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#SuparswamatiMataJi(Mainsar)VeerSagarJiMaharaj
Aryika Shri 105 Suparswamati Mata ji was born in Mainsar,Dist-Nagaur,Rajasthan.Her name was Bhanwari before diksha.She received the initiation from Acharya Shri 108 Veer Sagar Ji Maharaj.
आज दिगम्बर जैन समाज में जहां अनेक तपस्वी विद्वान आचार्य मुनिगण विद्यमान हैं वहीं अपने तप और वैदुष्य से विद्वत्संसार को चकित करने वाली आर्यिका साध्वियां भी विद्यमान हैं। इन्हीं में से एक हैं आर्यिका १०५ श्री सुपार्श्वमती माताजी। आपकी बहुज्ञता, विद्या व्यासंग, सूक्ष्म तलस्पशिनी बुद्धि, अकाव्यतर्कणा शक्ति एवं हृदय ग्राह्य प्रतिपादन शैली अद्भुत है और विद्वत् संसार को भी विमुग्ध करने वाली है।
राजस्थान के मरुस्थल नागौर जिले के अन्तर्गत डेह से उत्तर की ओर १६ मील पर मैनसर नाम के गांव में सद् गृहस्थ श्री हरकचन्दजी चूड़ीवाल के घर वि० सं० 1985 मिती फाल्गुन शुक्ला नवमी के शुभ दिवस में एक कन्यारत्न का जन्म हुआ-नाम रखा गया "भंवरी" । भरे पूरे घर में भाई बहिनों के साथ बालिका भी लालित-पालित हुई पर तब शायद ही कोई जानता होगा कि यह बालिका भविष्य में परमविदूषी आर्यिका के रूप में प्रकट होगी।
अपने घरों में कन्या के विवाह की बड़ी चिन्ता रहती है और यही भावना रहती है कि उसके रजस्वला होने से पूर्व ही उसका विवाह संबंध कर दिया जाय । भंवरीबाई भी इसका अपवाद कैसे रह सकती थी । उनका विवाह १२ वर्ष की अवस्था में ही नागौर निवासी श्री छोगमलजी बड़जात्या के ज्येष्ठ पुत्र श्री इन्दरचन्दजी के साथ कर दिया । परन्तु मनचाहा कब होता "अपने मन कुछ और है विधना के कुछ और" विवाह के तीन माह बाद ही कन्या जीवन के लिये अभिशाप स्वरूप वैधव्य ने आपको आ घेरा। पति श्री इन्दरचन्दजी का आकस्मिक निधन हो गया। आपको वैवाहिक सुख न मिला विवाह तो हुआ परन्तु कहने मात्र को । वस्तुत: आप बाल ब्रह्मचारिणी ही हैं।
अब तो भंवरीबाई के सामने समस्याओं से घिरा सुदीर्घ जीवन था । इष्ट वियोग से उत्पन्न हुई असहाय स्थिति बड़ी दारुण थी। किसके सहारे जीवन यात्रा व्यतीत होगी ? किस प्रकार निश्चित जीवन मिल सकेगा? अवशिष्ट दीर्घजीवन का निर्वाह किस विधि होगा? इत्यादि नाना भांति की विकल्प लहरियां मानस को मथने लगीं। भविष्य प्रकाश विहीन प्रतीत होने लगा। संसार में शीलवती स्त्रियां धैर्यशालिनी होती हैं, नाना प्रकार की विपत्तियों को वे हसत हंसते सहन करती हैं। निर्धनता उन्हें डरा नहीं सकती, रोग शोकादि से बे विचलित नहीं होती परन्तु पति वियोग सदृश दारुण दुःख का वे प्रतिकार नहीं कर सकती हैं, यह दु:ख उन्हें असह्य हा जाता है।
