हैशटैग
#BhattarakSakalkirtiPrachin
विपुल साहित्य निर्माणकी दृष्टि से आचार्य सकलकीतिका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने संस्कृत एवं प्राकृत वाङ्मयको संरक्षण ही नहीं दिया, अपितु उसका पर्याप्त प्रचार और प्रसार किया। हरिवंशपुराणको प्रशस्तिमें ब्रह्मजिनदासने इनको महाकवि कहा है--
तपट्टपङ्कजविकासभास्वान् बभूव निग्रन्थवरः प्रतापी।
महाकविलादिकलाप्रवीण: तपोनिधि: श्रीसकालादिकीतिः ॥
इससे स्पष्ट है कि इनकी प्रसिद्धि महाकवीश्वर के रूप में थी । आचार्य सकलकोतिने प्राप्त आचार्यपरम्पराका सर्वाधिकरूपमें पोषण किया है। तीर्थ यात्राएँ कर जनसामान्य में धर्मके प्रति जागरूकता उत्पन्न की और नवमंदिरोंका निर्माण कराकर प्रतिष्ठाएं करायौं । आचार्य सकल की तिने अपने जीवनकालमें
१४ बिम्बप्रतिष्ठाओंका संचालन किया था। गलियाकोटमें संघपति मूलराजने इन्हीं के उपदेशसे चतुर्विशति जिनबिम्बकी स्थापना की थी। नागदह जात्तिके थावक संघपति ठाकुरसिंहने भी कितनी ही विम्बप्रतिष्ठाओंमें योग दिया। आबूम इन्होंने एक प्रतिष्ठा महोत्सवका संचालन किया था, जिसमें तीन चौबीसीकी एक विशाल प्रतिमा परिकरसहित स्थापित की गयी थी।
निःसन्देह आचार्य सकलकोतिका असाधारण व्यक्तित्व था। तत्कालीन संस्कृत, अपभ्रश, राजस्थानी आदि भाषाओंपर अपूर्व अधिकार बा । भट्टारक सकलभूषणने अपने उपदेश रत्नमाला नामक नन्ध को प्रशस्तिमें सकल कीतिको अनेक पुराणग्रन्थों का रचयिता लिखा है । भट्टारक शुभचन्द्रने भी सकल कोशिका पुराण और काव्य अन्धोंका रचयिता बताया है । लिखा है
'तांच्याग्रेसरानेकशास्त्रपयोधिपारप्राप्तानाम्, एकाचलि-द्विकालि-कनका. बलि - रत्नाबलि-मुक्कावलि - सर्वतोभद्र-सिंहविक्रमादिमहातपावचनाशितकर्म पर्वतानाम, सिद्धान्तसार-तत्त्वसार-यत्याचाराधनेकराद्धान्तविधातृणाम्, मिथ्या स्वतमीबिनाशकमाण्डिानाम्, अभ्युदयपूर्वनिर्वाणसुखावश्यविधायि-जिनधर्माः म्बुधिविवर्द्धनपूर्णचन्द्राणाम्, यथोकचरित्राचरणसमर्थननिग्रंथाचार्यावर्याणाम श्रीश्रीश्रीसकलकोत्तिभट्टारकाणाम् ।'
१. शुभचन्द्राचार्यपट्टावलि, ७ अनुच्छेद ।
अर्थात-पचनन्दिके शिष्य, अनेक शास्त्रोक पारगामी, कालि, हिकार्याल, रत्नालि, मुक्तावलि, सर्वतोभट्ट, सिहविक्रम आदि महातपोंके अचारणद्वारा कमळगी पर्वतीको नष्ट करने वाले, सिद्धान्तसार, तत्त्वसार, यत्याचार आदि आगमग्रन्थोंके रचयिता, मिथ्यात्वरूपी अन्धकारको नए करनेके लिए सूर्यतुल्य, जिनधर्मस्वी समुद्रको वृद्धिंगत करने के लिए चन्द्रमातुल्य और यथोक्त चारित
का पालन करनेवाले निग्रन्धाचार्य सफल कोत्ति हुए।
अतः स्पष्ट है कि निग्रंथाचार्य सकलकत्ति एक बड़े सपस्त्री, ज्ञानी धर्म प्रचारक और ग्रन्थरचयिता थे । उस युगमें ये अद्वितीय प्रतिभाशाली एवं शास्त्रों के पारगामी थे।
आचार्य सकालकीतिका जन्म वि० सं० १४४३ (ई सन् १३८६) में हुआ था। इनके गिताका नाम कमसिंह और माताका नाम शोभा था । ये हूंबड़ जात्तिके थे और अहिपुर पट्टनके रहने वाले थे । गर्भ में आने के समय माताको स्वप्नदर्शन हुआ था। पति ने इस स्वप्नका फल योग्य, कर्मठ और यशस्वी पुत्रकी प्राप्ति होमा बतलाया था ।
बालकका नाम माता-पिताने पूर्णसिंह या पूनसिंह रखा था। एक पट्टा बली में इनका नाम पदार्थ भी पाया जाता है। इनका वर्ण राजहंसके समान शुभ्र और शरीर ३२ लक्षणोंसे युक्त था। पांच वर्ष की अवस्था में पूर्णसिंहका विद्यारम्भ संस्कार सम्पन्न किया गया। कुशाग्रबुद्धि होने के कारण अल्पसमयमें
ही शास्त्राभ्यास पूर्ण कर लिया। माता-पिताने १४ वर्षको अबस्था में ही पूर्णसिंह का विवाह कर दिया । विवाहित हो जानेपर भी इनका मन सांसारिक कार्योंके बन्धन में बंध न सका । पुषकी इस स्थितिसे माता-पिताको चिन्ता उत्पन्न हुई और उन्होंने गमझाया-"अपार सम्पत्ति है, इसका उपभोग युवावस्था में अवश्य करना चाहिये । रायम प्राप्तिके लिए तो अभो बहुत समय है। यह तो जीवनके चौथे पनम धारण किया जाता है । पिता-पुत्र के बीच में जो वार्तालाप हुआ उसे भट्टारक भुवनको तिने निम्नलिखित रूपमें व्यक्त किया है
१. घोडद प्रितालि प्रमागि पूरइ दिन पुत्र जनमीच ।
२. न्यानि माहि मुहृतवंत हूंबड हरपि यखागिए ।
करमसिंह वित्तपन्न उदयनंत इम जाणीइए ।।
शोभित तरस अरबांगि, मूलि सरीस्य सुदरीय ।
सील स्यमारित अनि पेखु प्रत्यक्षे पुरंदरीम ।।
-सकलकोतिरास, जन सन्देश, शोषाक १६ में उद्धत ।
देखवि चञ्चल चित्त माता पिता कहि वछ सुणि ।
अहम मंदिर बहू वित्त आविसिंह कारणि कवइ ।।
लहुआ लीलावंत सुख भोगवि संसार तणाए।
पछइ दिवस बहुत, अछिह संयम तप तणाए ।
वयणि तं जि सुणेवि पुत्र पिता प्रति हम कहिए ।
