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#Atmanandimaharaj1917Aryanandi
Acharya Shri Atmanandi Ji mahara recevied Initiation from Aryanandi Maharaji
नाम: श्री झुंबरलाल रुखबदास बोलाळकर
पिताश्री का नाम: श्री रुखबदास धोंड्बा बोराळकर
मातोश्री का नाम: सौ. देवकीबाई रुखबदास बोराळकर
गाव: अंजनी खुर्द ता. लोणार (तब मेहेकर)
जन्म साल: १९१७
शिक्षण: ३ री कक्षा
उप नाम: देविदास, झुंबर, लालाजी, घर के लोग उन्हे तात्या कहते थे।
२ भाई और २ बेहेने
पिताजी का व्यवसाय: शिलाई और किराणा
शौक: शास्त्र लिखना
धार्मिक: ४ माह (वर्षामास में गाव की सीमा पार न करना)
महाराज श्री को युवावस्था में सायकल का शौक था। जब आचार्य श्री शांतीसागर महाराज उनाडपेठ से विहार हो रहा था, तब वे उनके मामा के साथ सायकल से महाराज के दर्शन के लिये गये। श्री शांतीसागर महाराज ने उन्हे कहा था
"पहले मन में जा फिर वन मे।”
साथ ही २४ तीर्थंकर चरित्र, प्रथामानियोग पढने को कहा। पहेले क्रोध, मान, माया, लोभ इनका त्याग करने का सिखने को कहा | जब वे २२ साल के थे, तब शांतीसागर महाराज ने कहा था “पढाइ करो”। दिक्षा लेने का मानस आचार्य श्री शांतीसागर महाराज के सामने प्रकट की। तब महारज जी ने कहा पहेले शादी कर ले, शास्त्र अध्ययन कर बाद में दिक्षा लेना। तब महारजजी से आशीर्वाद लेके वापस आये।
फाळेगाव निवासी श्री नागोजी हुंडाळे इनकी कन्या राजामती बाई से विवाह सन १९४०-४१ में हुआ। आगे ३ लडके और २ लडकीया हुये। १९४९-५० में व्यापार के कारण सुलतानपूर आके बस गये। आगे नाटक के लिये मेकअप, ड्रेसिंग और शादी के मंडप किराये पे देने का धंदा किया। वे खुद पेंटिंग और शिलाई में निपुण थे, आगे खुद का अलग व्यवसाय किया।
१९५८ से १९६० सायटिका के बिमारी से ग्रस्त थे। फिर उनका घर बेचके खेती खरीद ली, आगे वापस मुख्य रास्ते पर घर बांध लिया। १९७१ को आचार्य आर्यनंदी का विहार सिद्धपूर को हुआ, उसमे तीर्थरक्षा फंड को दान दिया,और ब्रह्मचर्य व्रत का धारण किया। अनेक आचार्य मुनियोंका सुलतानपूर से विहार होता था, आहार के लिये वे अवश्य होते थे। १९७४ को आचार्य निर्मलसागर जी का विहार हुआ, विहार में वे साथ चले, रास्ते में चलते हुये उन्होने महारज जी से मनोगत व्यक्त किया की उनका लडका B.Sc. को है, नोकरी भी लगी है तो उन्हे दिक्षा लेनी है।
तो महाराज बोले “जो कहते है, वो दिक्षा लेते नही!”
