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Muni Shri 108 Pujya Sagarji Maharaj – Jeevan Gatha – 2

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मेरी जीवन गाथा ! मोक्ष मार्ग पर आरोहण - अंतर्मुखी मुनी श्री १०८ पूज्य सागरजी महाराज

(अंतर्मुखी मुनि श्री १०८ पूज्य सागर महाराज के ९वें दीक्षा दिवस पर श्रीफल जैन न्यूज में उन्हीं की कलम से उनकी जीवनगाथा प्रस्तुत की जा रही है।)
३. संघ में प्रवेश
फरवरी का महीना था, जब हम बिजौलिया पहुंचे थे। रात को मैं पहली बार साधुओं के साथ उन्हीं के कमरे में सोया था। सभी साधु घास और चटाई लेकर सो रहे थे। मैं भी एक चटाई पर सो गया और ओढ़ने को एक चादर थी लेकिन मुझे ठंड बहुत लग रही थी। तब आचार्य श्री वर्धमान सागर महाराज ने पांवों पर घास रखवा दी। सुबह नींद खुली तो देखा कि पांव में घास है और सारे साधु बैठकर अपना प्रतिक्रमण, सामायिक कर रहे हैं। पूरे संघ का वात्सल्य, प्यार उस दिन मुझे भरपूर मिला। सब यही पूछ रहे थे कि भोजन आदि की व्यवस्था अच्छे से हो गई या नहीं। उस समय संघ में दीक्षार्थी विजय और राजू भाई के अलावा कोई ब्रह्मचारी नहीं था। आचार्य श्री ने भी पूछा कि कोई असुविधा तो नहीं है और अगर हो तो निसंकोच बता देना। यह मेरा पहला दिन था संघ में लेकिन मैं ऐसा कोई ऐसा मानस बनाकर नहीं आया था कि मुझे संघ में रहना है लेकिन मुझे ऐसा लगा कि संघ में सब को उम्मीद है कि मैं संघ में रहने के लिए आया हूं।
भैया विजय और राजू के साथ मेरे गांव से एक मनोज जैन नाम का शख्स और भी आया था, उसे संघ में रहना था। हम दो हो गए थे। वह मुझ से भी छोटा था और मैं भी उस समय 18 साल के लगभग था। उसे भी बहुत प्यार, स्नेह मिला। हम दोनों को देखकर सब यही कह रहे थे कि विजय और राजू भैया की दीक्षा हो रही है तो यह दो भैया उनकी जगह आ गए हैं। उधर मेरा मन तो अंदर से कुछ और कह रहा था कि दीक्षा होते ही घर जाना है। संघ में ७-८ दीदियां थीं। उनसे भी स्नेह मिला। पहली बार उस दिन आचार्य श्री के साथ आहारचर्या के लिए गया लेकिन आचार्य श्री और संघ में कोई आहार लेता नहीं था क्योंकि शुद्ध जल का त्याग करने वाला ही आहार दे सकता था। फिर आहार के बाद कुल्ला करवाने और पिच्छी देने का अवसर मिला। संघ में सब से स्नेह मिला। पहले दिन उससे मुझे भी खुशी मिली। विजय और राजू भैया मुझ से ज्यादा ध्यान मनोज पर दे रहे थे क्यों उसे तो संघ में रहना है, यह पक्का था। मेरा तो कुछ तय ही नहीं था। मुझे भी बुरा नहीं लग रहा था क्योंकि मुझे तो घर जाना ही था।
४. आचार्य श्री और माताजी का स्नेह
दीक्षार्थी विजय भैया मेरे मामा के लड़के थे। उनका और सनावद वालों का चौका था। तब बातों ही बातों में पता चला कि वे दोनों मुझे इंदौर इसलिए छोड़ आए थे क्योंकि उन्हें लगा था कि मैं मस्ती करूंगा, सब को परेशान करूंगा। मुझे चौके में कुछ काम करने को कहा तो मैंने कहा कि तुम तो मुझे छोड़कर आ गए थे तो मैं क्यों काम करूं। यह कहकर मैंने आगे निकल गया। वहीं कुछ आगे एक कमरे आचार्य श्री के संघ में आर्यिका वर्धित मतिमाता जी विराजमान थीं।
मैंने उनके दर्शन किए, लेकिन वह मौन थीं, कुछ नहीं बोलीं। फिर पता चला कि माता जी को अभी २-३ दिन मंदिर नहीं आना है। मैंने ऐसे ही माता जी के पास बैठा रहा। वहां कुछ और लोग भी थे जो माता जी अपनी बातें सुना रहे थे। आचार्य श्री को देखकर जो एक अनुभूति हुई थी, वही अनुभूति माता जी को देखकर हो रही थी। फिर रोज माता जी के पास कुछ देर बैठने लगा क्यों हम (परिवार) जहां रुके थे, वहीं कुछ आगे माता जी का कमरा था। दस फरवरी को दोनों भैया (राजू – विजय) की दीक्षा होनी थी तो मेरे मामा के परिवार के लोग धीरे-धीरे वहां आने लगे थे। सभी मुझे देखकर सोचते थे कि यह कैसे आ गया इतनी जल्दी।
हम लगभग एक या दो फरवरी, १९९८ को ही भैया जी के साथ हो लिए थे। एक दिन आचार्य श्री ने बड़े प्यार से कहा कि जब तक यहां हो, कुछ धर्म का ही पढ़ लो। हम दोनों, मैं और मनोज जैन, मेरे गांव से आया था, भैयाओं के साथ आचार्य श्री के साथ णमोकार पढ़ने लगे। उसके बाद संघ में अन्य साधुओं से भी कुछ ना कुछ धर्म की बातें करते थे। मैं आचार्य श्री कमरे में ही सोता था लेकिन कभी-कभी तो आचार्य श्री की और संघ की सुबह की सारी सामायिक, प्रतिक्रमण आदि सब क्रिया हो जाती थी, उसके बाद मेरी नींद खुलती थी लेकिन धीरे-धीरे ५- ६ दिन में सारी चर्या याद हो गई। मैं सुबह जल्दी उठने लगा और आचार्य श्री ससंघ के साथ जंगल आदि जाने लगा। मुझे यह चर्या कुछ दिन तो अजीब लगी, जैसे जल्दी उठना, जंगल जाना, मंदिर जाना, दिन भर कुछ ना कुछ पढ़ना लेकिन अब यह कुछ-कुछ अच्छी भी लगने लगी थी। आचार्य श्री स्नेह भी बढ़ने लगा था और उनका साथ भी मुझे अच्छा लगने लगा था। अभी तक भी कोई संघ में रुकने का मन नहीं बना था। पता नहीं, बाकी सभी मेरे बारे में क्या सोचते थे।

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