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Sanskrit and Hindi Bhaktambar Stotra 25 to 32

आचार्य मानतुंग कृत

"भक्तामरस्तोत्रम"

दिगंबर जैन विकी द्वारा प्रस्तुत

25. नजर (दृष्टी दोष) नाशक

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बुद्धस्त्वमेव विबुधाचितबुद्धबोधात्, त्वं शङ्करोऽसि भुवनत्रयशङ्करत्वात्।

धातासि धीर! शिवमार्गविधे विधानाद्, व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोऽसि ।।२५।।

अन्वयार्थ – (धीर) हे गम्भीर (विबुधाचितबुद्धिबोधात्) देवों द्वारा पूजितज्ञान वाले होने से (त्वम्) तुम (एव) ही (बुद्धः) वृद्ध (अति) हो (भुवनत्रयशङ्करत्वात्) लोकत्रय में सुख या शान्ति के कर्त्ता होने से (त्वम् एवं) तुम ही (शङ्करः) शंकर (असि) हो (शिवमार्गविधे:) मोक्षमार्ग की विधिके (विधानात्) विधान करने से (त्वम् एव) तुम ही (धाता) विधाता (अभि) हो [च] तथा (भगवन्) हे प्रभो (त्वम्) तुम (एव) ही (व्यक्तम्) स्पष्टरूप से (पुरुषोत्तमः) पुरुषोत्तम (असि) हो ।।२५।।

भावार्थ – हे देवाधिदेव? संसार में बुद्ध, शंकर और विष्णु नाम से प्रसिद्ध अन्य देव हैं, परन्तु वास्तव में वे नाम आप में ही घटित होते हैं, अन्य में नहीं। १ – बौद्धमत प्रर्वतक क्षणिकवादी अथवा केवलज्ञानरहित व्यक्ति बुद्ध नहीं हो सकता; सच्चे बुद्ध आप ही हैं, क्योंकि आपकी बुद्धि (केवलज्ञान) की देवों ने पूजा की है। २ – शैवों द्वारा पूजित; पृथिवी का संहारकर्त्ता कपाली शंकर नहीं हो सकता, क्योंकि शंकर शब्द का अर्थ ‘सुखकर्त्ता’ है, इसलिए वास्तविक, शंकर आप ही है। क्योंकि आप ही तीनों लोकों के सुख और शान्ति के कर्त्ता हैं। ३- तिलोत्तमा के विलासों से जिसका तप नष्ट हो गया था, वह ब्रह्मा वास्तविक विधाता नहीं है; किन्तु वास्तविक विधाता आप ही हैं, क्योंकि श्रापने ही मोक्षमार्ग की विधि का विधान किया है। ४ – और इसी प्रकार वैष्णवों का आराध्य परवनिता-विलासी विष्णु पुरुषोत्तम नहीं हो सकता किन्तु उपर्युक्त गुणों के कारण वास्तविक पुरुषोत्तम आप ही हैं ।।२५।।

Buddhastvameva vibudharchita buddhibodthat tvam Shankaroasi bhuvanatraya shankaratvat. Dhatasi dhira!shivamarga vidhervidhanat vyaktam tvameva Bhagavan!purushottamoasi.

O Supreme God ! The wise have hailed your omniscience, so you are the Buddha. You are the ultimate patron of all the beings, so you are Shankar. You are the developer of the codes of conduct( faith,Right knowledge and Right conduct)leading to Nirvana, so you are Brahma. You are manifest in thoughts of all the devotees, so you are Vishnu. Hence you are the Supreme God.

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26. आधा शीशी (सिर दर्द) एवं प्रसूती पीडा नाशक

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तुभ्यं नमस्त्रिभुवनातिहराय नाथ, तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय।

तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिन! भवोदधिशोषणाय ॥२६॥

अन्वयार्थ – (जिन! नाथ!) हे जिनेश (त्रिभुवनाति-हराय) तीनों लोकों की पीड़ा हरने वाले (तुभ्यम्) आपके लिये (नमः) नमस्कार [अस्तु] हो (क्षितितलामलभूषणाय) भूतल के अनुपम अलङ्कररूप (तुभ्यम्) आपके लिये (नमोऽस्तु) नमस्कार हो (त्रिजगतः) तीनों लोकों के (परमेश्वराय) परमेश्वररूप (तुभ्यम् नमः अस्तु) आपके लिये नमस्कार हो [च] तथा (भवोदधिशोषणाय) संसारससुद्र के सुखाने वाले (तुभ्यम् नमः, अस्तु) आपके लिये नमस्कार हो ॥२६॥