तभी झुंबरलालजी बोले “मै उनमें से नही,अभी कपडे उतार सकता हु!” झुंबरलालजी का स्वभाव बहोत जिद्दी था।
आगे सिद्धखेड राजा में ऐतिहासिक रंग महल में आचार्य निर्मलसागर जी से ब्रह्मचारी दिक्षा ली। तिसरे दिन घर जाके गाववालों और घरवालों से संसारी जीवन में जाने अनजाने में किये हुये गलतीयोंके लिये क्षमा मांगके दिक्षा लेने की बात कह दी। दोनो लडकोंके नाम पर खेती और घर करके गुरु के पास चल दिये। गाववालोंने गाव में बडी जुलूस निकाली और उनका प्रस्थान हुआ।
पहला चातुर्मास १९७४ को दि. जैन मंदिर, राजा बाजार, खेडेलवाल हुआ, और वही पर उन्होने क्षुल्लक दिक्षा मिली। और उनको १०५ क्षुल्लक विद्यासागर जी नाम मिला। वहा से वे सिल्लोड को निकले। भटगी-बडोद, फुलंब्री, बावदा अंधारी इस मार्ग से सिल्लोड पहुंचे। वहा उनका भव्य स्वागत हुआ और उनपर स्तुतीसुमन का वर्षाव हुआ।
महाराज के सिल्लोड निवास में मंदिर का निर्माण, पंच काल्यानक, प्रतिष्ठा मोहोत्सव साथ ही साथ आर्यनंदी प्रतिष्ठानकी स्थापना, मुनीदिक्षा आदि अनेक कार्य हुये। बहोत छोटा समाज होने पर भी और कम साधन सामग्री होने पर भी भारत भर से आये हुये मान्यवर और कार्यक्रम के आयोजन भी खूब अच्छी कराया। मेहमानों के स्वागत सत्कार में कही भी कमी नही हुये, कम पैसे में इतना भव्य मंदिर बांधने का काम आश्चर्य के काबील है। श्री पद्माकर गोसावी गुरुजी के कारन ही इस कार्यक्रम का आयोजन में सफलता प्राप्त हुआ। गुरुजी के अथक परिश्रम के कारण ही कार्यक्रम के लिये चंदा इकाठ्ठा हुआ। पी. के गोसावी गुरुजी आचार्यश्री के परम भक्त थे। आचार्यश्री का आशीर्वाद उनके लिये धार्मिक कार्य के लिये प्रेरणा और संकट के समय में बहोत बडा सहारा था। गुरुजी ने खुद रु एक लाख जमा करके दान दिये, और समाज को एक आदर्श पेश किया। महारज के कृपा आशीर्वाद और गोसावी गुरुजी का समर्पित भाव के कारण सब कार्य एक के पीछे एक होते गये।
३० मई से ४ जून १९९४ के बीच आचार्य महाराज के सानिध्य में पंचकल्याणक समारंभ हुआ। इस कार्यक्रम में अनेक विदवानोंके प्रवचन और बहुत सारे सांस्कृतिक कार्यक्रम संपन्न हुये। महाराजजी के प्रवचन हररोज होते थे। एक दिन महाराजजी के प्रवचन के पहले श्री देवकुमार कान्हे (वेरूळ के विद्यामंदिर के मुख्यध्यापक) का व्याख्यान हुआ, इस व्याख्यान माला में रोज ‘तीर्थंकर’ (मुंबई) के संपादक श्रेणीक अन्नदाते, अमरावती के पंडीत मानिकचंद हजारे, मुंबई के महाराष्ट्र सैतकाल जैन दिगंबर महासंघ के अध्यक्ष कैलास रणदिवे, सोलापूरके डॉ निर्मलकुमार फडकुले आदिक अलग अलग दिन में व्याख्यान संपन्न हुई। ये सब विदवानोंने आचार्यश्री के किए हुए कार्य का गौरव किया। इस कार्यक्रम का संचलन पद्माकर गोसावी ने किया था। एक दिन महिला संम्मेलन में विद्यापीठके प्रकल्प अधिकारी सुलोचना नाईक इनका व्याख्यान हुआ। शास्त्रप्रवचन जयकुमार बोरीकर ने किया, साथ ही साथ आपका श्रवणीय किर्तन भी हुआ रहीमाबाद के श्री सुमतिनाथ जैन समाज का सांकृतिक कार्यक्रम उल्लेखनीय रहा। पूज्य आचार्य आर्यनंदी महाराज ने प्रतिमाको सूर्यमंत्र दिया।
