रकार नौ पूजन किये जाते हैं। कवि विनयचन्द्रने इस कथामें निरपंचमीव्रतके फलको प्राप्त करनेवाले व्यक्तिको कथा भी लिखी है।
कल्याणकरासमें तीर्थकरोंके पंचकल्याणकोंकी तिथियोंका निर्देश फिया गया है। कविने लिखा है
पढम पक्खि दुइजहि आसाढहि, रिसइ गन्भजहिं उत्तर साहिं ।
अंधियारो छहि तहिमि ( हर ) वंदमि वासुपुज्य गम्भुत्थउ ।
विमल सुसिद्धङ अमिहि दसमिहि, गामि जिण जम्मणु, सह तउ ।
सिद्ध सुहंकर सिद्धि पड्ड ।।२।।
कविने अंतिम पद्यमें बताया है कि एक तिथिमें एक कल्याणक हो, तो एक भक्त करे, दो कल्याणक हों तो निविकृत्ति यह एक स्थानक करे, तीन हो तो आचाम्ल करे, चार हों तो उपवास करे अथवा सभी कल्याणकदिवसमें एक उपवास ही करे।
कविने लिखा है "
एयभत्तु एक्विजि कल्लाणइ, पिहि णिबिडि अहव इग ठाणइ ।
तिहि आयंबिलु जिणु भणइ, चहि होइ उपवासु गिहत्वहं ।
अह्वा सयलह खवविहि, विणयचंदमुणि कहिज समत्यहं ।
सिद्धि सुहकर सिद्धिपहुः" इस काध्यमें २५ पद्य हैं ! एक-एक पनामें प्रत्येक तीर्थकरके कल्याणकको तिथियाँ बतलायी गई हैं। किसी-किसी पद्यमें दो-दो तीर्थकरोंकी कल्याणक तिथियाँ हैं और कहीं दो-दो पद्योंमें एक ही तीर्थंकरके कल्याणकको तिथि है। भाषा शैली प्रौढ़ है। यहाँ उदाहरणार्थ एक पद्य प्रस्तुत किया जाता है
जिम्मल दुइजहि सुविहि सु केवलु
मिहि छलिहि गब्भु सुमंगलु।
अरजिण-णाणु दुवारसिहि संभव-संभव पुण्णिम-धासरि
णब कल्लाणहं अठ्ठ दिण इय विहि पलहिं कत्तिय-अवसरि ।
Acharyatulya Vinaychandra (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 27 April 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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