दिगंबर जैन विकी द्वारा प्रस्तुत
Bhaktamar pranat maulimaniprabhanam muddyotakam dalita pap tamovitanam.
Samyak pranamya jin pad yugam yugada- valambanam bhavajale patataam jananam.
अन्वयार्थ – (भक्तामर प्रणतमौलिमणिप्रभाणाम्) भक्तदेवों के नम्रीभूत मुकुटों के मणियों की प्रभा के (उद्योतकम्) बढ़ाने वाले (दलितपापतमोविज्ञानम्) पापरूपी अन्धकार के विस्तार के नाशक [च] और (युगादी) युग के प्रारम्भ में (भवजले) संसारसमुद्र में (पतताम्) गिरते हुये (जनानाम्) प्राणियो के (आलम्बनम्) रक्षक या सहारे (जिनपादयुगम्) जिनेन्द्रदेव के चरणयुगल को [सम्यक्] भलीभांति [प्रणम्य] नमस्कार करके [स्तोष्ये] मैं स्तुति करता हूँ ।।१।।
भावार्थ – विशेष वैभवशाली देवों से पूजित, अपने तथा औरों के पापसमूह के नाशक और अपने वीतराग उपदेश द्वारा प्राणियों को संसारसमुद्र से निकालने वाले जिनेंद्रदेव के चरणों को नमस्कार कर में यह स्तुति करता हूं ॥१॥
Yah samstutah sakala vaangmaya tatva bodhaat dudbhuta buddhi patubhih suraloka naathaih. Stotrair jagattri taya chitta harairudaaraih stoshye kilahamapi tam prathamam jinendram.
The Lords of the Gods, with profound wisdom, have eulogized Bhagavan Adinath with Hymns bringing joy to the audience of three realms (heaven, earth and hell). I shall offer my obeisance in my endeavour to eulogize that first Tirthankar.
अन्वयार्थ – (यः) जो ऋषभदेव भगवान (सकलवाङमयतत्त्व- बोधात्) समस्त द्वादशाङ्गके ज्ञान से (उद्भूतबुद्धिपटुभिः) उत्पन्न विशिष्टबुद्धि से चतुर (सुरलोकनाथः) इन्द्रों के द्वारा (जगस्त्रितय – चित्तहरैः) तीनों लोकोंके प्राणियोंके चित्तको लुभाने वाले [च] और (उदारैः) प्रशंसनीय (स्तोत्र) स्तोत्रों द्वारा (संस्तुतः) स्तुति किये गये थे (तम्) उन (प्रथमम्) पहले (जिनेन्द्रम्) ऋषभनाथ जिनेन्द्र को (अहम्) मैं (अपि) भी (स्तोध्ये) स्तुति करता हूँ (इति) यह (किल) आश्चर्य की बात है ॥२॥
भावार्थ – सम्पूर्ण द्वादशाङ्ग का ज्ञान होने से प्रखर बुद्धियुक्त इन्द्रों ने तीनों लोकोंके चित्तको लुभाने वाले प्रशस्त स्तोत्रोंसे जिसकी स्तुति की थी उस आदिनाथ भगवान की स्तुति करने के लिये में अल्पज्ञ प्रवृत्त होता हूं, यह आश्चर्य की बात है ॥२॥
अन्वयार्थ – (विबुधाचितपादपीठ!) देवों के द्वारा पूजित हैं पादपीठ – पैरों के रखने की चौकी जिनकी, ऐसे है जिनेश (विगतत्रपः) निर्लज्ज (ग्रहम्) मैं (बुद्ध्या विना) बुद्धि के बिना (अपि) भी (स्तोतुम्) स्तुति करने के लिये (समुद्यतमतिः) तत्पर [भवामि] हो रहा हूं [यतः] क्योंकि (जलसंस्थितम्) जल में प्रतिबिम्बित (इन्दुबिम्बम्) चन्द्रमण्डल को (सहसा) बिना विचारे, (ग्रहीतुम्) पकड़ने को (बालम्) बालक या मूर्ख को (विहाय) छोड़कर (अन्यः) दूसरा (क:) कौन (जनः) मनुष्य (इच्छति) इच्छा करता है ॥३॥
भावार्थ – हे देवों के द्वारा पूजनीय जिनेन्द्र विशेषबुद्धि के न होनेपर भी जो मैं आपकी स्तुति करने में तत्पर हो रहा हूं; यह मेरी ढीठता हो है, क्योंकि मेरा यह प्रयत्न पानी में प्रतिबिम्बित चन्द्र के प्रतिबिम्ब को बड़े चावसे पकड़ने वाले बालक की भांति ही है ॥३॥
Buddhya vinaapi vibudharchita padapitha stotum samudyata matirvigata trapoaham. Balam vihaya jala samsthitam indu bimbam manyah ka ichchhati janah sahasa grahitum.