ऐसी दुखपूर्ण स्थिति में उनके लिए कल्याण का मार्ग दर्शाने वाले विरले ही होते हैं और सम्भवतया ऐसी ही स्थिति के कारण उन्हें "अबला" भी पुकारा जाता है। परन्तु भंवरीबाई में आत्म-"धर्म" बल प्रकट हुआ उनके अन्तरंग में स्फूरणा हुई कि इस जीव का एक मात्र सहायक या अवलम्बन धर्म ही है । अपने विवेक से उन्होंने सारी स्थिति का विश्लेषण किया और महापुरुषों व सतियों के जीवन चरित्रों का परिशीलन कर धर्म को ही अपनी भावी जीवन यात्रा का साथी बनाने का दृढ़ निश्चय किया। अब पितृ घर में ही रह कर प्रचलित स्तोत्र पाठादि, पूजन स्वाध्यायादि में ही अपनी रुचि जागृत की । माता पिता के संरक्षण में इन क्रियाओं को करते हुए आपके मन को बड़ी शांति मिलती।
अब आपका अधिकांश समय धर्म ध्यान में ही बीतता, संसार से विरक्ति की भावना की जड़ें पनपने लगीं । अपनी ७-८ वर्ष की आयु में आपको महान् योगी तपस्वी साधुराज १०८ आचार्य कल्प श्री चन्द्रसागरजी महाराज के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ था जब वे डेह से लालगढ़, मैनसर पधारे थे।
विक्रम सम्वत् २००५ का चातुर्मास नागौर में पूर्ण कर आर्यिका १०५ श्री इन्दुमती माताजी भदाना, डेह होते हुए मैनसर पहुंची थी। भंवरीबाई आपका सान्निध्य पाकर बहुत प्रमुदित हुई । माताजी के संसर्ग से वैराग्य की भावना बलवती हुई । भंवरीबाई को माताजी के जीवन से बहुत प्रेरणा मिली माताजी भी वैधव्य के दु:ख का तिरस्कार कर संयम मार्ग में प्रवृत्त हुई थी। भंवरीबाई को आर्यिकाश्री से अमूल्य वात्सल्य प्राप्त हुआ और उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि आत्मकल्याण का सम्यग्मार्ग तो यही है, शेष तो भटकना है। अतः आपने मन ही मन संयम ग्रहण करने का निश्चय किया। अब से आप माताजी के साथ ही रहने लगीं। आपके साथ ही रहकर अनेक तीर्थक्षेत्रों अतिशय क्षेत्रों आदि के दर्शन करती हुई मुनिसंघों की वैयावृत्ति व आहार दान का लाभ लेती ही नागौर, सुजानगढ़, मेडतारोड़, ईसरी, शिखरजी, कटनी, पार्श्वनाथ ईसरी आदि स्थानों पर वर्षा में रहकर जयपूर खानियां में आचार्य १०८ श्री वीरसागरजी के संघ के दर्शनार्थ पहंची। आचार्यश्री वहां चातुर्मास हेतु विराज रहे थे । आर्यिका इन्दुमतीजी ने भी श्वा आचार्य संघ के साथ चातुर्मास वहीं किया।
आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज ने भंबरीबाई के बैराग्य भाव, अच्छी स्मरण शक्ति एवं स्वाध्याय को रुचि देखकर संघस्थ ब्रह्मचारी श्री राजमलजी को (वर्तमान में विद्वान मुनि १०८ श्री अजितसागरजी) आज्ञा दी कि ब्र० भंवरीबाई को संस्कृत, प्राकृत का अध्ययन कराये तथा अध्यात्म ग्रन्थों का स्वाध्याय कराये । विद्यागुरु का ही महान प्रताप है कि आप आज चारों ही अनुयोगों के साथ साथ संस्कृत भाषा में भी परम निष्णात हो गई । ज्यों ज्यों आपका ज्ञान बढ़ने लगा उसका फल वैराग्य भी प्रकट हुआ।
