जल फल आठों दर्व अरघ कर प्रीति धरी है, गणधर इन्द्रनिहू-तैं थुति पूरी न करी है। ध्यानत सेवक जानके (हो) जगतें लेहु निकार, सीमन्धर जिन आदि दे बीस विदेह मँझार। श्री जिनराज हो भव तारण तरण जहाज ।।
जलचन्दनअक्षतफूल चरू, अरू दीपधूप अति फल लावै। पूजा को ठानत जो तुम जानत, सो नर ‘ध्यानत’ सुख पावै ।। तीर्थंकर की ध्वनि गणधर ने सुनी अंग रचे चुनि ज्ञानमई। सो जिनवर वाणी, शिव सुखदानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई।।