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# VidyaSagarJiMaharaj1527
Muni Shri 108 Vidya Sagarji Maharaj was born in the year 1527 in Akiwat, Kolhapur, Maharashtra. His name was Buddhiraj before diksha.
महामुनी विद्यासागर महात्म्य महाराष्ट्र प्रांत के कोल्हापूर जिले के शिरोळ तहसील में यह अकिवाट है। अकिवाट ग्राम कृष्णा नदि के किनारे बसा हुआ है। यह ग्राम भूतल से कुछ ऊपर रहने से सब तरफ चारों ओर से सृष्टी सौंदर्य से भरा है। यहाँ के लोगोंका मुख्य व्यवसाय कृषि है। ये लोग कृषिक होते हुए भी धर्म प्रेमि, शांति प्रिय और सरल स्वभावी है।
अकिवाट ग्राम का नाम एक+वाट अकिवाट। इसका मतलब गाँव के लिए एक ही रास्ता था। जब छत्रपति शिवाजी महाराज के समय जगह जगह इनामदारों ने कर (महसूल) वसूल करके, अकिवाट ग्राम में इक्कट्टा करते थे। यहाँ से राजा को समर्पण करते थे। इसलिए इस ग्राम की सुरक्षा के लिए चारों ओर से कोट से घेरा होकर एकही तरफ रास्ता था। इसी कारण से यह ग्राम अपनाही एक विशिष्ट स्थान पाया। ऐसे विशेष स्थल को १०८ श्री विद्यासागर महाराज ने अपना समाधि स्थल चून लिया। इससे इस ग्राम की कीर्ति और भी ऊँची उठी। श्री विद्यासागरजी महाराजजी का प्रभाव मानो या इस भूदेवि का गुण मानो, यहाँ का वातावरण बहुतही शांत, निरूपद्रव और धार्मिक है।
भूपर जब जैनधर्म पर आपत्ती, संकट आते तो समय समय पर संकल्पशील,आत्मबलिदानी,आचार्यों की परंपरा सतत बनी रही है। ऐसे ही धर्म की रक्षा के लिए आत्म बलिदानि संख्याओं मे श्री १०८ श्री विद्यासागरजी का नाम प्रमुख है।
जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र के आर्यखंड में गुरूद्वार नाम का एक नगर था। वहाँ पर जिनमंदिरों पर ध्वजाएँ फहराती हुयी मानों भव्य जीवो नाराधना हेतु अपनी ओर बुलाया ही करती थी। इस नगर के राजा का नाम वज्रशंख था, जो कि इंद्र के समान वैभवशाली, सुंदर, पराक्रमी, परोपकारी, जिनधर्म भक्त और प्रजावत्सल आदि गुणों से अलंकृत था। उसकी राणी का नाम मृदुमति थी। जो कि पतिवत्य आदि गुणों की खान थी और धर्म परायणी थी। उसकी कोख से वीर संवत् २०५३ इ.स.१५२७ में भाद्रपद शुक्ल पक्ष गुरूवार के दिन ८.३५ मि. सुबह हस्ता नक्षत्र में पुत्ररत्न जन्म लिया।
राजा ने यह शुभवार्ता सुनकर पुत्र का जन्मोत्सव बडे धूमधाम से मनाया था। जिनमंदिरों मे पूजा महोत्सव करके, लोगों को किमिछिक दान से संतुष्ट किया था। इसी प्रकार ग्यारह दिन तक जन्ममहोत्सव चल रहा था। बारहवे दिन पुत्र का नामकरण विधि करके पुत्र का 'बुध्दिराज' नाम रखा गया। बुध्दिराज शुक्लपक्ष के चंद्रमा की तरह बढने लगा। सद्गुणों के साथ बाल को चारवर्ष पूर्ण होने से पाँचवे वर्ष में विद्याअभ्यास करने के लिए अच्छे गुरू के पास रख गये । जब बुध्दिराज आठ वर्ष का हो गया तब वज्रशंख राजा उसके मौजि बंधन के लिए कोल्हापूर के भट्टारक गुरू महाराजजी को निमंत्रित किया। उन्हीं से शुभमुहूर्त पर उनका मौजीबंधन विधि किया गया। भट्टारक महाराज बुध्दिराज के जन्म पत्रिका, उनका सामुद्रिक लक्षण देखकर जान लियाँ कि बालक आगे बडा ज्ञानी, सध्दर्मवादी होगा। इसलिये उन्होंने बालक को राजा के सम्मति से अध्ययन के लिए अपने साथ कोल्हापूर लेकर आये।
