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#Mallishen11ThCentury
उभयभाषाविचक्रवर्ती आचार्य मल्लिषेण अपने युगके प्रख्यात आचार्य हैं। इन्हें करिशेखरका बिरूवार या । गया."
भाषाद्वयकवितायां कवयो दर्प वहन्ति तावदिह ।
नालोकन्ति यावत्कविशेखरमल्लिषेणमुनिम् ॥
ये अपनेको सकलागमवेदी, लक्षणवेदी और तर्कवेदी भी लिखते हैं । आचार्य मल्लिषेणको कवि और मन्त्रवादीके रूपमें विशेष ख्याति है। ये उन अजितसेन की परम्परामें हुए हैं, जो गङ्गनरेश राचमल्ल और उनके मन्त्री तथा सेनापति चामुण्डरायके गुरु थे और जिन्हें नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने भुवनगुरु कहा है। मल्लिषेणके गुरु जिनसेन हैं और जिनसेनके कनकसेन तथा कनकसेनके अजितसेन गुरु हैं। मल्लिषेणने 'नागकुमारचरित'को अन्तिम प्रशस्तिमें जिन सेनके अनुज या सतीर्थ नरेन्द्रसेनका भी स्मरण किया है। नरेन्द्रसेननामके कई आचार्य हुए हैं। अतः निश्चितरूपसे यह नहीं कहा जा सकता कि यह नरेन्द्रसेन कौन हैं ?
तस्वानुजश्चास चरित्रवृत्तिः प्रख्यातकीति वि पुण्यत्तिः ।
नरेन्द्रसेनो जितवादिसेनो विज्ञातत्तत्त्वो जितकामसूत्रः ॥
प्रशस्तिके पांचवें पद्यमें मल्लिषेणने नरेन्द्रसेनको अपना गुरु भी लिखा है
सच्छिष्यो विबुधाग्रणीगणनिधिः श्रीमल्लषेणादयः।
संजातः सकलागमेषु निपुणो वाग्देवतालंकृतिः ।।
आचार्य मल्लिषेणने भारतीकल्प, कामचाण्डालीकल्प, ज्वालिनीकल्प और पपावतीकल्प ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों में अपनेको कनकसेनका शिष्य और जिनसेन का प्रशिष्य बतलाया है । असम्भव नहीं कि जिनसेन और उनके अनुज नरेन्द्रसेन दोनों ही मल्लिषेणके गुरु रहे हों-दोनोंसे भिन्न-भिन्न विषयोंका अध्ययन
१. वहस्सर्वशसिखि, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, पृ० १३० ।
२. जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ३१v |
३. नागकुमारचरित, प्रशस्ति, पब ४ ।
४. वही, पद्य ५।
किया' हो । भैरवपद्मावतीकल्पमें लिखा है
सकलनयमुकुटटितचरणयुगः श्रीमदजित्तसेनगणिः ।
जयतु दुरितापहारी, भन्यौघभवार्णवोत्तारी ।।
जिनसमयागमवेदी गरुतरसंसारकाननोच्छेदी ।
कन्धनदहनपटुस्तच्छिष्यः कनकसेनगणिः ।
चारित्रभूषिताङ्गी निस्सङ्गो मथितदुर्जनाऽनङ्गः ।
तच्छियो जिनसेनो बभूव भब्याजधर्मांशु: ।।
सदीयशिष्यों मुनिमल्लिषेण: सरस्वतीलब्धवरप्रसादः ।
तेनोदितो भैरवदेवतायाः कल्पः समासेन चतुःशतेन ।
वादिराजके समान मल्लिषेण भी मठाधिपति प्रतीत होते हैं । यतः इनके द्वारा चित्त मन्त्र-तन्त्रविषयक ग्रन्थों में स्तम्भन, मारण, मोहन, वशीकरण, अनंगा कर्षण मानिगोन महाधिपति महासासिस सानो है। उनके साहित्यसे ऐसा भी अनुमान होता है कि महस्थ शिष्यों के कल्याणके हेतु वे मन्त्र-सन्त्र और रोगोपचारमें प्रवृत्त रहे होंगे। परमविरक्त बनवासी मुनि इस प्रकारके प्रयोगों का विधान नहीं कर सकता है। इसमें सन्देह नहीं कि ये संस्कृतभाषा, साहित्य और मन्त्रवादके प्रसिद्ध आचार्य रहे हैं ।
आचार्य मल्लिषेणने अपने महापुराणको प्रशस्तिमें निम्नलिखित पद्य अंकित किया है
वर्षेक त्रिशताहीने सहस्र शकभुभूजः ।
सर्वजिद्वत्सरे ज्येष्ठे सशुक्ल पञ्चमीदिने ।।
अर्थात् ज्येष्ठ शुक्ला पञ्चमी शक सं० ९६९ ( ई० सन् १०४७ )को महा . पुराण समाप्त किया गया है ।
महापुराणको रचना धारवाड़ जिलेके मूलगुन्द नामक स्थानमें की गयी है। यह स्थान उक्त जिलेकी गदग तहसीलसे १२ मील दक्षिण पश्चिमकी ओर है। इस स्थानपर आज भी चार जैन मन्दिर हैं, जिनमें शक सं०८२४, ८२५, ९७५, ११९७.१२७५ और १५९७के अभिलेख है। एक अभिलेखमें आचार्य द्वारा सेन वंशके कनकसेन मुनिको एक खेतके दान देनेका भी उल्लेख है। आदरणीय
१. प्रशस्ति-संग्रह, प्रथम भाग, वीरसेवा मन्दिर, प्रस्तावना, पृ०६१।
२. भैरवपद्मावतोकल्प, सूरत संस्करण, प्रशस्ति, पा ५३-५६ ।
३. महापुराण, पद्य २ ।
श्री पण्डित नाथूरामजी प्रेमीका अनुमान है कि मल्लिाषणका मट भी इसी स्थानमें रहा होगा। ___ आचार्य बादिराजने 'न्यायविनिश्चविचरण'की अन्तिम प्रशस्तिमें नरेन्द्र सेनका उल्लेख किया है और वादिराजका समय शक सं०९४५ ( ई० सन् १०२५ ) है। ये नरेन्द्रसेन ही मल्लिषेण द्वारा गुरुरूपमें उल्लिखित हैं । अतः मल्लिषेणको वादिराजके समकालीन माना जा सकता है। मल्लिपेणक महा पुराणको रचना वादिराजके २२ वर्षके अनन्तर ही हुई है । अताएब मल्लिषेणका समय ई० सन्की ११वीं शताब्दी है।
उभयभाषाकविचक्रवर्ती मल्लिापेणको निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ध हैं।
१. नागकुमारकाव्य,
२. महापुराण,
३. भैरवपद्यावतीकल्प,
४. सरस्दतीमन्त्रकल्प,
५. ज्वालिनीकल्प,
६. कामचाण्डालीकल्प ।
