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#BhattarakPadmanandiPrachin
संस्कृतभाषाके उन्नायकोंमें भट्टारक आचार्य पधनन्दिकी गणना की जाती है । घे प्रभाचन्द्र के शिष्य थे। कहा जाता है कि दिल्ली में रत्नकीनिक पपर वि०मा० १३१० की पौष शुक्ला पूणिभाको भट्टारक प्रभाचन्द्रका अमिक हआ था। इनका जन्म ब्राह्मण जाति में हआ था | रनम्मान, घाग. देवगिार
आदि स्थानों में बिहार कार धर्म और संस्कृतिका प्रचार-प्रसार किया था । इन्होंने दिल्ली में नासिरुद्दीन मुहम्मदशाहको भी प्रसन्न किया था। प्रभाचन्द्र ७४ वर्ष तक पट्टाधीश रहे ।
एक बार प्रतिष्ठामहोत्सवके समय ध्यवस्थापक गृहस्थ उपस्थित नहीं रहे, तो प्रभाचन्द्रने उसी उत्सवको पट्टाभिषेकका रूप देकर पद्मनन्दिको अपने पट्ट पर अभिषिक्त कर दिया था। इन्होंने वि० सं० १४५० को वैशाख शुक्ला द्वादशी को एक आदिनाथस्वामीकी मूर्ति प्रतिष्ठित करायी थी। ये मूलसंघ स्थित मन्दिसंघ बलात्कारमण और सरस्वतीगच्छके आचार्य थे।
भट्टारक पद्मनन्दिके तीन प्रमुख शिष्य थे, जिन्होंने भट्टारका परम्पराएं स्थापित अन्य शिष्यों के साथ मदनदेव, नयनन्दि और मदनकोति इन प्रमुख शिष्यों के भी नामोल्लेख पाये जाते हैं ।
आचार्य पदानन्दि भट्टारक और मुनि दोनों विशेषणों द्वारा अभिहित हैं । इनका पट्टाभिषेक वि० सं० १३८५ (ई० सन् १३२८) में हुआ था। ये पन्द्रह वर्ष, सात माह और १३ दिन गृहस्थीमें रहे। पश्चात् १३ वर्ष तक दीक्षित हो ज्ञान और चारित्रकी साधना करते रहे । २९ वर्षकी अवस्थाके अनन्सर ये पट्ट पर अधिष्ठित हुए और ६५ वर्षों तक पट्टाधीश बने रहे। इस प्रकार इनका जन्म समय ई. सन् १३०० के लगभग भाता है। आदिनाथस्वामीकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा वि० सं० १४५० (ई. सन् १३९३) में इनके द्वारा सम्पन्न हुई है । वि.
१. श्रीमत्प्रभाचन्द्रमुनीन्द्रप? शश्चत्प्रतिष्ठः प्रतिभागरिकत
_ विशुद्धसिद्धान्त रहस्थरत्न-रत्नाकरो नन्दतु पमनन्दी ।। २८ ।। गुर्वावली, जन
सिद्धान्त भास्कर, भाग १, किरण ४, पु. ५३ ।।
२. वि० सं० १३८५ पोस सुधि ७ पपनन्दिनी गृहस्थ वर्ष १५ मास ७ दीक्षा वर्ष
१३, मास ५ पटवर्ष ६५ दिवस १८ अन्तर दिवस १० सर्व वर्ष १९ दिवस २८ जाति ब्राह्मण पट्ट दिल्ली ।
-भट्टारकसम्प्रदाय, लेखांक २३७ ।
३. भट्टारकसम्प्रदाय, सोलापुर, लेखांक २३९ ।
सं०१४६५ (ई० सन् १४०८) और वि० सं० १४८३ (ई सन् १४२६) के विजो लियाने शिलालेखों में इनकी प्रशंसा की गयी है और वहाँ मानस्तम्भोंमें इनकी प्रतिनि अंकित मिलती है।
टोडानगरमें भगर्भस २६ दिगम्बर जैन प्रतिमाएं उपलब्ध हुई हैं, जिन्हें वि० सं० १४७. (ई. सन् १४१३) में प्रभाचन्द्र के प्रशिष्य और भट्टारक पा नन्दिके शिष्य, मट्टारक विशालकोसिके उपदेशसे खण्डेलवाल जातिके गंगेलवाल गोत्रीय विसी श्रावकने प्रतिष्ठित कराया था। इससे स्पष्ट है कि भट्टारक पद्मनन्दि ई० सन् १४१३ के पूर्ववर्ती हैं। अतएव संक्षेपमें पट्टावलियों और प्रशस्तियों के आधारपर आ नन्धिः समः ई. सी शरी।