वि० सं० २०१४ भाद्रपद शुक्ला ६ भगवान सुपापर्वनाथ के गर्भ कल्याणक के दिन विशाल जनसमूह के मध्य द्वय आचार्य संघों की उपस्थिति में ( आचार्य १०८ श्री महावीरकीतिजी महाराज भी तब ससंघ वहीं विराज रहे थे ) ब्र० भंवरीबाई ने आचार्य १०८ श्री बीरसागरजी महाराज के कर कमलों से स्त्री पर्याय को धन्य करने वाली आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। भगवान सुपार्श्वनाथ का कल्याणक दिवस होने से आपका नाम सुपार्वमती रखा गया । आचार्यश्री के हाथों से यह अन्तिम दीक्षा थी । आसोज बदी १५ को सुसमाधिपूर्वक उन्होंने स्वर्गारोहण किया।
नवदीक्षिता आर्यिका सुपार्श्वमतीजी ने पूज्य इन्दुमतीजी के साथ जयपुर से विहार किया। अनेक नगरों ग्रामों में देशना करती हुई आप दोनों नागौर पहुंची । पूज्य १०८ श्री महावीरकीतिजी ने वि० सं० २०१५ का वर्षायोग यहीं करने का निश्चय किया था । गुरुदेव के समागम से ज्ञानार्जन विशेष होगा तथा प्रसिद्ध प्राचीन शास्त्र भण्डार के अवलोकन का सुअवसर मिलेगा यही सोचकर आप नागौर पधारी थीं। यहां आपने अनेक ग्रन्थों का स्वाध्याय किया। गुरुदेव के साथ बैठकर अनेक शंकाओं का समाधान किया और आपके ज्ञान में प्रगाढ़ता आई।
बस्तुतः वि० सं० २००५ से ही आप मातृतुल्य इन्दुमतीजी के वात्सल्य की छत्रछाया में रही हैं । आज आप जो कुछ भी हैं उस सबका सम्पूर्ण श्रेय तपस्विनी आर्या को ही है। आपकी गुरुभक्ति भी श्लाघनीय है । माताजी की वैयावृत्ति में आप सदैव तत्पर रहती हैं।
आपका ज्योतिष ज्ञान, मंत्र, तंत्रों, यंत्रों का ज्ञान भी अद्वितीय है। आपके सम्पर्क में आने वाला श्रद्धालु ही आपकी इस विशेषता को जान सकता है अन्य नहीं।
आपकी प्रवचन शैली के सम्बन्ध में क्या लिखू ? श्रोता अभिभूत हुए बिना नहीं रह पाते । विशाल जनसमुदाय के समक्ष जिस निर्भीकता से आप आगम का क्रमबद्ध, धारा प्रबाह प्रतिपादन करती हैं तो लगता है साक्षात् सरस्वती के मुख से अमृत झर रहा है। आपके प्रवचन आगमानुकूल अकाट्य तर्कों के साथ प्रवाहित होते हैं। समझने के लिए व्यावहारिक उदाहरणों को भी आप ग्रहण सी हैं। परन्तु कभी विषयान्तर नहीं होती । चार चार, पांच पांच घण्टे एक ही आसन सपा चर्चा में निरत रहती हैं । उच्च कोटि के विद्वान भी अपनी शंकाओं को आपसे समीचीन समाधान पाकर संतुष्ट होते हैं।
सबसे बड़ी विशेषता तो आप में यह है कि आपसे कोई कितने ही प्रश्न कितनी ही बार कर आप उसका बराबर सही प्रामाणिक उत्तर देती हैं । और प्रश्न कर्ता को सन्तुष्ट करती हैं। आपके चेहरे पर खीज या क्रोध के चिह्न कभी दृष्टिगत नहीं होते।
अब तक के जीवन काल में आपके असाता कर्म का उदय विशेष रहा है, स्वास्थ्य अधिकतर प्रतिकूल ही रहता है परन्तु आप कभी अपनी चर्या में शिथिलता नहीं आने देती । कई वर्षों से अलसर की बीमारी भी लगी हुई है कभी कभी रोग का प्रकोप भयंकर रूप से बढ़ भी जाता है फिर भी आप विचलित नहीं होती । णमोकार मंत्र के जाप्य स्मरण में आपकी प्रगाढ़ आस्था है और आप हमेशा यही कहती हैं कि इसके प्रभाव से असम्भव भी सम्भव हो जाता है। आपको वचन वर्गणा सत्य निकलती हैं । ऐसे कई प्रसंगों का उल्लेख स्वयं माताजी ने इन्दुमतोजी का जीवन चरित्र ( इसी ग्रन्थ का दूसरा खण्ड ) लिखते हुए किया है । दृढ़ श्रद्धान का फल अचूक होता है। निष्काम साधना अवश्य चाहिए।
