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#Harishen10ThCentury
हरिषेण नामके कई आचार्य हुए हैं। डॉ० ए० एन० उपाध्येने छह हरिषेण, नामके ग्रन्थकारोंका निर्देश किया है। प्रथम हरिषेण तो समुद्रगुप्तके राजकवि हैं, जिन्होंने इलाहाबाद-स्तम्भलेख ई० सन् ३.५ में लिखा है। द्वितीय हरिषेण अपभ्रंश भाषामें लिखित 'धर्मपरीक्षा' के रचयिता हैं। इन्होंने अपने सम्बन्धमें लिखा है कि मेवाड़की सोमामें स्थित श्रीउजौरा (श्री ओजपुर) प्रदेशके धक्काड कुल नामक स्थान में निवास करनेवाले विविध कलाओंके मर्मज्ञ हरिनामक पुरुष हुए। इनके पुत्र का नाम गौवर्धन था और उसकी पत्नी गुणवती जिन भगवानके चरणों में श्रद्धा रखनेवाली थी । उनका पुत्र हरिषेण आगे चलकर विद्वान् कविक रूपमें विख्यात हुआ। वह किसी कार्यवश चित्तौड़ छोड़कर अकालपुर गया। वहाँ उसने छन्दशास्त्र और अलंका शास्त्रका अध्ययन किया और वि० सं० १०४४ के व्यतीत होनेपर धर्म -परीक्षा नामक ग्रंथकी रचना की। उसने लिखा
१. बृहत् कपाकोश, भारतीय विद्या भवन, बम्बई, सन १९४:, अंग्रजी प्रस्तावन।
है कि धर्म-परीक्षा पहले जयरामद्वारा गयाछन्दमें लिखी गयी थीं लिखी गयी थीं अब मै इसे 'पद्धडिया' छन्दमें लिख रहा हूँ। अमितगतिको संस्कृत धर्म-परीक्षासे हरिषेण की यह धर्म-परीक्षा २६ वर्ष पुरानी है। तृतीय हरिषेण करप्रकार या सूक्ता वलोके रचयिता हरिषेण या हरि हैं। इन्होंने बताया है कि नेमिचरित भी इन्हींके द्वारा लिखित है। विषष्ठीसारप्रबन्धके रचयिता वज्रलेन उनके गुरु हैं। इनका स्थितिकाल सन्देहास्पद है । यदि ये वनसेन त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरितनामक अधूरे संस्कृतगद्य-अन्यके रचयिता हों, तो इन्हें हेमचन्द्रके पश्चात् रखा जा सकता है और इस स्थितिम इन हरिषेणका समय ई० सं ० १२वीं शतीके पश्चात् अवश्य होगा। इनके समय-निर्धारणमें सबसे प्रबल प्रमाण यह है कि वि० सं० १५०४ के पूर्व ये अवश्य वर्तमान थे, जब सोमचन्द्रने सुक्ता बलीकी उदाहरणात्मक कहानियोंसे युक्त कथा-महोदधि नामक ग्रन्थ लिखा।
चतुर्थ हरिषेणका परिज्ञान भाण्डारकर प्राच्यविद्या-शोध-संस्थान पूनाके एक हस्तलिखित ग्रंथसे प्राप्त होता है कि योनि-प्राभूतके प्राप्य न होनेके कारण विविध चिकित्सा सम्बन्धी ग्रन्थोंके आधारपर जगतसुन्दरीयोगमलाधिकारको रचना हरिषेण या पं० हरिषेणने की है। इनके व्यक्तित्व और समय आदिका निर्णय उक्त पाण्डुलिपिके अध्ययन के पश्चात् ही सम्भव है।
पंचम हरिषेणका निर्देश प्रभञ्जनके साथ वासबसेनके 'यशोधरचरित' नामक ग्रन्थमें प्राप्त होता है। उद्योतनसुरिने ई० सन् ७७८ में अपनेकुक्लपमाला ग्रन्थमें प्रभजनका उल्लेख किया है। गन्धर्वने विसं० १३६५ में वासबसेन रचित यशोधरचरितका उपयोम पुष्पदन्तके अपूर्ण 'जसहरचरित्र ' को पूरा करने में किया था । मोमकीतिने भी वि० सं० १५३५ में रचित अपने यशोधरकाध्यमें इम हरिषेणका निर्देश बिमा है।
पष्ट हरिषेण का भी परिज्ञान भाण्डारकर प्राच्य-विद्या-शोध संस्थान, पूनाके एक हस्तलिखित ग्रन्यसे होता है। इन्होंने अष्टालिकाकथाकी रचना की थी। ये मूल संघके आचार्य थे। और इनकी गुरुपरम्परामें रत्नकीर्ति, देवकीति, भीलभूषण और गुणचन्द्रक बाद हरिषेणका नाम आया है 1
वृहत्कथाकोश रचयिता हरिषेण इन मी हरिषेणोंसे भिन्न प्रतीत होते हैं।
इन्होंने इस ग्रन्थको प्रशस्तिमें लिखा है
यो बोधको भव्यकुमुद्वतीनां निःशेषगद्वान्तवचोमयूरवैः ।
पुनाटसंघाम्बरसनिवासी श्रीमोनिभट्टारकपूर्णचन्द्रः ।।
जैनालयातविराजितान्त चन्द्राबदाता तिसौधजालें ।
कार्तस्वरापुर्णजनाधिवासे श्रीवर्षमानाख्यपुरे वसन सः ।।
मारागमाहितमतिविदुषां प्रपुज्यो नानातपोनिधिविधानकरो विनेयः ।
तस्याभवद् गुणनिधिर्जनताभिवन्नः श्रीशब्दपुर्वपदको हरिषेणसंज्ञः ॥