आचार्य पद्मनन्दिके नामसे कई स्तोत्र मिलते हैं। पर गरुका नाम निर्दिष्ट न होनेसे यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि प्राप्त स्तोत्र इन्हीं पयनन्दि के हैं या किन्हीं दूसरे आचार्यके । अतएव यहाँ सुनिति और संदिग्ध दोनों हो प्रकारको रचनाओंका निर्देश किया जाता है
१. जीरापल्लीपाश्चमाथस्तवन
२. भावनापद्धति
३. श्रावकाचारसारोद्धार
४. अनन्तब्रतकथा
५. बर्द्धमानचरित
१. वीतरागस्तोत्र
२ शान्तिजिनस्तोत्र
३. रावणपाश्र्वनाथस्तोत्र
१. जीरापल्लीपाश्वनाधस्तोत्रमें जीरापल्ली स्थित देवालयके मूलनायक भगवान् पाश्र्वनाथकी स्तुति की गयी है। इस स्तोत्रमें १० पद्य हैं। कविने रथोद्धता,शालिनो और बसन्ततिलका छन्दों का प्रयोग किया है । कवि आराध्य की स्तुति करता हुआ कहता है
दुस्तरेऽत्र भव-सागरे सतां कम-चण्डिम-भरान्निमज्जताम् ।
प्रास्फुरीति न कराऽवलम्बने त्वत्परो जिनवरोऽपि भूतले ।।
१. प्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग, दिल्ली १९५४, प्रस्तावना, पृ० १९ ।
त्वत्पदाम्बुज-युगाऽऽअयादिदं पुण्यमेति जगतोऽचतां सताम् ।
स्पृश्यतामपि न चाऽन्यशीर्षर्ग तब (त्वत) समोऽत्र तनको निगद्यते ॥
अन्तिम पद्यमें अंकित अनन्वय अलंकार राज्यको उपमारहित और सर्व श्रेष्ठ सिद्ध करता है। इस संसार-सागरमें कर्मभारके कारण निमज्जित होने वाले प्राणियोंको भगवान पार्श्वनाथका करावलम्बन ही रक्षा करने में समर्थ है। अतएव जगत उद्धारकके रूपमें माल नायक पाश्वनाथ ही प्रसिद्ध हैं।
इस रचनाका दूसरा नाम भावनाचतुत्रिशतिका भी है ! भावनाको निर्मल करने के लिए ३४ पद्यत्रमाण यह भावपूर्ण स्तुति है। रूपक अलंकारको योजना करता हुआ कवि कहता है कि यह मानसहंस जिनेन्द्रसेवारी मन्दाकिनीक निर्मल जलमें विचरण करें । यत: यमनजिक जाली आवई होने पर यह प्राणी किस प्रकार आनन्दपूर्वक विचरण कर सकेगा । अतएव समय पहले हुए सजग होकर भक्तिरूपी भागीरथीम स्नान करनेवी चेष्टा करनी चाहिये ।
अधैव मानस-मराल ! जिनेन्द्रसेवा
देवापगांभसि रमस्व मनस्विमान्ये ।
यातेऽथवा विधिवशाविसावसाने,
कोनाश-पाश-पतितस्य कुतो रतिस्त ।।७।।
इस पद्यम 'मानसमराल' और 'जिनेन्द्रसवादेवापगांभास में रूपक अलंकार की सुन्दर योजना को गयी है।
कवि सम्पत्ति, बल, वैभवको विद्यत् के समान चपल और पुमित्र, सुहुन्, सुवर्णादिकको भी नितान्त अस्थिर और विनश्चर अनुभव करता हुआ अपने को सम्बोधित करता है और कहता है कि संकड़ों अहमिन्द्रोंके द्वारा जिनके चरणकमलोंकी पूजा की जाती है उन सनातन चैतन्यस्वभाव, ज्ञान-दर्शन स्वरूप, आनन्दके आसार जिनेन्द्र में मेरा मन लीन हो । यथा
संपेव संपदबला चपला घनाली
लालं वपुः सुत-सुहत्-कनकादि-सर्व ।
ज्ञात्वनि सोहमहमिद्र-शत-स्तुतांहे!
