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#Hastimalla13ThCentury
जिस प्रकार श्वेताम्बर सम्प्रदायमें रामचन्द्र नाटककारके रूप में ख्यात हैं, उसी प्रकार दिगम्बर सम्प्रदायमें स्तिमल्ल । हस्तिमल्ल वत्स्यगोत्रीय ब्राह्मण ये और इनके पिताका नाम गोविन्दभट्ट था। ये दक्षिण भारत के निवासी थे। विक्रान्तकौरबकी' प्रशस्तिसे अवगत होता है कि गोविन्दभने स्वामी समन्त भद्रके प्रभावसे आकृष्ट होकर मिथ्यात्वका त्याग कर जैनधर्म ग्रहण किया था। गोविन्दभद्रके छह पुत्र थे-१. श्रीकुमारकवि, २. सत्यवाक्य, ३. देवरवल्लभ, ४. उदयभूषण, ५. हस्तिमल्ल और ६. वह मान ! ये छहों पुत्र कवीश्वर थे।
हस्तिमल्लके सरस्वतीस्वयंवरवल्लभ, महाकवितल्लज और सूक्तिरत्नाकर
गोविन्दभट्ट इत्यासीद्विद्वान्मिथ्यात्ववर्जितः ।
देवागमनसूत्रस्य श्रुत्या सद्दान्नान्धितः ।।१०।। -विक्रान्तकौरवप्रशस्ति ।
श्रीकुमारकचिः सत्यवाक्यो देरबल्लभः ।।१२।। -विक्रान्तकौरवप्रशस्ति ।
उघभूषणनामा च हस्तिमालाभिधानकः ।
वर्धमानकविश्चेति षडभूवन् कवीश्वराः ||१३|| -विक्रान्तकौरवप्रशस्ति ।
विरुद' थे। उनके बड़े भाई सत्यवाक्यने कवितासाम्राज्यलक्ष्मीपति कहकर हस्तिमल्लको सुक्तियोंकी प्रशंसा की है। 'राजाबलिका के कर्त्ताने उन्हें 'हयभाषाकविचक्रवर्ती लिखा है।
प्रतिष्ठासारो द्वारके रचयिता ब्रह्मसूरिने अपने बंशका परिचय देते हुए लिखा है कि पापड्यदेशमें गहिपत्तनके शासक पाण्ड्चनरेन्द्र थे। ये पाण्डय राजा बड़े धर्मात्मा, वीर, कलाकुशल और पपिड़तोंका सम्मान करते थे। वहाँ ऋषभदेवका रत्न-स्वर्णटित सुन्दर मन्दिर था, जिसमें विशाखमन्दि आदि मुनि रहते थे । गोचिन्द भट्ट भी यहीं निवास करते थे ।
हनिमगले पत्रका ना नगन बनाया जाता है जो कि पिताके समान ही यशस्वी और बहुशास्त्रज्ञ था । वह अपने वशिष्ठ काश्यपादि बन्धुओं के साथ होयसल देशकी राजधानी छनत्रयपुरोमें जाकर रहने लगा। पाश्व पण्डितके चन्द्रप, चन्द्रनाथ और बैजय पुत्र हुए। चन्द्रपके पुत्र विजयेन्द्र और उनके पुत्र इन्द्रसुरि हुए। अतएव स्पष्ट है कि गढिपत्तनन्द्रीप वर्तमान तजओर जिलान्तर्गत दीपनगडि स्थान ही है। नाटककार हस्तिमल्ल इसो स्थानके निवासी थे। हस्तिमल्ल गृहस्थावस्थामें पुत्र-पौत्रादिसे समन्वित थे । इनका यह वास्तविक नाम नहीं है। यह उपाधिप्राप्त नाम है | वास्तविक नाम मल्लिषेण था। आपटेने दक्षिणके ग्रन्थागारोंके ग्नन्धोंकी जो सूची तैयार की थी, उसमें मल्लिषेण और हस्तिमल्ल ये दोनों नाम मिलते हैं। मल्लिषेण नाम सेनगणीय आचार्योंकी परम्परामें अपनेको सम्मिलित करनेका सूचक है, क्योंकि दक्षिण में उन दिनों सेनगणीय आचार्योंकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। परबादीरूपी हस्तियोंको वश करनेके कारण हस्तिमल्ल यह उपाधिनाम पीछे प्रसिद्ध हुआ होगा।
हस्तिमल्ल युवावस्थामें उबत और अभिमानी थे, यह विक्रान्तकौरबको प्रस्तावनासे स्पष्ट है । वे अपनको सरस्वती द्वारा स्वयं वृतपलि समझते हैं । निःसंदेह हस्सिमल्ल भ्रमणप्रिय थे। यही कारण है कि सुभद्रानाटिकाम भ्रमणको उन्होंने पुरुषोंका सुस्त्र माना है। पिताको आशाको घे अलंध्य मानते। थे। ये अपने प्रारम्भिक जीवन में कौतिके अभिलाषी थे। इन्होंने अपने जीवन
१. सूत्रधार...""अस्ति किल सरस्वतीस्वयंवरवल्लभेन भट्टारगोविन्दस्वामिसूनुना हस्तिमल्लनाम्ना महाकवि तल्लजेन विरचितं विक्रान्तकौरवं नाम रूपकमिति ।
-विक्रान्तकौरवप्रशस्ति, पृ. ३, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई १९७२ ।