अर्थात् मौनी भट्टारकके शिष्य भरतषेण और श्रीहरिषेण श्रीहरिसेन, भारतसेन हरिषेण , प्रस्तुत हरिषेण आने गुण ..भारतसेन की उन्होंने छन्द, अलंकार, काव्य, नाटक आदि शास्त्रोंका ज्ञाता, काव्यका रचयिता, वैयाकरण, तर्कनिपुण और तत्त्वार्थवेदी बतलाया है। हममें स्पष्ट है कि हरिषेणके दादा गुरुके गुरु मौनी भट्टारक जिनसेनको उत्तरवर्ती दूसरी , नौगरी पीढ़ी मे ही हुए होंगे । हरिषेण पुन्नाट संघके आचार्य है और इसी पुन्नाट ..संघ मे हरिषेण कर्ता जिनसेन प्रथम भी हुए हैं।
हरिषेणने कथाकोपकी रचना बर्द्धमानपुरमे की है। इस स्थानको डॉ ..एन० एन० उपाध्ये काठियावाड़का बड़वान मानते हैं। पर डॉ ..हीरालाल जैन ने इसे मध्यभारतके धार जिले का वचनवार सिद्ध किया है। बृहत् कथाकोपकी रचना वर्धमानपुरमें उस समय की गयी थी, जबकि वहाँपर विनायकपालका राज्य बर्तमान था। उसका यह राज्य शक या .इन्द्रने समान विशाल था । यह विनायक पाल गुर्जर प्रतिहारवंशका राजा है । इसके साम्राज्य की राजधानी कन्नौज थी। उस समय प्रतिहारोंके अधिकार में केवल राजपूताने काही अधिकांश भाग नहीं त्रा, अपितु गुजरात, काठियावाड़, मध्यभारत और उत्तरमें सतलजसे लेकर विहार तकका प्रदेश शामिल था। यह बिनायकपाल महाराजाधिराज महेन्द्रपाल का पुत्र था और भोज द्वितीयके बाद राज्यासीन हुआ था | कथाकोशकी रचनाके लगभग एक वर्ष पहले ( वि० स० १५५ } का एक दानपत्र मिला है । इस दान पत्रसे भी विनायकपालकी स्थिति स्पष्ट होती है।
हरिषेण कथाकोष प्रशस्तिमें बताया है
नवाष्टनवकेष्वेषु स्थानेषु त्रिषु जायतः ।
विक्रमादित्यकालस्य परिमाणभिदं स्फुटम् ||
शतेष्वष्टसु बिस्पष्ट पञ्चाशल्यधिकषु च ।
शककालस्य सत्यस्य परिमाणमिदं भवेत् ।।
संवत्सरे चतुर्विशे वर्तमाने खराभिधे ।
विनयादिकपालस्य राज्ये शक्रोपमानके ।।
१. वृहत कथाकोष , सिंधीसीरीज , प्रशास्ति, पद्य, ३.५ ।
२. राजपूतानेका इतिहास, जिल्द १, पृ.१६३ तथा इण्डियन एष्टीक्वयरी, बाल्यूम
१५, पेज १४०-१४१ ।
३. वृहत कथाकोष , सिंघी सीरीज, प्रशस्ति, पद्म ११-१३।
शक संवत् ८३६ , वि० सं० ९८८ , ( ई० सन् ९३१ ) में कथाकोशमन्थ रचा गया है। अन: अन्तरंग प्रमाण के आधारपर हरिषेणका समय ई० सन् की १०ची शताब्दीका मध्यभाग सिद्ध होता है । इस ग्रन्थको प्रशस्तिमें जिस विनायकपाल का निर्देश किया है, उसका ममय लगभग वि० सं० ९५५ ( ई० सन ८९८ ) है। काठियावाड़के हड्डाला गांव में बिनायकपालके बड़े भाई महीपालके समयका भी शक संवत् ८३६ ( ई० सन .१.१४) का दानपत्र मिला है, जिससे मालूम होता है कि उस समय वर्धमानपुर उसके सामंत धरणिवगहका अधिकार था। इसके सत्रह वर्षोंके उपरान्त इस नगरमें कथाकोषका प्रणयन हुआ | अतएव प्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान् श्री नाथूराम जी प्रेमीका अनुमान है कि वर्धमानपुग्में प्रति हारोंके किमी मामन्तका अधिकार होनेकी सम्भावना है।
आचार्य हरिषेणने पद्मबद्ध बृहत कथाकांश ग्रन्थ लिखा है। इस कोषग्रन्थ में छोटी-बड़ी सब मिलाकर १५७ कथाएँ है और ग्रन्थका प्रमाण अनुष्टुप् छन्दम १२५०० ( साढ़े बारह हजार ) श्लोक हैं। इन कथाओंको निम्नलिखित मात वर्गामें विभक्त किया जा सकता है----
१. व्रताचरण और माधनाकी महत्ता सूचक कथाएँ ।
२. भक्ति-सूचक कथाएँ ।
३. पापाचरणके कुफल-सूचक आख्यान ।
४. अर्द्ध ऐतिहागिक तथ्य-सूचक कथाएँ ।
५. मुनि और आचार्योके जीवन-वृत्त आख्यान ।
६. हिंसा, झूठ , चोरी आदिसे सम्बद्ध दष्टान्त-कथाएँ ।
७. पञ्चा ुव्रत या अन्य प्रतोंके साधक व्यक्तियोंके आख्यान ।
चाणक्य, शाकटाल , भद्रबाहु, बररुचि एवं स्वामिकातिनेय प्रभृति व्यक्तियांके अर्द्ध ऐतिहासिक आख्यान आये हैं। इस श्रेणीकी कथाओम ऐतिहासिक ब्यक्तियों के सम्बन्धमें आख्यान या व्यक्तित्वनिर्माण सम्बन्धी किसी आख्यानको प्रकट करते हुए कतिपय तथ्योंका समावेश हुआ है। श्रीप्रेमीजीने भद्रबाहुकथामें आये हुए तथ्योंकी ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए लिखा है कि भगवाहुने ..