इस खण्डकाव्य में ५ सर्ग और ५०७ पद्य हैं | इस काव्यमें नागकुमारका जीवन वर्णित है। काव्यके आरम्भमें बताया है कि जयदेव आदि कवियोंने गद्य पद्यमय रचनाएँ लिखी हैं, पर वह मन्दबुद्धिके लिए विषम है। मैं मल्लिषेण विद्वज्जनोंके मनको हरण करनेवाली उसी कथाको संस्कृत-पद्योंमें निबद्ध करता हैं। यथा
कविभिईयदेवाः गपंद्यविनिर्मितम् ।
यत्तदेवास्ति चेदत्र विषम मन्दमेधसाम् ।।
प्रसिहसंस्कृतैर्वाक्यचिद्वज्जनमनोहरम् ।
तन्मया पद्मबन्धेन मल्लिषेणेन रच्यते ।।
यह काव्य बहुत सरल, सरस और प्रवाहमय है। मानवीय सहृदयताका भाण्डार खुला हुआ है। जीवनको अन्तःचेतना तथा सौन्दर्य-भावना सत्यकी ओर अग्रसर करती है । घटना-वर्णन और दृश्य-योजनाके अतिरिक्त कविने नागकुमारका संघर्षपूर्ण जीवन चित्रित कर सांसारिकतासे निर्वाणकी ओर गतिशील होनेकी प्रेरणा दी है। काव्यमें मानवीय भावनाओंका चित्रण भी
१. महापुराण, पद्म २ ।
यथार्थ रूपमें घटित हुआ है। नागकुमारके जीवनको मर्मस्पर्शी घटनाओंका चमत्कारपूर्ण शैलीमें चित्रण किया गया है। इस काव्यमें श्रुतपञ्चमीव्रतके महात्म्यको बतलाने के लिए रोमांटिक कथा लिखी गयी है । मगधमें कनकपुरका राजा जयन्धर था। उसकी रानी विशालनेत्रासे श्रीधर नामका पुत्र उत्पन्न हुआ । एक व्यापारी सौराष्ट्रसे गिरिनगरकी राजकुमारीका चित्र लेकर आया । राजा उसपर मुग्ध हो गया । मन्त्रीको भेजकर उसने लड़कोको बुलवाकर विवाह कर लिया । नयी रानीका नाम पृथ्वीदेवी था। एक दिन राजा अन्तःपुरसहित जल-क्रीड़ाके लिए गया और मार्ग में अपनी सौतके वैभवको देखकर पथ्वीमती चिन्तित हुई और चुपचाप जिनमन्दिरमें चली गयी । स्तुति के पश्चात् वह मुनि का आदेश सुगरे लगी । मुगिने उराडे यहाथी पुर होनेकी भविष्यवाणी की। राजा वहाँ पहुँचा और रानीको लेकर घर चला आया। समय पाकर राजाको पुत्रलाभ हुआ। राजाने धूम-घामपूर्वक पुत्रोत्सव मनाया । बालक अत्यन्त प्रभावशाली था और बचपनसे ही उसके द्वारा आश्चर्यकारी कार्य होने लगे थे। एक बार वह बापीमें गिर गया, उसकी माँ भी उसमें गिर पड़ी, नीचे एक नागने उसे बचा लिया और इसीलिये उसका नाम नागकुमार पड़ा। यहींपर उसकी शिक्षा-दीक्षा सम्पन्न हुई । कुमार अब पूर्ण युबक हो चुका था। उसने गन्धर्व कुमारियोंको वीणावादनमें परास्त किया, जिससे वे कुमारियाँ उसपर मोहित हो गयीं और उसे उनसे विवाह करना पड़ा। एक दिन कुमार जलक्रीड़ाके लिए गया । माँ उसे कपड़े देने मयी थी, परन्तु उसकी सौतने उसे कलंक लगा दिया । राजा चुप रहा । राजाने कुमारके भ्रमण करनेपर रोक लगा दी। इस पर नयी रानी बहुत अप्रसन्न हुई। उसने नागकुमारको घूमनेके लिए प्रेरित किया । वह हाथो पर सवार होकर नगरमें निकला। उसे देखकर कितनी ही कुमारियां मुग्ध हो गयौं । अविभावकोंने राजासे शिकायत की। राजा बहुत नाराज हुआ। उसने कुमारकी मांक गहने और कपड़े छीनकर अधिकारसे बंचित कर दिया । कुमारको यह बुरा लगा। वह छूतघर गया और वहाँसे जुएमें उसने बहुत-सा धन जीता। राजकुमारको कला देखकर सभी आश्चर्य चकित थे । कुमारने दुष्ट गजे और अश्वको भी वश किया, जिससे कुमारका यश व्याप्त हो गया।
राजाने कुछ समयके लिए नागकुमारसे बाहर घूम आनेके लिए कहा । मथुरामें व्याल और महाव्याल दो राजकुमार थे। वे अपने मन्त्रीको राज्य देकर पाटलिपुत्रके राजा श्रीवर्माकी लड़कियोंके स्वयंवरमें गये। दोनोंके विवाह हो गये । उन्होंने मिलकर अपने ससुरके शत्रुको मार भगाया । छोटा भाई बहीं
पर रहा, पर बड़ा भाई नागकुमारसे भेंट करने कनकपुर आया । नागकुमारको देखते ही उसकी आँखें ठीक हो गयौं, तब वह कमारका रप्लक हो गया ! जब श्रीधरके आदमी नागकुमारको मारने आये, तो उसने उसे बचा लिया। वे दोनों मथुरा चले गये। कुमारने मथुरा में एक बेश्याका आतिथ्य स्वीकार किया। उसके कहने पर शीलवतीको राजाकी कैदसे मुक्त किया । महान्यालने भी इस मन्त्री राजासे अपना राज्य वापस ले लिया । वहाँसे कुमार कश्मीर गया । व्याल उसके साथ था। उसने कश्मीरनरेश नन्दकी पुत्री नन्दवतीको वीणा पराजित किया। नन्दवती इसपर मोहित हो गयी। दोनोंका विवाह हो गया। कुछ दिन रहकर उन्होंने हिमालयके भीतरी भागोंका भ्रमण किया ! वहाँ जिन मंदिर और गुहामन्दिरोंके दर्शन किये। भीलराजकी पत्नीका गुहराज भामा सुरसे उद्धार किया। ___ आगे बढ़नेपर कंचनगुहामें उसे सुदर्शना देवी मिली। उसने बहुत-सी विद्याएँ कुमारको दी । पहले ये विद्याएँ जिनशत्रुने सिद्ध की थीं, पर वह बाद में विरक्त हो गया। देवी योग्य अधिकारीको ये विद्याएं देकर प्रसन्न हुई। नागकुमार कई महत्त्वपूर्ण कार्य कर वहाँसे वापस लौटा। ___ अपने समस्त साथियोंके साथ चलता हुवा वह विषवनमें आया । यहाँ उसने भलसे विषले आम खा लिये, पर इन आमोंका कुप्रभाव उसपर न पड़ा। इस पर दुर्मुख भीलने ५०० योद्धाओंके साथ उसकी अधीनता स्वीकार की। इसके पश्चात् कुमारने राजा अरिवर्माकी सहायता की । विजयके उपलक्ष्य में उसने नागकुमारके साथ अपनी कन्या जयावतीका विवाह कर दिया । इतने में कुमार को एक लेखपत्र प्राप्त हुआ, जिसमें एक विद्याधरसे सात कन्याओंके उद्धारकी अभ्यर्थना की गयी थी। उसने विमानसे जाकर उन कन्याओंका उद्धार किया। पश्चात् कुमारसे उनका विवाह हो गया।
