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#VimalSagarJiMaharaj(Bhind)1892VijaySagar
Among the disciples of Acharya Shri Vijay Sagar ji, Acharya Sri 108 Vimal Sagar ji (Bhinde Wale) was a well-known disciple. Acharya Vimal Sagar ji, was born in Shukla 2 Vikram Samvat 1979 (AD 1892) in village Mohana, District Gwalior (MP) .
संक्षिप्त परिचय
संक्षिप्त परिचय | |
जन्म: | पौष शुक्ल २ विक्रम संवत १९४८ (१-१-१८९२ ) |
जन्म स्थान : | ग्राम मोहना ,जिला ग्वालियर (म.प्र.) |
जन्म का नाम | श्री किशोरी लाल जैन |
माता का नाम : | मथुरा देवी जैन |
पिता का नाम : | श्री भीकम चंद जैन |
क्षुल्लक दीक्षा : | विक्रम संवत १९९८ (सन १९४१) |
दीक्षा का स्थान : | पाटन, जिला-झालाबाड़ा |
मुनि दीक्षा : | विक्रम संवत २००० सन १९४३ |
मुनि दीक्षा का स्थान : | सागोद जिला -कोटा राज. |
मुनि दीक्षा गुरु : | आचार्य श्री १०८ विजय सागर जी महाराज |
आचार्य पद : | सन १९७३ विक्रम संवत २०३० |
आचार्य पद का स्थान : | हाड़ोती |
समाधि मरण : | १३ अप्रैल १९७३ (विक्रमसंवत २०३० ) |
समाधी स्थल : | सांगोद ,जिला कोटा (राज.) |
आचार्य श्री विजय सागर जी के शिष्यों में आचार्य श्री १०८ विमल सागर जी (भिंड वाले) एक सुयोग्य शिष्य हुए।आचार्य विमल सागर जी का जन्मपौष शुक्ल २ विक्रम संवत १९४८ (सन १८९२ ) में ग्राम मोहना ,जिला ग्वालियर (म.प्र.)में हुआ । आपने क्षुल्लक दीक्षा विक्रम संवत १९९८ (सन १९४१) में पाटन, जिला-झालाबाड़ा में हुई एवं मुनि दीक्षा विक्रम संवत २०००,सागोद जिला -कोटा राज. में आचार्य विजय सागर जी महाराज से ग्रहण करी।आपके सदुपदेश से अनेको जिनालयो का निर्माण और जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा हुई ।आपके सानिध्य में अनेक पञ्च कल्याणक प्रतिष्ठा और गजरथ मोहोत्सव संपन्न हुए।भिंड नगर को आपकी विशेष देन है ।भिंड नगर में अनेक जिनबिम्बो की स्थापना करने के कारन 'भिंड वाले महाराज' के नाम से विख्यात हुए।आचार्य विजय सागर जी ने अपना आचार्य पद विमल सागर (भिंड) को सन १९७३ विक्रम संवत २०३० को हाड़ोतीमें दिया। आचार्य विमल सागर जी ने अनेको दीक्षाए दी उनके शिष्यों में आचार्य सुमति सागरजी,आचार्य निरमल सागर जी ,आचार्य कुन्थु सागर जी ,मुनि ज्ञान सागर जी आदि अतिप्रसिद्ध है ।विमल सागर जी ने अपना आचार्य पद ब्र. ईश्वरलाल जी के हाथ पत्र द्वारा सुमति सागर जी को दिया था।आचार्य विमल सागर जी का समाधिमरण १३ अप्रैल १९७३ (विक्रमसंवत २०३० )में सांगोद ,जिला कोटा (राज.)में हुआ था ।
Below information from book -Prasham murti Acharya Shanti Sagar Ji Chhani Smriti Granth