बारहवर्षो के घोर दुर्भिक्ष पड़नेका भविष्य जानकर अपने शिष्योंको लवण समुद्रके समीप चलने को कहा और अपनी आयु क्षीण जानकर वे स्वयं बहीं रह गये तथा उज्जयिनीके निकट भाद्रपद देशमें समाधिमरण धारण कर स्वर्ग प्राप्त किया । उज्जयिनीके राजा चन्द्रगुप्तने भद्रबाहुके समीप दीक्षा ग्रहण की ! यह चन्द्रगुप्तमौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त है। मुनि होनेपर जिसका नाम विशाखाचार्य कहलाया, जो दश पूर्वधारियोंमें प्रथम थे। | ___ कारकण्डुकी कथा पर्याप्त विस्तृत आयी है और यह कथा '.' कारकण्डु चरित्र तथा प्राकृत-साहित्यमें उपलब्ध कारकण्डुकथासे कई बातों में भिन्न है। इस कथाके अध्ययनसे शक नयी परम्पगका ज्ञान होता है। यद्पि कथाका अन्तिम रूप परम्पराके समान ही है, पर कथामे आयी हुई उत्पानिका विशिष्ट है। मध्य भागमें भी कथाका विस्तार पर्याप्त रूपमें हुआ है। धनत्री और नागदत्ताका आख्यान रात्रि-भोजनत्यागबतसे सम्बद्ध है। पद्मावती के जन्मकी कथा भी विचित्र ही रूपमें वर्णित है। इसमें बताया है कि बत्सकावनी देशमें कौशाम्बी नामकी प्रसिद्ध नगरी है । इस नगरीका राजा वसुपाल था और रानी वसुमती । वसुपालनगर सेठका नाम वसुदत्त ..था । वसुदत्त बड़ा ही जिनभक्त था । धनमती की बहिन धनश्रीका विबाह इसी राजसेठ वसुदत्तके साथ सम्पन्न हुआ और यह भी वसुदत्तके संसर्गसे जिनभगवानकी भक्त श्राविका बन गयी। कुछ दिनोंक पश्चात् वसुदत्तका स्वर्गवास हो गया। जब यह समाचार धनश्री की माता नाग दत्ताको मिला तो वह बहुत शोकातुर हुई और पुत्रीको सांत्वना देने के लिये कौशाम्बी जा पहुंची और वहीं पर कुछ दिनों तक निवास करने लगी।
एक दिन धनश्री ने देखा कि माताका मुखकमल शोकके कारण मलिन हो रहा है, तो वह माँको मुनिराज के पास ले गयो । मुनिराज ने नागदत्ताको समझाया और रात्रिभोजन न करनेका उसे उपदेश दिया । नागदत्ताने मुनिराज द्वारा दिये गये व्रतको स्वीकार किया और फिर अपनी दूसरी कन्या धनमती के पास नालन्दा नगर चली गयी । जब नागदत्ता धनमती पुत्रीके यहाँ पहुँची, तो पुत्रीके संसर्गके कारण यहाँ उसने रात्रि भोजन कर लिया और फिर कौशाम्बी नगरमें भी उसने रात्रिभोजन किया। इस प्रकार तीन बार उसने रात्रिभोजनका त्याग भंग किया फिर चौथी बार कौशाम्बी नगरीमें रहनेवाली अपनी कनिष्ठा कन्या धनश्रीके पास यह पहुँत्री और वहाँ रहते-रहते एक दिन इसकी मृत्यु हो गयी और अपने शुभ-अशुभ कर्मोंके कारण कौशम्बी नगरीके राजा वसुपालकी वसुमती नामक पत्नी के गर्भ में कन्याके रूपमें उत्पन्न हुई । ज्यों ही नागदत्ताका जोव बसुमतीके गर्भ में आया, वसुमतीको अत्यन्त दुःखद, श्वास-कास आदि रोगोंने पीड़ित कर दिया, जिससे रानीको इसके प्रति बड़ी अनास्था हुई। जैसे ही कन्याका जन्म हुआ, वसुमतीने उसके लिये एक सुन्दर अगुठी बनवायी और उसमें यह लेख
१. बृहत् कथाकोष १३१वीं कथा तथा जनसाहित्य और इतिहाम, द्वितीय संस्करण,
पृ० २२०-२२१ ।
अंकित करा दिया कि यह कौशाम्बीके गजा बसुपालकी वसुमती पत्नीकी पुत्री है। यदि किसी बलवान पूर्व पुण्यके कारण यह बच जाये और किसीको मिले, तो वह इसे कृपा पूर्वक पालित-गोपित करें। इस प्रकार इस अंगुठी और एक पूर्वक रत्नकम्बलके साथ इस कन्याको एक पिटारी में बन्द कराकर रानीने इसे यमुना नदीमें प्रवाहित कर दिया | वह गिटारी यमुनाके वेगवान प्रवाहके कारण तैरती हुई प्रयागमें जाकर गंगाको धारा मे मिल गयी।
अङ्ग नामके महादेगमें चम्पा नामकी नगरी थी । इस नगरीका राजा दन्ति बाहन था और उसकी पत्नीका नाम वसुमित्रा । चम्पापुरीके निकट कुसुमपुर नामका एक नगर था ! इस नगरमें कुन्ददन्त नामक माली रहता था और इसकी पत्नीका नाम कुमुदन्तिका था ! कुन्ददन्त नगरसे बाहर निकाला ही था कि उसे प्रभातके समय गंगामें बहती हुई वह पिटारी दिखलायी दी। उसने पिटारी पकड़ ली और जैसे ही खोली उसमें एक बालिका रखी हुई दिखलायी दी। कुन्ददन्त यह देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ । वह इस पिटारी तथा इसके अन्दर रखी हुई सुकुमार बालिकाको लेकर अपनी पत्नीके पास आया और उसे अपनी पत्नी के हाथोंमें देकर कहने लगा-"लो आजसे तुम इसे अपनी पुत्री समझना।" कुमुददन्ताने उस बालिकाका यथोचित पालन-पोषण किया और उसका नाम ..पद्मावती रखा । जब यह बालिका युवती हुई, तो चम्पापुर नरेश दन्तिवाहनके साथ उस कन्याका विवाह हो गया। राजाने जब कुन्ददन्तसे पद्मावतीके सम्बन्ध में विशेष पूछ ताछ की, तो उसने पिटारीके मिलनेका सब बृत्तान्त राजाको सुना दिया । कुन्ददन्त कहने लगा-'राजन् । इसके नामकी एक रत्ननिर्मित अंगुठी