निजमन सुविस करेवि धीर जे तरणि तप गहिए ।।
ज्योधन गिइ भमार पछइ पालइ शीयल घण।
ते कुहु कवण विचार विण अवसर जे वरसीयिए ।
कहा जाता है कि माता-पिताके आग्रहसे ये चार वर्षों तक घर में रहे और १८वें में प्रवेश करते ही वि० सं०१४६३ (ई० सन् १४०६) में समस्त सम्पत्तिका त्याग कर भट्टारक पचनन्दिके पास नेणवांमें चले गये। भट्टारक घशाकीति शास्त्रभण्डारको पट्टावलीके अनुसार ये २६ वर्ष में नेणवां गये थे। ३४३ वर्षमें आचार्य पदवी धारण कर अपने प्रदेशमें वापस आये और धर्मप्रचार करने लगे। इस समय ये नग्नावस्थामें थे ।
आचार्य सकलकीतिने बागड़ और गुजरातमें पर्याप्त भ्रमण किया था और धर्मोपदेश देकर श्रावकोंमें धर्मभावना जागृत की थी। उन दिनोंमे उक्त प्रदेशों में दिगम्बर जैन मन्दिरोंकी संख्या भी बहुत कम थी तथा साधुके न पहुँचनेके कारण अनुयायियों में धार्मिक शिथिलता आ गयी थी । अतएव इन्होंने गांव गांवमें विहार कर लोगोंके हृदयमें स्वाध्याय और भगवद्भक्तिकी रुचि उत्पन्न की।
बलात्कारगण इडर शाखाका आरम्भ भट्रारक सकलकोतिसे ही होता है। ये बहुत ही मेधावो, प्रभावक, ज्ञानी और चरित्रवान थे। बागड़ देशमें जहाँ कहीं पहलं कोई भी प्रभाव नहीं था, वि० सं० १४९२ में गलियाकोटमें भट्टा रफ गद्दीको स्थापना को तथा अपने आपको सरस्वतीगच्छ एवं बलात्कारगणसे सम्बोधित किया । ये उत्कृष्ट तपस्वी और रत्नावली, सर्वतोभद्र, मुक्तावली आदि व्रतोंका पालन करने में सजग थे।
भट्टारक सकलकीति द्वारा वि० सं० १४९० (ई. सन् १४३३) वैशाख शुक्ला नवमी शनिवारको एक "चौबीसी मति; विक्रम संवत् १४९२ (ई० सन् १४३५) वैशाख कृष्ण दशमीको पारवनाथमति; सं० १४९४ (१० सन् १४३७) १. भट्टारकसम्प्रदाय, सोलापुर, लेखांक ३३१ । २. वही, लेखांक ३३१ ।
वैशाख शुक्ला अयोदशीको आबू पर्वतपर एक मन्दिरकी प्रतिष्ठा करायी गयी। जिसमें तीम चौबीसीकी प्रतिमाएँ परिकरसहित स्थापित की गयी थीं। वि० सं० ४.४९९७ (ई० सन् १४४० ) में एक आदिनाथस्वामीकी मति तथा वि० सं०१४९९ (ई. सन् १४४२)में सागवाड़ा में आदिनाथ मन्दिरकी प्रतिष्ठा की थी। इसी स्थान में आपने भट्टारक धर्मकीतिका पट्टाभिषेक भी किया था। __ भट्टारक सकलकीतिने अपनी किसी भी रचनामें समयका निर्देश नहीं किया है, तो भी मूर्तिलख आदि साधनोंके आधारपरसे उनका निधन वि० सं० १४२९. पौष मारामें महसाना (गजरात) में होना सिद्ध होता है । इस प्रकार उनकी आयु ५६ वर्ष की आती है।"
भट्टारकसम्प्रदाय ग्रन्थ में विद्याधर जोहरापुरकरने इनका समय वि० सं० १४५०-१५१० तक निर्धारित किया है । पर वस्तुतः इनका स्थितिकाल वि० सं० १४४३-१४९९ तक आता है।
आचार्य सकलकीति संस्कृतभाषाके प्रौद्ध पंडित थे। इनके द्वारा लिखित निम्नलिखित रचनाओंकी जानकारी प्राप्त होतो है
१. शान्तिनाथचरित
२. वर्द्धमानचरित
३. मल्लिनाथचरित
४. यशोधरचरित
५. धन्यकुमारचरित
६. सुकमालचरित
७. सुदर्शनचरित
८. जम्बूस्वामीचरित
९. श्रीपालचरित
१. भ० सं० लेखांक ३३३ ।
२. वहीं, लेखांक ३३४ ।।
३. वही, लेखांक ३३० ।
४ प्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग, दिल्ली, प्रस्तावना १० ११ तथा डॉ. कासलीवाल
द्वारा लिखित तीन ऐतिहासिक पट्टालियाँ ।
५. भट्टारकसम्प्रदाय, सोलापुर पृ. १५८, बलात्कारगण, इष्टरशाखा कालपट ।
१० मलाचारप्रदोष
११. प्रश्नोत्तरोपासकाचार
१२. आदिपुराण---वृषभनाथचरित
१३. उत्तरपुराण
१४. मदभाषितावली-मुक्ति मुगावली
१५. पारनाथपुगण
१६. सिद्धान्तसारदीपक
१७. ब्रतकथाकोष
१८. पुरमा रह
१९. कर्मविपाक
२०. स्वार्थसारदीपक
२१. परमात्मराजस्तोत्र
२२. आगममार
२३. सारचतुर्विशतिका
२४. पञ्चपरमेष्ठीपूजा
२५. अष्टालिकापूजा
२६. सोलहकारभापूजा
२७. द्वादशानुप्रेक्षा
२८. गणधरवलयपूजा
२९. समाधिमरणोत्साहदीपक
१. आराधनाप्रतिवोधसार
२. नेमीश्वर-गीत
३. मुक्तावली-गीत
४. णमोकार-गील
५. पाश्वनाथाष्टक
६. सोलहकारण रासो
७. शिखामणिरास
८. रत्नत्रयरास
इम चरितकाच्यमें १६ अधिकार हैं और ३४७५ पद्य हैं। इसमें १६वें
तीर्थंकर शान्तिनाथका जीवनवृत्त अंकित है। काव्यचमत्कार पत्र-तत्र पाया जाता है। महाकाव्यत्वके स्थानपर पौराणिकताका ही समावेश हुआ है ।
इस चरितकाव्यमें अन्तिम तीर्थंकर बर्द्धमानके पावन जीन का वर्णन किया गया है। कथावस्तु १९ सर्ग या अधिकारों में विभक्त है। प्रथम छह मों में महाबीर के पूर्व भवोंका और शेष १३ सगों में गर्भकल्याणकसे लेकर निर्वाणकल्याणक तक विभिन्न लोकोत्तर घटनाओंका विस्तृत वर्णन मिलता
है। भाषा सरल और काव्यमय है।
इस चरितकाव्यमें ७ सर्म या परिच्छेद हैं और ८७४ श्लोक हैं। इसमें तीर्थकर मल्लिनाथका चरित पणित है। ग्रन्थकताने आरम्भमें मल्लिनाथ स्वामीको ही नमस्कार किया है.-.
