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#BruhadPrabhachandraPrachin
ईस्वी सन् १९४४ में आचार्य श्री जुगलकिशोर मुख्तारने वोरसेवामन्दिरसे बहदप्रभाचन्द्र के तत्त्वार्थसूत्रका प्रकाशन किया है। यह प्रभाचन्द्र कौन हैं, कब हए? इसके संबंधमें निश्चित्त जानकारी नहीं है ।श्री मुख्तार साहबने अपनी प्रस्तावनामें चार प्रभाचन्द्रोंका उल्लेख किया है। प्रथम प्रभाचन्द्र तो वे हैं, जिन्होंने प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र जैसे न्यायग्रन्थोंकी रचना की है । इनसे पूर्ववर्ती एक अन्य प्रभाचन्द्र भी हुए हैं, जो परलुर निवासी विनय नन्दि माचार्यके शिष्य थे और जिन्हें चालुक्य राजा कौतिवर्मा प्रथमने एक दान दिया था। ये आचार्य वि. की ६वीं और ७वीं शताब्दीके विद्वान हैं । अतः उक्त कोतिवर्माका अस्तित्व शक संवत् ४८५ है। तीसरे प्रमाचन्द्र वे हैं, जिनका देवनन्दि आचार्यने जैनेन्द्र व्याकरणके 'रात्रेः कृतिप्रभाचन्द्रस्य द्वारा उल्लेख किया है। इन प्रभाचन्द्रका समय भी वि०की छठी शताब्दीसे पूर्व होना चाहिये ।
१. साउथ इण्डिया जयनिग्मा, भाग २, पृ. ८८ ।
चतुर्थ प्रभाचन्द्र के हैं, जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोलाके प्रथम शिलालेखमें पाया जाता है और जिनके सम्बन्धमें यह कहा जाता है कि वे भद्रबाहु श्रुत केवलीके दीक्षित शिष्य सम्राट चन्द्रगुप्त थे। इनका समय वि० सं०से भी ३०० वर्ष पूर्व है।
प्रभाचन्द्रके तत्त्वार्थसूत्रका अध्ययन करनेसे कुछ ऐसे तथ्य उपस्थित होते हैं, जिनके आधारपर उनके समयका अनुमान किया जा सकता है । प्रभाचन्दने ५वें अध्यापन अध्यका सक्षप बराला रिसर है--
सत्त्वं द्रव्यलक्षणम् ॥६॥
उत्पादादियुक्तं सत् ।।७।।
सहकमभाविगुणपर्ययवद्रव्यम् ॥८॥
द्रव्यके इन लक्षणोंपर विचार करनेसे ज्ञात होता है कि प्रभाचन्द्रने जहाँ मुद्धपिच्छाचार्यके सूत्रोंका संक्षेपीकरण किया है, बहा अष्टमसूत्र में वृद्धि की है। गुणोंको सहभावी और पर्यायोंको क्रमभावी बतलाया गया है । इस लक्षणपर स्पष्टतः अकलंकदेवका प्रभाव मालूम पड़ता है। अकलंकदेवने अपने न्याय विनिश्चयमें बतलाया है
'गुणपर्ययषद्व्यं ते सहक्रमवृत्तयः'
अर्थात गुण सहभावी और पर्याय क्रमभावी बतलायी गयी हैं । अतःप्रभाषन्द्रने अपना तत्वार्थसूत्र गद्धपिच्छाचार्यके अनुसरणपर लिखा और सूत्रों में जहां-तहां परिवर्द्धन और परिवतंन पूज्यपाद, अकलंकदेव आदिके आधारपर किया है। अतएव इन प्रभाचन्द्रका समय अकलंकदेवके पश्चात् होना चाहिये। प्रभाचन्द्रके नाममें प्रयुक्त 'बृहद' विशेषण अन्य प्रभाचन्द्रोंसे उन्हें पृथक् करता है । तत्त्वार्थ सूत्रके प्रत्येक अध्यायकी पुष्पिकामें बृहद् विशेषण प्राप्त होता है । यथा