लोय मुदा त्वयि सनातन ! चिस्वभाव ॥१४||
१. अनकान्त न.. किरण ७, जलाई १९३८, में प्रकाशित ।
२. अनेकान्त वर्ष ११, किरण ७-८., सन् १५५२, २५८-५१. पर प्रकाशित ।
कवि आचार्य आतंक, शोक और जन्म-मरणको उत्तंग शेलका रूपक देकर सांसारिक कष्टोंकी अभिव्यंजना करते हुए कहते है कि इस उत्तुग शैलपर बार बार चढ़ने और उतरने के महान कटके कारण में कठिन संतापसे पीडित हैं। अतएव प्रभो ! मैं आपके वचनरूपी पवित्र निर्मल सरोवर में प्रवेश करता हूँ। जिस प्रकार पर्वतपर बार-बार चढ़ने और उतरनेसे अनेक प्रकारका संताप होता है और उस संतापको दूर करनेके लिए स्नानादि अनेक क्रियाएँ सम्पन्न की जाती है, इसी प्रकार जन्म-मरण, रोग-शोक आदिको दूर करनेके लिए भगवान जिनेन्द्र के वचनोंका अवलम्बन लेनेसे शान्ति प्राप्त होती है
आतंक-शोक-मरणोद्भव-तुंगशेल
रोहाऽवरोहकरणमम पीडितस्य ।
दुर्वारतापहनये भवताजिनेश !
युष्मद्वचः शुचि-सुधा-सरसि प्रवेशः ।।१५।।
कवि भावविभोर होकर प्रार्थना पता हुमाकाहाना कि भो! जो आपकी पाषाणनिर्मित भूतिका ध्यान करता है वह भी संसारमें पतनसे बच जाता है फिर जो आपके ज्ञानात्मक रूपका ध्यान करेगा, बह किस फलको प्राप्त होगा, यह कहा नहीं जा सकता है
ग्रावादि-निर्म्मित-शुभप्रतिमासु यस्त्वां
ध्यायत्यमर्त्य पतितामुपयासि सोऽपि ।
ज्ञानात्मक तु भजता भवत: स्वरूप
कीदृषिमयत्फलमलं तदहं न जाने ।
इसमें तीन परिच्छेद है। तृतीय परिच्छेदके अन्त में लिखा गया है-'इति श्रावकाचारसारोद्धारे श्रीपानन्दमुनिविरचिते द्वादशत्रतवर्णनो नाम तुतीमः परिच्छेदो समात:" | इस ग्रन्थमें गृहस्थविषयक . आचारका वर्णन किया गया है। इस श्रावकाचारके प्रणयनकी प्रेरणा लम्ब कञ्चुककुलान्वय साहू बासाधरसे प्राप्त हुई थो । साहू बासाघरके पितामह 'गोकर्ण ने 'सुपकारसार' नामक ग्रन्थकी रचना की थी । गोकर्ण के पुत्र सोमदेव हुए। इनकी धर्मपत्नोका नाम प्रेमा था। इनके सात पुत्रों में बासाधर सबसे बड़े पुत्र' थे।
इसमें ८५ पद्य है। अनन्त चतुर्दशीके व्रतको सम्पन्न करनेवाले फलाधिकारी व्यक्ति की कथा वर्णित है। अन्तम कविने अपना परिचय
भी दिया है। . इसका पाण्डुलिपि आमेरको शास्त्र भण्डारमें है।
इस संस्कृतग्रन्थमें तीर्थंकर बर्द्धमानका इतिवृत्त वर्णित है । पद्यसंख्या अनुमानत: ३०० है।
मदिग्ध ग्रन्योनो सम्बन्धम कुछ नहीं कहा जा सकता है। आचार्य पमनन्दि की रचनाओं में भक्तिसम्बन्धी आदर्श उच्च कोटिका पाया जाता है ।
गुरु | आचार्य श्री प्रभाचंद्र |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टारक पद्मनंदी |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#BhattarakPadmanandiPrachin
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री भट्टारक पद्मनंदी (प्राचीन)
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 24-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 24-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