नमः श्रीमल्लिनाथाय कर्ममल्लविनाशिने ।
अनन्तमहिमाप्ताय त्रिजगत्स्वामिने निशं ।।
शेषान् सर्वान् जिनान्वन्दे धर्मचक्रप्रवर्तकान् ।
विश्वभव्य हितोक्तान पंचकल्याणनायकान् ।।
प्रथम सर्ग, पद्य १, २
कवि वस्तुवर्णनमें भी कुशल है। अनुष्टुप् जैसे छोटे छन्दमें ग्राम, नगर, परिखा, ऋतु, सरित, वसन्त आदिका धमत्कारपूर्ण वर्णन करता है। बीतशोका नगरी, विस्तीर्ण स्वाइयों, ऊँचे परकोटों और तोरणों आदिके वर्णनमें उत्प्रेक्षाका प्रयोग चमत्काररूपमें किया गया है।
दीर्घखातिकया तुङ्गशालगोपुरतोरणेः ।
मनोशैयंदभाज्जबूद्वीपवेब्धिबत्तराम् ।।
पुण्यवद्धामकूटाम्रध्वजस्तैमरुदर्श: ।।
नाकिनामाह्वयंतीव मुक्तये बद्भुवस्तराम् ।।
-प्रथम सर्ग पच १९ ,२०
इस काव्यमें दान, अहिंसा, रत्नत्रय, भक्ति, पूजा आदिका भी वर्णन आया है । काव्यतत्वके साथ दर्शनसत्वको अवगत करने के लिए यह रचना महत्त्वपूर्ण है ।
यशोधरको कथा अत्यन्त लोकप्रिय रही है । इस कथाको आधार मानकर अनेक जैन कवियोंने विभिन्न भाषाओं में काव्योंकी रचना की है । सकट कीतिकी
यह रचना सस्कृत भाषाम है। इस माह स हैं। इन महिसाका महत्व प्रतिपादित किया गया है।
इस चरितकाव्यमें धन्यकुमारको कथा वर्णित है। इसमें सात सर्ग या अधिकार हैं। कविने घटनाओंको काव्यशैलीमें प्रस्तुत किया है और धन्य कुमारके जोवनकी कौतुहलपूर्ण घटनाओंको काव्यात्मक रूप में उपस्थित किया है।
इस काव्य में सुकुमालके जीवनका पूर्वभवसहित वर्णन किया गया है । सम्पूर्ण कथा-वस्तु २, सोंमें विभक्त है। पूर्वभवमें किया गया बैरभाव जन्म जन्मान्तरमें कितना कष्टकारी होता है, इसका चित्रण इस काव्य में सुन्दररूपमें किया है । सुकुमाल वैभवपूर्ण जीवनयापन करता है, पर मुनि अवस्थामें
अत्यन्त घोर तपश्चरण कर आत्मशुद्धि लाभ करता है।
इस चन्तिकाव्यमें सेठ सुदर्शनका जीवनवृत्त वणित है और कथावस्तु ८ परिच्छेदों में विभक्त है। शील दतके पालनमें सुदर्शनको दृढ़ताका चित्रण बड़े ही सुन्दर रूपमें हुआ है । कविने अन्तईन्द्रोंका विकास बड़े ही सुन्दर रूपमें किया है। कपिलाके यहां सुदर्शक पहुँचनेपर एवं कपिला द्वारा कमोत्तेज माओंके उत्पन्न होनेपर भी सुदर्शनकी दृढ़ता किसके हृदयको स्पर्श नहीं करती। अभया रानी सुदर्शनको विचलित करने का प्रयास करती है, पर वह सुमेरुकी चट्टानके समान दृढ़ रहता है । सुदर्शनके चरित्रको यह दृढ़ता और शीलकी अटलता काव्यका उदात्तीकरण है। कविने मुनि अवस्थामें पाटली पुनमें देवदत्ता गणिका द्वारा जो उपसर्ग दिखलाये हैं या जिन कामचेष्टाओंका वर्णन किया है, वे पुनरुक्त जैसी प्रतीत होती हैं । झोलके चित्रणमें आठों कारकोंका नियोजन किया गया है--
शीलं मुक्तिवप्रियं भवहरं शीलं सशीला: श्रिताः
शालेनात्र समाप्यतं शिवपदं शोलाय तस्मै नमः ।
शोलान्नास्त्यपरः सुधमंजनकः शीलस्य सर्व गुणाः
शोले चित्तमनारतं विदधतं मां शील मुक्ति नय ।।३।१३०
संक्षेपमें यही कहा जा सकता है कि यह चरित काव्य काव्य मुणोंसे युक्त उदात्त
शैली में लिखा गया है। अष्टम सगमें सुदर्शनकी आराधना रूपक अलंकारमें चित्रण किया है । भाषा सरल और कथा रससे परिपूर्ण है। सूक्तियों और धर्मोपदेश पर्याप्त मात्रामें हैं।
इसमें कोटीभट्ट श्रीपालके जीबनको प्रमुख विशेषताओंका वर्णन आया है। समस्त कथावस्तु ७ सर्ग या परिच्छेदोंमें विभक्त है। श्रीपालका राजासे कुष्ठी होना, समुद्र में गिरना, शूलीपर चढ़ना आदि कितनी ही ऐमो घटना हैं, जो पाठकों के मनमें कौतुहल जागृत करती हैं। कविने नाटकीय ढंगसे घट नाओंका नियोजन किया है। इस चरितकाव्यको रचना कर्मफल के सिद्धान्त को प्रतिष्ठित करने के लिए की गयी है। विश्वके समस्त प्राणी हर्मकृतफलको प्राप्त करते हैं। निकाचितकर्म फल दिये बिना नहीं रहते हैं। काव्यको भाषा सरल और परिमार्जित है।
यह आचारसम्बन्धी ग्रन्थ है। इसमें मुनिक जावतका समस्त क्रियाओं, विधिओं और साधनाओंका निरूपण किया गया है। इस ग्रन्थमें १२ अधिकार हैं, जिनमें २८ मल गुण, पंचाचार, दशलक्षणधर्म, द्वादशानुक्षा एवं द्वादश सपों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
इस ग्रन्थमें थावकोंके आचारधर्मका वर्णन है । इसमें २४ परिच्छेद हैं । मूल गुण, द्वादशवत, अणुव्रत, गुणव्रत शिक्षाबत आदिका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थकी विशेषता यह है कि भारक सकलकातिने श्रद्धालु नकोंके
आचाविषयक प्रश्नोंका समाधान करने के लिए इस अन्धकी रचना की है।
इस पुराणमें भगवान आदिनाथ, भरत, बाहुबलि, सुलोचना, जयकुमार आदिके जीवनवृत्तका वर्णन किया गया है। यह २० सोम विभक्त है और इसमें ४६२६ पञ्च हैं। इस कृतिका दूसरा नाम पारित भी है। प्रधानतः इसमें आदि तार्थकर ऋषभदेवका जोबन वणित है ।