वास्तव में, निराकुलता में ही सच्चा सुख है और यह निराकुलता शिव-मार्ग में प्रवृत्त हुए बिना सम्भव नहीं। जो शिव-मार्ग में प्रवृत्त हो जाता है, उसे सांसारिक भोग विलास हेय लगने लगते हैं। वह इनसे विनिर्मुक्त होना चाहता है। आज सारे संसार की दृष्टि अपने घर की खोज करने वाले सत्यान्वेषी साधनों की ओर लगी हुई है। स्वर्गीय आचार्य श्री विमलसागरजी महाराज भी ऐसे ही विश्ववंद्य सच्चे साधकों में से एक थे।पौष शुक्ला द्वितीया विक्रम संवत् 1948 में मुनि श्री को जन्म देने का सौभाग्य मध्यप्रदेश के मण्डला जिला के ग्राम माहिनो को प्राप्त हुआ। जायसवाल कुलरत्न सेठ भीकमचंद जी की चिरसाध पूरी हुई, क्योंकि उन्हें चार भाइयों के बीच बड़ी प्रतीक्षा के पश्चात् सौ० मथुरादेवी की कोख से किशोरीलाल नामक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। द्वितीया को जन्मा बालक द्वितीया के चांद की भांति अपने समस्त गुणों का उत्तरोत्तर विकास करता हुआ बढ़ने लगा। परन्तु क्रूर राहु बाल चन्द्र के इस विकास को न देख सका और आठ वर्ष की अल्पायु में ही उससे पिता का प्यार छीन लिया। माता मथुरादेवी पर असमय ही दुःख का पहाड़ सा टूट पड़ा। लेकिन धैर्यशालिनी माता इस दुःख से विचलित नहीं हुई। वह तो अपने होनहार पुत्र को लेकर पीरोठ नगर में आकर बस गई तथा - वहीं उन्हें प्रारम्भिक शिक्षा दिलाई।
परिवर्तन नियति का क्रम है। किशोरावस्था के विदा लेते ही अंगड़ाई लिए यौवन का आगमन हुआ। अपने युवा बेटे का भरता-संवरता शरीर देखकर किस मां का मन खुशी से भर नहीं जाता? वह भी अपने युवा बेटे के विवाह की मधुर कल्पनाओं में खोई रहकर वैधव्य के दुःख को भुलाये रहतीं। कहावत है कि बारह वर्ष बाद धूरे के दिन भी फिरते हैं। उनके भी दिन फिरे । पुत्र-बधू के शुभ आगमन से परिवार में एक बार फिर से हर्षोल्लास की लहर दौड़ गई। किन्तु निष्ठुर नियति को उनका यह सुख अच्छा नहीं लगा। विवाह के सिर्फ सात वर्ष बाद ही विक्रम सम्वत् 1975 में उनको फिर एक गहरा आघात लगा। वह लाडली बहू भी सारे परिवार को बिलखता छोड़कर सदैव के लिए चली गई। किशोरीलाल के युवा मन का दर्पण भी इस करारी चोट से अक्षत न रह सका। वह प्रायः उदास रहने लगा। पूर्ण यौवन में उनकी इस उदासीनता को देख परिजनों ने दो वर्ष बाद उनका दूसरा विवाह भी कर दियां इस प्रकार फिर उस घर से मातमभरी उदासी ने विदा ली। पुत्र-वधू ने भी कुलमर्यादा के अनुरूप अपने गुरुतर दायित्व का पन्द्रह वर्ष तक सफलतापूर्वक निर्वाह किया। सारा परिवार आमोद-प्रमोद में खोया रहता, किन्तु भविष्यत् को कौन टाल सकता है। वि. सं. 1992 में उनकी जीवन-संगिनी भी बीच में ही हाथ छुड़ा कर चली गई।
गृहस्थ-जीवन के इन झंझावातों का किशोरीलाल के मन पर कोई विपरीत प्रभाव न पड़ा, जो स्वाभाविक ही था । बाल्यावस्था में ही पितृ वियोग, पूर्ण यौवन में दो-दो पत्नियों का वियोग, माता का वियोग, इत्यादि घटनाओं ने उन्हें संसार की असारता का अच्छा बोध करा दिया था। राग और विराग में केवल दृष्टि का ही भेद है। जब उनकी दृष्टि ही पलट गई, तब भला गृहस्थी के बन्धन उन्हें कैसे बाँध सकते थे? विक्रम संवत् 1993 में उन्होंने साधना के कठिन मार्ग को अपनाते हुए व्रत-प्रतिमा धारण करके देश-संयम की दूसरी सीढ़ी पर चढ़कर मोक्ष-मार्ग की तरफ कदम बढ़ाया। अब तो उनकी एक ही रट थी 'कब गृहवास सो उदास होय, वन सेऊ लखू निज रूप, गति रोकू मन-करी की? जहाँ चाह, वहाँ राह'- जिसे गृहवास के त्याग की चाह हो, उसे भला घर कैसे बाँध कर रख सकता है।
