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62. मैं तो डूबा था ध्यान में
जिनका मन सदा लीन रहता है ज्ञान, ध्यान और तप में ऐसे पूज्य मुनि श्री 108 विराग सागर जी महाराज सन् 1984 में विराजमान थे – भावनगर में । एक दिन मुनि श्री बैठे थे सामायिक में, ध्यान की गहराइयों में उतरते ही जा रहे थे, समय का पता ही नहीं चला और 1-2 घंटे ही नहीं, हो गये पूरे पाँच घण्टे, गुरुवर तो निराकुलता से ध्यान में लीन थे पर श्रावको को हो रही थी आकुलता। कोई कहता शायद हमसे कुछ गलती हो गई है या हमने अनुकूल व्यवस्था नहीं बनाई।
या तो मुनिराज हमसे रूठ गये हैं आदि मनगढ़ंत बातें उठ रही थी सभी श्रावको के मन में, पूज्य गुरुवर के कान में जब यह बात सुनाई पड़ी तो सामायिक का विसर्जन कर अपनी अमृत तुल्य वाणी में बोले-अरे, आज तो विशुद्धि अपनी तीव्रता पर थी, रोज तो मात्र दो घड़ी की ही सामायिक होती है, मन में विचार आया चतुर्थकाल में तो मुनि जन चार-चार माह का योग धारण कर ध्यान करते थे अत: मैं भी करूं, पुण्य योग से अविरल चिंतन धारा बहती गई और मैं उसमें डूबता गया और 6 घड़ी से भी अधिक सामायिक हो गई। जब लोगों को पता चला तो सोचने लगे धन्य है मुनि श्री की साधना व निर्मल भावना। अपने कर्तव्यों के प्रति कितनी निष्ठा है, आज के समय में ऐसे ही साधकों से धर्म जीवंत रह सकता है।
गुरु जीवन (मम) जीवंत आदर्श, शिक्षाओं – घटनाओं का सर्ग । मेरे जीवन का यही विमर्श, दुनिया को कराऊँ उनका दर्श ।।
( घटनायें , ये जीवन की पुस्तक से लिए गए अंश )
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