एक बार महाव्याल मदुरा पहुंचा। वहाँ वह बाजारमें भ्रमण कर रहा था कि राजकुमारी मलयसुन्दरी उसे देखकर मोहित हो गयी, पर वह झूठमूठ चिल्लाकर कहने लगी-"इसने मुझे रोक लिया है।" अनुचर सहायताके लिए आये, पर महाव्यालने उन्हें हरा दिया । मलयसुन्दरीका विवाह महाव्यालके साथ सम्पन्न हो गया । नागकुमारने उज्जयिनीकी कुमारी मेनकासे विवाह किया । बहाँसे महान्यालके साथ दक्षिण भारतकी यात्रा करने गया। उसने तिलकसुन्दरीको मृदंगवादनमें पराजित किया । तोयद्वीप पहुंचकर उसने वृक्ष पर लटकती हुई कितनी ही कन्याओंका उद्धार किया। महाँसे वह पाण्ड्यदेश पहुंचा। अन्तमें उसने त्रिभुवनतिलकद्वीपके मण्डलिक राजाकी सुकन्या लक्ष्मी
मतीसे विवाह किया । यह पृथ्वीश्वर नामक मुनिके दर्शन करने गया | विविध दार्शनिक और धार्मिक विचार सूननेके पश्चात् उसने नई पत्नीके प्रति विशेष आसक्तिका कारण पूछा । मुनिने कहा- तुम दोनोंने पिछले भवमें श्रुतपञ्चमी का व्रतानुष्ठान किया था, उसीका यह पुष्यफल है। तदनन्तर मुनिराजो श्रुतपंचमीके विधानका स्वरूप और महत्व समझाया। कुमार पिताके घर आ गया । कुमारको अभिषिक्त कर राजा जयन्धर तप करने चला गया। नाग कुमारने चिरकाल तक योग्यतापूर्वक राज्य किया और पश्चात् जिनदीक्षा धारण कर मोक्ष लाम किया।
नागकुमारका यह जीवन-चरित काव्यको दृष्टिसे विशेष उपादेय है । कुमार शरीरसे जितना सुन्दर है; बल, पौरुष और कलामें भी उतना ही अद्वितीय है। इसमें पञ्चमीव्रतके अनुष्ठानका फल वणित है।
इम पुराणमें ६३ शलाकापुरुषोंके चरित वर्णित हैं। समस्त पुराण २,००० श्लोकोंमें लिखा गया है। कोल्हापुरके लक्ष्मीसेन भट्टारकके मठमें इसकी एक प्रति कन्नड़ लिपिमें है। कविने रचनाके समाप्तिस्थानकी सूचना देते हुए अपने अन्यकी विशेषत्ताका संक्षेपमें उल्लेख कर दिया है । यथा
तीर्थं श्रीमुलगुन्दनाम्नि नगरे श्रीजैनधर्मालये।
स्थित्वा श्रीविचक्रवत्तियतिपः श्रीमल्लिषेणावयः ।।
संक्षेपात्प्रथमानुयोगकथनव्याख्यान्वित शृण्वताम्,
भध्यानां दुरितापहं रचितवान्निःशेषविद्याम्बुधिः ॥१॥
अर्थात् संक्षेपसे प्रथमानुयोगका कथन भव्य जीवोंके पापोंको नष्ट करने वाला है। इस पुराणमें महापुरुषके जीवन वृत्तोंको संक्षेपमें निबद्ध किया गया है। जो भब्य जीव इस पुराणका स्वाध्याय करेंगे उनका दुरिततम विच्छिन्न हो जायगा।
इस ग्रन्थमें ४०० अनुष्टुप् श्लोक हैं और १० बधिकार हैं। १. मंत्र-लक्षण, २. सकलीकरण, ३. देव्यर्चन, ४. द्वादशरञ्जिकामन्त्रोद्धार, ५. क्रोधादि स्तम्भन, ६ अंगना-आकर्षण, ७. वशीकरण यन्त्र, ८ निमित्त, २. वशीकरण और १७. गारूड़ तन्त्र । यह मन्त्रशास्त्रका प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसपर बन्धुषेण कृत संस्कृत-विवरण भी उपलब्ध है तथा इसी विवरणसहित इसका प्रकाशन भी हुआ है। समस्त ग्रन्थ आर्या और गीति छन्दमें लिखा गया है। मन्त्रीका तात्पर्य साधकसे है। साधक वही हो सकता है जो वीर, पापरहित, गुणोंसे
गम्भीर, मौनी और महाभिमानी हो । गुरुजनोंसे उपदेश पाया हुआ तन्द्रारहित, निद्राको जीतनेबाला और कम भोजन करनेवाला ही मन्त्रसाधक हो सकता है। साधकले अन्य लक्षणोंको बतलाते हुए लिखा है
निजितविषयकषायो धर्मामृतजनितहर्षगतकायः ।
गुरुवरगुणसम्पूर्णः स भवेदाराधको देव्याः ।।
शुचिः प्रसन्नो गुरुदेवभक्तो दृढव्रतः सत्य-दयासमेतः ।
दक्षः पटुझेजपदावधारी मंत्री भवेदीश एवं लोके ॥
जिसने विषय और कषायोंको जीत लिया हो, जिसके शरीरमें धर्मरूप अमृतसे उत्पन्न हर्ष भरा हो तथा जो सुन्दर सुन्दर गुणोंसे परिपूर्ण हो वह देवी का आराधक होता है । जो पवित्र, प्रसन्न, गुरु और देवहा नत, बढ़ सानाला दयाल, सत्यभाषी, बुद्धिमान, चतुर और बीजाक्षरोंका निश्चय करनेवाला हो, ऐसा व्यक्ति हो लोकमें मन्त्री हो सकता है ।
सकलीकरणकी क्रियामें अंगशुद्धिकी मान्त्रिक विधि दी गयी है और मन्त्रों में शत्रुता एवं मित्रताका निश्चय किया गया है। तृतीय परिच्छेदमें मन्त्रोंके साधनकी सामान्यविधि वर्णित है। दिशा, काल, मुद्रा, आसन एवं पल्लवोंके भेदोंका वर्णन भी आया है। वशीकरण, आकर्षण, उच्चाटन आदि मन्त्रोंको किस आसन और दिशामें सिद्ध करना चाहिए, इसका भी वर्णन आया है।
