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Aacharya Shri 108 Virag Sagar Ji Sansmaran1

SANSMARAN

1. महापुरुष का अवतरण

जन्म से लेकर जीवनपर्यन्त तक जिनकी सारी प्रतिक्रियायें सामान्य लोगो से हटकर , निराली तथा आश्चर्य को उत्पन करने वाली होती है उन्हें ही महापुरुष कहा जाता है ।

ऐसे ही एक दिव्य महान आत्मा का जन्म जब भारत भूमि के दमोह जिले के पथरिया ग्राम में सेठ श्री कपूरचंद जी एवं उनकी धर्मपत्नी श्यामादेवी के यहाँ 2 मई ,1963 (गुरुवार ) में हुआ था ।

तब उनकी माँ को भी शुभ आश्चर्यजनक स्वपन आया की मैं स्नानकर ताजे वस्त्र पहन हुए हूँ और श्रीजी की पूजन कर रही हूँ । पूजनोपरान्त घर आती हूँ तो सामग्री से सजी थाली लेकर अपने पतिदेव के साथ खड़ी हूँ । सामने से एक दिगम्बर मुनिराज आ रहें हैं । हम दोनों (पति-पत्नी) पड़गाहते है वे हमारे चौके को धन्य करते है । हम दोनों उन्हें निर्विघ्न आहार देते है फिर उन्हें बड़े मंदिर तक पहुँचाने जाते है

इस स्वपन ने संकेत पूर्व में दे दिए थे की यह बालक भविष्य में मुनिराज बनेगा और मुनिराज बनकर अनेकोनेक मुनिराजों साधको को दीक्षित कर मोक्षमार्ग को संवर्धित करेगा ।

2. घुमक्कड़ टिन्नू जी

महान पुरुषो का आचरण , उनकी क्रियाएँ सामान्य लोगों से होती है कुछ हटकर, वे एक ऐसे सुगन्धित पुष्प होते है जिसकी सुगन्धि बरबस खींचती है प्राणी मात्र को अपनी ओर ।

ऐसे ही कुछ विशेष थे हमारे पथरिया में जन्मे छोटे टिन्नू भैया सन 1965 की बात है जब ठंडी का मौसम था ओर समय था प्रात: काल का , बढ़िया टोप-कोट पहनकर टिन्नू जी बैठे थे कुएँ के पाट पर ओर उनकी भोली , प्यारी मुस्कराती सूरत सहज आकर्षित करती थी सबको । घर पर रहना भी उन्हें अच्छा कहाँ लगता था , जो भी निकलता टिन्नू जी के घर के रास्ते से मंदिर जी के लिये, तो टिन्नू जी भी साथ हो लेते , काम ही क्या था उन्हें, भगवान जी ही अच्छे लगते थे ।

एक दिन टिन्नू जी की नींद खुली कुछ देरी से , सभी लोग प्रात : काल ही मंदिर चले जाते थे अतः आज कोई उन्हें मंदिर नहीं ले गया , अब क्या था टिन्नू जी स्वयं ही चल दिये मंदिर की ओर, पर ये क्या ? मंदिर का दरवाजा तो बंद था अत: मंदिर के बाहर ही बैठ गये, काफी देर तक बैठे रहे पर दरवाजा नहीं खुला ।

इधर श्यामा माँ का ममतामयी मन व्याकुल हो उठा कहाँ गया मेरा टिन्नू ? अभी तो यही था , न जाने कहाँ चला गया । तभी गाँव के एक व्यक्ति ने बताया – श्यामा जी, आपका घुमक्कड़ टिन्नू तो मंदिर के दरवाजे पर बैठा है , उसे घर नहीं मंदिर की चौखट ही भाती है, माँ की जान में जान आयी । पर टिन्नू की रूचि को कौन जान सकता था की आज का यह घुमक्कड़ टिन्नू आगे चलकर भ्रमण करेगा भारत के सम्पूर्ण जिनालयो में ओर सर्वज्ञ फहरायेगा जिन धर्म की धव्जा ।