२. प्रशस्ति संग्रह, आरा, पृ० १०५।।
३. नानादेशपरिनमो नामक सौख्यं पुरुषस्य- सुभद्रा नाटिका, पृ० २।
४. पितःस्तु संकेतमलंघनीय-विक्रान्तकौरव, ७४।५ ।
कोति प्राप्त भी की। इन्हें भाग्यवादी भी माना जा सकता है। इसका कारण यह है कि पहले राज्य द्वारा तिरस्कृत हुए, पश्चात् इन्हें सम्मान प्रा हुआ। सभी नाटकोंमें भाग्य और पूर्वजन्ममें किये गये कर्मोको मान्यता प्रकट करने वाले अनेक स्थल आये 1 इनके नाटकों के अध्ययनसे अवगत होता है कि आचार्य हस्तिमल्न, बहभाषाविद, कामशास्त्रज्ञ, सिद्धान्ततर्कविज्ञ एवं विविध शास्त्रोक ज्ञाता थे। संगीतगास्त्रको अनेक महत्त्वपूर्ण बातें बिकान्तकोग्न और मैथिली कल्याणमें आती हैं।
विकान्सकौरबमें जो वंशपरम्परा दी है, उससे इनके समय एवं गुर्वावलीपर प्रकाश पड़ता है। बंशपरम्परा निम्न प्रकार है
समन्तभद्र
|
शिवकोटि शिवायन
|
वीरसेन
|
जिनसेन
|
गुणभद्र
|
अन्यशिष्य
|
गोविन्दभट्ट
|
(पुत्र) हस्तिमल्ल
नेमिचन्ददेवने प्रतिष्ठातिलकमें जो वंशपरम्परा दी है बह निम्न प्रकार है
' वीरसेन
|
जिनसेन
वादीसिंह बादिराज
हस्तिमल्ल
|
परवादिमल्ल
|
लोकपालाचार्य
|
समयनाथ
|
कविराजमल्ल
|
चिन्तामणि
|
अनन्तवीर्य
|
पायनाथ
|
आदिनाथ
|
ब्रम्हदेव
|
देवेंद्र
|
आदिनाथ नेमिचन्द विजयप
यह वंशपरम्परा प्रस्तुत हस्तिमल्लकी है, यह निश्चितरूपसे नहीं कहा जा सकता। यदि इन्हीं हस्तिमल्लकी है, तो उनके दो पून होने चाहिये एक पाश्च पण्डित और दूसरा परबादिमल्ल । पाश्चपण्डिसकी परम्परामें ब्रह्मसूरि और परवादिमल्लकी परम्परामें नेमिचन्द माने जायेंगे।
अय्यपार्य द्वारा जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदयमें जो वंशपरम्परा दी गयी है वह गुरु शिष्य परम्परा है । हस्तिमल्लके पूर्वकी तो वही परम्परा है, जो हस्तिमल्ल और ब्रह्मसूरि द्वारा दी गयी है। इस्तिमल्लके पश्चातकी गुरु-शिष्यपरम्परा निम्न प्रकार है
१. हस्तिमल्ल
|
२. गुणदीर सूरि
|
३. पुष्पसेन
|
४. करुणाकर
|
५. (पुत्र) अय्यपार्य
विक्रान्तकौरवमें जो गुरु-शिष्यपरम्परा दी गयी है उसके अनुसार समन्त भद्रकी शिष्य-परम्परामें शिवकोटि और शिवायन हुए । शिवायन शिवकोटिका छोटा भाई था और इनकी परम्परामें वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, अन्य शिष्य गोविन्द भट्ट और हस्तिमल शाप । अतएव संक्षेपमें यह माना जा सकता है कि हस्तिमल्ल सेनसंघके आचार्य हैं और ये बीरसेन और जिनसेनकी परम्परामें हुए हैं।
'कर्णाटककविग्तेि के अनुसार कवि हस्तिमल्लका समय वि० सं० १३४७ (ई० सन् १२०,०) है । अय्यपार्य नामक विद्वानने जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदयनामक अन्य वस्तुनन्दिप्रतिष्ठापाठ, इन्द्रनन्दिसंहिता, आशाधरप्रतिष्ठापाठके आधार पर लिखा है। यह जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय वि० संवत् १३७६ (ई० मन् १३११) में रचा गया है । अतः हस्तिमल्लके समयकी उत्तरवर्ती सीमा ई० सन् १३१ के पश्चात नहीं हो सकती । हस्सिमल्लकी पुटवर्ती समयसीमा गणभद्राचार्यक बाद ही होना चाहिये। इनके प्राप्त नाटकोंको कथावस्तुका आधार 'महापुराण' और 'पद्मचरित' है । अतएव इनका समय ई० सन्की ९वीं शतीके पूर्व सम्भव नहीं है। श्री एम० कृष्णभाचार्यरने अपनी History of classical anskrit Hattakecte. में इपियसभन्फरे, ममा विचार करते हुए लिखा है
''Hiy fatlıer was a remote disciple of Gunabhadra, the disciple of Jinasena who lived about Saka 705 Hastimatla probably lived in the 9th Century* A,1)."