संस्कृतभाषाके उन्नायकोंमें भट्टारक आचार्य पधनन्दिकी गणना की जाती है । घे प्रभाचन्द्र के शिष्य थे। कहा जाता है कि दिल्ली में रत्नकीनिक पपर वि०मा० १३१० की पौष शुक्ला पूणिभाको भट्टारक प्रभाचन्द्रका अमिक हआ था। इनका जन्म ब्राह्मण जाति में हआ था | रनम्मान, घाग. देवगिार
आदि स्थानों में बिहार कार धर्म और संस्कृतिका प्रचार-प्रसार किया था । इन्होंने दिल्ली में नासिरुद्दीन मुहम्मदशाहको भी प्रसन्न किया था। प्रभाचन्द्र ७४ वर्ष तक पट्टाधीश रहे ।
एक बार प्रतिष्ठामहोत्सवके समय ध्यवस्थापक गृहस्थ उपस्थित नहीं रहे, तो प्रभाचन्द्रने उसी उत्सवको पट्टाभिषेकका रूप देकर पद्मनन्दिको अपने पट्ट पर अभिषिक्त कर दिया था। इन्होंने वि० सं० १४५० को वैशाख शुक्ला द्वादशी को एक आदिनाथस्वामीकी मूर्ति प्रतिष्ठित करायी थी। ये मूलसंघ स्थित मन्दिसंघ बलात्कारमण और सरस्वतीगच्छके आचार्य थे।
भट्टारक पद्मनन्दिके तीन प्रमुख शिष्य थे, जिन्होंने भट्टारका परम्पराएं स्थापित अन्य शिष्यों के साथ मदनदेव, नयनन्दि और मदनकोति इन प्रमुख शिष्यों के भी नामोल्लेख पाये जाते हैं ।
आचार्य पदानन्दि भट्टारक और मुनि दोनों विशेषणों द्वारा अभिहित हैं । इनका पट्टाभिषेक वि० सं० १३८५ (ई० सन् १३२८) में हुआ था। ये पन्द्रह वर्ष, सात माह और १३ दिन गृहस्थीमें रहे। पश्चात् १३ वर्ष तक दीक्षित हो ज्ञान और चारित्रकी साधना करते रहे । २९ वर्षकी अवस्थाके अनन्सर ये पट्ट पर अधिष्ठित हुए और ६५ वर्षों तक पट्टाधीश बने रहे। इस प्रकार इनका जन्म समय ई. सन् १३०० के लगभग भाता है। आदिनाथस्वामीकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा वि० सं० १४५० (ई. सन् १३९३) में इनके द्वारा सम्पन्न हुई है । वि.
१. श्रीमत्प्रभाचन्द्रमुनीन्द्रप? शश्चत्प्रतिष्ठः प्रतिभागरिकत
_ विशुद्धसिद्धान्त रहस्थरत्न-रत्नाकरो नन्दतु पमनन्दी ।। २८ ।। गुर्वावली, जन
सिद्धान्त भास्कर, भाग १, किरण ४, पु. ५३ ।।
२. वि० सं० १३८५ पोस सुधि ७ पपनन्दिनी गृहस्थ वर्ष १५ मास ७ दीक्षा वर्ष
१३, मास ५ पटवर्ष ६५ दिवस १८ अन्तर दिवस १० सर्व वर्ष १९ दिवस २८ जाति ब्राह्मण पट्ट दिल्ली ।
-भट्टारकसम्प्रदाय, लेखांक २३७ ।
३. भट्टारकसम्प्रदाय, सोलापुर, लेखांक २३९ ।
सं०१४६५ (ई० सन् १४०८) और वि० सं० १४८३ (ई सन् १४२६) के विजो लियाने शिलालेखों में इनकी प्रशंसा की गयी है और वहाँ मानस्तम्भोंमें इनकी प्रतिनि अंकित मिलती है।
टोडानगरमें भगर्भस २६ दिगम्बर जैन प्रतिमाएं उपलब्ध हुई हैं, जिन्हें वि० सं० १४७. (ई. सन् १४१३) में प्रभाचन्द्र के प्रशिष्य और भट्टारक पा नन्दिके शिष्य, मट्टारक विशालकोसिके उपदेशसे खण्डेलवाल जातिके गंगेलवाल गोत्रीय विसी श्रावकने प्रतिष्ठित कराया था। इससे स्पष्ट है कि भट्टारक पद्मनन्दि ई० सन् १४१३ के पूर्ववर्ती हैं। अतएव संक्षेपमें पट्टावलियों और प्रशस्तियों के आधारपर आ नन्धिः समः ई. सी शरी।