मुख्य प्रतीष्ठाचार्य पंडित बाबुरावजी मिरकुटे पानकन्हरेगावकर, पंडित दादासाहेब नरवाने (नागपूर) और विशेष सहाय्यक पंडिता पूजांग विशारद सुमनबाई इनके हाथोंसे विविध विधी संपन्न हुई। अन्य जगह से ज्यादा सिल्लोड के मंदिर निर्माण और पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव अधिक महत्व का था, क्योंकि सिर्फ सिल्लोड ही नहीं बल्की आसपास के गावों में भी दिगंबर जैन मंदिर नहीं था। इस गांव में सैतवाल जैन का सम्माज था मगर गरीबी के कारण पालन पोषण करणा भी मुश्किल था, मंदिर निर्माण तो दूर की बात थी। जिनागमानुसार खुदको जैन कहनेवाले हरएक को देवदर्शन करने का हक है, जैन होने का एक मुख्य लक्षण है।
जैन मंदिर और जिन देवदर्शन ये जैनागम दर्शन की पहिली सिढी है। सिल्लोड और आसपास के गाव में जैन संस्कार रहित थे, इसकी जानकारी १० साल पहले से ही सिल्लोड से विहार करते हुए महाराज जी को ज्ञात था। तब यहा इंद्रध्वज पूजा महोत्सव हुआ, इस परिवार के जैन बांधव आर्थिक नहीं तो धार्मिक दृष्टी से भी पीछे थे, ऐसा महाराज को महसूस हुआ। इनको धर्मका ज्ञान नहीं था, और वे हिंदू धर्म का अंधानुकरण करते थे। तभी महाराजजी ने यहा एक सुंदर मंदिर निर्माण का निष्चय किया। साथही पद्माकर गोसावी इनके जैसे सुशिक्षित लोगोंको आसपासके जैन समाज को मार्गदर्शन करने की प्रेरणा दि। कुछ दिन सिल्लोड में रहके युवावर्ग से चर्चा करके उनको संघटीत करके एक संघटना करणे को प्रोत्साहन दिया था। परिणाम १० साल बाद दिखा है।
माघनंदी योगिंद्र, सिध्दांताम्बोधि चंद्रमा।
अचीकरद्वि चित्रार्थ, शास्त्रसार समच्चयम्।।
उक्तं श्री मूल-संघश्री, बलात्कार गणाधिपैः।
श्रीमाघनंदी सिध्दातै: शास्त्रसार-समुच्चयम्।।
इस प्रमाण से, श्री आर्यनंदी महाराजीने नंदीसंघ परंपराका अभ्यास पूर्वक, नंदी संघका स्वीकार किया। आचार्य श्री समंतभद्र महाराजीने दीक्षा विधीके वक़्त उनका नाम "मुनिश्री आर्यनंदी "रखा। लेकीन आगे उन्होने श्री जयभद्र महाराजीको दीक्षा दिया, उस वक़्त वे उनके संघ के थे इसलिये उनको "मुनि श्री जयभद्र’ रखा। कुछ लोगोंका मानना है की आचार्य श्री आर्यनंदी महाराजीने श्री जयभद्र महाराज को दीक्षा- विधी संपन्न किया। इसलिये श्री जयभद्र महाराज आचार्य श्री आर्यनंदी महाराजके शिष्य हुये। अपने गुरु आचार्य श्री समंतभद्र महाराजीके बुढापे के कारण उनके अज्ज्ञा से आचार्य श्री आर्यनंदी महाराजीका दीक्षा-विधी संपन्न करके उनका नाम गुरुके आज्ञासे "मुनि श्री जयभद्र महाराज” ऐसा भद्र परंपराका रखा। इसका प्रत्यय आगे उन्होने दिये हुये दिक्षा से समझ आता है।
आचार्य श्री आर्यनंदी महाराज को आपनी शिष्य परंपरा निर्माण करनेकी कभी भी प्रयत्न नही किया। अनेक व्रती लोगोंने उनके पास दीक्क्षा की याचना की। परंतु आचार्य श्रींने उनको नकार दिया।