बुध्दिराज बहुत ही बुध्दिमान था। थोडे ही समय में काव्य व्याकरण, अलंकार, सिध्दांत, न्याय आदि शास्त्रों का अध्ययन करके उसमें बडे ज्ञानी हो गये। बुध्दिराज, आश्रम मे सब छात्रों में अत्यंत बुध्दिमान, विनयवान होने से, उन पर उनके गुरू की अत्यंत प्रेम और निष्ठा बैठी थी।
इधर वज्रशंख राजा को मृगांक राजा और रत्नशेखर दो पत्र विलासदेवि और शांतादेवि दो पुत्री हो गये। राजा वज्रशंख अपना बडे पुत्र विवाहयोग्य होने के कारण, उनका विवाह करने के लिए उनको बुलाने के लिए कोल्हापूर आ गये। राजा ने गुरू के साथ बुध्दिराज के विवाह के बारे में चर्चा की। गुरू महाराज अपने शिष्य बुध्दिराज को बुलाकर सब बात बताई। जब बुध्दिराज ने गुरू के मुख से विवाह का प्रस्ताव सुना तो, उन्होंने कहा कि 'मैने मौजी बंधन के समय ब्रह्मचर्यव्रत धारण किया है। अभी भी मैं देव शास्त्र गुरू के समक्ष अखंड ब्रह्मचर्य व्रत पालन करूँगा' ऐसी प्रतिज्ञा ली है। और कहा कि विवाह करने की राजवैभव भोगने की मेरी इच्छा नहीं है 'ऐसे अपने दृढ वैराग्य भाव को व्यक्त करके गुरू के पास जिनदीक्षा देने के लिए प्रार्थना की।
यह देखकर वज्रशंख राजा को बहुत दुःख हुआ तो उन्होंने बालक को घर लाने के लिए बहुत कोशिश की परंतु इसका कोई असर न हुआ। तब राजा बडे दुःख से वापिस अपने नगर आ गये।
भट्टारक महाराज बालक का दृढ वैराग्य देखकर उनकी १५ वे वर्ष की उमर में इ.स.१५४२ वैशाख कृष्ण तृतिया को अनुराधा नक्षत्र में ऐलक दीक्षा प्रदान किये उनका नाम विद्यासागर रख दिया।
उसके बाद उन्होंने व्रत, तप, जप आदि निरतीचार से पालन कर अनेक विद्या देवताओं को वश मे कर लिए। शिष्य की निरतिचार चर्या को देख गुरू ने इ.स.१५४५ पौष्य शुक्ल सप्तमी शुक्रवार रेवती नक्षत्र में दिगंबर दीक्षा दी। तब उनका वय अठराह वर्ष का था। उसी समय भट्टारक महाराज अपने शिष्य विद्यासागर को अपने पट्टशिष्य करने के बारे में प्रधान मंडळ के सामने निश्चय किया।
तब दिल्ली में अकबर बादशहा राज्य करता था। वे बडे बुध्दिमान चतुर, पराक्रमी थे। एक बार उनके मन में समाज में से सब धर्मों के तत्त्वों की परीक्षा करने का विचार आ गया। इसलिए उन्होंने सभी धर्मों के विद्वान लोंगों को निमंत्रण देकर कहा कि सर्व धर्मों के तत्त्वों की परीक्षा करना है। आप सब ने अपने अपने धर्म गुरूओ के साथ दरबार में उपस्थित रहना। तब सब लोगो ने अपने अपने गुरुओं को दरबार मे उपस्थित कर दिये। परंतु