विक्रम संवत् 1997 में वह शुभ घड़ी भी आई जब पाटन (झालावाड़) में उन्होंने अपने पूज्य गुरु आचार्य श्री विजयसागर जी महाराज से क्षुल्लक दीक्षा लेकर गृहस्थ-जीवन को तिलांजलि देकर सार क के एक नवजीवन का प्रारंभ किया।
अन्तरात्मा साधक को बाहर का कुछ भी नहीं सुहाता है, फिर भला वही लँगोटी और खण्ड-वस्त्र में क्यों कर उलझे रहते। उन्हें तो अब चाह लंगोटी की दुःख भाले, लंगोटी की इच्छा भी चिन्ताजनक प्रतीत हुई।
अपने श्रद्धेय - गुरुजी की प्रेरणा से कापरेन नगर में ऐलक दीक्षा लेकर तीन वर्ष तक दिगम्बरीसाधना के कठिन मार्ग का सतत् अभ्यास किया और विक्रम संवत् 2000 में कोटा (राजस्थान) में मुनि श्री विमलसागर नाम से अपने पूज्य गुरुवर आचार्य - श्री विजयसागरजी महाराज से मुनि दीक्षा धारण कर देश-संयम की सीमा को लांघ कर महाव्रती या श्रमण की संज्ञा प्राप्त की। श्रमण शब्द की व्युत्पत्ति पाणिनि के अनुसार "श्रमु तपसि खेदे च" धातु से हुई है, जिसका अर्थ है तप करने वाला साधक । मुनि-दीक्षा साधना के विद्यालय में प्रथम प्रवेश है। 'सच्ची पढ़ाई तो यहीं से प्रारंभ होती है। सत्यान्वेषी साधु को आत्मा का साक्षात्कार करके जीवन में आध्यात्मिक सौन्दर्य के नए-नए द्वार खोलने होते हैं।
एक आध्यात्मिक योद्धा की भाँति उसे पुरुषार्थ का धनुष लेकर, तप के बाण से कर्मों के दुर्भेद्य कवच का भेदन करना पड़ता है। स्वर्ण को स्वर्णत्व अग्नि की प्रखर लपटों में तपने पर ही प्राप्त होता है। उसी प्रकार आत्मा को भी परमात्मा पद की प्राप्ति तपस्या के द्वारा ही होती है। तपश्चरण की आध्यात्मिक अग्नि से तृप्त एवं परिपक्व होने पर ही साधना फलवती होती है। तप की महत्ता से परिचित पूज्य मुनिश्री ने भी इन्द्रिय दमन करने वाले दुर्धर तप को अपना कर तप के सोने में त्याग की सुगन्ध बसाने की कहावत चरितार्थ कर जन-जीवन पर अपनी एक अपूर्व छाप छोड़ी। आज का भौतिकवादी मानव जब नवीनतम खोजों द्वारा भौतिक सुविधाएं जुटाने में लगा हुआ था, तब आप साधना का कठिन मार्ग अपना कर सच्चे साधक की भांति घोर परीपह सहन करते हुए 4 सुखान्वेषण में निमग्न रहते थे।