प्रथम तीर्थकरको छोड़ शेष २३ तीर्थंकरोंका जीवनवृत्त इस पुराणमें चणित है। माथ ही इसमें चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण, प्रतिनारायण आदि शलाका पुरुषोंके जोबन भी अंकित हैं। इसमें १५ अधिकार है।
इस मुभाषित ग्रन्थमें धर्म, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, इन्द्रियजय, स्त्रीसहवास, कामसेवन, निर्ग्रन्थसेवा, तप, त्याम, राग-द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह आदि विभिन्न विषयों का विवेचन किया है। इसमें कुल ३४९ पद्य हैं। सभी पद्य उपदेशप्रद
संर्वेषु जोवेषु दया कुरु त्वं, सत्यं वचो हि धनं परेषाम् |
चाब्रह्मसेवा त्यज सर्वकालं, परिग्रहं मुंब कुयोनिबाज ।।
इसका दूसरा नाम पार्श्वनाथचरित भी है। इसमें २३ में तीर्थंकर भगवान् पाश्चनाथके जीवनका वर्णन है। कथाका आरम्भ वायुभूतिके जीवनसे हुआ है। वायुः अपनी साधना द्वारा पार्श्वनाथ बन निर्वाण प्राप्त करता है । मामस्त कथावस्तु २३ सोंमें विभक्त है।
यह रचना करणानुयोगसम्बन्धी है । इसमें सर्वलोक, मध्यलोक एवं अधो लोक इन तीनों लोकोंका एवं इन तीनों लोकोंमें निवास करनेवाले देव, मनुष्य, तिर्यंच और भारकियों का विस्तृत वर्णन किया है। "तिलोयपत्ति' और 'त्रिलोकसार के विषयको इस कृतिमें निबद्ध किया गया है । इसका रचनाकाल वि० सं० १४८१ और रचनास्थान बडालो नगर है। समस्त ग्रन्थ १६ अधिकारों
में विभक्त है।
इस ग्रन्थमें विभिन्न व्रत सम्बन्धी कथाएं निबद्ध की गयी है । व्रतपालन द्वारा जिन व्यक्तियोंने अपने जीवन में विभूतियाँ प्राप्त की हैं, जन व्यक्तियोंके
आख्यानोंका वर्णन इस कथाकोशमन्थमें किया गया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में आदिनाथ, चन्द्रप्रभ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वर्द्धमान इन छह तीर्थंकरोंके चरितांको निबद्ध किया गया है। तीर्थकरोंका जोवावृत्त अत्यन्त संक्षेपमें लिखा गया है।
यह ग्रन्थ सस्कृतमद्यमें लिखा गया है । इसमें आठ कर्म तथा उनके १४८ भेदों
का वर्णन है। प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध एवं अनुभामबन्धको अपेक्षासे कौके बन्धका वर्णन सुन्दर एवं बोधगम्य है। इसमें ५४७ पद्य हैं।
जीव-अजीब, आसव, बम्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तस्चोंका १२ अध्यापोंमें वर्णन किया गया है। प्रथम सात अध्यायों में जीव एवं उसकी विभिन्न अवस्थाओंका चित्रण है । अष्टम अध्यायसे द्वादश अध्याय तक अजीब, आनन, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्षका क्रमशः वर्णन है। इस ग्रन्थको आचार्यने आध्यात्मिक रचना कहा है।
यह लघु स्तोत्र है । इसमें १६ पद्म हैं । रचना भावपूर्ण है।
आचार्यद्वारा लिखित पूजासाहित्य भी कम लोकप्रिय नहीं रहा है। नाम अनुसार, पंचपरमेष्ठी, अष्टलका और सोलहकारण आदिको पूजाएँ अंकित हैं। द्वादशानुप्रेक्षामें अनित्य, अशरण, संसार, एकस्व, अन्यत्व आदि भावनाओंका चित्रण किया गया है। इस प्रकार आचार्य सकल की तिने सिद्धान्त, तत्वज्ञान, अध्यात्म, कर्मसिद्धान्त, आचार एवं चरितम्रन्थांकी रचना कर संस्कृतसाहित्यको समृद्ध किया है।
राजस्थानी भाषा में आचार्य सकल कीतिने गीत, रास और फाग विषयक रचनाओंका प्रणयन किया है । गीतों में लघुगीत और प्रबन्धगीत दोनों ही पाये जाते हैं। राजस्थानीके साथ गुजराती भाषाका प्रयोग भी जहां-तहाँ उपलब्ध होता है।
निःसन्देह आचार्य सकलकीति अपने युगके प्रतिनिधि लेखक हैं। इन्होंने अपनी पुराविषयक कृतियों में आचार्य परम्परा द्वारा प्रवाहित विचारोंको ही स्थान दिया है। चरित्रनिर्माण के साथ सिद्धान्त, भक्ति एवं कर्मविषयक रचनाएँ परम्पराके पोषण में विशेष सहायक हैं । सिद्धान्तसारदीपक, तत्त्वार्थसार, आगम सार, कर्मविपाक जैसी रचनाओंसे जैनधर्मके प्रमुख सिद्धान्तोंका उन्होंने प्रचार किया है। मुन्याचार और श्रावकाचारपर रचनाएं लिखकर उन्होंने मुनि और श्रावक दोनोंके जोवनको मर्यादित बनानेकी चेष्टा की है। इनकी हिन्दी में लिखित 'सारसौखामणिरास' और 'शान्तिनाथफाग' अच्छी रचनाएं हैं। इनमें विषयका प्रतिपादन बहुत ही स्पष्टरूपमें हुआ है।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक पद्मनंदी |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टारक सकलकीर्ती |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#BhattarakSakalkirtiPrachin
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री भट्टारक सकलकीर्ति (प्राचीन)
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 24-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 24-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