Shameless I am, O God, as a foolish child takes up an inconceivable task of grabbing the disc of the moon reflected in water, out of impertinence alone, I am trying to eulogize a great soul like you.
Vaktum gunan gunasamudra shashankakantan kaste kshamah suraguru pratimoapi buddhya. Kalpanta kala pavanoddhata nakra chakram ko va taritum alam ambunidhim bhujabhyam.
O Lord, you are the ocean of virtues. Can even Brihaspati, the teacher of gods, with the help of his infinite wisdom, narrate your virtues spotless as the moonbeams? (certainly not.) Is it possible for a man to swim across the ocean full of alligators, lashed by gales of deluge? (certainly not).
अन्वयार्थ – (गुणसमुद्र!) हे गुणों के सागर (ते) तुम्हारे (शशाङ्ककान्तान्) चन्द्र की कान्ति के समान उज्ज्वल (गुणान्) गुणों को (वक्तुम्) कहने के लिए (बुद्ध्या) बुद्धि से (सुरगुरुप्रतिमः) बृहस्पति के समान (अपि) भी (क:) कौन पुरुष (क्षमः) समर्थ (अस्ति) है। (वा) जैसे (कल्पान्तकालपवनोद्धतनक्रचक्रम्) प्रलयकाल की प्रचण्ड वायु से कुपित मगरमच्छों से परिपूर्ण (अम्बु- निधिम्) समुद्र को (भुजाभ्याम्) भुजाओं से (तरीतुम्) पार करने को (क:) कौन (अलम्) समर्थ [अस्ति] है? अर्थात् कोई नहीं ||४||
भावार्थ – हे गुणनिधे! जिस तरह प्रलयकाल की, प्रचण्ड वायु से कुपित और लहराते हुए हिंसक मगरमच्छों से परिपूर्ण समुद्रको कोई भुजाओं से नहीं पार कर सकता; उसीप्रकार बृहस्पति के समान बुद्धिमान पुरुष भी आपके निर्मल गुणों का वर्णन नहीं कर सकता, फिर सुक्त अल्पज्ञ को तो बात ही क्या है? ||४||
अन्वयार्थ – (मुनीश!) हे मुनिनाथ (तथापि) तो भी (विरातापासितः) अल्पज्ञ (अपि) भी (स: अहम्) मैं (तव) तुम्हारी (भक्तिवशात्) भक्ति के वंश से (तब) आपकी (स्तवनम्) स्तुति को (कलुम्) करने के लिए (प्रवृत्तः) तैयार हुआ हूं [तथा] जैसे (मृगी) हरिणी (भ्रात्मवीर्यम्) अपनी शक्ति को (श्रविचार्य) नहीं विचार कर (श्रोत्या) केवल प्रेम से (निजशिशोः) अपने बच्चे की (परिपालनार्थम्) रक्षा के लिए (मृगेन्द्रम्) सिंहका (न श्रभ्येति किम्) सामना नहीं करती है क्या? ॥ ५॥
भावार्थ – हे मुनिनाथ! जैसे हरिणी शक्ति न रहते हुए भी केवल प्रेमवश अपने बच्चे की रक्षा के लिए सिंह का सामना करती है, उसी प्रकार मैं भी बौद्धिकशक्ति न होने पर भी श्रद्धामात्र से आपका स्तवन करने के लिए प्रवृत्त हआ हूं ॥५॥
Soaham tathapitava bhakti vashanmunisha kartum stavam vigatashaktirapi pravrittah.Prityatma viryam avicharya mrigi mrigendram nabhyeti kim nijashishoh paripalanartham.
O Great God ! I am incapable of narrating your innumerable virtues. Still, urged by my devotion for you, I intend eulogise you. It is well known that to protect her fawn, even a deer puts his feet down and faces a lion, forgetting its own frailness. (Similarly, devotion is forcing me to eulogise you without assessing my own capacity).