"पानी हिलता भला, जोगी चलता भला" उक्ति को चरितार्थ करते हुए आप जीवन भर सच्चे सुख का सन्देश लिए, भगीरथ की भांति अनेकों कष्टों को झेलते हुए भी ज्ञान-गंगा को जन-जन तक पहुँचाने का सतत प्रयास करते रहे। वर्षा-योग, विराम या विहार के रूप में कितने ही पुण्यवानों को आचार्यश्री का सानिध्य प्राप्त हुआ। सन्त का मन पर-पीड़ा से द्रवित हो उठता है। उसकी यही भावना रहती है कि पर-पीड़ा का किस प्रकार निवारण करूँ? दुःख-रूप संसार को उन्होंने काफी नजदीक से देखा था। अतः वे एक सच्चे हितैषी की भाँति जन-जन को मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त करना चाहते थे। सिद्धवरकूट में श्री कीर्तिसागरजी महाराज को ऐलक-दीक्षा, भोपाल पंच-कल्याणक प्रतिष्ठा में श्री धर्मसागर जी महाराज को क्षुल्लक दीक्षा उनकी इसी भावना की प्रतीक है। लश्कर में चौमासा करके आपने कई सामाजिक विवादों को निपटा करएक सच्चे संगठक का कार्य किया। गुना में महाराजश्री के चौमासे का धर्मपरायण जनता पर काफी अच्छा प्रभाव पड़ा था। आपकी सद्प्रेरणा के परिणामस्वरूप लगभग बारह ग्रन्थों का प्रकाशन किया, जिनका जनता पर काफी अच्छा प्रभाव पड़ा था। आपकी सदप्रेरणा के परिणामस्वरूप लगभग बारह ग्रन्थों का प्रकाशन किया गया, जिनका अनुशीलन करके जन-जन आज भी मुनिश्री को सच्ची श्रद्धाञ्जलि अर्पित कर रहा है। इसी प्रकार भिण्ड आदि | कितने ही ग्राम और नगरों की भूमि आचार्य श्री के पावन चरणों के स्पर्श से धन्य हुई। 81 वर्ष की पूर्णतः ढलती आयु में जब रोग और जीर्णता के कारण शरीर बिल्कुल टूट चुका था, तब भी आप एक सच्चे योद्धा की भाँति अपने कर्तव्य धर्म के प्रति सजग थे। कोटा नगर के निवासी उनकी यह स्थिति देख जब यह सोच रहे थे कि अब तो आचार्यश्री का यहाँ से आगे बढ़ना किसी प्रकार भी सम्भव नहीं, तब कभी हार न मानने वाला उनका दृढ़ संकल्पी मन उन्हें कर्तव्यपालन की ही प्रेरणा दे रहा था। उनके अटल निश्चय ने मानो बाधाओं को पीछे ही धकेल दिया था। कोई सोच भी नहीं सकता था कि चर्या तक के लिए चलने-फिरने में असमर्थ यह सन्त आगे कहीं चौमासा कर सकेगा। उत्तरोत्तर क्षीण अवस्था को देखकर कोटावासियों ने आचार्यश्री से काफी अनुनय-विनय किया कि वह कुछ दिन और कोटा में ही मुकाम करें, किन्तु उनके सामने तो 'रमता जोगी, बहता पानी का सिद्धान्त था। वहाँ से आपने विहार कर ही दिया और ग्राम सांगोद, जो कि आपके जीवन का अंतिम पड़ाव था, वहाँ आकर ठहरे।
शारीरिक दुर्बलता अब सीमातीत हो गई थी। जब आचार्य श्री ने देखा कि काया का रथ अब धर्माराधन के योग्य नहीं रहा, तब उन्होंने एक सच्चे योद्धा की भाँति जीवन से हार न मानते हुए मृत्यु को एक आध्यात्मिक महोत्सव के रूप में वरण करने का निश्चय किया। आचार्यश्री विमलसागर जी ने 13 अप्रैल सन् 73 को सांयकाल के 6 बजे यम-सल्लेखनाव्रत धारण किया। रात्रि के 9.44 पर आप समाधिस्थ हुए। आपके स्वर्गारोहण होने का महान दुःखद सन्देश हवा की तरह भारत के कोने-कोने में फैल गया। दूसरे दिन आपके अन्तिम-दर्शन की अभिलाषा लिए अपार जनसमूह एकत्र हो गया। मध्याहन में आपका अन्तिम संस्कार सम्पन्न हुआ। मथुरादेवी का किशोरीलाल अपने जीवन की वीर्घ साधनामयी जीवन-यात्रा पूर्ण कर अन्त में चिरकाल के लिए भारतमाता की गोद में सो गया। शेष है उनका जीवन-आदर्श, पावन उपदेश, तप, त्याग, धर्मनिष्ठता, सच्चारित्र, जिनको जीवन में समाचरित कर प्रत्येक मानव अपना कल्याण कर सकता है