अतः स्पष्ट है कि हस्सिमल्लके पिता गणभद्रके शिष्य थे। इस कारण हस्ति मल्लका समय गुण भद्रके पश्चात् और ई सन् १३१के पर्व होना चाहिये । अब विचारणीय अह है कि हस्तिमलनको इस समयसीमाके बीच कहाँ रखा जाय ? हस्तिमल्ल पाण्डयनरेश द्वारा सम्मानित थे तथा सुन्दरपाण्ड्चने, जो कि पाण्डघनरेशका उत्तराधिकारी था, कविका सम्मान किया था। सुन्दरपाण्डय का राज्यकाल वि० सं० १२०७१ई० सन् १२५०) है। अतएव इनका समय ई० सन् की १२वीं शताब्दी होना चाहिये। श्री वासुदेव पटवर्धनने अपनी अंग्रेजी प्रस्तावनामें निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है
"In Conclusion the only thing we can say about Hastimalla's
१. History of classical Sanskrit literature. Madras 1937. Page
641-42.
date is ut he liver sometimes betwccn the end of the 9th and the end of the 13:11 xhury AD." ___ अप्पार्य नामक चिदानने मन् १३२० में अपना प्रतिष्ठापाठ लिखा है। उन्होंने इसकी आरम्भिक प्रशस्ति में परिहत आशाधर और हस्तिमल्लके नामका उल्लेख किया है। उस प्रशस्ति में यद्यगि आशाधरका उल्लेख पहले और हस्तिमल्लका उल्लेख आशाधरके पश्चात् आया है, इससे इन दोनोंका समकालीन होना सिद्ध होता है । अतएव हमारी नम्र सम्मतिको अनुसार हस्तिमल्लका समय वि. संवत् १२१७-१२३७ (ई. सन १९६१-१९८१) तक माना जाना चाहिये।
उभयभाषाकविचमा माघार्य ही म मिाजिवित चार गटक और एक पुराण ग्रन्थ प्राप्त है। इनके द्वारा विरचित एक प्रतिष्ठापाठ भी बताया जाता है। विक्रान्तकौरव--इस नाटकमें छह अङ्ग हैं। महाराज सोमप्रभक्के पुत्र कौरवेश्वरका काशीनरेश अकम्पनकी पुत्री सुलोचनाके साथ स्वयम्बरविषिसे विवाह सम्पन्न होनेकी कथाबस्तु बणित है । कविने सुलोचना और कौरवेश्वरके प्रेमाकर्षणका सुन्दर चित्रण किया है।
जब स्वयंवरमें सुलोचना कौरवश्वरका वरण कर लेती है, तो चक्रवर्ती भरतका पुत्र अकीर्ति काशीनरेशसे रुष्ट हो जाता है। राजा अकम्पन अपनी छोटी पुत्री रत्नमालाके साथ विवाह कर देना चाहता है, पर अककीति सहमत नहीं होता। फलतः कौरवेश्वरका अकोति के साथ युद्ध होता है, जिसमें अर्ककीति परास्त हो जाता है। महाराज अकम्पन इस युद्धसे बहुत ही चिन्तित हैं। इसी बीच चक्रवर्तीका सन्देश प्राप्त होता है, जिसमें वे अकीतिके अनुचित व्यवहारकी भत्सना करते हैं। फलतः अर्ककीति अकम्पनके प्रस्तावको स्वीकार कर लेता है और रत्नमालाके साथ उसका विवाह सम्पन्न हो जाता है । अनन्तर अकम्पन कौरदेश्वरके साथ सुलोचनाका विवाह भी सम्पन्न कर देता है।
नाटककारने कथावस्तुका संघटन नाटकीय सिद्धान्तोंके आधारपर किया है। इसमें प्रारम्भ, प्रयत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम नामक पांचों अवस्थाएं घटित हुई है। कथावस्तुका क्रमनियोजन सरलरेखाके रूपमें सम्पन्न नहीं हुआ है । कथाका क्रम बकरेलाके रूपमें गतिशील होकर उद्देश्यको प्राप्त
१. 'अन्जनापन जयं नाटक सुभद्रा नाटिका च'का Intrnduction, Fage 14,
माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई १९५५ ।
हआ है। नायक धीरोदात्त और प्रतिनाया कोड़ा कनिने सन्दी नभतिमें सहायक मानवीय व्यापारों और उनके परस्पर सम्मिलित संघर्षोंका वर्णन किया है। कथावस्तुका अन्तिम लक्ष्य ऐहिक सिद्धि है। कविने भरत वाक्यमें काम और धर्म दोनों पुरुषार्थो की प्राप्तिको कामना की है।
२. मैथिलीकल्याणम्--यह पाँच अंकोंका नाटक है। इसमें बताया गया है कि बसंतोत्सव के अवसरपर सीता उपवन में कामदेवके मन्दिर के निकट झाला शालते समय रामके अपूर्व सौन्दर्यका दर्शन कर अभिभूत हो जाती हैं और राम भी सीताके दर्शनसे प्रेमविह्वल होते हैं। माधवी बनमें पुन: सीता और रामका साक्षात्कार होता है। इस प्रकार कविने स्वयंबके पूर्व राम और सीताके मिलनाकर्षणका सुन्दर चित्रण किया है। स्वयम्बरमें बचावतं धनुषके तोड़नेकी शर्त रखी जाती है। अनेक राजा धनुषपर अपनी शक्ति आजमाते हैं, पर उनके प्रयत्न विफल हो जाते हैं। राम सहजभावसे आकर धनुष की प्रत्यब्चाको चढ़ाते हैं और धनुष टूट जाता है। जनक रामके साथ सीताका विवाह कर देते हैं।