और रत्नकम्बल तथा एक पिटारी है, जो सब आपको सेवामें उपस्थित हैं। दन्तिवाहन पद्मावतीका परिचय प्राप्तकर बहुत प्रसन्न हुआ। विवाहके पश्चात् कालान्तरमें पद्मावतीके गर्भ में एक पुण्यशाली देवने स्वर्गसे च्युत हो प्रबेश किया। इस समय पद्मावतीके मन में एक दोहद उत्पन्न हुआ, परन्तु उसकी पूर्ति न हो सकनेके कारण वह दिन-प्रतिदिन दुर्बल होने लगी। एक दिन राजाने पद्मावतीकी इस दुर्बलताका कारण जानना चाहा । पद्मावती कहने लगी "प्राणनाथ ! जबसे मेरे गर्भ में यह जीव आया है, तबसे एक विचित्र दोहद उत्पन्न हो रहा है कि मैं पुरुषका वेष धारण करके नमंदातिलक नामक उन्नत हाथीपर आपके साथ उस समय सवारी करूं, जिस समय मेघ मन्द-मन्द गर्जना पूर्वक नन्हीं नन्हीं बूंद गिरा रहे हों।"
जब राजाने पद्मावतीका यह दोहद सुना, तो उसने मनुष्यों के द्वारा नर्मदा तिलक हाथीको बुलाकर उसे झूल आदिसे मण्डित कराया और सोलह प्रकारके
आभूषणोंरो भूषित पद्मावतीको पुरुषके वेशमै सज्जित कर दिया । इस तरह सब प्रकारकी तैयारीके पश्चात् दन्तिवाहन भपत्तिने रानीको मदोन्मत्त हाथीके आगे बैठाया और स्वयं उसके पीछे बैठ गया तथा नगरकी प्रदक्षिणा करने लगा ।
पद्मावती और दन्तिवाहन महाराज नगर की प्रदक्षिणा कर ही रहे थे कि राजाका प्रियमित्र वायुवेग ..नामक एक विद्याधर आया और उसने विद्याबल से आकाशमें गर्जना करता हुआ एक मेघ तैयार किया। विद्याधर के प्रभावसे सुगन्धित जलको वर्षा होने लगी और मन्द-मन्द बायु प्रवाहित होने लगी। इधर नर्मदातिलक हाथीने ज्यों ही आकाशमें छाये हुए और जलकण बरसाते हुए मेघोंको देखा और दिशात्रोंको सुगन्धिन करनेवाली सुन्धित वायुको सुंघा तो उसे अपने चिरसित और वृक्षमाला से अलंकृत विन्ध्याचलके शल्लकी वनकी स्मृति हो उठी और वह बलवान् हाथी जनसमूहरु देखते-देखते ही नगर से अटवी की ओर चल दिया।
इस प्रकार इस कथामे पद्मावतीको पूर्वभावावलि तथा उसके जन्मको कथा आयी है, जो करकण्डकथामें अन्यत्र नहीं मिलती। __इस ग्रन्थमें 'उक्तञ्च' कहकर प्राकृत गाथाएँ भी सम्मिलित की गयी हैं । डॉ० ए०एन० उपाध्येका अभिमत है कि इस कथाकोषका एक अंश सम्भवतः किसी प्राकृत ग्रन्थसे संस्कृत में अनूदित किया गया है | यत: इस ग्रन्थमें बहुतसे प्राकृत नाम भी अपने मूलरूप में पाये जाते हैं । यथा-मेतार्यके स्थानपर मेदज्ज
और वाराणसीके स्थानपर वाराणसी प्रयोग पाये जाते हैं।
प्रस्तुत कथाकोष अनेक जैनाख्यानोको विकासपरम्पराको अवगत करने में बहुत ही सहायक है । लेखकने इसमें अनेक आख्यानोंके पूर्वजन्मवृत्तान्त विस्तार से दिये हैं। अत: अनेक काव्योंके स्रोतोंका परिज्ञान इस कथाकोषको कथाओंसे प्राप्त किया जा सकता है।
इस कथाकोषमें कामशास्त्र, आयुर्वेद, ज्योतिष, शकुन, दर्शन आदि विभिन्न विषयोंका वर्णन आया है । पंचपापोंका सुन्दर विश्लेषण किया गया है । आचार सम्बन्धी अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य भी इस कथामें समाविष्ट हैं। चारुदत्तकथानक में आया है कि यज्ञमें हवन किये जानेवाला पशु कहता है--
नाह स्वर्गफलोपभोगतृषितो नाभ्यथितस्त्वं मया
संतुष्टस्तृणभक्षणेन सततं साधो न युक्तं तव ।
स्वर्गं गन्तुमभीप्सिता यदि भवेद् वेदे च तथ्या श्रुतिः
भूपे कि न करोषि मातृपितृभिारान् सुतान् बान्धवान् ।
१. बृहत् कथाकोश, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, पृ.२२५, पय २४८ ।
गुरु | आचार्य श्री भरतसेन |
शिष्य | आचार्य श्री हरीषेण |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Harishen10ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री हरिषेण 10वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 23 एप्रिल 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 23-April- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