3. विष जयी

पूज्य गुरुवर ने सदैव कष्टों को गले लगाया । निडरता ओर निर्भयता उनमे बालयावस्था से ही थी, बात सन 1966 पथरिया नगर की है, जब टिन्नू साढ़े तीन साल के थे तब एक बार उनकी माँ उन्हें घर छोड़ पानी भरने कुऍ पर चली गई , इधर शांत स्वभावी टिन्नू से खेलने स्वयं बिच्छू महाराज आ गये , बस फिर क्या था , टिन्नू को तो मनो उसका मित्र मिल गया , वे उसे पकड़ खेलने लगे , पर यह क्या मित्र बिच्छू ने तो उन्हें डंक मार दिया वह रोने लगे , पर टिन्नू ने मित्र से मित्रता नहीं तोड़ी । माँ के पानी लेकर आने पर उसने टिन्नू को रोते देखा , तभी उन्हें टिन्नू के हाथ में बिच्छू दिखाई दिया , माँ ने बिच्छू को छुड़ाने का उपाय किया तो वह औऱ रोने लगा , गहरी मित्रता जो हो गयी थी । थोड़ी ही देर में अड़ोस पड़ोस वाले आ गये । उनमे से एक वृद्धा ने कहाँ – बेटा , पकडे रहने से तुम्हारे मित्र को दुःख होता है, बस इतना सुनते ही तुरंत उससे छोड़ दिया , वृद्धा की युक्ति काम कर गयी औऱ सबने टिन्नू की करुणा व निडरता की बड़ी प्रशंसा की । टिन्नू जी जहाँ पहले उस मित्र को छोड़ने के नाम से रो रहे थे अब उनके मुख पर मुस्कान थी जो मानो कह रही थी की – “मेरे छोड़ने पर सुखी होते हो – तो जाओ” । फिर वह मित्र कभी नहीं आया, न ही उसे जहर दे पाया। अतः टिन्नू विष विजयी बन गये ।

4. टिन्नू की लाठी

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गुरुवर विराग सागर जी के बचपन की एक बात है । लगभग सन 1967 की , जब टिन्नू जी चार वर्ष के हो गये । जो भी उन्हें देखता तो कपूरचंद जी से कहता – सेठ जी ! अब बाल मंदिर में दाखला करा दो, पर माता-पिता को पता ही नहीं की हमारा टिन्नू पढ़ने लायक हो गया, उन्हें तो घुमक्कड़ टिन्नू भैया छोटे ही दिखते है । एक दिन बाल मंदिर के शिक्षक उनके घर के यंहा से होते हुए निकले, टिन्नू को उस समय फोड़ा हो गया था , तो बोले- क्यों टिन्नू फोड़ा ठीक हो गया ? हाँ अब क्या करोगे ?

टिन्नू – पढ़ने जाऊंगा स्कूल ।

शिक्षक – अच्छा, फिर क्या बनोगे ?

टिन्नू – गाँधी जी बनूँगा , हाथ में लाठी लूँगा ।

शिक्षक – क्यों , लाठी क्यों लोगे ?

नन्हा टिन्नू उत्तर न दे सका, बस हँस कर रह गया । शिक्षक कुछ सोच में पड़ गये । वे सोच नहीं पाये थे की जिस गाँधी की लाठी ने देश से अंग्रेजो को बाहर निकाला था उसी प्रकार यह टिन्नू भी बड़ा होकर अपने लाठी अर्थात तपस्या /साधना के बल से आत्मा में घुसे हुए कर्म रूपी शत्रुओ को बाहर निकालेगा ।

सच, बचपन के सामान्य संस्कारों का उदय जीवन को महान संस्कार प्रदान करता है ।

5. बचपन का खेल बना जीवंत चर्या

बचपन के संस्कार ही भविष्य की उज्जवलता के दिग्दर्शक होते हैं । बच्चे प्राय: बैट- बल्ला , चोर-सिपाही आदि खेल खेलते हैं परन्तु टिन्नू का शोक कुछ भिन्न ही था । वे सुनते थे महापुरुषों की कहानियाँ, कभी दादी से तो कभी बुआ से ।