इसवी सन १९९४ में आचार्य श्री आर्यनंदी महाराज सिल्लोड में श्री शांतिनाथ दिगंबर जैन मंदिरके पंचकल्माणक महोत्सव के लिये आये। तभी श्री आत्मनंदी महाराजने यानी पूर्वाश्रमीके क्षुल्लक श्री १०५ विद्यासागर इनके वृध्दावस्ता के कारण और शारीरिक अस्थास्थ्य के कारण आचार्य श्री आर्यनंदी महाराज को मुनि-दीक्षा देणे को विनंती किया। शुरुवातमें आचार्य श्रींने नकार दिया। लेकीन बहोत बिनती के बाद दीक्षा देणेको राजी हुये।
वो दिन यानी ४ जून १९९४ सिल्लोड वासियोंके लिये सुवर्णाक्षरोंमें लिखने जैस है। सिल्लोड वासियोंके लिये और ग्रामिण भागसे जैन बांधवोंके लिये पंचकल्याणिक व मुनि-दीक्षा समारोह बिलकुल नया अनुभव था। दीक्षा-विधीके कार्यक्रमकी घोषणा होते ही ग्रामिण इलाकेके जैन बांधव हजारोके संख्यामें हाजीर हुये। दीक्षा विधीका ये अभूतपूर्व समारोह सिल्लोड नगरमें न भूतो न भविष्यती संपन्न हुंआ। गुरुदेव आचार्य श्री आर्यनंदी महाराजजी ने दीक्षार्थीका नाम " मुनिश्री आत्मनंदी” रखा। तब आचार्य श्रींने आपने शिष्योंको बताया कि "मै आर्य देशाका नंदी हु और आप आपने आत्मा में रहेनेवाले आत्मनंदी हो”। आचार्य श्री आर्यनंदी महाराजजीने अपने प्रथम शिष्य का नाम मुनि श्री आत्मनंदी घोषित करते ही जमा हुये हजारोंके जन समुदायाने श्री शांतीनाथ भगवंत का जय जयकार किया। सब के मुख से ये यही था की ये एक चमत्कार है कि श्री १००८ शांतिनाथ भगवंतकी सिल्लोड नगरीमें स्थापना होने के कूछ घंटे पश्चात ही सिल्लोड नगरीमें मुनि-दीक्षा अनपेक्षीत हुयी। इस वाजह से सिल्लोड "दीक्षाभूमि" बनी। ये भगवान श्री शांतिनाथका चमत्कार ही नही था क्या? साबने भगवान श्री शांतिनाथका जय जय काराका उद्घोष किया। तीर्थ रक्षा शिरोमणी आचार्य श्री आर्यनंदी महाराज की जय तथा मुनि श्री आत्मनंदी महाराज की जय, आज के आनंद की जय इन सब जय घोषसे परिसर गुनगुना उठा। इस प्रकारसे आचार्य श्री ने सिल्लोड नगरीमें नंदी संघकी प्रथम दीक्षा देके सिल्लोडको अनपेक्षीत "दीक्षा-भूमि' बनाया।
तीर्थं रक्षा शिरोमणी सन्मती दिवाकर आचार्य श्री आर्यनंदी महाराज तीर्थराज सम्मेद शिखरजी व मांगी-तुंगीके सफल पदयात्रा के बाद अपने मातृभूमि को वापीस आये तब वे सिल्लोडको आये। सिल्लोड वासिने "भावांजली” कार्यक्रम का आयोजन करके बडे उत्साहसे उनका स्वागत किया। अलगअलग शहरसे और ग्रामीण भागासे पाच से छे हजार का जन समुदाय आपने गुरुको भावांजली अर्पण करने और उनका दर्शन करणे आये थे। आचार्य श्री उस दिन बहोत समाधानी व उत्साही दिखाई पडे। अनेक लोगोने भाषणसे और कविता से अपने भावना व्यक्त किया।
"आचार्य आर्यनंदी प्रतिष्ठान सिल्लोड' संस्थाका नाम फलक स्वस्तीक निकलनेके लिये आचार्य श्री के सामने रखा, पहेले तो उन्होने नकार दिया, परंतु कूछ प्रमुख व्यक्तीं व डॉ.हुकूमचंद संगवेके विनंती के बाद विचार पूर्वक क्षणमें बाल हट्ट पुरा करनाके लीये हजारो जन समुदाय के समक्ष उन्होने ‘आचार्य आर्यनंदी प्रतिष्ठान सिल्लोड’ के नाम फलकप्र गंधसे ॐ व स्वस्तीक निकालके स्वीकृती दिया। उसी क्षण उपस्थित जन समुदायसे प्रतिष्ठान के लिये देणगी का वर्षाव शुरू हुंआ। फिर संयोजकने आचार्य श्री के अंतिम प्रवचन सुनने के लिये विनंती किया। इस अवसर पपर अति उत्साहीत होकर आचार्य श्री ने दो घंटे का प्रवचन करके लोगोको उद्बोधन किया। क्या वो भाव मुद्रा! सबने हमेशा के लिये अपने आखोंमे समा लिया। आगे सचमें आम्ही सुध्दा आचार्य श्री केअंतिम जाहिर प्रवचन हुआ।