आह्वानन, स्थापन, सन्निधिकरण, पूजन और विसर्जनको पंचोपचार कहा गया है । पद्यावतीके एकाक्षर, षडक्षर, त्र्यक्षर आदि मन्त्र भी दिये गये हैं। ___चतुर्थ परिच्छेद में विभिन्न मन्त्र, यन्त्र और बीजाक्षरोंका कथन किया गया है। पञ्चम परिच्छेदमें स्तम्भन मन्त्रीका कथन आया है और जल, तुला, सर्प तथा पक्षी स्तम्भनके मन्त्रों और यन्त्रोंका निर्देश किया गया है । षष्ठ परिच्छेद में इष्टांगनाकर्षणयन्यविधि दी गयी है और चार यन्त्रोंका निर्देश आया है । इस प्रकरणमें कई मन्त्र भी हैं। सप्तम परिच्छेदमें ज्वर आदि रोगोंके उपशमन हेतु अनेक यन्त्र दिये गये हैं । इन यन्त्रोंको धारण करनेसे अनेक प्रकारको सिद्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। अष्ठम परिच्छेद निमित्ताधिकार है। इसमें अनेक प्रकारके मन्त्र और यन्त्र आये हैं। नवम परिच्छेद तन्त्राधिकार है। इसमें लवंग, केशर, चंदन, नागकेशर, श्वेतसर्षप, इलायची, मनसिल, कूट, तगर, श्वेत कमल, गोरोचन, लाल चन्दन, तुलसी, पचाख ओर कुटज आदि द्रव्योंको पुष्य नक्षत्र में लाकर कुमारी कन्यासे पिसवाकर धतूरेके रसमें गोली बनाकर चन्द्रोदय होनेपर तिलक करनेसे संसार मोहित होता है। इस प्रकार १. भैरवपदमावतीकल्प, पद्य ९-१० ।
नाना प्रकारको औषधियोंको विभिन्न नक्षत्रों में विभिन्न योगों द्वारा तैयार करनेसे अनेक प्रकारकी सिद्धियोंका वर्णन आया है। दशम अधिकार गारुड अधिकार है। गारुड-विद्याके आठ अंग हैं—१. संग्रह, २. अंगन्यास, ३. रक्षा, ४. स्तोभ, ५. स्तम्भन, ६. विषनाशन, ७. सचोद्य और ८. खटिकामणिदशन । इन आठों अंभोंका विस्तारसे वर्णन आया है। इस ग्रन्यकी मन्त्र-तन्त्रविधिमें कुछ ऐसे अखाद्य पदार्थक प्रयोग भी बतलाये हैं, जिनका मेल जैनधर्मके आचार शास्त्रके साथ नहीं बैठता है, पर लौकिक विषय होनेके कारण इसे उचित माना जा सकता है।
इसका दूसरा नाम भारतीकल्प भी है । आरम्भमें कविने लिखा है
जगदीश जिनं देवभिवन्याभिशंकरम् ।
वक्ष्ये सरस्वतीकल्प समासेनाल्पमेधसाम् ॥२॥
अभयज्ञानमुद्राक्षमालापुस्तकधारिणी ।
त्रिनेत्रा पातु मां वाणी जटाबालेन्दुमण्डिता ।।२।।
लब्धवाणोप्रसादेन मल्लिषेणन सूरिणा।
रच्यते भारतीकल्पः स्वल्पजाप्यफलंबदः ।।३।।
स्पष्ट है कि कविने अभयज्ञानमुद्रावाली अक्षमालाधारिणी और पुस्तक ग्राहिणी, जटारूपी बालचन्द्रमासे मण्डित एवं त्रिनेत्रा सरस्वतीकी कल्पना की है । इस सरस्वतीके प्रमादसे व्यक्ति अपने मनोरथोंको पूर्ण करता है। यह सर स्वती अल्प जाप करनेसे ही सन्तुष्ट हो जाती हैं। इसमें ७५ पद्य हैं और साथमें कुछ गद्य भी है। यह भी पद्मावतीकल्पके साथ प्रकाशित है।
यह मन्यग्रन्थ है। इसकी प्रति सेठ माणिकचन्द्रजी, चम्बईके संग्रहमें है। इसमें १४ पत्र हैं और पाण्डुलिपि वि० सं० १५६२ की लिखी हुई है। यह ज्वालमालिनीकल्पसे भिन्न है।
यह भी मन्त्रसम्बन्धी ग्रन्थ है । इसके आरम्भ में लिखा है....
छन्दोलंकारशास्त्र किमपि न च परं प्राकृतं संस्कृतं वा ।
कायं तच्च प्रबन्ध सुविजनमनोरंजनं य: करोति ।।
कुर्वन्तुर्वीशिलादौ न लिखितं किल तद्याति यावत्समाप्ति ।
स श्रीमान्मरिलषेणो जयतु कविपतिर्वाग्वधूमण्डितास्यः ।।
स्पष्ट है कि कवि कलाका उद्देश्य मनोरञ्जनमात्र मानता है। वह छन्दो लंकार अथवा भाषासम्बन्धी किसी भी अनुबन्धको महत्त्व नहीं देता। वस्तुतः काव्यके लिए छन्द, धमापदि पाचश्या है मा मह । रसको ससी ही काव्यका प्राण है। चमत्कारके रहनेसे मनोरञ्जन और रसानुभूतिके होनेसे परमानन्दको प्राप्ति काव्यमें होती है।
मन्त्रका सम्बन्ध लोककल्याणके साथ है, आत्मकल्याणके साथ नहीं । तान्त्रिक विधियों द्वारा भी लोकानुरजन किया जाता है। अतएव मल्लिषेणने लोककल्याण और लोकरञ्जनके हेतु कामचाण्डालीकल्पकी रचना की है। इस कृतिकी पाण्डुलिपि बम्बईके सरस्वतीभवनमें है।
प्रवचनसारटीका, पंचास्तिकायटीका, बजपंजरविधान, ब्रह्मविद्या आदि कई मन्थ मल्लिषेणके नामसे उल्लिखित मिलते हैं। पर निश्चयपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि ये ही मल्लिषेण इन अन्धोंके भी रचयिता है। वजपंजर विधान और ब्रह्मविद्यामन्त्रग्रन्थ होनेके कारण इन मल्लिषेणके सम्भव हैं। बचपंजरविधानकी पाण्डुलिपि श्री जैन सिद्धान्त-भवन आरामें है।
गुरु | आचार्य श्री जिनसेन जी |
शिष्य | आचार्य श्री मल्लिषेण जी |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Mallishen11ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री मल्लीसेण 11वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 28 एप्रिल 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 28-April- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
उभयभाषाविचक्रवर्ती आचार्य मल्लिषेण अपने युगके प्रख्यात आचार्य हैं। इन्हें करिशेखरका बिरूवार या । गया."