सन 1967 में पथरिया के लाल ने एक दिन बुआ के मुख से मुनिराजों की कहानी सुनी । फिर क्या था , छोटे चार वर्ष के टिन्नू बन गए महाराज । एक हाथ से मुद्रा ले ली, दूसरे में पकड़ा झाड़ू-लोटा और निकल पड़े आहार को । बोले – माँ पड़गाह लो, महाराज आये हैं । माँ जब बच्चे की वह छवि देखती हैं तो मन ही मन मुस्कराती है । महाराज को पड़गाहने में विलम्ब हुआ तो टिन्नू महाराज बोले- माँ जल्दी पड़गाह लो नहीं तो महाराज आगे चले जायेंगे । माँ ने झट से पड़गाया और उच्चासन ग्रहण कराया तथा महाराज के निर्विघन आहार संपन्न कराये । माँ बच्चे की अटखेलियाँ देख मन ही मन प्रसन्न हुई । फिर विचार में डूब गई कि मेरा टिन्नू सचमुच तो महाराज नहीं बन जायेगा ?

माँ का वह विचार आज मूर्त रूप ले चुका है तथा कल का वह छोटा टिन्नू जो महाराज कि नक़ल उतारता था , आज वह टिन्नू वास्तविक दिगम्बर वेश को धारण कर एक विख्यात आचार्य परमेष्टि परम पूज्य गणाचार्य श्री विराग सागर जी महाराज के रूप में विद्यमान हैं और धरती तल को अपनी पावन -रज से गौरवान्वित कर रहा हैं ।

6. सपना साकार हुआ

1968 कि लगभग घटना हैं जब अरविन्द का छोटा भाई विजय मात्र डेढ़ वर्ष का था । ठंड का समय था दोनों भाई खेल रहे थे । ठंड के कारण अरविन्द नहाने को तैयार नहीं हो रहे थे । तब पिताजी ने जबरन कपडे उतार दिये, और मम्मी ने स्नान करा दिया ठंडी और पानी भी ठंडा फिर क्या वे जोर-जोर से रोने लगे , पर फिर भी मम्मी मल-मल कर स्नान कराती रही । तभी वँहा से कल्लू बड्ड़ा कैमरा टांगे निकले, रोता अरविन्द को देखकर उसे चुप करने के लिए कहा – अरविन्द देखो यह कैमरा , तुम रोना बंद करो , तो तुम्हारी फोटो उतारूँगा ।

रोता बालक बातो में आकर चुप हो गया । और फोटो खिचवाने तैयार । उसका फोटो स्टाइल , खड़े होने का ढंग देखकर पिताजी बोले (व्यंग्य करते हुए कि) यह तो नेताओं कि तरह फोटो खिंचवाता हैं । मगर अगले ही क्षण में वे सहम गये, जब उनका ध्यान उसकी नग्नता पर गया , मन कल्पना कर बैठा नन्हे अरविन्द में दिगम्बर मुनि कि । कि मुनिराज कि ही फोटो खींची जा रही हो । यह भाव उनके ह्रदय -आत्मा में चिपक गया कि – मेरा नन्हा अरविन्द मुनिराज तो नहीं बन जाएगा ।

मन कि भावना साकार हुई और कपूरचंद जी का नन्हा अरविन्द अब बन चुका हैं परम पूज्य आचार्य श्री विराग सागर जी महाराज