आचार्य श्री आर्यनंदी महाराजांनी सिल्लोड नगरीमें आनेका तीर्थ पहेले से ही निश्चित करके आये की क्या? वो दिन यानी ३ जून १९९९ था। इसी दिन ३ जून १९९४ को आचार्य श्रीं के उपस्थिती में भगवान श्री १००८ शांतिनाथ जिन बिंब की स्थापना हुयी थी, वही ज्ञान तपस्वी मुनि श्री आत्मनंदि महाराज की मुनि दिक्षा तभी संपन्न हुई। उसीका औचित्य साधके आचार्य श्री आर्यनंदी महाराज ने ३ जून १९९९ को सिल्लोड इस पावन भूमिमें आके श्री १००८ शांतिनाथ दिगंबर जैन मंदिरको "अतिशय क्षेत्र" घोषित किया।तभी सबको आश्चर्यच ही नही चमत्कार होनेका साक्षात्कार हुआ। जिज्ञासूने पुछा तो आचार्य श्री बोले कि सिल्लोड ही पुण्यभूमी है, उसका उर्जित वक़्त आय है। इसलिये यहा के सब योजना और सब योजना सफल हो रहे है और आगे आहे ही होती रहेगी।
मुनि श्री आत्मानंदी महाराज उस वक़्त यहा नही थे, तो गुरु-शिष्य की भेट ना हो सका। श्री सम्मेद शिखरजी यात्रा में आचार्य श्री आर्यनंदी महाराज अपने आचार्य पद अपने एकमेव शिष्य मुनिश्री आत्मनंदी महाराजको देणेका कुछ श्रावक के सामने भाव व्यक्त किया। उसे अनुरूप संस्कृती उन्मुख दिव्य परंपरा अक्षुण्य निरंतर रहे इसलिये ज्ञानतपस्वी मुनिश्री आत्मनंदी महाराजने अनुग्रह पूर्वक "आचार्य पद” ग्रहन करनेको राजी हुये।
ये ऐतिहासिक महन्मंगल समारंभ विधी पूर्वक श्री पार्श्वनाथ दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र धरणगाव जिल्हा जळगाव में ध.श्री.मोहन गांधी ने दिनांक २९ डिसेंबर २००२ को संपन्न किया। तब ज्ञान तपस्वी मुनि श्री आत्मनंदी महाराजको विधी पूर्वक "आचार्य पद" दिया गया।
बादमें प.पूज्य ज्ञानतपस्वी आचार्य श्री आत्मनंदी महाराजने महाराष्ट्र भर यात्रा करके मुख्यतः सिल्लोड, धरणगांव, अंबड, वडोद तांगडा, वडोद बाजार, डोणगांव, परभणी इत्यादी जगह चार्तुमास करके धर्म प्रभावना की। श्री नेमिनाथ दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र नवागढ के कार्यकर्ताके निमंत्रण पर वे "कल्पद्रुम महामंडळ विधान पूजा' दिनांक ४ फेब्रुवारी २००८ से दिनांक १३ फेब्रुवारी २००८ के लिये नवागढ गये। इस अवसर पर भव्य समारंभमें अपनी नंदीसंघ परंपरा अक्षुण्य रहने हेतू युवा मुनि श्री सच्चिदानंदमहाराजको अपने आचार्य पद दिनांक ११ फेब्रुवारी २००८ को प्रदान किया और उनका नाम आचार्य श्री सच्चीदानंदी असे रखा। उसका विधीवत समारोह श्री कलिकुंड पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर औरंगाबाद में आयोजित किया गया। उसी समय आचार्य श्री सच्चीदानंदी महाराजने अपने गुरु आचार्य श्री आत्मनंदी महाराजके आज्ञासे क्षुल्लक श्री सुविचार सागरजी महाराजका मुनि-दीक्षा विधी करके उनका नाम मुनिश्री स्वात्मनंदी रखा।