इति श्रीवृहत्प्रभाचन्द्र-विरचिते तत्त्वार्थसूत्र प्रथमोऽध्यायः ॥१॥ प्रभाचन्द्रके नामसे महंप्रवचन नामका एक ग्रन्थ भी मिलता है। इस अर्हत्प्रवचनके अध्ययनसे ज्ञात होता है कि अत्प्रिवचनके रचयिता प्रभाचन्द्रने बृहप्रभाचन्द्रके तत्त्वार्थसूत्रका अवलोकन किया है। अकलंकदेवने अपने 'तत्त्वार्थवातिक' ५।३८ में 'उचलच महत्प्रवचने' लिखकर एक महत्ववचनका निर्देश किया है, जिससे यह अनुमान किया जा सकता है कि अपने इस अह प्रवचन नामक सूत्रग्रन्थको उसके कर्ताने प्राचीन मर्हप्रवचनके अनुसरणपर
लिखा है। इसी कारण उन्होंने-"अथातोऽहत्प्रवचनं सुत्र' व्याख्यास्यामः" लिखा है। इस कथनसे स्पष्ट है कि इन्होंने महत्प्रवनसूत्रका व्याख्यान किया है। अर्थात् प्राचीन अन्यमें जिन मुख्य तत्त्वोंका प्रतिपादन किया गया था, उन्हींका निरूपण है। ___'तत्त्वार्थसूत्र' और 'अर्हत्प्रवचन' इन दोनोंके अध्ययनसे यह अवगत होता है कि बृहृत्प्रभाचन्द्र के तस्दार्थसूत्र का अवलोकन 'अहस्प्रवचन'के रचयिता प्रभाषन्द्रने किया है। अहंप्रबचनमें ५ अध्याय हैं और ८४ सूत्र हैं। इसमें प्रतिपाद्य वस्तुओंकी संख्या बतलायी गयी है । जीवोंके छह निकाय हैं, पांच महाव्रत हैं, पांच अणुनत हैं, तीन गुणग्रत हैं, चार शिक्षानत हैं, सीन गतियाँ हैं और पांच समितियाँ हैं । इस प्रकार विषयका वर्णन न कर संख्या ही निर्देश किया है।
प्रस्तुत बृहत्प्रभाचन्द्र के नामसे जो तत्त्वार्थसून नामक अन्य उपलब्ध होता है उसमें १० अध्याय हैं और १०७ सूत्र हैं। सूत्रोंकी संख्याका क्रम निम्न प्रकार है
१५+ १२+१८+६+६+ १४ + ११+ ८ -+-+५=१०७
इसमें गुपिन्छाचार्य द्वारा रचित तत्त्वार्थसूत्रके सूत्रोंका संक्षिप्तीकरण ही पाया जाता है । यथा
प्रमाणे वे ॥६॥
नया: सप्त॥७॥
अखण्ड केवलम् ॥१४॥
स्पष्ट है कि तस्वार्थसूत्रके सूत्रोंका यह संक्षिप्तीकरण है । तृतीय अध्यायके अन्तमें ६३ शलाकापुरुष, ११ भद्र, ९ नारद, २४ कामदेव बतलाये गये हैं। यह कथन गृपिच्छाचार्यकी अपेक्षा अधिक है। इसी प्रकार सप्तम अध्यायमें श्रावकोंके ८ मूलगुण और मुनियोंके २८ मूलगुण बतलाये गये हैं।
कतिपय सूत्रों में तस्वायसूत्रकी अपेक्षा अधिक स्पष्टीकरण पाया जाता है। तत्त्वार्थसूत्रमें दानकी परिभाषा अनुग्रहार्य स्वस्यातिसर्गो दान के रूपमें की है, पर बृहत्प्रभाचन्द्रने
स्वपरहिताय स्वस्यातिसर्जनं दानम् ॥११॥
१. माणिकचात दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला द्वारा सिद्धान्तसाराविसंग्रहके अन्तर्गत, पृ.
