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#ParswamatiMataJiVeerSagarJiMaharaj
Aryika Shri 105 Parswamati Mata ji was born in Kheda gram,Jaipur,Rajasthan.Her name was Genda bai before diksha.She received the initiation from Acharya Shri 108 Veer Sagar Ji Maharaj.
आर्यिका पार्श्वमतीजी
आसोज बदी तृतीया विक्रम सम्बत् १६५६ के दिन जयपुर के खेड़ा ग्राम में बोरा गोत्रम आपका जन्म हा था। जन्मके समय माता-पिताने पापका नाम गेंदाबाई रखा।
आपके पिताका नाम मोतीलालजी एवं माताका नाम जड़ावबाईजी था । आप अपने तीन भाइयों के बीच अकेली लाड़ली बहिन थीं। समयका दुखदायी चक्र चला और आपके दो भाई असमय में ही इस नश्वर संसारसे विदा हो गए । संसारकी इस असारता को देखकर आपके छोटे भाई ब्रह्मचारी मूलचन्द्रजीने धर्मका आश्रय लिया जो आजकल आत्म-कल्याणकी ओर तत्पर हैं।
जीविकोपार्जनके उद्देश्य से आपके पिता श्री सपरिवार खेड़ा ग्रामसे जयपुर चले आये थे और मोदीखानेका व्यवसाय करने लगे थे। उस समय आपकी उम्र मात्र पाँच वर्षकी थी।
जब आपको अवस्था आठ वर्षकी हुई तब आपके पिता श्रीने आपका पाणिग्रहण जयपुर निवासी श्रीमान् लक्ष्मीचन्द्रजी कालाके साथ सम्पन्न कर दिया। आपके स्वसुर श्री सेठ दिलसुखजी अच्छे सम्पन्न प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। सात ग्रामकी जमींदारी आपके हाथ थी। स्वसुर घरके सभी व्यक्ति योग्य और सुशिक्षित थे, फलत: आपकी विशेष धार्मिक शिक्षा भी स्वसुर घर पर ही हुई। इसके पूर्व आपकी स्कूली शिक्षा मात्र कक्षा तीन तक ही थी। आपके पति श्री लक्ष्मीचन्द्रजी काला एक होनहार और कर्तव्यशील व्यक्ति थे तथा अध्यापनका कार्य करते थे। अध्यापन कार्यके साथ ही अध्ययन में भी आपने उत्तरोत्तर वृद्धि की किन्तु बी० ए० पास करने के दो माह बाद ही दुर्दैव वश इनका अचानक असमय में स्वर्गवास हो गया। कर्मकी इस दखदायी गतिके कारण यौवनावस्था में ही आपको वैधव्य धारण करना पड़ा। उस समय आपकी उम्र २४ वर्षकी थी। आपको अपने गार्हस्थ जीवनकी अल्प अवधिमें सन्तानका सख प्राप्त न हो सका। संसार की इस दुखदायी असारताने आपके अन्तरमें वैराग्यकी प्रबल ज्योतिको जला दिया। आप उदासीन वृत्तिसे घरमें रहकर नियम व्रतोंका कठोरतासे पालन करने लगीं।
आपकी आत्माका कल्याण होना था अतः वैधव्य प्राप्त करने के ८-६ वर्ष बाद विक्रम सम्बत में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागरजी महाराजसे जयपुर खानियां में ७ वी प्रतिमाके व्रत अङ्गीकार कर लिए। आपके परिणामोंमें निर्मलता आई और अन्तरमें वैराग्य का उदय फलतः विक्रम सम्बत् 1997 में आचार्य वर श्री वीरसागरजी महाराजसे सकनेर में क्षुल्लिका की दीक्षा ग्रहण कर ली।
इस अवस्थामें आकर आपने कठोर व्रतोंका अभ्यास किया और ज्ञान-चारित्रमें उत्तरोत्तर वृद्धिकी जिससे आपकी आत्मा में प्रबल वैराग्य की ज्योति जगमगा उठी, फलत: रविवार आसौज बदी पूर्णमासी विक्रम सम्बत् २००२ में प्रातः समय झालरापाटन में अपार जन-समूहके बीच जय-ध्वनिके साथ आचार्य वीरसागरजी महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण करली । इस प्रकार अपनी आत्माको तप और साधनासे उज्ज्वल करती हुई ज्ञान और चारित्रके माध्यम से मुक्तिके मार्ग पर अग्रसर हैं ।
Book written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
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Book written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
आर्यिका श्री १०५ पार्श्वमती माताजी
आचार्य श्री १०८ वीर सागरजी महाराज १८७६ Acharya Shri 108 Veer Sagarji Maharaj 1876
VeerSagarJiMaharaj1876AcharyaShantiSagarji
Aryika Shri 105 Parswamati Mata ji was born in Kheda gram,Jaipur,Rajasthan.Her name was Genda bai before diksha.She received the initiation from Acharya Shri 108 Veer Sagar Ji Maharaj.
Book written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
Aryika Shri 105 Parswamati Mataji
आचार्य श्री १०८ वीर सागरजी महाराज १८७६ Acharya Shri 108 Veer Sagarji Maharaj 1876
आचार्य श्री १०८ वीर सागरजी महाराज १८७६ Acharya Shri 108 Veer Sagarji Maharaj 1876
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