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Muni Shri 108 Vrishabh Sagar ji Maharaj was born in Village Ailam,Mujaffarnagar,Uttar Pradesh.His name was Kashmirilal before diksha.He received the initiation from Acharya Shri 108 Gyan Sagar Ji Maharaj.
कार्तिक कृष्णा अमावस्या सं० 1958 की धन्य घड़ी में अग्रवाल सिंहल गोत्र महाभाग्य लाला श्री फूलचन्द्रजी के घर माता श्री छोटीबाई की कोख से जिला मुजफ्फरनगर के ऐलम नामक ग्राम में आपका जन्म हुआ था । वह माता पिता धन्य हैं जिनने ऐसे पुण्यशील व्यक्ति को जन्म दिया। बालापन में आपका नाम, "कश्मीरीलाल" रखा गया। जन्म के समय आपके माता पिता की आर्थिक स्थिति कमजोर थी। आपके पिताश्री उदार प्रकृति, सन्तोषी एवं धार्मिक प्रवृत्ति के थे तथा देहली की एक फर्म में खजांची का कार्य करते थे । आपसे छोटे दो भाई श्री विशम्बर दयालजी एवम् श्री उमराव सिंहजी हैं । जेठ सुदी चतुर्दशी सम्वत् १९६७ के दिन पिताश्री का देहावसान हो गया। उस समय आपकी उम्र मात्र ६ वर्षकी थी। घर का सारा भार आपके ऊपर आ पड़ा । पिताश्री की मृत्यु के कुछ समय बाद ही खारी बावली देहली की एक सरकारी पाठशाला में आपने मुण्डी एवम् उर्दू की अल्प शिक्षा प्राप्त की। उसी समय ३ माहके लगभग अंग्रेजी भाषा के अभ्यासका भी मौका मिला और ज्ञानार्जन किया। हिन्दी भाषा का ज्ञान स्वयं के अभ्यास से घर पर ही प्राप्त किया और पिताश्री के स्थान पर उसी फर्म में खजांची का कार्य सीखने लगे।
१६ वर्ष की आयु में जिला मेरठ के बमनौली ग्राम में श्री हुशयार सिंह की बहिन श्रीमती महादेवी के साथ आपका विवाह हो गया । श्री हुशयारसिंह एक बड़े उदार, धार्मिक प्रवृत्ति के पुरुष हैं । आजकल बड़ौतमें अनाज के अच्छे व्यापारी हैं, आपकी धर्मपत्नी श्रीमती महादेवीजी दो प्रतिमा के व्रतों का पालन करती हुईं घर पर ही गृहकार्य के अलावा आत्मोन्नति की ओर अग्रसर हैं। आपके पूर्वज ( कुटुम्बी जन ) श्वेताम्बर मुह पट्टी बालों के अनुयायी थे। अपने पूर्वजोंकी परम्परानुसार आप भी श्वेताम्बर सन्तों के समीप जाया करते थे । एक दिन आप श्वेताम्बर स्थानक में बैठे थे । आपके यहां से एक मील दूर भनेडा ग्राम था वहाँ पर दिगम्बर जैनों द्वारा दशलक्षण व्रत की समाप्ति पर क्षमादिवस, रथ यात्रा आदि कार्यक्रम हो रहा था। एक सजा उत्सव में सम्मिलित होने का आमंत्रण दिया।
भनेडा ग्राम के जिन मन्दिरजी में गए तो प्रथमत: दिव्य सौम्य, शान्त दिगम्बर छवि मुद्रा भगवान जिनेन्द्रप्रभु की मूति देखी तथा एक श्रावक को अत्यन्त शद्ध निर्मल भावों से उस पर वीतरागी सर्वज्ञ प्रभु की पूजन करते हुए सुना जिसका प्रभाव आपके हृदय पटल पर पत्थर पर खाना गई रेखा के समान अमिट पड़ा।
थोड़े समय बाद ही एक शास्त्र सभा में आप पहँचे और शास्त्र बक्ता सतगुरु उपदेश के प्रसंग में रत्नकरण्ड श्रावकाचार का निम्नलिखित श्लोक सुनने को मिला
इस श्लोक को सुनकर विचार किया तो सुगुरु और कुगुरु एवम् परिग्रही एवम् निष्परिग्रही का अन्तर स्पष्ट समझ में आ गया, आपने जीवन पर्यंत कुगुरु को नमस्कार न करने की प्रतिज्ञा ली।
जब आप २० वर्ष के थे उसी समय श्री जुगलकिशोरजी अग्रवाल ने जैन धर्म का प्रारम्भिक ज्ञान, दर्शन पाठसे छह ढाला तक का देते हुए देहली में किराये पर अपना मकान देते हुये आश्रय दिया। आपके प्रथम गुरु यही थे जिनकी छत्र-छाया में जैन धर्म के प्रारम्भिक ज्ञान का अभ्यास किया।
आपके दो पुत्र और दो पुत्रियाँ हैं । प्रथम पुत्रका नाम श्री जम्बूप्रसादजी और छोटे पुत्रका नाम श्रीमन्धरदासजी है । आजकल आपके दोनों पुत्र सब्जी मण्डी में कपड़े की दुकान करते हैं। आपके दोनों पत्र योग्य, सुशील, आज्ञाकारी एवम् उदार प्रकृति के हैं । आपकी माँ परम धर्मपरायण संयमी एवम सरल स्वभावी थीं। आहार देने में उन्हें बहुत सन्तोष होता था और आप प्रायः मुनि, त्यागी, श्रावक आदि को आहार दान देती रहती थीं।