भाषाद्वयकवितायां कवयो दर्प वहन्ति तावदिह ।
नालोकन्ति यावत्कविशेखरमल्लिषेणमुनिम् ॥
ये अपनेको सकलागमवेदी, लक्षणवेदी और तर्कवेदी भी लिखते हैं । आचार्य मल्लिषेणको कवि और मन्त्रवादीके रूपमें विशेष ख्याति है। ये उन अजितसेन की परम्परामें हुए हैं, जो गङ्गनरेश राचमल्ल और उनके मन्त्री तथा सेनापति चामुण्डरायके गुरु थे और जिन्हें नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने भुवनगुरु कहा है। मल्लिषेणके गुरु जिनसेन हैं और जिनसेनके कनकसेन तथा कनकसेनके अजितसेन गुरु हैं। मल्लिषेणने 'नागकुमारचरित'को अन्तिम प्रशस्तिमें जिन सेनके अनुज या सतीर्थ नरेन्द्रसेनका भी स्मरण किया है। नरेन्द्रसेननामके कई आचार्य हुए हैं। अतः निश्चितरूपसे यह नहीं कहा जा सकता कि यह नरेन्द्रसेन कौन हैं ?
तस्वानुजश्चास चरित्रवृत्तिः प्रख्यातकीति वि पुण्यत्तिः ।
नरेन्द्रसेनो जितवादिसेनो विज्ञातत्तत्त्वो जितकामसूत्रः ॥
प्रशस्तिके पांचवें पद्यमें मल्लिषेणने नरेन्द्रसेनको अपना गुरु भी लिखा है
सच्छिष्यो विबुधाग्रणीगणनिधिः श्रीमल्लषेणादयः।
संजातः सकलागमेषु निपुणो वाग्देवतालंकृतिः ।।
आचार्य मल्लिषेणने भारतीकल्प, कामचाण्डालीकल्प, ज्वालिनीकल्प और पपावतीकल्प ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों में अपनेको कनकसेनका शिष्य और जिनसेन का प्रशिष्य बतलाया है । असम्भव नहीं कि जिनसेन और उनके अनुज नरेन्द्रसेन दोनों ही मल्लिषेणके गुरु रहे हों-दोनोंसे भिन्न-भिन्न विषयोंका अध्ययन
१. वहस्सर्वशसिखि, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, पृ० १३० ।
२. जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ३१v |
३. नागकुमारचरित, प्रशस्ति, पब ४ ।
४. वही, पद्य ५।
किया' हो । भैरवपद्मावतीकल्पमें लिखा है
सकलनयमुकुटटितचरणयुगः श्रीमदजित्तसेनगणिः ।
जयतु दुरितापहारी, भन्यौघभवार्णवोत्तारी ।।
जिनसमयागमवेदी गरुतरसंसारकाननोच्छेदी ।
कन्धनदहनपटुस्तच्छिष्यः कनकसेनगणिः ।
चारित्रभूषिताङ्गी निस्सङ्गो मथितदुर्जनाऽनङ्गः ।
तच्छियो जिनसेनो बभूव भब्याजधर्मांशु: ।।
सदीयशिष्यों मुनिमल्लिषेण: सरस्वतीलब्धवरप्रसादः ।
तेनोदितो भैरवदेवतायाः कल्पः समासेन चतुःशतेन ।
वादिराजके समान मल्लिषेण भी मठाधिपति प्रतीत होते हैं । यतः इनके द्वारा चित्त मन्त्र-तन्त्रविषयक ग्रन्थों में स्तम्भन, मारण, मोहन, वशीकरण, अनंगा कर्षण मानिगोन महाधिपति महासासिस सानो है। उनके साहित्यसे ऐसा भी अनुमान होता है कि महस्थ शिष्यों के कल्याणके हेतु वे मन्त्र-सन्त्र और रोगोपचारमें प्रवृत्त रहे होंगे। परमविरक्त बनवासी मुनि इस प्रकारके प्रयोगों का विधान नहीं कर सकता है। इसमें सन्देह नहीं कि ये संस्कृतभाषा, साहित्य और मन्त्रवादके प्रसिद्ध आचार्य रहे हैं ।
आचार्य मल्लिषेणने अपने महापुराणको प्रशस्तिमें निम्नलिखित पद्य अंकित किया है
वर्षेक त्रिशताहीने सहस्र शकभुभूजः ।
सर्वजिद्वत्सरे ज्येष्ठे सशुक्ल पञ्चमीदिने ।।
अर्थात् ज्येष्ठ शुक्ला पञ्चमी शक सं० ९६९ ( ई० सन् १०४७ )को महा . पुराण समाप्त किया गया है ।
महापुराणको रचना धारवाड़ जिलेके मूलगुन्द नामक स्थानमें की गयी है। यह स्थान उक्त जिलेकी गदग तहसीलसे १२ मील दक्षिण पश्चिमकी ओर है। इस स्थानपर आज भी चार जैन मन्दिर हैं, जिनमें शक सं०८२४, ८२५, ९७५, ११९७.१२७५ और १५९७के अभिलेख है। एक अभिलेखमें आचार्य द्वारा सेन वंशके कनकसेन मुनिको एक खेतके दान देनेका भी उल्लेख है। आदरणीय
१. प्रशस्ति-संग्रह, प्रथम भाग, वीरसेवा मन्दिर, प्रस्तावना, पृ०६१।
२. भैरवपद्मावतोकल्प, सूरत संस्करण, प्रशस्ति, पा ५३-५६ ।
३. महापुराण, पद्य २ ।
श्री पण्डित नाथूरामजी प्रेमीका अनुमान है कि मल्लिाषणका मट भी इसी स्थानमें रहा होगा। ___ आचार्य बादिराजने 'न्यायविनिश्चविचरण'की अन्तिम प्रशस्तिमें नरेन्द्र सेनका उल्लेख किया है और वादिराजका समय शक सं०९४५ ( ई० सन् १०२५ ) है। ये नरेन्द्रसेन ही मल्लिषेण द्वारा गुरुरूपमें उल्लिखित हैं । अतः मल्लिषेणको वादिराजके समकालीन माना जा सकता है। मल्लिपेणक महा पुराणको रचना वादिराजके २२ वर्षके अनन्तर ही हुई है । अताएब मल्लिषेणका समय ई० सन्की ११वीं शताब्दी है।
उभयभाषाकविचक्रवर्ती मल्लिापेणको निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ध हैं।
१. नागकुमारकाव्य,
२. महापुराण,
३. भैरवपद्यावतीकल्प,
४. सरस्दतीमन्त्रकल्प,
५. ज्वालिनीकल्प,
६. कामचाण्डालीकल्प ।