आचार्य पद्मनन्दिके नामसे कई स्तोत्र मिलते हैं। पर गरुका नाम निर्दिष्ट न होनेसे यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि प्राप्त स्तोत्र इन्हीं पयनन्दि के हैं या किन्हीं दूसरे आचार्यके । अतएव यहाँ सुनिति और संदिग्ध दोनों हो प्रकारको रचनाओंका निर्देश किया जाता है
१. जीरापल्लीपाश्चमाथस्तवन
२. भावनापद्धति
३. श्रावकाचारसारोद्धार
४. अनन्तब्रतकथा
५. बर्द्धमानचरित
१. वीतरागस्तोत्र
२ शान्तिजिनस्तोत्र
३. रावणपाश्र्वनाथस्तोत्र
१. जीरापल्लीपाश्वनाधस्तोत्रमें जीरापल्ली स्थित देवालयके मूलनायक भगवान् पाश्र्वनाथकी स्तुति की गयी है। इस स्तोत्रमें १० पद्य हैं। कविने रथोद्धता,शालिनो और बसन्ततिलका छन्दों का प्रयोग किया है । कवि आराध्य की स्तुति करता हुआ कहता है
दुस्तरेऽत्र भव-सागरे सतां कम-चण्डिम-भरान्निमज्जताम् ।
प्रास्फुरीति न कराऽवलम्बने त्वत्परो जिनवरोऽपि भूतले ।।
१. प्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग, दिल्ली १९५४, प्रस्तावना, पृ० १९ ।
त्वत्पदाम्बुज-युगाऽऽअयादिदं पुण्यमेति जगतोऽचतां सताम् ।
स्पृश्यतामपि न चाऽन्यशीर्षर्ग तब (त्वत) समोऽत्र तनको निगद्यते ॥
अन्तिम पद्यमें अंकित अनन्वय अलंकार राज्यको उपमारहित और सर्व श्रेष्ठ सिद्ध करता है। इस संसार-सागरमें कर्मभारके कारण निमज्जित होने वाले प्राणियोंको भगवान पार्श्वनाथका करावलम्बन ही रक्षा करने में समर्थ है। अतएव जगत उद्धारकके रूपमें माल नायक पाश्वनाथ ही प्रसिद्ध हैं।
इस रचनाका दूसरा नाम भावनाचतुत्रिशतिका भी है ! भावनाको निर्मल करने के लिए ३४ पद्यत्रमाण यह भावपूर्ण स्तुति है। रूपक अलंकारको योजना करता हुआ कवि कहता है कि यह मानसहंस जिनेन्द्रसेवारी मन्दाकिनीक निर्मल जलमें विचरण करें । यत: यमनजिक जाली आवई होने पर यह प्राणी किस प्रकार आनन्दपूर्वक विचरण कर सकेगा । अतएव समय पहले हुए सजग होकर भक्तिरूपी भागीरथीम स्नान करनेवी चेष्टा करनी चाहिये ।
अधैव मानस-मराल ! जिनेन्द्रसेवा
देवापगांभसि रमस्व मनस्विमान्ये ।
यातेऽथवा विधिवशाविसावसाने,
कोनाश-पाश-पतितस्य कुतो रतिस्त ।।७।।
इस पद्यम 'मानसमराल' और 'जिनेन्द्रसवादेवापगांभास में रूपक अलंकार की सुन्दर योजना को गयी है।
कवि सम्पत्ति, बल, वैभवको विद्यत् के समान चपल और पुमित्र, सुहुन्, सुवर्णादिकको भी नितान्त अस्थिर और विनश्चर अनुभव करता हुआ अपने को सम्बोधित करता है और कहता है कि संकड़ों अहमिन्द्रोंके द्वारा जिनके चरणकमलोंकी पूजा की जाती है उन सनातन चैतन्यस्वभाव, ज्ञान-दर्शन स्वरूप, आनन्दके आसार जिनेन्द्र में मेरा मन लीन हो । यथा
संपेव संपदबला चपला घनाली
लालं वपुः सुत-सुहत्-कनकादि-सर्व ।
ज्ञात्वनि सोहमहमिद्र-शत-स्तुतांहे!