३. अन्जनापवनंजयं-इसमें सात अंक हैं। विद्याधरराजा प्रहलादके पुत्र पवगंजय एवं विद्याधरकुमारी अञ्जनाके विवाहका वर्णन है । महेन्द्रपुरके राजमहल में अञ्जना अपनी सखी वसंतमाला और मधुलिका तथा मालती नामक परिचारिकाओंके साथ प्रवेश करती है । उनकी चर्चाका विषय है निकट भविष्यमें होनेवाला स्वयंवर तथा उसका परिणाम | पवनंजय छिपकर अपने मित्र विषकके साथ राजमहल में सखियोंके वार्तालापको सुनता है और उसे यह मिथ्या विश्वास हो जाता है कि अम्जना उससे वास्तविक प्रेम नहीं करतो । अतः विवाहके पश्चात् अञ्जनाका परित्याग कर देता है। वरुणके विरुद्ध रावणको सामरिक सहायता देनेके लिए पवनंजय जाता है। वह वहाँ कुमुदवतीके तीरपर चकवाकीको कामाभिभूत देख अञ्जनाकी स्मृतिसे आकु लित हो जाता है । फलतः वह विमान द्वारा आदित्यपुरमें आता है और अंजना के भवनमें रात्रि व्यतीत कर प्रातःकाल होनेके पूर्व ही समरभूमिको चला जाता है। अञ्जनाके प्रकट होते हुए गर्भाचलोंको देखकर, उसपर दुराचारिणी होनेका अभियोग लगाया जाता है। मजनाको घरसे निर्वासित कर दिया जाता है। कुमार जब विजयसे लौटकर माता है, तो अजनाको न पाकर बहुत दुःखी होता है और उसकी तलाशमें निकल पड़ता है। किसी प्रकार दोनोंका मिलन होता है।
४. सुभद्रानाटिका-इस नाटिकामें चार अंक हैं। महारानी वेलासी महा
राज भरत और सुभद्रा प्रेममें विघ्न बनती है। सुभद्रा और भरतका प्रेमा कर्षण अनिश वृद्धिंगत होता जाता है। अन्तमें नमि अपनी बहिन सुभद्राका विवाह भरत महाराअके साथ यह कहकर सम्पन्न करते हैं कि ज्योतिषियोंने यह भविष्यवाणी की है कि सुभद्राका विवाह जिसके साथ सम्पन्न होगा, वह चक्र वर्ती बनेगा । महारानी बैलाती पत्ति-अभ्युदयको सुनकर उक्त प्रस्तावसे सहमत हो जाती है और सुभद्राका विवाह भरतके साथ सम्पन्न हो जाता है ।
५. आदिपुराण-जैन सिद्धान्त भवन आरा ग्रन्थागारमें इस ग्रन्थकी पाण्ड लिपि वर्तमान है । कथावस्तु जिनसेनके आदिपुराणके समान ही है।
उपर्युक्त चार नाटकोंके अतिरिक्त १. उदयनराज २. भरतराज, ३, अर्जुन राज और ४. मेघेश्वर ये चारनाटक और इनके द्वारा विरचित माने जाते हैं। भरतराज सम्भवतः सुभद्रानाटिका और मेघेश्वर विक्रान्तकौरवका ही अपरनाम है | उदयनराज और अर्जुनराज इन दो नाटकोंके सम्बन्धमें अभी तक यथार्थ जानकारी उपलब्ध नहीं है।
आचार्य हस्तिमल्ल अत्यन्त प्रतिभाशाली और बहुशास्त्रज्ञ विद्वान् हैं ।
गुरु | आचार्य श्री गोविंद भट्ट |
शिष्य | आचार्य श्री हस्तिमल्ल |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Hastimalla13ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री हस्तिमल्ल 13वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 14-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 14-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
जिस प्रकार श्वेताम्बर सम्प्रदायमें रामचन्द्र नाटककारके रूप में ख्यात हैं, उसी प्रकार दिगम्बर सम्प्रदायमें स्तिमल्ल । हस्तिमल्ल वत्स्यगोत्रीय ब्राह्मण ये और इनके पिताका नाम गोविन्दभट्ट था। ये दक्षिण भारत के निवासी थे। विक्रान्तकौरबकी' प्रशस्तिसे अवगत होता है कि गोविन्दभने स्वामी समन्त भद्रके प्रभावसे आकृष्ट होकर मिथ्यात्वका त्याग कर जैनधर्म ग्रहण किया था। गोविन्दभद्रके छह पुत्र थे-१. श्रीकुमारकवि, २. सत्यवाक्य, ३. देवरवल्लभ, ४. उदयभूषण, ५. हस्तिमल्ल और ६. वह मान ! ये छहों पुत्र कवीश्वर थे।
हस्तिमल्लके सरस्वतीस्वयंवरवल्लभ, महाकवितल्लज और सूक्तिरत्नाकर
