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#SuramyasagarjiRayansagarjiMaharaj1995
Muni shri 108 SuramyaSagarji Maharaj recevied the initiation from Acharya Shri 108 Rayansagarji Maharaj 1995.
मुनिश्री१०८ सुरम्यसागर महाराज
लासुर्णेनिवासी श्री. हिरालालजी राघवजी गांधी वह लासर्न जैसे एक छोटे से गाँव में रहते थे और अपने जीवन में बहुत ही कठिन परिस्थितियों में ईमानदारी के साथ व्यापार करके अपनी सांसारिक और धार्मिक प्रगति की। गृहस्थ जीवन में उन्होंने अनेक भक्तों की सेवा इस प्रकार की मानो कोई व्रत हो। श्री शांतिसागर महाराज, श्री श्रेयांससागर महाराज, धर्मसागर महाराज और कई अन्य शहीदों को लासुरना लाया गया औरउन्होंने बहुत प्रभाव डाला।
उन्होंने कई भक्तों का नेतृत्व स्वीकार किया और उनके साथ चले। श्री श्रेयांससागर महाराज को लासुरना से कुंथलागिरि और वहां से मुक्तागिरि ले जाया गया। उन्होंने श्री धर्मसागर महाराज के साथ सम्मेद शिखरजी और गोमतेश्वर, श्रवणबेलगोल की भी यात्रा की। मांगीतुंगी में श्री पद्म भगवान (श्रीरामचंद्र) की 11 फीट की मूर्ति स्थापित की गई थी।
अनेक मन्नतें,व्रत-वैकल्ये कीं।प. पू. आ. रयणसागरजी महाराज से 22 नवंबर 1998 को उन्हेंने गजपंथ सिद्धक्षेत्री में क्षुल्लकपदकी दीक्षा ग्रहण कर ली। उस वक्त उनका नाम 105 क्षु. श्री अमोघसागर नाम रखा गया। दीक्षा के बाद वे संघ में रहकर अनेक शास्त्रों का अध्ययन करते रहे। वह अपना अधिकतर समय ध्यान में बिताते हैं। आचार्यश्री के साथ उनका चातुर्मास लोहारिया, ईडर, डूंगरपुर, सागवाड़ा, विजयनगर, उदयपुर में हुआ। अंतिम चातुर्मास राजस्थान के प्रसिद्ध क्षेत्र अनिंदापार्श्वनाथ में हुआ था। पिंछी परिवर्तन के दिन, उनके बेटे डॉ. सशांत गांधी अपनी मां सुलोचनाबाई और गांधी परिवार के साथ दर्शन के लिए आए। दो दिन रुकने के बाद उसने उन्हें खाना खिलाया और भोजन कराया। वे अपना दीक्षा दिवस मनाकर वापस जा रहे थे जो दो दिन बाद ही आने वाला था। लेकिन दिन ठंडे थे और अमोघसागर महाराज का स्वास्थ्य अचानक बिगड़ गया। डॉ. सशांत गांधी को लगा की अमोघसागर महाराज की तबीयत ठीक नहीं हैं। अत: उन्होंने आचार्य से चर्चा करके सुझाव दिया कि क्षुल्लकजी को मुनिदीक्षा दिलाकर उनसे उपदेश देना चाहिए। अमोघसागर ने भी अपनी सहमति दिखाई।
समग्र स्थिति को देखते हुए आचार्यश्री ने समस्त परिवार एवं समाज की उपस्थिति में उन्हें औपचारिक मुनिदीक्षा दी। उनका नाम प. पू. १०८ सुरम्यसागर महाराज रक्खा गया।उस समय उन्होंने सबसे पहले गुरु और परिवार से माफ़ी मांगी, प्रायश्चित्त किया। शाम के समय क्षमा भाव से ॐ नमः सिद्धेभ्यः मंत्र का जाप करें। 21 नवंबर 2005 को शांता चित्त स्वर्ग सिधार गईं। इसके बाद सभी परिवारों को मिलाया गया और सभी भावुक होकर वापस आ गया। उनके चार बेटे और एक बेटी है। हर किसी के धार्मिक संस्कार होते हैं और उन सभी के अपने-अपने धार्मिक संस्कार हैं। बिजनेस में खुश हैं।
महाराज के पूर्व आश्रम की धर्मपत्नी सुलोचनाबाई धार्मिक प्रवृत्ति की होने के कारण अनेक व्रत-उपवास करके तथा भक्तों की सेवा करके अपना समय धार्मिक चिंतन में व्यतीत करती हैं। उनके चार बच्चे हैं मि. रमेश और श्रीमती सुषमा, लासर्न, श्री. स्वच्छंद और श्रीमती सुजाता, लासर्न, डॉ. सशांत और श्रीमती राजश्री, वालचंदनगर,श्री. निर्मल कुमार एवं श्रीमती नमिता, बारामती-भवानीनगर और बेटी श्रीमती शोभा अशोक कुमार दोषी, वीट सभी अपने-अपने स्थानों पर व्यवसाय में लगे हुए हैं और धार्मिक गतिविधियों में भी लगे हुए हैं।
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मुनि श्री १०८ सुरम्यसागर महाराज
आचार्य श्री १०८ रयन सागरजी महाराज १९५५ Acharya Shri 108 Rayan Sagarji Maharaj 1955
RayansagarJiMaharaj1955DayasagarJi
Muni shri 108 SuramyaSagarji Maharaj recevied the initiation from Acharya Shri 108 Rayansagarji Maharaj 1995.
Muni Shri 108 Surymasagarji Maharaj
आचार्य श्री १०८ रयन सागरजी महाराज १९५५ Acharya Shri 108 Rayan Sagarji Maharaj 1955
आचार्य श्री १०८ रयन सागरजी महाराज १९५५ Acharya Shri 108 Rayan Sagarji Maharaj 1955
Acharya Shri 108 Rayansagarji Maharaj 1995
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RayansagarJiMaharaj1955DayasagarJi
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