जैन धर्म के कोई गुरू नजर नहीं आये। यह देखकर बादशहा ने जैनियों को आज्ञा दी कि कल आप लोग अपने गुरू को दरबार में उपस्थित करो। उस वक्त जैन धर्म के गुरू उस तरफ कोई नहीं थे। इसलिए उन्होंने बादशहा से बिनती की, कि हमारे धर्मगुरू इधर कोई नहीं है, वे कोल्हापूर में रहते है। इस वक्त उनको बुलाना कठीन है वे त्यागी है गाडी, मोटरकार इस्तमाल नही करते, वे पैदलही विहार करते है। इसलिए हमें छह महिने का मुदत मिलना चाहिए। यह सुनकर बादशहा ने उन्हे छ: महिने मुदत देकर बताया कि यदि आप लोग इस मदत में अपने गुरू को उपस्थित नहीं कर दिया तो सब आपको मुसलमान धर्म स्वीकार करना चाहिए। जैन श्रावक लोगों ने बादशहा की आज्ञा स्विकार कर लिये।
बाद में वहाँसे कुछ प्रमुख लोग पदयात्रा से तीन महिने केला कोल्हापुर पहूँचे। उन्होंने अपने धर्मगुरू का दर्शन लेकर आने उद्देश्य बताया। तब गुरू महाराज ने धर्म रक्षा के लिए अपने दिन शिष्य विद्यासागरजी को दिल्ली जाने की आज्ञा दी। श्रावकों ने की विद्यासागरजी को जल्द से जल्द अपने साथ दिल्ली आने के लिए कहा। यह सुनकर श्री विद्यासागरजी बोले कि आप बिल्कुल चिंता न करें, इसके बारे मे हम योग्य योजना करेंगे आप निश्चिंत रहे। गुरू वचन प्रमाण मानकर सब लोग निश्चिंत हो गये। इसी तरह दो महिने बीत गये, तिसरा भी समाप्त होने को आया। फिर भी जाने की कोई तैयारी नहीं। श्रावकों को बड़ी चिंता होने लगी।
जब मुद्दत दो तीन दिन बाकी थे तब श्रावक लोग (दिल्लीसे आये हुए) विद्यासागरजी को आनेवाली मुश्कील के बारे में बताया। फिर से विद्यासागरजी ने कहा कि तुम्हारे मुद्दत में वहाँ हम सब लोग अवश्य जायेंगे। यह सुनकर सब को बड़ा आश्चर्य हुआ।
यहाँ दिल्ली में जैन लोग दुविधा में पडे कि कल हमे धर्म भ्रष्ट होना है, इस चिंता मे रात बीताने लगे । बादशहा भी कल सब जैन लोग हमारा मुसलमान धर्म को अपनायेंगे इस खुशी में थे।
इतने में उस दिन रात को श्री विद्यासागर महाराजजी ने अपने मंत्र शक्ति से विद्या देवताओं को बुलाकर आज्ञा की 'इसी समय सब लोगों के साथ हमें दिल्ली बगीचा में पहुँचा दीजीए।' तब उन्होने उनके आज्ञा के अनुसार सब श्रावकों सहित आकाश मार्ग से लेकर दिल्ली पहुंचा दिये।
सुबह दिल्ली में मंगलवाद्य होने लगे। महाराज जी के पास के लोगों को लगा कि ये सच है या सपना। अच्छी तरह जागकर उन्होंने देखा तो वे सच मे ही दिल्ली शहर पहुंचे है। उन्होंने अंदर ही अंदर विद्यासागर महाराजजी को कृतकृत्य मान रहे थे।