7. पहले लड्डू फिर स्कूल

1968 का वर्ष जो लाया था अरविन्द की शिक्षा के क्षण । पथरिया के फड़के बालमंदिर में प्रवेश कराया गया । सभी बच्चों की तरह अरविन्द भी प्रारम्भ में स्कूल जाने में अक्सर रोने लग जाते थे । प्राय: मम्मी से कहते तुम भी स्कूल साथ चलो । हम अकेले नहीं जाएँगे । माँ समझाती की स्कूल में किसी की मम्मी नहीं जाती । वे सुनकर चुप रह जाते और बोलते – हमे कुछ नहीं मालूम मम्मी जाती की नहीं , पर तुम चलो । तब पापाजी ने एक रास्ता खोजा बोले टिन्नू तुम स्कूल जाओगे तो मिठाई दूंगा । वे बोले – अच्छा, तो पहले दो । मिठाई मिल गई वे खाकर खुश होकर बालमंदिर पढ़ने चले गये । पर यह क्या ? घंटा भर बाद वे फिर लौट आये । पापा जी बोले – अब क्या हो गया । टिन्नू जी बोले – कुछ नहीं । फिर से मिठाई दो तो अभी फिर बालमंदिर चला जाऊंगा । भोली बातों को सुन पिताजी खूब हॅसे । अब तो यह क्रम ही बन गया की पहले मिठाई फिर स्कूल । पिताजी ने कल्लू बड्ड़ा से सम्पर्क किया, जिनकी मिठाई की दुकान स्कूल के रास्ते में थी अब तो टिन्नू जी पहले मनपसंद मिठाई मगद का लड्डू या कलाकंद लेते फिर स्कूल चले जाते ।

जिन्होंने बाल्यकाल की शिक्षा का प्रारम्भ मीठा खाकर किया था इसलिए ही उनकी वाणी, ज्ञानधारा में मिठाई से भी ज्यादा मिठास श्रावको के मन को भाती हैं ।

8. करुणा/दयालुता

अरविन्द का मन बड़ा ही भावुक था। करुणा उनके रोम रोम में थी। मानव तो मानव, मूक प्राणियों के प्रति भी उनका मन सदैव दया से ओत-प्रोत रहता था, वही संस्कार तो आज भी विघमान हैं जो थे कल के अरविन्द में।

बात सन् 1970 पथरिया नगर की है जब तेज कड़कड़ाती सर्दी पड़ रही थी, शीत बाहर अपना प्रकोप दिखा रही थी, उसी समय ठंड के कारण कुत्ते के पिल्लो के चीखने की आवाज़ सुनाई दी अरविंद को, बस उन मूक प्राणियों का दर्द उनसे देखा न गया और उन्हें बड़े प्यार से उठा अपने कोट की जेब मे रख लिया। उन्हें न तो गंदगी से घ्रणा हुई, न ही कीमती कोट की परवाह, उन्हें डर था केवल माँ का।

माँ ने अरविन्द को चाय बनाकर दी, तो वह भी पिल्लों को पिला दी और माँ के पूछने पर कहा- हाँ, मैंने चाय पी ली। और उन्हें बोरों से ढंककर सुला दिया किन्तु असलियत ज्ञात हुई तो माँ के डर से अरविन्द की रूह काँप उठी। किन्तु यह जानकर कि मेरे बेटे ने इन नन्हें प्राणियों के दुःख को बाँटा है, प्रसन्नता से हृदय भर गया। बस, माँ ने उन्हें छोड़ने का आग्रह किया तो भोले अरविन्द बोले- नहीं माँ, मैं तो इनके साथ खेलूंगा। माँ ने पुनः कहा- नहीं बेटा इनकी माँ को दुख होगा तथा वो इन्हें ढूंढती होंगी अतः इन्हें छोड़ दो। करुणा से भरे अरविन्द ने स्वयं जाकर पिल्लों को उनकी माँ के पास छोड़ दिया, किन्तु ह्रदय में एक टीस लग गईं, स्वयं की राग-द्वेष-मोह रूपी गंदगी को दूर करने की। स्वयं की आत्मा पवित्र बनाने की।

आज वही अरविन्द विकसित होकर पूज्य गणाचार्य श्री विराग सागर जी के रूप में अपने करुण मन से सभी के अज्ञान भाव को तिरोहित के ज्ञान की वर्षा कर रहे हैं।

