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Language : Hindi

अनादि अनंत काल से भरतक्षेत्र में अनंत चौबीसी अनंत-अनंत काल से होती आयीं हैं, इसी क्रम से इस युग में भी ऋषभनाथ से लेकर महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकर हुए हैं। तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के 246 वर्ष साढ़े तीन माह के बाद अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर को कार्तिक वदी अमावस्या को मोक्ष प्राप्त हुआ तथा उनके प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम को अपराह्निक काल में उसी दिन केवलज्ञान की प्राप्ति हुई थी, इसी के प्रतीक रूप में कार्तिक वदी अमावस्या को दीपावली पर्व मनाया जाता है।

विधि :-
प्रातःकाल सूर्योदय के समय स्नानादि करके पवित्र वस्त्र पहनकर जिनेन्द्र देव के मंदिर में परिवार के साथ पहुँचकर जिनेन्द्र देव की वन्दना करनी चाहिए। तदुपरान्त थाली में अथवा मूलनायक की वेदी पर सोलह दीपक चार- चार बाती वाले जलाना चाहिए तथा भगवान महावीर स्वामी की पूजन, निर्वाण काण्ड पढ़ने के पश्चात् महावीर स्वामी के मोक्ष कल्याणक का अर्घ बोलकर, निर्वाण लड्डू अर्घ सहित चढ़ाना चाहिए।

घर की दीपावली :-
अपराह्न काल गोधूली बेला (सांय 4 से 7 बजे तक) में घर के ईशान कोण (उत्तर-पूर्व) में अथवा घर के मुख्य कमरे में पूर्व की दीवाल अथवा सुविधानुसार दीवाल पर माड़ना (जैन धर्म दीपावली पूजन वाला) रखना चाहिए। अन्य देवी देवताओं (यथा सरस्वती, लक्ष्मी, गणेशजी आदि की) के चित्रादि नहीं रखना चाहिए क्योंकि जैन दर्शन में इसका कोई उल्लेख नहीं है। घर के मुखिया अथवा किसी अन्य सदस्य को एवं सभी सदस्यों को शुद्ध धोती-दुपट्टा पहनकर दीप मालिका के बायीं तरफ आसन लगाकर बैठना चाहिए तथा सामने वाली चौकी पर सोलह दीपक जो कि सोलह कारण भावना के प्रतीक है। इन्हीं सोलह कारण भावनाओं को भाकर तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध भगवान महावीर स्वामी ने किया था इसी के प्रतीक स्वरूप सोलह दीपक चार-चार बातियों वाले जलाए जाते हैं। (16X4=64) यह 64 का अंक चौसठ ऋद्धि का प्रतीक है। भगवान महावीर चौसठ ऋद्धियो से युक्त थे। इन्हीं के प्रतीक स्वरूप यह चौसठ ज्योति जलायी जाती है। दीपकों में शुद्ध देशी घी उपयुक्त होता है। घृत की अनुपलब्धि पर यथायोग्य शुद्ध तेलादि का प्रयोग किया जा सकता है। पूजन से पूर्व तिलक एवं मौली बन्धन सभी को करना चाहिए। दीपकों पर सोलह भावना अङ्कित करनी चाहिए। इन्हें जलाने के पश्चात् दीपावली पूजन, सरस्वती पूजन, चौसठ ऋद्धि अर्घ, धुली हुई अष्ट द्रव्य से चढ़ाना चाहिए।

दुकान पर पूजन :-
इसी प्रकार दुकान पर भी पूजन करनी चाहिए अथवा लघुरूप में पञ्चपरमेष्ठी के प्रतीक रूप पाँच दीपक जलाकर पूजन करनी चाहिए।

पूजन विसर्जन :-
शांति पाठ एवं विसर्जन करके तदुपरान्त घर का एक व्यक्ति अथवा बारी-बारी सभी व्यक्ति मुख्य दीपक को अखण्ड जलाते हुए रात भर णमोकार मंत्र जाप अथवा पाठ या भक्तामर आदि पाठ करते हुए व्यक्ति अनुसार रात्रि जागरण करना चाहिए। यदि रात्रि जागरण नहीं कर सकें तो कम से कम मुख्य दीपक में यथायोग्य घृत भरकर उसे जाली से ढक कर उसी स्थान पर रात भर जलने देना चाहिए। शेष दीपकों में से एक दीपक मंदिर में भेज देना चाहिए। यदि निकट में कोई संबंधी रहते हैं तो वहाँ भी दीपक भेजा जा सकता है। अथवा शेष दीपकों को घर के मुख्य दरवाजे पर एवं मुख्य मुख्य स्थानों पर रखे जा सकते है। मिष्ठान आदि का वितरण करना है तो पूजा समाप्ति के पश्चात् पूजन स्थल से थोड़ा दूर हटकर वितरण कर सकते हैं।
पूजा के पश्चात् पूजन निर्माल्य साम्रगी पशु-पक्षियों को अथवा मंदिर के माली को दी जा सकती है।
चौबीस पत्तों (आम या आशापाला) की वन्दनमाला बनाकर दरवाजे के बाहर बांधनी चाहिए जो चौबीस तीर्थंकरो की प्रतीक है।

(समुच्चय मंत्र-ꣽ ह्रीं चतुःषष्टिऋद्धिभ्यो नमः)

Updated By : Sou Tejashri Wadkar And Shri Shashank Shaha

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