बादशहा मंगलवाद्य के आवाज से जागृत होकर यह मंगलवाद्य कहाँ और क्यों हो रहा है? विचार करने लगे, तथा वनपालक ने आकर कहा कि, 'जैन धर्म गुरूजी अपने अनुयायी सहित आकर उद्यान में विराजमान है।' यह खबर मिलते ही बादशहा जैन गुरू के दर्शन के लिए अपने परिवार सहित अन्य धर्म गुरूओं के साथ गुरू के पास चले आते है। उस मे कोई धर्म गुरू हाथी पर, कोई सिंह पर, कोई वाघ पर सवार होकर अपनी विद्या की महती जैन गुरू को दिखाने के लिए आ गये। यह देखकर श्री विद्यासागरजी महाराज अपने मंत्र शक्ति से जिस पत्थर पर वे बैठे थे उसी पत्थर पर सवार होकर हवाई मार्ग से उनके सामने गये। जैन गुरू की यह अद्भुत कृति देखकर सब लोग अचंबित रह गए। अपनी विद्याओं की शक्ति दिखानेवाले अन्य धर्म-गुरू शर्मिंदा होकर वापस चले गये।
बाद में अकबर बादशहा ने अपना दरबार बुलाया। सब गुरूओं को निमंत्रण कर दिये। धर्म की चर्चा, वाद-विवाद शुरू हुआ। श्री विद्यासागरजी महाराज, अपने स्यादवाद मत से अन्य मतको खंडन कर के विजयी हुए। इस प्रकार कुछ दिनों तक चर्चा चलती रही। प्रति दिन श्री विद्यासागरजी को विजय प्राप्त होता देखकर अन्य धर्मगुरू खुद को अपमानित महसूस करने लगे और विद्यासागरजी से इर्षाभाव करने लगे। उन्होंने बादशहा से कहा कि उसे मांस का नजराणा भेज दिया जाए। इसप्रकार बादशहा ने एक बर्तन में माँस के टुकडे भरकर एक सेवक के हाथों भेज दिया। इस दुष्कृत्य को अपने विद्याशक्ति से जानकर दूर से ही उस सेवक से कहा कि बादशहा का नजराणा पहुँच गया। उससे मै संतुष्ट हूँ अब हमारा आशीर्वाद उनतक पहुँचा दो। सेवक को दूर से ही वापिस कर दिया। सेवक आश्वर्यचकित होकर वैसाही जाकर जैन मुनि आपको आशीर्वाद दिये है ऐसा बताकर बादशहा के सामने नजराणा रख दिया। बादशहा ने उस बर्तन से वस्त्र निकालकर झाँक के देखा तो, जितने मांस के टुकडे थे उतने ही सुंदर पुष्प उसमें दिखाई दिये। बादशहा ने इससे प्रभावित होकर जैन मुनि की प्रशंसा की। गुरू की यह महिमा देखकर बादशहा तथा बेगम के मन में जैन गुरूओं के बारे में पूज्यभाव, श्रध्दा उत्पन्न होकर वे महाराजजी के दर्शन कर के धन्य हो गये। बादशाह ने महाराज जी का प्रभाव देखकर उन्हे सत्तर बिरूदावली दे दिये।
यह दृश्य देखकर-सुनकर बादशहा के कई सरदारों के मन में जैम धर्म के बारे में तिरस्कार उत्पन्न हुआ। वे लोग गुस्से से इर्षा भाव से जैन धर्म को नष्ट करने हेतु कर्नाटक प्रांत के विजापूर जिले के हैदरअलि और निजामअलि आदि सरदारो ने जैन मूर्ती तथा जैन मंदिरो को नष्ट करने का प्रयास किया। इसकी खबर दिल्ली मे विराजमान श्री विद्यासागरजी को मिली। उन्होंने ऐसा चमत्कार किया कि मूर्ती नष्ट करनेवालों के हाथ में से शस्त्र निकालकर वापस उनके मस्तक पर वार करने लगे। तब वे घबराकर भागने लगे। ऐसे संकट में कई जैन बंधुओ ने जैन मंदिर और मूर्तीयों को नष्ट न हो जाए इस भय से जमीन में गाढकर सुरक्षित रख दिये। इस काल में जमीन से पुरानी जिन प्रतिमाएँ मिलती है। इस का मुख्य कारण यही है।