इस खण्डकाव्य में ५ सर्ग और ५०७ पद्य हैं | इस काव्यमें नागकुमारका जीवन वर्णित है। काव्यके आरम्भमें बताया है कि जयदेव आदि कवियोंने गद्य पद्यमय रचनाएँ लिखी हैं, पर वह मन्दबुद्धिके लिए विषम है। मैं मल्लिषेण विद्वज्जनोंके मनको हरण करनेवाली उसी कथाको संस्कृत-पद्योंमें निबद्ध करता हैं। यथा
कविभिईयदेवाः गपंद्यविनिर्मितम् ।
यत्तदेवास्ति चेदत्र विषम मन्दमेधसाम् ।।
प्रसिहसंस्कृतैर्वाक्यचिद्वज्जनमनोहरम् ।
तन्मया पद्मबन्धेन मल्लिषेणेन रच्यते ।।
यह काव्य बहुत सरल, सरस और प्रवाहमय है। मानवीय सहृदयताका भाण्डार खुला हुआ है। जीवनको अन्तःचेतना तथा सौन्दर्य-भावना सत्यकी ओर अग्रसर करती है । घटना-वर्णन और दृश्य-योजनाके अतिरिक्त कविने नागकुमारका संघर्षपूर्ण जीवन चित्रित कर सांसारिकतासे निर्वाणकी ओर गतिशील होनेकी प्रेरणा दी है। काव्यमें मानवीय भावनाओंका चित्रण भी
१. महापुराण, पद्म २ ।
यथार्थ रूपमें घटित हुआ है। नागकुमारके जीवनको मर्मस्पर्शी घटनाओंका चमत्कारपूर्ण शैलीमें चित्रण किया गया है। इस काव्यमें श्रुतपञ्चमीव्रतके महात्म्यको बतलाने के लिए रोमांटिक कथा लिखी गयी है । मगधमें कनकपुरका राजा जयन्धर था। उसकी रानी विशालनेत्रासे श्रीधर नामका पुत्र उत्पन्न हुआ । एक व्यापारी सौराष्ट्रसे गिरिनगरकी राजकुमारीका चित्र लेकर आया । राजा उसपर मुग्ध हो गया । मन्त्रीको भेजकर उसने लड़कोको बुलवाकर विवाह कर लिया । नयी रानीका नाम पृथ्वीदेवी था। एक दिन राजा अन्तःपुरसहित जल-क्रीड़ाके लिए गया और मार्ग में अपनी सौतके वैभवको देखकर पथ्वीमती चिन्तित हुई और चुपचाप जिनमन्दिरमें चली गयी । स्तुति के पश्चात् वह मुनि का आदेश सुगरे लगी । मुगिने उराडे यहाथी पुर होनेकी भविष्यवाणी की। राजा वहाँ पहुँचा और रानीको लेकर घर चला आया। समय पाकर राजाको पुत्रलाभ हुआ। राजाने धूम-घामपूर्वक पुत्रोत्सव मनाया । बालक अत्यन्त प्रभावशाली था और बचपनसे ही उसके द्वारा आश्चर्यकारी कार्य होने लगे थे। एक बार वह बापीमें गिर गया, उसकी माँ भी उसमें गिर पड़ी, नीचे एक नागने उसे बचा लिया और इसीलिये उसका नाम नागकुमार पड़ा। यहींपर उसकी शिक्षा-दीक्षा सम्पन्न हुई । कुमार अब पूर्ण युबक हो चुका था। उसने गन्धर्व कुमारियोंको वीणावादनमें परास्त किया, जिससे वे कुमारियाँ उसपर मोहित हो गयीं और उसे उनसे विवाह करना पड़ा। एक दिन कुमार जलक्रीड़ाके लिए गया । माँ उसे कपड़े देने मयी थी, परन्तु उसकी सौतने उसे कलंक लगा दिया । राजा चुप रहा । राजाने कुमारके भ्रमण करनेपर रोक लगा दी। इस पर नयी रानी बहुत अप्रसन्न हुई। उसने नागकुमारको घूमनेके लिए प्रेरित किया । वह हाथो पर सवार होकर नगरमें निकला। उसे देखकर कितनी ही कुमारियां मुग्ध हो गयौं । अविभावकोंने राजासे शिकायत की। राजा बहुत नाराज हुआ। उसने कुमारकी मांक गहने और कपड़े छीनकर अधिकारसे बंचित कर दिया । कुमारको यह बुरा लगा। वह छूतघर गया और वहाँसे जुएमें उसने बहुत-सा धन जीता। राजकुमारको कला देखकर सभी आश्चर्य चकित थे । कुमारने दुष्ट गजे और अश्वको भी वश किया, जिससे कुमारका यश व्याप्त हो गया।
राजाने कुछ समयके लिए नागकुमारसे बाहर घूम आनेके लिए कहा । मथुरामें व्याल और महाव्याल दो राजकुमार थे। वे अपने मन्त्रीको राज्य देकर पाटलिपुत्रके राजा श्रीवर्माकी लड़कियोंके स्वयंवरमें गये। दोनोंके विवाह हो गये । उन्होंने मिलकर अपने ससुरके शत्रुको मार भगाया । छोटा भाई बहीं
पर रहा, पर बड़ा भाई नागकुमारसे भेंट करने कनकपुर आया । नागकुमारको देखते ही उसकी आँखें ठीक हो गयौं, तब वह कमारका रप्लक हो गया ! जब श्रीधरके आदमी नागकुमारको मारने आये, तो उसने उसे बचा लिया। वे दोनों मथुरा चले गये। कुमारने मथुरा में एक बेश्याका आतिथ्य स्वीकार किया। उसके कहने पर शीलवतीको राजाकी कैदसे मुक्त किया । महान्यालने भी इस मन्त्री राजासे अपना राज्य वापस ले लिया । वहाँसे कुमार कश्मीर गया । व्याल उसके साथ था। उसने कश्मीरनरेश नन्दकी पुत्री नन्दवतीको वीणा पराजित किया। नन्दवती इसपर मोहित हो गयी। दोनोंका विवाह हो गया। कुछ दिन रहकर उन्होंने हिमालयके भीतरी भागोंका भ्रमण किया ! वहाँ जिन मंदिर और गुहामन्दिरोंके दर्शन किये। भीलराजकी पत्नीका गुहराज भामा सुरसे उद्धार किया। ___ आगे बढ़नेपर कंचनगुहामें उसे सुदर्शना देवी मिली। उसने बहुत-सी विद्याएँ कुमारको दी । पहले ये विद्याएँ जिनशत्रुने सिद्ध की थीं, पर वह बाद में विरक्त हो गया। देवी योग्य अधिकारीको ये विद्याएं देकर प्रसन्न हुई। नागकुमार कई महत्त्वपूर्ण कार्य कर वहाँसे वापस लौटा। ___ अपने समस्त साथियोंके साथ चलता हुवा वह विषवनमें आया । यहाँ उसने भलसे विषले आम खा लिये, पर इन आमोंका कुप्रभाव उसपर न पड़ा। इस पर दुर्मुख भीलने ५०० योद्धाओंके साथ उसकी अधीनता स्वीकार की। इसके पश्चात् कुमारने राजा अरिवर्माकी सहायता की । विजयके उपलक्ष्य में उसने नागकुमारके साथ अपनी कन्या जयावतीका विवाह कर दिया । इतने में कुमार को एक लेखपत्र प्राप्त हुआ, जिसमें एक विद्याधरसे सात कन्याओंके उद्धारकी अभ्यर्थना की गयी थी। उसने विमानसे जाकर उन कन्याओंका उद्धार किया। पश्चात् कुमारसे उनका विवाह हो गया।