जब आचार्यवर श्रीशान्तिसागर जी महाराज का संघ मथुराजी में आया हुआ था तब आपको महाराजश्री के दर्शन करने का सौभाग्य मिला तथा जीवन में प्रथम बार मुनि को आहार देने का अवसर मिला। इसी अवसर पर आपने जीवन पर्यंत शूद्र जल का त्याग कर दिया।
जब आचार्य शान्तिसागरजी महाराज का संघ खुरजा से दिल्ली आया था तब संघ को लाने का श्रेय आपको ही था। उसका कारण आपकी अतुल श्रद्धा और भक्ति थी। संघ २८ दिन रहा । इस अवधि में आपने अपनी धर्मपत्नी के साथ प्रतिदिन आहार दान किया और इसी समय से आपमें धार्मिक भावना का प्रबलतम भाव उत्पन्न हुआ। आपकी भावना को सफलतम् एवम् उन्नतिकर बनाने का श्रेय क्षुल्लक श्री ज्ञानसागरजी महाराज को था अब भी आप परम पूज्य क्षुल्लक ज्ञानसागर ( मुनि श्री सुधर्मसागरजी ) के प्रति अनन्त हादिक रखते हुए उन्हें आदि गुरु एवं परम उपकारी मानते हैं।
आपका सराफी का व्यापार अच्छी प्रगति पर रहा । आपने सांसारिक एवम् धार्मिक क्षेत्रों में मान्यतायें प्राप्त की। आपके द्वारा जो शास्त्र प्रवचन होता था वह हृदयग्राही होता लोगों की श्रद्धा आपके प्रति काफी बढ़ गई थी जिससे जैन समाज में आपका पद प्रतिष्ठित व्यक्ति की श्रेणी में गिना जाता था।
जब हमारे देश का संविधान बनाया जा रहा था और उसमें जैन धर्म का स्थान हिन्दूधर्म के अन्तर्गत समाहृत किया जा रहा था तब आचार्य शान्तिसागरजी महाराज का संकेत पाकर इस सम्बन्ध में अन्य विद्वानों के सहयोग से अनेकों प्रमाण प्रस्तुत कर निश्चित करा दिया कि हिन्दू एवं जैन धर्म परस्पर स्वतन्त्र धर्म हैं । यह एक दूसरे के आधीन नहीं हैं । फलतः विधान में यह मान्यता स्वीकार की गई । इसका समाचार जब सर्व प्रथम कुछ विद्वानों के साथ आप आचार्यश्री के पास ले गए तो आचार्यश्री ने आपको आशीर्वाद देते हुए अन्न ग्रहण किया था।
इस प्रकार आप समाज के बीच जन-प्रिय हुए, अतः आपको श्री दिगम्बर जैन सिद्धान्त प्रचारिणी समिति का मन्त्री मनोनीत किया गया। इस पद पर आपने और भी अनेकों कार्योंका अपनी प्रज्ञा के द्वारा सम्पादन किया। आपका व्यवसाय भी खूब चला तथा पारिवारिक स्थिति सम्पन्न हो गई, लेकिन काललब्धि ने आपके हृदय में परिवर्तन ला दिया और आपकी सांसारिक वैभवों के प्रति उदासीनता बढ़ने लगी । फलतः सन् १९३१ में चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शान्ति सागरजी महाराज के समीप बड़ौत में दूसरी प्रतिमा के व्रत धारण कर लिये । घर आकर उदासीन वृत्ति से संयम पूर्वक रहने लगे।
पश्चात् आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज जब ससंघ सवाईमाधौपुर पधारे हुये थे तभी आपने आचार्यश्री से पांचवीं प्रतिमा के व्रत अङ्गीकार करते हुये ईसरी चातुर्मास के शुभावसर पर दीक्षित न होने तक घी न खाने की प्रतिज्ञा ली और फुलेरा में हुए पंच कल्याणक महोत्सव के शभावसर पर आपने आचार्यवर श्री बीरसागरजी महाराज से सातवी प्रतिमा के व्रत अङ्गाकार कर लिए। इसी बीच अयोध्या में आए धार्मिक संकट को दर करने में आपने जो विजय पाई वह बहुत सराहनीय है ।