जब यह भयंकर आश्चर्यकारक घटना की खबर दिल्ली मे बादशहा को मालुम हुई, तब बादशहाने जान लिया कि यह घटना श्री विद्यासागर महाराजजी के प्रभाव से ही हो गयी है । महाराज के पास जाकर सबकुछ घटना बताकर उनसे पूछा तो महाराजजी ने कहा कि अनिष्ट घटना देखकर हमने यह कृति की है। यह सुनकर बादशहा को बहुत अच्छा लगा। तब उन्होंने जैन धर्मपर आनवाले सब संकट दूर करने के लिए जैन गुरू के आहार-विहार के लिए उपसर्ग व प्रतिबंध न लाने के लिए ताम्र पत्रिका पर आज्ञा लिखकर दिया और जैन मंदिरो की रक्षा के लिए इनाम जमिन देकर, उसे भी ताम्रपट पर सनद कर के अर्पण किया। वह अभी भी कही जगह पर मिलते है।
इस प्रकार श्री विद्यासागरजी महाराज ने दिल्ली में धार्मिक वाद-विवाद मे विजय प्राप्त करके धर्म प्रभावना की बाद मे काशी प्रदेश मे विहार करके अनेक मिथ्यावादी लोगों से विवाद मे विजय प्राप्त कर लिये। बाद में विहार करते कोल्हापूर आ गये। उस वक्त महाराजजी को विहार में जाकर बारह वर्ष हो चुके थे। इनके गुरू अंतसमय में दुसरे शिष्य को अपने पदपर बिठाकर समाधिस्थ हुए थे। बाद में विद्यासागरजी कोल्हापूर से आकर नांदणी में मठ स्थापन किया।
इधर वज्रशंख राजा ने मृगांक को पट्टाभिषेक करके रत्नशेखर को युवराज पद दिया। खुद धर्म ध्यान में काल व्यतीत करने लगे। प्रौढावस्था में ही विलासदेवी और शांतादेवी इन्होने भी बालब्रह्मचारी में ही आर्यिका दीक्षालेकर धर्मध्यान करने लगे।
एक बार श्री विद्यासागरजी महाराज करूंदवाड आये थे। तब उनका शिष्य स्नान करने के लिए नदीपर गया था। वहाँ कपडे धोते समय एक ब्राह्मण ने प्रश्न किया, तुम कौन हो? तब शिष्य ने कहा मै श्री विद्यासागर दिगंबर जैन गुरू का शिष्य हूँ। ब्राह्मण ने फिर पूछा आज कौनसी तिथी है? तब शिष्य ने कहा आज पूनम है। यह उत्तर सुनकर ब्राह्मण हँसने लगा। वहाँ आए हुए बाकी लोग भी हंसने लगे। शिष्य ने सभी को हंसते देख कर पूछा, कि आप मेरे प्रसंग पर ऐसे हंस क्यों रहे हो? तभी ब्राह्मण ने कहा, आज अमावस्या है और तुम पूनम कह रहे हो। तुम पागल हो क्या? तुम इतना पागल हो तो आपका गुरू तुमसे भी जादा पागल होगा। यह सुनकर शिष्य क्रोधित होकर कहा कि आज पूनम होकर भी तुम अमावस्या कह रहे हो इससे तुम सब लोग कितने पागल हो? यदि आज पूनम होगी तो तुम सब लोग जैन धर्म स्वीकार करने के लिए तैयार रहो नही तो मै आपका वैदिक धर्म स्वीकार करने के लिए तैयार हूँगा। ऐसी प्रतिज्ञा सुनकर सब लोगों को आश्चर्य लगा। उन्होंने उसके मतानुसार जैन धर्म स्वीकार करने के लिए तैयार हुए।
बाद में उस शिष्य ने अपने गुरू के पास आकर नदीपर सब बाते गुरू को बता दी। उस वक्त गुरू ने कहा कि तुम बडे होशीयार हो, आज अमावस्या होकर भी पूनम ऐसा बताकर उनसे ही प्रतिज्ञा लेकर आये हो। तब शिष्य ने कहा कि महाराज, आज अमावस्या ही है ये बात सच है, परंतु मेरे मुँह से यह बात निकली अब मै क्या करूँ? इसलिए आप यह बात सच करके दिखाईये यह मेरी आपसे विनम्र बिनती है। विद्यासागर महाराज ने उसे आश्वासन दिया और