#VimalSagarJiMaharaj(Bhind)1892VijaySagar
आचार्य श्री १०८ विमल सागरजी महाराज (भिंड)
आचार्य श्री १०८ विजय सागरजी महाराज १८८१ Acharya Shri 108 Vijay Sagarji Maharaj 1881
Sanjul Jain updated wiki page for Maharaj ji on 07-June-2021
Manasi Shaha translated the content from Hindi to English on 14-May-2022
VijaySagarJiMaharaj1881SuryaSagarJi
Among the disciples of Acharya Shri Vijay Sagar ji, Acharya Sri 108 Vimal Sagar ji (Bhinde Wale) was a well-known disciple. Acharya Vimal Sagar ji, was born in Shukla 2 Vikram Samvat 1979 (AD 1892) in village Mohana, District Gwalior (MP) .
An Introduction to Acharya Shri 108 Vimal Sagar Ji (Bhind Wale)
Among the disciples of Acharya Shri Vijay Sagar Ji, Acharya Shri 108 Vimal Sagar Ji (Bhind Wale) became a qualified disciple. Acharya Vimal Sagar ji was born in Paush Shukla 2 Vikram Samvat 1948 (1892) in village Mohana, District Gwalior (M.P.). He was initiated in Vikram Samvat 1998 (in 1941) at Patan, District-Jhalabara and Muni Diksha took place in Vikram Samvat 2000, Sangod District-Kota Rajasthan, he received it from Acharya Vijay Sagar Ji Maharaj. Many Jinalayas were built and Jainbimbs got the prestige due to your good sermon. Many Panch Kalyanak Pratishtha and Gajrath Mohotsav were completed in his presence. He has a special gift to the city of Bhind. Bhind became famous as 'Bhind Wale Maharaj' due to the establishment of many Jainbimb in the city. Acharya Vijay Sagar ji gave his Acharya position to Vimal Sagar (Bhind) in the year 1973 Vikram Samvat 2030 in Hadoti. Acharya Vimal Sagar ji gave many initiations, among his disciples Acharya Sumati Sagarji, Acharya Nirmal Sagar ji, Acharya Kunthu Sagar ji, Muni Gyan Sagar ji etc. are very famous. Vimal Sagar ji has given his Acharya post to Br. Ishwarlal ji's hand was given to Sumati Sagar ji by letter. Acharya Vimal Sagar ji was cremated on 13 April 1973 (Vikram Samvat 2030) in Sangod, District Kota (Raj.). His teachings have influenced people and resulted in building of many Temples and " Jainbimb" (Jain Idols). Many "Panchakalynakas" and Gajrath Mohotsava haven taken place because of his awareness and motivation. Bhind Nagar has its special contribution. Bhind Nagar has many Idols. Acharya Vimal Sagar ji's Saleekhna took place in Sangod, District Kota (Raj.) On 13 April 1943 (Vikramaswat 2030).