विपुल साहित्य निर्माणकी दृष्टि से आचार्य सकलकीतिका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने संस्कृत एवं प्राकृत वाङ्मयको संरक्षण ही नहीं दिया, अपितु उसका पर्याप्त प्रचार और प्रसार किया। हरिवंशपुराणको प्रशस्तिमें ब्रह्मजिनदासने इनको महाकवि कहा है--
तपट्टपङ्कजविकासभास्वान् बभूव निग्रन्थवरः प्रतापी।
महाकविलादिकलाप्रवीण: तपोनिधि: श्रीसकालादिकीतिः ॥
इससे स्पष्ट है कि इनकी प्रसिद्धि महाकवीश्वर के रूप में थी । आचार्य सकलकोतिने प्राप्त आचार्यपरम्पराका सर्वाधिकरूपमें पोषण किया है। तीर्थ यात्राएँ कर जनसामान्य में धर्मके प्रति जागरूकता उत्पन्न की और नवमंदिरोंका निर्माण कराकर प्रतिष्ठाएं करायौं । आचार्य सकल की तिने अपने जीवनकालमें
१४ बिम्बप्रतिष्ठाओंका संचालन किया था। गलियाकोटमें संघपति मूलराजने इन्हीं के उपदेशसे चतुर्विशति जिनबिम्बकी स्थापना की थी। नागदह जात्तिके थावक संघपति ठाकुरसिंहने भी कितनी ही विम्बप्रतिष्ठाओंमें योग दिया। आबूम इन्होंने एक प्रतिष्ठा महोत्सवका संचालन किया था, जिसमें तीन चौबीसीकी एक विशाल प्रतिमा परिकरसहित स्थापित की गयी थी।
निःसन्देह आचार्य सकलकोतिका असाधारण व्यक्तित्व था। तत्कालीन संस्कृत, अपभ्रश, राजस्थानी आदि भाषाओंपर अपूर्व अधिकार बा । भट्टारक सकलभूषणने अपने उपदेश रत्नमाला नामक नन्ध को प्रशस्तिमें सकल कीतिको अनेक पुराणग्रन्थों का रचयिता लिखा है । भट्टारक शुभचन्द्रने भी सकल कोशिका पुराण और काव्य अन्धोंका रचयिता बताया है । लिखा है
'तांच्याग्रेसरानेकशास्त्रपयोधिपारप्राप्तानाम्, एकाचलि-द्विकालि-कनका. बलि - रत्नाबलि-मुक्कावलि - सर्वतोभद्र-सिंहविक्रमादिमहातपावचनाशितकर्म पर्वतानाम, सिद्धान्तसार-तत्त्वसार-यत्याचाराधनेकराद्धान्तविधातृणाम्, मिथ्या स्वतमीबिनाशकमाण्डिानाम्, अभ्युदयपूर्वनिर्वाणसुखावश्यविधायि-जिनधर्माः म्बुधिविवर्द्धनपूर्णचन्द्राणाम्, यथोकचरित्राचरणसमर्थननिग्रंथाचार्यावर्याणाम श्रीश्रीश्रीसकलकोत्तिभट्टारकाणाम् ।'
१. शुभचन्द्राचार्यपट्टावलि, ७ अनुच्छेद ।
अर्थात-पचनन्दिके शिष्य, अनेक शास्त्रोक पारगामी, कालि, हिकार्याल, रत्नालि, मुक्तावलि, सर्वतोभट्ट, सिहविक्रम आदि महातपोंके अचारणद्वारा कमळगी पर्वतीको नष्ट करने वाले, सिद्धान्तसार, तत्त्वसार, यत्याचार आदि आगमग्रन्थोंके रचयिता, मिथ्यात्वरूपी अन्धकारको नए करनेके लिए सूर्यतुल्य, जिनधर्मस्वी समुद्रको वृद्धिंगत करने के लिए चन्द्रमातुल्य और यथोक्त चारित
का पालन करनेवाले निग्रन्धाचार्य सफल कोत्ति हुए।
अतः स्पष्ट है कि निग्रंथाचार्य सकलकत्ति एक बड़े सपस्त्री, ज्ञानी धर्म प्रचारक और ग्रन्थरचयिता थे । उस युगमें ये अद्वितीय प्रतिभाशाली एवं शास्त्रों के पारगामी थे।
आचार्य सकालकीतिका जन्म वि० सं० १४४३ (ई सन् १३८६) में हुआ था। इनके गिताका नाम कमसिंह और माताका नाम शोभा था । ये हूंबड़ जात्तिके थे और अहिपुर पट्टनके रहने वाले थे । गर्भ में आने के समय माताको स्वप्नदर्शन हुआ था। पति ने इस स्वप्नका फल योग्य, कर्मठ और यशस्वी पुत्रकी प्राप्ति होमा बतलाया था ।
बालकका नाम माता-पिताने पूर्णसिंह या पूनसिंह रखा था। एक पट्टा बली में इनका नाम पदार्थ भी पाया जाता है। इनका वर्ण राजहंसके समान शुभ्र और शरीर ३२ लक्षणोंसे युक्त था। पांच वर्ष की अवस्था में पूर्णसिंहका विद्यारम्भ संस्कार सम्पन्न किया गया। कुशाग्रबुद्धि होने के कारण अल्पसमयमें
ही शास्त्राभ्यास पूर्ण कर लिया। माता-पिताने १४ वर्षको अबस्था में ही पूर्णसिंह का विवाह कर दिया । विवाहित हो जानेपर भी इनका मन सांसारिक कार्योंके बन्धन में बंध न सका । पुषकी इस स्थितिसे माता-पिताको चिन्ता उत्पन्न हुई और उन्होंने गमझाया-"अपार सम्पत्ति है, इसका उपभोग युवावस्था में अवश्य करना चाहिये । रायम प्राप्तिके लिए तो अभो बहुत समय है। यह तो जीवनके चौथे पनम धारण किया जाता है । पिता-पुत्र के बीच में जो वार्तालाप हुआ उसे भट्टारक भुवनको तिने निम्नलिखित रूपमें व्यक्त किया है
१. घोडद प्रितालि प्रमागि पूरइ दिन पुत्र जनमीच ।
२. न्यानि माहि मुहृतवंत हूंबड हरपि यखागिए ।
करमसिंह वित्तपन्न उदयनंत इम जाणीइए ।।
शोभित तरस अरबांगि, मूलि सरीस्य सुदरीय ।
सील स्यमारित अनि पेखु प्रत्यक्षे पुरंदरीम ।।
-सकलकोतिरास, जन सन्देश, शोषाक १६ में उद्धत ।
देखवि चञ्चल चित्त माता पिता कहि वछ सुणि ।
अहम मंदिर बहू वित्त आविसिंह कारणि कवइ ।।
लहुआ लीलावंत सुख भोगवि संसार तणाए।
पछइ दिवस बहुत, अछिह संयम तप तणाए ।
वयणि तं जि सुणेवि पुत्र पिता प्रति हम कहिए ।