गोविन्दभट्ट इत्यासीद्विद्वान्मिथ्यात्ववर्जितः ।
देवागमनसूत्रस्य श्रुत्या सद्दान्नान्धितः ।।१०।। -विक्रान्तकौरवप्रशस्ति ।
श्रीकुमारकचिः सत्यवाक्यो देरबल्लभः ।।१२।। -विक्रान्तकौरवप्रशस्ति ।
उघभूषणनामा च हस्तिमालाभिधानकः ।
वर्धमानकविश्चेति षडभूवन् कवीश्वराः ||१३|| -विक्रान्तकौरवप्रशस्ति ।
विरुद' थे। उनके बड़े भाई सत्यवाक्यने कवितासाम्राज्यलक्ष्मीपति कहकर हस्तिमल्लको सुक्तियोंकी प्रशंसा की है। 'राजाबलिका के कर्त्ताने उन्हें 'हयभाषाकविचक्रवर्ती लिखा है।
प्रतिष्ठासारो द्वारके रचयिता ब्रह्मसूरिने अपने बंशका परिचय देते हुए लिखा है कि पापड्यदेशमें गहिपत्तनके शासक पाण्ड्चनरेन्द्र थे। ये पाण्डय राजा बड़े धर्मात्मा, वीर, कलाकुशल और पपिड़तोंका सम्मान करते थे। वहाँ ऋषभदेवका रत्न-स्वर्णटित सुन्दर मन्दिर था, जिसमें विशाखमन्दि आदि मुनि रहते थे । गोचिन्द भट्ट भी यहीं निवास करते थे ।
हनिमगले पत्रका ना नगन बनाया जाता है जो कि पिताके समान ही यशस्वी और बहुशास्त्रज्ञ था । वह अपने वशिष्ठ काश्यपादि बन्धुओं के साथ होयसल देशकी राजधानी छनत्रयपुरोमें जाकर रहने लगा। पाश्व पण्डितके चन्द्रप, चन्द्रनाथ और बैजय पुत्र हुए। चन्द्रपके पुत्र विजयेन्द्र और उनके पुत्र इन्द्रसुरि हुए। अतएव स्पष्ट है कि गढिपत्तनन्द्रीप वर्तमान तजओर जिलान्तर्गत दीपनगडि स्थान ही है। नाटककार हस्तिमल्ल इसो स्थानके निवासी थे। हस्तिमल्ल गृहस्थावस्थामें पुत्र-पौत्रादिसे समन्वित थे । इनका यह वास्तविक नाम नहीं है। यह उपाधिप्राप्त नाम है | वास्तविक नाम मल्लिषेण था। आपटेने दक्षिणके ग्रन्थागारोंके ग्नन्धोंकी जो सूची तैयार की थी, उसमें मल्लिषेण और हस्तिमल्ल ये दोनों नाम मिलते हैं। मल्लिषेण नाम सेनगणीय आचार्योंकी परम्परामें अपनेको सम्मिलित करनेका सूचक है, क्योंकि दक्षिण में उन दिनों सेनगणीय आचार्योंकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। परबादीरूपी हस्तियोंको वश करनेके कारण हस्तिमल्ल यह उपाधिनाम पीछे प्रसिद्ध हुआ होगा।
हस्तिमल्ल युवावस्थामें उबत और अभिमानी थे, यह विक्रान्तकौरबको प्रस्तावनासे स्पष्ट है । वे अपनको सरस्वती द्वारा स्वयं वृतपलि समझते हैं । निःसंदेह हस्सिमल्ल भ्रमणप्रिय थे। यही कारण है कि सुभद्रानाटिकाम भ्रमणको उन्होंने पुरुषोंका सुस्त्र माना है। पिताको आशाको घे अलंध्य मानते। थे। ये अपने प्रारम्भिक जीवन में कौतिके अभिलाषी थे। इन्होंने अपने जीवन
१. सूत्रधार...""अस्ति किल सरस्वतीस्वयंवरवल्लभेन भट्टारगोविन्दस्वामिसूनुना हस्तिमल्लनाम्ना महाकवि तल्लजेन विरचितं विक्रान्तकौरवं नाम रूपकमिति ।
-विक्रान्तकौरवप्रशस्ति, पृ. ३, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई १९७२ ।
२. प्रशस्ति संग्रह, आरा, पृ० १०५।।
३. नानादेशपरिनमो नामक सौख्यं पुरुषस्य- सुभद्रा नाटिका, पृ० २।
४. पितःस्तु संकेतमलंघनीय-विक्रान्तकौरव, ७४।५ ।
कोति प्राप्त भी की। इन्हें भाग्यवादी भी माना जा सकता है। इसका कारण यह है कि पहले राज्य द्वारा तिरस्कृत हुए, पश्चात् इन्हें सम्मान प्रा हुआ। सभी नाटकोंमें भाग्य और पूर्वजन्ममें किये गये कर्मोको मान्यता प्रकट करने वाले अनेक स्थल आये 1 इनके नाटकों के अध्ययनसे अवगत होता है कि आचार्य हस्तिमल्न, बहभाषाविद, कामशास्त्रज्ञ, सिद्धान्ततर्कविज्ञ एवं विविध शास्त्रोक ज्ञाता थे। संगीतगास्त्रको अनेक महत्त्वपूर्ण बातें बिकान्तकोग्न और मैथिली कल्याणमें आती हैं।
विकान्सकौरबमें जो वंशपरम्परा दी है, उससे इनके समय एवं गुर्वावलीपर प्रकाश पड़ता है। बंशपरम्परा निम्न प्रकार है
समन्तभद्र
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शिवकोटि शिवायन
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वीरसेन
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जिनसेन