हरिषेण नामके कई आचार्य हुए हैं। डॉ० ए० एन० उपाध्येने छह हरिषेण, नामके ग्रन्थकारोंका निर्देश किया है। प्रथम हरिषेण तो समुद्रगुप्तके राजकवि हैं, जिन्होंने इलाहाबाद-स्तम्भलेख ई० सन् ३.५ में लिखा है। द्वितीय हरिषेण अपभ्रंश भाषामें लिखित 'धर्मपरीक्षा' के रचयिता हैं। इन्होंने अपने सम्बन्धमें लिखा है कि मेवाड़की सोमामें स्थित श्रीउजौरा (श्री ओजपुर) प्रदेशके धक्काड कुल नामक स्थान में निवास करनेवाले विविध कलाओंके मर्मज्ञ हरिनामक पुरुष हुए। इनके पुत्र का नाम गौवर्धन था और उसकी पत्नी गुणवती जिन भगवानके चरणों में श्रद्धा रखनेवाली थी । उनका पुत्र हरिषेण आगे चलकर विद्वान् कविक रूपमें विख्यात हुआ। वह किसी कार्यवश चित्तौड़ छोड़कर अकालपुर गया। वहाँ उसने छन्दशास्त्र और अलंका शास्त्रका अध्ययन किया और वि० सं० १०४४ के व्यतीत होनेपर धर्म -परीक्षा नामक ग्रंथकी रचना की। उसने लिखा
१. बृहत् कपाकोश, भारतीय विद्या भवन, बम्बई, सन १९४:, अंग्रजी प्रस्तावन।
है कि धर्म-परीक्षा पहले जयरामद्वारा गयाछन्दमें लिखी गयी थीं लिखी गयी थीं अब मै इसे 'पद्धडिया' छन्दमें लिख रहा हूँ। अमितगतिको संस्कृत धर्म-परीक्षासे हरिषेण की यह धर्म-परीक्षा २६ वर्ष पुरानी है। तृतीय हरिषेण करप्रकार या सूक्ता वलोके रचयिता हरिषेण या हरि हैं। इन्होंने बताया है कि नेमिचरित भी इन्हींके द्वारा लिखित है। विषष्ठीसारप्रबन्धके रचयिता वज्रलेन उनके गुरु हैं। इनका स्थितिकाल सन्देहास्पद है । यदि ये वनसेन त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरितनामक अधूरे संस्कृतगद्य-अन्यके रचयिता हों, तो इन्हें हेमचन्द्रके पश्चात् रखा जा सकता है और इस स्थितिम इन हरिषेणका समय ई० सं ० १२वीं शतीके पश्चात् अवश्य होगा। इनके समय-निर्धारणमें सबसे प्रबल प्रमाण यह है कि वि० सं० १५०४ के पूर्व ये अवश्य वर्तमान थे, जब सोमचन्द्रने सुक्ता बलीकी उदाहरणात्मक कहानियोंसे युक्त कथा-महोदधि नामक ग्रन्थ लिखा।
चतुर्थ हरिषेणका परिज्ञान भाण्डारकर प्राच्यविद्या-शोध-संस्थान पूनाके एक हस्तलिखित ग्रंथसे प्राप्त होता है कि योनि-प्राभूतके प्राप्य न होनेके कारण विविध चिकित्सा सम्बन्धी ग्रन्थोंके आधारपर जगतसुन्दरीयोगमलाधिकारको रचना हरिषेण या पं० हरिषेणने की है। इनके व्यक्तित्व और समय आदिका निर्णय उक्त पाण्डुलिपिके अध्ययन के पश्चात् ही सम्भव है।
पंचम हरिषेणका निर्देश प्रभञ्जनके साथ वासबसेनके 'यशोधरचरित' नामक ग्रन्थमें प्राप्त होता है। उद्योतनसुरिने ई० सन् ७७८ में अपनेकुक्लपमाला ग्रन्थमें प्रभजनका उल्लेख किया है। गन्धर्वने विसं० १३६५ में वासबसेन रचित यशोधरचरितका उपयोम पुष्पदन्तके अपूर्ण 'जसहरचरित्र ' को पूरा करने में किया था । मोमकीतिने भी वि० सं० १५३५ में रचित अपने यशोधरकाध्यमें इम हरिषेणका निर्देश बिमा है।
पष्ट हरिषेण का भी परिज्ञान भाण्डारकर प्राच्य-विद्या-शोध संस्थान, पूनाके एक हस्तलिखित ग्रन्यसे होता है। इन्होंने अष्टालिकाकथाकी रचना की थी। ये मूल संघके आचार्य थे। और इनकी गुरुपरम्परामें रत्नकीर्ति, देवकीति, भीलभूषण और गुणचन्द्रक बाद हरिषेणका नाम आया है 1
वृहत्कथाकोश रचयिता हरिषेण इन मी हरिषेणोंसे भिन्न प्रतीत होते हैं।
इन्होंने इस ग्रन्थको प्रशस्तिमें लिखा है
यो बोधको भव्यकुमुद्वतीनां निःशेषगद्वान्तवचोमयूरवैः ।
पुनाटसंघाम्बरसनिवासी श्रीमोनिभट्टारकपूर्णचन्द्रः ।।
जैनालयातविराजितान्त चन्द्राबदाता तिसौधजालें ।
कार्तस्वरापुर्णजनाधिवासे श्रीवर्षमानाख्यपुरे वसन सः ।।
मारागमाहितमतिविदुषां प्रपुज्यो नानातपोनिधिविधानकरो विनेयः ।
तस्याभवद् गुणनिधिर्जनताभिवन्नः श्रीशब्दपुर्वपदको हरिषेणसंज्ञः ॥