9. झाँकिया सजाने वाले

अरविन्द बचपन से ही प्रत्येक कला में प्रवीण, कुशील थे चाहे वह चित्रकला हो, या मिट्टी के खिलौने बनाने की आदि । जब वे मात्र 8-9 वर्ष के थे तब वे घर में एकदिन झाँकी सजा रहे थे । उसमे प्रकाश के लिए लाइट भी लगाई किन्तु लाइट नहीं चली तो उन्होंने बल्ब निकालकर होल्डर खोला तो देखा की उसका एक तार टूटा है और यह भूल गये की थ्रीपिन प्लग में लगा और लाइन चालू है तथा मै लोहे की पेटी पर खड़ा हूँ उन्होंने जैसे ही वायर पकड़ा तो जोर से करंट लगा और वे दूर जाकर गिरे, बेहोश हो गये । पिताजी ने जैसे ही अरविन्द की चीख भरी आवाज सुनी तो वैसे ही दौड़े आये, देखा अरविन्द बेहोश पड़ा है । उन्होंने शीघ्रता से उठाया और बेंच पर लिटाया । थोड़ी देर बाद अरविन्द ने आंखे खोली , आस पास भीड़ देख पिताजी ने पूछा-अरविन्द क्या हुआ । तो बोले कुछ नहीं नींद लग गई थी । उन्हें ज्ञात ही नहीं था की मुझे करंट लग गया है । तब उन्हें याद दिलाया मित्रो ने की तुम झाँकी सजा रहे थे न । तब उन्होंने आले की और झाँकी को देखो – तो उन्हें याद आया | तब पिताजी ने समझाया की – कभी भी ऐसे वायर को मत पकड़ना । न ही ये झाँकी का खेल खेलना ।वे तब कुछ भी उतर न दे सके । क्यूंकि झाँकिया सजाना उनका प्रिय कार्य, शौक था ।

भविष्य में वे ही मिट्टी की झाँकी सजाने वाले अरविन्द अनेक चेतन प्राणियों के जीवन की झाँकी सजाने वाले एक महान आचार्य बन गये

10. नन्हे घी चोर

सन १९७२ में जब टिन्नू भैया , दाऊ भैया कहलाने लगे, तब एक बार माँ ने कहा – दाऊ भैया , जाओ दुकान से शुद्ध घी का बर्तन उठा लाओ । तब दाऊ चले, पर साथ में विजय भैया भी दौड़ लिए जब वे घी लेकर लौट रहे थे तभी से विजय की नज़र घी पर थी । दाऊ भैया भी समझ गये, फिर क्या , वे बोले – भैया घी खाओगे । विजय ने सोचा नेकी और पूछ-पूछ दोनों बारी-बारी से बर्तन में हाथ डालकर घी का लौंदा निकालते और उसे खाने लगे, जैसे पहले यशोदा के लाल बलदाऊ और श्री कृष्ण ने मक्खन खाया था, वही दृश्य उस समय माँ श्यामा के लाल अरविन्द दाऊ और विजय भैया का था । अरविन्द यह तो भूल ही गये की घी का बर्तन घर लेकर भी जाना है ।

दोनों प्रसन्नता से बैठे थे पुलिया में और जमे थे घी खाने में, तभी वंहा से पड़ोस की मौसी शांति बाई निकली तो दोनों को घी खाते देखा, फिर क्या दोनों नन्हे घी चोरो की कलाइयाँ पकड़ कर माँ श्यामा के दरबार में इस तरह हाज़िर हो गई जिस तरह यशोदा माँ के पास मक्खन चोर श्री कृष्ण को लाई हो । सारी बात बताई , माँ भी थोड़ा झुंझलाई , पर नन्हें चोरो को कुछ भी बात अभी भी समझ में ना आई , की हमें इन्होने क्यों डांट लगाई और शांत बालक की तरह सुनते रहे मानो उनसे कोई गलती ही न हुई हो |

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