निजमन सुविस करेवि धीर जे तरणि तप गहिए ।।
ज्योधन गिइ भमार पछइ पालइ शीयल घण।
ते कुहु कवण विचार विण अवसर जे वरसीयिए ।
कहा जाता है कि माता-पिताके आग्रहसे ये चार वर्षों तक घर में रहे और १८वें में प्रवेश करते ही वि० सं०१४६३ (ई० सन् १४०६) में समस्त सम्पत्तिका त्याग कर भट्टारक पचनन्दिके पास नेणवांमें चले गये। भट्टारक घशाकीति शास्त्रभण्डारको पट्टावलीके अनुसार ये २६ वर्ष में नेणवां गये थे। ३४३ वर्षमें आचार्य पदवी धारण कर अपने प्रदेशमें वापस आये और धर्मप्रचार करने लगे। इस समय ये नग्नावस्थामें थे ।
आचार्य सकलकीतिने बागड़ और गुजरातमें पर्याप्त भ्रमण किया था और धर्मोपदेश देकर श्रावकोंमें धर्मभावना जागृत की थी। उन दिनोंमे उक्त प्रदेशों में दिगम्बर जैन मन्दिरोंकी संख्या भी बहुत कम थी तथा साधुके न पहुँचनेके कारण अनुयायियों में धार्मिक शिथिलता आ गयी थी । अतएव इन्होंने गांव गांवमें विहार कर लोगोंके हृदयमें स्वाध्याय और भगवद्भक्तिकी रुचि उत्पन्न की।
बलात्कारगण इडर शाखाका आरम्भ भट्रारक सकलकोतिसे ही होता है। ये बहुत ही मेधावो, प्रभावक, ज्ञानी और चरित्रवान थे। बागड़ देशमें जहाँ कहीं पहलं कोई भी प्रभाव नहीं था, वि० सं० १४९२ में गलियाकोटमें भट्टा रफ गद्दीको स्थापना को तथा अपने आपको सरस्वतीगच्छ एवं बलात्कारगणसे सम्बोधित किया । ये उत्कृष्ट तपस्वी और रत्नावली, सर्वतोभद्र, मुक्तावली आदि व्रतोंका पालन करने में सजग थे।
भट्टारक सकलकीति द्वारा वि० सं० १४९० (ई. सन् १४३३) वैशाख शुक्ला नवमी शनिवारको एक "चौबीसी मति; विक्रम संवत् १४९२ (ई० सन् १४३५) वैशाख कृष्ण दशमीको पारवनाथमति; सं० १४९४ (१० सन् १४३७) १. भट्टारकसम्प्रदाय, सोलापुर, लेखांक ३३१ । २. वही, लेखांक ३३१ ।
वैशाख शुक्ला अयोदशीको आबू पर्वतपर एक मन्दिरकी प्रतिष्ठा करायी गयी। जिसमें तीम चौबीसीकी प्रतिमाएँ परिकरसहित स्थापित की गयी थीं। वि० सं० ४.४९९७ (ई० सन् १४४० ) में एक आदिनाथस्वामीकी मति तथा वि० सं०१४९९ (ई. सन् १४४२)में सागवाड़ा में आदिनाथ मन्दिरकी प्रतिष्ठा की थी। इसी स्थान में आपने भट्टारक धर्मकीतिका पट्टाभिषेक भी किया था। __ भट्टारक सकलकीतिने अपनी किसी भी रचनामें समयका निर्देश नहीं किया है, तो भी मूर्तिलख आदि साधनोंके आधारपरसे उनका निधन वि० सं० १४२९. पौष मारामें महसाना (गजरात) में होना सिद्ध होता है । इस प्रकार उनकी आयु ५६ वर्ष की आती है।"
भट्टारकसम्प्रदाय ग्रन्थ में विद्याधर जोहरापुरकरने इनका समय वि० सं० १४५०-१५१० तक निर्धारित किया है । पर वस्तुतः इनका स्थितिकाल वि० सं० १४४३-१४९९ तक आता है।
आचार्य सकलकीति संस्कृतभाषाके प्रौद्ध पंडित थे। इनके द्वारा लिखित निम्नलिखित रचनाओंकी जानकारी प्राप्त होतो है
१. शान्तिनाथचरित
२. वर्द्धमानचरित
३. मल्लिनाथचरित
४. यशोधरचरित
५. धन्यकुमारचरित
६. सुकमालचरित
७. सुदर्शनचरित
८. जम्बूस्वामीचरित
९. श्रीपालचरित
१. भ० सं० लेखांक ३३३ ।
२. वहीं, लेखांक ३३४ ।।
३. वही, लेखांक ३३० ।
४ प्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग, दिल्ली, प्रस्तावना १० ११ तथा डॉ. कासलीवाल
द्वारा लिखित तीन ऐतिहासिक पट्टालियाँ ।
५. भट्टारकसम्प्रदाय, सोलापुर पृ. १५८, बलात्कारगण, इष्टरशाखा कालपट ।
१० मलाचारप्रदोष
११. प्रश्नोत्तरोपासकाचार
१२. आदिपुराण---वृषभनाथचरित
१३. उत्तरपुराण
१४. मदभाषितावली-मुक्ति मुगावली
१५. पारनाथपुगण
१६. सिद्धान्तसारदीपक
१७. ब्रतकथाकोष
१८. पुरमा रह
१९. कर्मविपाक
२०. स्वार्थसारदीपक
२१. परमात्मराजस्तोत्र
२२. आगममार
२३. सारचतुर्विशतिका
२४. पञ्चपरमेष्ठीपूजा
२५. अष्टालिकापूजा
२६. सोलहकारभापूजा
२७. द्वादशानुप्रेक्षा
२८. गणधरवलयपूजा
२९. समाधिमरणोत्साहदीपक
१. आराधनाप्रतिवोधसार
२. नेमीश्वर-गीत
३. मुक्तावली-गीत
४. णमोकार-गील
५. पाश्वनाथाष्टक
६. सोलहकारण रासो
७. शिखामणिरास
८. रत्नत्रयरास
इम चरितकाच्यमें १६ अधिकार हैं और ३४७५ पद्य हैं। इसमें १६वें
तीर्थंकर शान्तिनाथका जीवनवृत्त अंकित है। काव्यचमत्कार पत्र-तत्र पाया जाता है। महाकाव्यत्वके स्थानपर पौराणिकताका ही समावेश हुआ है ।
इस चरितकाव्यमें अन्तिम तीर्थंकर बर्द्धमानके पावन जीन का वर्णन किया गया है। कथावस्तु १९ सर्ग या अधिकारों में विभक्त है। प्रथम छह मों में महाबीर के पूर्व भवोंका और शेष १३ सगों में गर्भकल्याणकसे लेकर निर्वाणकल्याणक तक विभिन्न लोकोत्तर घटनाओंका विस्तृत वर्णन मिलता
है। भाषा सरल और काव्यमय है।
इस चरितकाव्यमें ७ सर्म या परिच्छेद हैं और ८७४ श्लोक हैं। इसमें तीर्थकर मल्लिनाथका चरित पणित है। ग्रन्थकताने आरम्भमें मल्लिनाथ स्वामीको ही नमस्कार किया है.-.