भावार्थ- हे संसारशोषक! आप लोकत्रय की विपत्ति के नाशक, महीतल के निर्मल आभूषण, त्रिभुवन के स्वामी और संसार- सागर के शोषक हो इसलिये आपको नमस्कार हो ॥२६॥

Tubhyam namastribhuvanartiharaya natha Tubhyam namah kshititalamala bhushanaya. Tubhyam namastrijagatah parameshvaraya Tubhyam namo jina! bhavodadhi shoshanaya.

O Salvager from all the miseries ! I bow to thee. O Master of this world ! I bow to you. O Lord supreme of the three worlds ! I bow to you. O eradicator of the unending cycle of rebirths ! I bow to you.

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27. शत्रुकृत-हानी निरोधक

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को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैर शेषै- स्त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश!

दोषैरूपात्तविविधाश्रयजातगर्वैः, स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥२७॥

अन्वयार्थ – (मुनीश) हे ऋषिवर (यदि नाम) यदि (अशेषै:) समस्त (गुणैः) गुणों के द्वारा (त्वम्) तुम (निरवकाशतया) सघनता से (संश्रितः) प्राश्रित किये गये [च] तथा (उपात्तविविधाश्रयजात- गर्वः) प्राप्त अनेक देवादिकों के आश्रय से गर्वित (दोषै:) दोषोंके द्वारा (स्वप्नान्तरे) स्वप्न में (अपि) भी (कदाचित्) कभी (अपि) भी (न ईक्षितः असि) नहीं देखे गये हो (अत्र) इस विषय में (क:) क्या (विस्मयः) आश्चर्य [विद्यते] है ॥२७॥

भावार्थ – हे गुणनिधान! संसार के समस्त गुणों ने आप में सहसा इस तरह निवास कर लिया है कि कुछ भी स्थान शेष नहीं रहा और दोषों ने यह सोचकर अभिमान से आपकी ओर देखा भी नहीं; कि जब संसार के बहुत से देवों ने हमें अपना आश्रय दे रखा है, तब हमें एक जिनदेव की क्या परवाह है, यदि उनमें हमें स्थान नहीं मिला तो न सही। सारांश यह है कि आप में केवल गुणों का ही निधान है, दोषों का नाम निशान भी नहीं ॥२७॥

Ko vismayoatra yadi nama gunairasheshaih tvam samshrito niravakashataya munisha. Doshairupatta vividhashraya jatagarvaih svapnantareapi na kadachidapikshitosi.

O Supreme ! It is not surprising that all the virtues have been packed into you, leaving no place for vices. The vices have appeared in other beings. Elated by the false pride, they drift away and do not draw closer to you even in their dream.

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28. सर्व कार्य सिद्धि दायक

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उच्चैरशोक-तरु-संश्रितमुन्मयूख-माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम्।

स्पष्टोल्लसत्किरणमस्ततमोवितानं, बिम्बं रवेरिव पयोधरपार्श्ववर्ती ।।२८।।

अन्वयार्थ – (उच्चरशोकतरुसंश्रितम्) ऊँचे अशोकवृक्ष के नीचे- स्थित (उन्मयूखम्) ऊपर की ओर फैल रही हैं किरणें जिसकी ऐसा [च] तथा (नितान्तम्) अत्यन्त (अमलम्) निर्मल (भवतः) आपका (रूपम्) रूप (रवेः) सूर्य के (स्पष्टोल्लसत्किरणम्) व्यक्तरूप ऊपर को फैली हैं किरणें जिसकी ऐसे (अस्ततमोवितानम्) अन्धकारसमुह के नाशक [च] और (पयोधरपार्श्ववर्ती) मेघ के पास रहने वाले (बिम्बम् इव) बिम्ब की तरह (प्राभाति) शोभित होता है ।।२८।।

भावार्थ – हे अतिशयरूप! ऊँचे और हरे “अशोकवृक्ष” के नीचे आपका स्वर्णमय उज्ज्वलरूप ऐसा मालूम होता है जैसा काले काले मेघ के नीचे पीतवर्ण सूर्य का मण्डल। यह अशोकवृक्ष प्रातिहार्य का वर्णन है ।।२८।।

Uchchairashokatarusamshrita munmayukham abhati rupamamalam bhavato nitantam. Spashtollasat kiranamasta tamo vitanam bimbam raveriva payodhara parshvavarti.

