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#IndumatiMataJi1905VeerSagarJiMaharaj
Aryika Shri 105 Indumati Mata ji was born in the year 1905 in Deh Gram,Marvaad.Her name was Mohini bai before diksha.She received the initiation from Acharya Shri 108 Veer Sagar Ji Maharaj.
आर्यिका श्री १०५ इन्दुमतीजी का जन्म सन् १६०५ में हुआ था। मारवाड़ में डेह नामक ग्राम को आपकी जन्म भूमि बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आपके पिता श्री चन्दनमलजी पाटनी थे और माता जड़ावबाई थी। आपने दिगम्बर जैन खण्डेलवाल जाति को विभूषित किया था।
चन्दनमलजी जहां कुशल व्यापारी थे, वहां धर्मात्मा भी थे और उनको गृहिणी जड़ावबाई तो उनसे दो कदम आगे थी । आपके चार पुत्र हुए-ऋद्धिकरण, गिरधारीलाल, केशरीमल, पूनमचन्द्र । आपके तीन पुत्रियां हुई गोपीबाई, केशरीबाई, मोहनीबाई । मोहनीबाई का विवाह चम्पालालजी सेठी के साथ हुआ तो सही पर छह माह के भीतर ही उनका स्वर्गवास हो गया। इससे दोनों परिवार दुःखी हुए। पिता की प्रेरणा पाकर मोहनीबाई जिनेन्द्र पूजन व स्वाध्याय में काफी समय बिताने लगी। आपने परिवार के साथ तीर्थयात्रा की । जब श्री १०८ मुनि शान्तिसागरजी का संघ सम्मेदशिखरजी की वन्दना के लिए आया तो उनके दर्शनों से आपके विचार और भी अधिक विराग को ओर बने। चूकि आप मुनिश्री के प्रवचन अपने हजार आवश्यक काम छोड़कर भी सुनती थी। इसलिए कि वासनामों से विरक्ति बढ़ती ही रही ।
उन दिनों, आचार विचार में मारवाड़ बहुत पिछड़ा था । पर जब १०८ मुनिश्री चन्द्रसागरजी विहार करते हुए सुजानगढ़ आये तब यहां के श्रावकों ने भी अपने को सुधार लिया । जब मोहनीबाई को उक्त मुनिश्री के आने और चातुर्मास की बात ज्ञात हुई तो मोहनीबाई भी अपनी माता के साथ दर्शन करने के लिए आई और मां के साथ ही स्वयं भी दूसरी प्रतिमा स्वीकार करली।
चातुर्मास के बाद मुनिश्री ने विहार किया तब मोहनीबाई भी उनके साथ अनेकों नगरों में गयी । वे आहार दान तथा धर्म श्रवण के कार्य करती थीं। सन् 1936 में आपने सातवी प्रतिमा स्वीकार कर ली। आपके भाई ( ऋद्धिकरण ) भाभी ने दूसरी प्रतिमा ली और मां ने पांचवीं प्रतिमा के व्रत स्वीकार किये । यहीं आपका परिचय अध्यापिका मथुराबाई से हुआ।
जब चन्द्रसागरजी ने कसाबखेड़ा ( महाराष्ट्र ) में चातुर्मास किया तब मोहनीबाई और मथुराबाई ने उनसे आर्यिका दीक्षा बाबत निवेदन किया । मुनिश्री ने आगापीछा सोचकर उन्हें सन १९४२ में क्षुल्लिका दीक्षा दी। अब ब्रह्मचारिणी मथुराबाई का नाम विमलमती रखा गया और ब्रह्मचारिणो मोहनीबाई को इन्दुमती कहकर पुकारा गया । आप दोनों ने पीछी कमण्डलु, श्वेत साड़ी बचादर के सिवाय सभी परिग्रह का त्याग कर दिया और ज्ञान तथा ध्यान की साधना करने में लगी।
जब सुजानगढ़ निवासी चांदमल धन्नालाल पाटनी ने मुनिश्री चन्द्रसागरजी से बड़वानी की ओर विहार करने और स्वनिर्मित मानस्तम्भ की प्रतिष्ठा में सम्मिलित होने के लिए प्रार्थना की तब इन्दुमतोजी भी संघ के साथ चली।
जब नागौर में मुनिराज आचार्य श्री वीरसागरजी का चातुर्मास हुआ तब आपने उनसे आर्यिका दीक्षा ली और अपनी साधना पूरी की । उनके संघ में रहकर आपने अनेक तीर्थों की यात्रा की। आपने भारतवर्ष के समस्त प्रान्तों में विहार कर धर्म प्रभावना की है।
सन 1982 में तीर्थराज सम्मेदशिखरजी पर आपको अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया गया था । आपने उसे स्वीकार नहीं किया । धन्य है आपका त्याग तथा सिंहवत्ति जीवन । ८० वर्ष की उम्र में आप परम शान्त जितेन्द्रिय हैं । जिनागम पर आपकी अपार आस्था है।
Book written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
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Book written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
आर्यिका श्री १०५ इंदुमती माताजी
आचार्य श्री १०८ वीर सागरजी महाराज १८७६ Acharya Shri 108 Veer Sagarji Maharaj 1876
VeerSagarJiMaharaj1876AcharyaShantiSagarji
Aryika Shri 105 Indumati Mata ji was born in the year 1905 in Deh Gram,Marvaad.Her name was Mohini bai before diksha.She received the initiation from Acharya Shri 108 Veer Sagar Ji Maharaj.
Book written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
Aryika Shri 105 Indumati Mataji
आचार्य श्री १०८ वीर सागरजी महाराज १८७६ Acharya Shri 108 Veer Sagarji Maharaj 1876
आचार्य श्री १०८ वीर सागरजी महाराज १८७६ Acharya Shri 108 Veer Sagarji Maharaj 1876
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VeerSagarJiMaharaj1876AcharyaShantiSagarji
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IndumatiMataJi1905VeerSagarJiMaharaj
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