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गुणभद्र
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अन्यशिष्य
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गोविन्दभट्ट
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(पुत्र) हस्तिमल्ल
नेमिचन्ददेवने प्रतिष्ठातिलकमें जो वंशपरम्परा दी है बह निम्न प्रकार है
' वीरसेन
|
जिनसेन
वादीसिंह बादिराज
हस्तिमल्ल
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परवादिमल्ल
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लोकपालाचार्य
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समयनाथ
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कविराजमल्ल
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चिन्तामणि
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अनन्तवीर्य
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पायनाथ
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आदिनाथ
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ब्रम्हदेव
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देवेंद्र
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आदिनाथ नेमिचन्द विजयप
यह वंशपरम्परा प्रस्तुत हस्तिमल्लकी है, यह निश्चितरूपसे नहीं कहा जा सकता। यदि इन्हीं हस्तिमल्लकी है, तो उनके दो पून होने चाहिये एक पाश्च पण्डित और दूसरा परबादिमल्ल । पाश्चपण्डिसकी परम्परामें ब्रह्मसूरि और परवादिमल्लकी परम्परामें नेमिचन्द माने जायेंगे।
अय्यपार्य द्वारा जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदयमें जो वंशपरम्परा दी गयी है वह गुरु शिष्य परम्परा है । हस्तिमल्लके पूर्वकी तो वही परम्परा है, जो हस्तिमल्ल और ब्रह्मसूरि द्वारा दी गयी है। इस्तिमल्लके पश्चातकी गुरु-शिष्यपरम्परा निम्न प्रकार है
१. हस्तिमल्ल
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२. गुणदीर सूरि
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३. पुष्पसेन
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४. करुणाकर
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५. (पुत्र) अय्यपार्य
विक्रान्तकौरवमें जो गुरु-शिष्यपरम्परा दी गयी है उसके अनुसार समन्त भद्रकी शिष्य-परम्परामें शिवकोटि और शिवायन हुए । शिवायन शिवकोटिका छोटा भाई था और इनकी परम्परामें वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, अन्य शिष्य गोविन्द भट्ट और हस्तिमल शाप । अतएव संक्षेपमें यह माना जा सकता है कि हस्तिमल्ल सेनसंघके आचार्य हैं और ये बीरसेन और जिनसेनकी परम्परामें हुए हैं।
'कर्णाटककविग्तेि के अनुसार कवि हस्तिमल्लका समय वि० सं० १३४७ (ई० सन् १२०,०) है । अय्यपार्य नामक विद्वानने जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदयनामक अन्य वस्तुनन्दिप्रतिष्ठापाठ, इन्द्रनन्दिसंहिता, आशाधरप्रतिष्ठापाठके आधार पर लिखा है। यह जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय वि० संवत् १३७६ (ई० मन् १३११) में रचा गया है । अतः हस्तिमल्लके समयकी उत्तरवर्ती सीमा ई० सन् १३१ के पश्चात नहीं हो सकती । हस्सिमल्लकी पुटवर्ती समयसीमा गणभद्राचार्यक बाद ही होना चाहिये। इनके प्राप्त नाटकोंको कथावस्तुका आधार 'महापुराण' और 'पद्मचरित' है । अतएव इनका समय ई० सन्की ९वीं शतीके पूर्व सम्भव नहीं है। श्री एम० कृष्णभाचार्यरने अपनी History of classical anskrit Hattakecte. में इपियसभन्फरे, ममा विचार करते हुए लिखा है
''Hiy fatlıer was a remote disciple of Gunabhadra, the disciple of Jinasena who lived about Saka 705 Hastimatla probably lived in the 9th Century* A,1)."