आचार्यवर श्री देशभूषणजी महाराज की सत्प्रेरणा से श्री पारसदासजी आदि दिल्ली वाला की ओर से तीर्थ क्षेत्र अयोध्या में भगवान ऋषभदेव की ३३ फट उत्तङ्ग खड़गासन सुन्दर संगमरमर की मूर्ति २४ अक्टूबर 1957 को अयोध्या स्टेशन पर आई थी। मूर्ति एक स्पेशल गाड़ी पर रखकर जैक आदि यांत्रिक साधनों द्वारा स्टेशन से एक बगीचे में लाई जा रही थी। एक मोड़ पर थोड़ी-सी उतार पड़ने के कारण गाड़ी स्वतः २-३ फीट आगे चल दी। मूर्ति का कन्धा एक मकान के कोने से लग गया जिससे सारा मकान बीच से दरार खा गया। इस पर अयोध्या के कुछ पण्डों ने मिलकर मति को तोड़ने और नग्न मुति अयोध्या में स्थापित न करने की जिद की। इस सङ्कट में दिल्ली वासियों ने मई 1958 में आपको अयोध्या भेजा । ( लेखक भी उस समय अयोध्या में ही अध्ययन करता था।) आप उस समय ब्रह्मचारी ही कहलाते थे। आपने वहाँ के विद्रोहियों को नम्रता एवं प्रेम पूर्वक समझाया। अयोध्या के काफी अजैन भाई आपसे प्रभावित हुए । ऐसा समय देखकर आपने अनेकों मांसाहारियों को मांस तथा मद्य सेवन न करने के नियम लिवाए। इस प्रकार कार्य सम्पन्न कर तथा विद्रोहियों के हृदय में प्रेम की धारा बहाकर आप वापिस दिल्ली लौट आए।
समय बीता और परिणामों में निर्मलता आई । जब आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज का संघ अजमेर आया तब आप दिल्ली से अजमेर आए और घर पर यह समाचार भेज दिया कि मैंने रेल और मोटर का त्याग कर दिया है तथा दीक्षा ले रहा हूं। आपके पुत्र सपरिवार आए और बोले पिताजी मैं आपको हवाई जहाज द्वारा घर ले जाऊंगा तथा दीक्षा नहीं लेने दूंगा। धन्य है वह समय जब पुत्रों को मोह और पिता को प्रबल वैराग्य । ऐसे समय में पिता पुत्र की नेह निवृत्ति का दृश्य । आपने अपने निश्चय को नहीं बदला तथा कार्तिक सुदी एकादशी सम्बत् २०१६ के दिन आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज से क्षुल्लक दीक्षा ले ली।
क्षुल्लक दीक्षा के बाद आपका पहला चातुर्मास सुजानगढ़ ग्राम में हुआ। चातुर्मास के समय एक दिन पारणा कर रहे थे तो तीन मक्खियाँ लड़ती हुई दूध में गिर पड़ी और मर गईं। जिससे आपको शुद्ध वैराग्य की भावना का उदय हुआ और आपने आचार्य श्री से मुनि दीक्षा की विनय की फलतः आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज ने सुजानगढ़ में अपार जन-समूह के बीच जयध्वनि के साथ कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी सम्वत् २०१७ के शुभ दिन आपको दिगम्बरी मुनि दीक्षा दी।
मुनि दीक्षा के बाद आपका प्रथम चातुर्मास सीकर दूसरा लाडनू ( राजस्थान ) और तीसरा जयपुर खानियाँ में हुआ। आपने जब से यह मुनि पद ग्रहण किया तब से आज तक अनेकों व्यक्तियों के हृदय में सम्यग्दर्शन की भावना को जाग्रत किया। नियम और सप्त व्यसनों का त्याग करते हुये यज्ञोपवीत देकर हजारों को सुपथ पर पहुंचाया। सैकड़ों मांसाहारियों को आजीवन मांस, मधु का त्याग कराया और अनेकों से नशीली वस्तुओं के सेवन न करने के व्रत लिवाये। इस प्रकार संघ में विहार कर भगवान महावीर स्वामी के दिव्य संदेशोंको फैलाते हुये मानव आत्माओं के कल्याण के लिये बड़ा महत्वशाली कार्य कर रहे हैं।
आपके श्री युगल चरणों में कोटिशः नमन ।
Book written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
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Book written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
मुनि श्री १०८ वृषभ सागरजी महाराज
आचार्य श्री १०८ शिव सागर जी महाराज १९०१ Aacharya Shri 108 Shiv Sagar Ji Maharaj 1901
ShivSagarJiMaharaj1901VeersagarJi
Muni Shri 108 Vrishabh Sagar ji Maharaj was born in Village Ailam,Mujaffarnagar,Uttar Pradesh.His name was Kashmirilal before diksha.He received the initiation from Acharya Shri 108 Gyan Sagar Ji Maharaj.
Book written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
Muni Shri 108 Vrishabh Sagarji Maharaj
आचार्य श्री १०८ शिव सागर जी महाराज १९०१ Aacharya Shri 108 Shiv Sagar Ji Maharaj 1901
आचार्य श्री १०८ शिव सागर जी महाराज १९०१ Aacharya Shri 108 Shiv Sagar Ji Maharaj 1901
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