नमः श्रीमल्लिनाथाय कर्ममल्लविनाशिने ।
अनन्तमहिमाप्ताय त्रिजगत्स्वामिने निशं ।।
शेषान् सर्वान् जिनान्वन्दे धर्मचक्रप्रवर्तकान् ।
विश्वभव्य हितोक्तान पंचकल्याणनायकान् ।।
प्रथम सर्ग, पद्य १, २
कवि वस्तुवर्णनमें भी कुशल है। अनुष्टुप् जैसे छोटे छन्दमें ग्राम, नगर, परिखा, ऋतु, सरित, वसन्त आदिका धमत्कारपूर्ण वर्णन करता है। बीतशोका नगरी, विस्तीर्ण स्वाइयों, ऊँचे परकोटों और तोरणों आदिके वर्णनमें उत्प्रेक्षाका प्रयोग चमत्काररूपमें किया गया है।
दीर्घखातिकया तुङ्गशालगोपुरतोरणेः ।
मनोशैयंदभाज्जबूद्वीपवेब्धिबत्तराम् ।।
पुण्यवद्धामकूटाम्रध्वजस्तैमरुदर्श: ।।
नाकिनामाह्वयंतीव मुक्तये बद्भुवस्तराम् ।।
-प्रथम सर्ग पच १९ ,२०
इस काव्यमें दान, अहिंसा, रत्नत्रय, भक्ति, पूजा आदिका भी वर्णन आया है । काव्यतत्वके साथ दर्शनसत्वको अवगत करने के लिए यह रचना महत्त्वपूर्ण है ।
यशोधरको कथा अत्यन्त लोकप्रिय रही है । इस कथाको आधार मानकर अनेक जैन कवियोंने विभिन्न भाषाओं में काव्योंकी रचना की है । सकट कीतिकी
यह रचना सस्कृत भाषाम है। इस माह स हैं। इन महिसाका महत्व प्रतिपादित किया गया है।
इस चरितकाव्यमें धन्यकुमारको कथा वर्णित है। इसमें सात सर्ग या अधिकार हैं। कविने घटनाओंको काव्यशैलीमें प्रस्तुत किया है और धन्य कुमारके जोवनकी कौतुहलपूर्ण घटनाओंको काव्यात्मक रूप में उपस्थित किया है।
इस काव्य में सुकुमालके जीवनका पूर्वभवसहित वर्णन किया गया है । सम्पूर्ण कथा-वस्तु २, सोंमें विभक्त है। पूर्वभवमें किया गया बैरभाव जन्म जन्मान्तरमें कितना कष्टकारी होता है, इसका चित्रण इस काव्य में सुन्दररूपमें किया है । सुकुमाल वैभवपूर्ण जीवनयापन करता है, पर मुनि अवस्थामें
अत्यन्त घोर तपश्चरण कर आत्मशुद्धि लाभ करता है।
इस चन्तिकाव्यमें सेठ सुदर्शनका जीवनवृत्त वणित है और कथावस्तु ८ परिच्छेदों में विभक्त है। शील दतके पालनमें सुदर्शनको दृढ़ताका चित्रण बड़े ही सुन्दर रूपमें हुआ है । कविने अन्तईन्द्रोंका विकास बड़े ही सुन्दर रूपमें किया है। कपिलाके यहां सुदर्शक पहुँचनेपर एवं कपिला द्वारा कमोत्तेज माओंके उत्पन्न होनेपर भी सुदर्शनकी दृढ़ता किसके हृदयको स्पर्श नहीं करती। अभया रानी सुदर्शनको विचलित करने का प्रयास करती है, पर वह सुमेरुकी चट्टानके समान दृढ़ रहता है । सुदर्शनके चरित्रको यह दृढ़ता और शीलकी अटलता काव्यका उदात्तीकरण है। कविने मुनि अवस्थामें पाटली पुनमें देवदत्ता गणिका द्वारा जो उपसर्ग दिखलाये हैं या जिन कामचेष्टाओंका वर्णन किया है, वे पुनरुक्त जैसी प्रतीत होती हैं । झोलके चित्रणमें आठों कारकोंका नियोजन किया गया है--
शीलं मुक्तिवप्रियं भवहरं शीलं सशीला: श्रिताः
शालेनात्र समाप्यतं शिवपदं शोलाय तस्मै नमः ।
शोलान्नास्त्यपरः सुधमंजनकः शीलस्य सर्व गुणाः
शोले चित्तमनारतं विदधतं मां शील मुक्ति नय ।।३।१३०
संक्षेपमें यही कहा जा सकता है कि यह चरित काव्य काव्य मुणोंसे युक्त उदात्त
शैली में लिखा गया है। अष्टम सगमें सुदर्शनकी आराधना रूपक अलंकारमें चित्रण किया है । भाषा सरल और कथा रससे परिपूर्ण है। सूक्तियों और धर्मोपदेश पर्याप्त मात्रामें हैं।
इसमें कोटीभट्ट श्रीपालके जीबनको प्रमुख विशेषताओंका वर्णन आया है। समस्त कथावस्तु ७ सर्ग या परिच्छेदोंमें विभक्त है। श्रीपालका राजासे कुष्ठी होना, समुद्र में गिरना, शूलीपर चढ़ना आदि कितनी ही ऐमो घटना हैं, जो पाठकों के मनमें कौतुहल जागृत करती हैं। कविने नाटकीय ढंगसे घट नाओंका नियोजन किया है। इस चरितकाव्यको रचना कर्मफल के सिद्धान्त को प्रतिष्ठित करने के लिए की गयी है। विश्वके समस्त प्राणी हर्मकृतफलको प्राप्त करते हैं। निकाचितकर्म फल दिये बिना नहीं रहते हैं। काव्यको भाषा सरल और परिमार्जित है।
यह आचारसम्बन्धी ग्रन्थ है। इसमें मुनिक जावतका समस्त क्रियाओं, विधिओं और साधनाओंका निरूपण किया गया है। इस ग्रन्थमें १२ अधिकार हैं, जिनमें २८ मल गुण, पंचाचार, दशलक्षणधर्म, द्वादशानुक्षा एवं द्वादश सपों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
इस ग्रन्थमें थावकोंके आचारधर्मका वर्णन है । इसमें २४ परिच्छेद हैं । मूल गुण, द्वादशवत, अणुव्रत, गुणव्रत शिक्षाबत आदिका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थकी विशेषता यह है कि भारक सकलकातिने श्रद्धालु नकोंके
आचाविषयक प्रश्नोंका समाधान करने के लिए इस अन्धकी रचना की है।
इस पुराणमें भगवान आदिनाथ, भरत, बाहुबलि, सुलोचना, जयकुमार आदिके जीवनवृत्तका वर्णन किया गया है। यह २० सोम विभक्त है और इसमें ४६२६ पञ्च हैं। इस कृतिका दूसरा नाम पारित भी है। प्रधानतः इसमें आदि तार्थकर ऋषभदेवका जोबन वणित है ।