अतः स्पष्ट है कि हस्सिमल्लके पिता गणभद्रके शिष्य थे। इस कारण हस्ति मल्लका समय गुण भद्रके पश्चात् और ई सन् १३१के पर्व होना चाहिये । अब विचारणीय अह है कि हस्तिमलनको इस समयसीमाके बीच कहाँ रखा जाय ? हस्तिमल्ल पाण्डयनरेश द्वारा सम्मानित थे तथा सुन्दरपाण्ड्चने, जो कि पाण्डघनरेशका उत्तराधिकारी था, कविका सम्मान किया था। सुन्दरपाण्डय का राज्यकाल वि० सं० १२०७१ई० सन् १२५०) है। अतएव इनका समय ई० सन् की १२वीं शताब्दी होना चाहिये। श्री वासुदेव पटवर्धनने अपनी अंग्रेजी प्रस्तावनामें निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है
"In Conclusion the only thing we can say about Hastimalla's
१. History of classical Sanskrit literature. Madras 1937. Page
641-42.
date is ut he liver sometimes betwccn the end of the 9th and the end of the 13:11 xhury AD." ___ अप्पार्य नामक चिदानने मन् १३२० में अपना प्रतिष्ठापाठ लिखा है। उन्होंने इसकी आरम्भिक प्रशस्ति में परिहत आशाधर और हस्तिमल्लके नामका उल्लेख किया है। उस प्रशस्ति में यद्यगि आशाधरका उल्लेख पहले और हस्तिमल्लका उल्लेख आशाधरके पश्चात् आया है, इससे इन दोनोंका समकालीन होना सिद्ध होता है । अतएव हमारी नम्र सम्मतिको अनुसार हस्तिमल्लका समय वि. संवत् १२१७-१२३७ (ई. सन १९६१-१९८१) तक माना जाना चाहिये।
उभयभाषाकविचमा माघार्य ही म मिाजिवित चार गटक और एक पुराण ग्रन्थ प्राप्त है। इनके द्वारा विरचित एक प्रतिष्ठापाठ भी बताया जाता है। विक्रान्तकौरव--इस नाटकमें छह अङ्ग हैं। महाराज सोमप्रभक्के पुत्र कौरवेश्वरका काशीनरेश अकम्पनकी पुत्री सुलोचनाके साथ स्वयम्बरविषिसे विवाह सम्पन्न होनेकी कथाबस्तु बणित है । कविने सुलोचना और कौरवेश्वरके प्रेमाकर्षणका सुन्दर चित्रण किया है।
जब स्वयंवरमें सुलोचना कौरवश्वरका वरण कर लेती है, तो चक्रवर्ती भरतका पुत्र अकीर्ति काशीनरेशसे रुष्ट हो जाता है। राजा अकम्पन अपनी छोटी पुत्री रत्नमालाके साथ विवाह कर देना चाहता है, पर अककीति सहमत नहीं होता। फलतः कौरवेश्वरका अकोति के साथ युद्ध होता है, जिसमें अर्ककीति परास्त हो जाता है। महाराज अकम्पन इस युद्धसे बहुत ही चिन्तित हैं। इसी बीच चक्रवर्तीका सन्देश प्राप्त होता है, जिसमें वे अकीतिके अनुचित व्यवहारकी भत्सना करते हैं। फलतः अर्ककीति अकम्पनके प्रस्तावको स्वीकार कर लेता है और रत्नमालाके साथ उसका विवाह सम्पन्न हो जाता है । अनन्तर अकम्पन कौरदेश्वरके साथ सुलोचनाका विवाह भी सम्पन्न कर देता है।
नाटककारने कथावस्तुका संघटन नाटकीय सिद्धान्तोंके आधारपर किया है। इसमें प्रारम्भ, प्रयत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम नामक पांचों अवस्थाएं घटित हुई है। कथावस्तुका क्रमनियोजन सरलरेखाके रूपमें सम्पन्न नहीं हुआ है । कथाका क्रम बकरेलाके रूपमें गतिशील होकर उद्देश्यको प्राप्त
१. 'अन्जनापन जयं नाटक सुभद्रा नाटिका च'का Intrnduction, Fage 14,
माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई १९५५ ।
हआ है। नायक धीरोदात्त और प्रतिनाया कोड़ा कनिने सन्दी नभतिमें सहायक मानवीय व्यापारों और उनके परस्पर सम्मिलित संघर्षोंका वर्णन किया है। कथावस्तुका अन्तिम लक्ष्य ऐहिक सिद्धि है। कविने भरत वाक्यमें काम और धर्म दोनों पुरुषार्थो की प्राप्तिको कामना की है।