एक बार महाव्याल मदुरा पहुंचा। वहाँ वह बाजारमें भ्रमण कर रहा था कि राजकुमारी मलयसुन्दरी उसे देखकर मोहित हो गयी, पर वह झूठमूठ चिल्लाकर कहने लगी-"इसने मुझे रोक लिया है।" अनुचर सहायताके लिए आये, पर महाव्यालने उन्हें हरा दिया । मलयसुन्दरीका विवाह महाव्यालके साथ सम्पन्न हो गया । नागकुमारने उज्जयिनीकी कुमारी मेनकासे विवाह किया । बहाँसे महान्यालके साथ दक्षिण भारतकी यात्रा करने गया। उसने तिलकसुन्दरीको मृदंगवादनमें पराजित किया । तोयद्वीप पहुंचकर उसने वृक्ष पर लटकती हुई कितनी ही कन्याओंका उद्धार किया। महाँसे वह पाण्ड्यदेश पहुंचा। अन्तमें उसने त्रिभुवनतिलकद्वीपके मण्डलिक राजाकी सुकन्या लक्ष्मी
मतीसे विवाह किया । यह पृथ्वीश्वर नामक मुनिके दर्शन करने गया | विविध दार्शनिक और धार्मिक विचार सूननेके पश्चात् उसने नई पत्नीके प्रति विशेष आसक्तिका कारण पूछा । मुनिने कहा- तुम दोनोंने पिछले भवमें श्रुतपञ्चमी का व्रतानुष्ठान किया था, उसीका यह पुष्यफल है। तदनन्तर मुनिराजो श्रुतपंचमीके विधानका स्वरूप और महत्व समझाया। कुमार पिताके घर आ गया । कुमारको अभिषिक्त कर राजा जयन्धर तप करने चला गया। नाग कुमारने चिरकाल तक योग्यतापूर्वक राज्य किया और पश्चात् जिनदीक्षा धारण कर मोक्ष लाम किया।
नागकुमारका यह जीवन-चरित काव्यको दृष्टिसे विशेष उपादेय है । कुमार शरीरसे जितना सुन्दर है; बल, पौरुष और कलामें भी उतना ही अद्वितीय है। इसमें पञ्चमीव्रतके अनुष्ठानका फल वणित है।
इम पुराणमें ६३ शलाकापुरुषोंके चरित वर्णित हैं। समस्त पुराण २,००० श्लोकोंमें लिखा गया है। कोल्हापुरके लक्ष्मीसेन भट्टारकके मठमें इसकी एक प्रति कन्नड़ लिपिमें है। कविने रचनाके समाप्तिस्थानकी सूचना देते हुए अपने अन्यकी विशेषत्ताका संक्षेपमें उल्लेख कर दिया है । यथा
तीर्थं श्रीमुलगुन्दनाम्नि नगरे श्रीजैनधर्मालये।
स्थित्वा श्रीविचक्रवत्तियतिपः श्रीमल्लिषेणावयः ।।
संक्षेपात्प्रथमानुयोगकथनव्याख्यान्वित शृण्वताम्,
भध्यानां दुरितापहं रचितवान्निःशेषविद्याम्बुधिः ॥१॥
अर्थात् संक्षेपसे प्रथमानुयोगका कथन भव्य जीवोंके पापोंको नष्ट करने वाला है। इस पुराणमें महापुरुषके जीवन वृत्तोंको संक्षेपमें निबद्ध किया गया है। जो भब्य जीव इस पुराणका स्वाध्याय करेंगे उनका दुरिततम विच्छिन्न हो जायगा।
इस ग्रन्थमें ४०० अनुष्टुप् श्लोक हैं और १० बधिकार हैं। १. मंत्र-लक्षण, २. सकलीकरण, ३. देव्यर्चन, ४. द्वादशरञ्जिकामन्त्रोद्धार, ५. क्रोधादि स्तम्भन, ६ अंगना-आकर्षण, ७. वशीकरण यन्त्र, ८ निमित्त, २. वशीकरण और १७. गारूड़ तन्त्र । यह मन्त्रशास्त्रका प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसपर बन्धुषेण कृत संस्कृत-विवरण भी उपलब्ध है तथा इसी विवरणसहित इसका प्रकाशन भी हुआ है। समस्त ग्रन्थ आर्या और गीति छन्दमें लिखा गया है। मन्त्रीका तात्पर्य साधकसे है। साधक वही हो सकता है जो वीर, पापरहित, गुणोंसे
गम्भीर, मौनी और महाभिमानी हो । गुरुजनोंसे उपदेश पाया हुआ तन्द्रारहित, निद्राको जीतनेबाला और कम भोजन करनेवाला ही मन्त्रसाधक हो सकता है। साधकले अन्य लक्षणोंको बतलाते हुए लिखा है
निजितविषयकषायो धर्मामृतजनितहर्षगतकायः ।
गुरुवरगुणसम्पूर्णः स भवेदाराधको देव्याः ।।
शुचिः प्रसन्नो गुरुदेवभक्तो दृढव्रतः सत्य-दयासमेतः ।
दक्षः पटुझेजपदावधारी मंत्री भवेदीश एवं लोके ॥
जिसने विषय और कषायोंको जीत लिया हो, जिसके शरीरमें धर्मरूप अमृतसे उत्पन्न हर्ष भरा हो तथा जो सुन्दर सुन्दर गुणोंसे परिपूर्ण हो वह देवी का आराधक होता है । जो पवित्र, प्रसन्न, गुरु और देवहा नत, बढ़ सानाला दयाल, सत्यभाषी, बुद्धिमान, चतुर और बीजाक्षरोंका निश्चय करनेवाला हो, ऐसा व्यक्ति हो लोकमें मन्त्री हो सकता है ।
सकलीकरणकी क्रियामें अंगशुद्धिकी मान्त्रिक विधि दी गयी है और मन्त्रों में शत्रुता एवं मित्रताका निश्चय किया गया है। तृतीय परिच्छेदमें मन्त्रोंके साधनकी सामान्यविधि वर्णित है। दिशा, काल, मुद्रा, आसन एवं पल्लवोंके भेदोंका वर्णन भी आया है। वशीकरण, आकर्षण, उच्चाटन आदि मन्त्रोंको किस आसन और दिशामें सिद्ध करना चाहिए, इसका भी वर्णन आया है।