O Jina ! Sitting under the Ashoka tree, the aura of your sparkling body gleaming, you look as divinely splendid as the halo of the sun in dense clouds, penetrating the darkness with its rays.

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29. नेत्र पीडा व बिच्छू विष-नाशक

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सिंहासने मणिमयूखशिखाविचित्रे, विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम्।

बिम्बं वियद्विलसदंशुलतावितानं, तुङ्गोदया द्विशिरसीव सहस्त्ररश्मेः ॥२९॥

अन्वयार्थ – (मणिमयूखशिखाविचित्रे) रत्नों की किरण-पंक्ति से चित्र विचित्र (सिंहासने) सिंहासन पर (तव) आपका (कनकावदातम्) सुवर्ण के समान उज्ज्वल (वपुः) शरीर (तुङ्गोदयाद्विशिरसि) ऊंचे उदयाचल के शिखर पर (सहस्ररश्मे) सूर्य के (वियद्विलसदंशुलतावितानम्) प्राकाश में शोभित है किरणरूपी लताओं का चन्दोबा जिसका ऐसे (बिम्बम् इव) मण्डलकी तरह (विभ्राजते) शोभायमान होता है ॥२९॥

भावार्थ – हे सिंहासनाघिते! उदयाचल पर्वत के शिखर पर सूर्य का बिम्ब जैसी शोभा देता है, उसी प्रकार “रत्नजटित सिहासन” पर आपका मनोहर शरीर शोभायमान होता है। (यह सिंहासन प्रातिहार्य का वर्णन है ) ॥२९॥

Simhasane mani mayukha shikha vichitre vibhrajate tava vapuh kanakavadatam. Bimbam viyadvilasadamshulata vitanam tungodayadri shirasiva sahasrarashmeh.

O Jina ! Seated on the throne with kaleidoscopic hue of gems, your splendid golden body looks magnificent and attractive like the rising sun on the peak of the eastern mountain, emitting golden rays under blue sky.

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30. शत्रु स्तम्भ्क

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कुन्दावदातचलचामरचारुशोभं, विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम्।

उद्यच्छशाङ्शुचिनिर्भरवारिधार-मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ।।३०।।

अन्वयार्थ – (तव) आपका (कुन्दावदातचलचामरचारुशोभम्) कुन्द के फूल के समान उज्ज्वल और ढुरते हुये चँवरों से सुन्दर है शोभा जिसकी ऐसा [च] तथा (कलधौतकान्तम्) सुवर्णसमान सुन्दर (वपुः) शरीर (सुरगिरेः) सुमेरु पूर्वत के (उद्यच्छशाङ्कशुचिनिर्झर- वारिवाम्) उदयरूप चन्द्रमा के समान निर्मल झिरने के जल की धारा बह रही है जिसने ऐसे (शातकौम्भम्) सुवर्णनिर्मित (उच्चैस्तटम् इव) ऊंचे तट के समान (विभ्राजते) शोभायमान होता है ।।३०।।

भावार्थ – हे चामराधिपते! जिस पर देवों द्वारा सफेद चंवर ढोरे जा रहे हैं ऐसा आपका सुवर्णमय शरीर ऐसा सुहावना मालूम होता है, जैसा झरने के सफेद जल से शोभित सुमेरुपर्वत का तट। यह (चामरप्रातिहार्य) का वर्णन है ।।३०।।

Kundavadata chalachamara charushobhama vibharajate tava vapuh kaladhautakantam. udyachchashanaka shuchi nirjhara varidharam uchchaistaam suragireriva shatakaumbham.

O Tirthankara ! The snow white fans of loose fibres (giant whisks) swinging on both sides of your golden body appear like streams of water,pure and glittering as the rising moon,flowing down the sides of the peakof the golden mountain,Sumeru.