अर्थात् मौनी भट्टारकके शिष्य भरतषेण और श्रीहरिषेण श्रीहरिसेन, भारतसेन हरिषेण , प्रस्तुत हरिषेण आने गुण ..भारतसेन की उन्होंने छन्द, अलंकार, काव्य, नाटक आदि शास्त्रोंका ज्ञाता, काव्यका रचयिता, वैयाकरण, तर्कनिपुण और तत्त्वार्थवेदी बतलाया है। हममें स्पष्ट है कि हरिषेणके दादा गुरुके गुरु मौनी भट्टारक जिनसेनको उत्तरवर्ती दूसरी , नौगरी पीढ़ी मे ही हुए होंगे । हरिषेण पुन्नाट संघके आचार्य है और इसी पुन्नाट ..संघ मे हरिषेण कर्ता जिनसेन प्रथम भी हुए हैं।
हरिषेणने कथाकोपकी रचना बर्द्धमानपुरमे की है। इस स्थानको डॉ ..एन० एन० उपाध्ये काठियावाड़का बड़वान मानते हैं। पर डॉ ..हीरालाल जैन ने इसे मध्यभारतके धार जिले का वचनवार सिद्ध किया है। बृहत् कथाकोपकी रचना वर्धमानपुरमें उस समय की गयी थी, जबकि वहाँपर विनायकपालका राज्य बर्तमान था। उसका यह राज्य शक या .इन्द्रने समान विशाल था । यह विनायक पाल गुर्जर प्रतिहारवंशका राजा है । इसके साम्राज्य की राजधानी कन्नौज थी। उस समय प्रतिहारोंके अधिकार में केवल राजपूताने काही अधिकांश भाग नहीं त्रा, अपितु गुजरात, काठियावाड़, मध्यभारत और उत्तरमें सतलजसे लेकर विहार तकका प्रदेश शामिल था। यह बिनायकपाल महाराजाधिराज महेन्द्रपाल का पुत्र था और भोज द्वितीयके बाद राज्यासीन हुआ था | कथाकोशकी रचनाके लगभग एक वर्ष पहले ( वि० स० १५५ } का एक दानपत्र मिला है । इस दान पत्रसे भी विनायकपालकी स्थिति स्पष्ट होती है।
हरिषेण कथाकोष प्रशस्तिमें बताया है
नवाष्टनवकेष्वेषु स्थानेषु त्रिषु जायतः ।
विक्रमादित्यकालस्य परिमाणभिदं स्फुटम् ||
शतेष्वष्टसु बिस्पष्ट पञ्चाशल्यधिकषु च ।
शककालस्य सत्यस्य परिमाणमिदं भवेत् ।।
संवत्सरे चतुर्विशे वर्तमाने खराभिधे ।
विनयादिकपालस्य राज्ये शक्रोपमानके ।।
१. वृहत कथाकोष , सिंधीसीरीज , प्रशास्ति, पद्य, ३.५ ।
२. राजपूतानेका इतिहास, जिल्द १, पृ.१६३ तथा इण्डियन एष्टीक्वयरी, बाल्यूम
१५, पेज १४०-१४१ ।
३. वृहत कथाकोष , सिंघी सीरीज, प्रशस्ति, पद्म ११-१३।
शक संवत् ८३६ , वि० सं० ९८८ , ( ई० सन् ९३१ ) में कथाकोशमन्थ रचा गया है। अन: अन्तरंग प्रमाण के आधारपर हरिषेणका समय ई० सन् की १०ची शताब्दीका मध्यभाग सिद्ध होता है । इस ग्रन्थको प्रशस्तिमें जिस विनायकपाल का निर्देश किया है, उसका ममय लगभग वि० सं० ९५५ ( ई० सन ८९८ ) है। काठियावाड़के हड्डाला गांव में बिनायकपालके बड़े भाई महीपालके समयका भी शक संवत् ८३६ ( ई० सन .१.१४) का दानपत्र मिला है, जिससे मालूम होता है कि उस समय वर्धमानपुर उसके सामंत धरणिवगहका अधिकार था। इसके सत्रह वर्षोंके उपरान्त इस नगरमें कथाकोषका प्रणयन हुआ | अतएव प्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान् श्री नाथूराम जी प्रेमीका अनुमान है कि वर्धमानपुग्में प्रति हारोंके किमी मामन्तका अधिकार होनेकी सम्भावना है।
आचार्य हरिषेणने पद्मबद्ध बृहत कथाकांश ग्रन्थ लिखा है। इस कोषग्रन्थ में छोटी-बड़ी सब मिलाकर १५७ कथाएँ है और ग्रन्थका प्रमाण अनुष्टुप् छन्दम १२५०० ( साढ़े बारह हजार ) श्लोक हैं। इन कथाओंको निम्नलिखित मात वर्गामें विभक्त किया जा सकता है----
१. व्रताचरण और माधनाकी महत्ता सूचक कथाएँ ।
२. भक्ति-सूचक कथाएँ ।
३. पापाचरणके कुफल-सूचक आख्यान ।
४. अर्द्ध ऐतिहागिक तथ्य-सूचक कथाएँ ।
५. मुनि और आचार्योके जीवन-वृत्त आख्यान ।
६. हिंसा, झूठ , चोरी आदिसे सम्बद्ध दष्टान्त-कथाएँ ।
७. पञ्चा ुव्रत या अन्य प्रतोंके साधक व्यक्तियोंके आख्यान ।
चाणक्य, शाकटाल , भद्रबाहु, बररुचि एवं स्वामिकातिनेय प्रभृति व्यक्तियांके अर्द्ध ऐतिहासिक आख्यान आये हैं। इस श्रेणीकी कथाओम ऐतिहासिक ब्यक्तियों के सम्बन्धमें आख्यान या व्यक्तित्वनिर्माण सम्बन्धी किसी आख्यानको प्रकट करते हुए कतिपय तथ्योंका समावेश हुआ है। श्रीप्रेमीजीने भद्रबाहुकथामें आये हुए तथ्योंकी ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए लिखा है कि भगवाहुने ..