११४-११ प्रकाशित ।
२. बसमाचन्द्रका तस्वार्थ सूत्र ७५११ ।
अर्थात् अपने और परके हित के लिए अपनी वस्तुका त्याग करना दान है। यहाँ 'स्वपरहिताय' पद गृपिच्छाचार्यके 'अनुग्रहार्थम् पदसे अधिक स्पष्ट है। इसी प्रकार षष्ठ अध्यायके चतुर्थ सूत्र में ज्ञानावरण और दर्शनावरणके हेतुओंका कथन भी इन ग्रंथमें अधिक स्पष्ट है । गृद्धपिच्छने 'तत्प्रदोषनिन्हव' आदि सूत्र लिखा है, पर प्रभाचन्द्रने 'गुरुनिम्हवादयो' पद प्रयुक्त किया है, जिससे उक्त सूत्रकी अपेक्षा अधिक स्पष्टीकरण आ गया है। अतएव प्रभाचन्द्रका यह तत्त्वार्थसूत्र गृपिच्छाचार्यके अनुकरणपर लिखा होनेपर भी कई बातें विशेष है ।
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री बृहदप्रभाचंद्र |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#BruhadPrabhachandraPrachin
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री बृहद प्रभाचन्द्र (प्राचीन)
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 19-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 19-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
ईस्वी सन् १९४४ में आचार्य श्री जुगलकिशोर मुख्तारने वोरसेवामन्दिरसे बहदप्रभाचन्द्र के तत्त्वार्थसूत्रका प्रकाशन किया है। यह प्रभाचन्द्र कौन हैं, कब हए? इसके संबंधमें निश्चित्त जानकारी नहीं है ।श्री मुख्तार साहबने अपनी प्रस्तावनामें चार प्रभाचन्द्रोंका उल्लेख किया है। प्रथम प्रभाचन्द्र तो वे हैं, जिन्होंने प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र जैसे न्यायग्रन्थोंकी रचना की है । इनसे पूर्ववर्ती एक अन्य प्रभाचन्द्र भी हुए हैं, जो परलुर निवासी विनय नन्दि माचार्यके शिष्य थे और जिन्हें चालुक्य राजा कौतिवर्मा प्रथमने एक दान दिया था। ये आचार्य वि. की ६वीं और ७वीं शताब्दीके विद्वान हैं । अतः उक्त कोतिवर्माका अस्तित्व शक संवत् ४८५ है। तीसरे प्रमाचन्द्र वे हैं, जिनका देवनन्दि आचार्यने जैनेन्द्र व्याकरणके 'रात्रेः कृतिप्रभाचन्द्रस्य द्वारा उल्लेख किया है। इन प्रभाचन्द्रका समय भी वि०की छठी शताब्दीसे पूर्व होना चाहिये ।
१. साउथ इण्डिया जयनिग्मा, भाग २, पृ. ८८ ।
चतुर्थ प्रभाचन्द्र के हैं, जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोलाके प्रथम शिलालेखमें पाया जाता है और जिनके सम्बन्धमें यह कहा जाता है कि वे भद्रबाहु श्रुत केवलीके दीक्षित शिष्य सम्राट चन्द्रगुप्त थे। इनका समय वि० सं०से भी ३०० वर्ष पूर्व है।
प्रभाचन्द्रके तत्त्वार्थसूत्रका अध्ययन करनेसे कुछ ऐसे तथ्य उपस्थित होते हैं, जिनके आधारपर उनके समयका अनुमान किया जा सकता है । प्रभाचन्दने ५वें अध्यापन अध्यका सक्षप बराला रिसर है--
सत्त्वं द्रव्यलक्षणम् ॥६॥
उत्पादादियुक्तं सत् ।।७।।
सहकमभाविगुणपर्ययवद्रव्यम् ॥८॥
द्रव्यके इन लक्षणोंपर विचार करनेसे ज्ञात होता है कि प्रभाचन्द्रने जहाँ मुद्धपिच्छाचार्यके सूत्रोंका संक्षेपीकरण किया है, बहा अष्टमसूत्र में वृद्धि की है। गुणोंको सहभावी और पर्यायोंको क्रमभावी बतलाया गया है । इस लक्षणपर स्पष्टतः अकलंकदेवका प्रभाव मालूम पड़ता है। अकलंकदेवने अपने न्याय विनिश्चयमें बतलाया है
'गुणपर्ययषद्व्यं ते सहक्रमवृत्तयः'
अर्थात गुण सहभावी और पर्याय क्रमभावी बतलायी गयी हैं । अतःप्रभाषन्द्रने अपना तत्वार्थसूत्र गद्धपिच्छाचार्यके अनुसरणपर लिखा और सूत्रों में जहां-तहां परिवर्द्धन और परिवतंन पूज्यपाद, अकलंकदेव आदिके आधारपर किया है। अतएव इन प्रभाचन्द्रका समय अकलंकदेवके पश्चात् होना चाहिये। प्रभाचन्द्रके नाममें प्रयुक्त 'बृहद' विशेषण अन्य प्रभाचन्द्रोंसे उन्हें पृथक् करता है । तत्त्वार्थ सूत्रके प्रत्येक अध्यायकी पुष्पिकामें बृहद् विशेषण प्राप्त होता है । यथा
