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Bhaktamar Stotra 33 to 40

आचार्य मानतुंग कृत

"भक्तामरस्तोत्रम"

दिगंबर जैन विकी द्वारा प्रस्तुत

33. सर्व ज्वर नाशक

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मन्दारसुन्दरनमेरुसुपारिजात-सन्तानकादिकुसुमोत्कर-वृष्टिरुद्धा,

गन्धोदबिन्दुशुभमन्दमरुत्प्रपाता, दिव्या दिवः पतति ते वचसां ततिः र्वा ||३३||

अन्वयार्थ – (गन्धोदबिन्दुशुभमन्दमत्प्रपाता) सुगंधित जल की बूंदों और मन्द मन्द वायुके साथ गिरने वाली (उद्धा) ऊर्ध्वमुखी [च] और (दिव्या) देवकृत (मन्दारसुन्दरनमेरुसुपारिजातसन्तानकादिकुसुमोत्करवृष्टिः) मन्दार, सुन्दर, नमेरु, पारिजात और सन्तानक प्रादि कल्पवृक्षों के फूलों की वर्षा (ते) आपके (वचसाम्) वचनों की (ततिः इव) पक्ति के समान (दिवः) आकाश से (पतति) गिरती है ॥३३॥

भावार्थ – हे कुसुमवर्षाधिपते! आकाश से कल्पवृक्षों के फूलों की सुगन्धित जल और मन्द मन्द हवा के साथ जो ऊर्ध्वमुखी और देवकृत वर्षा होती है वह आपकी मनोहर वचनावली के समान शोभायमान होती है यह पुष्पवृष्टिप्रातिहार्य का वर्णन है ॥३३॥

Mandara sundara nameru suparijata santanakadi kusumaotkra vrushti ruddha. Gandhoda bindu shubha manda marutprapata divya divah patati te vachasam tatriva

O Jina ! The divine sprinkle of the Mandar Parbat, Sundar,Nameru,Parijata drift towards you with the mild breeze. This alluring scene presents impression as if the devout words spoken by you have changed into flowers and are drifting toward the earthlings.

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34. गर्व रक्षक

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शुम्भत्प्रभावलयभूरिविभा विभो! ते, लोकत्रय तिमतां द्यु तिमाक्षिपन्ती।

प्रोद्यद्दिवाकर-निरन्तर भूरि-संख्या, दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोमसौम्याम् ||३४||

अन्वयार्थ – (हे विभो) हे प्रभो (ते) तुम्हारी (प्रोद्यद्दिवाकरनिरन्तरभूरिसंख्या) उदित, सघन और सूर्यतुल्य (शुम्भत्प्रभावलयभूरिविभा) शोभायमान भामण्डल की विशेष प्रभा (लोकत्रयद्युतिमताम्) तीनों लोकों के कान्तिमान् पदार्थों की (द्युतिम्) कान्ति को (आक्षिपन्ती) तिरस्कृत करती हुई [व] तथा (सोमसौम्या) चन्द्रसदृश सुन्दर होती हुई (अपि) भी (दीप्त्या) कान्ति के द्वारा (निशाम्) रात्रि को (अपि) भी (जयति) जीतती है ||३४||

भावार्थ- हे भामण्डलाधिपते! आपके भामण्डल की प्रभा यद्यपि कोटिसूर्य के समान तेजोयुक्त है तथापि सन्ताप करने वाली नहीं है। चन्द्र के समान सुन्दर होते पर भी कान्ति से रात्रि को जीतती है। अर्थात रात्रि का प्रभाव करती है। यह ‘भामण्डलप्रातिहार्य’ का वर्णन है ||३४||

Shumbhat prava valaya bhuri vibha vibhoste lokatraya dyutimatam dyutimakshipanti. Prodyad divakara nirantara bhuri samkhya diptya jayatyapi nishamapi somasaumyam.

O Lord ! The resplendent orb around you is more magnificent than any other luminous object in the universe. It quells the darkness of the night and is brighter than many suns put together; yet it is as cool and serene as the bright full moon.

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35. दुर्भिक्ष चोरी मिरगी आदी निवारक

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स्वर्गापवर्गगममार्गविमार्गणेष्टः, सद्धर्मतत्त्वकथनैकपटुस्त्रिलोक्याः।

दिव्यध्वनि र्भवति ते विशदार्थसर्व-भाषास्वभावपरिणामगुणैः प्रयोज्यः ॥३५॥

अन्वयार्थ – (ते) आपकी (दिव्यध्वनिः) दिव्यध्वनि (स्वर्गापवर्गगममार्गविमार्गणेष्टः) स्वर्ग और मोक्ष जाने के मार्ग को खोजने के लिये इष्ट (त्रिलोक्याः) तीन लोक के प्राणियों के (सद्धर्मतत्त्वकथनेकपटुः) समीचीन धर्मतत्त्व के कहने में एकमात्र चतुर [वा] तथा (विशदार्थभाषास्वभावपरिणामगुणैः) स्पष्ट अर्थ वाले और सम्पूर्ण भाषाओं में परिवर्तित होने वाले स्वाभाविक गुणों से (प्रयोज्यः) प्रयुक्त उच्चरित (भवति) होती है ।।३५।।