शाम को एक वर्तुल ताम्रपट पर यंत्र निकालकर उसका अभिमंत्रण करके उसे आकाश में छोड़ दिया। इधर अब ब्राह्मण लोग रात की घटना देखने के लिए आकुलित थे। तब पूर्णिमा की तरह पूर्व कि को चंद्रमा के उदय का आभास होने लगा। उस दिन रातभर चंद्रमा जैसा चंद्र आकाश में दिख रहा था। उस समय शिष्य ने कहा कि ऐसे जैन मुनि के पास शक्ती है। आपको विश्वास करके देखना है तो यह प्रकाश औरस चौरस बारह योजन है। इसके आगे नहीं। तब घोडेस्वार को भेजकर लोगों ने विश्वास कर लिया। दूसरे दिन वही ब्राह्मण जैन गुरू के पास आकर दर्शन लेकर वादेकी अनुसार उन्होंने जैन धर्म का स्वीकार किया। गुरू की प्रशंसा की उस ब्राह्मण ने अपने मठ में श्री १०८ विद्यासागर महाराज की पादुका स्थापित की।
आगे महाराजजी विहार करते हुए अकिवाट ग्राम में आये। उस समय अकिवाट के नाईक जालिम है, उनके पास बहुत संपत्ती है ऐसा जानकर निपाणीकर ने गाँव को बंदी बनाया। परंतु नाईक अपना दरवाजा बंद करके अंदर ही रह गये। तीन दिन तक अंदर बाहर व्यवहार बंद पड गया। अंदर के लोग अंदर बाहर के लोग बाहर ही रह गये। गाँव में पीने के पानी की व्यवस्था नही थी। इसलिए बड़ा संकट आया। पीने के पानी के अभाव में लोगों की दुर्दशा देखकर श्री विद्यासागरजी को दया आ गयी। लोगों का संकट दूर करने के लिए सब ने कहा कि, 'आप सभी घर से बर्तन लाकर मंदिर जी के आंगण में रख दिजिए और यहाँ से पानी लेकर जाइए।' उनके अनुसार लोगों ने अपने अपने बर्तन मंदिर के आंगण में रख दिए। महाराजजी ने सभी बर्तन को अभिमंत्रित लिंबू बांधकर आकाशमार्ग से पानी लाने के लिए के लिए छोड दिया। सभी बर्तन कृष्णा नदी से आकाश मार्ग से पानी लाकर देने लगे। आकाश मार्ग से बर्तन का गमनागमन घटना देखकर निपाणीकर को बहुत आश्चर्य हुआ। इस गाँव में कोई महात्मा जरूर है यह जानकर बारहवे दिन बंदिवान बनाए लोंगो को छोडकर वह वापस लौट गया। इस प्रकार कृष्णा नदी का पाणी मंत्र सामर्थ्य से लाकर उन्होंने गाँव के लोगों का संकट दूर किया।
आगे एक बार कुरूंदवाड के इनामदार (पटवर्धन) कुरुंदवाड के पास अपना मजुरी लोगो के निवास के लिए कुरूंदवाडवाडी (मजरेवाडी) गाँव बसाने का काम चालू किया था। यह वसाहत मिरज, सांगली, कोल्हापूर, कुरूंदवाड के इनामदार (पटवर्धन) के यहाँ मजुरी करनेवाले लोगों के रहने के लिए यह वसाहत बसाया जा रहा था। मकान बांधने का काम जितने दिनों में होता था, उतना सब काम रात के समय अकिवाट के बंडखोर लोग विध्वंस करते थे। तब विद्यासागर महाराज कुरुंदवाड ग्राम मे विराजमान थे। उस समय इनामदार ने यह घटना श्री विद्यासागरजी को सुनाया और उनसे आशीर्वाद मांगा। श्री विद्यासागरजी ने उन्हे भरोसा दिलाया, अपने मंत्र सामर्थ्य से रात के समय बहुत बड़ा कृत्रिम सैन्य निर्माण करके वहाँ खड़ा कर दिया। रोज की तरह अकिवाट के बंडखोर लोग वहाँ आये