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31. राज्य सम्मान दायक व चर्म रोग नाशक

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छत्रत्रयं तव विभाति शशाङ्ककान्त-मुच्चैः स्थितं स्थगितभानुकरप्रतापम्।

मुक्ताफलप्रकरजाल-विवृद्धशोभं, प्रख्यापयत्त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥३१॥

अन्वयार्थ – (तव) आपका (शशाङ्ककान्तम्) चन्द्रमा के समान रमणीय (स्थगितभानुकरप्रतापम्) सूर्य की किरणों के सन्ताप को रोकने वाला (मुक्ताफलप्रकरजालविवृद्धशोभम्) मोतियों के समूह के जड़ाव से बढ़ी हुई है शोभा जिसकी ऐसे [च] तथा (उच्चैः स्थितम्) आपके शिर पर सुशोभित (छत्रत्रयम्) तीन छत्र [भवति] आप में (त्रिज-गतः) तीनों जगत के (परमेश्वरत्वम्) स्वामित्व को (प्रख्यापयत्) सूचित करता हुआ (विभाति) शोभायमान होता है ।।३१।।

भावार्थ – हे छत्रत्रयाधिपते! आपके शिर पर सुशोभित, चन्द्र के समान रमणीय, सूर्य की किरणों के संताप का रोधक और रत्नोंके जड़ाव से सुशोभित “छत्रत्रय” आपके तीनों लोकों के स्वामीपन को प्रगट करता है। यह छत्रत्रय प्रातिहार्य है। ।।३१।।

Chhatratrayam tava vibhati shashanka kantam uchchaih sthitam sthagita bhanukara pratapam. Muktaphala prakarajala vivraddhashobham prakhyapayat trijagatah parameshvaratvam

O The Greatest One ! A three tier canopy adorns the space over your head. It has the soft white radiance of the moon and is decorated with jewels. This canopy has filtered the scorching sun rays. Indeed, this canopy symbolizes your dominance over the three worlds.

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32. संग्रहणी आदि उदर पीडा नाशक

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गम्भीरताररव-पूरितदिग्विभाग-स्त्रैलोक्यलोकशुभसङ्गमभूतिदक्षः।

सद्धर्मराजजयघोषणघोषकःसन्, खे दुन्दुभि ध्वनति ते यशसः प्रवादी ||३२||

अन्वयार्थ – (ते) आपका (गम्भीताररवपूरितदिग्विभागः) गम्भीर और उच्च शब्द (आवाज) से दशों दिशाओं को पूरित करने वाला (त्रैलोक्यलोकशुभसङ्गमभूतिदक्षः) तीनों लोकों के प्राणियों को शुभ समागम की विभूति देने में दक्ष [च] तथा (सद्धर्मराजजयशेषणघोषकः) जैनधर्म के समीचीन स्वामी तीर्थङ्कर- देवका जयघोष करने वाला (दुन्दुभिः) दुन्दुभि बाजा (ते) आपके (यशस:) यश का (प्रवादी सन्) कथन करता हुआ (खे) आकाश में (ध्वनति) शब्द करता है ||३२||

भावार्थ – हे दुन्दुभिपते! अपने गम्भीर और उच्चशब्द से दिशाओं का व्यापक, त्रैलोक्य के प्राणियों को शुभसमागम की विभूति प्राप्त करने वाला “दुम्बुभि” बाजा आपका सुयश प्रगट कर रहा है। यह दुन्दुभि प्रातिहार्य का वर्णन है ॥३२॥

Gambhira tara rava purita digvibhagah trailokya loka shubha sangama bhuti dakshah. Saddharmaraja jaya ghoshana ghoshakah san khe dundubhirdhvanati te yashasah pravadi.

The vibrant drum beats fill the space in all directions as if awarding your serene presence and calling all the beings of the universe to join the devout path shown by you. All space is resonating with this proclamation of the victory of the true religion.

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References and Thanks

  1. Bhaktambar Stotra – Acharya Mantung
  2. Audio : Bhaktambar Stotra by Ravindra Jain – Link
  3. English Translation – Wikipedia – Link
  4. Images : Bhaktambar book by Muni Shri 108 Akshay Sagarji Maharaj – Link
  5. Yantra Details Reference : Bhaktambar book by Mohan Lal Shastri, Jabalpur – Link
  6. Incredible support for creating the stotra page online : Shashank Shah ( Daund), Mahavir Bhaiya (Jaisinghpur) Anuja Akash Modi ( Pune),

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