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A Life Journey (From Kishoreilal to Acharya Vimalsagar)
Birth:
There is true happiness in detachment and this emptiness is not possible without engaging in the path of Shiva. One who gets engaged in the path of Shiva, he starts to despise worldly pleasures and luxuries. He wants to be free from them. Today, the eyes of the whole world are on the truth-searching means to find their home. Late Acharya Shri Vimalsagarji Maharaj was also one of such true seekers of Vishwavandya. Village Mahino of Mandla district of Madhya Pradesh got the privilege of giving birth to Muni Shri in the year 1948 of Paush Shukla Dwitiya Vikram Samvat. Jaiswal Kulratna Seth Bhikamchand ji's long life was fulfilled, because after a long wait among four brothers, he received a son Ratna named Kishorilal from the womb of Smt. Mathuradevi. He was developing all his qualities progressively. But the cruel Rahu could not see this development of Bal Chandra and snatched his father's love from him at the age of eight. But the patient mother did not get distracted by this sorrow. She took her promising son and settled in Piroth city and got the elementary education there.
Change is the order of destiny. With the departure of adolescence, puberty arrived. Which mother's heart does not get filled with joy after seeing her son grow? She too, being lost in the sweet fantasies of her young son's marriage, would forget the misery of Vaidya. With the arrival of the son and daughter-in-law, a wave of euphoria ran once again in the family. But this ruthless destiny did not like their happiness. After only seven years of marriage, in Vikram Samvat 1975, he again suffered a deep stroke. That dear daughter-in-law also left the whole family crying and went away forever. Even Kishorilal's young mind could not remain intact from this crippling injury. He was often depressed. Seeing this indifference of his in full puberty, his family members also got him married after two years, thus again the mournful sadness left that house. The son and the bride also successfully carried out their higher duties according to the total dignity for fifteen years. The whole family would have been lost in merriment, but who can avert the future. Vikram Samvat in 1992, his life-partner also left his hand in the middle.
These storms of household life had no adverse effect on Kishorilal's mind, which was natural. The separation of the father in childhood, the separation of two wives in full puberty, the separation of the mother, etc., had given him a good understanding of the impermanence of the world. The difference between raga and detachment is the only difference of sight. When his vision changed, then how could the fetters of the household bind him? In Vikram Samvat 1993, he adopted the difficult path of spiritual practice, wearing a fast-statue, climbed the second ladder of country-restraint and stepped towards the path of salvation. Now he had only one moto, “kab grhavaas so udaas hoy, van seoo lakhoo nij roop, gati rokoo man-karee kee?” Where there is a will, there is a way - how can one keep the house, if the one has the desire to give up the house.
Kshullak initiation:
That auspicious time came in Vikram Samvat 1997, when in Patan (Jhalawar) he started a new life of essence by giving up the household life by taking Kshullak initiation from his revered Guru Acharya Shri Vijaysagar Ji Maharaj.
The inner soul does not like anything outside to the seeker, then why would he keep getting entangled in the same loincloth and piece-cloth. He wanted to bear the sorrow of the loincloth, the desire of the loincloth also seemed worrying.
Muni Diksha:
With the inspiration of his revered Guruji, taking Ailak initiation in Kapren city, continuously practiced the difficult path of Digambrisadhana for three years. In Vikram Samvat 2000 in Kota (Rajasthan) he took muni diksha by the name of Muni Shri Vimalsagar, from his revered Guruvar Acharya - Shri Vijaysagarji Maharaj. By crossing the limit of restraint he got the name of Mahavrati or Shramana. According to Panini, the word Shramana is derived from the root "Shramu Tapasi Khede Cha", which means a seeker who does penance. Muni-Diksha is the first entry in the school of Sadhana. True education starts from here. The truth-seeking sage has to open new doors of spiritual beauty in life by realizing the soul.