किंतु वहाँ खडे सैनिकों देखकर दूर से ही गोफन के द्वार उनपर पत्थर फेंकने लगे परंतु श्री विद्यासागर जी महाराज के मंत्रशक्ती के प्रभाव से गोफन से फेंके गये पत्थर वापस उन्हीं लोगों पर पड़ने लगे। इससे भयभीत होकर सभी बंडखोर लोग वापस भाग गए। इससे सदनामदार लोंगों को श्री १०८ विद्यासागर महाराजजी पर बहुतही श्रध्दा बैठी। इससे यह ज्ञात होता है कि यह मदा प्राणी मात्र का संकट निवारण किये, उनका रक्षण केवल जैनियों के लिए सीमित नही था। इसलिए आज भी प्रत्येक गुरुवार के दिन महाराजजी के समाधि स्थल (अकिवाट) पर अन्य लोग भी आप दर्शन लेकर जाते है। शके १९५९ मे स्यादवाद केसरी श्री १०८ पायसागर महाराज कुरुंदवाड ग्राम में विहार करते गये थे। उस समय वहाँ के कई ब्राह्मण आदि भक्तों ने विद्यानुवादी श्री विद्यासागर महाराजजी की निशानी तैयार करके अपने अपने घर में बिठाने का आते है क्या ऐसा पूछते थे। इससे विद्यासागर महाराजजी पर सब जाति धर्म के लोगों की कितनी श्रध्दा और प्यार था यह स्पष्ट होता है। मंत्र, विद्यासामर्थ्य से चरित्रनायक (विद्यासागरजी) ने बहुत धर्म प्रभावना की। उन्होने आगे अपने योग्य शिष्य को पट्टपर बिठकर नियम सल्लेखना स्वीकार किया।
बाद में उन्होंने आत्मयोग से कर्म को नष्ट करने अपनी अंतरात्मा की उन्नति करने लगे। अंत समय में (मजरेवाडी यहाँ) कुरूंदवाडवाडी में अपना हमेशा के लिए बसेरा किया। अंत काल जानकर यमसल्लेखन व्रत धारण किया। उस समय उनके शिष्य ने उनसे पूछा कि, 'महाराज अपने शरीर का अंत्यसंस्कार कहाँ करे?' महाराजजी ने कहा, 'एक लिंबू लाकर दिजिए उसे मैं अभिमंत्रित करके छोडूंगा जहाँ जाकर वह गिरेगा वहीं मेरा अंत्यसंस्कार कर देना।'' बाद में उन्होंने लिंबू छोड़ दिया, लिंबू कहाँ गिरता है यह देखने के लिए लोग उसके साथ चलने लगे। वह लिबू अकिवाट ग्राम के बाहर अग्नेय दिशा के छोटी सी टेकडीपर गिरा। आगे वि.स.१५९९ पौष्य कृष्ण तृतिया सोमवार के दिन पुष्य नक्षत्र में महाराजजी ने सल्लेखना पूर्वक इस नश्वर शरीर को त्याग दिया।
उनके पूर्व वचन के अनुसार अकिवाट ग्राम के अग्नेय दिशा में उनका अंत्य संस्कार किया गया। उन्होंने दिगंबर मुनि अवस्था में १३२ वर्ष का काल व्यतीत किया। उनका जन्म गुरूवार के दिन होने के कारण प्रत्येक गुरूवार को उनके समाधी स्थल के दर्शनार्थ जाने की परंपरा शुरू हुई है और हर गुरूवार के दिन दूर दूर से लोग दर्शन के लिए यहाँ आते है। मन:शांती के लिए शांति पूजा रखते है। हर साल विशाळी अमावस्या के दिन बडी पूजा होती है। यहाँ का स्थान अतिशय चमत्कारी है।
इसी कारण से आज अकिवाट ग्राम पुण्यक्षेत्र, अतिशय क्षेत्र बना है। ऐसे दिव्य ज्ञानी, आध्यात्मिक मंत्रवादी, श्री विद्यासागर महाराजजी के समाधि स्थल के दर्शन करे और अपनी मनोकामना पूर्ण करें।
प्रदिदिन पूजन करै जो कोय,