Sillod Jain Mandir
#Atmanandimaharaj1917Aryanandi
आचार्य श्री १०८ आत्मनंदीजी महाराज
Acharya Shri 108 Aryanandiji Maharaj 1907
आचार्य श्री १०८ आर्यनन्दीजी महाराज १९०७ Acharya Shri 108 Aryanandiji Maharaj 1907
AaryanandiJiMaharaj1907GurudevMuniSamanthbhadra
Acharya Shri Atmanandi Ji mahara recevied Initiation from Aryanandi Maharaji
Name: Mr. Jhumbarlal Rukhbadas Bolalkar
Father's Name: Shri Rukhbadas Dhondba Boralkar
Matoshree Name: Ms. Devkibai Rukhbadas Boralkar
Village: Anjani Khurd Ta. Lonar (then Mehekar)
Birth Year: 1917
Education : 3rd grade
Nicknames: Devidas, Jhumbar, Lalaji, the people of the house called him Tatya.
2 brothers and 2 sons
Father's Occupation: Shillai and Kirana
Hobbies: Writing scriptures
Religious: 4 months (do not cross the village boundary during the rainy season)
Introduction
Maharaj Shree was fond of cycles in his youth. When Acharya Shri Shantisagar Maharaj was going from Unadpeth to Vihar, where he went with his maternal uncle to see the Maharaj by cycle. Shri Shantisagar Maharaj told him
"First go to the mind, then to the forest."
Also asked to read 24 Tirthankar character, Prathamaniyoga. First asked to learn to renounce anger, pride, maya, greed. When he was 22 years old, Shantisagar Maharaj had said, "Study First". Manifested the mind of taking initiation in front of Acharya Shri Shantisagar Maharaj. Then Maharaj Ji said get married first, study the scriptures and take initiation later. Then came back after taking blessings from Maharajji.
Shri Nagoji Hundale, resident of Falegaon, married his daughter Rajamati Bai in 1940-41.His family grew to 3 boys and 2 girls. In 1949-50, due to trade, settled in Sultanpur. Further, he did the business of renting make-up, dressing and wedding pavilions for the play. He himself was an expert in painting and crafting, further pursuing his own business.
From 1958 to 1960, he was suffering from sciatica. Then sold his house and bought agriculture, further back and tied the house on the main road. In 1971, Acharya Aryanandi's Vihara was held at Siddhapur, donated it to the Tirtha Raksha Fund, and took a vow of celibacy. Many Acharya sages used to have a Vihara from Sultanpur, they were definitely there for food. In 1974, Acharya Nirmalsagar ji had a vihara, they walked together in the vihara, while walking on the way, he expressed occultism with Maharaj ji that his son B.Sc. If someone has a job, he has to take initiation.
So Maharaj said, "Those who say they do not take initiation!"