भावार्थ- हे दिव्यध्वनिपते! आपकी दिव्यध्वनि स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग बतलाती है, सब जीवोंको धर्मतत्त्व (हित) का उपदेश देती हैं और समस्त श्रोताओं की भाषाओं में बदल जाती है। अर्थात् जो प्राणी जिस भाषा का जानकार होता है, आपकी दिव्यध्वनि उसके कान के पास पहुंचकर उसी भाषारूप हो जाती है। (यह दिव्यध्वनि प्रातिहार्य का वर्णन है) ॥३५॥

Svargapavarga gama marga virmarganeshtah saddharmatatva kathanaika patustrilokyah. Divyadhvanirbhvati te vishadartha sarva bhasha svabhava parinama gunaih prayojyah.

Your divine voice is a guide that illuminates the path leading to heaven and liberation; it is fully capable of expounding the essentials of true religion for the benefit of all the beings of the three worlds; it is endowed with miraculous attribute that makes it comprehensible and understood by every listener in his own language.

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36. संपत्ती-दायक

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उन्निद्रहेमनवपङ्कज-पुञ्ज-कान्ती, पर्युल्लसन्नख-मयूखशिखाभि - रामौ।

पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र! धत्तः, पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ॥३६॥

अन्वयार्थ – (जिनेन्द्र) हे जिनेश (तव) आपके (उन्निद्रहेम-लवपङ्कजपुब्जकान्ती) फूले हुये सुवर्णवर्ण नवीन कमलसमूह के समान कान्ति धारण करने वाले [च] तथा (पर्युल्लसन्नखमयूखशिखाभिरामौ) सब ओर से शोभायमान नखों की किरणों के प्रकाश से सुन्दर (पादौ) चरण (यत्र) जहाँ पर (पदानि) कदम या डग (धत्तः) रखते हैं (तत्र) वहाँ (विबुधाः) देव (पद्मानि) कमलों को (परिकल्पयन्ति) रचते हैं ।।३६।।

भावार्थ – हे पूज्यपाद! धर्मोपदेश देने के लिए जब आप आर्यखण्ड में विहार करते हैं, तब देवगण आपके चरणों के नीचे-कमलों की रचना करते हैं ।।३६।।

Unnidra hema nava pankaja punjakanti paryullasannakha mayukha shikhabhiramau. Padau padani tava yatra Jinendra dhattah padmani tatra vibudhah parikalpayanti.

O Tirthankara ! Your feet are radiant like fresh golden lotuses. Their nails have an attractive glow. Wherever you put your feet the lords create golden lotuses.

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37. दुर्जन वशीकरण

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इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र!, धर्मोपदेशनविधौ न यथा परस्य।

याहक्प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा, तादृक्कुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोऽपि ।।३७।।

अन्वयार्थ – (जिनेन्द्र) हे जिनेश (धर्मोपदेशनविधी) धर्मापदेश देते समय (इत्थम्) पूर्वोक्त प्रकार (तव) आपकी (विभूतिः) समृद्धि (यथा) जैसी (अभूत्) हुई थी (तथा) वैसी विभूति (परस्य) अन्य की (न अभूत्) नहीं हुई [यतः] क्योंकि (प्रहृतान्धकारा) अन्धकारनाशक (यादृक्) जैसी (प्रभा) कान्ति (दिनकृतः) सूर्य की [भवति] होती है (तादृक्) वैसी कान्ति (विकाशिनः) प्रकाशमान (अपि) भी (ग्रहगणस्य) तारागण के (कुतः) कहाँ [भवेत्] हो सकती है? ।।३७।।

भावार्थ – हे समवसरणाधिपते! धर्मोपदेश के समय समवसरणादिक जैसी विभूति आपको प्राप्त हुई, वैसी विभूति अन्य किसी देव को प्राप्त नहीं हुई। ठीक ही है कि जैसी कान्ति सूर्य की होती है वैसी कान्ति शुक्र आदि अन्य ग्रहों को प्राप्त हो सकती है क्या? अर्थात् नहीं ॥३७॥

Ittham yatha tava vibhutirabhujjinendra ! dharmopdeshanavidhau na tatha parasya. Yadrik prabha dinakritah prahatandhakara tadrik kuto grahaganasya vikashinoapi

O great one ! The height of grandiloquence, clarity and erudition evident in your words is not seen anywhere else. Indeed,the darkness dispelling glare of the sun can never be seen in the stars and planets.