ताकै घर बहू संपदा होय
भारत देश मे सिद्ध क्षेत्र अतिशय क्षेत्र तीर्थंकरों की गर्भ जन्म दीक्षा ज्ञान मोक्ष कल्याणको महान आचार्यो की जन्म दीक्षा समाधि स्थली को भी काफी पवित्र माना जाता है
कुछ क्षेत्रों में जैन धर्म प्रभावना की चमत्कारी अतिशय युक्त घटनाएं होती है इस कारण उन क्षेत्रों की प्रसिद्धि अतिशय क्षेत्रों के रूप में होती है
आज हम परिचय करा रहे है लगभग 500 वर्ष प्राचीन दिगम्बर मुनिराज कारण प्रसिद्ध महाराष्ट्र के अतिशय क्षेत्र की
महामुनि श्री विद्या सागर जी
जन्म सन 1527
ऐलक दीक्षा सन 1542
मुनि दीक्षा सन 1545
समाधि सन 1677
मुनि दीक्षा 132 वर्ष
जीवन 150 वर्ष
अनेक चमत्कार से जैन धर्म
की प्रभावना की है
महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले के शिरोल तहसील में अकिवाट
ग्राम है
कृष्णा नदी किनारे एक वाट अर्थात चारों ओर परकोटा ऒर प्रवेश का एक द्वार अक्की वाट
भारत देश के गुरुद्वार नगर के राजा। श्री वज्र शंख ओर श्रीमती मृदु मति जी की कोख से प्रथम पुत्र श्री बुद्धिराज का जन्म भादव शुक्ल गुरुवार सन 1527
वीर संवत 2053 को हुआ
8 वर्ष की उम्र में कोल्हापुर के भट्टारक स्वामी ने बालक का मौजी बंधन किया और आगे अध्ययन के लिए कोल्हापुर ले गए
स्वामी जी ने जन्म पत्रिका तथा सामुद्रिक लक्षणों से देख लिया कि बालक यशस्वी ज्ञानी तथा सद्धर्म वादी होगा
भट्टारक स्वामी द्वारा काव्य व्याकरण अलंकार सिद्धान्त न्याय आदि शास्त्रों का कुशलता से अध्ययन कराया
15 वर्ष की आयु पूर्ण होने पर पिता ने विवाह संबंध करने की चर्चा की किंतु श्री बुद्धिराज ने कहा कि मैने मौजी बंधन के समय ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया है मेंअखंड आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करूँगा
इनके दृढ़ निश्चय के कारण माता पिता कोल्हापुर से वापस चले गए
श्री बुद्धिराज के निवेदन ओर योग्यता देखकर भट्टारक स्वामी जी ने इन्हें सन 1542 वैशाख कृष्ण तृतीया को ऐलक दीक्षा देकर श्री विद्या सागर जी नाम करण किया यहाँ यह लिखना प्रासंगिक है कि पहले भट्टारक जी स्वामी दिगम्बर मुनि होते थे
ऐलक रूप में श्री विद्या सागर जी ने व्रत तप जप आदि से अनेक विद्या देवताओ की सिद्धि प्राप्त की दीक्षा गुरु ने शिष्य की योग्यता को देखकर समझ कर सन 1545 पोष शुक्ला सप्तमी को दिगम्बर दीक्षा 18 वर्ष की उम्र में दी नाम मुनि श्री विद्या सागर जी रखा गया
Shri Rajesh Ji Pancholiya
# VidyaSagarJiMaharaj1527
Shri Rajesh Ji Pancholiya
मुनि श्री १०८ विद्या सागरजी महाराज
Shri Rajesh Ji Pancholiya
Muni Shri 108 Vidya Sagarji Maharaj was born in the year 1527 in Akiwat, Kolhapur, Maharashtra. His name was Buddhiraj before diksha.
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