प्रथम तीर्थकरको छोड़ शेष २३ तीर्थंकरोंका जीवनवृत्त इस पुराणमें चणित है। माथ ही इसमें चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण, प्रतिनारायण आदि शलाका पुरुषोंके जोबन भी अंकित हैं। इसमें १५ अधिकार है।
इस मुभाषित ग्रन्थमें धर्म, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, इन्द्रियजय, स्त्रीसहवास, कामसेवन, निर्ग्रन्थसेवा, तप, त्याम, राग-द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह आदि विभिन्न विषयों का विवेचन किया है। इसमें कुल ३४९ पद्य हैं। सभी पद्य उपदेशप्रद
संर्वेषु जोवेषु दया कुरु त्वं, सत्यं वचो हि धनं परेषाम् |
चाब्रह्मसेवा त्यज सर्वकालं, परिग्रहं मुंब कुयोनिबाज ।।
इसका दूसरा नाम पार्श्वनाथचरित भी है। इसमें २३ में तीर्थंकर भगवान् पाश्चनाथके जीवनका वर्णन है। कथाका आरम्भ वायुभूतिके जीवनसे हुआ है। वायुः अपनी साधना द्वारा पार्श्वनाथ बन निर्वाण प्राप्त करता है । मामस्त कथावस्तु २३ सोंमें विभक्त है।
यह रचना करणानुयोगसम्बन्धी है । इसमें सर्वलोक, मध्यलोक एवं अधो लोक इन तीनों लोकोंका एवं इन तीनों लोकोंमें निवास करनेवाले देव, मनुष्य, तिर्यंच और भारकियों का विस्तृत वर्णन किया है। "तिलोयपत्ति' और 'त्रिलोकसार के विषयको इस कृतिमें निबद्ध किया गया है । इसका रचनाकाल वि० सं० १४८१ और रचनास्थान बडालो नगर है। समस्त ग्रन्थ १६ अधिकारों
में विभक्त है।
इस ग्रन्थमें विभिन्न व्रत सम्बन्धी कथाएं निबद्ध की गयी है । व्रतपालन द्वारा जिन व्यक्तियोंने अपने जीवन में विभूतियाँ प्राप्त की हैं, जन व्यक्तियोंके
आख्यानोंका वर्णन इस कथाकोशमन्थमें किया गया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में आदिनाथ, चन्द्रप्रभ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वर्द्धमान इन छह तीर्थंकरोंके चरितांको निबद्ध किया गया है। तीर्थकरोंका जोवावृत्त अत्यन्त संक्षेपमें लिखा गया है।
यह ग्रन्थ सस्कृतमद्यमें लिखा गया है । इसमें आठ कर्म तथा उनके १४८ भेदों
का वर्णन है। प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध एवं अनुभामबन्धको अपेक्षासे कौके बन्धका वर्णन सुन्दर एवं बोधगम्य है। इसमें ५४७ पद्य हैं।
जीव-अजीब, आसव, बम्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तस्चोंका १२ अध्यापोंमें वर्णन किया गया है। प्रथम सात अध्यायों में जीव एवं उसकी विभिन्न अवस्थाओंका चित्रण है । अष्टम अध्यायसे द्वादश अध्याय तक अजीब, आनन, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्षका क्रमशः वर्णन है। इस ग्रन्थको आचार्यने आध्यात्मिक रचना कहा है।
यह लघु स्तोत्र है । इसमें १६ पद्म हैं । रचना भावपूर्ण है।
आचार्यद्वारा लिखित पूजासाहित्य भी कम लोकप्रिय नहीं रहा है। नाम अनुसार, पंचपरमेष्ठी, अष्टलका और सोलहकारण आदिको पूजाएँ अंकित हैं। द्वादशानुप्रेक्षामें अनित्य, अशरण, संसार, एकस्व, अन्यत्व आदि भावनाओंका चित्रण किया गया है। इस प्रकार आचार्य सकल की तिने सिद्धान्त, तत्वज्ञान, अध्यात्म, कर्मसिद्धान्त, आचार एवं चरितम्रन्थांकी रचना कर संस्कृतसाहित्यको समृद्ध किया है।
राजस्थानी भाषा में आचार्य सकल कीतिने गीत, रास और फाग विषयक रचनाओंका प्रणयन किया है । गीतों में लघुगीत और प्रबन्धगीत दोनों ही पाये जाते हैं। राजस्थानीके साथ गुजराती भाषाका प्रयोग भी जहां-तहाँ उपलब्ध होता है।
निःसन्देह आचार्य सकलकीति अपने युगके प्रतिनिधि लेखक हैं। इन्होंने अपनी पुराविषयक कृतियों में आचार्य परम्परा द्वारा प्रवाहित विचारोंको ही स्थान दिया है। चरित्रनिर्माण के साथ सिद्धान्त, भक्ति एवं कर्मविषयक रचनाएँ परम्पराके पोषण में विशेष सहायक हैं । सिद्धान्तसारदीपक, तत्त्वार्थसार, आगम सार, कर्मविपाक जैसी रचनाओंसे जैनधर्मके प्रमुख सिद्धान्तोंका उन्होंने प्रचार किया है। मुन्याचार और श्रावकाचारपर रचनाएं लिखकर उन्होंने मुनि और श्रावक दोनोंके जोवनको मर्यादित बनानेकी चेष्टा की है। इनकी हिन्दी में लिखित 'सारसौखामणिरास' और 'शान्तिनाथफाग' अच्छी रचनाएं हैं। इनमें विषयका प्रतिपादन बहुत ही स्पष्टरूपमें हुआ है।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक पद्मनंदी |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टारक सकलकीर्ती |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Bhattarak Sakalkirti ( Prachin )
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 24-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
#BhattarakSakalkirtiPrachin
15000
#BhattarakSakalkirtiPrachin
BhattarakSakalkirtiPrachin
You cannot copy content of this page