आसाम, बंगाल, बिहार, नागालैण्ड आदि प्रान्तों में अपूर्व धर्मप्रभावना कर जैन धर्म का उद्योत करने का श्रेय आपको ही है। महान विद्यानुरागी, श्रेष्ठ वक्ता अनेक भाषाओं की ज्ञाता चतुरनुयोगमय जैन ग्रन्थों की प्रकाण्ड विदुषी, न्याय, व्याकरण, सिद्धान्त साहित्य की मर्मज्ञा, ज्योतिष यंत्र, तंत्र, मंत्र, औषधि आदि की विशेष जानकार होने से आपने सहस्रों जीवों का कल्याण किया है।
और आज भी आप कठोर साधना में लीन होते हुए स्वपर कल्याण में रत हैं।
(१) परम अध्यात्म तरंगिणी (२) सागार धर्मामृत (३) नारी चातुर्य (४) अनगार धर्मामृत (५) महावीर और उनका सन्देश (६) नय विवक्षा (७) पार्श्वनाथ पंचकल्याणक (८) पंचकल्याणक क्यों किया जाता है (8) प्रणामांजलि (१०) दश धर्म (११) प्रतिक्रमण (१२) मेरा चिन्तवन (१३) नैतिक शिक्षाप्रद कहानियां भाग-दस । (१४) प्रमेय कमल मार्तड (१५) मोक्ष की अमर बेल रत्नत्रय (१६) राजवात्तिक (१७) नारी का चातुर्य (१८) आचार सार (१६) लघु प्रबोधिनी कथा (२०) रत्नत्रय चन्द्रिका। आप तपस्विनी, स्वाध्यायशीला, व्यवहार कुशल, सौम्याकृति, शत्रुमित्र समभाबी हैं । आपने पूरा जीवन संसारी प्राणियों को करुणाबुद्धि पूर्वक सन्मार्ग दिखाने में तथा स्वयं कठोर तपस्या करने में लगाया।
आपने सैकड़ों लोगों को ब्रह्मचर्य व्रत एवं प्रतिमा के व्रत देकर उन्हें चारित्र मार्ग में दृढ़ किया। आप शान्त और निर्मल स्वभाव की धर्मपरायण माताजी हैं ।
Book written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
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Book written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
आर्यिका श्री १०५ सुपार्श्वमती माताजी
आचार्य श्री १०८ वीर सागरजी महाराज १८७६ Acharya Shri 108 Veer Sagarji Maharaj 1876
VeerSagarJiMaharaj1876AcharyaShantiSagarji
Aryika Shri 105 Suparswamati Mata ji was born in Mainsar,Dist-Nagaur,Rajasthan.Her name was Bhanwari before diksha.She received the initiation from Acharya Shri 108 Veer Sagar Ji Maharaj.
Book written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
Aryika Shri 105 Suparswamati Mataji (Mainsar)
आचार्य श्री १०८ वीर सागरजी महाराज १८७६ Acharya Shri 108 Veer Sagarji Maharaj 1876
आचार्य श्री १०८ वीर सागरजी महाराज १८७६ Acharya Shri 108 Veer Sagarji Maharaj 1876
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