२. मैथिलीकल्याणम्--यह पाँच अंकोंका नाटक है। इसमें बताया गया है कि बसंतोत्सव के अवसरपर सीता उपवन में कामदेवके मन्दिर के निकट झाला शालते समय रामके अपूर्व सौन्दर्यका दर्शन कर अभिभूत हो जाती हैं और राम भी सीताके दर्शनसे प्रेमविह्वल होते हैं। माधवी बनमें पुन: सीता और रामका साक्षात्कार होता है। इस प्रकार कविने स्वयंबके पूर्व राम और सीताके मिलनाकर्षणका सुन्दर चित्रण किया है। स्वयम्बरमें बचावतं धनुषके तोड़नेकी शर्त रखी जाती है। अनेक राजा धनुषपर अपनी शक्ति आजमाते हैं, पर उनके प्रयत्न विफल हो जाते हैं। राम सहजभावसे आकर धनुष की प्रत्यब्चाको चढ़ाते हैं और धनुष टूट जाता है। जनक रामके साथ सीताका विवाह कर देते हैं।
३. अन्जनापवनंजयं-इसमें सात अंक हैं। विद्याधरराजा प्रहलादके पुत्र पवगंजय एवं विद्याधरकुमारी अञ्जनाके विवाहका वर्णन है । महेन्द्रपुरके राजमहल में अञ्जना अपनी सखी वसंतमाला और मधुलिका तथा मालती नामक परिचारिकाओंके साथ प्रवेश करती है । उनकी चर्चाका विषय है निकट भविष्यमें होनेवाला स्वयंवर तथा उसका परिणाम | पवनंजय छिपकर अपने मित्र विषकके साथ राजमहल में सखियोंके वार्तालापको सुनता है और उसे यह मिथ्या विश्वास हो जाता है कि अम्जना उससे वास्तविक प्रेम नहीं करतो । अतः विवाहके पश्चात् अञ्जनाका परित्याग कर देता है। वरुणके विरुद्ध रावणको सामरिक सहायता देनेके लिए पवनंजय जाता है। वह वहाँ कुमुदवतीके तीरपर चकवाकीको कामाभिभूत देख अञ्जनाकी स्मृतिसे आकु लित हो जाता है । फलतः वह विमान द्वारा आदित्यपुरमें आता है और अंजना के भवनमें रात्रि व्यतीत कर प्रातःकाल होनेके पूर्व ही समरभूमिको चला जाता है। अञ्जनाके प्रकट होते हुए गर्भाचलोंको देखकर, उसपर दुराचारिणी होनेका अभियोग लगाया जाता है। मजनाको घरसे निर्वासित कर दिया जाता है। कुमार जब विजयसे लौटकर माता है, तो अजनाको न पाकर बहुत दुःखी होता है और उसकी तलाशमें निकल पड़ता है। किसी प्रकार दोनोंका मिलन होता है।
४. सुभद्रानाटिका-इस नाटिकामें चार अंक हैं। महारानी वेलासी महा
राज भरत और सुभद्रा प्रेममें विघ्न बनती है। सुभद्रा और भरतका प्रेमा कर्षण अनिश वृद्धिंगत होता जाता है। अन्तमें नमि अपनी बहिन सुभद्राका विवाह भरत महाराअके साथ यह कहकर सम्पन्न करते हैं कि ज्योतिषियोंने यह भविष्यवाणी की है कि सुभद्राका विवाह जिसके साथ सम्पन्न होगा, वह चक्र वर्ती बनेगा । महारानी बैलाती पत्ति-अभ्युदयको सुनकर उक्त प्रस्तावसे सहमत हो जाती है और सुभद्राका विवाह भरतके साथ सम्पन्न हो जाता है ।
५. आदिपुराण-जैन सिद्धान्त भवन आरा ग्रन्थागारमें इस ग्रन्थकी पाण्ड लिपि वर्तमान है । कथावस्तु जिनसेनके आदिपुराणके समान ही है।
उपर्युक्त चार नाटकोंके अतिरिक्त १. उदयनराज २. भरतराज, ३, अर्जुन राज और ४. मेघेश्वर ये चारनाटक और इनके द्वारा विरचित माने जाते हैं। भरतराज सम्भवतः सुभद्रानाटिका और मेघेश्वर विक्रान्तकौरवका ही अपरनाम है | उदयनराज और अर्जुनराज इन दो नाटकोंके सम्बन्धमें अभी तक यथार्थ जानकारी उपलब्ध नहीं है।
आचार्य हस्तिमल्ल अत्यन्त प्रतिभाशाली और बहुशास्त्रज्ञ विद्वान् हैं ।
गुरु | आचार्य श्री गोविंद भट्ट |
शिष्य | आचार्य श्री हस्तिमल्ल |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Aacharya Shri Hastimalla 13 Th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 14-May- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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