Then Jhumbarlalji said "I am not one of them, I can take off my clothes now!" Jhumbarlalji's nature was very stubborn.
Further, he took celibate initiation from Acharya Nirmalsagar ji at the historic Rang Mahal in Siddhkhed Raja. On the third day, he went home and asked the villagers and family members to take initiation by asking forgiveness for the mistakes made in the worldly life knowingly and unknowingly. After doing farming and house in the name of both the boys, they went to the guru. The villagers took out a large procession in the village and they left.
The first Chaturmas was in 1974. Jain Temple, Raja Bazar, Khedelwal happened, and it was there that he got Ksullak Diksha. And he got the name 105 Ksullak Vidyasagar ji. From there they left for Sillod. Bhatgi-Badod, Fulambri, Bavda Andhari reach Sillod by this route. There he was accorded a grand welcome and he was showered with praises.
Vigorous work done on behalf of the resourceless Sillod society:
The construction of the temple, Panch Kalyanak, Pratishtha Mohotsav as well as the establishment of Aryanandi Pratishthan, Munidiksha, etc., took place in the Maharaja's Sillod residence. Despite being a very small society and having less resources, the honorable people who came from all over India and organized the program were also done very well. There was no shortage in the welcome of the guests, the work of building such a grand temple in less money is surprising. It was because of Shri Padmakar Gosavi Guruji that this program was successful in organizing. It was because of Guruji's tireless hard work that the fund was collected for the program. PK Gosavi was a great devotee of Guruji Acharyashree. Acharyashree's blessings were for him an inspiration for religious work and a great support in times of crisis. Guruji himself donated by depositing one lakh rupees, and presented an ideal to the society. Due to the blessings of Maharaj and the devotion of Gosavi Guruji, all the works became one after the other.
Sillod Panchkalyanak Pratishtha Mahotsav
From 30 May to 4 June 1994, under the guidance of Acharya Maharaj, Panchkalyanak Samaram started. Many scholars' discourses and many cultural programs were completed in this program. Maharajji's discourses used to happen everyday. One day, before the discourse of Maharajji, Shri Devkumar Kanhe (Headmaster of Vidya Mandir of Verul) had a lecture, in this lecture series, daily the editor of 'Tirthankar' (Mumbai) Category Annadate, Pandit Manikchand Hazare of Amravati, Maharashtra Saitkal Jain Digambar Mahasangh of Mumbai Lectures were concluded on different days by the President of Kailas Ranadive, Dr. Nirmalkumar Fadkule etc. of Solapurukhi. All these scholars took pride in the work done by Acharyashree. The program was organized by Padmakar Gosavi. One day Sulochana Naik, the project officer of Vidyapeeth, had a lecture in the women's conference. Scripture discourse was done by Jaykumar Borikar, as well as your audible Kirtan. The cultural program of Shri Sumatinath Jain Samaj of Rahimabad was remarkable. Revered Acharya Aryanandi Maharaj gave Suryamantra to the idol.
Various rituals were performed with the hands of Chief Pratishthacharya Pandit Baburaoji Mirkute Pankanharegaonkar, Pandit Dadasaheb Naravane (Nagpur) and Special Assistant Pandita Poojang Visharad Sumanbai. The temple construction of Sillod and the Panchkalyanak Pratishtha Mahotsav were of more importance than anywhere else, because not only Sillod but also the surrounding villages did not have a Digambara Jain temple. There was a society of Saitwal Jain in this village, but due to poverty it was difficult to maintain, the temple
Acharya Shri 108 Atmanandiji Maharaj
आचार्य श्री १०८ आर्यनन्दीजी महाराज १९०७ Acharya Shri 108 Aryanandiji Maharaj 1907
आचार्य श्री १०८ आर्यनन्दीजी महाराज १९०७ Acharya Shri 108 Aryanandiji Maharaj 1907
Acharya Shri 108 Aryanandiji Maharaj 1907
Acharya Shri 108 Atmanandiji Maharaj
Sillod Jain Mandir
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