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38. हाथी वशीकरण

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श्चोतन्मदाविलविलोलकपोलमूल- मत्तभ्रमद्भ्रमरनादविवृद्ध कोपम्।

ऐरावताभमिभमुद्धतमापतन्तं, दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ॥३८॥

अन्वयार्थ – (श्चोतन्मदाविलविलोकपोलमूलमत्त भ्रमद्भ्रमरनादविवृद्धकोपम्) झरते हुए मदजल से मलिन और चंचल गालों के मूलभागमें पागल हो घूमते हुये भौंरों के शब्द से बढ़ रहा है क्रोध जिसका ऐसे (ऐरावताभम्) ऐरावत हाथी के समान प्राकार वाले (उद्धतम्) अवश [च] तथा (आपतन्तम्) सामने आते हुये (इभम्) हाथी को (दृष्ट्वा) देखकर (भवदाश्रितानाम्) आपके आश्रितों के (भयम्) भय (नो भवति) नहीं होता ।।३८।।

भावार्थ – हे अभयप्रद! जो प्राणी आपकी शरण लेते हैं; वे मदोन्मत्त, उच्छृङ्खल, आक्रमणकारी और अवश हाथी को देखकर भी भयभीत नहीं होते ।।३८।।

Schyotanmadavilavilolakapolamula mattabhramad bhramara nada vivriddhakopam. Airavatabhamibhamuddhatam apatantam dristva bhayam bhavati no bhavadashritanam.

O Tirthanakara! The devotees who have surrendered to you are not scared even of a wild elephant being incessantly annoyed by humming bees. They are always and everywhere fearless as the silence of their deep meditation placates even the most brutal of the beings.

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39. सिंह भय निवारक

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भिन्नेभकुम्भगलदुज्ज्वलशोणिताक्त, मुक्ताफलप्रकर भूषितभूमिभागः।

बद्धक्रमः क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि, नाक्रामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते ॥३९॥

अन्वयार्थ – (भिन्नेभकुम्भगलदुज्ज्वलशोणिताक्तमुक्ताफलप्रकरभूषित भूमिभागः) विदारे हुये हाथी के गण्डस्थल से गिरते हुये उज्ज्वल तथा रक्त से भींगे हुये मोतियों के समूह से भूतल को भूषित करने वाला [च] तथा (बद्धक्रमः) आक्रमण के हेतु सन्नद्ध (हरिणाधिपः) सिंह (अपि) भी (क्रमगतम्) पंजे में आये हुये (ते) आपके (क्रमयुगाचलसंश्रितम्) चरणकमलरूप पर्वत के आश्रित मनुष्य पर (न आक्रामति) आक्रमण नहीं करता ।।३९।।

भावार्थ – हे प्रतापिन्! आपके चरणों का आश्रय लेने वाले भक्तजनों पर भयानक सिंह भी आक्रमण नहीं कर सकता ||३९||

Bhinnebha – kumbha – galadujjavala – shonitakta, muktaphala prakara – bhushita bhumibhagah baddhakramah kramagatam harinadhipoapi, nakramati kramayugachalasanshritam te

A lion who has torn apart elephant’s head with blood flowing under, scattering blood stained pearls on the ground, ready to pounce with growling sound, If your devotee falls in his grasp, and has firm faith in you, even the lion will not touch the devotee.

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40. अग्नी भय निवारक

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कल्पान्तकालपवनोद्धतवह्निकल्पं, दावानलं ज्वलितमुज्ज्वलमुत्स्फुलिङ्गम्।

विश्वं जिघत्सुमिव संमुखमापतन्तं, त्वन्नाम कीर्तनजलं शमयत्यशेषम् ॥४०॥

अन्वयार्थ – (त्वन्नामकीर्तनजलम्) आपके नाम का कीर्तनरूपी जल (कल्पान्तकालपवनोद्धतवन्हिकल्पम्) प्रलयकाल की पवन से प्रचण्ड अग्नि के सदृश (उत्स्फुलिङ्गम्) निकल रहे हैं तिलगे जिसमें ऐसी (ज्वलितम्) धधकती हुई (उज्ज्वलम्) उज्ज्वल [च] तथा (अशेषम्) सम्पूर्ण (विश्वम्) लोक को (जित्धसुम् इव) भक्षण करने के इच्छुक के समान (सम्मुखम्) सामने (आपतन्तम्) श्राती हुई (दावानलम्) दावाग्नि को (अशेषम्) सम्पूर्णरूप से (शमयति) शान्त करता है ॥४०॥

भावार्थ – हे लोकपालक! आपके गुणगान से भयङ्कर तथा वेग से बढ़ता हुआ दावानल भी भक्तजनों का कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकता ॥४०॥

Kalpantakala – pavanoddhata – vahnikalpam, davanalam jvalitamujjavalamutsphulingam vishvam jighatsumiva sammukhamapatantam, tvannamakirtanajalam shamayatyashesham

O Lord! Even the all forest inferno, as if kindled by the judgement day storm and having resplendent sparking flames,is extinguished in no time by the satiate stream of your name. (Your devotee is not afraid of fire.)

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References and Thanks

  1. Bhaktambar Stotra – Acharya Mantung
  2. Audio : Bhaktambar Stotra by Ravindra Jain – Link
  3. English Translation – Wikipedia – Link
  4. Images : Bhaktambar book by Muni Shri 108 Akshay Sagarji Maharaj – Link
  5. Yantra Details Reference : Bhaktambar book by Mohan Lal Shastri, Jabalpur – Link
  6. Incredible support for creating the stotra page online : Shashank Shah ( Daund), Mahavir Bhaiya (Jaisinghpur) Anuja Akash Modi ( Pune),

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