लोय मुदा त्वयि सनातन ! चिस्वभाव ॥१४||
१. अनकान्त न.. किरण ७, जलाई १९३८, में प्रकाशित ।
२. अनेकान्त वर्ष ११, किरण ७-८., सन् १५५२, २५८-५१. पर प्रकाशित ।
कवि आचार्य आतंक, शोक और जन्म-मरणको उत्तंग शेलका रूपक देकर सांसारिक कष्टोंकी अभिव्यंजना करते हुए कहते है कि इस उत्तुग शैलपर बार बार चढ़ने और उतरने के महान कटके कारण में कठिन संतापसे पीडित हैं। अतएव प्रभो ! मैं आपके वचनरूपी पवित्र निर्मल सरोवर में प्रवेश करता हूँ। जिस प्रकार पर्वतपर बार-बार चढ़ने और उतरनेसे अनेक प्रकारका संताप होता है और उस संतापको दूर करनेके लिए स्नानादि अनेक क्रियाएँ सम्पन्न की जाती है, इसी प्रकार जन्म-मरण, रोग-शोक आदिको दूर करनेके लिए भगवान जिनेन्द्र के वचनोंका अवलम्बन लेनेसे शान्ति प्राप्त होती है
आतंक-शोक-मरणोद्भव-तुंगशेल
रोहाऽवरोहकरणमम पीडितस्य ।
दुर्वारतापहनये भवताजिनेश !
युष्मद्वचः शुचि-सुधा-सरसि प्रवेशः ।।१५।।
कवि भावविभोर होकर प्रार्थना पता हुमाकाहाना कि भो! जो आपकी पाषाणनिर्मित भूतिका ध्यान करता है वह भी संसारमें पतनसे बच जाता है फिर जो आपके ज्ञानात्मक रूपका ध्यान करेगा, बह किस फलको प्राप्त होगा, यह कहा नहीं जा सकता है
ग्रावादि-निर्म्मित-शुभप्रतिमासु यस्त्वां
ध्यायत्यमर्त्य पतितामुपयासि सोऽपि ।
ज्ञानात्मक तु भजता भवत: स्वरूप
कीदृषिमयत्फलमलं तदहं न जाने ।
इसमें तीन परिच्छेद है। तृतीय परिच्छेदके अन्त में लिखा गया है-'इति श्रावकाचारसारोद्धारे श्रीपानन्दमुनिविरचिते द्वादशत्रतवर्णनो नाम तुतीमः परिच्छेदो समात:" | इस ग्रन्थमें गृहस्थविषयक . आचारका वर्णन किया गया है। इस श्रावकाचारके प्रणयनकी प्रेरणा लम्ब कञ्चुककुलान्वय साहू बासाधरसे प्राप्त हुई थो । साहू बासाघरके पितामह 'गोकर्ण ने 'सुपकारसार' नामक ग्रन्थकी रचना की थी । गोकर्ण के पुत्र सोमदेव हुए। इनकी धर्मपत्नोका नाम प्रेमा था। इनके सात पुत्रों में बासाधर सबसे बड़े पुत्र' थे।
इसमें ८५ पद्य है। अनन्त चतुर्दशीके व्रतको सम्पन्न करनेवाले फलाधिकारी व्यक्ति की कथा वर्णित है। अन्तम कविने अपना परिचय
भी दिया है। . इसका पाण्डुलिपि आमेरको शास्त्र भण्डारमें है।
इस संस्कृतग्रन्थमें तीर्थंकर बर्द्धमानका इतिवृत्त वर्णित है । पद्यसंख्या अनुमानत: ३०० है।
मदिग्ध ग्रन्योनो सम्बन्धम कुछ नहीं कहा जा सकता है। आचार्य पमनन्दि की रचनाओं में भक्तिसम्बन्धी आदर्श उच्च कोटिका पाया जाता है ।
गुरु | आचार्य श्री प्रभाचंद्र |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टारक पद्मनंदी |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Bhattarak Padmanandi ( Prachin )
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 24-May- 2022
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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