अन्वयार्थं – (अल्पश्रुतम्) अल्पज्ञानी, अतएव (श्रुतवताम्) विद्वानों के (परिहासधाम) हास्य के पात्र (माम्) मुझ को (त्वदभक्तिः) आपकी भक्ति (एक) ही (बलात्) हठ से (मुखरीकरोति) वाचाल कर रही है [यत] क्योंकि (किल) निश्चय से (मधौ) वसन्त ऋतु में (कोकिलः) कोयल (यत्) जो (मधुरम्) मीठा (विरौति) शब्द करती है। (तत्) वह (आम्रचारुकालिकानिकरैकहेतुः) आम की सुन्दर मज्जरी के समूह के कारण [एव] ही ||६||
भावार्थ – हे जिनेश! जिस तरह अबोध कोयल बसन्त ऋतु में केवल आम्रमञ्जरी का निमित्त पाकर मधुर ध्वनि करती है, उसी प्रकार अल्पज्ञ और विद्वानों के हास्यपात्र मुझे केवल आपकी भक्ति ही आपकी स्तुति करने के हेतु जबरन बाचाल कर रही है ||६||
Alpashrutam shrutavatam parihasadham tvadbhakti-reva mukhari kurute balanmam. Yat kokilah kila madhau madhuram virauti tachchamra charu kalika nikaraika-hetuh.
O Almighty! I am so unlettered that I am subject to ridicule by the wise. Yet, my devotion for you forces me to sing hymns in your praise, just as the cuckoo is compelled to produce its melodious coo when the mango trees blossom.
अन्वयार्थ – (आक्रांन्तलोकम्) सम्पूर्ण लोक में फैले हुए (अलिनीलम्) भौरों के समान काले [च] और (सूर्याशुभिन्नम्) सूर्य की किरणों से खण्डित (शार्वराम) रात्रिसम्बन्धी (अशेषम्) सम्पूर्ण (अन्धकारम् इव) अन्धकार की तरह (शरीरभाजाम्) प्राणियों के (भवसन्ततिसन्निबद्धम्) अनेक भवों के बंधे हुये (पाथम्) पापकर्म (त्वत्संस्तवेन) आपकी स्तुति से (क्षणात्) क्षण भर में (आशु) शीघ्र (क्षयम्) विनाश को (उपैति) प्राप्त होते हैं ॥७॥
भावार्थ – हे प्रभो! जिस तरह सूर्य की किरणों द्वारा रात्रि का समस्त अन्धकार नष्ट हो जाता है उसी तरह आपके सेवन से प्राणियों का अनेक जन्म में सञ्चित पाप नष्ट हो जाता है ॥७॥
Tvat sanstavena bhavasantati sannibaddham papam kshanat kshayamupaiti sharirabhajam. Akranta lokamalinilamasheshamashu suryamshu bhinnamiva sharvara mandhakaram
Just as the shining sun rays dispel the darkness spread across the universe, the sins accumulated by men through cycles of birth, are wiped out by the eulogies offered to you.
अन्वयार्थ – (नाथ) हे प्रभो (इति) ऐसा (मत्वा) मानकर (तनुधिया) मन्दबुद्धि (मया) मेरे द्वारा (अपि) भी (तव) आपका (इदम्) यह (संस्तवनम् ) स्तवन (आरभ्यते) प्रारम्भ किया जाता है। [यत्] जो (तब) आपके (प्रभावात्) प्रभाव से (सताम्) सज्जनों के (चेतः) चित्त को (हरिष्यति) हरेगा (ननु) निश्चय से (उदविन्दुः) पानी की बूंद (नलिनीदलेषु) कमलिनी के पत्तों पर (मुक्ताफलद्युतिम्) मोती जैसी कान्ति को (उपैति) प्राप्त होती है ॥८॥
भावार्थ – हे प्रभो! जिस तरह कमलिनी के पत्र पर पड़ी हुई पानी की बूंद उन पत्तों के प्रभाव से मोती के समान सुन्दर दिखकर दर्शकों के चित्त को प्रसन्न करती है, उसी प्रकार मुझ मन्दबुद्धि द्वारा की गई आपकी स्तुति भी आपके प्रभाव से सज्जनों के चित्त को प्रसन्न करेगी ॥८॥
Matveti nath ! tava samstavanam mayedamam arabhyate tanudhiyapi tava prabhavat. Cheto harishyati satam nalinidaleshu muktaphala dyutim upaiti nanudabinduh
I begin this eulogy with the belief that, though composed by an ignorant like me, it will certainly please noble people due to your magnanimity. Indeed, dew drops on lotus-petals lustre like pearls presenting a pleasant sight.
References and Thanks
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