इति श्रीवृहत्प्रभाचन्द्र-विरचिते तत्त्वार्थसूत्र प्रथमोऽध्यायः ॥१॥ प्रभाचन्द्रके नामसे महंप्रवचन नामका एक ग्रन्थ भी मिलता है। इस अर्हत्प्रवचनके अध्ययनसे ज्ञात होता है कि अत्प्रिवचनके रचयिता प्रभाचन्द्रने बृहप्रभाचन्द्रके तत्त्वार्थसूत्रका अवलोकन किया है। अकलंकदेवने अपने 'तत्त्वार्थवातिक' ५।३८ में 'उचलच महत्प्रवचने' लिखकर एक महत्ववचनका निर्देश किया है, जिससे यह अनुमान किया जा सकता है कि अपने इस अह प्रवचन नामक सूत्रग्रन्थको उसके कर्ताने प्राचीन मर्हप्रवचनके अनुसरणपर
लिखा है। इसी कारण उन्होंने-"अथातोऽहत्प्रवचनं सुत्र' व्याख्यास्यामः" लिखा है। इस कथनसे स्पष्ट है कि इन्होंने महत्प्रवनसूत्रका व्याख्यान किया है। अर्थात् प्राचीन अन्यमें जिन मुख्य तत्त्वोंका प्रतिपादन किया गया था, उन्हींका निरूपण है। ___'तत्त्वार्थसूत्र' और 'अर्हत्प्रवचन' इन दोनोंके अध्ययनसे यह अवगत होता है कि बृहृत्प्रभाचन्द्र के तस्दार्थसूत्र का अवलोकन 'अहस्प्रवचन'के रचयिता प्रभाषन्द्रने किया है। अहंप्रबचनमें ५ अध्याय हैं और ८४ सूत्र हैं। इसमें प्रतिपाद्य वस्तुओंकी संख्या बतलायी गयी है । जीवोंके छह निकाय हैं, पांच महाव्रत हैं, पांच अणुनत हैं, तीन गुणग्रत हैं, चार शिक्षानत हैं, सीन गतियाँ हैं और पांच समितियाँ हैं । इस प्रकार विषयका वर्णन न कर संख्या ही निर्देश किया है।
प्रस्तुत बृहत्प्रभाचन्द्र के नामसे जो तत्त्वार्थसून नामक अन्य उपलब्ध होता है उसमें १० अध्याय हैं और १०७ सूत्र हैं। सूत्रोंकी संख्याका क्रम निम्न प्रकार है
१५+ १२+१८+६+६+ १४ + ११+ ८ -+-+५=१०७
इसमें गुपिन्छाचार्य द्वारा रचित तत्त्वार्थसूत्रके सूत्रोंका संक्षिप्तीकरण ही पाया जाता है । यथा
प्रमाणे वे ॥६॥
नया: सप्त॥७॥
अखण्ड केवलम् ॥१४॥
स्पष्ट है कि तस्वार्थसूत्रके सूत्रोंका यह संक्षिप्तीकरण है । तृतीय अध्यायके अन्तमें ६३ शलाकापुरुष, ११ भद्र, ९ नारद, २४ कामदेव बतलाये गये हैं। यह कथन गृपिच्छाचार्यकी अपेक्षा अधिक है। इसी प्रकार सप्तम अध्यायमें श्रावकोंके ८ मूलगुण और मुनियोंके २८ मूलगुण बतलाये गये हैं।
कतिपय सूत्रों में तस्वायसूत्रकी अपेक्षा अधिक स्पष्टीकरण पाया जाता है। तत्त्वार्थसूत्रमें दानकी परिभाषा अनुग्रहार्य स्वस्यातिसर्गो दान के रूपमें की है, पर बृहत्प्रभाचन्द्रने
स्वपरहिताय स्वस्यातिसर्जनं दानम् ॥११॥
१. माणिकचात दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला द्वारा सिद्धान्तसाराविसंग्रहके अन्तर्गत, पृ.
११४-११ प्रकाशित ।
२. बसमाचन्द्रका तस्वार्थ सूत्र ७५११ ।
अर्थात् अपने और परके हित के लिए अपनी वस्तुका त्याग करना दान है। यहाँ 'स्वपरहिताय' पद गृपिच्छाचार्यके 'अनुग्रहार्थम् पदसे अधिक स्पष्ट है। इसी प्रकार षष्ठ अध्यायके चतुर्थ सूत्र में ज्ञानावरण और दर्शनावरणके हेतुओंका कथन भी इन ग्रंथमें अधिक स्पष्ट है । गृद्धपिच्छने 'तत्प्रदोषनिन्हव' आदि सूत्र लिखा है, पर प्रभाचन्द्रने 'गुरुनिम्हवादयो' पद प्रयुक्त किया है, जिससे उक्त सूत्रकी अपेक्षा अधिक स्पष्टीकरण आ गया है। अतएव प्रभाचन्द्रका यह तत्त्वार्थसूत्र गृपिच्छाचार्यके अनुकरणपर लिखा होनेपर भी कई बातें विशेष है ।
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री बृहदप्रभाचंद्र |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri BruhadPrabhachandra ( Prachin )
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 19-May- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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