आह्वानन, स्थापन, सन्निधिकरण, पूजन और विसर्जनको पंचोपचार कहा गया है । पद्यावतीके एकाक्षर, षडक्षर, त्र्यक्षर आदि मन्त्र भी दिये गये हैं। ___चतुर्थ परिच्छेद में विभिन्न मन्त्र, यन्त्र और बीजाक्षरोंका कथन किया गया है। पञ्चम परिच्छेदमें स्तम्भन मन्त्रीका कथन आया है और जल, तुला, सर्प तथा पक्षी स्तम्भनके मन्त्रों और यन्त्रोंका निर्देश किया गया है । षष्ठ परिच्छेद में इष्टांगनाकर्षणयन्यविधि दी गयी है और चार यन्त्रोंका निर्देश आया है । इस प्रकरणमें कई मन्त्र भी हैं। सप्तम परिच्छेदमें ज्वर आदि रोगोंके उपशमन हेतु अनेक यन्त्र दिये गये हैं । इन यन्त्रोंको धारण करनेसे अनेक प्रकारको सिद्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। अष्ठम परिच्छेद निमित्ताधिकार है। इसमें अनेक प्रकारके मन्त्र और यन्त्र आये हैं। नवम परिच्छेद तन्त्राधिकार है। इसमें लवंग, केशर, चंदन, नागकेशर, श्वेतसर्षप, इलायची, मनसिल, कूट, तगर, श्वेत कमल, गोरोचन, लाल चन्दन, तुलसी, पचाख ओर कुटज आदि द्रव्योंको पुष्य नक्षत्र में लाकर कुमारी कन्यासे पिसवाकर धतूरेके रसमें गोली बनाकर चन्द्रोदय होनेपर तिलक करनेसे संसार मोहित होता है। इस प्रकार १. भैरवपदमावतीकल्प, पद्य ९-१० ।
नाना प्रकारको औषधियोंको विभिन्न नक्षत्रों में विभिन्न योगों द्वारा तैयार करनेसे अनेक प्रकारकी सिद्धियोंका वर्णन आया है। दशम अधिकार गारुड अधिकार है। गारुड-विद्याके आठ अंग हैं—१. संग्रह, २. अंगन्यास, ३. रक्षा, ४. स्तोभ, ५. स्तम्भन, ६. विषनाशन, ७. सचोद्य और ८. खटिकामणिदशन । इन आठों अंभोंका विस्तारसे वर्णन आया है। इस ग्रन्यकी मन्त्र-तन्त्रविधिमें कुछ ऐसे अखाद्य पदार्थक प्रयोग भी बतलाये हैं, जिनका मेल जैनधर्मके आचार शास्त्रके साथ नहीं बैठता है, पर लौकिक विषय होनेके कारण इसे उचित माना जा सकता है।
इसका दूसरा नाम भारतीकल्प भी है । आरम्भमें कविने लिखा है
जगदीश जिनं देवभिवन्याभिशंकरम् ।
वक्ष्ये सरस्वतीकल्प समासेनाल्पमेधसाम् ॥२॥
अभयज्ञानमुद्राक्षमालापुस्तकधारिणी ।
त्रिनेत्रा पातु मां वाणी जटाबालेन्दुमण्डिता ।।२।।
लब्धवाणोप्रसादेन मल्लिषेणन सूरिणा।
रच्यते भारतीकल्पः स्वल्पजाप्यफलंबदः ।।३।।
स्पष्ट है कि कविने अभयज्ञानमुद्रावाली अक्षमालाधारिणी और पुस्तक ग्राहिणी, जटारूपी बालचन्द्रमासे मण्डित एवं त्रिनेत्रा सरस्वतीकी कल्पना की है । इस सरस्वतीके प्रमादसे व्यक्ति अपने मनोरथोंको पूर्ण करता है। यह सर स्वती अल्प जाप करनेसे ही सन्तुष्ट हो जाती हैं। इसमें ७५ पद्य हैं और साथमें कुछ गद्य भी है। यह भी पद्मावतीकल्पके साथ प्रकाशित है।
यह मन्यग्रन्थ है। इसकी प्रति सेठ माणिकचन्द्रजी, चम्बईके संग्रहमें है। इसमें १४ पत्र हैं और पाण्डुलिपि वि० सं० १५६२ की लिखी हुई है। यह ज्वालमालिनीकल्पसे भिन्न है।
यह भी मन्त्रसम्बन्धी ग्रन्थ है । इसके आरम्भ में लिखा है....
छन्दोलंकारशास्त्र किमपि न च परं प्राकृतं संस्कृतं वा ।
कायं तच्च प्रबन्ध सुविजनमनोरंजनं य: करोति ।।
कुर्वन्तुर्वीशिलादौ न लिखितं किल तद्याति यावत्समाप्ति ।
स श्रीमान्मरिलषेणो जयतु कविपतिर्वाग्वधूमण्डितास्यः ।।
स्पष्ट है कि कवि कलाका उद्देश्य मनोरञ्जनमात्र मानता है। वह छन्दो लंकार अथवा भाषासम्बन्धी किसी भी अनुबन्धको महत्त्व नहीं देता। वस्तुतः काव्यके लिए छन्द, धमापदि पाचश्या है मा मह । रसको ससी ही काव्यका प्राण है। चमत्कारके रहनेसे मनोरञ्जन और रसानुभूतिके होनेसे परमानन्दको प्राप्ति काव्यमें होती है।
मन्त्रका सम्बन्ध लोककल्याणके साथ है, आत्मकल्याणके साथ नहीं । तान्त्रिक विधियों द्वारा भी लोकानुरजन किया जाता है। अतएव मल्लिषेणने लोककल्याण और लोकरञ्जनके हेतु कामचाण्डालीकल्पकी रचना की है। इस कृतिकी पाण्डुलिपि बम्बईके सरस्वतीभवनमें है।
प्रवचनसारटीका, पंचास्तिकायटीका, बजपंजरविधान, ब्रह्मविद्या आदि कई मन्थ मल्लिषेणके नामसे उल्लिखित मिलते हैं। पर निश्चयपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि ये ही मल्लिषेण इन अन्धोंके भी रचयिता है। वजपंजर विधान और ब्रह्मविद्यामन्त्रग्रन्थ होनेके कारण इन मल्लिषेणके सम्भव हैं। बचपंजरविधानकी पाण्डुलिपि श्री जैन सिद्धान्त-भवन आरामें है।
गुरु | आचार्य श्री जिनसेन जी |
शिष्य | आचार्य श्री मल्लिषेण जी |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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