Like a spiritual warrior, he has to take the bow of effort, and with the arrow of penance, he has to pierce the impenetrable armor of actions. The goldenness of gold is attained only when it is heated in the blazing flames of fire. Similarly, the soul also attains the position of God through austerity. It is only when one is satisfied and matured by the spiritual fire of austerity and finds that spiritual practice is fruitful. Knowing the importance of austerity, Pujya Munishri also left an unparalleled impression on the lives of people by adopting a severe austerity that suppresses the senses and by imbuing the fragrance of renunciation in the gold of penance. When today's materialistic human being are engaged in mobilizing material facilities through latest discoveries, by adopting the difficult path of spiritual practice, like a true seeker, he used to be engrossed in 4 pleasures while enduring extreme hardships.
Realizing the saying "paanee hilata bhala, jogee chalata bhala", you took the message of true happiness throughout your life, like Bhagirath, despite facing many difficulties, made continuous efforts to take the knowledge-Ganga to the people. Many virtuous people got the company of Acharya Shree in the form of Varsha-yoga, Viram or Vihara. The mind of the saint gets moved by pain. He has this feeling that how should I get rid of the pain? He had seen the world of sorrow very closely. Therefore, like a true well-wisher, he wanted to induce people to the path of salvation. Ailak-initiation to Shri Kirtisagarji Maharaj in Siddhavarkoot, Kshulak initiation to Shri Dharmasagarji Maharaj in Bhopal Panch-Kalyanak prestige is a symbol of this spirit. By doing Chaumasa in Lashkar, you did the work of a true organizer by settling many social disputes. The Chaumasa of Maharajshri in Guna had a great impact on the pious people. As a result of your inspiration, about twelve books were published, which had a great impact on the public, by following which people are still paying true tribute to Munishree. Similarly Bhind etc. the land of so many villages and cities was blessed by the touch of the holy feet of Acharya Shri. At the age of 81, when the body was completely broken due to disease and old age, you were still conscious of your duty like a true warrior. When the residents of Kota city saw his condition, they were thinking that now it is not possible for Acharyashree to move forward from here in any way, then his determined mind that never gave up was inspiring him to do his duty. His unshakable determination had pushed the odds back. No one could have even imagined that this saint, unable to walk even for the charya, would be able to do Chaumasa somewhere in the future. Seeing the progressively deteriorating condition, the residents of Kota begged Acharyashree to stay in Kota for a few more days, but in front of them was the principle of 'Ramta Jogi, flowing water'. From there you have just made a stay and came to village Sangod, which was the last stop of your life, and stayed there.
Physical infirmity was now limitless. When Acharya Shree saw that Kaya's chariot was no longer worthy of dharmaradhana, he decided to accept death as a spiritual festival without giving up on life like a true warrior. Acharyashree Vimalsagar ji took Yama-Sallekhnavrat on 13th April, 73 at 6 pm. He became samadhist at 9:44 pm. The great sad message of your ascension spread like wind in every nook and corner of India. On the second day a huge crowd gathered for his last darshan. His last rites were completed in the afternoon. Kishori Lal of Mathuradevi, after completing the long journey of his life, finally slept in the lap of Mother India for eternity. The rest is his life-ideal, holy preaching, austerity, sacrifice, piety, true character, which every human can do for his welfare by transmitting it in life.
Acharya Shri 108 Vimal Sagar Ji Maharaj (Bhind)
आचार्य श्री १०८ विजय सागरजी महाराज १८८१ Acharya Shri 108 Vijay Sagarji Maharaj 1881
आचार्य श्री १०८ विजय सागरजी महाराज १८८१ Acharya Shri 108 Vijay Sagarji Maharaj 1881
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#VimalSagarJiMaharaj(Bhind)1892VijaySagar
VijaySagarJiMaharaj1881SuryaSagarJi
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VimalSagarJiMaharaj(Bhind)1892VijaySagar
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