बारहवर्षो के घोर दुर्भिक्ष पड़नेका भविष्य जानकर अपने शिष्योंको लवण समुद्रके समीप चलने को कहा और अपनी आयु क्षीण जानकर वे स्वयं बहीं रह गये तथा उज्जयिनीके निकट भाद्रपद देशमें समाधिमरण धारण कर स्वर्ग प्राप्त किया । उज्जयिनीके राजा चन्द्रगुप्तने भद्रबाहुके समीप दीक्षा ग्रहण की ! यह चन्द्रगुप्तमौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त है। मुनि होनेपर जिसका नाम विशाखाचार्य कहलाया, जो दश पूर्वधारियोंमें प्रथम थे। | ___ कारकण्डुकी कथा पर्याप्त विस्तृत आयी है और यह कथा '.' कारकण्डु चरित्र तथा प्राकृत-साहित्यमें उपलब्ध कारकण्डुकथासे कई बातों में भिन्न है। इस कथाके अध्ययनसे शक नयी परम्पगका ज्ञान होता है। यद्पि कथाका अन्तिम रूप परम्पराके समान ही है, पर कथामे आयी हुई उत्पानिका विशिष्ट है। मध्य भागमें भी कथाका विस्तार पर्याप्त रूपमें हुआ है। धनत्री और नागदत्ताका आख्यान रात्रि-भोजनत्यागबतसे सम्बद्ध है। पद्मावती के जन्मकी कथा भी विचित्र ही रूपमें वर्णित है। इसमें बताया है कि बत्सकावनी देशमें कौशाम्बी नामकी प्रसिद्ध नगरी है । इस नगरीका राजा वसुपाल था और रानी वसुमती । वसुपालनगर सेठका नाम वसुदत्त ..था । वसुदत्त बड़ा ही जिनभक्त था । धनमती की बहिन धनश्रीका विबाह इसी राजसेठ वसुदत्तके साथ सम्पन्न हुआ और यह भी वसुदत्तके संसर्गसे जिनभगवानकी भक्त श्राविका बन गयी। कुछ दिनोंक पश्चात् वसुदत्तका स्वर्गवास हो गया। जब यह समाचार धनश्री की माता नाग दत्ताको मिला तो वह बहुत शोकातुर हुई और पुत्रीको सांत्वना देने के लिये कौशाम्बी जा पहुंची और वहीं पर कुछ दिनों तक निवास करने लगी।
एक दिन धनश्री ने देखा कि माताका मुखकमल शोकके कारण मलिन हो रहा है, तो वह माँको मुनिराज के पास ले गयो । मुनिराज ने नागदत्ताको समझाया और रात्रिभोजन न करनेका उसे उपदेश दिया । नागदत्ताने मुनिराज द्वारा दिये गये व्रतको स्वीकार किया और फिर अपनी दूसरी कन्या धनमती के पास नालन्दा नगर चली गयी । जब नागदत्ता धनमती पुत्रीके यहाँ पहुँची, तो पुत्रीके संसर्गके कारण यहाँ उसने रात्रि भोजन कर लिया और फिर कौशाम्बी नगरमें भी उसने रात्रिभोजन किया। इस प्रकार तीन बार उसने रात्रिभोजनका त्याग भंग किया फिर चौथी बार कौशाम्बी नगरीमें रहनेवाली अपनी कनिष्ठा कन्या धनश्रीके पास यह पहुँत्री और वहाँ रहते-रहते एक दिन इसकी मृत्यु हो गयी और अपने शुभ-अशुभ कर्मोंके कारण कौशम्बी नगरीके राजा वसुपालकी वसुमती नामक पत्नी के गर्भ में कन्याके रूपमें उत्पन्न हुई । ज्यों ही नागदत्ताका जोव बसुमतीके गर्भ में आया, वसुमतीको अत्यन्त दुःखद, श्वास-कास आदि रोगोंने पीड़ित कर दिया, जिससे रानीको इसके प्रति बड़ी अनास्था हुई। जैसे ही कन्याका जन्म हुआ, वसुमतीने उसके लिये एक सुन्दर अगुठी बनवायी और उसमें यह लेख
१. बृहत् कथाकोष १३१वीं कथा तथा जनसाहित्य और इतिहाम, द्वितीय संस्करण,
पृ० २२०-२२१ ।
अंकित करा दिया कि यह कौशाम्बीके गजा बसुपालकी वसुमती पत्नीकी पुत्री है। यदि किसी बलवान पूर्व पुण्यके कारण यह बच जाये और किसीको मिले, तो वह इसे कृपा पूर्वक पालित-गोपित करें। इस प्रकार इस अंगुठी और एक पूर्वक रत्नकम्बलके साथ इस कन्याको एक पिटारी में बन्द कराकर रानीने इसे यमुना नदीमें प्रवाहित कर दिया | वह गिटारी यमुनाके वेगवान प्रवाहके कारण तैरती हुई प्रयागमें जाकर गंगाको धारा मे मिल गयी।
अङ्ग नामके महादेगमें चम्पा नामकी नगरी थी । इस नगरीका राजा दन्ति बाहन था और उसकी पत्नीका नाम वसुमित्रा । चम्पापुरीके निकट कुसुमपुर नामका एक नगर था ! इस नगरमें कुन्ददन्त नामक माली रहता था और इसकी पत्नीका नाम कुमुदन्तिका था ! कुन्ददन्त नगरसे बाहर निकाला ही था कि उसे प्रभातके समय गंगामें बहती हुई वह पिटारी दिखलायी दी। उसने पिटारी पकड़ ली और जैसे ही खोली उसमें एक बालिका रखी हुई दिखलायी दी। कुन्ददन्त यह देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ । वह इस पिटारी तथा इसके अन्दर रखी हुई सुकुमार बालिकाको लेकर अपनी पत्नीके पास आया और उसे अपनी पत्नी के हाथोंमें देकर कहने लगा-"लो आजसे तुम इसे अपनी पुत्री समझना।" कुमुददन्ताने उस बालिकाका यथोचित पालन-पोषण किया और उसका नाम ..पद्मावती रखा । जब यह बालिका युवती हुई, तो चम्पापुर नरेश दन्तिवाहनके साथ उस कन्याका विवाह हो गया। राजाने जब कुन्ददन्तसे पद्मावतीके सम्बन्ध में विशेष पूछ ताछ की, तो उसने पिटारीके मिलनेका सब बृत्तान्त राजाको सुना दिया । कुन्ददन्त कहने लगा-'राजन् । इसके नामकी एक रत्ननिर्मित अंगुठी
और रत्नकम्बल तथा एक पिटारी है, जो सब आपको सेवामें उपस्थित हैं। दन्तिवाहन पद्मावतीका परिचय प्राप्तकर बहुत प्रसन्न हुआ। विवाहके पश्चात् कालान्तरमें पद्मावतीके गर्भ में एक पुण्यशाली देवने स्वर्गसे च्युत हो प्रबेश किया। इस समय पद्मावतीके मन में एक दोहद उत्पन्न हुआ, परन्तु उसकी पूर्ति न हो सकनेके कारण वह दिन-प्रतिदिन दुर्बल होने लगी। एक दिन राजाने पद्मावतीकी इस दुर्बलताका कारण जानना चाहा । पद्मावती कहने लगी "प्राणनाथ ! जबसे मेरे गर्भ में यह जीव आया है, तबसे एक विचित्र दोहद उत्पन्न हो रहा है कि मैं पुरुषका वेष धारण करके नमंदातिलक नामक उन्नत हाथीपर आपके साथ उस समय सवारी करूं, जिस समय मेघ मन्द-मन्द गर्जना पूर्वक नन्हीं नन्हीं बूंद गिरा रहे हों।"
जब राजाने पद्मावतीका यह दोहद सुना, तो उसने मनुष्यों के द्वारा नर्मदा तिलक हाथीको बुलाकर उसे झूल आदिसे मण्डित कराया और सोलह प्रकारके
आभूषणोंरो भूषित पद्मावतीको पुरुषके वेशमै सज्जित कर दिया । इस तरह सब प्रकारकी तैयारीके पश्चात् दन्तिवाहन भपत्तिने रानीको मदोन्मत्त हाथीके आगे बैठाया और स्वयं उसके पीछे बैठ गया तथा नगरकी प्रदक्षिणा करने लगा ।
पद्मावती और दन्तिवाहन महाराज नगर की प्रदक्षिणा कर ही रहे थे कि राजाका प्रियमित्र वायुवेग ..नामक एक विद्याधर आया और उसने विद्याबल से आकाशमें गर्जना करता हुआ एक मेघ तैयार किया। विद्याधर के प्रभावसे सुगन्धित जलको वर्षा होने लगी और मन्द-मन्द बायु प्रवाहित होने लगी। इधर नर्मदातिलक हाथीने ज्यों ही आकाशमें छाये हुए और जलकण बरसाते हुए मेघोंको देखा और दिशात्रोंको सुगन्धिन करनेवाली सुन्धित वायुको सुंघा तो उसे अपने चिरसित और वृक्षमाला से अलंकृत विन्ध्याचलके शल्लकी वनकी स्मृति हो उठी और वह बलवान् हाथी जनसमूहरु देखते-देखते ही नगर से अटवी की ओर चल दिया।
इस प्रकार इस कथामे पद्मावतीको पूर्वभावावलि तथा उसके जन्मको कथा आयी है, जो करकण्डकथामें अन्यत्र नहीं मिलती। __इस ग्रन्थमें 'उक्तञ्च' कहकर प्राकृत गाथाएँ भी सम्मिलित की गयी हैं । डॉ० ए०एन० उपाध्येका अभिमत है कि इस कथाकोषका एक अंश सम्भवतः किसी प्राकृत ग्रन्थसे संस्कृत में अनूदित किया गया है | यत: इस ग्रन्थमें बहुतसे प्राकृत नाम भी अपने मूलरूप में पाये जाते हैं । यथा-मेतार्यके स्थानपर मेदज्ज
और वाराणसीके स्थानपर वाराणसी प्रयोग पाये जाते हैं।
प्रस्तुत कथाकोष अनेक जैनाख्यानोको विकासपरम्पराको अवगत करने में बहुत ही सहायक है । लेखकने इसमें अनेक आख्यानोंके पूर्वजन्मवृत्तान्त विस्तार से दिये हैं। अत: अनेक काव्योंके स्रोतोंका परिज्ञान इस कथाकोषको कथाओंसे प्राप्त किया जा सकता है।
इस कथाकोषमें कामशास्त्र, आयुर्वेद, ज्योतिष, शकुन, दर्शन आदि विभिन्न विषयोंका वर्णन आया है । पंचपापोंका सुन्दर विश्लेषण किया गया है । आचार सम्बन्धी अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य भी इस कथामें समाविष्ट हैं। चारुदत्तकथानक में आया है कि यज्ञमें हवन किये जानेवाला पशु कहता है--
नाह स्वर्गफलोपभोगतृषितो नाभ्यथितस्त्वं मया
संतुष्टस्तृणभक्षणेन सततं साधो न युक्तं तव ।
स्वर्गं गन्तुमभीप्सिता यदि भवेद् वेदे च तथ्या श्रुतिः
भूपे कि न करोषि मातृपितृभिारान् सुतान् बान्धवान् ।
१. बृहत् कथाकोश, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, पृ.२२५, पय २४८ ।
गुरु | आचार्य श्री भरतसेन |
शिष्य | आचार्य श्री हरीषेण |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Aacharya Shri Harishen 10 Th Century
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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